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अनेकान्त की वार्षिक-विषय-सूची
०
कोठिया
२२४
प्रनेकान्त-मुनि श्री उदयचन्द
१०४ इच्छा नियत्रण-परमानन्द शा० प्रनेकान्त एक आदर्श पत्र-पं० मिलापचन्द रतन- ऊन पावागिरि के निर्माता राजा बल्लाललाल कटारिया
नेमचन्द धन्नूसा जैन
२७ प्रनेकान्त और उसकी सेवाएं-डा० दरबारीलाल एक प्रतिकाकित द्वार-गोपीलाल अमर एम. ए.
१८५ कविताएँ अनेकान्त और परमानन्द शास्त्री-श्री मती
कहानियाँ
२२३ पुष्पलता जैन काचन का निवेदन-मुनि कन्हैयालाल
३०१ अनेकान्त का दिव्य प्रालोक-१० पन्नालाल
ग्वालियर के कुछ काष्ठासघी भट्टारकसाहित्याचार्य
१३६ परमानन्द शास्त्री अनेकान्त द्वे मासिक एक दृष्टि मे-प. गोपीलाल ग्वालियर के कुछ मूर्ति यत्र लेख-परमानन्द शा० १२२ 'अमर'
२५३ गुणस्थान एक परिचय- मुनि श्री मुमेरमल २१३ अनेकान्त पत्र का इतिहास-40 परमानन्द शा० १५६ गोपाचल दुर्ग के एक मूर्तिलख का अध्ययनअनेकान्त पत्र का गौरव - पं० जयन्तीप्रसाद शास्त्री १८४ डा. राजाराम जैन
२५ अनेकान्त के लेखक-गोपीलाल 'अमर' २४२ जैन काव्य में विरहानुभूति-डा० गगाराम अनेकान्त में प्रकाशित रचनाएँ- १६४ से २४० जैन कीर्तिस्तम्भ चित्तोड के प्रकाशित शिलालेखअनेक स्थान नाम गभित भ० पार्श्वनाथ स्तवन--
श्री रामवल्लभ सोमाणी भवरलाल नाहटा
२६४
जैन तीर्थकर को कुछ मृणमूर्तियाँ-संकटाप्रसाद अब मुग्यरित विनाश के पथ पर नूतन अनुसधान है
शक्ल एम. ए.
२७६ (कविता)---कल्याणकुमार जैन 'शशि' १४४
जैन विद्या का अध्ययन अनुशीलन प्रगति के पथ पर अमरकीति नामके पाठ विद्वान-प० परमानन्द
-प्रो० प्रेममुमन जैन
१८७ शास्त्री
जनसमाज की कुछ उप जातियाँअलब्ध पर्याप्तक और निगोद-प० मिलापचन्द
परमानन्द शास्त्री रतनलाल कटारिया
५५ ज्ञानपीठ साहित्य पुरस्कार अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व शान्ति किस प्रकार हो
तीर्थकर अय स्तवन प्रा० यतिवृषभ सकती है ?-शान्तिलाल वनमाली मेठ ८५ तीर्थकरी की प्राचीनता-कस्तूरचन्द जैन 'सुमन' । अतरीक्ष पार्श्वनाथ विननि-नेमचन्द धन्नसा जैन द्वितीय ज़बूद्वीप-प. गोपीलाल 'अमर' अत्तरमेष्टी स्तवन-मुनि श्री पद्मनन्दि
४६ घनपान की भविष्यदत्तकथा के रचनाकाल पर प्रात्म-सम्बोधन-परमानन्द शास्त्री
विचार---परमानन्द शास्त्री ग्रात्मा का देह प्रमाणत्व-डा० प्रद्युम्न कुमार २२५ नरेन्द्र सेन–६० के० भुजबरनी शास्त्री याधुनिकता, प्राधुनिक और पुरानी-डा० प्रद्युम्न- निर्वाणकाण्ड के पूर्वाधार तथा उसके रूपान्तर
२८० डा. विद्याधर जोहरापुरकर
८
२७७
कुमार
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३१२, वर्ष २२ कि०६
अनेकान्त
पत्रिकाएं कैसे चले ?-डा० गोकुलचन्द १८२ विजोलिया के जैन लेख-रामवल्लभ सोमानी १५५ पद्मावती-प्रकाशचन्द सिघई एम. ए. बी. टी २९७ विविध
२३७ पंडित शिरोमणिदास विरचित धर्मसार -
विश्व मंत्री का प्रतीक पयुषण पर्व-प्रो० भागचन्द डा० भागचन्द जैन
'भागेन्दु' पांडे लालचन्द का वरांगचरित-डा० भागचन्द
व्यक्तिगत (परिचय अभिनंदन आदि)
२२८ "भास्कर
१०४ वीर सेवामन्दिर का साहित्यिक शोधकार्यपुरातत्त्व (इतिहास, संस्कृति, स्थापत्य, कला) २२२ परमानन्द शास्त्री बारह प्रकार के सभोग पारस्परिक व्यवहार--
शहडोल जिले में जैन सस्कृति का एक अज्ञात केन्द्र मुनि श्री नथमल
१२७ प्रो० भागचन्द जैन भगवान ऋषभदेव-परमानन्द शास्त्री
७८
शुभचन्द का प्राकृत व्याकरण -डा. ए. एन. भगवान महावीर और छोटा नागपुर--
उपाध्ये वा० सुवोधकुमार
२७५
श्री आदिनाथ स्तुनि-कविवर भूधरदास भगवान महावीर का सन्देश-डा० भागचन्द
शीलव्रती मुदर्शन (कहानी)___ भागेन्दु एम ए. पी-एच. डी.
३०८
परमानन्द शा० भाग्यशाली लकडहाग--परमानन्द शास्त्री ३०६
श्री पार्श्वनाथ जिन स्तुति-कविवर बनारसीदास १७ भारत में वर्णनात्मक कथा साहित्य---
सकलन
२४० डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् २६६
समीक्षा भारतीय दर्शनो में प्रमाण भेद की महत्वपूर्ण चर्चा
सामयिक
२३२ -डा० दरबारीलाल कोठिया
सस्कृत सुभाषितो मे सज्जन-दुर्जनमगध सम्राट राजा बिम्बसार का जैनधर्म परिग्रहण
लक्ष्मीचन्द सरोज
२६० -परमानन्द शास्त्री
मस्कृति की सीमा--प्रो० उदयचन्द जैन १३८ मुस्लिम युगीन मालवा का जैन पुरातत्त्व---
सालोनी ग्राम में उपलब्ध प्राचीन मूर्तियाँ--- तेजसिह गौड़ एम. ए.
महेश कुमार जैन
२४१ युक्त्यनुशासन एक अध्ययन-डा० दरबारीलाल कोठिया
साहित्य राजस्थान के जैन सन्त मुनि पदमनन्दी
साहित्य-समीक्षा
४७, ६३, २६२ परमानन्द शास्त्री
२८३
सिद्ध स्तुति-पद्मनन्द्याचार्य रामपुरा के मत्री पाथ शाह-डा० विद्याधर
मैद्धान्तिक (धर्म, दर्शन, न्याय, व्याकरण) १६४ जोहरापुरकर
स्वामी समन्तभद्र की जनदर्शन को देनलश्कर मे मेरे पाच दिन-परमानन्द शा० ६१ डा० दरबारीलाल जैन वायुपुराण और जैन कथाएं -डा० विद्याधर
हरिवशपुराण की प्रशस्ति एव वत्सराजजोहरापुरकर
रामवल्लभ सोमानी वसुनन्दि के नाम से प्रा० का एक संग्रह ग्रन्थ
हृदय की कठोरतातत्त्वविचार-प्रो. प्रेमसुमन जैन
मुनि श्री कन्हैयालाल
२२२
२०१
२६५
२८८
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+ मासिक
प्रप्रेल १९६६
अनेकान्त ..
Kkkkkkkkkkkkkkkkkkkk*********
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चित्तौड के दिन कौतिस्तम्भ के नीचे का भाग Xxxxxxxxxxxx********
समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुख पत्र
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विषय-सूची
अनेकान्त के पाठकों से
पृ० २१वे वर्ष की गत किरण ५-६ युगवीर विशेषांक के १ तीर्थकर त्रय स्तवनम् ----पा० यतिवृपभ
साथ सभी ग्राहको का बापिक मूल्य समाप्त हो जाता . २ धनपाल की भविष्यदत्त कथा के रचनाकाल पर
है। यह २वे वर्ष की प्रथम किरण पाठको की सेवा में विचार-परमानन्द शास्त्री
| भेजी जा रही है। प्रेमी पाठकों से साग्रह अनुरोध है कि ३ निर्वाणकाण्ड के पूर्वाधार तथा उसके रूपान्तर- ।
वे अपना अपना वार्षिक शुल्क ६) रुपया मनीग्रार्डर द्वारा डा. विद्याधर जोहरापुरकर ।
[भिजवा कर अनुगृहीत करे । अन्यथा अगला अक वी. पी. ४ भारतीय दर्गनो मे प्रमाणभेद की महत्त्वपूर्ण चर्चा से भेजा जायगा। जिसमे १) रुपया अधिक देना होगा। -डा. दरबारी लाल कोठिया
व्यवस्थापक : 'अनेकान्त' ५ मुस्लिम युगीन मालवा का जन पुरातत्त्व
'वीरसेवामन्दिर' २१ दरियागंज, दिल्ली तेजसिंह गौड एम. ए. रिसर्चस्कालर ६ पण्डित शिरोमणिदास विरचित धर्मसार
डा. भागचन्द जैन ७ द्वितीय जम्बूद्वीप-प. गोपीलाल 'अमर' शास्त्री ।
दानवीर श्री साहू शान्तिप्रसाद जी एम. ए.
२०
द्वारा दो लाख रु० का दान ८ गोपाचल-दुर्ग के एक मृतिलेख का अध्ययन -डा. राजाराम जैन
दानवीर साहू शान्तिप्रसाद जी ने मैसूर विश्वविद्या6 ऊन पादागिरि के निर्माता राजा बल्लाल
लय में जन चेयर की स्थापना के लिए २ मई को सप्रू ५. नेमचन्द धन्नूसा जैन
हाउस नई दिल्ली में एक समारोह काग्रेस अध्यक्ष निज१० शुभचन्द्र का प्राकृत व्याकरण-डा. ए. एन.
लिगप्पा की अध्यक्षता में हुआ, जिसमे मैसूर विश्वविद्याउपाध्ये
लय के कुलपति डा० श्री माली को दो लाख रुपये का ११ जैन काव्यमे बिरहानुभूति-डा. गगाराम गर्ग ३३
चैक भेट किया गया। इसी अवसर पर डा० ए.एन. उपाध्ये १२ जैन कीर्तिस्तम्भ चित्तोड के अप्रकाशित शिलालेख
का भारतीय साहित्य संस्कृति की समृद्धि मे कन्नड़ के जैना. -श्री रामवल्लभ सोमानी, जयपुर ३६ चार्यों और साहित्य मनोपियो का योगदान' विपय पर १३ वमुनन्दि के नाम से प्राकृत का एक संग्रह ग्रन्थ :
महत्त्वपूर्ण भाषण हपा। साहूजी द्वारा जन संस्कृति के लिये ____ तत्वविचार-प्रो. प्रेममुमन जेन एम. ए. शास्त्री ३६
| जो कार्य किया जा रहा है वह महत्त्वपूर्ण तो है ही, साथ १४ साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री
ही उनकी विवेकशीलता और उदारताका परिचायक भी है।
२७
४७ ।
x
अनेकान्त का वाषिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मल्य १ रुपया २५ पंसा
सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा० प्रेमसागर जैन
श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री
अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पायक | महल उत्तरदायी नहीं है। -व्यवस्थापक मनेकान्त
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प्रोम पहम्
अनकान्त
कालय
| वर वा ग
जा 425
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्षसिन्धुरविषन।-... . सकलनयविलसितानां विरोषमधनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वर्ष २२ किरण १
। ।
वोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६५, वि० सं० २०२६
(
अप्रेल सन् १९६६
तीर्थंकर त्रय स्तवनम्
केवलणारण दिरणेसं चोत्तीसादिसयभूदि संपण्णं । अप्पसरूवम्मि ठिदं, कुथु जिरणेसं रणमंसामि ॥६६ संसारण्णवमहरणं तिहुयरणभवियारण मोक्ख संजणणं । संदरिसिय सयलत्थं पर जिरणरणाहं रामं सामि ॥६७ भव्वजगमोक्खजगणं मुणिद-देविद-णमिद-पथकमलं। अप्प - सुहं - संपत्तं मल्लि जिणेसं णमंसामि ॥६८
-प्राचार्य यतिवृषभ मर्थ-जो केवलज्ञानरूप प्रकाश युक्त सूर्य है, चौतीस अतिशयरूप विभूति से संपन्न, और प्रात्मस्वरूप में स्थित है, उन कुथु जिनेन्द्र को नमस्कार करता हूँ।
जो संसार-ममुद्र का मथन करने वाले और तीनो लोको के भव्य जीवों को मोक्ष के उत्पादक है तथा जिन्होने सकल पदार्थों को दिखला दिया है ऐसे अर जितेन्द्र को नमस्कार करता हूँ।
__ जो भव्य जीवो को मोक्ष प्रदान करने वाले है, जिनके चरण कमलो को मुनीन्द्र और देवेन्द्रो ने नमस्कार किया है, और जो प्रात्मसुख को प्राप्त कर चुके है, उन मल्लि जिनेन्द्र को नमस्कार करता है।
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धनपाल की भविष्यदत्त कथा के रचनाकाल पर विचार
परमानन्द शास्त्री
संस्कृत और प्राकृत की तरह अपभ्रश भाषा में भी सक्षिप्तरूप बडी खूबी के साथ दर्शाया गया है। काव्य कथा साहित्य की सृष्टि की गई है। कथा साहित्य की की दृष्टि से भी यह कृति महत्वपूर्ण है। सम्पादकों ने सष्टि कब से प्रारम्भ हुई, यह अभी निश्चित नही हो प्रस्तावना मे इसके सम्बन्ध मे पर्याप्त प्रकाश डाला है। सका है। विक्रम की ७ वीं, पाठवीं और नवमी शताब्दी और उसका रचना काल दशवी शताब्दी बतलाया है। मे रचे गये कथा ग्रन्थों और बाद में उपलब्ध ग्रन्थों मे परन्तु डा. देवेन्द्र कुमार जी रायपुर ने 'अपभ्रंश' पचमी कथा के नामोल्लेख उपलब्ध होते हैं । चउमुह और की अन्य जैन कथायो के साथ धनपाल की भविष्यदत्त स्वयंभू ने 'पचमी' कथा बनाई, किन्तु आज वह उपलब्ध कथा पर एक शोध-निबन्ध लिखा, जिस पर प्रागरा विश्वनही है । अपभ्रश 'प्रशस्ति सग्रह' में मैने इस भाषा की विद्यालय से उन्हें पी. एच. डी. की उपाधि मिली। वह
प्रो के आदि अत भाग दिए है। इनके अतिरिक्त शोध-प्रबन्ध अभी तक अप्रकाशित है। उसमे उन्होने और भी कथाए है जिनके सम्बन्ध में अभी तक कुछ नही
उसका रचना काल बिना किसी प्रामाणिक प्राधार के, लिखा गया। कविवर धनपाल की भविष्यदत्त कथा के
तथा प्रागग की स० १४८० की एक हस्तलिखित प्रति रचनाकाल पर विचार करना ही इस लेख का प्रमुख
मे स० १३६३ वे में लिखाने वाले की प्रगस्ति को मूलविषय है। अपभ्रश भाषा की दो भविष्यदत्त कथाएं उप
ग्रन्थकार की प्रशस्ति मान कर उमका रचना काल विक्रम लब्ध है जिनमे एक के रचयिता धर्कटवशी धनपाल है।
की १४ वी शताब्दी बतलाया और दशवी शताब्दी के और दूसरी के र यता विबुध श्रीधर है। उनमे धनपाल
विद्वानों द्वारा सम्मत रचना काल को अमान्य किया। की भविष्यदत्त कथा का रचनाकाल विक्रम की दशवी
उनका लेख 'भविष्यदत्त कथा का रचना काल' नाम से शताब्दी माना जाता है । और विबुध श्रीधर की कथा का
हाल की गष्ट्रभाषा पारेपद पत्रिका में प्रकाशित हया है। रचना समय वि० स० १२३० है और यह कथा अभी तक
उसकी एक अतिरिक्त कापी उन्होने मेरे पास भेजी है। अप्रकाशित है। किन्तु धनपाल की भविष्यदत्त कथा का
उसे पढकर ज्ञान हुआ कि उन्होने उक्त कथा के रचना सम्पादन डा० हर्मन जैकोवी ने बडे परिश्रम से किया था
काल पर कोई प्रामाणिक विचार नहीं किया । और न और सन १९१८ मे जर्मनी से उसका प्रकाशन हया था।
कोई प्रामाणिक अनुसन्धान कर ऐसे तथ्य को ही प्रकट भारत वर्ष में इस काव्य कथा का सस्करण सी. डी. दलाल
किया जिससे उक्त भविष्यदत्त कथा का रचना काल और बी. डी. गुणे के द्वारा तैयार किया गया जो गायक
१४वी शताब्दी निश्चित हो सकता। किन्तु स० १३६३ वाड प्रोरियन्टल सीरीज बडोदा से सन् १९२३ में प्रका- को प्रशस्ति के अनुसार भ्रमवश धनपाल की उक्त कथा शित हुआ है। इस ग्रथ मे काव्यतत्त्वों की सयोजना का
जना का का रचना काल १४ वी सदी सुनिश्चित किया है। जो १. णरणाह विक्कमाइच्च काले, पवहतए सुहयारए विसाले। उनकी किसी भूल का परिणाम है, एव वह प्रशस्ति जो वारह सय वरसहिं परिगएहिं,
डा० सा० के रचना काल का आधार है, जिसे लेख में फागुणमासम्भि बलक्ख पक्खे ।
ग्रंथकार की प्रशस्ति मान लिया गया है। और ग्रथ की दसमिहि दिण तिमिरुक्कर विवक्खे,
प्रतिलिपि करने या कराने वाले को रचयिता स्वीकृत रविवार समाणिउ एहु सत्थु ।।
किया गया है। उस पर विचार करने और डा० सा० की -जैन ग्रन्थ प्र० स: १०५०। भूल का परिमार्जन करना ही लेखक का प्रयास है।
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घनपाल को भविष्यदत्त कया के रचना काल पर विचार
जिससे भविष्य में इस प्रकार की भूलों की पुनरावृत्ति न हो, इस वाक्य से स्पष्ट है कि कवि ने पंचमी कथा और साहित्यिक विद्वान खूब सोच समझ कर लिखे। आत्महित के लिए की है। किसी अन्य के द्वारा वह नही लिपिकार की प्रशस्ति की भाषा का मूलग्रन्थकार को
बनवाई गई । कवि ने अपने उक्त परिचय के साथ, राजा भाषा से भी कोई सम्बन्ध प्रतीत नही होता। वह
का नाम, रचनास्थल और रचनाकाल नही दिया । अन्यथा मगलाचरण के साथ एक जूदी प्रशस्ति है, मलग्रन्थ के साथ यह विवाद ही उपस्थित नहीं होता। उसका कोई सम्बन्ध नही है। प्रशस्ति में प्रयुक्त 'लिहिय' डा. देवेन्द्रकुमार जी ने अपने लेख के पु० २७ पर शब्द ग्रंथ लिखने या लिखाने का बाचक है, रचने का लिखा है कि-"प्रथम धनपाल का जन्म जिस वश में नही । मूलपथकार ने 'विरइउ' शब्द का प्रयोग किया है हुअा था, उसी मे जम्बूस्वामी के रचयिता महावीर, धर्म'लिहिय' शब्द का नही । मूलग्रंथकार ने अपने को 'धर्कट' परीक्षा के कर्ता हरिषेण प्रादि उत्पन्न हुए है।" धक्कड वंश का वणिक सूचित किया है। और प्रतिलिपि- आपके इस निष्कर्ष में प्रथम धनपाल के समान जम्बू कार ने दिल्ली के अग्रवाल वश का श्रेष्ठी हिमपाल का स्वामीचरित के रचयिता कवि बीर को भी धर्कट वश पुत्र साहू वाधु । इतना स्पष्ट भेद रहने पर भी डा० देवेन्द्र (धक्कड वश) का लिखना अति साहस का कार्य है । वीर कुमार का ध्यान उस पर नही गया। उसका कारण । कवि का वश 'लाल वागड' था धर्कट या धक्कड नही । सभवतः स. १४८० का प्रतिलिपिकार का समय है उसी जम्बूस्वामीचरित की रचना में प्रेरक तक्खडु श्रेष्ठी के कारण उक्त भ्रम हा जान पडता है। अनेक प्रथो मे अवश्य धकट वश क थ। वे मालव देश को धन-धान्य प्रतिलिपिकारो द्वारा, पूर्व लिपि प्रशस्ति भी मूलग्रथ के समृद्ध सिन्धु वपा नगरा
समृद्ध सिन्धु वी नगरी के निवासी पक्कड वश के तिलक साथ लिपि की हुई मिलती है। उदाहरण के लिए स० मधुसूदन के पुत्र थे। इनके भाई भरत ने भी उसे पुष्ट १४९४ में लिखित मलयगिरिकृत मुलाचार प्रशस्ति किया था। ऐसी भूले झट-पट कलम चलाने से हो जाया भी १७ वीं शताब्दी में लिखी जाने वाली प्रतियो करती है। डा० सा० जैसे उदीयमान विद्वानों को अच्छी मे मिलती है। लिपि प्रशस्ति की भाषा मल ग्रथ की तरह से विचार कर ही निष्कर्ष निकालना आवश्यक है। भाषा से कुछ घटिया दर्जे की है, और सरल है।
कवि का धर्कट वंश एक प्राचीन ऐतिहासिक वश है। मूल प्रथकार ने ग्रन्थ के अत में अपना सक्षिप्त परि- यह वश परम्परा पूर्व काल में अच्छी प्रतिष्ठित रही है। चय निम्न पद्य मे दिया है, जिसमे अपने को धक्कड इसमे अनेक प्रतिष्ठित पुरुष हुए है। इसका निकास सिरि (धर्कट) वशी वणिक बतलाया है और अपने पिता का उजपुर' या सिरोज (टोक) से निर्गत बतलाया है। नाम माएसर (मातेश्वर) और माता का नाम 'धनसिरि' धर्मपरीक्षा के कर्ता हरिषेण (१०४४) भी इसी धर्कट (धनश्री) प्रकट किया है।
वशीय गोवर्द्धन के पुत्र और सिद्धसेन के शिष्य थे। यह धक्कड़ वणिवसि माएसरह समुर्भािवण।
२. देखो, जम्बूस्वामी चरित प्रशस्ति । धसिरि देवि सुएण विरइउ सरसइ संभविण ।।
३. प्रहमालवम्मि धणकण दरिसि, प्रशस्ति के अन्तिम पत्ते में तथा सधि पुष्पिकानो मे
