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________________ ११८, वर्ष २८, कि०१ अनेकान्त सत्रों एवं तिब्बती मे पनदिन मूत्र का अध्ययन एक ओर जैन मूत्रो एव शास्त्रों में तीर्थधर की बातें ठीक-ठीक उसी हा तो दूसरी ओर सम्पूर्ण भारतीय धर्म एव दर्शन का रूप में पूरी की पूरी सुरक्षित हैं, ऐसी बात नहीं है। फिर भी गम्भीर अध्ययन हुआ। भारतीय प्राच्य विद्या एव भी बौद्ध धर्म के पूर्व अथवा शाक्यमुनि के युग की चीजों बौद्ध दर्शन के ख्यातनामा विद्वान एक पर एक इस क्षेत्र मे को प्रस्तुत करने के अतिरिक्त शाक्यमुनि के सुधार के प्राये। इन विद्वानो में प्रो० ऊइ अग्रगण्य है। अभी जीवित, सम्बन्ध मे परिचय रखने वाली महत्वपूर्ण सामग्री है।" काम मे लगे विद्वानों में प्रो० हाजिमे नाकामरा का नाम इसिभासियाई में वौद्ध पात्र : सबसे ऊपर है। जैन धर्म एवं दर्शन का अध्ययन जापानी विद्वानों के भारतीय धर्म एवं दर्शन के अध्ययन में जैन धर्म एव लिए एक विशेष का महत्व का है। यह शिक्षा की दृष्टि दर्शन का भी अध्ययन हुग्रा । जापान के विश्वविद्यालयों से मात्र विषय को जानने के लिए ही नहीं, बल्कि उसके में बौद्ध धर्म के साथ जैन धर्म के अध्ययन की भी व्यवस्था अपने बौद्ध धर्म, दर्शन एवं सस्कृति के स्रोत को अच्छी है। जैन धर्म का अध्ययन जापानी विद्वानो के लिए एक तरह समझने, उसके इतिहास की टी शृखला को जोड़ने विशेष महत्त्व रखता है। भगवान महावीर भगवान बुद्ध एव अस्पष्ट स्थलो के स्पष्टीकरण में उपयोगी है। मात्सुके समकालीन एवं एक ही कार्यक्षेत्र के होने के कारण जैन नामी जी ने इसिभासियाइं को अनुवाद के लिए चुना, धर्म और बौद्ध धर्म का उद्भव और विकास परस्पर के कारण इसमे हिन्दू और जैन ऋषियो के साथ वौद्ध भिक्षुमो संदर्भ में पादान-प्रदान, खण्डन-मण्डन से हुप्रा । जैन एवं बौद्ध साहित्य में पाये देवों की सूक्तियों भी है। ये शास्त्रों में बौद्ध धर्म के सम्बन्ध में वैमी सामग्रिया है जो सूक्तियाँ बौद्धो के लिए विशेष सामग्री है जो बौद्ध साहित्य स्वयं बौद्धो के बीच लुप्त हो गई है। उदाहरण के लिए में नही है। अनुवाद के क्रम में कुछेक ऋषियो का साम्य पुद्गलबादी (प्रात्मवादी) बौद्ध सम्प्रदायो के शास्त्र प्राज बौद्ध भिक्षुषों एव बौद्ध साहित्य में वणित देवों के साथ उपलब्ध नहीं है, पर तत्त्वार्थसंग्रह भाष्य में पुदगलवाद की उन्होने बैठाया है। ये ऋषि इस प्रकार है-महत ऋषि सूत्रों एवं शास्त्रों के उद्धरण सहित च र्वा है । स्वयं पुद्गल नारद (१)-बौद्ध परम्परा में भी कई नारद हैं । लेकिन शब्द जो बौद्ध-धर्म में सम्पूर्ण व्यक्ति का बोध कराता है, जैन धर्म में मात्र भौतिक तत्त्व के लिए प्रयुक्त है। पुद्गल इस नारद की मूक्तियो की विपय वस्तु का मेल वहाँ नहीं शब्द दोनों धर्मो मे एक ही स्रोत से प्राता है, पर उनके बैठता है। भिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों के सदर्भ मे इसका अर्थ एव अर्हत, ऋषि वज्जियपुत्त (२) पालि त्रिपिटक के पर्याय भिन्न हो गई है। इस प्रकार परस्पर सम्बन्धित थेरी गाथा में सम्मिलित भिक्षु वज्जिपुन (वृजिपुत्र) है होने के कारण ये दोनों धर्म शिक्षा की दृष्टि से जानने जो वत्मिपुत्र से भिन्न है । प्रो० सुवरिंग ने वत्सीपुत्र किया और समझने में एक-दूसरे के पूरक है। इस तथ्य को है। महंत मुनि असितदेविल (३) बौद्ध परम्परा के असित जापानी विद्वानों ने अच्छी तरह पहचाना है एव इसी को देवल है जो ब्राह्मण मुनि थे। अहंत ऋषि अंगरिसि मात्मनामी जी ने अपने शब्दों में इस प्रकार रखा है भारहाइ (४) बौद्ध परम्परा के अगणिक भारद्वाज है जो "जैन धर्म से सम्बद्ध शोधकार्य में जिन पहलमो पर सबसे ब्राह्मण थे, पर बौद्ध धर्म में प्रवजित हो गये। थेर गाथा अधिक अभिरुचि है, उनमे एक है सहचर बौद्ध धर्म के में इनका भी नाम है। अर्हत ऋषि वगलचीरी (६) बौद्ध साथ तुलना । वर्तमान में सुरक्षित बौद्ध धर्म के मूल सूत्री, परम्परा के बखली है। ये भी थेर गाथा के भिक्षणों में उत्तरी परम्परा का प्रागम और दक्षिणी परम्परा का एक ह। निकाय से बद्ध के जो वचन थे, उन्हे विश्वसनीय रूप से अहंत ऋपि महाकासाव (8) बौद्धो के महाकस्सप बाहर निकालना संभव नही है, यह निश्चित हो चुका है। थेर है जो धर्म सेनापति सारिपुत्त, जिसका नाम पीछे '. इसलिए जनो के सूत्रो के अध्ययन की - अावश्यकता-है। • पाया है और मोग्गल्लान की मृत्यु के बाद संथ के अग्रणी ।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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