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________________ महावीर स्वामी : स्मृति के झरोखे में १२९ वर्धमान महावीर को दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व जीवंत मध्य प्रदेश के लखनादौन (सिवनी जिला) से उपस्वामी के नाम से जाना जाता था। उक्तावधि में चूकि वे लब्ध महावीर की एक अद्वितीय कलात्मक प्रतिमा अभी राजकीय वेशभूषा से सुसज्जित थे, अत शिल्पियो में उन्हें हाल ही में प्राप्त हुई है। भगवान महावीर की प्रतिमा उसी वेशभूषा मे प्रदर्शित किया है। जीवत स्वामी की वे गन्छको के रूप में प्रदर्शित केश-विन्यास उष्णीषबड गुप्त-युगीन दो प्रतिमायें बड़ौदा संग्रहालय मे सुरक्षित है। दष्टि नासिका के अग्रभाग पर स्थित है। प्रशांत नयन, है।" राजकीय परिधान में होने से उनकी पहचान सुगमता मन्दर भवे, नासिका के नीचे मदस्मित मोठ, ऐसा प्रतीत से हो जाती है। होता है कि मानो भगवान् महावीर की अमृतवाणी जैसे उत्तर गुप्तकाल मे जैन कला से सबंधित अनेक केन्द्र प्रस्फुटित होना ही चाहती है । सुगठित विबुक, चेहरे की थे। इस काल में कला तांत्रिक भावना से प्रोत प्रोत थी भव्यता एवं गरिमापूर्ण रचना शिल्पियों की श्रेष्ठता के जिसका स्पष्ट प्रभाव तत्कालीन प्रतिमानो के अवलोकन परिचायक है । कर्ण लम्बे है जिन पर कर्णफुल शोभित हो से स्पष्ट परिलक्षित होता है । यद्यपि इस युग में कलाकारों रहे हैं । उर्ध्व भाग में विक्षत्र है जिसमें मोतियों की पांच का कार्य-क्षेत्र विस्तृत हो गया था, परन्तु वे प्रतिमा-निर्माण लटकने है । त्रिछत्र के नीचे तीन पदमों से गुम्फित त्रिछत्र में स्वच्छंद नहीं थे अपितु वे अपनी रचनाओं को प्रतिमा- है। मस्तक के पृष्ठ भाग में प्राभामण्डल है। उक्त प्रतिमा शास्त्रीय ग्रंथों के आधार पर ही रूप प्रदत्त करते थे। उक्त सौम्यमुद्रा में ध्यानमग्न चार-चार स्तम्भों से निर्मित सिंह बंधन के फलस्वरूप मध्ययुगीन जैनकला निष्प्राण-सी हो पीठिका पर पद्मासनारूढ़ है। प्रतिमा का प्राकार ४' गई थी । उत्तर गुप्तयुगीन जैन कला की एक प्रमुख विशे- २" है। विवेच्य प्रतिमा प्रतिमाशास्त्रीय अध्ययन के षता जो हमें परिलक्षित होती है, वह है कला मे चौबीस दृष्टिकोण से ८वीं सदी की ज्ञात होती है। नीडरों की यक्ष-यक्षिणी को स्थान प्रदत्त किया जाना। मध्य प्रदेश के यशस्वी राजवंश कलचुरियों के काल मध्यकालीन जैन प्रतिमानो में चौकी पर पाठ ग्रहो में उनकी धार्मिक सहिष्णुता के फलस्वरूप अन्य मतों के की प्राकृति का अंकन हिन्दुओं के नवग्रहों का अनु- साथ ही जनधर्म भी फला-फुला । उनके समय में जैनधर्म करण ही है। इस युग में मध्य भारत, बिहार, उड़ीसा एवं कला का अधिक प्रसार हुआ। तथा दक्षिण में दिगम्बर मत का प्राधान्य हो गया था। कलचुरिकालीन कारीतलाई से प्राप्त एवं सम्प्रति पाषाण के अतिरिक्त घातु प्रतिमायें भी निमित की जाने रायपुर संग्रहालय में संरक्षित, तीन फुट पांच इंच ऊँची लगी थीं। महावीर की प्रतिमा कलात्मक दृष्टि से उच्चकोटि की है। मथुरा संग्रहालय (क्रमाक ५३६) मे संरक्षित मथुरा भगवान महावीर ऊँचे सिंहासन पर उत्थित पद्मासन में के ही गूजर घाटी से उपलब्ध एक मध्ययुगीन चित्रण में ध्यानस्थ बैठे हुए है। केश धुंघराले एव उष्णीषबद्ध तथा कायोत्सर्ग मद्रा में खड़ी मुख्य प्राकृति को अन्य २३ तीर्थ- हृदय पर धीवक्ष चिह्नाकित है। प्रभाचक्र की दक्षिण हुर प्राकृतियों से वेष्ठित प्रदर्शित किया गया है । बहुत पाच पट्टी पर उनके परिचारक सौधर्मेन्द्र खड़े है । अन्य संभव है कि मध्य में अवस्थित मूलनायक की प्राकृति तीर्थङ्कर की चार पद्मासन स्थित प्रतिमायें भी हैं । धर्मचक्र महावीर का अंकन करती हो। उच्च चौकी के मध्य भाग में स्थित है जिसके ऊपर उनका ११. U. P. Shah : Akota Bronzes, P. 26-28. १२. Haihyas of Tripuri and their Monuments: R. D. Banerji%; कलचुरि नरेश और उनका काल : डा. मिराशी; धुबेला संग्रहालय की जैन प्रतिमायें : शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अगस्त १९७२ कलचुरि-कला में शासन देवियाँ : शिवकुमार नामदेव अनेकांत, मई-जून १६७२; कलचुरिकाल में जैनधर्म-शिवकुमार नामदेव, भनेकांत, जुलाई-अगस्त १९७२
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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