नयरी नामेण सिन्धुवरिसी । भी अपना नाम धनपाल बतलाया है।
तहिं धक्कडवग्ग वश तिलउ, निसुणंत पड़तह परचिततह अप्पहिय । घणवालि नेण पचमि पंच पयार किय॥
महमूयण नंदणु गुण निलउ ।
नामेण सेट्टि तक्खडु वसइ . ...... इय भविसयत्त कहाए पयडिय धम्मत्थ काम मोक्खाए
-जबूस्वामीचरितप्रशस्ति । वुह घणवाल कयाए पंचमि फल वण्णणाए । ४. इह मेवाड देशे जण सकुले, कमलसिरि भविसदत्त भविसाणुरूव मोक्खगमणोणाम सिरि उजपुर णिग्गय धक्कड कुले । बावीसमो संघी परिच्छेप्रो सम्मत्तो।।
-धर्मपरीक्षा प्रशस्ति ।
४. इह मना
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धनपाल की भविष्यदत्त कथा के रचनाकाल पर विचार
परमानन्द शास्त्री
संस्कृत और प्राकृत की तरह अपभ्रश भाषा मे भी सक्षिप्तरूप बडी खूबी के साथ दर्शाया गया है। काव्य कथा साहित्य की सृष्टि की गई है। कथा साहित्य की की दृष्टि से भी यह कृति महत्वपूर्ण है। सम्पादको ने सष्टि कब से प्रारम्भ हई, यह अभी निश्चित नही हो प्रस्तावना में इसके सम्बन्ध मे पर्याप्त प्रकाश डाला है। सका है। विक्रम की ७ वीं, पाठवीं और नवमी शताब्दी और उसका रचना काल दशवी शताब्दी बतलाया है। में रचे गये कथा ग्रन्थों और बाद में उपलब्ध ग्रन्थो मे परन्त डा. देवेन्द्र कुमार जी रायपुर ने 'अपभ्रंश' पचमी कथा के नामोल्लेख उपलब्ध होते हैं । चउमुह और की अन्य जैन कथानो के साथ धनपाल की भविष्यदत्त स्वयभू ने 'पचमी' कथा बनाई, किन्तु आज वह उपलब्ध कथा पर एक शोध-निबन्ध लिखा, जिस पर प्रागरा विश्वनही है । अपभ्रश 'प्रशस्ति सग्रह' में मैने इस भाषा की विद्यालय से उन्हे पी एच. डी. की उपाधि मिली । वह ४० कथानो के प्रादि अत भाग दिए है। इनके अतिरिक्त शोध-प्रबन्ध अभी तक अप्रकाशित है। उसमें उन्होने और भी कथाए है जिनके सम्बन्ध में अभी तक कुछ नहीं
उसका रचना काल बिना किसी प्रामाणिक प्राधार के, लिखा गया। कविवर धनपाल की भविष्यदत्त कथा के
तथा आगरा की स० १४८० की एक हस्तलिखित प्रति रचनाकाल पर विचार करना ही इस लेख का प्रमुख
मे स० १३६३ वे में लिखाने वाले की प्रशस्ति को मूलविषय है । अपभ्रश भाषा की दो भविष्यदत्त कथाएं उप
ग्रन्थकार की प्रास्ति मान कर उसका रचना काल विक्रम लब्ध है जिनमे एक के रचयिता धर्कटवशी धनपाल है।।
की १४ वी शताब्दी बतलाया और दशवी शताब्दी के और दूसरी के रचयिता विबुध श्रीधर है। उनमें धनपाल
विद्वानो द्वारा सम्मत रचना काल को अमान्य किया । की भविष्यदत्त कथा का रचनाकाल विक्रम की दशवी
उनका लेख 'भविष्यदत्त कथा का रचना काल' नाम से शताब्दी माना जाता है । और विबुध श्रीधर की कथा का
हाल की राष्ट्रभाषा पारेपद पत्रिका में प्रकाशित हुया है। रचना समय वि० स० १२३० हैं और यह कथा अभी तक
उसकी एक अतिरिक्त कापी उन्होंने मेरे पास भेजी है। अप्रकाशित है। किन्तु धनपाल की भविष्यदत्त कथा का
उसे पढकर ज्ञात हुआ कि उन्होने उक्त कथा के रचना सम्पादन डा० हर्मन जैकोबी ने बड़े परिश्रम से किया था
काल पर कोई प्रामाणिक विचार नही किया । और न और सन् १९१८ मे जर्मनी से उसका प्रकाशन हुआ था।
कोई प्रामाणिक अनुसन्धान कर ऐसे तथ्य को ही प्रकट भारत वर्ष में इस काव्य कथा का सस्करण सी. डी. दलाल
__ किया जिससे उक्त भविष्यदत्त कथा का रचना काल और बी. डी. गुणे के द्वारा तैयार किया गया जो गायक
१४वी शताब्दी निश्चित हो सकता। किन्तु स० १३६३ वाड ओरियन्टल सीरीज बडौदा से सन् १९२३ मे प्रका
की प्रशस्ति के अनुसार भ्रमवश धनपाल की उक्त कथा शित हया है। इस ग्रथ मे काव्यतत्त्वो की सयोजना का का रचना काल १४ वी सदी सुनिश्चित किया है। जो १. णरणाह विक्कमाइच्च काले, पवहतए सुहयारए विसाले। उनकी किसी भूल का परिणाम है, एव वह प्रशस्ति जो वारह सय वरसहिं परिगएहिं,
डा० सा. के रचना काल का प्राधार है, जिसे लेख में फागुणमासम्भि बलक्ख पक्खे ।
ग्रंथकार की प्रशस्ति मान लिया गया है। और अथ की दसमिहि दिण तिमिरुक्कर विवक्खे,
प्रतिलिपि करने या कराने वाले को रचयिता स्वीकृत रविवार समाणिउ एहु सत्थु ।
किया गया है । उस पर विचार करने और डा० सा. की -जैन ग्रन्थ प्र०सं: पु०५०। भूल का परिमार्जन करना ही लेखक का प्रयास है।
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धनपाल को भविष्यदत्त कथा के रचना काल पर विचार
जिससे भविष्य में इस प्रकार की भूलों की पुनरावृत्ति न हो, इस वाक्य से स्पष्ट है कि कवि ने पंचमी कया और साहित्यिक विद्वान खूब सोच समझ कर लिखें। प्रात्महित के लिए की है। किसी अन्य के द्वारा वह नही
लिपिकार की प्रशस्ति की भाषा का मलग्रन्थकार की बनवाई गई। कवि ने अपने उक्त परिचय के साथ, राजा भाषा से भी कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। वह काना
का नाम, रचनास्थल और रचनाकाल नही दिया । अन्यथा मगलाचरण के साथ एक जुदी प्रशस्ति है, मूलग्रन्थ के साथ यह विवाद ही उपस्थित नहीं होता। उसका कोई सम्बन्ध नही है। प्रशस्ति में प्रयुक्त 'लिहिय' डा० देवेन्द्रकुमार जी ने अपने लेख के पु० २७ पर शब्द ग्रंथ लिखने या लिखाने का वाचक है, रचने का लिखा है कि-"प्रथम धनपाल का जन्म जिस वश में नहीं । मूलग्रथकार ने 'विरइउ' शब्द का प्रयोग किया है हुआ था, उसी मे जम्बूस्वामी के रचयिता महावीर, धर्म'लिहिय' शब्द का नहीं । मूलपथकार ने अपने को 'धर्कट' परीक्षा के कर्ता हरिषेण आदि उत्पन्न हुए है।" धक्कड वंश का वणिक सूचित किया है। और प्रतिलिपि- आपके इस निष्कर्ष मे प्रथम धनपाल के समान जम्ब कार ने दिल्ली के अग्रवाल वश का श्रेष्ठी हिमपाल का स्वामीचरित के रचयिता कवि वीर को भी धर्कट वश पुत्र साहू वाधु । इतना स्पष्ट भेद रहने पर भी डा० देवेन्द्र (धक्कड वंश) का लिखना अति साहस का कार्य है। वीर कुमार का ध्यान उस पर नहीं गया । उसका कारण कवि का वश 'लाल वागड' था घट या धक्कड नहीं । सभवतः स० १४८० का प्रतिलिपिकार का समय है उसी
जम्बूस्वामीचरित की रचना में प्रेरक तक्खडु श्रेष्ठी के कारण उक्त भ्रम हुआ जान पडता है । अनेक ग्रथो में
अवश्य घर्कट वश के थे। वे मालव देश की धन-धान्य प्रतिलिपिकारो द्वारा, पूर्व लिपि प्रशस्ति भी मूलग्रंथ के
समृद्ध सिन्धु वर्षी नगरी के निवासी पक्कड वश के तिलक साथ लिपि की हुई मिलती है। उदाहरण के लिए स० मधुसूदन के पुत्र थे। इनके भाई भरत ने भी उसे पूष्ट १४९४ में लिखित मलयगिरिकृत मुलाचार प्रशस्ति किया था। ऐसी भूले झट-पट कलम चलाने से हो जाया भी १७ वी शताब्दी में लिखी जाने वाली प्रतियो करती है। डा० सा० जैसे उदीयमान विद्वानो को अच्छी मे मिलती है। लिपि प्रशस्ति की भाषा मल प्रथ की तरह से विचार कर ही निष्कर्ष निकालना आवश्यक है। भाषा से कुछ घटिया दर्जे की है, और सरल है।
कवि का धर्कट वंश एक प्राचीन ऐतिहासिक वश है। मूल ग्रथकार ने ग्रन्थ के अत मे अपना सक्षिप्त परि- यह वश परम्परा पूर्व काल में अच्छी प्रतिष्ठित रही है। चय निम्न पद्य मे दिया है, जिसमें अपने को धक्कड़ इसमे अनेक प्रतिष्ठित पुरुष हुए है। इसका निकास सिरि (धर्कट) वशी वणिक बतलाया है और अपने पिता का उजपुर' या सिरोज (टोंक) से निर्गत बतलाया है। नाम माएसर (मातेश्वर) और माता का नाम 'घनसिरि' धर्मपरीक्षा के कर्ता हरिषेण (१०४४) भी इसी धर्कट (धनश्री) प्रकट किया है।
वशीय गोवर्द्धन के पुत्र और सिद्धसेन के शिष्य थे। यह धक्कड़ वणिवसि माएसरह समम्भिविण । धणसिरि देवि सुएण विरइउ सरसइ संभविण ॥
२. देखो, जम्बूस्वामी चरित प्रशस्ति ।
३. अहमालवम्मि धणकण दरिसि, प्रशस्ति के अन्तिम धत्ते में तथा सधि पुष्पिकामो मे ।
नयरी नामेण सिन्धुवरिसी । भी अपना नाम धनपाल बतलाया है।
तहिं धक्कडवग्ग वश तिलउ, निसुणंत पड़तह परचिततह अप्पहिय ।
महमूयण नंदणु गुण निलउ । षणवालि नेण पचमि पंच पयार किय॥
नामेण सेट्ठि तक्खड वसइ.. १. इय भविसयत्त कहाए पयडिय धम्मत्थ काम मोक्खाए
-जंबूस्वामीचरितप्रशस्ति । वुह घणवाल कयाए पंचमि फल वण्णणाए। ४. इह मेवाड देशे जण सकुले, कमलसिरि भविसदत्त भविसाणुरूव मोक्खगमणोणाम सिरि उजपुर णिग्गय धक्कड कुले। बावीसमो संघी परिच्छेप्रो सम्मत्तो।
-धर्मपरीक्षा प्रशस्ति ।
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अनेकान्त
चित्तौड़ के रहने वाले थे और कार्यवश अचलपुर चले नाम लुद्दपाल था। इनमे हिमपाल अधिक धर्मात्मा था, गए थे। और वहाँ पर उन्होंने स० १०४४ मे 'धर्म- उसकी धर्मपत्नी का नाम 'रइयाही' था जो नियम और परीक्षा' का निर्माण किया था। घर्कट वश दिल्ली के शील सयम से युक्त थी । वे दोनो दिल्ली में रहते थे वहीं पास-पास रहा नही जान पड़ता, किन्तु वह मारवाड़ उनके वाधू नाम का पुत्र हुअा। इसी बीच काल के राजपूताने और गुजरात आदि में रहा है । मालव देश को प्रकोप से लोग क्षीण वैभव हो गए। धनिक वर्ग भी दुख समद्ध नगरी सिन्धूवर्षी में भी धर्कट वंश के तिलक मधुसूदन के सागर में पड़ गए और अपने नियम धर्म का परित्याग श्रेष्ठी के पुत्र तक्खडु और भरत थे, जिनकी प्रेरणा से वीर करने लगे।
र करने लगे । समस्त पृथ्वी करभार से पीडित हो गई। कवि ने जम्बस्वामी चरित की रचना की थी। भविष्यदत्त बसे हए सेठ साहकार अपने निवास स्थान को छोड़कर कथा का रचयिता भी संभवतः उनमें से किसी एक प्रदेश में
चारो दिशानों मे भागकर दूर देशों में जा बसे । उस रहा हो। इस वश का उल्लेख दि० श्वे. दोनों ही सम्प्र- समय दिल्ली में प्रचण्ड राजा मुहम्मद शाह तुगलक का दायों में पाया जाता है।
राज्य था, जिसने राजारों का मानमर्दन कर बहत दिनों डा. देवेन्द्रकुमार जी ने आगरा की जिस लिखित तक एक छत्र राज्य किया था। प्रति की प्रशस्ति से रचनाकाल विक्रम की १४वी शताब्दी मुहम्मद शाह तुगलक वंश का अच्छा शासक था, बतलाया है उस पर भी यहां थोड़ासा विचार करना उप- जहाँ वह बुद्धिमान, बहभाषाविज्ञ, तर्क, न्याय आदि युक्त जान पड़ता है, जो डा० देवेन्द्रकुमार के लेख का विद्यानो में निपुण था और विद्वानो का समादर करता प्रमुख प्राधार है, और जिस पर से अन्य विद्वानों के था, वह उदार, स्वतत्र विचारक, दानशील, प्रजा हितैषी, समयादिक को अमान्य ठहराया है। वह प्रशस्ति भविसदत्त वीर योद्धा और सदाचारी था। वहां वह क्रोधी, उताकथा लिखाने वाले अग्रवाल साहु वाधू की है जो दफराय वला, अदूरदर्शी, अव्यवहारिक, अत्यन्त निर्दयी और बाद मे लिखी गई है।
कठोर शासक था, इसमे सन्देह नहीं कि वह न्यायी शासक प्रशस्ति-परिचय
था, किन्तु विद्रोहियो को कडे से कडा दण्ड देता था। प्रशस्ति में मगलाचरण के बाद बतलाया गया है कि उसने अपने दोनों भानजो और कई उच्च पदाधिकारियों -'जम्बू द्वीप भारत.क्षेत्र मे अत्यन्त धन-धान्य से परि. तथा एक काजी को भी खुले आम मृत्यु दण्ड दिया था। पूर्ण पासीयवण्णु, प्राशीय या पाशीवन नाम का नगर है, उसकी दण्ड व्यवस्था में अल्प या अधिक अपराध करने जो मन्दिर, उद्यान, ग्राम आदि से युक्त और धनकण से पर दण्ड मे कोई परिवर्तन नही होता था। सबको एक समृद्ध एव शोभायमान है। उस नगर में ऋद्धि-वृद्धि से सा दण्ड देता था। उसने सन् १३२७ (वि० स०१३८४) परिपूर्ण श्रेष्ठिजन, धर्मात्मा सज्जन अपने समस्त परिजनों में दौलताबाद (देवगिरि) मे राजधानी स्थानान्तरित के साथ सुखोपभोग करते हुए निवास करते थे । उससे करने के लिए दिल्ली को खाली करने का हक्म दिया पश्चिम दिशा मे साठ कोश की दूरी पर दिल्ली है वहाँ था। उससे जन-धन की जो बर्वादी हुई और जनता को जैन धर्म के पालन करने वाले अनेक लोग रहते हैं। उनमें कष्ट झेलने पड़े उसकी चर्चा से रोंगटे खड़े हो जाते है। जिनधर्म में अनुरक्त बुद्धिमान और कामदेव समान रूप- सन् १३४० (वि० स० १३६७) मे बादशाह ने पूनः वान वहा के निवासियो में प्रसिद्ध अग्रवाल कुल में समु- राजधानी स्थानान्तरित करने की महान गल्ती की थी। स्पन्न रत्नपाल नाम का सेठ था, उसका पुत्र महनसिंह जिसमे उसे भारी असफलता मिली, हजारो लोग कालपरोपकारी था, उसके चार पुत्र हुए, दुल्लहु (दुर्लभसेन) कवलित हो गए। और अनेक राजधानी छोड़कर यत्रणइपाल (नतपाल) सहजपाल और पजुणपाल । उनमे तत्र भाग गए । जन-धन से रिक्त हो दरिद्री बन गए । ज्येष्ट पुत्र दुर्लभसेन अत्यन्त गुणवान था। उसके तीन उसी समय उत्तरा पथ में भयकर दुष्काल पड़ा था। पुत्र थे। हिमपाल, देवपाल और सबसे कनिष्ठ पुत्र का सहस्रों लोग भूखों मर गए, यह उसकी अदूरदर्शिता का
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धनपाल की भविष्यदत्त कथा के रचना काल पर विचार
ही अभिशाप था, जिससे जनता को महान् कष्ट का सामना टित हुई थी। इससे यह प्रशस्ति अपना महत्वपूर्ण स्थान करना पड़ा । राजधानीके प्रथम स्थानान्तरण के समय साहू रखती है । अग्रवाल जाति के लिए यह घटना अनुपम है। वाघूभी दिल्ली छोड़कर दफराबाद चला गया । जहा उसने ऐतिहासिक दृष्टिसे उसका महत्व है हो । उक्त विवेचन से अपनी कीर्तिके लिए, अनेक शास्त्र उपशास्त्र लिखवाए, तथा यह स्पष्ट हो जाता है कि उक्त प्रशस्ति मूलग्रथकार धनअपने लिए श्रुत पंचमी की कथा लिखी या लिखवाई थी। पालकी नही है, जब उक्त प्रशस्ति धनपाल रचित नही तब जिसका समय वि० स० १३६३ पौष शुक्ला १२ सोमवार उसके आधार पर डाक्टर देवेन्द्र कुमार ने ग्रथ की १४वीं रोहिणी नक्षत्र बतलाया गया है। यह बादशाह सन् सदी रचनाकाल की जो काल्पनिक दीवाल बनाने का १३२५ (वि० सं० १३८२) मे मुहम्मद शाह विन तुगलक प्रयत्न किया था वह धराशायी हो जाती है। उसके बल के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा था। इसने सन् पर भविष्यदत्त कथा का रचनाकाल विक्रम की १०वीं १३५१ (वि० स० १४०८) तक राज्य किया है । शताब्दी नही हो सकता। किन्तु पूर्व विद्वानों द्वारा सुनि
श्चित दशमी शताब्दी समय ही अकित रहता है, और वह उपसंहार
तब तक अकित रहेगा जब तक कोई दूसरा सही प्रामाप्रस्तुत भविष्यदत कथा प्रशस्ति इसी के राज्यकाल को णिक आधार नही मिल जाता । प्राशा है डा० देवेन्द्र कुमार रचना है । प्रशस्ति मे अकित घटना उसी के राज्यकाल में जी अपनी इस भूल का परिमार्जन करेगे।
भविसयत्तकहा की सं० १३६३ की लिपि प्रशस्ति जिण चलण णमंसिवि थुइ सुपसंसिवि, मागमि थोवउ किपि णिरु । सुह बुद्धि समासउ कलिमलु णासउ, हो दुत्तर ससार तर ॥ इह जंबूदीवि भरहम्मिखित्ति, संपुण्ण मही बहु रिद्धि वित्ति । तह वण्णण को सक्कइ करेवि, तिकारणि कहिउ समुच्चएवि ।। इत्थतरि प्रइ रमणीउ रम्म, णामेण णयरु 'पासीयवण्ण' । पुरमंदिर गामाराम जुत, धण-कणय-समिद्धउ अइ विचित्तु ।। णिवसहि गायर जण बहु महंत, मह रिद्धि विद्धि संपुण्णवत । धम्मघर सुट्ठ महाविणीय, सकल पुर परियण समीय । सुह भुजहि माहि परम भोय, एवं बिहू तहि णिवसंत लोय । 'दिल्ली' पच्छिम दिसि सट्टि कोस, तहिं सावय जण णिवसहि असेस । जिण धम्मरत्त सुहमइ विसाल, मयरद्धरूवे तणु कणय माल । तहि मजिस पसिद्धउ 'प्रयरवाल', णामेण पउत्तउ 'रयणपालु'। तह सुउ 'महणसिंह परोवयारि, तहि गेहि उपण्ण [६] पुत्त चारि । 'दुल्लहु' 'णइवालु' 'सहजपालु', प्रणिक्कु कणि?उ 'पजुणपालु' । तहिं मज्नि जु दुल्लहु गुणगरिठ्ठ, रयणतउ जायउ तेणि सुट्ठ । 'हिमपालु' पढम पुणु 'देवपालु', तह लहुयउ पउत्तउ 'लद्दपालु'। 'हिमपालु' जु इह मज्झम्मि उत्तु, जिण चरण भत्तु अइ चार चित्तु । 'रइयाही' णामें भज्ज भत्त, वय-णियम-शील-संजम सइत्त । दिल्ली मजमम्मि वसंतएण, तहिं जायउ वाघू पुत्त तेण । पत्ता-इत्थतरि लोयई कालपपोयई खीण विहवि संपत्ता ।
दुह सागरि पडियइं माया जडियइं, णियम-धम्म परिचत्तइं॥१॥
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अनेकान्त
कर पीडिया पुहइ सयला समग्गा, वसाउथ्य साहय चउरो वि मग्गा। णियट्ठाण वासाई लोएहिं चत्ता, महा दुग्ग दूरम्मि सेहि पत्ता । महंमदसाहो वि राम्रो पयंडो, लियो तेण सायर पमाणेहि बंडो। उसक्किट णिछलिवि मलिनो वि माणो, किमो रज्ज इकच्छत्ति उवयंतमाणो। पप? वि दूसम्मि काले रउद्दे, पत्तो सुबाषय वफरायवादे । इहत्ति परत्तं सुहायार हेउ, तिणे लिहिय सुअपचमी णियहं हेउ ।। लिहेऊण सत्थोपसत्थाय लोए, पवुच्छामि जसु कित्त जिम पयडहोए। सुसंवच्छरे अषिकरा विक्कमेण, अहोएहिं तेणवदि तेरह सएणं । वरिस्सेय पुसेण सेयम्मि पक्खे, तिहि वारसी सोम रोहिणिहि रिक्खे । सुहज्जोइमय रगमो बुद्ध मत्तो, इप्रो सुंदरो सत्थु सुह दिणि समत्तो। जु भव्वोयणो पढइ भव्वाण लोए, सुदुक्कम्म णिग्गहु करइ मच्च लोए । जु धारेइ वउ पुणु जहा जुत्ति कहियो, मणो णिच्चले बंभचहि सहियो। सरिद्धीइविडीइ संपूण्णवतो, पण देवलोयम्मि ठाणे पहत्तो। घत्ता-तारायण ससिहरु जाम रवि, जावंचिय जिणधम्म कहा ।
णिसुणत पढ़तह भव्वयण ता गंदउ महि सत्थु इह ॥ २ ॥ संवत् १४८० वर्ष कातिग वदि सुक्र दिन श्री राइसीह पुत्र हलू पुस्तक लिषितं । तैलाद रक्षेद् जलाद रक्षेदू रक्षेद् सिथिलबन्धनात् । परहस्तगतं रक्षेत् एवं वदति पुस्तिका।।
