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________________ जैन संप्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ पोर प्रकाश २५१ संबंधित जो सामग्री प्राप्त है, वह बहुत ही थोडी है। सागर ने भी उनके विरुद्ध कई बातें कही है। यहां तक श्रमणवेलगोल मे यापनीय सघ से सबधित कुछ भी सामग्री कि यापनीयो द्वारा सस्थापित मूर्तियो की पूजा का भी का न मिलना इस बात का द्योतक है कि इस पीठ का विरोध किया है, भले ही दिगम्बर प्रतिमाएं ही क्यों न विकास यापनीय साधुनों के अलावा अन्य साधुग्रो के हो"। इन सबके होने पर भी यापनीय साधुनो की उनके सहयोग से हया । कर्नाटक के उत्तर भाग में ही यापनीयो उत्कृष्ट ज्ञान और उत्तम चारित्र के कारण विभिन्न लेखों का जोर था जो मुख्यतया मदिरो और मस्थानो से एवं विवरणो मे सम्मान सहित भूरि-भूरि प्रशसा की गई सम्बन्धित रहते थे (और इनमे नेमिनाथ और पार्श्वनाथ है तथा उन्हे समाज में उच्च स्थान प्राप्त होने का उल्लेख की ही प्रतिमानो के प्रति अधिक प्राग्रह रहता था)। किया गया है । दक्षिण भारत मे तो यापनीय साधुग्रो द्वारा विशेष महत्त्व की बात यह दिलाई देती है कि यापनीय साधु पतिष्ठित प्रतिमानो को दिगम्बर लोग बडे भक्ति-भाव से मन्दिरो के प्रबन्ध-व्यवस्थापक या सघो के भरण पोपण पूजा अर्चना करते है, इसी मे विदित होता है कि यापनीय कर्ता के ही रूप में विशेषतया दिखाई देते है। जो प्रायः और दिगम्बर अापस में किस तरह अधिकता से घुलमिल राजानी या समाज के अन्य विशिष्ट वर्ग के व्यक्तियो से गए थे। अन्त में एक दृष्टान्त भी है कि यापनीय माधु अनुदान मे भूमि, बाग आदि प्राप्त किया करते थे । इनको को जातरूपधर कहा गया है जो कि दिगम्बरत्व का भी कार्य-पद्धतिया अपने क्षेत्र मे थोड़ी बहुत आधुनिक भट्टा- प्रतीक है। रको की भाँति प्रचलित थी । जैन नियमो के अनमार यापनीयो का एक सघ था और इसके गुरुजन (माधुमायिका सघ (प्रायिका, काति क्षान्तिका) की अवस्थिति गण) मन्दिरो के अध्यक्ष हुमा करते थे, जिनके निर्माण से तद्भव स्त्री-मुक्ति जैसे मैद्धान्तिक प्रश्नो पर भी कोई एव भरण-पोषण के लिए अनुदान रूप में भमि या धन प्रभाव न था। जैनियो में बड़े-बडे दण्डनायको की व्यवस्था प्राप्त होता था। अत: यह स्वाभाविक ही है कि ये परिहोने पर भी हिसा जैसे प्रमुख सिद्धान्त से कोई बाधा म्यिानया यापनाय साधुना के स्थितिया यापनीय साधुप्रो की साहित्यिक प्रवृत्तियों के नही पड़ी। आवश्यकता केवल इस बात की थी कि हिसा विकास में पूर्णतया सहायक मिद्ध हुई । हरिभद्र (८वी सदी और तद्भव स्त्री-मुक्ति की विचारधारा को सही रूप से ई.) ने यापनीयता मे लिखा है" :-"स्त्रीग्रहण तासासमझा जावे। उपर्युक्त विवरणों से यह स्पष्ट प्रतीत होना मपि तद्भव इव ससारक्षयो भवति इति ज्ञापनार्थ वच. है कि यापनीय सघ का जन-सामान्य पर कोई विशेष प्रभाव यथोक्तम् यापनीयतत्र-णो खलु इत्था अजीवो ण यावि न था। उसका सम्बन्ध तो कुछ विशिष्ट वशो या व्य अभब्यो ण याविदसण विरोहिणी, णो प्रमाणुसा णो प्रणानि क्तियो तक ही सीमित था, जिनकी इस सघ के साधुग्रो या उत्पत्ति णो प्रसखे ज्जाउया, णो ग्रह (ए) कुरमई णोण प्राचार्यों पर विशिष्ट श्रद्धा-भक्ति थी। उवसत मोहा, णो ण मुद्धाचारा, णो अमुद्धवोंदी णो बब___कालान्तर मे सघ, गण, गच्छ, अन्वय आदि शब्दों के साय वज्जिया, णो अपुवकरण विरोहिणी, णो णव गुणठाण अर्थ बदलने लगे थे। सघ और गण प्रायः परस्पर मे ही रहिया, णो अजोगलद्धीए, णो अकल्लण भायणति, कदण उभए धम्म साहिगन्ति।" परिवर्तित होने लगे थे। अब उनका तथा उनके पारम्प- थतमागर ने लिखा है कि 'कल्पसूत्र' की जानकारी के रिक सम्बन्धा का विस्तृत अध्ययन एक प्रभाव की वस्त लिए उन्होंने कल्प का अध्ययन किया था। हो गया है। पाल्पकीति नाम से प्रसिद्ध, विरूपात वैयाकरण शाकऊपर देखा ही है कि किस तरह इन्द्रनन्दि ने अपने टायन यापनीय थे, ऐसा मलय गिरि ने कहा है और उनके टायन यापनाय थ, एसा मलयागार न कहा ह ' नीतिसार मे यापनीयो को जैनाभास कहा है और श्रत- संस्कृत व्याकरण" से नियुक्ति भाष्य प्रादि में लिए गए ५०. पटप्राभूतादि संग्रह की सस्कृत टीका, बम्बई १९२०, 52. My eather paper noted in F.NI. on p. 9. पृ. ७६ । 51. See my earlier paper noted above; also ५३. शाकटायन व्याकरण, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन Hemachandra's Yogasastra, B.I. ed. p. 5 2. १९७१ प्रस्तावना प्रौर मपादकीय ।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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