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________________ १८वर्ष २८, कि०१ नृसुरासुरसंघातं मोक्षमार्गोपदेशनात् ॥ 'वेदान्ताहतसांख्यसौगतगुरुयभक्षादिसूक्तादृशो।" ब्रह्मासुरजयी वान्यो देश रुद्रस्त्वदस्ति ।। 'ब्राह्मशवं वैष्णवं च सौरं शाक्तं तथाहतम् ।" 'हे अहंन् ! माप मोह-शत्रु को नष्ट करने वाले 'नय' शरीरपरिमाणो हि जीव इत्याहंतामन्यन्ते।" रूपी बाणों को धारण करते हो तथा अनेकान्त को प्रका संस्कृत साहित्य के मूर्धन्य कवि कालिदास ने अपने शित करने वाले निर्बाध प्रमाण रूप विशाल धनुष के काव्य-नाटकों में अनेकत्र 'महत्' का प्रयोग किया है । धारक हो। युक्ति एवं शास्त्र से अविरुद्ध वचन होने के कार भाप ही हमारे माराध्य देव हो। सर्वथा एकान्तवादी रघुवंश में, राजा रघु गुरुदक्षिणाभिलाषी कौत्स ऋषि को सम्बोषित करते हुए कहते हैं-हे महत, माप दो तीन हमारे देवता नहीं हो सकते ; क्योंकि उनका उपदेश प्रत्यक्ष दिन ठहरने का कष्ट करें तब तक मैं मापके लिए गुरुएवं अनुमान से बाधित है। दक्षिणा का प्रबन्ध करता हूं'हे महन, माप ऐसी प्रात्मा को धारण करते हो जो द्वित्राण्यहान्यर्हसि सोढ महेन् यावद्यते साधयितु निष्क अर्थात् प्राभूषण या रल की तरह प्रकाशमान है, - त्वदर्थम् । बाह्य भोर मन्तः मल से रहित है और जो समस्त विश्व रघुवंश में एक अन्य स्थान पर कालिदास अर्हत् को के पदार्थों को एक साथ निरन्तर जानता है। हे मर्हन, नयचा विशेषण देकर सम्भवतः उनके प्रमाण एव नयो माप मनुष्य, सुर एवं असुर सभी को मोक्षमार्ग का उपदेश सभा 1 उपदश के ज्ञातृत्व की पोर सकेत करते हैदेते हो; अतः विम्ब पर दया-भाव से परिपूर्ण हो पाप से 'प्रर्हणामहंते चक्रुमुनयो नयचक्षुष ।" पन्य कोई और ब्रह्म अथवा प्रसुर को जीतने वाला बलवान् शाश्वतकोष तथा शारदीय नाम माला में महत् शब्द देवता नहीं है।' 'जिन' का पर्यायवाची कहा गया है। ऋग्वेद में अन्य स्थानों पर भी महंत पद का प्रयोग मिलता है 'स्तादहन जिनपूज्ययोः ।। 'पहन देवान् यक्षि मानुषत् पूर्वो प्रध।" 'तीर्थकरो जगन्नाथो जिनोऽर्हन भगवान् प्रभुः।" 'महन्तो ये सुदानवो नरो प्रसामि शव सः ।" अमरकोषकार ने प्रर्हत् को मानने वाले लोगों को प्रहन्ता चित्युरोदधे शेव देवावर्तते ।" भाईक, स्याद्वादिक तथा पार्हत् कहा है। ऋग्वेद के उपयुक्त उद्धरणों से ऐसा प्रतीत होता है 'स्यात् स्याद्वादिक प्रार्हक: प्रार्हत इत्यदि।" कि ऋग्वेद काल में जैन धर्मावलम्बी महन्त की उपासना प्राचार्य हेमचन्द्र प्रर्हत् को पदार्थ का यथार्थ वर्णत करते थे। करने वाले परमेश्वर कहते हैंवराहमिहिरसंहिता, योगवासिष्ठ, वायुपुराण तथा 'यथास्थितार्थवादी च देवोऽहत् परमेश्वरः । ५ ब्रह्मसूत्रशंकरभाष्य में भी पर्हत् मत का उल्लेख हनुमन्नाटक में कहा गया है कि जैन शासन के मानने मिलता है। वाले अपने ईश्वर को महंत कहते हैं'दिग्वासास्तरुणो रूपबांश्च कार्योऽहंतांदेवः।" पहन्नित्यथ जैनशासनरतः कर्मेति मीमांसकाः ।" ३. ऋग्वेद-२६५।२२।४१ १०. रघुवंश ५।२५ ४. वही- ४१३।६।५२१५ ११. वही ११५५ ५. वही-३८६५ १२. शाश्वतकोष-६४१ ६. वराहमिहिर संहिता ४५४५८ १३. शारदीयास्य नाममाला-हर्षकीतिः, ६ ७. वाल्मीकि, योगवासिष्ठ ६।१७३१३४ १४. अमरकोष २०७।१८ (वणिप्रभा टीका) ८. वायुपुराण १०४१६ १५. हेमचन्द्र, योगशास्त्र २-४ ६. ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य, २।२।३३ १९. हनुमन्नाटक १,३
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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