देह से राग करना अहितकर है
कविवर दौलतराम मत कीजो जी यारी, घिनगेह देह जड़ जानिके ।। मत की० ॥टेक।। मात-तात-रज-बीरजसों यह, उपजी मल फूलवारी। अस्थिमाल-पल-नसा-जालकी, लाल लाल जलक्यारी । मत की० ॥१॥ कर्मकरगथलीपूतली यह, मूत्रपूरीष भंडारी । चर्ममँड़ी
घड़ी धन, -धर्म चुरावनहारी ।। मत की० ॥२॥ जे जे पावन वस्तु जगत में, ते इन सर्वविगारी । स्वेदमेदकफक्लेदमयी बह, मद-गद-व्यालपिटारी । मत की० ॥३॥ जा संयोग रोगभव तोलौ, जा वियोग शिवकारी। बुध तासों न ममत्व करै यह, मूढ़मतिन को प्यारी । मत की० ॥४॥ जिन पोषी ते भये सदोषी, तिन पाये दुख भारी। जिन तप ठान ध्यानकर शोषी, तिन परनी शिवनारी ।। मत की० ॥५॥ सूरधनु शरदजलद जलबुदबुद, त्यों झट विनशनहारी।। यातें भिन्न जान निज चेतन, दौल होहु शमधारी ।। मत को० ॥६॥
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निर्वाणकाण्ड के पूर्वाधार तथा उसके रूपान्तर
डा० विद्याधर जोहरापुरकर
१. प्रस्ताविका :
के कारण वे चौदहवी सदी के बाद के भी प्रतीत नहीं होते । दिगम्बर जैन समाज में निर्वाणकाण्ड एक सुपरिचित ३. गणकोति :रचना है। १६ प्राकृत गाथानों में निबद्ध यह र वना कई पन्द्रहवी सदी मे गुणकीर्ति ने धर्मामृत नामक मराठी पूजापाठों तथा स्तोत्रसग्रहों में प्रकाशित हो चुकी है। ग्रन्थ लिखा। इसके १६७वे परिच्छेद मे निर्वाणकाण्डइसका भैया भगवतीदास जी ने जो हिन्दी अनुवाद किया वणित सभी १६ तीर्थों का उल्लेख है तथा अतिशयक्षेत्रहै। वह भी कई बार छप चुका है। इस निबन्ध में निर्वा- काण्ड के मथुरा, अहिछत्र तथा वरणयर को छोडकर सभी णकाण्ड के अन्य रूपान्तरों तथा उसके पूर्वाधारो का परि
तीर्थों का उल्लेख है । मालवशान्तिनाथ, तिलकपुर, वाडवचय दिया जा रहा है।
जिनेन्द्र तथा माणिकदेव ये जो क्षेत्र उदयकीर्ति द्वारा २. उदयकोति :
वणित है इनका भी गुणकीति ने उल्लेख किया है। उनके इनकी तीर्थवन्दना में अपभ्रश भाषा में १८ पद्य है। जनता
वर्णन में तीर्थनामो के रूपान्तर इस प्रकार है-मगलपुर
पाता दस प्रकार है निर्वाणकाण्ड के कैलास, चम्पापुर, ऊर्जयन्त, पावापुर, के स्थान में मगलावती, अरमारंभ के स्थान मे आसारम्य सम्मेदशिखर, गजपथ, तारापुर, पावागिरि, (लवकुश पाटन। पावागिरि के स्थान में पावा महागढ तथा तारापूर सिद्धिस्थान), शत्रुजय, तुगी, रेवातट तथा बडवानी इन के स्थान में तारगागिरि । उन्होन कथगिरि के स्थान पर बारह तीर्थ क्षेत्रो का उदयकीति ने उल्लेख किया है। केवल वसथल पर्वत कहा है, चलना नदीतट का उल्लेख सवणागिरि, सिद्धवरकूट, रिस्सिदगिरि, कोटिशिला, कुथु- किया है किन्तु पावागिरि यह नाम छोड दिया है, इसी गिरि, मेढागिरि, दोणगिरि तथा पावागिरि (सुवर्णभद्र- प्रकार फलहोडी ग्राम का उल्लेख किया है किन्तु द्रोणगिरि सिद्धिस्थान) का इन्होंने उल्लेख नहीं किया है। अतिशय
यह नाम छोड दिया है। क्षेत्रकाण्ड के नागदह, मगलपुर, अस्सारम्भ, पोदनपुर, ४ मेघराज :हस्तिनापूर, वाराणसी, अग्गलदेव, सिरपुर तथा हुलगिर इनकी गुजराती नीर्थ वन्दना मे २२ पद्य है। ये इन नौ तीर्थों का उदयकीर्ति ने उल्लेख किया है तथा सोलहवी शताब्दी के प्रारम्भ में हुए है। इनकी रचना में मथुरा, अहिछत्र, जम्बूवन एव वरनगर का उल्लेख नहीं निर्वाणकाण्ड वणित तीर्थों में सिद्धवरकूट, पावागिरि (सबकिया है।
र्णभद्र-सिद्धिस्थान) नथा द्रोणगिरि को छोड़कर शेष सभी उदयकीति ने निर्वाणकाण्ड में अनुल्लिखित पाँच क्षेत्रों का उल्लेख है। अतिशयक्षेत्रकाण्ड के नागद्रह, पोदनपुर, का अधिक उल्लेख अपनी रचना में किया है, ये क्षेत्र है हस्तिनापुर, मिरपुर तथा होलागिरि (इसके नामान्तर -मालव शान्तिजिन, तिउरी के त्रिभुवनतिलक, कर्णाटक लक्ष्मीस्वर का उल्लेख है) इन पाच तीर्थों का मेघराज ने के वाडवजिनेन्द्र, तिलकपुर के चन्द्रप्रभ तथा माणिकदेव। उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त बेलगुल के गोमटस्वामी,
उदयकीति का समय निश्चित ज्ञात नही है तथापि तेर के वर्षमान, समुद्र के आदिनाथ, वडभोई के पार्श्वनाथ, इतना कहा जा सकता है कि वे बारहवी सदी के बाद के जीराउल के पार्श्वनाथ तथा तिलकपुर के चन्द्रनाथ का है क्योकि हुलगिरि के वर्णन में उन्होंने विज्जण राजा का भी उन्होने उल्लेख किया है। उल्लेख किया है। विज्जण बारहवी सदी मे कल्याण के ५. चिमणापण्डित :--सत्रहवी शताब्दी में उन्होंने कलचुर्य वंश में हुया था । त्रिपुरी और तिलकपुर के वर्णन मराठी मे ३७ पद्यों की तीर्थवन्दना लिखी है। इसमें
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अनेकान्त
निर्वाणकाण्ड मे वर्णित सभी तीर्थों का उल्लेख है । चिमणा- पावागिरि नाम का या सुवर्णभद्र का उल्लेख नहीं करते । पण्डित ने कैलास की वन्दना मे भरतनिर्मित मन्दिरों का, अतिशयक्षेत्रकांड के तीर्थों मे उन्होंने वाराणसी, मथुरा, पावापुर के पग्रसरोवर का तथा पावागिरि (लवकुश- जम्बूवन, सिरपुर, मागतदेव, हुलगिरि, इन छः स्थानों का सिद्धिस्थान) में गगादास द्वार। निर्मित मन्दिरो का भी वर्णन किया है। उल्लेख किया है। इन्होने तारगा मे कोटिशिला का सबध पन्द्रहवीं सदी के लेखक श्रुतसागर की बोधप्रामृत टीका जोड़ा है। यद्यपि कलिंगदेश का नाम भी इन्होने दिया है। में गाथा २७ के विवरण मे कैलास, चम्पापुर, पावापुर, मेढगिरि के स्थान में वे मुगतागिरि नाम का प्रयोग करते ऊर्जयन्त, समेदाचल, शत्रुजय, पावागिरि (गुजरात में), है तथा वहाँ मेढा (मराठी शब्द जिसका तात्पर्य बकरा तगीगिरि, गजपथ, सिद्धकूट, तारापुर, मेढगिरि, चूलगिरि, हैं) के उद्धार की चर्चा करते है, वहाँ की अखड तीर्थधारा द्रोणगिरि, नर्मदातट, कून्यगिरि, चलनानदीतट, कोटिशिला (नदी का प्रवाह) तथा अपार मन्दिरो व मूतिया का भी इन तीर्थों का नामोल्लेख है तथा अतिशयक्षेत्रकाड के तीथों उन्होंने जिक्र किया है। अतिशयक्षेत्रकाण्ड के क्षेत्रो मे वे मे से वाराणसी, हस्तिनापुर तथा जम्बूवन का नामोल्लेख सिर्फ सिरपुर का उल्लेख करते है तथा वहाँ के अन्तरिक्ष है। इन्ही की पल्याविधानकथा की प्रशस्ति मे ईडर के पासोजी (पार्श्वनाथ) की खरदूषण तथा श्रीपाल राजा मन्त्री भोजराज की कन्या पुत्तलिका द्वारा तुगी और गजद्वारा पूजा की चर्चा करते है। इसके अतिरिक्त लतासर्प- पन्थ की यात्रा का भी वर्णन है। वेष्ठित गोमटस्वामी तथा प्रतिष्ठान के मुनिसुव्रतमन्दिर पन्द्रहवी सदी मे ही अभयचन्द्र ने मांगीतुंगी के विषय का उन्होंने वर्णन किया है। निर्वाणकाण्ड की दो प्रक्षिप्त मे एक विस्तृत गीत (जिसमें मुख्यतः श्रीकृष्ण के अन्त व गाथाओं का अनुवाद भी इनकी रचना में मिलता है जिनमे बलराम के स्वर्गवास की कथा है) लिखा है। इसमे ४४ नर्मदातीर पर संभवनाथ की कैवल्यप्राप्ति का तथा मेध- पद्य है। वर्ष तीर्थ में मेघनाद की मुक्ति का उल्लेख है।
पूर्वोक्त गुणकीति ने भी ५ पद्यों का एक गीत तगी६. अन्य उल्लेखकर्ता :
गिरि के विषय मे लिखा है। उपर्युक्त चार लेखकों ने मुख्यतः निर्वाणकाड के सोलहवीं सदी के सुमतिसागर की जम्बूद्वीपजयमाला आधार पर अपनी रचनाए लिखी प्रतीत होती है। कुछ तथा तीर्थजयमाला में कुल ४० तीर्थ स्थानों के नाम उल्लिअन्य लेखकों ने भी तीर्थसम्बन्धी कृतियो मे निर्वाणकाड- खित है। इनमे कैलाश, समेदाचल, चम्पापुर, पावापुर, वणित कूछ तीर्थों के नाम सम्मिलित किये है। सत्रहवी गजपन्य, तगी, शत्रंजय, ऊर्जयन्त, मुक्तागिरि, तारगा (तथा सदी के लेखक ज्ञानसागर की सर्वतीर्थवन्दना मे कुल ७८ कोटिशिला), वासीनयर (कथुगिरि के लिए), रेवातट तथा स्थानों का वर्णन १०० छप्पयों में मिलता है। इन्होंने विंध्याचल (चलगिरि के लिए) ये तेरह तीर्थ निर्वाणकाण्डसंमेदाचल, चम्पापुर (तथा वहाँ के प्रचड मानस्तम्भ). वणित भी है। इन्होने अन्तरिक्ष (सिरपुर के पार्श्वनाथ) पावापुर (नथा वहाँ का तालाब के मध्य का मन्दिर), का भी नामोल्लेख किया है । ऊर्जयन्त (तथा वहाँ के सहसावन, लक्खाबन, राजुन की सोलहवी सदी के लेखक ज्ञानकीर्ति ने समेदाचल पर गुफा, भीमकुड, ज्ञानकुड तथा सात टोके), शत्रुजय (तथा राजा मानसिंह के मन्त्री साह नानू द्वारा जिनमन्दिरों के वहाँ के ललित सरोवर एवं प्रखयवड), तुगी, गजपथ, निर्माण का वर्णन किया है। यह उनके यशोधररचित के मुक्तागिरि (तथा वहाँ की नदी, मन्दिर, धर्मशाला तथा प्रशस्ति में प्राप्त होता है। पाँच दिन की यात्रा), कैलास, तारगा (तथा कोटिशिला). सत्रहवी सदी के लेखक सोमसेन की पुष्पाजलि जय पावागढ, कुंथुगिरि, वडवानी तथा सहेणाचल (सम्भवतः माला में कैलास, चम्पापुर, पावापुर, संमेदाचल, गिरनार सवणाबिरि के स्थान पर) इन निर्वाणकांडवणित स्थानों वडवानी, गजपन्थ, शत्रुजय, मुक्तागिरि, नर्मदातट ये निवा का उल्लेख किया है। वे उनका भी वर्णन करते हैं किन्तु काण्डवणित तथा गोमटदेव एवं अन्तरिक्ष (सिरपुर)
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निर्वाणकाण्ड के पूर्वाधार तथा उसके रुपान्तर
अतिशयक्षेत्रकाण्डवणित तीर्थ उल्लिखित है।
ग्रन्थों मे मिलता है। सत्रहवी सदी के ही लेखक जयसागर की तीर्थजयमाला बलराम के स्वर्गवास स्थान में तुगीगिरि का तथा मे कुल ४६ तीर्थों का नामोल्लेख है। इनमें निर्वाणकाण्ड- पाण्डवों के निर्वाणस्थान श@जय का वर्णन भी हरिवंशवणित कैलास, संमेदाचल, चम्पापुर, पावापुर, गिरिनार, पुराण तथा महापुराण में प्राप्त है। किन्तु राम, हनुमान शत्रुजय, वशस्थल, मुक्तागिरि, तुगी, गजपन्थ, तारगा तथा प्रादि का तुगीगिरि से सम्बन्ध निर्वाणकाण्डकर्ता के पहले अतिशयक्षेत्रकाण्डवणित प्रागलदेव, गोमटदेव, सिरपुर, किसी ने नहीं जोडा था। हलगिरि इन तीर्थों के नाम पाये जाते है।
गजध्वज पर्वत के समीप पहले बलभद्र श्रीविजय के सत्रहवीं सदी के ही विश्वभूषण की सर्वत्रलोक्यजिना- समवसरण का उल्लेख उत्तरपुराण में मिलता है। किन्तु लय जयमाला मे २६ तीर्थों का उल्लेख है जिनमे सोना
उनका तथा अन्य छः बलभद्रों का निर्वाण गजपथ पर गिरि, रेवातट, सिद्धकूट, बडवानी ये तीर्थ निर्वाणकाण्ड
हुप्रा यह मान्यता निर्वाणकाण्ड के पहले उपलब्ध नहीं वणित तथा अग्गलदेव, हलगिरि, गोमटदेव ये अतिशयक्षेत्र होती। काण्ड वर्णित है।
वरदत्त के निर्वाणस्थान तथा वरांग के स्वर्गवाससत्रहवी सदी मे ही मेरुचन्द्र तथा गंगादास द्वारा स्थान के रूप में मणिमान पर्वत का वर्णन जटासिंहनन्दि तुगोगिरि की यात्रा के लिए लिखे गये बलभद्र-अष्टक प्राप्त के बरागचरित मे मिलता है। इसका जो स्थान उन्होने
बतलाया है वह वर्तमान तारंगा से मिलता-जुलता है। अठारहवी सदी के प्रारम्भ मे कारजा के भ० देवेन्द्र- यहाँ पर गुजरात के पाठवीं सदी के राजा वत्सराज ने कीति ने गजपन्थ, तुगी, तारगा, शत्रुजय तथा गिरिनार तारादेवी का मन्दिर बनवाकर तारापुर ग्राम बसाया था । की यात्रा सघसहित की थी। उन्होने तत्सबधी छप्पयो मे निगम में मणिमान पवंत का नाम न देकर केवल यात्रातिथियाँ भी दी है। उनके शिष्य जिनसागर की लहु
इतना बताया है। कि यह स्थान तारापुर के निकट है इस अकश कथा मे राम-पुत्रो के निर्वाणस्थान पावागिरि का तरह दोनो वर्णनों में कोई विरोध नहीं हैं। उल्लेख है।
लव कुश के निर्वाणस्थान का कोई वर्णन निर्वाणकाड सत्रहवी सदी मे धनजी ने तथा अठारहवी सदी में के पर्व नहीं मिलता। यह बात सवणागिरि, सिद्धवरकूट, राघव ने मुक्तागिरि की जयमाला व भारती की रचना
पावागिरि (सुवर्णभद्र-मिद्धिस्थान), मेदगिरि तथा रिम्मिकी थी। इनमें पहनी मस्कृतमिथित हिन्दी में तथा दूमग द गिरि के बारे में भी है। मराठी में है।
इन्द्रजित तथा कुम्भकर्ण का निर्वाणस्थान पारित कारजा के भ० देवेन्द्रकीनि के शिष्य पडित दिलमुख
अनुसार क्रमश. विध्य पर्वत के महावन में मेघग्व तथा ने मन् १८३७ म अकृत्रिम चन्यालय जयमाला में पावा
नर्मदा के किनारे पिठरक्षन यह था । निर्वाणकाण्ड में दोनो गिरि (दोनो), द्रोणागिर तथा पिद्धवरकूट को छोडकर
का निर्वाण वडवानी के पाग चलगिरि पर बताया है। चलनिर्वाण काण्ड वणित गभी तीर्थो का नामोउल्लेख किया है।
गिरि विन्ध्य पर्वन के महावन में भी है तथा नर्मदा के तीर दमी ममय के लगभग कवीन्द्रमेवक की मराठी तीर्थ
के पास भी है। इस तरह पद्मवरित के वर्णन से यह बन्दना में कैलाम, शत्रजय' मागीनगी, गिरिनार, मुक्ति
मिलता-जुलना है। हो सकता है कि पुराने समय में चूलगिरि यथा गजपन्थ का उल्लेख प्राप्त होता है।
गिरि के ही अासपास के दो स्थान मेघरव तथा पिठरक्षत ७. पूर्वाधार :--
के नाम से प्रसिद्ध हों तथा निर्वाणकाण्डकर्ता ने दोनो के निर्वाणकाण्ड मे वणित पहले पाँच तीर्थों का (कलाम लिए समीपवर्ती चलगिरि का नाम दे दिया हो (जमे कि चम्पापुर पावापुर, ऊर्जयन्त तथा समंदाचल का) वर्णन मणिमान पर्वत के लिए उन्होंने तारापुर का नाम दिया पद्मचरित, हरिवशपुराण, महापुराण प्रादि अनेक पुरातन है)।
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अनेकान्त
दोणिमंत पर्वत पर गुरुदत की सिद्धिप्राप्ति का उल्लेख निर्वाणप्राप्ति की चर्चा की है इसका भी कोई पूर्वाधार शिवार्यकृत भगवती पाराधना तथा हरिषेण के वृहत्कथा- प्राप्त नहीं है। कोश मे आता है। इसी को निर्वाणकाण्ड मे द्रोणगिरि निर्वाणकाण्ड का रचना काल :कहा है। हरिषेण के अनुसार यह लाट देश (दक्षिण गुज- ऊपर वराग के निर्वाणस्थान की चर्चा में बतलाया रात) मे था।
है कि सातवी सदी मे जटासिहनदि ने यह स्थान मणि__ वगस्थलपुर के समीप राम द्वारा देशभूषण-कुलभूषण मान पर्वत बतलाया है तथा पाठवी सदी में यहाँ तारापुर के उपसर्ग के निवारण की कथा पद्मचरित मे पाती है। ग्राम बसाया गया था जिसका नाम निर्वाणकाण्ड मे वहाँ इस पर्वत का नाम वशगिरि अथवा रामगिरि बत- मिलता है। इस पर से प्रतीत होता है कि यह रचना लाया है। निर्वाणकाण्ड में इन नामों के स्थान पर कुन्थ- पाठवीं सदी के बाद की है। प्रभाचन्द्र की दशभक्तिटीका गिरि नाम दिया है जो सम्भवत: उसी प्राचीन स्थान के मे सस्कृत निर्वाणभक्ति की टीका है किन्तु निर्वाणकाण्ड लिए उनके समय मे अधिक प्रचलित था।
की नही है इस पर से प्रतीत होता है कि यह दसवी सदी ___ कोटिशिला का वर्णन भी पद्मचरित तथा हरिवश- के बाद की रचना होनी चाहिए। यदि अतिशयक्षेत्रकाण्ड पुराण में आता है। किन्तु यशोधर राजा के पुत्रों के के कर्ता और निर्वाणकाण्ड के कर्ता एक ही हो तो भी निर्वाणस्थान के रूप में निर्वाणकाड में इसका जो परिचय उनका समय दसवीं सदी के बाद का होगा, क्योकि अतिदिया है वह उससे पूर्व उपलब्ध नहीं होता । निर्वाणकांड शयक्षेत्र काण्ड में उल्लिखित सिरपुर के पार्श्वनाथ की में उसे कलिगदेश मे बतलाया है । इसके स्थान के बारे में स्थापना दसवी सदी में ही हुई थी। ऊपर निर्वाणकाण्ड विभिन्न ग्रन्थकर्तामो मे मतभेद है।
के रूपान्तरो का जो परिचय दिया है उसमे सर्वप्रथम संस्कृत निर्वाणभक्ति (जो टीकाकार प्रभाचन्द्र के रूपान्तरकार उदयकीर्ति का समय तेरहवी-चौदहवी सदी कथनानुसार पादपूज्य स्वामी की कृति है तथा अधिकाश बतलाया है। अतः निर्वाणकान्ड ग्यारहवी या बारहवी विद्वान पादपूज्य को पूज्यपाद देवनन्दि का ही नामान्तर सदी की रचना प्रतीत होती है। समझते है) मै कैलास, चम्पापुर, पावापुर, ऊर्जयन्त, सम्मे- उपसहार :दाचल, शत्रजय, तु गी, गजपथ, सुवर्णभद्र का सिद्धिस्थान प० नाथूराम जी प्रेमी तथा डा० हीरालाल जी जैन नदीतट (नदी का नाम नही बतलाया है), द्रोणीमत, मेढ़क, ने सर्वप्रथम सन् १९३६ में जैन सिद्धान्त भास्कर मे हमारे वरसिद्धकट, ऋष्यद्रि, विध्य, इन निर्वाणकांडवणित तीर्थों तीर्थक्षेत्र शीर्षक विस्तत लेख मे निर्वाणकाण्ड की समीक्षा का उल्लेख मिलता है - इस तरह निर्वाणकाड के पूर्वा- की थी। बाद मे प्रेमी जी के जैन साहित्य और इतिहास धारों मे यह सबसे मुख्य रचना है। इसमे पहले पांच में भी यह निबन्ध प्रकाशित हुआ है। ऊपर निर्वाणकान्ड स्थानों मे तीर्थकरों के निर्वाण का उल्लेख है। शत्रुजय में के जो पूर्वाधार बताये हैं वे बहुत कुछ इसी निबन्ध से पांडवो के तु गी मे बलभद्र के तथा नदीतट पर सुवर्णभद्र लिए गये है। किन्तु उक्त निबन्ध लिखते समय सम्भवतः के सुगतिप्राप्ति का भी उल्लेख है। शेष स्थानों के केवल निर्वाणकान्ड के जिन रूपान्तरों का हमने परिचय दिया नाम है।
है वे उपलब्ध नहीं थे। हमने तारगा, चूलगिरि, द्रोणगिरि निर्वाणकाड मे पाठ कोटि यादव राजा (गजपन्थ), तथा कथुगिरि के सम्बन्ध मे जो विचार व्यक्त किये है वे पाँच कोटि लाट राजा (पावागिरि), आठ कोटि द्रविण भी उपयुक्त निबन्ध से भिन्न है। राजा (शत्रुजय) तथा तारापुर के निकट ३।। कोटि, इस निबन्ध मे चचित कृतियो के मूल पद्य हमारे ऊर्जयन्त पर ७२ कोटि सातसी, तुगीगिरि पर ६६ कोटि तीर्थवन्दनसंग्रह (जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर द्वारा रेवातट पर २॥ कोटि, सवणागिरि पर २॥ कोटि, सिद्ध- १९६५ में प्रकाशित) मे पूर्णतः सकलित हैं। यहां विस्तारवरकूट पर ३॥ कोटि, मेढगिरि पर ३॥ कोटि मुनियों को भय से उन्हें उद्धत नही किया गया है।
