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श्रमण-साहित्य : एक दृष्टि
"पोष्ट
- मुनि श्री दुलहराज जी
भगवान महावीर का जीवन-काल ई. पूर्व छठी- श्रमण-साहित्य की संज्ञा दी।' इस श्रमण-साहित्य में पांचवीं शताब्दी [B.C. 527-455] था। उस समय चौदह पूर्व, क्रियावाद, प्रक्रियावाद, नियतिवाद भादि अनेक मत प्रचलित थे। सभी धर्म-प्रवर्तकों का अपना- सिद्धान्तों को पोषण देने वाला साहित्य समाविष्ट हुमा। अपना साहित्य था। सारा साहित्य चार भागों में विभक्त जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य में इस प्राचीन 'श्रमण या।
साहित्य' की झांकी उपलब्ध होती है। डा० विन्टरनिट्ज (१) श्रमण साहित्य ।
ने लिखा है-In the Sacred texts of the Jainas, (२) ब्राह्मण साहित्य ।
a great part of the ascetic literature of ancient (३) बौद्ध-साहित्य ।
India is embodied, which has also left its (४) जैन साहित्य ।
traces in Buddhist literature as well as in the इन चार विभागों में प्रथम विभाग 'श्रमण-साहित्य'
Epics and the Puranas. Jaina literature is, ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
therefore, closely connected with the other उस काल में सभी संप्रदाय दो भागों में विभक्त थे
branehes of post vedic religious literaturc. (१) वैदिक संप्रदाय (२) श्रमण संप्रदाय ।
"मागम साहित्य में प्राचीन भारत के श्रमण साहित्य वैदिक संप्रदाय के अन्तर्गत ईश्वरवादी तापस प्रादि ' का बहुत बड़ा भाग है । श्रमण-साहित्य का कुछ प्रश बौद्ध पाते थे और श्रमण-संप्रदाय में जैन, बौद्ध, प्राजीवक, साहित्य तथा पौराणिक काव्यो में भी मिलता है। प्रतः त्रिदण्डी प्रादि-पादि संप्रदाय माते थे। वैदिक मान्यता के जैन-साहित्य वेदों के उत्तरवर्ती वैदिक धर्म-साहित्य से प्रतिनिधि प्रन्थ वेद सबसे प्राचीन माने जाते थे। बहुत संबधित है।" कालानुक्रम से उनके ऋषि-महर्षियों ने बाहाण, महाभारत प्रादि ग्रन्थों में अनेक स्थल ऐसे है जिनसे पारण्यक, उपनिषद्, कल्प-सूत्र आदि की रचना की यह स्पष्ट विबित होता है कि उसमे प्रतिपादित धर्म
और वैदिक साहित्य को अपनी उपलब्धियों से समृद्ध रहस्य ब्राह्मणेतर-परम्परा का है।' यह ब्राह्मणेतर परम्परा किया। महात्मा बुद्ध के उपदेशो को संग्रहीत कर बोड- श्रमण-परम्परा से अतिरिक्त नहीं है। मनीषियों ने उसे त्रिपिटक की संज्ञा दी। भगवान महा- भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध सम-सामयिक वीर की वाणी का संग्रह करके जैन महषियों ने उसे अंग थे। उनका कार्य क्षेत्र एक था। राजगृह, नालन्दा, वैखाली
और अंग-बाह्य भागम के रूप में उपस्थित किया। यह श्रावस्ती, पाटलिपुत्र प्रादि-आदि नगर इनके प्रचार के निर्ग्रन्थ-प्रवचन कहलाया। भगवान् महावीर और महात्मा केन्द्र थे। अतः यह स्वाभाविक था कि उनकी साधनाबद्ध से पूर्व जो वैदिकेतर साहित्य था, उसे श्रमण-साहित्य' पबति भी कई समान रेखामों पर बली। प्राचार और कहा गया। प्रो०ई० ल्यूमेन ने इसे परिव्राजक-साहित्य विचार की कुछ समानतामों का प्रतिबिंब उनके साहित्य कहा मौर डा० विन्टरनिट्ज ने इसे (ऐसेटिक लिटरेचर) में प्राज भी उपलब्ध होता है । इन समानतामों के माधार
2. Jainas in Indian iiterature Page 6,7.
1. Some Problems of Indian literature-Asce-
gic literature of ancient Indta Page 21.