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________________ शिल्पकला एवं प्रकृति-वैभव का प्रतीक : अमरसागर (जैसलमेर) श्री भूरचन्द जैन, बाड़मेर राजस्थान के पश्चिमी सीमान्त-क्षेत्र में स्थित जैसल- में ही बनकर पूर्ण हो गया था। सरोवर के मख्य बांध पर मेर जिला रेगिस्तान के ऊँचे ऊंचे टीबों के लिए ख्याति निर्मित महारावल अमरसिंह की छतरी पौर वि० सं० प्राप्त किये हुए है। प्राकृतिक विपदानों से पीड़ित रहने १७१७ में निर्मित अमरेश्वर महादेव का मन्दिर प्रकृतिवाला यह जिला शिल्पकला के लिए जगत-विख्यात है। सौदर्य एवं धार्मिक वातावरण पैदा करने के लिए प्रार जैसलमेर का दुर्ग, दुर्ग पर स्थित जैन मन्दिर, पटवों की भी विद्यमान हैं । सागर का मजबूत बांध, बांध पर निर्मित हवेलियां, सेठ नथमल की हवेली, जवाहर-विलास, प्रादल- छतरी-महादेव का मन्दिर, ऊँचे महल, महलों के अग्निम विलास, लक्ष्मीनाथ का मन्दिर, माताजी का दर्शनीय भाग में सुन्दर फव्वारे, क्रीड़ा स्थली प्रादि अब भी इस स्थल, सालमसिंह की हवेली शिल्पकलातियों के लिए रमणीय स्थल की शान बने हुए है। सागर के चारों तरफ माज भी प्राचीन शिल्पकला की रुचि का परिचायक बनी प्राम्रवृक्षों की कतारें, चमेली की सुगन्ध, मोगरे की महक, हुई है। वैसे सम्पूर्ण जैसलमेर में शिल्पकला के रूप में रेगिस्तान में मन लुभावना वातावरण पैदा कर देती है। बने जाली और झरोखों की प्रत्येक घर के अग्रिम भाग में अमर सागर पांच सौ फीट लम्बा और चार सौ फीट भरमार है। पीले पाषाणों पर बने जाली और झरोखों चौड़ा है जिसके तल पर जल की कई पगबाव और की सुन्दरता न केवल जैसलमेर नगर तक ही सीमित रही और बेरियां निर्मित की हुई है । इन पगबाबो और बेरियो है अपितु इसका विस्तार सम्पूर्ण जिले मे रहा है । जन की बस्ती मे प्रमर सागर का मुख्य प्राकर्षण का केन्द्र, धर्मावलब्जियों का प्रसिद्ध जैन तीर्थ लोदवा की शिल्पकला जैन धर्मावलम्बियों का श्री मादीश्वर प्रभु का बारीक इतनी ही ख्याति प्राप्त है जितनी अमर सागर स्थित जैन-शिल्पकला का अनोखा जिन.मटिा है। शिल्पकला का अनोखा जिन-मन्दिर है । इस मन्दिर जगत के श्री मादीश्वर प्रभु के जिन मन्दिर की। अमर का निर्माण वि. स १९२८ मे बाफणा-गोत्रीय सागर जैसलमेर से तीन मील दूर लोदवा जाने वाली सेठ श्री हिम्मत लाल जी ने करवाया और प्रतिष्ठा खतरसड़क पर आया हुमा है। यहां सेठ हिम्मतमल जी का गच्छीय श्री जिन महेन्द्र सूरि जी ने करवाई थी। मंदिर बनाया शिल्पकला का खजाना लिए जिन-मन्दिर, महा- मे प्रतिष्ठित मूलनायक श्री प्रादीश्वर भगवान की लगभग रावल श्री अमरसिंह द्वारा निर्मित, प्रकृति की सुन्दरता को १५०० वर्षों से प्राचीन प्रतिमा विराजमान है जिसे विक्रम खान, अमर सागर, महारानी अनुपकवर के नाम से निर्मित पुर कोट से लाया गया था। मन्दिर का बाहरी भाग शीतल एवं शुद्ध जल की मनप वाव प्राज भी दर्शकों के मुख्य द्वार छोटे-छोटे तोरणों, झरोखों, जालियों से सजाया लिए आकर्षण का केन्द्र-बिन्दु बनी हुई है। गया है । लटकते कगूरों की सुन्दरता, बारीक शिल्पकला सैलानियों का सौदर्य-स्थल, भ्रमणकारियो की रम की प्राचीनता, पीले पाषाणों की चमक और बीच में बने णीय भमि, यात्रियों का दर्शनीय नगर, भक्तो का श्रद्धा- सफेद संगमरमर के गवाक्ष गोख ने तो इसके कलाकेन्द्र, अमर सागर का निर्माण जैसलमेर के महारावल श्री सौन्दर्य मे अनोखी शान पैदा कर दी है। दो मंजिले अमरसिंह ने वि० सं० १७१७ से प्रारम्भ कर १७५८ तक इस भव्य देवप्रासाद का शिखर-भाग दूर-दूर से दिखाई पर्ण किया था। प्रमर सागर का सरोवर वि० सं० १७५६ देता है । शिखर के पिछले भाग मे पीले पत्थर का बना
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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