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भारतीय दर्शनों में प्रमाणभेद की महत्त्वपूर्ण चर्चा
डा० दरबारीलाल कोठिया
भारतीय दर्शनो मे प्रमाणभेद की महत्वपूर्ण एवं वना या गौतम की तरह उनके समावेशादि की चर्चा नही ज्ञातव्य चर्चा उपलब्ध है । सभी दर्शनों ने उस पर विमर्श की। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदो किया है। प्रस्तुत मे विचारणीय है कि प्रमाण, जो वस्तु- की मान्यता प्राचीन है। चार्वाक के मात्र अनुमान-समीव्यवस्था का मुख्य साधन है, कितने प्रकार का है और क्षण और केवल एक प्रत्यक्ष के समर्थन से भी यही अवगत जसके भेदों का सर्वप्रथम प्रतिपादन करनेवाली परम्परा होता है। जो हो, इतना तथ्य है कि प्रत्यक्ष भोर अनुमान क्या है ? दार्शनिक ग्रन्थों का पालोडन करने पर ज्ञात इन दो को वैशेषिको और बौद्धो ने'; प्रत्यक्ष, अनुमान होता है कि प्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और और शब्द इन तीन को साख्यों ने'; उपमान सहित उक्त शब्द इन चार भेदों की परिगणना करने वाले न्यायसूत्र- चार को नैयायिकों ने और अपत्ति तथा प्रभाव सहित कार गौतम से भी पूर्व प्रमाण के अनेक भेदों की मान्यता उक्त छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमासको) ने स्वीकार रही है, क्योंकि उन्होंने ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और किया है। आगे चलकर जैमिनीय दो सम्प्रदायों मे प्रभाव इन चार का स्पष्ट रूप में उल्लेख करके उनकी विभक्त हो गये-भाद्र और प्राभाकर । भाद्रों ने तो छहों अतिरिक्त प्रमाणता की समीक्षा की है तथा शब्द मे प्रमाणों को मान्य किया। पर प्राभाकरो ने प्रभाव को ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीन का अन्तर्भाव प्रद- छोड़ दिया यथा शेष पाच प्रमाणो को स्वीकार किया। शित किया है। प्रशस्तपादने' प्रत्यक्ष और अनुमान इन इस तरह विभिन्न दर्शनों मे प्रमाण भेद की मान्यताएं दो प्रमाणो का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्राप्त होती है। प्रमाणों का इन्ही दो में समावेश किया है । तथा चेष्टा,
जैन दर्शन में प्रमाण के भेद :निर्णय, प्रार्प (प्रातिभ) और सिद्धदर्शन को भी इन्हीं के अन्तर्गत सिद्ध किया है।
जैन दर्शन में भी प्रमाण के सम्भाव्य भेदों पर विस्तृत प्रशम्नपाद से पूर्व उनके मूत्रकार कणादन प्रत्यक्ष ।
६. प्रत्यक्षमनुमान च प्रमाण हि द्विलक्षणम् । और लैङ्गिक के अतिरिक्त अन्य प्रमाणों की कोई सम्भा
प्रमेयं तत्प्रयोगार्थ न प्रमाणान्तर भवेत् ।। ---- - - - - -----------
-दिइनाग, प्रमाणममु० (प्र० परि०) का० २, १. प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दा प्रमाणानि । -गौतम अक्षपाद, न्यायमू० १११॥३॥
पृ० ४ ।
७ दृष्टमनुमानमाप्तवचन च सर्वप्रमाणमिद्धत्वात् । २. न, चतुष्ट वम, ऐतिह्यार्थापत्तिमम्भवाभावप्रामाण्यात् ।।
विविध प्रमाणमिष्ट प्रमेयसिद्धि प्रमाणाद्धि ।। ३. शब्द ऐनिह्यानर्थान्तरभावादनुमानेऽर्थापत्तिसम्भवाभा
-ईश्वरकृष्ण, सा० का० ४ । वानर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः ।
८. अक्षपाद, न्यायसू० ११११३। -~~-वही, २।२।११,२॥
६. शाबरभा० ११११५।। ३. शब्दादीनामप्यनुमानेऽन्तर्भाव समानविधित्वात् ।...। १०. जैमिनेः पटप्रमाणानि चत्वारि न्यायवेदिन.।
-प्रश० भ० १० १०६-१११ । १२७-१२६ । साख्यस्य त्रीणिवाच्यानि द्वे वैशेपिकबौद्धयोः । ४.,५. तयोनिप्पत्तिः प्रत्यक्षलेङ्गिकाम्याम् ।
-अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमा० २१२ के टिप्पण मे -वैशेषि० सू० १०॥१॥३॥
उद्धृत पद्य, पृ० ४३ ।
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अनेकान्त
ऊहापोह उपलब्ध है । भगवती मूत्र में चार प्रमाणो का मतिश्रतावधिमनः पर्यय केवलानि ज्ञानम् । तत्प्रमाणे ।" उल्लेख है-१. प्रत्यक्ष, २. अनुमान, ३. उपमान और मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान ४. पागम । स्थानागसूत्र में प्रमाण के अर्थ मे हेतु शब्द सम्यग्ज्ञान है और वे प्रमाण है। का प्रयोग करके उसके उपर्यक्त प्रत्यक्ष विचार भेदों का आशय यह कि षटखण्डागम मे प्रमाण और प्रमाणानिर्देश किया है । भगवती और स्थानागका यह प्रदिपादन भास रूप से जानो का विवेचन होने पर भी उस समय लोक संग्रह का सूचक है।
की प्रतिपादन शैली के अनुसार जो उसमे पाँच ज्ञानों को पागमो मे मुलतः ज्ञान-मीमासा ही प्रस्तत एव विवे- सम्यग्ज्ञान और तीन ज्ञानो को मिथ्याज्ञान कहा गया है। चित है । षट्खण्डागम में विस्तृत ज्ञान-मोमासा दी गयी वह प्रमाण तथा प्रमाणाभास का प्रवबोधक है । राजहै । वहाँ तीन प्रकार के मिथ्याज्ञानी और पांच प्रकार के प्रश्नीय, नन्दीसूत्र और भगवती सूत्र मे भी ज्ञानमीमासा सम्यग्ज्ञानों का निरूपण किया गया है तथा उन्हें वस्तू- पायी जाती है। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, परिच्छेदक बताया गया है। यद्यपि वहाँ प्रमाण और श्रुत, प्रादि पाँच भेदों की परम्परा पागम में वर्णित है। प्रमाणाभास शब्द अथवा उस रूप मे विभाजन पुष्टिगोचर परन्तु इतर दर्शनो के लिए वह अज्ञान एव अलौकिक नहीं होता । तथापि एक वर्ग के ज्ञानो को सम्यक और जैसी रही, क्योकि अन्य दर्शनो के प्रमाण-निरूपण के साथ दूसरे वर्ग के ज्ञानो को मिथ्या प्रतिपादित करने से अवगत उसका मेल नही खाता । अतः ऐसे प्रयत्न की आवश्यकता होता है कि जो ज्ञान सम्यक् कहे गये है वे सम्यक परि- थी कि अागम का समन्वय भी हो जाय और अन्य दर्शनों च्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया के प्रमाण-निरूपण के साथ उसका मेल भी बैठ जाय । इस है वे मिथ्या ज्ञान कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट दिशा मे सर्व प्रथम दार्शनिक रूप से तत्त्वार्थसूत्रकार ने है । हमारे इस कथन की सम्पुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार के निम्न समाधान प्रस्तुत किया। उन्होने' तत्त्वार्थसूत्र मे ज्ञानप्रतिपादन से भी होती है।
मीमासा को निबद्ध करते हुए स्पष्ट कहा कि जो मति
आदि पाँच ज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान वणित है वह प्रमाण है १. 'गोयमा-से कि त पमाण? पमाणे चउविहे पण्णत्ते और मल में वह दो भेद रूप है-1. प्रत्यक्ष और २. -तं जहा पच्चक्खे अणुमाणे प्रोवम्मे पागमे जहा
परोक्ष । अर्थात् आगम मे जिन पाँच ज्ञानो को सम्यग्ज्ञान अणुयोगद्दारे तहा यव्व पमाण ।
कहा गया है वे प्रमाण है तथा उनमे मति और श्रुत ये -भ० सू० ५।३।१६१-१६२ ।
दो ज्ञान इन्द्रियादि पर सापेक्ष होने से परोक्ष तथा २. अहवा हेऊ चउविहे पण्णत्ते, त जहा पच्चक्खे अणु
अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन पर सापेक्ष न होने माणे प्रोवम्मे प्रागमे ।
एवं आत्म मात्र की अपेक्षा से होने के कारण प्रत्यक्ष -स्था० सू० ३३८ । ३. णाणाणुवादेण अस्थि मदि-अण्णाणी सुद-अण्णाणी
४. प्रा० गृद्धपिच्छ, त० सू० १९, १० । विभगणाणी प्राभिणिवोहिय णाणी सुद-णाणी अोहि
५. वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक कणाद ने भी इसी शैली से
बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर णाणी मणपज्जव-णाणी केवलणाणी चेदि । (ज्ञान
अविद्या के सशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि की अपेक्षा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभगज्ञान,
चार कुल पाठ भेदों की परिगणना की है। तथा आभिनिबोधिक-ज्ञान, श्रुत-ज्ञान, अवधि-ज्ञान, मनः पर्यय-ज्ञान और केवल ज्ञान ये केवल आठ ज्ञान है।
दूषित ज्ञान (मिथ्याज्ञान) को अविद्या और निर्दोष इनमे आदि के तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान और अन्तिम
ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) को विद्या कहा है।
-देखिए, वै. सू० ६।२७, ८, १० से १३ तथा पांच ज्ञान सम्यग्ज्ञान है।)
१०॥१॥३॥ -भूतबली-पुष्पदन्त, षट्ख० १०१।१५॥
६. त० सू० ११६, १०, ११, १२ ।
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भारतीय दर्शनों में प्रमाणभेव की महत्त्वपूर्ण चर्चा
प्रमाण है। प्राचार्य गृद्धपिच्छ की यह प्रमाण द्वय को प्रत्येक के लक्षण भी वही मिलते है। लगता है कि गृद्धयोजना इतनी विचार युक्त और कौशल्यपूर्ण हुई कि पिच्छ और अकलङ्क ने जो प्रमाण निरूपण की दिशा प्रमाणों का प्रानन्त्य भी इन्हीं दो मे समाविष्ट हो जाता प्रदर्शित की उसी पर उत्तरवर्ती जैन तार्किक चले है। है। उन्होंने प्रति संक्षेप में आगमोक्त मति, स्मृति, सज्ञा विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, हेमचन्द्र, और धर्मभूषण (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (ग्रनुमान) प्रभृति ताकिको ने उनका अनुगमन किया और उनके को भी प्रमाणान्तर स्वीकार करते हुए उन्हे मतिज्ञान कह कथन को पल्लवित किया। कर 'माये परोक्षम" सूत्र द्वारा उनका परोक्ष प्रमाण में
स्मरणीय है कि प्रा. गृद्धपिच्छ के इस प्रत्यक्ष-परोक्ष समावेश किया; क्योंकि ये सभी ज्ञान परसापेक्ष है । वैशे
प्रमाण द्वय विभाग से कुछ भिन्न प्रमाणद्वय का प्रतिपादन षिकों और बौद्धो ने भी प्रमाण द्वय स्वीकार किया है, पर
भी हमे जैन दर्शन में प्राप्त होता है। वह प्रतिपादन है उनका प्रमाण द्वय प्रत्यक्ष और अनुमान रूप है तथा अनु
स्वामी समन्तभद्र का । स्वामी समन्तभद्र ने प्रमाण (केवलमान में स्मति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क का समावेश सम्भव
ज्ञान) का स्वरूप युगवत्सर्व भामी तत्त्वज्ञान बतलाकर ऐसे नही है । अतः आ. गृद्ध पिच्छ ने उसे स्वीकार न कर
ज्ञान को अक्रमभावी और क्रमश अल्पपरिच्छेदी ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप प्रमाण द्वय का व्यापक विभाग
क्रमभावी कहकर प्रमाण को दो भागो में विभक्त किया प्रतिष्ठित किया । उत्तरवर्ती जैन तार्किको के लिए उनका
है । समन्तभद्र के इन दो भेदो में जहाँ प्रक्रमभावी मात्र यह विभाग प्राधार सिद्ध हुआ। प्राय सभी ने अपनी
केवल है और क्रमभावी मति, श्रत, अवधि मौर मन पर्यय कृतियो में उसी के अनुसार ज्ञानमीमासा और प्रमाण
ये चार ज्ञान अभिमत है वहाँ गृद्धपिच्छ के प्रत्यक्ष और मीमासा का विवेचन किया है। पूज्यपाद ने' न्यायदर्शन
परोक्ष इन दो प्रमाण भेदो में प्रत्यक्ष तो अवधि, मन पर्यय आदि दर्शनों मे पृथक् प्रमाण के रूप में स्वीकृत उपमान,
और केवल ये तीन ज्ञान है तथा परोक्ष मति और श्रत ये अर्थापनि और आमम आदि प्रमाणो को परसापेक्ष होने से
दो ज्ञान इष्ट है। प्रमाण भेदों की इन दोनो विचारपरोक्ष में अन्तर्भाव किया और तत्त्वार्थमूत्रकार ने प्रमाण
धारानी मे वस्तुभूत कोई अन्तर नही है। गृद्धपिच्छ का द्वय का समर्थन किया है। प्रकलङ्क ने भी इसी प्रमाण
निरूपण जहाँ ज्ञान कारणो की सापेक्षता पौर निरपेक्षता द्वय की सम्पुष्टि की, साथ ही नये आलोक में प्रत्यक्ष और
पर प्राधृत है वहा समन्तभद्र का प्रतिपादन विषयाधिगम परोक्ष की परिभाषामों तथा उनके भेदो का भी बहुत
के क्रम और अक्रम पर निर्भर है। पदार्थों का क्रम से स्पष्टता के साथ प्रतिपादन किया है । परोक्ष की स्पष्ट
होनेवाला ज्ञान क्रमभावि और युगवत् होने वाला प्रक्रमसख्या' सर्वप्रथम उनके ग्रन्थों में ही उपलब्धि होती है और
भावि प्रमाण है। पर इस विभाग की अपेक्षा गृपिच्छ १. मतिः स्मृतिः सज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनन्तरम् ।
का प्रमाण द्वय विभाग अधिक प्रसिद्ध पोर ताकिको द्वारा -त. मू० १११४। २. वही, १।११।
अनुसृत हुआ है। . ३. अत उपमानागमादीना मत्रैवान्तर्भावः । -पूज्यपाद, स० सि० १।११।
६. विद्यानन्द, प्र० ५० १०६६ । ४. प्रत्यक्ष विशद ज्ञान मुख्यसव्यवहारतः ।
७. मणिस्यनन्दि, परी० मु. १, २ तथा ३।१, २ परोक्ष शेषविज्ञान प्रमाणे इति सग्रह. ।।
८. हेमचन्द्र, प्र० मी० १११६, १० तथा ११२१,२ -प्रकलङ्क, लघीय, ११३। ज्ञानस्यैव विशदनिर्भासित प्रत्यक्षत्वम्, इतरस्य ६.
६. धर्मभूषण, न्यायदी. प्रत्य० प्रका०, पृ० २३ तथा परोक्षता । -वही, स्व. वृ० ११३।
परो० प्रका० पृ० ५३ ५. ज्ञानमाद्य मतिः सज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधिकम् । १०. तत्त्वज्ञान प्रमाण ते युगपत्मवंभासनम् । प्राइ नामयोजनात् शेष श्रत शब्दानुयोजनात् ।।
क्रमभावि च यज्ज्ञान स्याद्वादनयसम्कृतम् ।। -वही, ११११ तथा ३१६१ ।
समन्तभद्र, प्राप्तमी० का० १०१
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मुस्लिम युगीन मालवा का जैन पुरातत्व
तेजसिंह गौड़, एम. ए. रिसर्च स्कालर
संवत १३६७ के पश्चात् मालवा मे राजपूतो का (४) छपेरा:-यह ग्राम जिला रायगढ़ (ब्यावरा) प्रभाव पहले जैसा नही रहा। जब जयसिंह देव चतुर्थ मे है । यहाँ कुछ जैन मूर्तियाँ मिली है जिन पर कुछ लेख मालवा में राज्य कर रहा था तब मुसलमानों ने बडा भी उत्कीर्ण है। उत्पात मचाया था। एक प्रकार से जयसिह देव चतुर्थ इसके अतिरिक्त इस युग की कुछ और जैन प्रतिमाएं अन्तिम राजपूत राजा था। राजपूत कालीन जैन पुरा- मिलती है जिन पर लेख उत्कीर्ण है। लेख मे अंकित तत्व के विषय मे मैं अपने एक निवन्ध' के द्वारा प्रकाश संवत के आधार पर वे प्रतिमाएँ इस काल की प्रमाणित डाल चुका हूँ । इस लघु निबन्ध में मुस्लिम युगीन मालवा होती हैं। एक प्रतिमा पर स० ६१२ का लेख उत्कीर्ण के जैन पुरातत्व पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा है। इसमे इस मूर्ति की प्राचीनता सिद्ध होती है। किन्तु रहा है।
वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । श्री नन्दलाल लोढा' का कहना जयसिह देव चतुर्थ के उपरान्त मालवा के मुसलमान है कि इस लेख में संवत ६१२ विचारणीय है, क्योकि इस शासका के अधीन चला गया। इस काल में जन मान्दरा समय मांडवगढ के अस्तित्व का कोई प्रमाण उपलब्ध नही, का निर्माण प्रचुर मात्रा मे नही हो पाया तथापि कही
उपलब्ध प्रमाणो से तो सवत १७१ के महाराजा वाक्पतिकही इस काल के बने हुए मन्दिरो के भग्नावशेष उपलब्ध
भग्नावशेष उपलब्ध राज के पुत्र वैरीसिह की अधीनता मे मॉडवगढ़ का होना होते है जो इस प्रकार है :
प्रमाणित हुअा है । इसके पहले के प्रमाण अभी मिले नही (१)कोठड़ी :-यह ग्राम मन्दसौर जिले की गरोठ
हैं। अत: यह शायद स० १६१२ सम्भावित दिखता है। तहसील से २४ मील की दूरी पर स्थित है। यहा पर
इन जमाने में मांडवगढ के महमूद खिलजी के दीवान १४वीं शताब्दी का एक जैन मन्दिर है जो बाद में ब्राह्मण
चॉदाशाह का उल्ले व इतिहास में मिलता है। सम्भव है धर्म के मन्दिर रूप में परिवर्तित कर लिया गया है।
कि इस लेख में धनकुबेर के विशेषण से उल्लिखित शा. (२) मामौन :-यह ग्राम गुना जिले में स्थित है। चन्द्रसिह शायद ये ही चांदाशाह हो । यह प्रतिमा तारापूर यहाँ हिन्दू व जैन मन्दिरो के समूह उपलब्ध हुए है। तीर्थ से सम्बन्धित है और लेख निम्नानुसार है - मूर्तियाँ भी मिली है तथा मन्दिरो में नक्काशी का काम
___ "सबत ६१२ वर्ष शुभ चैत्रमासे शुक्ले च पचम्या
तिथौ भौमवामरे श्रीमडपदुर्ग मध्यभागे तारापुर स्थित (३) चैनपुरा :-यह ग्राम मन्दसौर जिले मे है ।
पार्श्वनाथ प्रसादे गगनचुम्बी-(बि) शिखरे श्री चन्द्रप्रभ यहाँ एक दीर्घकाय जैन प्रतिमा मिली है। यह प्रतिमा
बिम्बस्य प्रतिष्ठा कार्या प्रतिष्ठाकर्ता च धनकुबेर शा० आजकल भानपुरा में है।
चन्द्रसिंहस्य भार्या जमुनापुत्र श्रेयार्थ प्र. जगच्चन्द्र १. अनेकान्त ।
सूरिभि.।" 2. Bibliography of Madhyabharat Part 1
मालवा के सुल्तान श्री गयासुद्दीन के ममय का एक पृष्ठ 29. ३. वही पृष्ठ २४ ।
५. वही पृष्ट । 7. Bibliography of Madhya Bharat part 1 ६. मांडवगढ तीर्थ पृष्ठ ४३-४४ । पृष्ठ ८ ।
७. जैन तीर्थ सर्वस ग्रह भाग २ पृष्ठ ।
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मुस्लिम युगीन मालवा का जैन पुरातत्त्व
लेख मिलता है जो तारापुर तीर्थ निर्माण-काल पर प्रकाश निपुणः जिनाधीनः स्वांतः १६ स्वगुरुचरणाधनपर. । पुनीडालता है तथा जिससे यह प्रमाणित हो जाता है कि उप- भार्या मुक्तोनुभवतिगृह स्वाश्रयसुख ॥१॥ चिर नदतु ।। युक्त लेख से उत्पन्न भ्राति दूर हो जाती। पूरा लेख' सर्व शभ भवत् ॥श्रीरस्तु॥ निम्नानुसार है .-.
