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________________ तीर्थङ्कर महावीर तथा महात्मा बुद्ध : व्यक्तिगत सम्पर्क १६५ 'राजा शुद्धोदन और महिषी महामाया के घर लुम्बिनीवन है कि बुद्ध और उनका कुल जैन धर्म में दीक्षित रहा है। में हुआ था। बाल्यावस्था का नाम सिद्धार्थ था। सोलह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में भगवान महावीर और बुद्ध के वर्ष की अवस्था में सिद्धार्थ का यशोधरा के साथ वैवाहिक व्यक्तिगत सम्पर्क जानने के लिए यह एक मूल कड़ी है। सम्बन्ध हो गया। यशोधरा पुत्रवती भी हो गई परन्तु आचार्य देवसेन के कथन से यह बात और भी स्पष्ट हो सिद्धार्थ का मानसिक संघर्ष रोका नही जा सका । फलतः जाती है। उन्होंने लिखा है कि बुद्ध पिहिताश्रव नामक उन्होंने २० वर्ष की अवस्था मे प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। जैन मुनि के शिष्य थे जिन्होंने उन्हे पार्श्वनाथ परम्परा लगभग छह वर्षों तक उस समय प्रचलित सभी धर्मों में मे दीक्षित किया और बुद्धकीर्ति नाम रखा । परन्तु कुछ दीक्षित होकर सिद्धि प्राप्त करने का प्रयत्न किया समय बाद मत्स्य, मासादि का भक्षण कर लेने से उन्हें संघ किन्तु असफल होने पर मध्यम मार्ग की कल्पनापूर्वक से निष्कासित होना पड़ा और लाल कपड़े पहिन कर आचार-विचार के माध्यम से सिद्धि-प्राप्ति मे सफलता उन्होंने अपना पृथक रूप से संघ स्थापित किया। इसे ही प्राप्त की। तभी से धर्म प्रचार-प्रसार करते हुए भगवान बुद्ध ८० वर्ष की आयु मे परिनिवृत्त हुए। बौद्ध धर्म का नाम कालान्तर में दे दिया गया। महात्मा बुद्ध का परम्परा गत धर्म क्या था, यह कहना उभय महापुरुषों का काल : म. महावीर और म० बुद्ध दोनों महापुरुपो का काल कठिन है। लेकिन अनुमानत: ऐसा लगता है कि वे पार्श्व अभी तक विवादास्पद बना हुआ है। विद्वान् महावीर नाथ परम्परा के अनुयायी रहे होंगे । नामों के आधार पर का परिनिर्वाण ४६८ ई. पू. से लेकर ५४६ ई. पू. तक संस्कृति विशेष का ज्ञान हो सकता है। शुद्धोदन (शुद्ध रखते है और बुद्ध का परिनिर्वाण ४८७ ई. पू. से लेकर प्रोदन - शुद्धभात) अर्थात शुद्ध भोजन करने वाले, सिद्धार्थ ५४४ ई.पू तक सोचते है। अधिकांश विद्वान् महावीर (सिद्ध हो गया है प्रर्थ-प्रयोजन-मुक्ति-प्राप्ति जिसका), का परिनिर्वाण ५२७ ई. पू. और बुद्ध का परिनिर्वाण महामाया (संसार-भ्रमण में महिलाओं को कारण मान ४८३ ई. पू. मानते है। इस विषय में यहाँ विस्तार से कर उनके लिए माया आदि शब्दों का प्रयोग किया गया नही कहा जा सकता, परन्तु इतना तो अवश्य है कि यह है।) आदि नाम है जिनसे प्राभासित होता है कि वे जैन काल यदि स्वीकार किया गया तो मानना होगा कि पालि धर्म के पालक रहे होगे। लिच्छवि और वज्जिगणो में त्रिपिटक में पाये प्रायः सभी उल्लेख उत्तरकालीन है और पार्श्वनाथ का धर्म पर्याप्त रूप से लोकप्रिय हो गया था। गढ़े हुए प्रतीत होते है । इस सन्दर्भ मे यह भी उल्लेखनीय बद्ध का भी उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध था। पालि त्रिपिटक है कि जैन पागम मूलत: बुद्ध के विषय में कोई विशेष में बद्ध ने सभी सम्प्रदायों की कड़ी पालोचना की परन्तु सूचनायें नहीं देता। उत्तरकालीन वृत्ति. नियूक्ति आदि निगण्ठ नातपुत्त के प्रति उन्होंने प्रादर प्रदर्शित किया। मे अवश्य उल्लेख मिलते है।" जैनागम और बौद्धागम के दीघनिकाय में अचेल कस्सप के नाम पर कुछ ऐसी तप उल्लेख परस्पर कालक्रम की दृष्टि से उक्त कालगणना में स्थानों के रूपों का उल्लेख मिलता है जिनको श्रमण विपरीत सिद्ध होते है । इसलिए यदि महावीर का परिब्राह्मण अपनाये हुए थे । मज्ज्ञिम निकाय' में कहा निर्वाण ५४५ ई. पू. और बुद्ध का परिनिर्वाण ५४३ ई. गया है कि इन सभी तपस्याओं का भगवान बद्ध ने बोधि प. स्वीकार किया जाय तो बहुत कुछ गुत्थियाँ सुलझ प्राप्त करने के पूर्व अभ्यास प्राप्त किया था। बाईस प्रकार जाती है। के उन विभिन्न तप-रूपों को मूलाचार आदि ग्रन्थो में महावीर के वर्षावास और विहार-स्थल : विधि-निषेध आदि के रूप में देखा जा सकता है। इसके ठाणांग सूत्र में महापद्मचरित्र के प्रसंग में महावीर के विस्तार में जाना यहाँ उचित नहीं। परन्तु इतना निश्चित विषय में लिखा है कि मैने तीस वर्ष यता ७. तं च पनम्हाक रुच्चति चेव खमति च तेन चाम्ह १. मज्झिम निक प्रत्तमना ति, मज्झिम निकाय, प्रथम भाग पृ. ६३ । १०. दर्शनसार ८-६ । ८. दीघनिकाय, प्रथम भाग, पृ. १६६ । ११. सूत्रकृताग नियुक्ति, श्रुतस्कंध द्वितीय, पत्र नं. १३४-१३६
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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