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________________ महावीर तथा नारी १६९ भगवान् महावीर ने धर्म-तीर्थ के लिए चतुर्विध संघ- धाम रहता है, वह दुखी रहता है।" ऐसे अनेकानेक मुनि, प्रायिका, श्रावक तथा श्राविका की व्यवस्था की। प्रसंग विभिन्न धार्मिक तथा सामाजिक ग्रन्थों में मिलेंगे। सारे पारिवारिक तथा धार्मिक संस्कारों मे श्रावक तथा इनका पुरुष-समाज पर व्यापक प्रभाव पडा और नारी के श्राविका की स्थिति तथा स्तर समान है। इस सत्य से प्रति पुरुष-संस्कार बहुत क्रूर और अमानवीय बने ।। मुख नहीं मोडा जा सकता । पारिवारिक व्यवस्था, चाहे पारिवारिक स्थिति के अतिरिक्त उस काल में नारी वह किसी भी मस्कृति की हो, पुरुष-प्रधान है । कुछ को चेटिका, दामी, गणिका तथा वेश्या के रूपों को भी अपवादों को छोड़ कर पुरुष-प्रधान-व्यवस्था को ही ग्रादर्श धारण करना पड़ा। अधिकाश में यह परिस्थितियां नारी माना गया है। यह कट सत्य है कि गहम्थ-जीबन मे नागे की स्वेच्छा से उत्पन्न नहीं हुई परन्तु पुरुष-प्रधान समाज का जो अभ्यत्थान होना चाहिए था, वह नही हो पाया ने अपने शारीरिक तथा प्राधिक बल के कारण अपनी है । नारी स्वयं भी मोहग्रस्त रही है और इस व्यवस्था स्वार्थ-पूर्ति के लिए उन पर थोप दी । तुलसी दास जी की को उसने ग्रानन्द और हर्ष से स्वीकार किया है। यह निम्न पक्ति से नारी की सामाजिक बिबशता तथा पर. जन-साधारण की बात है परन्तु कुछ राजा तथा धेष्ठि- वशता का आभास होता है। परिवार इसके अपवाद हो सकते है। "कत विधि सजी नारि जग माहि। । नारी के विभिन्न रूप पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं ॥ . पुरुप के व्यक्तिगत तथा सामाजिक मे जीवन हमें नारी "हे विधाता तूने, औरत की रचना ही क्यों की? के विभिन्न रूप प्राप्त होते है। जैसे -- पत्री बहिन, पत्नी, पराधीन व्यक्ति को सपने में भी सुख नहीं मिलता।" । दमः यक म्पों में समाज नारी-जीवन की विवशता पर रोना पाता है। उपर्यत तथा पुरुष प्रभावित हसा है और वह स्वयं भी अनेक रूपों पक्तियाँ नारी के अन्तर्मन की व्यथा व्यक्त कर रही है। तथा स्थितियो से प्रभावित हुई है । नारी की दृष्टता की । दरता की नारी जीवन के बोझ को अनमने-पन से स्वयं न जी कर चरम सीमा का चित्रण भी है तथा उसकी विशालता, दूसरा के लिए जी रही थी। ऐसी परिस्थिति में भी पूरषकोमलता और प्रेम की उदात्तता के चित्र भी देखने को ममाज उसके मातृत्व की महिमा का गान करके लाभ उठाने से नही चुका । मा से अपेक्षा की गई कि पुत्र चाहे स्त्रियो के चरित्र के सम्बन्ध में सम्मग जातक (बौद्ध कपूत ही निकले परन्तु माता कभी कुमाता नहीं होती है। ग्रन्थ) मे कहा है कि धन्य है नारी, उसने इसे भी अक्षरश. पूरा किया। सुरक्खित मेत्ति कथं न विस्ससे । साध्वी-व्यवस्था अनेक चितासु न हत्यि रखना। परन्तु उसे मिला क्या? क्या कभी उमके अन्तर्मन एतादि पाताल पपात सन्निभा। को शान्ति मिल पायी ? क्या समाज ने समझा कि ऐमी एत्थथ मत्तो व्यसनं निञ्छति ॥ भीषण स्थिति उसमे जीवन के प्रति बंगग्य पैदा नहीं कर "यदि कोई समझता है कि मैंने अपनी स्त्री को सकती। नारी इस वैषम्य से ऊब उठी थी। इस सूत्रकालीन सुरक्षित रखा हुया है तो वह भ्रम में है। उसका कभी व्यवस्था के विरोध मे जो क्रान्ति हुई, उससे नारी ने विश्वास नही करना चाहिए। स्त्री की बुद्धि बहुत ही भिक्षुणी व्यवस्था को स्वीकार किया। वह व्यवस्था नारी चंचल होती है, उसकी रक्षा नहीं की जा सकती है। के प्रति प्रादर के भाव जागृत कर सकी और नारी-जीवन उसका स्वभाव तो झरने की तरह होता है जो बराबर का विशिष्ट अग बन गई। ऊपर से नीचे की ओर ही गिरता रहता है। ऊपर उठना वैदिक-साहित्य में भिक्षणी-साध्वी तथा संन्यासिनी उसके लिए सर्वथा असम्भव है। नीचे गिरना ही उमका या उससे मिलती-जुलती किसी भी ऐसी व्यवस्था का स्वभाव और धर्म है। जो भी व्यक्ति उसके प्रति प्रसाव- उल्लेख नहीं मिलता है। वैदिक युग में साध्वियों का मिलते है।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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