इस युग में भी बड़े-बड़े पदो पर कुछ जैनी नियुक्त १॥५०॥ श्रीजिनाय नमः । जयति परमतत्वानन्द केली- थे। उनमे संग्रामसिंह सोनी, चादाशाह, जीवणशाह, पुजविलास - त्रिभुवनमहनीयः सत्वरूपविधिवास.-२ दलित- राज, मन्त्री मेघराज और जीवनराज आदि आदि । विषयदोपोरिक्तजन्मप्रयास' प्रभरनुपमधामावकृतः श्रीम- ममार्मासह सोनी के द्वारा मक्सी पाश्वनाथ तीर्थ का निर्माण पासः ॥१॥ सवत १५५१ वर्षे...शाके---(३) १४१६... हा, ऐसा उल्लेख मिलता है'। वैसाखमुदी षष्टी शुक्रवासरे पुनरवसुनक्षत्र (मालवीद्र) चन्देरी का चौबीसी जैन मन्दिर भी उल्लेखनीय है। सुलताण श्री ग्यासदीन विजय ४ राज्ये । तस्य पुत्र सुलताण इस मन्दिर का निर्माण विक्रम स० १८६३ अर्थात् सन् श्री नासिरमाही युवराज्ये । मन्त्रीवर माफरकमलिक श्री १८६३ मे हुआ था। और इसके बाद के भी अनेक उदापुजराज बाधव मुजराज सहित । श्रीमालजातीय बुहरा- हरण हमे मिल सकते है । गोत्र बुहरारणमल्ल भार्या रयणाये । पुत्र बुहग श्रीपारस
या रयणाय । पुत्र बुहग थापारस चकि इस काल में निर्माण के स्थान पर तोड़-फोड भार्या उभय ६ कुलानन्ददायिकी सत्पुत्र रत्नगर्भा...त्पुत्र एव विघ्वस अधिक हना है। इसके प्रमाण यत्र-तत्र विखरे बहरा गोपाल । उभयकुलालंकरण । सुशी नाभार्या पूनी ७ पडे है तथा इतिहास भी इसका माक्षी है । अनेक देवलयों पत्र संग्राम जी जा बहरा मग्राम भायों करमाई। जो जा को मसलमान शासकों ने मस्जिद में परिवर्तित कर लिया भार्या जी वारे । प्रमुख म्बकुटुम्बयुनेन ॥ श्रीभिन्नमाला है और जिसके प्रमाण हम बराबर मिलते है। श्री गणेशवडगच्छे श्रीवादी देवमूरी मताने । स्वगुरु श्रीवीरदेवसूरीः। दन शर्मा 'इद्र' का कहना है, "अागरा की जामामस्जिद तत्प? श्री अमरप्रभमूरी तत्पट्टालकार विजयवता ६ जिसे "होशंगमाही मस्जिद" भी कहते है, एक जैन मन्दिर गच्छ नायक पूज्यश्री श्री कनकप्रभसूरीश्वराणाम । उप- तोडकर बनवाई गई। दम मस्जिद में उस समय का एक देशेन प्रगटप्रतापमल्लेन । परोपकारकरणचतुरेण १० शिलालेख भी है, जो फारसी भाषा का होने से ठीक-ठीक निजभुजोपाजितवित्तव्ययपुण्यकार्य स्वजन्म मफलीकरणेन। पढ़ा और ममझा नही जा सका।" उज्जैन की बिना गजराजेन्द्रमभा सशोभितेन । सज्जनजन ११ मानसराज- वीक की मस्जिद के विषय में श्री ब्रजकिशोर चतुर्वेदी का हसेन। श्री शत्रुजयादितीर्थावतारचतुष्टग पट्ट निर्माप- कथन है, "यह मस्जिद अनन्तपेठ में एक जैन मन्दिर को णेन श्री देवगुरु आत्मपालनतत्परेण । सर्व ॥१२॥ कार्य नोडकर सन १३६७ ई० में मालवे के मूबेदार दिलावर विदुरेण श्रीमालज्ञाति बुहराणाच विभूषणेन । सर्वदा श्री खान गौरी ने बनवाई थी।" ये तो साधारण से उदाजिनधर्म सत्कर्मकरण निर्दषणेन । श्रीमन् १३ मडपाचल हरण है। यदि केवल मन्दिर परिवर्तन के प्रकरण को निवासीय विजयवत् बुहरा श्रीगोपालेन । मडपपुर्यात् दक्षि- लेकर समस्त भारतवर्ष मे अनुसन्धान किया जाय तो हमे णदिगविभागे तलहट्या श्री नारापुरे स्वपुण्यार्थ मनोवाछित इस प्रकार के अनेक प्रमाण मिल सकते हैं। दायक सद्धर्म श्रीसपाव जिनेन्द्रस्य सर्वजन मजनिताल्हादः
१. माडवगढ तीर्थ पृष्ठ २६ सुप्रसादः प्रादादः कारितः १५ सा गोपालः गीलाभरण
R. Annual Report of the Archaeological विलसद्वृत्ति रमलो विनीतः प्रज्ञावान् विविधमुकृतारंभ
___Deptt Gwalior State for 1924-25. PP. 12 १. Parmar Inscriptions-in Dhar State 875. ३ मध्यभारत सदेश १५ मई १९५४ पृष्ठ ५
1310 A. D. By C.B. Lele. पृष्ठ ८९-६० ४ मस्कृति केन्द्र उज्जयिनी वृष्ठ १४०
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पण्डित शिरोमणिदास विरचित धर्मसार
डा० भागचन्द्र जैन नागपुर के परवार जैन मन्दिर के हस्तलिखित श्रावक जीत पर भेद अपार । ग्रन्थों को देखते समय मुझे एक गुटका मिला जिसमें छोटे- बरनन करौं सकल हितकार | मोटे अनेक ग्रन्थो के साथ धर्मसार ग्रन्थ की भी प्रतिलिपि
प्रन्थ का अन्तिम भाग की गई है। पन्नों को पलटने से ऐसा लगा कि यह ग्रन्थ अत्यधिक उपयोगी और महत्वपूर्ण है । भट्टारक सकलकीर्ति
ग्रन्थ के अन्त में पण्डित जी ने अपनी गुरु परम्परा के उपदेश से पण्डित शिरोमणि ने इस ग्रन्थ का निर्माण
का उल्लेख किया है। साथ ही प्राचार्य जिनसेन और किया । प्रतिलिपि सवत् १८२१ की है।
सिद्धान्त चक्रवर्ती प्राचार्य नेमिचन्द्र का भी स्मरण प्रन्थ का प्रादि भाग
किया है। ग्रन्थ के प्रारम्भ मे जिनेन्द्र भगवान की स्तुति कर जसा गनधर वाना कहा । सा धम मान त
जैसी गनधर वानी कही । सो धर्म मुनि तेसी सही ॥ पडितजी ने अपने आपको भट्टारक सकलकीति का शिष्य
नेमिचन्द सिद्धांत वखानी। धर्म भेद पुन तिनत जानौ ७८॥ बताया और कहा कि उन्ही के उपदेश से धर्मसार ग्रन्थ जिनसेन भये गन को खान । धरम भेद सव कहो बखान । की रचना की जा रही है। ग्रन्थ का आदि भाग इस तिन ते जतिवर भये अनेक । राखी बहुत धर्म की टेक ७६। प्रकार है
सूरज बिन दीपक भये जैसे । गनधर विन मुनि जानौ तैसे। वीर जिनेसुर पनऊ देव । इन्द्र नरेंद्र कर सत सेव ॥
जस कीरति भट्टारक संत । धर्म उपदेस दयौ गुनवन्त ॥८॥ अरु वदो हो गये जिनराय । सुमरत जाकै पाप नसाय ॥१ ललितकीर्ति भव जन सुख पाइ। जिनवर नाम जपे हित लाइ वर्तमान जे जिनवर ईस । कर जोर पुन नाऊँ सीस ॥ धर्मकोति भये धर्म विधान । पदमकीति मुनि कहे वखान ॥ जे जिनेद्र भवि मुनि कहे । पूजों ते मै सुर मुनि महे ॥२ जिनके सकलकीर्ति मुनि राज । जप तप सजम सोल विराज जिनवानी पनऊँ धरि भाव । भव-जल पार उतारन नाव। ललितकीति मुनि पूरव कहै । तिनके ब्रह्म सुमति पुनि भये॥ पनि बदौ गौतम गनराय । धर्म भेद जिन दयौ बताय ॥३ तप प्राचार धर्म सुभ दीन । जिनवर सौं राख निज प्रीत। प्राचारज कंदकंद मनि भये । पूजो तमं सुर मनि भये । तिनके सिव भये परवीन । मिथ्या मति सब कोनी छीन॥ अरु जे जतिवर भये अपार । पनऊ जिनते भवदधि तार ।।४ पडित कहै ज गंगादास । व्रत तप विद्या सील निवास । सेऊं सकल कीरति के पाय । सकल पुरान कहै समझाय ॥ पर उपगार हेत अति कियौ । ग्यान दान पुन बहुतन दियो। जिन सत गर कहि मगल कहै । धर्मसार सुभ ग्रह कहै ।।।५ तिन्ह के सिष्य सिरोमन जान । धर्मसार पुन कही बग्वान । ज्ञानवत जे मति प्रति जान । ते पुन पंथन सकै बखान ॥ करम क्षिपक कारन सो भई । तव यह धर्म भेद विधि ठई॥ मै निलज मूरख प्रति सही। कह न सको जैसी गर कही। इसके बाद धर्मसार की उपयोगिता प्रदर्शित करते हा अव यांसु तजौ बहमद जनै । तो कह सूरज किरनहिं गनं ।। ग्रन्थ समाप्ति के स्थान और काल का दिग्दर्शन कराया जिनवर सेऊं मनवचन काय । धर्मसार कही सुखदाय ॥७ हैभव जीव सुनिक मन धरै, मूरिख सुनि बहु निंदा कर ॥ जो या पड़े गुनै चित लाय । समकित प्रगट ताको प्राय। सुगति कुगति को यह सुभाव । गहै जीव मंटो को भाव ॥ व्रत आचार जान सुभ रूप । पुनि जान सिंसार सरूप ८६ सुनहु भव्य तुम सुथिरचितुलाइ।
जिन महिमा जान सुखदाई। पुनि सो होइ मुक्ति पुर राई सुगतिपंथ मारग यह पाई॥
प्रक्षर मात तीन तुक होइ । फेरि सुधारौ सज्जन सोइ ८७
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पं० शिरोमणिदास विरचित धर्मसार
सिहरोन नगर उत्तिमसुभनाम । सांतिनाथ जिन सोहै षाम ॥ पंग ग्रंष निधन पनवन्त । जड़ पंडित पद पावै संत। प्रतिमा अनेक जिनवर की अस । दरसन देखत पाप विनास पुत्र हीन बह रोग अपार । पर बह दुख भुगतं संसार । श्रावग बस धर्म के लीन । अपने मारग चले प्रवीन ॥ २. सम्यक्त्व महिमा:-धर्म का मूल सम्यक्त्व मानकुटंबसहित मिलि हेत जु कियौ। तहाँ प्रन्थ यऊ पूरन कियो। कर पण्डित जी ने उक्त सभी प्रश्नों के उत्तर सम्यक्त्व क्षत्रपती सोहै सुलतान। औरंगपातसाहि जु बखान ॥
भूमिका पूर्वक प्रस्तुत किये है। सर्वप्रथम उन्होंने बताया देवीसिंघ राजा तह चन्द । वरिन को दोनो बहु दण्ड । कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति कैसे होती है और उसके बिना प्रजा पुत्र सम पाल धीर । राजन मैं सोहै वरवीर ॥
वार" जीव क्यों भटकता है। इस प्रसग में मूढना, मद, शका
और तिनकं राज यह ग्रन्थबनायौ । कहैं सिरोमनि बहु सुख पायो।
दिक दोषों का तथा उनके अतिचारो और पच मिथ्यात्वो संवत् सत्रासबत्तीस । वैसाख मास उज्ज्वल पुन दीस ।।
का वर्णन है। इसके बाद सम्यक्त्व की महिमा का कथन त्रितिया तिथि है समझऊ समेत । भवनजनको मंगलसुखहेत।
किया गया है। मूढता वर्णन करते समय तत्कालीन कुछ प्रन्थ सातसै वेसठ जान । दोहा चौपही कही बखान ॥
ऐसी मूढतापो का भी वर्णन कियाहै जो वैदिक धर्मावइति धर्मसार ग्रन्थे श्री सकल कीर्ति उपदेसेन पडित लम्बियों के प्रभाव से जनो मे मा गई थी। उदाहरणतः सिरोमनिदास विरच्यते सप्तम सधि। इसके बाद प्रति- हाथी, घोडा, बैल, गाय आदि की पूजा करना, बड, पीपर, लिपिकार ने समय लिखा है प्रतिलिपि समाप्त होने का।
ऊमर, तुलसी, दूब प्रादि वृक्षो की सेवा करना, अन्तर, -चैत्रसमासे शुक्लपक्षे तिथि ३ बुधे सवत १८२१ भी
भूत, सती, सीतला, सूर्य, चन्द्र, यक्ष, नाग आदि को देवी...। श्री के बाद कुछ भी नहीं लिखा । अतएव प्रतिलिपि. देवता मानना, गोबर थापकर उनकी पूजा वरना, गाय कार का नाम अज्ञात ही है ।
का मूत्र पीना, भुजरिया बनना आदि। विषय विवेचन
३. पन क्रिया वर्णन ।-श्रावक का मूल धर्म त्रेपन समूचे ग्रन्थ मे ७६३ दोहे और चौपाइयाँ है। ग्रन्थ
क्रियानों का परिपालन करना है। इनका वर्णन इस कार ने उन्हे सात सन्धियो में विभक्त किया है-१.
अध्याय में दिया गया है। श्रेणिक प्रश्न, २. सम्यक्त्व महिमा, ३. पनक्रिया वर्णन, ४. कर्म विपाक कथन, ५. योगीश्वर महिमा फल. ६. अष्टमूलगुनव्रत सुन वार । द्वादस तप सामायिक चार । केवलज्ञान महिमा और ७. पचकल्याणक विधि । येकादस प्रतिमा सुन हेत। वारा दिन में कहीं सुचेत ।। १.श्रेणिक प्रश्न :-जैन साहित्य सजन श्रेणिक प्रश्नो
जलगालन इक पन्थऊ लीन । तीन तत्त्व वह कही प्रवीन । के माध्यम से अधिक हमा है। श्रेणिक (विम्बसार) यत्रपन
ये त्रेपन किरिया परवान । बरनन करो सुनो दे कान ॥ भारतीय इतिहास का एक उज्ज्वल व्यक्तित्व है जिसने जैसी विधि ग्रन्थन मैं जानी । तंसी में पुनि कही वखानी। जैनधर्म और साहित्य की अनुपम सेवा की है। पडित
जेनर विषई धर्म न जाने । धर्म सार विषि ते नहि माने शिरोमणि ने श्रेणिक से प्रश्न कराये और उनका उत्तर
जेनर धर्म सील मन लावधर्मसार सुनके सुख पावं । भगवान् महावीर से दिलाये । प्रश्न है-धर्म के भेद क्या यहां पण्डित जी ने ८ मूल गुण, १२ व्रत, १२ तप, है ? स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति कैसे होती है ? जीव ४ सामायिक, ११ प्रतिमा, जलगालन, रात्रि भोजन त्याग, चतुर्गति में परिभ्रमण क्यों करता है और वह परिभ्रमण ४ दान इन ५३ क्रियानों का वर्णन किया है। कवित्त में कैसे दूर किया जाता सकता है ?
उनका यथास्थान उल्लेख नहीं हो पाया। इसमें १६४ अनिक पूछ मनवचकाय । धर्म भेद कहिए समुझाय। दोहे, सोरठे और चौपाइयां हैं। इनमें कुछ शब्द ऐसे हैं जो श्रावक मोक्ष फल कंसो होय । सोउ कहिये हम पर सोय॥ आज भी उसी रूप में प्रचलित हैं। जैसे-अन्थऊ, कुम्हडा, श्रावक जतिवर भेद है जैसे । सो समुझावं मुनिवर तसे। भटा, कलीदे, ननू, मूत, तुरकीवात, थाती इत्यादि । उक्त कसे जिय बटुंगति में पर। कैसे जिय भवसागर तरं॥ पन क्रियानों का विस्तार से सुन्दर शैली में वर्णन किया
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अनेकान्त
गया है यद्यपि उक्त कवित्त में उनकी स्पष्टता उतनी प्रन्यकर्ता का जीवन-दर्शनअधिक नहीं है।
पण्डित शिरोमणिदास मूलतः प्रागरा के रहने वाले ४. कर्मविपाक कथन-इस अध्याय मे निगोद तथा थे। मध्यावधि उनके दो ग्रन्थ मिलते हैं-धर्मसार पौर नरक तिर्यच, मनुष्य और देव गति के दुःखों और उन
सिद्धान्त-सिरोमणि । दोनों ग्रन्थों के देखने से पता चलता दुःखो के कारणो का विस्तृत वर्णन है। किस कषाय और
है कि उनमें भक्ति काल की मूल प्रवृत्तियाँ समाविष्ट हैं।
न किस दुष्कर्म से जीव जिस गति में भ्रमण करता है इसका
धर्मसार मे जहाँ निर्गुण और सगुण भक्ति का दिग्दर्शन स्पष्ट कथन है।
हैं वहाँ सिद्धान्त-शिरोमणि मे उसका दूसरा पक्ष सन्दर्शित ५. योगीश्वर महिमा वर्णन-इसमे व्रत, तप, अनु- है। दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों के बीच मध्य प्रेक्षा, तत्त्व प्रादि का वर्णन है।
काल में बढ़ते सिथिलाचार की वहाँ घोर निन्दा की है। ६. केवलज्ञान महिमा-इसमे भगवान के अतिशयों
श्वेताम्बर मुनि और दिगम्बर भट्टारक उनकी इस निन्दा
वेता गुणों और ऋद्धियों का वर्णन है तदनन्तर ज्ञान प्राप्ति की
के मुख्य मात्र है। प्रक्रिया व उसकी महिमा दिखाई गई है।
गुरुपरम्परा-पण्डित जी भट्टारक सकलकीर्ति को ७. पंच कल्याणक वर्णन-प्रस्तुत अध्याय में समव
अपना अप्रत्यक्ष गुरु मानते थे। ग्रन्थ के प्रादि भाग मे शरण का चित्रण और पच कल्याणको का वर्णन किया
जिन प्राचार्यों का उन्होंने नामोउल्लेख किया है उनमे गया है।
भट्रारक सकलकीति भी है। उनके विषय मे लिखा हैभाषा शैली
सेऊँ सकलकीरति के पाय । सकल पुरान कहै समुझाय ॥ पण्डित जी की भाषा मे सरस प्रवाह है । उनके शब्द ग्रन्थ के अन्त भाग मे पण्डित जी ने अपनी गुरु परम्परा और भाषा में पर्याप्त सामञ्जस्य है। यद्यपि ग्रन्थ वर्णना- इस प्रकार दी है :त्मक शैली से लिखा गया है फिर भी रुचिकर बनपडा है।
यश:कीति लौकिक शब्दों का यहाँ प्रयोग अधिक है। ग्रन्थ में केवल दोहा, चौपई, सोरठा, अडिल्ल और कवित्त छन्दो का
ललितकीति प्रयोग है। इनमें कवित्त और सवैया अधिक प्रभावक है।
धर्मकीति उदाहरणतः कवित्त की सुन्दरता देखियेजो अपजस की डंक वजावत लावत कुल कलंक परषान।
पद्मकीर्ति जो चारित को वेइ जुलांजुल गुन वन को दावानल दान । सो शिव पंथ किवारि वतावत मावत विपति मिलन को थान
सकल कीति चितामन समान जग जे नर सील रतन जो करत भजान।
ललितकीति इसी प्रकार सवैया की सरसता का पान कीजिएकलह गयंद उपजाईवे को विदागिरि,
ब्रह्म सुमति कोप गीष के प्रघाइवे को सुमसान है।
पण्डित गगादास सकट भुजग के निवास करिबे को विल, वैर भाव चोर को मह निसा समान है।
पण्डित शिरोमणिदास कोमल सुगुन धन खंडिवे को महा पौन,
इस प्राचार्य परम्परा के देखने से यह निष्कर्ष निकाला 'नवन वाहिवे का दावानल वान है। जा सकता है कि पण्डित शिरोमणिदास बलात्कार गण की नीत नय नीर जन साइवे की हिम रासि, उत्तरीय जेहरट शाखा से सम्बन्धित रहे है। डॉ. विद्याऐसौ परिग्रह राग दोष को निदान है ॥२-६२॥ घर जोहरापुरकर के भट्टारक सम्प्रदाय में सकलकीर्तिके
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पण्डित शिरोमणिवास विरचित धर्मसार
शिष्य ललितकोति को छोड़कर शेष सभी भट्टारकों का प्रमाण है ग्रादिनाथ स्तोत्र की निम्न पंक्तियाँ'उल्लेख मिलता है। उक्त ललितकीति के साहित्यिक योगदान से भी हम परिचित नही। बलात्कार गण की जेरहट
मलसंघ को नायक सोहे सकलकोति गुरु बन्दी। शाखा के अन्तिम भट्टारक सुरेन्द्र कीर्ति थे जिनका उल्लेख
तस पट पाट पटोपर सोहे सुरेन्द्रकोति मुनि जागे जू॥ धर्मसार मे नही किया गया। यदि प्रतिलिपिकर्ता की भूल
संवत् सत्रासो छप्पण है मास कार्तिक शुभ जानौ जू । न मानी जाय तो सम्भव है कि सुरेन्द्र कीति के शिष्य ललि
बास बिहारी विनती गावे नाम लेत सुख पावे जू।। तकीर्ति रहे है। और चूंकि ललितकीति समाज अथवा साहित्य के क्षेत्र मे अधिक कार्य नही कर सके इसलिए
इसके अतिरिक्त सम्बन्धित सुरेन्द्रकीति के अन्य उल्लेख उनका उल्लेख नहीं मिलता। जो भी हो, जेरहट शाखा
मेरे देखने में नहीं पाये । पर इस उल्लेख से इतना तो की परम्परा में एक और प्राचार्य (भट्टारक) का नाम
निश्चित है कि स. १७५६ तक सुरेन्द्र कीति निश्चित ही रखा जा सकता है। इस दृष्टि से धर्मसार के उल्लेख का
गद्दी पर रहे होंगे। और उन्होंने अपने उत्तराधिकारी का महत्त्व निश्चित ही उल्लेखनीय है। इस उल्लेख से यह
चुनाव इसके पूर्व ही कर दिया होगा। उत्तराधिकारी भी पता चलता है कि जेरहट शाखा के अन्तिम भट्टारक
ललितकीति ने अपनी शिष्य परम्परा भी प्रारम्भ कर दी ललितकीर्ति रहे और उनके बाद उनके शिष्य-प्रशिष्य
होगी। उस शिष्य परम्परा में अग्रगण्य होगे पण्डित पण्डित कहे जाने लगे।
गंगादास । पण्डित गगादास स० १७५१ तक वृद्ध हो गये धर्मसार की प्रस्तुत प्रति मे स. १७३२ रचना काल
होंगे और उनके शिष्य पण्डित शिरोमणिदास युवक रहे दिया गया है। डॉ. प्रेमसागर ने जयपुर के वधीचन्द्र जी
होंगे। प्रतः निष्कर्ष यह हो सकता है कि धर्मसार का के मन्दिर में सरक्षित एक अन्य प्रति का भी उल्लेख किया लेखन काल सं० १७५१ ही हो, १७३२ नही। इस सदर्भ है जिसमे रचना सं० १७५१ लिखा है। स्व० प्रेमी जी में सिंहरौन नगर, जहाँ धर्मसार की रचना समाप्त हुई, के ने १७३२ को रचना काल और १७५१ को लेखन काल राजा देवीसिंह का उल्लेख भी महत्त्वपूर्ण है। उनका माना है । डॉ. प्रेमसागर ने इस सन्दर्भ में अपना मत समय भी यही है । स्पष्ट नही किया फिर भी, लगता है, प्रेमी जी की स्वीकृति
पण्डित शिरोमणिदास के दोनों ग्रन्थ धर्मसार और में ही उनकी स्वीकृति निहित है। परन्तु वे निष्कर्ष ठीक
सिद्धान्तशिरोमणि भाव और भाषा की दृष्टि से उत्तमनही दिखते। डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर ने सुरेन्द्रकीर्ति
कोटि के है, दोनों ग्रन्थों के प्रकाशन से जहां तत्कालीन को बलात्कार गण की जेरहट शाखा का अन्तिम भट्टारक
जैनसमाज और संस्कृति का परिचय मिलेगा वहाँ भाषामाना है और उनका समय सं० १७५६ बताया है। इसका
विज्ञान की दृष्टि से भी वे उपयोगी सिद्ध हुए होंगे। . १. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, बम्बई, पृ. ६७ २. हिन्दी जैन-भक्ति काव्य और कवि, पृ. २७६ ___३. भट्टारक सम्प्रदाय, पृ. २०५
सुगुरु सीख हम तो कबहूं न हित उपजाये । सुकुल-सुदेव-सुगुरु-सुसगहित, कारन पाय गमाये ॥टेक।।
ज्यों शिशु नाचत आप न माचत, लखन हार बौराये। त्यों श्रुतबांचत पाप न राचत, औरन को समझाये ।।१।। सुजस-लाहकी चाह न तज निज, प्रभुता लखि हरखाये। विषय तजे न रजे निजपद में, परपद अपद लुभाये ॥२॥ पापत्याग जिन-जाप न कीन्हों, सुमनचापतप-ताये । चेतन तन को कहत भिन्न पर, देह सनेही थाये ॥३॥ यह चिर भूल भई हमरी अब, कहा होत पछिताये । दौल अजों भव-भोग रचौ मत, यों गुरु वचन सुनाये ॥४॥
कवि
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द्वितीय जम्बूद्वीप पं० गोपीलाल अमर शास्त्री, एम. ए.
