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________________ उड़ीसा में जैन धर्म एवं कला १०५ है कि त्रिशूल (त्रिरत्न का सूचक) वर्धमानक, स्वस्तिक, साथ ही इस क्षेत्र मे शंव और वैष्णव धर्मों के बढ़ते हुए नन्दिपद मोर वेदिका के अन्दर वृक्ष जैसे प्रतीक अन्य धर्मों प्रभाव के फलस्वरूप भी जैन धर्म का प्रभाव क्रमशः क्षोण में भी समान रूप से प्रचलित थे। खारवेल के अभिलेख हो रहा था। का विशेष योगदान केवल तीर्थकर मूर्ति की प्राचीनता से ह्वेनसांग ने सातवीं शती में कलिंग में जैन धर्म के सम्बन्धित उल्लेख के सन्दर्भ में है। विद्यमान होने का उल्लेख किया है । पुरिय या पुरी इनके अतिरिक्त इन्हीं पहाडियों पर स्थित अनन्तगुम्फा का भी जैन ग्रन्थों मे जैन धर्म के केन्द्र के रूप में उल्लेख रानीगुम्फा एवं गणेश गुम्फा भी लगभग ई० पू० १५० से प्राप्त होता है। पुरी जिले में स्थित यह क्षेत्र जीवित५०ई० पू० के मध्य उत्कीर्ण की गई। अनन्त गुम्फा के स्वामी (जीवंत स्वामी) प्रतिमा के लिए ज्ञात था पौर प्रत्येक प्रवेश द्वार पर तीन फणो से युक्त दो सौ का यहाँ अनेक श्रावक रहते थे। पावश्यक नियुक्ति एवं चूर्णि चित्रण सम्भवतः उसके पार्श्वनाथ से सम्बन्धित होने का के अनुसार जब वरस्वामी पुरी पधारे थे, तब यहाँ का सूचक है, जिनका कलिंग से सम्बन्धित होना विभिन्न ग्रंथो शासक बौद्ध धर्म का अनुयायी था और बौद्धों एवं जैनों के से प्रमाणित है। साथ ही रानी एवं गणेश गुफाओं मे सम्बन्ध अच्छे नहीं थे । शलोद्भव शासक धर्मराज (लगउत्कीर्ण विस्तृत दृश्यावली को भी सामान्यत: पाश्र्वनाथ भग छठी-सातवीं शती) के बाणपुर लेख में उल्लेख है कि के जीवन दृश्य से सम्बन्धित किया जाता है. पर डा. उसकी रानी कल्याण देवी ने धार्मिक कृत्य के लिए जैन वासुदेव शरण अग्रवाल द्वारा सुझाया वासवदत्ता एवं शकु साधु को भूमि दान दिया। न्तला के जीवन दृश्यों से पहचान ज्यादा मान्य है, क्योकि उपलब्ध ग्रन्थों में उस काल तक पार्श्वनाथ के जीवन-काल उपनग्ध पुरातात्विक एवं प्रभिलेखिकी प्रमाणों से की घटनाओं की धारणा विकसित नही हो पाई थी। यह सर्वथा निश्चित है कि उद्योतकेसरी (११वीं शती) साथ ही सम्पूर्ण दृश्यावली में कही भी पार्श्वनाथ या उनसे के अतिरिक्त शासकों से स्पष्ट संरक्षण या समर्थन न प्राप्त सम्बद्ध सर्प-फणों का उत्कीर्णन नही किया गया है । इस होने की स्थिति में भी जैन धर्म अपनी दृढ़ पृष्ठभूमि के प्रकार स्पष्ट है कि समुचित राजनैतिक एवं धार्मिक पृष्ठ फलस्वरूप लगभग स्वीं-१०वीं शती से १२वीं शती भूमि के बावजूद उदयगिरि-खण्डगिरि की ई० पू० की तक उडीसा में, विशेषकर उदयगिरि-खण्डगिरि गुफामो गुफापों का जैन प्रतिमा-विज्ञान की दृष्टि से विशेष महत्त्व (पुरी जिला) में, निरंतर लोकप्रिय था। इसकी पुष्टि नहीं रहा है। उदयगिरि-खण्डगिरि गुफानों के अतिरिक्त अन्य स्थलों से खारवेल के उपरान्त उड़ीसा में जैन धर्म का इतिहास प्राप्त होने वाली जैन मूर्तियों से होती है । नवमुनि गुम्फा काफी समय तक अज्ञात है। बिहार, उत्तर प्रदेश एवं के उद्योतकेसरी के लेख में कुलचन्द्र के शिष्य के रूप मे मध्य प्रदेश के समान ही इस क्षेत्र में जैन धर्म की स्थिति खल्लसूमचन्द्र का उल्लेख प्राप्त होता है। इसी शासक के पर प्रकाश डालने वाले जैन ग्रन्थों का भी सर्वथा प्रभाव ललाटेन्दू या सिंघराजा गुफालेख में उल्लेख है कि उद्योतहै। साथ ही दूसरी प्रथम शती ई०पू० की उदयगिरि-खण्ड- केसरी ने अपने राज्य के वें वर्ष में प्रसिद्ध कुमार पर्वत गिरि बन गुफामो के बाद हवीं-१०वी शती के पूर्व की कोई पर नष्ट तालाबों एवं मन्दिरों का पुननिर्माण करवा कर भी जैन पुरातात्विक सामग्री इस क्षेत्र में नहीं प्राप्त होती २४ तीर्थंकरों की मूर्तियों प्रतिष्ठित करवाई। इस उल्लेख है, जिसका कारण इस क्षेत्र में क्रमशः बौद्ध धर्म का बढ़ता से उद्योत केसरी का जैन धर्म को समर्थन स्पष्ट है। यह हुआ प्रभाव था। दाथावंश से ज्ञात होता है कि कलिंग उल्लेखनीय है कि उदयगिरि-खण्डगिरि की नवनि एवं के शासक गुहाशिव (लगभग चौथी शती) ने जैन धर्म को बारभुजी गुंफाओं में प्राप्त स्वतन्त्र यक्षियो, २४ यक्षियों छोड़ कर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था, और साथ ही एवं महत्वपूर्ण सामूहिक चित्रण भी इसी काल (११वी. सभी निर्ग्रन्थ जनों को कलिंग से बाहर निकाल दिया था, १२वीं शती) की कृतियां हैं । उदार सोम-स्वामी शासकों जन्होंने पाटलिपुत्र के पाण्ड राजा के यहां शरण ली। के काल में भी मुक्तेश्वर मन्दिर की चहारदीवारी की
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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