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________________ कुन्दकुन्दाचार्य और उनकी रचनाएँ प्रेम चन्द्र जैन, शोष-छात्र, राजस्थान विश्वविद्यालय दिगम्बर जैनवाङमय में भगवान महावीर और गौतम से इनके नाम का विशेष उल्लेख है। गणधर के बाद प्राचार्य कुन्दकुन्द एक अग्रगण्य एवं इनके उपलब्ध ग्रंथों का परिचय निम्न प्रकार से है: सम्माननीय मनिवर तथा ग्रन्थकार है। दिगम्बर ग्रन्थों में कुन्दकुन्दाचार्य के उपलब्ध सभी ग्रंथ प्राकृत पद्यो में इनका विविध नामों से उल्लेख प्राप्त होता है, जैसे हैं । अर्थात उनका एक भी ग्रंथ न तो गद्य मे है और न पानन्दी, गृधपिच्छ, चक्रगीव और एलाचार्य । परन्तु इन ही संस्कृत मे | दिगम्बर जैन वाङ्मय मे सबसे अधिक ग्रंथ मामों की वास्तविकता शंकास्पद है। इनका समय भी (२२-२३) आपके ही उपलब्ध होते है, जो ८४ पाहुड़ विवाद है। इस विषय में कोई स्पष्ट और प्रामाणिक ग्रंथों के कर्ता के नाम से प्रसिद्ध है। . . उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। कोण्डकुण्ड के निवासी १.पंचास्तिकाय सार : होने के कारण ये कुन्दकुन्द नाम से कहे जाते है। पंचस्थकायसंग्रहसक्त' (पंचाम्तिकायसंग्रहसूत्र) अथवा इसी नाम से इनकी वंश परंपरा चली है अथवा पंचस्थिकायसार' पद्यात्मक, जैन शौरसेनी मे रचित इस 'कुन्दकुन्दान्वय' स्थापित हुना है, जो अनेक शाखा- कति के दो स्वरूप प्राप्त होते हैं। एक में अमृतचन्द्र के प्रशाखाओं में विभक्त होकर दूर-दूर तक फैला है, मर्करा मत से इस समग्र कृति में १७३ गाथाएं है और दूसरे में के ताम्रपत्र में, जो शक संवत ३८८ में उत्कीर्ण हुपा है, जयसेन और बसुदेव कृत टीका के अनुसार १८१ पद्य हैं। इसी कोण्डकुन्दान्वय की परम्परा में होने वाले छः पुरातन, अंतिम पद्य में यद्यपि 'पंचस्थिकायमंग्रहमूक्त' नाम प्राता प्राचार्यों का गुरु-शिष्य के क्रम से उल्लेख है।' है, परन्तु दूसरा नाम विशेष प्रचार में है। अमृतचन्द्र के ये बहुत ही प्रामाणिक एवं सुप्रतिष्ठित प्राचार्य हुए। अनुसार प्रथम स्कन्ध में १०४ गाथाएं तथा द्वितीय स्कन्ध सम्भवत: इनको उक्त श्रुत-सुप्रतिष्ठा के कारण ही शास्त्र. में ६६ गाथाएं हैं, प्रारम्भ के २६ पद्य पीठबंध रूप है और सभाके प्रादि में जो मंगलाचरण 'मंगलं भगवान् वीरों' ६४ वीं प्रादि गाथाओं का निर्देश सिद्धांतसूत्र के नाम से इत्यादि किया जाता है उसमें 'मंगलं कुन्दकुन्दायों इस रूप किया गया है। सौ इन्द्रों द्वारा नमस्कृत जिनों का वन्दन १. देखो : कुर्ग-इन्स्क्रिपशन्स का निम्न अंश-(ई. व्याख्या नाम की संस्कृत टीका हेमराज पाण्डे के सी० आई०)। बालावबोध पर से पन्नालाल बाकलीवाल कृत हिन्दी २. दस भक्ति मे गद्यात्मक अंश है, परन्तु उसके कुन्दकुन्द अनुवाद के साथ (रायचन्द्र जैन ग्रंथमाला) ने १९०४ को मौलिक रचना होने में सन्देह है। में तथा अंग्रेजी अनुवाद सहित पारा से प्रकाशित हुई ३. देवसेनाचार्य ने भी अपने दर्शनसार (वि० सं० १६.) है। इसी ग्रंथ-माला में प्रकाशित इसकी दूसरी को निम्न गाथा में कुन्दकुन्द (पद्मनन्दि) के सीमंधर प्रावृति में अमनचन्द्र जयसेन की संस्कृत टीकायें तथा स्वामी से दिव्यज्ञान प्राप्त कराने की बात लिखी है. हेमराज पाण्डेय का बालावबोध छपा है। अमृतचन्द्र जइप उमणदि-णाहो सोमंधरसाभि-दिवबणाणण । की टीका के माथ गुजराती अनुवाद 'दिगम्बर न विवोहइ तो समणा कहं सुभगं पयाणंति ॥ स्वाध्याय मन्दिर, से वि० सं० २०१४ में प्रकाशित श्रवणबेलगोल शिलालेख न.४० ४. यह कृति अमृतचन्द्र कृत तत्वदीपिका यानी समय ५. धवला में 'पंचस्थिकायसार' का उल्लेख है। हुमा है।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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