प्रारम्भिक :
एक विहङ्गम दृष्टिपात उपयोगी होगा जिसके प्रग के रूप जम्बदीप की मान्यता भारतीय लोकविद्या में व्यापक में यह द्वीप विद्यमान है। रूप से प्राप्त होती है। वैदिक' और बौद्ध' मान्यता में
में लोकरचना : एक विहगम दृष्टि :जम्बूद्वीप नाम का एक-एक ही द्वीप है जबकि जैन मान्यता
त्रिलोकी का प्राकार ऐसे पुरुष की आकृति से मिलतामें दो जम्बूद्वीप उपलब्ध होते है। ऐसा नहीं कि एक ही
जुलता है जो दोनों पैर फैलाकर और दोनो हाथ कमर द्वीप के दो भाग करके उन्हें दो द्वीप मान लिया गया हो।
पर रखकर खड़ा हो । इसके मध्य के एक लाख योजन बल्कि इस नाम के दो पृथक-पृथक द्वीप ही, जैन मान्यता
मे मध्यलोक है, जिसके नीचे नरक लोक और ऊपर स्वर्गके अनुसार विद्यमान है। जम्बूद्वीप से आगे सख्यात् समुद्रों
लोक की रचना है। मध्यलोक की पूर्व-पश्चिम लम्बाई और द्वीपों के पश्चात् अतिशय रमणीय दूसरा जम्बूदीप
और उत्तर-दक्षिण चौड़ाई एक-एक राजू और ऊंचाई है । इसका वर्णन करने से पूर्व तीन-लोक की रचना पर
एक लाख योजन" है। १. जम्बूद्वीप के विस्तृत और तुलनात्मक अध्ययन के लिए
मध्यलोक मे, बीचो-बीच, एक योजन लम्बा और देखिए : डॉ० सैयद मोहम्मद अली 'दि जॉग्रफी ऑफ
उतना ही चौडा एक मण्डलाकार महाद्वीप विद्यमान है। दि पुराणस' । २. देखिए वसुबन्धु 'अभिधर्म कोश' तथा अन्य ग्रन्थ । ८. त्रिलोकी के प्रकार की यह मान्यता भारतीय लोक४. देखिए 'जम्बूद्वीपण्णत्ती' प्रादि ग्रथ ।
विद्या मे सर्वथा अनूठी है। इसका प्रतीकार्थ तो अभी ५. एक ही नाम के दो या दो से अधिक द्वीप और भी शोषक विषय है लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि
बहुत से है, यद्यपि उनके नाम नही दिये गये है। हमारे पूर्वाचार्यों ने देवों और नारकियो के प्राकार(एक्कणाम वहुबाण)
प्रकार को ही दृष्टिगत रखा होगा। ६. देखिए, 'तिलोयपण्णत्ती', ५, २७
दूरी के नाप की एक अलौकिक इकाई-उतनी दूरी 'जबूदीवाहितो संखेज्जाणि पयोधिदीवाणि ।
जिसे पुद्गल का एक स्वतत्र परमाणु अपनी पूरी गंतूण पत्थि अण्णो जबुदीनो परमरम्मो ।'
रफ्तार से चलकर समय के सूक्ष्मतम भाग में ही पार 'तिलोयपण्णत्ती ५, १७६
कर ले । 'राजू' शब्द का सस्कृत रूप है 'रज्जु' 'तिलोयपण्णत्ती' (महाधिकार ५, गाथा १८६-२३७) जिसका अर्थ होता है रस्सी और जिसे बुन्देलखण्ड में में इसका वर्णन सविस्तार पाया है । 'हरिवंश पुराण' पगहिया (सस्कृत मे 'प्रग्रहिका') कहते है । बहुत से (माणिकचन्द्र, प्रथमाला) मे द्वितीय जम्बूद्वीप का स्थानों पर पगहिया को आज भी दूरी नापने की उल्लेख केवल एक श्लोक (सर्ग ५ श्लोक १६६) में एक इकाई माना जाता है। ही कर दिया गया है। हाँ, इस पुराण में प्रथम १०. यह महायोजन है जो हजार कोश के बराबर होता जम्बूद्वीप के वर्णन में ही सुदर्शन मेरू की चारों
है। साधारणत: एक योजन चार कोश के बराबर दिशामों में स्थित नगरियों (जगती) का जो वर्णन है माना जाता है। वह द्वितीय जम्बू के (तिलोयपण्णत्तीगत) वर्णन से ११. 'तन्मध्ये मेरुनाभिवृत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भोपूर्णत मिलता-जुलता है।
जम्बूद्वीपः ।' 'तत्त्वार्थसूत्र ३, ६
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द्वितीय जम्बूद्वीप
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इसे जम्बूद्वीप कहते है। यह प्रथम और सर्वाधिक महत्त्व- क्योकि यह उल्लेख प्राप्त नहीं होता कि यह जम्बूद्वीप पूर्ण द्वीप है। जम्बूद्वीप के चारों ओर घेर कर एक महा- प्रथम जम्बद्वीप से जिसका निश्चित मान उल्लिखित है समुद्र विद्यमान है जो अपने खारे जल के कारण लवण
और जिसके आधार शेष द्वीप-समुद्रों का मान निकाला
और जिसके पाधार शेष टीपसमुद्र कहलाता है। इस समुद्र को चारों ओर से घेरे हुए जाता है, कितने द्वीप-समुद्रो के पश्चात् है । इसकी भाभ्यएक द्वीप है। उसका नाम धातकीखण्ड है । उसे भी काल न्तर और बाह्य परिधियाँ एक एक समुद्र द्वारा घिरी है। समुद्र घेर कर विद्यमान है। काल समुद्र को घेर कर बाह्य परिधि को घेरने वाले समुद्र का नाम नियमानुसार पुष्कर द्वीप है। वह स्वय इसी नाम के समुद्र से घिरा जम्ब समुद्र है। इनमे पाठवे, ग्यारहवे मोर तेरहवे द्वीपों हुमा है। इस प्रकार, उत्तरोत्तर प्रत्येक द्वीप एक समुद्र से के समान ही देवानुकूल रचना है पर यह रचना चित्रा और वह समुद्र एक द्वीप से घिरा हुआ है। समुद्र का पथ्वी के ऊपर न होकर वजा पृथ्वी के ऊपर चित्रा के नाम वही है जो उसके पूर्ववर्ती द्वीप का है। इनमे विशेष मध्य में है। रचना के प्रतर्गत साङ्गोपाङ नगरियाँ, रूप से उल्लेखनीय द्वीपो मे पाठवा" नन्दीश्वर, ग्यारहवा" जिनालय आदि उल्लेखनीय है। इनकी विशालता और कुण्डलकर, तेरवॉ" रुचक्रवर", सख्यातवाँ जम्बूद्वीप और विविधता अत्यन्त प्राकर्षण की वस्तु है। अन्य दीपा और प्रतिम" स्वयभरमण है। प्रथम ढाई द्वीपो में नदी, पर्वत समुद्रो की भांति इस द्वीप के भी दो अधिपति व्यन्तर देव और क्षेत्र-विभाजन आदि की मनुष्यानुकूल रचना है। है परन्तु उनके नामो का उल्लेख नहीं है क्योकि शेष द्वीप उनके पश्चात् जो भी द्वीप उल्लेखनीय है उनमे रचना तो समुद्रो के अधिपति देवी के नाम का उपदेश इस समय अवश्य है परन्तु वह मनुष्यानुकूल न होकर देवानुकूल है। नष्ट हो गया है।" उनमे भवनवासी वर्ग के देव और देवियाँ निवास करती
नगरी-वर्णन :है । विभिन्न पर्वतो और कूटा पर विद्यमान अकृत्रिम
__इस द्वीप की चारों दिशाओं में विजय प्रादि देवों की चंत्यालय इन द्वीपो की विशेषता है।
दिव्य नगरियाँ स्थित है। ये नगरियाँ बारह हजार योजन द्वितीय जम्बूद्वीप : सामान्य लक्षण :
विस्तृत जिन भवनो से विभूपित और उपवन-वैदियों से द्वितीय जम्बद्वीप सम्यात द्वीपो और समुद्रो को घेर
सयुक्त है। इन सब नगरियों के प्राकार साढे सैनीस योजन कर एक चुड़ी के आकार में स्थित है। इसकी चौड़ाई ऊँचे तथा प्राधे योजन गहरे है" और उन पर रग विरगी और परिधि का निश्चित मान नही दिया जा सकता ध्वजारो के समह फहरा रहे है। उत्तम रत्नो से निमित
इन सुवर्ण प्राकारो का भूविस्तार माढ़े बारह योजन पौर १२. क्योंकि इसके मध्य में जम्बू (जामुन) का एक
मुखविस्तार सवा छह योजन है। अक्षय वृक्ष है।
इन नगरियों की एक-एक दिशा मे सुवर्ण से निर्मित १३. चौथे से सातवें तक क्रमशः वारुणीवर, क्षीरवर,
और मणिमय तोरणस्तम्भो से रमणीय पच्चीस गोपुर है। घृतवर, क्षौद्रवर।
इन नगरियों के उत्तम भवनो की ऊँचाई बासठ योजन, १४. नौवाँ भरुणवर और दशवा अरुणाभास ।
विस्तार इकतीस योजन और गहराई दो कोश है। १५. बारहवाँ शखबर १६. चौदहवां भुजगवर, पन्द्रहवाँ कुशवर, सोलहवाँ
प्रत्येक नगरी के मध्य में तरह-तरह के अनेक भवनो क्रौञ्चवर।
१८. सेसाण दीवाण वारिणिहीण च अहिवई देवा । १७. अन्त से प्रारम्भ करने पर स्वयम्भूरमण से पूर्व जे केइ ताण णामस्सुवएसो सपहि पणट्ठो॥ क्रमशः महीन्द्रवर, देववर, यक्षवर, भूतवर, नागवर,
-'ति०प०', ५, ४८ वैदूर्यवर, काञ्चन, रूप्यवर, हिंगुल, अञ्जनवर, १६. इस गहराई (अवगाह) का तात्पर्य चित्रा पृथ्वी में श्याम, सिन्दूर, हरिताल, मनःशिल ।
उसकी निचली सतह से हो सकता है।
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अनेकान्त
से अतिशय रमणीय, बारह सौ योजनप्रमाण विस्तार से जिनभवन हैं। प्रथम प्रासाद की वायव्य दिशा में जिनेन्द्रसहित और एक कोश ऊँचा राजागण स्थित है। इस स्थल भवन के समान सुवर्ण और उत्तम रत्नों से निर्मित उपके ऊपर चारों ओर दो कोश ऊँची, पाँच सौ धनुष पादसभा स्थित है। प्रथम प्रासाद के पूर्व में उपपादसभा विस्तीर्ण और चार गोपुरों से युक्त वेदिका स्थित है। के समान विचित्र रचना वाली अभिषेक सभा राजांगण के बीचोंबीच एक सौ पचास कोश विस्तारवाला, स्थित है। इसी दिशा मे अभिषेक सभा के समान विस्तार इससे दूना ऊँचा दो कोश गहरा और मणिमय तोरणों से प्रादि वाली और मणिमय तोरण द्वारों से रमणीय परिपूर्ण प्रासाद है। इसका वज्र मय कपाटों से सुशोभित
अलंकार सभा है। इसी दिशा में पूर्व सभा के समान द्वार पाठ योजन ऊँचा और चार योजन चौड़ा है ।
ऊँचाई और विस्तार से सहित, सूवर्ण एवं रत्नो से निर्मित प्रासादों की संयोजना :
और सुन्दर द्वारों से सुसज्जित मन्त्रसभा है। इन छह इसके चारों ओर एक-एक दिव्य प्रासाद है । उनसे प्रासादों के पूर्वोक्त मदिरों में जोडने पर भवनों की समस्त प्रागे छठे मण्डल तक उत्तरोत्तर चार-चार गुने प्रासाद है। संख्या पाँच हजार चार सौ अड़सठ होती है। प्रत्येक मण्डल के प्रासादों का प्रमाण अनलिखित है। एक
प्रावास-योजना ;(मध्य का) प्रासाद मुख्य है । प्रथम मण्डल में चार
जिनकी किरणे चारो दिशाओ में प्रकाशमान हो रही प्रासाद है। द्वितीय मण्डल में सोलह, तृतीय मे चौसठ, चतुर्थ में दो सौ छप्पन और पाँचवे मण्डल मे एक हजार
है ऐसे ये भवन उत्तम रत्नमय प्रदीपो से नित्य प्रकाशित चौबीस प्रासाद है। छठे मण्डल मे चार हजार छयानव
रहते है । पुष्करिणिग्रो (सरोवरों) से रमणीय, फल-फलो प्रासाद हैं । प्रादि के दो मण्डलों में स्थित प्रासादों को ससुशाभित, अनक प्रकार के वृक्षा स साहत, आर दवऊँचाई, विस्तार और अवगाह सबके बीच में स्थित मुख्य युगलास
युगलों से सयुक्त उपवनो से वे प्रासाद शोभायमान होते प्रासाद की ऊंचाई, विस्तार और अवगाह के समान है। है । इनमें से कितने ही भवन मूंगे जैसे वर्णवाले कितने तृतीय और चतुर्थ मण्डल के प्रासादो की ऊँचाई आदि ही कपूर और कुन्दपुष्प के सदृश, कितने ही सुनहरे रंग
के और कितने ही वन एवं इन्द्रनीलमणि के सदृश हैं। इमसे प्राधी है। इससे भी प्राधी पञ्चम और छठे मण्डल के प्रासादों की ऊँचाई आदि है। प्रत्येक प्रासाद की कला
उन भवनों में हजारों देवियों के साथ विजय नामक देव पूर्ण एक-एक वेदिका है। प्रथम प्रासाद की वेदिका दो
निवास करता है। वहाँ नित्य-युवक, उत्तम रत्नों से
विभूषित शरीर से संयुक्त, लक्षण और व्यञ्जनो से सहित, कोश ऊँची और पांच सौ धनुष विस्तीर्ण है। प्रथम और
धातुओं से विहीन, व्याधि से रहित, तथा विविध प्रकार द्वितीय मण्डल में स्थित प्रसोपा की वेदिकाएँ भी इतनी
के सुखों मे पासक्त अनेक देव भी बहुत विनोद के साथ ही ऊँची और विस्तीर्ण है। तृतीय और चतुर्थ मण्डल के
क्रीड़ा करते रहते है। इन भवनो मे मृदुल, निर्मल और प्रासादों की देदिका की ऊँचाई और विस्तार पूर्वोक्त वेदि
मनोरंजक, आकर्षक, रत्नमय शय्याएँ और आसन कामों से प्राधा और इससे भी आधा पाचवे और छठे मण्डल के प्रसोपा की वेदिकाओं का है। गुणित क्रम से
विद्यमान हैं। स्थित इन सब भवनों की संख्या पाँच हजार चार सौ विजयदेव और उसका परिकर :इकसठ है।
प्रथम प्रासाद के बीचोंबीच अतिशय रमणीय, पादपीठ सभाभवन-वर्णन :
सहित, सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित विशाल सिंहासन है। प्रथम प्रासाद के उत्तर भाग में साढ़े बारह योजन वहां पूर्वमुख प्रासाद में सिंहासन पर आरूढ़ विजय नामक लम्बी और इससे माधे विस्तारवाली सुधर्मा सभा स्थित अधिपति देव अनेक प्रकार की लीलाओं का मानन्द प्राप्त है । सुवर्ण पौर रत्नमयी यह सभा नो योजन ऊंची और करता है। विजय के सिंहासन की उत्तर दिशा और दो कोश गहरी है। इसके उतर भाग में इसने ही विशाल विदिशा में उसके छह हजार सामानिक देव रहते हैं।
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द्वितीय जम्बूद्वीप
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मुख्य सिंहासन की पूर्व दिशा में विजय देव की छह अनु- प्रशोक प्रासाद :पम अग्रदेवियाँ रहती है। उन्के सिंहासन रमणीय है। प्रत्येक चैत्यवक्ष की ईशान दिशा मे इकतीस योजन इनमे से प्रत्येक अग्रदेवी की परिवारदेवियर्या तीन हजार है एक कोश विस्तार वाला दिव्य प्रासाद स्थित है । रंगजिनकी आयु एक पल्य से अधिक होती हैं। ये परिवार
बिरंग मणियों से निर्मित स्तम्भों वाले इस प्रासाद की देवियाँ भी अपने अपने भवनों में रहती है। विजय देव
ऊँचाई साढ़े बासठ योजन और प्रवगाह दो कोश है । की बाह्मपरिषद् मे बारह हजार देव है । उनके सिहासन
उसके द्वार का विस्तार चार योजन और ऊंचाई पाठ स्वामी के सिंहासन के नैऋत्य मे है । उसकी मध्यम परिषद् । में दस हजार देव होते है जिनके सिंहासन स्वामी के
यह प्रासाद देदीप्यमान रत्नदीपको से प्रकाशित रहता सिंहासन के दक्षिण में स्थित होते है। उसकी अभ्यन्तर
है, विचित्र शय्याओं और प्रासनों से परिपूर्ण रहता है परिषर पे जो पाठ हजार देव रहते है, उनके सिहासन
और उसमे उपलब्ध शब्द, रम, रूप, गध एव स्पर्श से स्वामी के सिहासन के आग्नेय मे स्थित है। सात सेना
देवों के मन आनन्द में भर उठते है । स्वर्गमय भित्तियो महत्तरो के उत्तम सुवर्ण एवं रत्नो से रचित दिव्य सिहा
पर अकित विचित्र चित्रों से उसका स्वरूप निखर उठा सन मुख्य सिंहासन के पश्चिम में होते है। विजय देव के
है। बहुत कहने से क्या, वह प्रासाद अनुपम है । उस जो अठारह हजार शरीर रक्षक देव है, उन सभी के चन्द्र
प्रासाद मे उतम रत्नमुकुट को धारण करने वाला और पीठ चारी दिशाग्रो में स्थित है। वहाँ अनेक देव विविध
चामर-छत्रादि से सुशोभित अशोक नामक देव हजारो प्रकार के नत्य सगीत प्रादि द्वारा विजय का मनोरजन
देवियों के माथ आनन्द से रहता है। करते है । राजागण के बाहर परिवार देवो के, फहराती हुई ध्वजा-पताकानो से मनोहर और उत्तम रत्नो की
शेप वैजयन्त आदि तीन देवो का सम्पूर्ण वर्णन ज्योति से अत्यन्त रमणीय प्रामाद है। जो बहुत प्रकार
विजयदेव के ही समान है । इनके भी नगर क्रमशः दक्षिण की रति के करने में कुशल है, नित्य यौवन से युक्त है,
पश्चिम और उत्तर दिशा में स्थित है। नाना प्रकार की विक्रिया को करती है, माया एव लोभादि मननीय :- . से रहित है, हास-विलास में निपुण है, और स्वभाव से ही
जैसा कि टिप्पणी ७ में कहा जा चुका है, यह लेख प्रेम करने वाली है ऐसी समस्त देवियाँ विजय देव की सेवा
मुख्य रूप से तिलोयपण्णत्ती पर आधारित है। यह ई० करती है। अपने नगरो के रहने वाले अन्य सभी देव
४७३ से ६०६ के मध्य की रचना मानी गई है।" विनय से परिपूर्ण और अतिशय भक्ति में प्रासक्त होकर
भारतीय इतिहास में यह काल स्वर्णयुग के नाम से निरंतर विजय देव की सेवा करते है।
विख्यात है। इस तथ्य की पुष्टि तिलोयपण्णत्ती के पाराबन और चैत्यक्ष :
यण से शतशः होती है। उस नगरी से बाहर पचीस योजन की दूरी पर चार उसने स्थान-स्थान पर उल्लिखित विभिन्न प्रकार वन हैं। उनमें से प्रत्येक मे चैत्यवृक्ष हैं। अशोक और की नगर योजनाएँ और भवनों की विन्यास रेखाएं (ने सप्तपर्ण, चम्पक और आम्रवृक्षों के ये वन पूर्वादि दिशाओं प्राउट प्लान) संस्कृति और पुरातत्त्व के लिए अत्यन्त में प्रदक्षिणाक्रम से है । प्रत्येक वन बारह सौ योजन लम्बा महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करती है । और पांच सौ योजन चौड़ा है। इन वनों में जो चैत्यवृक्ष नगरियाँ योजनो लम्बी-चौड़ी होती थी जैन मन्दिर है उनकी सख्या भावनलोक के चैत्यवृक्षों की संख्या के और उपवन उनमें अवश्य होते थे। प्राकारो और गोपुगें बराबर है। उनकी चारों दिशाओं में चार जिनेन्द्र प्रति- की अनिवार्यता थी। भवन और प्राकार न केवल ऊचे माएं हैं जो देवों और असुरों द्वारा पूजित, प्रातिहार्यों से होते थे, उनकी नीव भी काफी गहरी (अवगाह) खादी अलंकृत, पमासन में स्थित और रत्ननिर्मित हैं।
जाती थी। राजागण एक विशाल, सर्वसुविधासपन्न,
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२४
अनेकान्त
