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७४, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
समय समय पर परीक्षा निया करते थे। सेना में सर्वप्रथम के काव्यमय वर्णनो में प्राकार, अट्टालिका, गोपुर, देवकुल, पदाति, उसके पश्चात् क्रमशः अश्व, हस्ति तथा रथसेना धवलप्रामादो, पारामो, उद्यानो, विहारो आदि के वर्णन होती थी। शुभ मुहूर्त मे युद्ध के हेतु प्रस्थान किया जाता है। नगर के चारों और परिखा से घिरा हुमा सुधाधवल था। शत्रुसेना के पाने पर मार्ग में जो गाँव पड़ते थे, प्राकार होता था। नगर त्रिक, चतुष्क, चर्चर, चतुर्मुख, उन्हें खाली कर दिया जाता था, कुएँ ढक दिए जाते थे, महापथ, पथ आदि भागो द्वारा सुविभक्त रहता था। परिखायें जल से परिपूर्ण कर ली जाती थी। विविध भवन मे शालभनिकाये होती थी। इनके छज्जो को शस्त्र तीक्ष्ण कर लिए जाते थे। योद्धानों का सम्मान मत्तवारण कहा जाता था। तलघर को भूमिगृह कहा किया जाता था। दुर्गों को खाद्य पदार्थ तथा ईधन से परिपूर्ण जाता था। प्रासाद गप्नभूमिक भी हुया करते थे। कर लिया जाता था। समुद्र तटों को विषम (दु सचरणीय) मक्ता-निर्मित जिन-प्रतिमाओं के उल्लेख है । पाषाण, किया जाता था। सरोवरों का पानी अपेय कर दिया मालिका बोर काट को मतियां बनाई जाती जाता था। राजा स्वयं भी युद्ध करने जाते थे, पर शक्ति- वाद्यो के तथा संगीतकला के वर्णन मिलते है। मदनशाली राजा अपने सेनापतियो को ही भेजते थे। यद्ध में। महोत्सव या शारदीय पूणिमा के अवसर पर चर्चरी गीत विजय प्राप्त होने पर जयस्तम्भ गाडे जाते थे तथा जय- या रासक नत्य होने थे। डंका बजाये जाते थे। राजा का श्वेत हाथी जयवारण, विविध रंगी से कागज, वस्त्र, काष्ठ तथा भित्तियों जयकुंजर या पट्टहस्ति कहलाता था। सन्धि होने पर शस्त्र पर चित्र बनाये जाते थे । चित्रकला में रेखा की विशुद्धता, लौटा दिये जाते थे। राज्याधिकारियों में अमात्य, मन्त्री, वर्णो का सन्दर सामजस्य तथा प्रमाणों की यूक्तता का दण्डाधिप, सामन्त, अक्वदलियो, निउत्तपुरिस, चारपुरिस, ध्यान रखा जाता था। मणियो के चूर्ण का प्रयोग चित्र कटकपाल, पारखियपुरिस, कोतवाल, पुग्थेष्ठि, मुकियालोय, की रचना में किया जाता था। पातार, महाश्वपति, पदातिसेनाका अधिपति, स्यन्दनाधिपति
इस युग में काव्यकला के प्रति भी लोगो का आदरप्रायुधशालापालक, कारणिक, सेनाधिप प्रादि होते थे। भाव था। श्रेष्ठ सभापित पर थेप्ठि एक लाख मुद्रा भी राजा के पांच सौ तक मन्त्री होने का उल्लेख है। विविध प्रदान कर देते थे। विद्वत्ता की परीक्षा समस्यापूर्ति द्वारा प्रायुधों के उल्लेख मिलते है। चोरी के अपराध मे प्राण- की जाती थी। दण्ड दिया जाता था। अपराधी को यमगण्डिका पर बैठा.
इस प्रकार हम देखते है कि प्राकृत कथा-काव्यों ने कर नगर मे घुमाया जाता था। प्रसन्नता के अवसरो पर साहित्यिक, सामाजिक और सास्कृतिक क्षेत्र मे एक अविबन्दियो को छोड़ दिया जाता था।
स्मरणीघ निधि देश को सौप दी है। इनमे देश का सहस्रों ललितकलायें इस समय उन्नत अवस्था मे थी। नगर वों का जीवन विशद् रूप में उपलब्ध होता है। श्री कस्तूरबा कन्या महाविद्यालय, गुना ।
उदभावना किसी ने कहा- मच्छर बहुत हो गए हैं, बड़ा दुःखी करते हैं। इनको नष्ट करने की कोई बवा बतायो । मनुष्य भी बहुत हो गए हैं। इन्होंने जानवरों को और नन्हें जन्तुषों को बड़ा दु खो कर रखा है। उनके जंगल-घोंसले-जाले साफ करवा दिये, उन्हें मरवा डाला, उनके छेदन भेदन किए, उनको पीटा, कैद किया, परन्तु जानवरों ने कभी नहीं सोचा कि ये मनुष्य बहत हो गये हैं। इनको नष्ट करने की कोई योजना बनाएं। क्या मानव जीव-जन्तुओं से भी अधिक क्रूर है ?
X प्रकाश से कोई भी प्रकाश ले ले -प्रकाश बढ़ जाता है। दीपक से दीपक जला लो प्रकाश बढ़ जाता है। दर्पण दीपक के प्रकाश से हिस्सा बटा लेता है तो प्रकाश बढ़ जाता है। ज्ञान भी बंटाने से बढ़ता है।
- श्री महेन्द्र सेन जैन
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