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________________ १६०, वर्ष २८, कि० १ पशु तथा घृत पशु से काम लिया जाने लगा।" दशवीं सूचक शब्द से सम्बोधित कराया है। इस प्रकार, पति शताब्दी में विरचित यशस्तिलकचम्मू से भी विदित होता प्राचीन काल से विक्रम की पाठवी शताब्दी तक प्रयोग है कि महाराज यशोधर ने अपनी माता के प्राग्रह से प्राटे मिलता है। अतः इसे केवल बौद्ध साहित्य की ही देन के मुर्ग की बलि दी थी। कहना भ्रम है। प्रशोक द्वारा अभिलेखों में इसका प्रयोग इतिहासकारों का अभिमत है कि अशोक ने इन अभि- जैन संस्कृति के अनुकूल ही है। लेखों को राज्याभिषेक के बारहवें वर्ष अर्थात २७२-१२ चतुर्दश प्रभिलेख -२६० ई०प्र० में उत्कीर्ण कराया था, क्योकि वे ढाई वर्ष गिरनार, कालसी, शहवाज गढ़ी, मानसेहरा, धोली मौर डेढ वर्ष की गणना कलिंग विजय से करते है । परन्तु तथा जौगाड़ा में से प्रत्येक जगह एक-एक शिलाखंड पर ऐसा करना युक्तिसंगत नही है, क्योंकि अभिलेखो में चतुर्दश अभिलेख उत्कीर्ण है। घोली और जोगाड़ा के १२, १३३, १९वें, २६वें वर्ष आदि का उल्लेख है। यह नख है । यह शिलाखंड पर एकादश, द्वादश तथा त्रयोदश अभिलेख नहीं गणना राज्याभिषेक से की जाती है। कलिंग विजय से हैं। इनके स्थान पर दो पृथक्-पृथक् अभिलेख है। परन्तु इसकी गणना करने का कोई औचित्य ही नहीं है । राज्या- इन छहों शिलाखंडों के अभिलेखो में विषय की दष्टि से भिषेक से गणना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रशोक समानता है, अर्थात गिरनार के प्रथम अभिलेख का जो ने इन अभिलेखों को उस समय उत्कीर्ण कराया जब कि विषय है, शेष पांचों शिलाखंडों के प्रथम अभिलेख का वह जैन धर्म का अनुयायी था, अतः वे अभिलेख जैन भी यही विषय है। यही बात अन्य अभिलेखो के सम्बन्ध संस्कृति के प्रतीक है। में भी चरितार्थ होती है। इनमे से प्रथम चार मभिलेख देवानां प्रिय राज्याभिषेक के १२वें वर्ष में उत्कीर्ण कराये गये है। कलिंग शडा-इन सभी प्रभिलेखों में देवानां प्रिय का विजय से सम्बन्धित अभिलेख १३वां है । यदि इन समस्त उल्लेख है" और यह बौद्ध साहित्य की देन है, क्योंकि भलेखों का निर्माता अशोक होता. तो महत्त्व तथा समय वैदिक साहित्य में इसका अर्थ "मूर्ख" है । अतः यह बात चक्र की दष्टि से कलिंग अभिलेख को प्रथम स्थान मिलता। समझ मे नही पाती कि जैन होकर भी अशोक ने बौद्ध अतः यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रथम बारह अभिलेखो साहित्य के इस शब्द का प्रयोग इन अभिलेखो में क्यों के निर्माता अशोक के पूर्वज है। इनमें से प्रथम, चतुर्थ किया ?१५ तथा पंचम अभिलेखों का मूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करने समाधान-'देवाना प्रिय' यह शब्द केवल बौद्ध . पर भी यही निष्कर्ष निकलता है कि इनका प्रशोक की साहित्य की ही देन नही है। जैन साहित्य में भी इस मेला सके पर्वजो से कहीं अधिक सम्बन्ध है। पादरसूचक शब्द का प्रयोग साधारण जनता से लेकर राजा प्रथम अभिलेख में यज्ञों में पशुबलि, हिसात्मक उत्सव महाराजाओं तक के लिए मिलता है। उदाहरणार्थ महा- तथा मांस भक्षण का निषेध है। यज्ञो मे पशुबलि तथा हिंसाराज सिद्धार्थ अपनी रानी त्रिशला को "देवाणुप्पिया" त्मक कार्यों की तो जैन और बौद्ध दोनों ही धर्मों में समान तथा सभासदों को 'देवाणुप्पिए' कह कर सम्बोधित करते रूप से निन्दा की गई। परन्तु बौद्ध धर्म में मांस भक्षण है । ऋषभ ब्राह्मण भी अपनी पत्नी देवानन्दा के लिए का निषेध नही है। स्वय भगवान बुद्ध का शरीरान्त भी देवाणुप्पिया का प्रयोग करता है। वीर निर्वाण सम्वत् मास भक्षण के निमित्त ही हुपा था। इसके विपरीत १२०६ मे विरचित पद्मपुराण में भी रविषेणाचार्य ने गौतम जैन धर्म में मांस भक्षण की घोर निन्दा करते हुए मांसगषधर द्वारा राजा श्रेणिक को "देवानां प्रिय' इस प्रादर भक्षी को नरकगामी की संज्ञा दी गई है। अशोक के पूर्वज १३. राजतरंगिणी, पृष्ठ ३९ १५. कहा जाता है कि भगवान बुद्ध ने सुपर के मांस का १४. कलिंग विजय राज्याभिषेक के माठवें वर्ष की भक्षण किया था, उन्हें अतिसार का रोग हुप्रा और घटना है। परिणाम स्वरूप उनका शरीरान्त हुमा ।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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