सुदृढ़ और अलकृत दुर्ग होता था, जिसके चारों ओर एक पोसत क्षत्रप या सामन्त का प्रतीक अवश्य माना जा योजनाबद्ध भवनो की पक्तियाँ होती थी। नगरी में ज्यों- सकता है। इस लेख में पाये विवरण स्त्रियों की दशा ज्यों बाहर से भीतर की ओर बढ़ा जाता, त्यो-त्यों भवनों पर भी अच्छा प्रकाश डालते है। बहपत्नी प्रथा का उन की ऊँचाई भी बढती जाती थी। भवनों की गणना रेखा- दिनों जोरदार प्रचलन था. पर स्त्रियो में सदाचार पर गणित के प्रांधार पर की जा सकती थी। सार्वजनिक
जनिक बल दिया जाता था वे विविध कलाओं में जिनमे रतिकला उपयोग के लिए सभाएं (विशाल हाल) होते थे। उनमे
की प्रमुखता थी, निपुण होती थी। से सुधर्मा सभा, उपपाद सभा, अभिषेक सभा, अलकार
इस लेख में पाये विवरणों से तत्कालीन धार्मिक सभा और मन्त्र सभा उल्लेखनीय थी। भवनो की साज
मान्यता का भी अच्छा परिज्ञान होता है। प्रत्येक नगरी सज्जा रत्नों, स्वर्ण, चित्रकारी, पताकामो आदि द्वारा
में जैन मन्दिर अवश्य हा करता था। उन दिनो तक होती थी और उनमे नृत्य संगीत आदि के प्रायोजन होते
यक्षों और देवों की पूजा का प्रचलन नही हुया था, उनकी रहते थे। उपवनों मे अशोक, सप्तवर्ण, चम्पक, ग्राम
मान्यता तीर्थकरों के भक्तो के रूप मे थी। वे जैन मन्दिरों आदि की प्रधानता थी। चैत्य वृक्ष को विशेष महत्व दिया
मे जाकर समय-समय पर धर्मोत्सवों का आयोजन करते जाता था।
थे । सुधर्मा सभा कदाचित् धार्मिक व्याख्यानो और स्वा____ गुप्त युग के जो कुछ मन्दिर आज भी ध्वंसावशिष्ट
ध्याय के उपयोग मे पाती थी। इसी प्रकार अभिषेक है। उन्हे देखकर यह कल्पना नहीं की जा सकती कि उस
सभा मे कदाचित् तीर्थकर की मूर्ति के अभिषेक आदि समय यहाँ भवन-निर्माण कला इतनी विकसित हो चुकी
अनुष्ठान सपन्न होते थे। थी। परन्तु, दूसरी ओर काल का कराल परिपाक, मौसम
तिलोयपण्णत्ती में द्वितीय जम्बूदीप आदि जैसे कुछ के निर्दय थपेड़ों और प्राततायियों की निर्मम तोडफोड़ और भी से विषय है जिनका उल्लेख अन्यत्र नही का स्मरण पाते ही मजुर करना पड़ता है कि तिलोय- मिलता, इस दृष्टि से भी यह प्रथ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पण्णत्ती और तत्सदश ग्रन्थो के विवरण कागज पर ही न प्राशा. है. इस तथा ऐसे ही ग्रथो को धार्मिक अध्ययन रहते होगे उन पर अमल भी किया जाता होगा।
के ही दायरे से निकाल कर इतिहास, भूगोल, खगोल, प्रस्तुत लेख में पाये विवरणों मे देवों के रहन सहन, सस्कृति, समाज आदि के अध्ययन का भी विषय बनाया तौर-तरीकों, धार्मिक मान्यता, वर्ग-विभाग प्रादि पर
जायगा । विशद प्रकाश पड़ता है। यदि इन विवरणों का प्रादर्श
२०. देखिए 'ति०प०' (सोलापुर), भाग २, प्रस्तावना, तत्कालीन मनुष्यों से लिया गया माना जाय तो गुप्त
पृ०१५। कालीन संस्कृति और सभ्यता हमारे समक्ष और भी २१. 'हरिवश' (५, ४१६) मे ऐसी ही सभाओ मे एक अधिक विस्तृत, स्पष्टतर एवं सप्रमाण हो उठेगी । विजय व्यवसाय सभा का भी उल्लेख है, जो आजकल के नामक देव की तत्कालीन सम्राट् का तो नही, पर उसके बाजार या मडी के रूप में प्रयुक्त होती होगी।
आत्म अनुभव की महत्ता
कविवर भागचन्द आतम अनुभव आवै जब निज, आतम अनुभव पावै । और कछू न सुहावै ।।टेक।।
रस नीरस हो जात ततच्छिन, अक्ष विषय नहीं भावै ।।१।। गोष्ठी कथा कौतूहल विघट, पुद्गल प्रीति नसावै ।।२।। राग दोष जुग चपल पक्षजुत, मन पक्षी मर जावै ।।३।। ज्ञानानन्द सुधारस उमग, घट अंतर न समावै ॥४॥ 'भागचंद' ऐसे अनुभव के हाथ जोरि सिरनावै ।।६।।
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'सम्मत्तगुणरिणहाण' कव्व को प्रशस्ति के मालोक में :
गोपाचल-दुर्गके एक मूर्तिलेखका अध्ययन
प्रो. डा. राजाम जैन गोपाचल का मध्यकालीन इतिहास वस्तुतः तत्कालीन स्त्री सरसुती पुत्र मल्लिदास द्वितीय भार्या साध्वी सरा पुत्र जैन अग्रवालों की सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास है। चन्द्रपाल । क्षेमसी पुत्र द्वितीया साधु श्री भोजराजा भायो विक्रम की १४वीं सदी के प्रारम्भ से १६वीं सदी तक का देवस्य पुत्र पूर्णपाल । एतेषां मध्ये श्री। त्यादि जिनसमय गोपाचल का स्वर्ण काल कहा जा सकता है और संघाधिपति 'काला' सदा प्रणमति ।। उसके मूल में जैन अग्रवाल ही प्रमुख रहे है। तोमरवशी उक्त लेखमें मोटे टाइपके पद विचारणीय है । यह तो राजापो को उन्होंने अपने पाचरण, बुद्धि-कौशल, चतुराई, सर्वविदित ही है कि गोपाचल (ग्वालियर) काष्ठासंघ साहस, कुशल सूझ-बूझ, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अभि- माथुरगच्छ की पुष्करगण शाखा के अनुयायी भट्टारकों रुचि, साहित्यकारों के प्रति महान प्रास्था एवं कलाप्रेम का सुप्रसिद्ध केन्द्र रहा है। वहाँ के सभी जैन अग्रवालों प्रादि से प्रभावित कर उन्होंने महाकवि रइघु के शब्दो मे के वे ही परम्परा गुरु एवं समाजनेता रहे है । महाकवि गोपाचल को 'श्रेष्ठ तीर्थ' बना दिया था। यहाँ पर उक्त रइध ने भी उस परम्परा के भट्टारकों को अपना गुरु माना सभी तथ्यों पर प्रकाश डालने का प्रसग नहीं है; क्योकि है। रइघ भगवान मादिनाथ के परम भक्त थे इसके अनेक उन पर विस्तृत रूप में अन्यत्र प्रकाश डाला जा चुका है। प्रमाण उपलब्ध है। कविता के क्षेत्र में अधिक लोकप्रियता यहाँ गोपाचल का एक मूर्ति लेख ही चर्चनीय प्रसग है
का एक मूात लख हा चचनाय प्रसग ह प्राप्त करने के बाद राजा डूगरसिंह ने जब उन्हें अपने दुर्ग जिसका अध्ययन एवं अनुवाद प्रादि किन्हीं कारोवश में रहकर साहित्य
में रहकर साहित्य साधना करने हेतु मामन्त्रित किया तब भ्रमपूर्ण होता रहा है किन्तु महाकवि रइधू की एक प्रशस्ति रइध ने उसे स्वीकार तो अवश्य कर लिया किन्तु भ. से उसका पूर्णतया संशोधन एवं स्पष्टीणरण हो जाता है। आदिनाथ के दर्शन बिना उनका मन नहीं लगता था । पठित मूर्ति लेख निम्न प्रकार है:
अतः उनके बाल-सखा एवं शिष्य साहू कमलसिंह संघवी, श्री प्रादिनाथाय नमः ।। संवत् १४६७ वर्षे वैशाख...
जो कि मुद्गलगोत्रीय जैन अग्रवाल थे, तवा राजा डूगर७ शुके पुनर्वसुनक्षत्रे श्री गोपाचल दुर्गे' महाराजाधिराज सिंह के अत्यन्त विश्वस्त पात्र एवं समृद्ध नगर सेठ थे, राज श्री डग... संवर्तमानो श्री काञ्चीसघे, मायू उन्होंने कवि की इच्छापूर्ति हेतु गोपाचल दुर्ग में ५७ फीट रान्वयो पुष्करगण भट्टारक श्री गणकीर्तिदेव तत्पदे
ऊंची प्रादिनाथ भगवान की विशाल जिन प्रतिमा का यत्यः कीर्तिदेवा प्रतिष्ठाचार्य श्री पण्डित रघू तेपं निर्माण कराया था और उनकी प्रतिष्ठा स्वयं महाकवि प्राभाए अनोतवंशे मोद्गलगोत्रा सा ॥ धुरात्मा तस्य । रइधू ने की थी'। रइधू विरचित 'सम्मत्तगुणणिहाणकव्व' पुत्रः साधु भोपा तस्या भार्या नाल्ही। पुत्र प्रथम साघु नामक ग्रन्थ-प्रशस्ति से उक्त घटना बिल्कुल स्पष्ट हो क्षेमसी द्वितीय साधु महाराजा तृतीय असराज चतुर्थ धन- जाती है। प्रशस्ति का पद्यांश निम्न प्रकार है :पाल पञ्चम साधु पाल्का । साधु क्षेमसी भार्या नोरादेवी
२. जैन शिला लेख संग्रह (स्मारिका सीरीज) तृ० भा०, पुत्र ज्येष्ठ पुत्र मघायि पति 'कोल'॥ भ--भार्या च ज्येष्ठ
भूमिका, पृ. १५३ । १. जैन लेख संग्रह (द्वितीय भाग, पूरनचन्द्र नाहर, कल- ३. सम्मत० १११३ तथा जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह द्वि. कत्ता, १९२७ ई.) लेखक १४२७ ।
भा० (सम्पादक पं० परमानन्द जी शास्त्री) पृ.८६ ।
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अनेकान्त
गोपायलिइंगरराय रज्जि।
सिवउ राइणा विहिय कज्जि । सहि णिव सम्माणे तोसियगु।
बुहयणहं विहिउ जं णिच्च संगु॥ कहणावल्ली वण धवण कंदु ।
सिरि 'प्रहरवाल कुल' कुमुयचन्दु ॥ सिरि भोपा' गामें हुवउ साहू ।
सपत्तु जेण धम्में लहाउ ॥ तहणाल्हाही' णामेण भज्ज ।
प्रइ सावहाण सा पुण्ण कज्ज॥ तहणंदण चारि गुणोहवास।।
ससिणिह जस भर पूरिय दिसास ॥ 'खेमसिह' पसिद्ध महि गरिठ्ठ ।
'महराज' महामइतकणि? ॥ 'मसराज' दुहिय जण मासऊर ।
पाल्हा' कुलकमलवियाससूर । एयह गरुवउ जो खेमसी।
वणियउ एच्च भव-भमण वी॥ तह "णिउरादे' भामिणि पउत्त ।
विण्णाण कलागुण सेणिजुत्त ।। पढमउ संघाहिबउ 'कमलसीह।
जो पयलु महीयलि सिवसमीह॥ णामेण 'सरासई तह कलत्त ।
बीड जि स सेविय पायभत्त । घउ विह दाणे पोणिय सुपत्त ।
मह णिसु विराय जिणणाह जत्त ॥ तहणंदण णामें 'मल्लिदासु'।
सो संपत्तउ सुहगह णिवासु । संघाहिव 'कमल' लहुब भाउ ।
णामेण पसिखउ 'भोयराउ' । तह भामिणि 'देवई' णाम उत्त।
विह पुत्तहि सा सोहई सउत्त। णामेण भणिउ गुरु चन्दसेण ।
पुणु 'पुणपालु' लहबउ परेण ॥ मत्ता-नय परियण जुतउ एच्छणित ।
कमलसीह संघाहिव चिर गंबर ॥
भावार्थ-गोपाचल में महाराज डूंगरसिंह राज्य करते थे। उनके राज्य में अग्रवाल वशोत्पन्न भोपा नामक साहु निवास करते थे । उनकी पत्नी णाल्हासे खेमसिंह, महाराज, असराज एवं पाल्हा नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए । खेमसिंह की णिउरादेवी (नोरादेवी) नामक पत्नी से कमलसिंह एवं भोजराज नामक पुत्र उत्पन्न हुए। कमलसिंह की दूसरी पत्नी सरस्वती से मल्लिदास नामक पुत्र एवं भोजराज की देवकी नामक पत्नी से चन्द्रसेन एवं पूर्णपाल नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। कमलसिंह संघवी का यही परिवार था।
महाकवि रइधू ने भट्टारक गुणकीर्ति एवं उनके पट्ट शिष्य भ० यशःकीर्ति की प्रेरणा से कई ग्रन्थो की रचना की है। कवि ने अनेक स्थानों पर उन्हें अपने गुरु के रूप में स्मरण किया है। पहले तो ये दोनो भट्टारक सहोदर भाई थे किन्तु बाद मे गुरु-शिष्य हो गये थे। कवि ने उनका बड़ी ही श्रद्धा भक्ति के साथ उल्लेख किया है। यशःकीर्ति के विषय मे लिखा है:ताहं कमागय तवतवियंगो।
णिच्चम्भासिय पवयणसंगो।। भव्य-कमल-सरवोहपयंगो।
वंदिवि सिरि 'जसकिति' असगो।। सस्स पसाएं कव्वु पयासमि। चिर भवि विहिउ असुह णिण्णासमि॥
सम्मइ०१२३४-६ महाकवि रइधू के इन सन्दर्भो से यह स्पष्ट है कि उक्त मूर्ति लेख में पाये हुए पूर्वोक्त रेखांकित पद वस्तुतः डूंगरसिंह, काष्ठासंघ, माथूरान्वय, गुणकीतिदेव, यश:कोति रइष भाम्नाय, कमलसीह एवं कमलसिंह है । काञ्चीसंघ आदि पाठ पूर्णतः भ्रमात्मक हैं और इस प्रकार महाकवि रइधू के 'सम्मत्तगुणणिहाणकव्व' की प्रशस्ति को सम्मुख रखकर उक्त मूर्ति लेख के अशुद्ध पढ़े गये पाठों को शुद्ध किया जा सकता है। दोनों के तुलनात्मक अध्ययन करने से निम्न निष्कर्ष सम्मुख पाते हैं :
१.तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह के राज्यकाल में गोपाचल दुर्ग की ५७ फीट ऊंची प्रादिनाथ की मूर्ति का निर्माण एवं प्रतिष्ठा वि० सं० १४६७ की वंशाख ...सप्तमी शुक्र
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ऊन (पावागिरी) के निर्माता राजा बल्लाल वार को हुई थी।
उल्लेख मूति लेख एवं प्रशस्ति दोनों में उपलब्ध है। २. अग्रवाल कुलोत्पन्न मुद्गलगोत्रीय साहू कमलसिंह ६. मूर्ति लेख के अनुसार कमलसिंह की द्वितीय पल्ली संघवी इसके निर्मापक थे तथा महाकवि रइधू इसके प्रति का नाम ईसरा था जिससे चन्द्रपाल नामक पुत्र उत्पन्न ष्ठाचार्य थे।
हुमा । किन्तु प्रशस्ति के अनुसार उसका नाम मल्लिदास ३. भट्टारक गुणकीर्ति के छोटे भाई एवं शिष्य भट्टा
था। हो सकता है कि उसके ये दोनों ही नाम रहे हैं । रक यशःकीति थे जो गोपाचल के काष्ठासघ माथुरगच्छ
एक नाम छुटपन का हो और दूसरा नाम बड़प्पन का। एवं पुष्करगण शाखा के अत्यन्त प्रभावशाली भट्टारक थे
प्रशस्ति के अनुसार कमलसिंह के भाई भोजराज की तथा उन्होंने रइध को शिष्य मानकर उन्हें हर दृष्टि से देवकी नाम की पत्नी से दो पूत्र उत्पन्न हुए चन्द्रसेन एवं प्रशिक्षित कर योग्य बनाया।
पूर्णपाल । जबकि मूर्ति लेख के अनुसार भोजराज का एक ४. मति लेख में भोपा साह के पांच पुत्रों के नामो- ही पुत्र था पूर्णपाल। ल्लेख हैं किन्तु रइधू प्रशस्ति मे चार पुत्रों के ही उल्लेख उक्त अन्तर को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मूर्ति हैं। उसमें चतुर्थ पुत्र धनपाल का नामोल्लेख नहीं है। लेख के प्राथमिक वाचन में काफी भ्रम हमा है। वस्तुतः यह प्रतीत होता है कि प्रशस्ति के अकन के समय तक उसके पुनर्वाचन की आवश्यकता है। उससे बहुत सम्भव धनपाल की मृत्यु हो गई थी इसलिए कवि ने उसके नाम है कि हम सत्य के अधिक निकट पहुँच सके। का अंकन नही किया।
जैन मूतिलेखों एवं शिलालेखों के मध्ययन में इस ५. प्रशस्ति में णिउरादेवी का ज्येष्ठ पुत्र कमलसिंह प्रकार की कई गल्तियाँ हुई हैं और एक वार जो गल्ती बताया गया है, किन्तु मूर्ति लेख मे भधायिपति कौल होती है उसका सुधार बड़ी कठिनाई से हो पाता है। अंकित है। वस्तुतः यहाँ कौल नही 'कमलसिंह होना पूर्वापेक्षया अाज हम अधिक साधन-सम्पन्न है, ऐसी स्थिति चाहिए और 'भधायि' (या भद्रा) सम्भवत: उसकी प्रथम मे क्या ही अच्छा हो कि उनका पुनर्वाचन कर उनका पत्नी का नाम रहा होगा । रइधू ने इस पत्नी का उल्लेख प्रशस्तियों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करें मोर जननही किया । हाँ, कमलसिंह की द्वितीय पत्नी सरस्वती का इतिहास के विवाद ग्रस्त प्रशों का सशोधन करें।
ऊन (पावागिरी) के निर्माता राजा बल्लाल
पं० नेमचन्द धन्नूसा जैन
यह दिगंबर जैन सिद्धक्षेत्र मध्यप्रदेश के निमाड ६६६) हो सकता है ऊन नाम की सार्थकता सिद्ध करने जिले में है। यह ब्राह्मण गांव से २७ मील तथा खरगौन के लिए ही यह पाख्यान गढ़ा हो। किन्तु उसमे कुछ से १० मील है। इस क्षेत्र के इतिहास के बारे मे प्रो० ऐतिहासिकता हो तो, बल्लाल नरेश होयसल वंश के वीर हीरालालजी जैन लिखते है, "यह क्षेत्र रेवा नदी के किनारे बल्लाल द्वि०) हो सकते हैं, जिनके गुरु एक जैन मुनि है तथा गाँव के आसपास अनेक खण्डहर दिखाई देते है। थे।" (भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान-पृष्ठ जनश्रुति है कि यहाँ बल्लाल नामक नरेश ने व्याधि से ३३२) । मुक्त होकर सो मन्दिर बनवाने का संकल्प किया था। इन्दौर गजेटीयर में बताया है कि-एक समय बल्लाल किंतु अपने जीवन में वह ९९ ही बनवा पाया । इस राजा किसी दुर्घर व्याधि से ग्रस्त हो गया था। इसलिए प्रकार एक मन्दिर कम रह जाने से यह स्थान 'ऊन' नाम राज्य का कारभार छोड़कर वह गंगा की यात्रार्थ निकला। से प्रसिद्ध हुआ। (इन्दौर स्टेट गझेटीयर, भाग १, पृष्ठ किसी समय वह राजा रानी के साथ इस क्षेत्र में मुक्काम को
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पाया। एक रात्रि में राजा गाढ़ निद्रा में सोरहा था और उससे यशोषवल विजयी हुए। और उन्होंने बल्लाल का रानी की नीद यकायक खुल गई। उसने सुना कि दो नाग शिरकमल कुमारपाल को भेट के रूप में अर्पण किया मापस में बातचीत कर रहे हैं। एक नाग दूसरे से कह होगा। रहा था, 'अरे तेरा जीवन कितना धोखे में है, राजा अगर यशोधवल ने बल्लाल को मारा इसलिये कि उनका थोड़ा चूना खा जायगा तो तू मर जायगा और राजा की उल्लेख शिलालेख मे आना स्वाभाविक है। तथा यह व्याधि भी चली जायगी।
सामन्त राजा होने और कुमारपाल की सहायता से बल्लाल बाद में दूसरा भी पहले को कहने लगा, 'अरे तेरा को हराया इसलिए सार्वभौम के नाते कुमारपाल को भी जीवन घोखे में ही है। अगर राजा उबाला हुमा तेल 'बल्लाल राज के मस्तक पर उछलने वाला सिंह भी कहा तेरे बीच में डाल दे तो, तू समूल नष्ट होगा और वहाँ हो । इस प्रकार के विचार से संतोष तो कर लिया था। की धन-राशि राजा को प्राप्त होगी।"
मगर अाशंका बनी रहती थी। रानी ने यह शुभ समाचार प्रातःकाल राजा को
