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________________ इसि-भासियाई-सूत्र का जापानी अनुवाद श्री चन्द्र शेखर प्रसाद जापान में जैन धर्म का अध्ययन : इसका लेखा-जोखा अभी तक नहीं लिया गया है। इस एम० मात्सुनामी का इसिभासियाई सत्र का जापानी उपेक्षा का कारण बौद्ध धर्म एवं भारतीय संस्कृति की अनुवाद जापान के क्यूस विश्वविद्यालय से १९६७ में प्रादान में जापान का भारत से संधि सम्बन्ध का प्रभाव प्रकाशित हया। मात्मनामी जी का जापानी अनवाद मात्र हो रहा है। इसके अतिरिक्त एक और सबल कारण है। संयोग नहीं है । धर्म एव दर्शन के अध्ययन मे लगे जापानी थियेन थाई नामक चीनी बौद्ध सम्प्रदाय के तीसरे सघविद्वानों ने जैन धर्म के अध्ययन की एक विशेष अावश्यकता नायक, जो बड़ी विचक्षण बुद्धि के थे, बौद्ध सूत्रो का का अनुभव किया है। उनके इस विशेष आवश्यकता के मूल्याकित विभाजन किण और बद्ध द्वारा उपदेशित अनुभव का एक इतिहास भी है। जापान के अधिकतर अागमों (पालो निकायो) को सबसे निम्न कोटि मे रखकर लोग बौद्ध है एवं वहां की सभ्यता एव सस्कृति के विकास साधारण बुद्धि वालों के लिए उपदेशित सूत्र बतलाया। मे बौद्ध धर्म की प्राधारमूलक भूमिका है। वहां बौद्ध धर्म इस विभाजन का दुष्प्रभाव यह हुआ कि पागम सूत्रों की का प्रचार सीधे भारत से नहीं, बल्कि कोरिया और चीन केवल उपेक्षा ही नहीं हुई, बल्कि उनके पठन-पाठन का से हरा एव उसके विकास मे भी चीन में विकसित बौद्ध मिलमिला भी चीन एव जापान मे अवछिन्न हो गया। धर्म स्रोत का काम करता रहा । परन्तु बौद्ध धर्म के साथ वर्तमान युग मे इन मूत्रो में जापान के विद्वानों की अभिरुचि भारतीय सभ्यता और सस्कृति भी वहाँ पहुची। भारतीय पुन. बढी है जिसे प्रो० मस्तानी के शब्दो मे इन सूत्रों का सभ्यता और सस्कृति की छाप वहा की भाषा, रीति- भाग्योदय कहेंगे । रिवाज, दैनिक जीवन प्रादि सभी क्षेत्रो में प्राज भी अभिरुचि के बढ़ने का भी कारण है। पश्चिमी देशो स्पष्ट दिखती है । उदाहरण के रूप में जापानी वर्णमाला के सम्पर्क में प्राने पर पश्चिमी देशों की तकनीक से प्रभाकोले सरकत वर्णमाला मे अक्षर जिम ध्वनिक्रम मे है, म नीगोमखी जापान तिमी Ratni मम्मति उसी ध्वनिक्रम में जापानी वर्णमाला में प्रक्षरो को सजाया की उन्नत चीजो को अपने देश में लाने और अपनाने मे गया है। सम्पूर्ण जापान में मनाया जाने वाला उत्सव एजुट हो गया। धर्म एव दर्शन के अध्ययन-अध्यापन का 'बोन' भारतीयो का पितृपक्ष ही है जिसमे पूर्वजो की याद क्षेत्र भी अछता न रहा। शोधकार्य एव पर्यालोचनात्मक एव सम्मान में उत्सव मनाया जाता है। यह उत्सव तुलनात्मक अध्ययन का पश्चिमी ढग अपनाया गया। इस उलम्बन सूत्र के नाम पर जापानी उच्चारण में बदलकर क्रम में बौद्ध विद्वानों की दृष्टि चीनी वौद्ध धर्म की पोर उराबोन कहलाया जिसे सक्षेप में लोग साधारणत. बोन से हटाकर, बौद्ध धर्म की भारत में उत्पत्ति और विकास कहते है। इस सूत्र में मौद्गलायन के, अपनी माता की तथा उसकी पृष्ठभूमि की ओर जा लगी। भारतीय धर्मसद्गति के लिए किये प्रयत्नो का वर्णन है। ऐसे अनेक दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान यानेजाकी ने लिखा है कि अगर उदाहरण है जिनको गिनाने की तीव्र इच्छा का सवरण पूर्वी देशो में विकसित बौद्ध धर्म फूल और पराग हैं तो कर रहा हूँ। दक्षिणी देशों का बौद्ध धर्म शाखायें और पत्तियाँ। फूल जापान में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की उस छाप और पराग की चमक में हम मूल को भला नही सकते। में कितना अंश जैन धर्म और जैन धर्मावलम्बियों का है जापान में पुनः बौद्ध बचनो का मूल स्रोत प्रागमों, सस्कृत -
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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