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________________ १६, वर्ष २८, कि०१ अनेकान्त ११. दक्खिकलग-गंगा के दक्षिण तट पर रहने वाले। औपपातिक सूत्र में ही प्राजीविक श्रमणों के सात १२. उत्तरकुलग-- गगा उत्तर तट पर रहने वाले। प्रकार वताये गये हैं-दुधरंतरिया (दो घर छोड़कर १३. संखधमक--शंख बजाकर भोजन करने वाले । भिक्षा लेने वाले, तिघरतरिया, सताघरंतरिया, उप्पल१४. कुलधमक-किनारे पर खड़े होकर अावाज कर वेंटिया (कमल के डंठल खाकर रहने वाले), घरसमभोजन करने वाले। दाणिय (प्रत्येक घर से भिक्षा लेने वाले), विज्जुअंतरिया (विद्यतपात के समय भिक्षा न लेने वाले) तथा उट्टिय१५. मियलुदय-पशु भक्षण करने वाले । समण किसी बड़े मिट्टी के वर्तन में बैठकर तप करने १६. हत्थितावस-हाथी को मार कर एक वर्ष तक उसे वाले) । इनके अतिरिक्त प्रत्तुवकोसिय, परपरिवाइय खाने वाले। तथा भूइकम्मिय श्रमण भी थे । सात निहृवों १७. उडुडंडक-दण्ड को ऊपर कर चलने वाले । का भी यहाँ उल्लेख करना आवश्यक है-बहुरय १५. दिसापोक्खी-दिशा सिञ्चन करने वाले । जीवपएसिय ( प्रवर्तक -तिस्यगुप्त ), प्रवत्तिय १६ वक्कपोसी-वल्कल पहनने वाले । (प्रवर्तक-प्राविढाचार्य), सामुच्छेइय (संस्थापक-प्रश्व२०. अंबुवासी-जलवासी। मित्र, दोकरिया (प्रवर्तक-गगाचार्य), तेरासिया (रहि२१. बिलवासी-विल में रहने वाले । गुहा सस्थापक) तथा प्रवद्धिय (सस्थापक माहिल) ये २२. वेलवासी-समुद्र के किनारे रहने वाले । मूलतः किसी न किसी सम्प्रदाय से सम्बद्ध प्राचार्य थे। २३. रुक्खमूलिया- वृक्ष के नीचे रहने वाले । पागम साहित्य में श्रमणों के पांच भेद भी दिये गये है। २४. अंबुभक्खी (जलभक्षी), वायभक्खी और सेवालभक्खी। निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरिक और प्राजीविक। इनमें से प्राज निर्ग्रन्थ और शाक्य ही शेष रहे है । इसी सूत्र में प्रवजित श्रमण का अलग से उल्लेख इस प्रकार पालि-प्राकृत-संस्कृत साहित्य में षड्दर्शनों किया गया है। संखा (साख्य), जोई (योगी), कविल के अतिरिक्त प्राचीनकाल में विशेषतः भ० महावीर के (कपिल), भिउच्च (भगु ऋषि के अनुयायी), हस (वन- काल में अनेकवादों का विवरण मिलता है। परन्तु उनका बासी पर भिक्षार्थ ग्रामभ्रमण करने वाले), परमहस (नदी मूल मैद्धान्तिक साहित्य उपलब्ध नही होता। सम्भवत: तटवासी तथा वस्त्रादि छोड़कर प्राण त्याग करने वाले), अधिकांश उक्तवादों का कोई विशेष साहित्य था भी नहीं; बहुउदय (गांव में एक रात और नगर में पांच रात रहने अन्यथा उनका उल्लेख अवश्य मिलता। इसलिए प्रतीत वाले), कुडिब्बय (गृहवासी तथा रागादि त्यागी), वृण्ह होता है कि ये वाद अधिक प्रभावक सिद्ध नही रहे होंगे परिव्यायग (कृष्ण परिव्राजक) उनमें प्रमुख है। ब्राह्मण । जाल तथा यह भी सभव है कि उनका जीवन काल अधिक नहीं परिव्राजकों में कण्ड, करकण्ड, अंबड, परासर, कण्हदीवा रहा होगा। प्रावश्यकता यह है कि इस विषय पर गंभीर यण, देवगुप्त और णारय तथा क्षत्रिय परिव्राजकों मे शोध की जाय और उनके समूचे सिद्धान्त विविध साहित्य सेलई, ससिहार, णग्गई, भग्गई, विदेह, रायाराय प्रमुख है। से एकत्रित कर भारतीय संस्कृति में उनके स्थान का ये परिव्राजक वेदवेदांग में निष्णात, स्नानादि में विश्वास निर्णय किया जाय । मानव के लिए उनकी कहाँ तक करने वाले, सादे ढंग से रहने वाले अनर्थदण्ड से विरत उपयोगिता है, इसका भी मूल्यांकन किया जाना अपे. रहने वाले थे। क्षित है। अध्यक्ष पाली-प्राकृत विभाग 00 नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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