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________________ भारतीय संस्कृति में अरहन्त की प्रतिष्ठा 0 डा. हरीन्द्र भूषण 'परहंत' जैन धर्मावलम्बियों के परमाराध्य देव है। भरहंत शब्द का प्रति प्राचीन इतिहास है। जैनइसी कारण अनादिनिधन मंत्र में इन्हें सर्वप्रथम नमस्कार वाङ्मय के प्रति प्राचीन ग्रन्थों में तो इस शब्द का प्रयोग किया गया है -'णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं ।' अरहंत हमा ही है, किन्तु वैदिक बौद्ध एवं संस्कृत वाङ्मय में भी शब्द प्राकृत है। इसका संस्कृत रूप है 'महत्' । 'प्रहपूजा- इस शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है। याम्' अर्थात्-पूजार्थक 'अहं' धातु से 'प्रहः प्रशंसायाम्' पाणिनि-सूत्र से प्रशंसा अर्थ में 'शत्' प्रत्यय होकर 'महत्' बंरिक-वाङ्मय में महंत शब्द । शब्द निष्पन्न होता है। प्रथमा के एक वचन में 'उगिदचर्चा प्राचार्य विनोबा भावे ने ऋग्वेद के एक मंत्र का उख' सर्वनामस्थाने घातो.' पाणिनि-सूत्र से 'नुम्' का पागम रण देते हुए जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध की है। वे कहते होकर 'महन्' पद बनता है। सम्बोधन एक वचन में भी हैं ~'ऋग्वेद में भगवान की प्रार्थना में एक जगह कहा गया हावद 'अर्हन' रूप बनता है। है-'अहंत् इदं दयसे विश्वमम्बम्' (ऋग्वेद २.३३.१०)प्राकृत भाषा में 'शत' प्रत्यय के स्थान पर 'न्त' प्रत्यय हे महत्, तुम इस तुच्छ दुनिया पर दया करते हो। इसमें होकर 'प्रहंत' रूप बनता है। साथ में प्राकृत व्याकरण के महत् और दया दोनों जनों के प्यारे शब्द हैं। मेरी तो 'इ:श्री ह्रीक्रीतक्लान्तक्लेशम्लास्वप्नस्पर्शहहिंगषु'(प्राकृत मान्यता है कि जितना हिन्दू धर्म प्राचीन है शायर उतना प्रकाश ३.६२), सूत्र के अनुसार रह के मध्य इकार का ही जैन धर्म प्राचीन है। मागम होकर 'अरिहंत' तथा प्राकृत की परम्परा के अनु ऋग्वेद का उपर्युक्त मंत्र इस प्रकार हैसार प्रकार का प्रागम होकर 'प्ररहंत' रूप प्राकृत भाषा अर्हत् विभर्षि सायकानि में बनते हैं। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्राकृत भाषा मे इसका धन्वाहन्निष्कं यजत विश्व रूपम् । एक रूप 'प्ररुह भी प्रयोग किया है-'प्राहा सिद्धायरिया' प्रहन्निदं दयसे विश्वमम्बं न वा प्रोजीरो रूद्र त्वदन्यदस्ति ।। (भोक्त पाहुड ६१०४) सम्भवत: इस अरुहा शब्द पर तमिल का प्रभाय हो। 'प्रतिष्ठातिलक के कर्ता प्राचार्य नेमिचन्द्र ऋग्वेद के उपर्युक्त मंत्र से प्रत्यन्त प्रभावित प्रतीत होते हैं। उन्होंने प्रकार हैं उपयुक्त मंत्र के प्रायः समस्त पदों को ग्रहण करके भईन्त संस्कृत महंत के गुणों का निम्न प्रकार विस्तार से वर्णन किया हैप्राकृत परहंत तथा परिहत 'महंत विमर्षि मोहारिविध्वंसिनयसायकान् । पालि मरहन्त अनेकान्तद्योतिनिधिप्रमाणोदारधनुः च ।। जैन शौरसेनी ततस्त्वमेव देवासि युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । मागधी अलहंत तथा मलिहंत दष्टेष्टवाधितेष्टाः स्युः सर्वकान्तवादिनः ।। भपभ्रंश पमहतु तथा पलिहतु पहन्निष्कमिवात्मानं बहिरन्तर्मलक्षयम् । तमिल माह विश्वरूपंच बिश्वार्थे वेदितं लभसे सदा ।। अव्हत. माह पहंन्निदं च दयसे विश्वमभ्यंतराश्रयम् । १. प्राचार्य विनोबा भावे-श्रमण संस्कृति, पृ. ५७ २. प्राचार्य नेमिचन्द्र प्रतिष्ठातिलक १७४-७५
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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