लक्ष्मीशंकर व्यास के 'चौलुक्य कुमारपाल' नाम की सुनाया। राजा ने प्रतिज्ञा की, कि अगर यह सच हो जाय
पुस्तक का जब बारीकी से अध्ययन किया तब पता चला तो मैं यहां उसी धनराशि से सौ मंदिर बनवाऊँगा । राजा
कि, उस समय बल्लाल नाम के दो राजा कुमारपाल के ने ठीक वैसा ही किया। उससे राजा निरोग और धनवान
विरुद्ध थे । व्यासजी पृष्ठ १०२ पर लिखते हैं-'अपने (तथा शत्रु रहित) हो गया। राजा ने वहाँ सो मन्दिर
किसी से कुछ प्रतिज्ञा कर......उज्जयिनी के राजा बनवाना प्रारम्भ किया। लेकिन वह ६९ ही बनवा पाया।
बल्लाल तथा पश्चिमी गुजरात के राजारों से मैत्री कर इसीलिए पावागिरि को ऊन भी कहते हैं । प्रादि।
ली।......उज्जयिनी राज देश देशान्तर में भ्रमणशील गजेटीयर में उल्लिखित इस बल्लाल राजा को प्रो० ।
व्यवसायियों से गुजरात की वास्तविक स्थिति से परिचित हीरालालजी ने होयसल नरेश बताया है, जो प्राय: जैन हो चुका था। उसने मालव नरेश बल्लाल से एक सैनिक और समकालीन नरेश थे। लेकिन इसी समय के दरम्यान अभिसन्धि कर ली थी। एक मालव नरेश बल्लाल का भी इतिहास में उल्लेख
प्रामुख लेखक डॉ. राजबली पाण्डेय जी पृष्ठ ४ पर मिलता है। जिसको परमार राजा यशोधवल ने या
लिखते हैं कि, 'सपादलक्ष के चौहान राजाने अपने वर्तमान कुमारपाल ने मारा था।
नागोर की ओर से चढाई की, तो दूसरी पोर से उज्जयिनी एक ही व्यक्ति के विषय में ऐसे परस्पर भिन्न दो के राजा बल्लाल ने और तीसरी पोर से चंद्रावती के उल्लेख क्यों है ? इस पर मेरी यह समझ थी कि, चौलुक्य अधिपति विक्रमसिंह ने माक्रमण कर दिया। सिद्धराज जयसिंह और परमार राजा विक्रमसिंह का १२ व्यासजी पृष्ठ १०७ पर लिखते है-'अर्णोराज साल तक संघर्ष चलता रहा । और विक्रमसिंह कुमारपाल गुजरात के सीमात की ओर बढ़ पाया और उसने अवंती यद्यपि प्रारम्भ में शरण पाया, तो भी बाद में विरुद्ध हो नरेश बल्लाल के राज्य की सीमा में प्रवेश कर प्रणहिल गया था। वह मालव नरेश बल्लाल को मिला था । उसको पुर की ओर अग्रसर हो रहा था। कुमारपाल तत्काल ही मारकर उसका राज्य उसके भतीजे यशोघवल को (शायद) अपनी सेना एकत्र कर बल्लाल का सामना करने के लिये इस शर्त पर दिया था, कि उसे बल्लाल के विरुद्ध रवाना हुआ। हाथी पर सवार कुमारपाल ने बल्लाल पर कुमारपाल को सहायता करना।
प्रहार कर उसे पराजित किया । राज्य प्राप्ति के लोभ में उसने यह भी प्रतिज्ञा की, वही पृष्ट १०६ पर-बडनगर प्रशस्ति में कहा गया "मैं बल्लाल का शिरच्छेद करके पापको अपित करूँगा, है कि, 'मालव नरेश अपने देश की सुरक्षा करते हुए हत तब ही सिंहासन ग्रहण करूंगा। इस प्रतिज्ञा पूर्ति में हुमा । उसका सिर कुमारपाल के राज प्रासाद के द्वार यशोषवल को सैनिक सहायता कुमारपाल ने दी होगी, पर लटकाया गया था ।
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वही पृष्ठ १११ पर-विक्रमसिंह के राजगद्दी पर उस समय बह्मणवाड का शासक था। (जैन ग्रन्थ प्रशस्ति उसके भ्रातृ पुत्र यशोधवल को स्थापित कराया गया। सग्रह भाग २ प्रस्तावना पृष्ठ ७८) इस घटना की ' पुष्टि तेजपाल के वि० सं० १२८७ की
इससे रणधोरीय के पुत्र बल्लाल ने अर्णोराज को पाबू पहाड़ी प्रशस्ति से भी होती है। इसमें कहा गया है,
भयभीत किया होगा ऐसा लगता है। कुमारपाल चरित में "अर्बुद परमार यशोधवल ने, यह विदित होते ही कि,
ठीक इसके विरुद्ध लिखा है कि, खुद कुमारपाल ने ही बल्लाल कुमारपाल का विरोधी तथा शत्रु हो गया है,
चौहान वशी अर्णोराज की हत्या की थी। लेकिन यह मालवाधिप बल्लाल को हत कर दिया।" इन विवरणो से
कवि सिंह का उल्लेख समकालीन होने से अधिक प्रमाण बलाल नाम के दो भिन्न व्यक्ति प्रतिभाषित होते है।
लगता है। इससे राजा बल्लाल की शक्ति को ठीक कल्पना इतना स्पष्ट होते हुए भी कही-कहीं मालव नरेश को ही उज्जयिनी नरेश समझकर वर्णन मिलता है । जैसा
पाती है। बह्मणवाड के क्षत्रिय भुल्लण भी जब उसके कीति-कौमुदी के अनुसार-कुमारपाल ने गुजरात पर
सामन्त राजा थे, तब ऐसा लगता है कि अर्णोराज की आक्रमण करने वाले मालवराज बल्लाल का शिरच्छेद कर
हत्या कर यह बल्लाल (उज्जयिनीराज) ऊपर बताये दिया था। ऐसा ही अभिप्राय प्रायः व्यासजी का भी
मुजब गुजरात मे आक्रमण कर कुमारपाल के विरुद्ध रहा दिखता है। जबकि वे स्वय पृष्ठ १०२ पर लिखते है कि,
होगा। और इसी समय कुमारपाल ने इसकी हत्या की -उसने (उज्जयिनी नरेश ने) मालव नरेश बल्लाल से । एक सैनिक अभिसन्धि कर ली थी।"
प्रतः ऐसे उज्जयिनी नरेश बल्लाल की ऐतिहासिक इसका समाधान शायद इस तरह हो सकता है कि,
खोज स्वतत्र होनी चाहिए। क्योकि सम्पूर्ण मालव राज्य किसी समय मालवा की राजधानी उज्जयिनी थी। इसलिए पर अधिकार जमाने वाला होगा या न होगा, लेकिन इसी मालव नरेश को उज्जयिनी नरेश कहा गया हो। लेकिन समय 'मालवनरेश' ऐसी उपाधि जिसको होगी और मज या भोज परमार राजामो के समय से मालवा की जिसकी हत्या यशोधवल ने की थी, ऐसे एक बल्लाल राजधानी घारा नगरी थी। यानी ई. सन की ११वीं राजा के इतिहास पर हाल ही खेरला शिलालेख से प्रकाश शदी से पूर्व ही उज्जयिनी का महत्त्व कम हो गया था। पड़ने की सम्भावना है। प्रतः उस समय से मालव नरेश को उज्जयिनी नरेश नहीं ता० २४-१२-६७ को डॉ. य. ख. देशपाण्डे तथा कहा जाता।
प्रो० म० श० वाबगावकर इन्होने नागपुर के 'तरुण भारत' ऐसा हो सकता है कि, धाराधिपति परमार राजामों नाम के दैनिक वर्तमान पत्र मे 'खेरला गांव' (जिला की परम्परा में (उस समय या शद) बल्लाल नाम के वंतूल-म० प्रदेश) के एक शिलालेख पर प्रकाश डाला है। किसी भी राजा का उल्लेख न मिलने से उज्जयिनी नरेश उसमे एक राजा नृसिह-बल्लाल-जैतपाल ऐसी राज परपरा को ही मालव नरेश कह दिया हो।
दी है। लेखन का काल प्रारम्भ में शक स०१०७६ (ई. अतः उज्जयिनी नरेश एक विशिष्ट और निश्चित १ वम्हणवाडउ णामे पट्टणु, परिणरणाह-सेणदल वट्टणु । स्थान के राजा होने से उनकी ऐतिहासिक खोज होनी जो भुजई परिण समकाल हो, चाहिए । इसके लिए कवि सिंह या सिद्ध विरचित प्रद्युम्न रणधोरीय हो सुग्रहो बल्लाल हो ॥ चरित प्रशस्ति संशोध्य हैं। ग्रंथ प्रशस्ति में 'बह्मणवार्ड' जासु भिच्चु दुज्जण-मणसल्लणु, नगर का वर्णन करते हुए लिखा है कि, उस समय वहां खत्तिउ गुहिल उत्तु जहि भुल्लणु ॥ रणधोरी या रणवीरका पुत्र बल्लाल था, जो अर्णोराज लहि सपत्तु मुणोसरु जावहिं, को भयभीत करने के लिए काल स्वरूप था । और जिसका भवु लेउ पाणंदिउ तावहिं ।। मांडलिक मुत्य अथवा सामन्त गुहिल वंशीय क्षत्रिय भुल्लन
पज्जुण्ण चरियं (मादि भाग)
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स० ११५७) है। तथा दो लाईन के बाद यह लेख खण्डित यह सब देने का कारण यह है कि, इन राज पुरुषों या अपूर्ण है । उसके बाद शायद ऊपर को पूरक ऐसा लेख को एलिचपुर के राजा श्रीपाल उर्फ ईलके ही वंशज माना है । उसका काल शक स० १०६४ (ई० स० ११७२) जाता है। क्योंकि खेरला यह गांव श्रीपाल राजा के है । यह लेख एक वापिकादान के हेतु उत्कीर्ण होने से आधीन था इतना ही नही किन्तु वहाँ के किले में वह रहता इसमें इन राजाओंके कर्तृत्त्व या इतिहास पर खास प्रकाश था। (प्राचियॉलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया, न्यू सिरीज, नहीं पड़ता। तो भी इस शिलालेख का प्रारंभ 'जिनानु- वाल्यूम १६ पृष्ठ ४५) कितनेक खेटक को खेडला भी सिद्धिः से शुरु होने से ये राजा ई० स० १२५७ में जैनधर्मीय कहनेसे खटइल-खेडइल-ऐसे उत्पत्तीके साथ राजा ईल ने ही थे और बाद एकादशी व्रतमान्य वेदधर्मीय बने ऐसा उलेख बसाया है। ऐसा ही मानते है । इसी ईल राजा के वश है । उसका काल काल ई० स० ११७२ दिया है। में जयतपाल राजा हुा । देखो लिस्ट एन्टिक्वेरियन् रीमेन्स इस समय जैतपाल राजा थे । उनको मराठी के पाद्य- २
इन द सेंट्रल प्रॉव्हन्सेस अंड बेरार-कमेन्स, १८९७, पृष्ठ कवि मुकुदकाज ने वेदधर्म का उपदेश देकर ब्रह्म साक्षात्कार
४६ । तथा बैतूल गजेटियररसेल, १७०६ पृष्ठ २६, और कराया था। ऐसा उल्लेख स्वयं मुकंदराज ने शक स०
बेरार गजेटियर-सर प्राल्फेड लायस पृष्ठ ११४) इस १११० (ई० स० ११८८) के 'विवेक सिधु' नामके ग्रंथ
लेख में प्रो. वाबगावकरके अनुसार-राजा श्रीपाल, में किया है। और उस समय राजा सारंगधर राज्य कर "
जयतपाल के १५० साल पहले हुमा, ऐसा बताया है। रहा था ऐसा भी बताया है।
डॉ० य० खु० देशपांडे, राजा श्रीपाल की मृत्यु ई० इस शिलालेख से यह स्पष्ट होता है की, ई० स०
स. १०७५ के दरम्यान मानते है। साथ में यह भी मानते ११५७ से ११७२ तक जैतपाल राज्य कर रहा था । अगर
कि राजा श्रीपाल के साथ मुहम्मद गजनी का भांजा दुल उसका राज्य काल इस मर्यादा के आगे पीछे पांच साल
- अब्दुल रहमान का खेडला और एलिचपुर के पास युद्ध याने ई० स० ११५२ से ११७७ तक ऐसे २५ साल माने
हुआ था। इस समय मुहम्मद गजनी जिन्दा था । मुहम्मद जाएं तो ई० स० ११७७ से ११८८ के दरम्यान ही उसका
गजनी का काल प्रायः ई. स. ९ से १०२७ है । और अंतिमकाल निश्चित होता है । तथा बडनगर प्रशस्ति के
'तवारिख-इ-अभजदिया' के अनुसार श्रीपाल विरुद्ध अब्दुल प्राधार पर अनेक इतिहासकारीका अभिप्राय कि रहमान का युद्ध ई० स० १००१ में हुमा । तो इस काल राजा बल्लाल की मृत्यु ई० स० ११५१ मे या इसके पूर्व
मे १०-१५ साल का अतर पड सकता है । ७५ साल का ही हुई है । अतः जैतपाल ई० स० ११५१ से ही राज्यारूढ़
का अंतर नही पा सकता । निदान १०२७ के पहले श्रीपाल होंगे।
की मृत्यु माननी ही पड़ी। राजा बल्लाल के राज्य करने के उल्लेख प्रायः ई० इससे राजा श्रीपाल तथा नृसिंह तक चार पीढ़ी हो स० ११३५ के मिलते हैं। क्योकि लक्ष्मीशंकर व्यास जी गई हो ऐसा लगता है । क्योंकि इनमे १०० साल का प्रतर इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि, ऐतिहासिक तौर पर इस है। इन को साधनेवाला प्रमाण मिल जाय तो एक लप्त बल्लाल का पता लगाना कठिन है। इतना तो निश्चित है प्राय दिगंबर जैन राजवंश का पता चल जायगा। बताया कि, बल्लाल ने ई०स० ११३४-४० मे यकायक राज्य जाता है कि, खेरला के किले में एक और शिलालेख है। प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की हो। इससे कम से कम उसको देखने पर या उसके प्रकाश में आने पर अधिक यह बल्लाल ई० स०११६५ से ११५० तक राज्य करता संशोधन हो सकता है। रहा यह स्पष्ट है। वैसे ही उसके पिता नसिह-नरसिंह का या प्रारम्भ में जिस ऊन क्षेत्र का उल्लेख किया, वहाँ राज्य काल ज्यादा से ज्यादा ३५ साल भी माने तो भी के मूर्तिलेखों का या खण्डहरों का अधिक बार किसी विद्वान ई० स० ११०० से ११३५ तक हो सकता है। निदान द्वारा अध्ययन हो जाय तो भी इस राजवंश पर अधिक प्रकाश इसके पीछे तो जा नहीं सकता।
पड़ने की संभावना है। क्योंकि वहाँ के प्राचीन मतिलेखों
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काल वहीं है । यथा--(१) मूर्ति संभवनाथ स. १२१८ पास अनेक गायें चरती हैं तथा विश्राम के लिये यहाँ ......यह दो लाईन में होते हुए भी अस्पष्ट है (२) प्रदाजा बैठती है, अत: इस मन्दिर को 'ग्बालेश्वर मन्दिर कहते १२॥ फूट ऊवी मूर्ति ३ के प्रत्येकी लेख संवत १२६३ जेष्ठ है।' लेकिन मेरा अनुमान विशेषण से वहाँ पर कुछ वदी १३ गुरी......प्राचार्य श्री यशकीर्ति प्रणमति । ऐतिहासिकत्व बताना ऐसा है। जैसे-शिरपुर के एक (यह लेख बहुत बड़ा है) (३) सं० १२६३ जेष्ठ वदी प्राचीन मन्दिर में एक शिलालेख में-रामसेन के शिष्य१३ गुणे (गुरी) सिधी प० तरगसिह सुत जातासह ग्वालगोत्री होने का उल्लेख है। तथा कोशरिया जी के प्रणमति । (४) प्राचार्य श्री प्रभाचन्द्र प्रणमति नित्य । मन्दिर में ग्वाल (गवाल) गोत्री दिगबर जैनों द्वारा प्रतिष्ठा स० १२५२ माघ सुदी ५ श्री चित्रकूटान्वये साधु (हु) करने के उल्लेख है, उसी प्रकार उस मन्दिर के प्रतिष्ठाबाल्ह भार्या शाल्ह तथा मन्दोदरी सुत गोल्ह रतन भालू कार कोई ग्वालगोत्रीय होंगे। ग्वालीय गढ़ किले का प्रणमति नित्यम् । तथा कुछ मूर्तियों पर इस प्रकार प्रतिभा
निर्माता कोई ग्वाल राजा था ऐसा बताया जाता है। सित होता है-(५) स० १२४२ माघ सुदि ५......
अतः इस बाबत कुछ सशोधन होना चाहिए । क्योकि ...आदि ।
रामसेन के शिष्य के नाते शिरपुर के इतिहास मे श्रीपाल इन मूर्तिलेखों के काल का अध्ययन करने से पता
राजा को ही ग्वाल गोत्रीय बताया जा सकता है उसी चलता है कि इस क्षेत्र पर मन्दिरों की रचना ई० स०
प्रकार उसके वंशज बल्लान का यह प्रमुख मन्दिर अगर ११६२ के पूर्व ही हो गयी होगी । अत: खेरला शिलालेख
हो और उससे इस मन्दिर को ग्बालेश्वर मन्दिर कहते हों मे उध्दत सिंह के पुत्र बल्लाल ही ऊनके निर्माता हैं । न
तो भी खेरला शिलालेख उद्धत मालव नरेश बल्लाल को ही कि होयसल नरेश बल्लाल । क्योंकि इस होयसल वीर
___ इसके (उनके) निर्माता कह सकते हैं। बल्लाल का काल ई. स. ११७३ से १२२० है। राजा
तथा इस बल्लाल को ई० स० ११३५ में अचानक बल्लाल के जीते जी ही वहाँ प्रतिष्ठा नही हो सकती
राज्य प्राप्ति में सफलता मिल गयी होगी। ऐसा इतिहासकारण जब राजा बल्लाल वहाँ एक प्रतिम मन्दिर नही
कारों का कथन है इससे भी उनके निर्माता राजा बनवा पाया (सिर्फ ६६ ही बनवा पाया) तब १०० मन्दिर
बल्लाल के प्राख्यान से पुष्टी ही मिलती है तथा उसने की पूर्ति के पहले मन्दिरों में प्रतिष्ठा कार्यों में वह तैयार
दोनों नागों का नाश कर धन प्राप्त करने का उल्लेख तो नहीं हो सकता। तथा इस होयसल नरेश की मृत्यु कोई
किया ही है कि, जिसके प्रतर्गत शत्रु तथा बाह्य शत्रु का यकायक होने का उल्लेख नही मिलता जिससे उसकी १०.
नाश कर और विपुल धन सचय कर ई. स. ११३५ मे मन्दिर बनवाने की प्रतिज्ञा अधूरी रह जाय । अतः होयसल महत्व प्राप्त किया हो। नरेश के बदले उज्जयिनी नरेश बल्लाल की संभावना
इसकी अधिक पुष्टि के लिये उज्जयिनी नरेश की जरूर है। लेकिन जब तक उसके जैनत्व पर प्रकाशन
स्वतत्र खोज, और उन क्षेत्रों का बारीकी से अध्ययन तथा पड़े तब तक उसको उनके निर्माता या जैन मन्दिरों के
उत्खनन होना चाहिए। क्योंकि वहाँ १२वीं सदी के अनेक निर्माता नहीं कहा जा सकता । मन्दिरों के निर्माता के
अवशेष प्राप्त हुये हैं तथा और होने की सभावना व्यक्त सम्बन्ध में वहाँ के एकाघ मन्दिर पर शिलालेख अवश्य ही
वश्य हा की जाती है । इन्दौर गजेटीयर मे उल्लेख है कि वहाँ प्राप्त होगा।
इसी समय के धारा नगरीके परमार राजामों के शिलालेख दूसरी महत्व की बात यह है कि, उनके प्रमुख मन्दिर पाये जाते हैं। (ई. स. ११६५ धारा में सुमलवर्म देव को 'ग्वालेश्वर मन्दिर' कहते हैं। यद्यपि इसका अर्थ वहाँ का राज्य था।) प्रतः इसी क्षेत्र के साथ इसका परिकर वाले या इतिहासकार यह बताते हैं कि, 'इस मन्दिर के को अगर इस दृष्टि से देखा जाय तो ही इस क्षेत्र के १ यह सब मर्तिलेख ऊन तीर्थ के प्रसिद्ध किताब पर निमीता व इतिहास पर पूरा प्रकाश पड़ सकता है। से लिये है।
२ ग्वाल गोत्री श्री-रामसेनु...।
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शुभचन्द्र का प्राकृत व्याकरण
म० मा. ने. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट अनेकान्त (अक्तूबर १९६८, वर्ष २१, किरण ४) (४) इस प्राकृत व्याकरण की प्रतियाँ विपुल मात्रा में डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने एक लेख लिखा है । इस विषय में नहीं मिलती हैं। डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने किस प्रति में संशोधक विद्वानो के लिए कई सन्दों का निर्देश करना का उपयोग किया है, इसका उल्लेख नही है। जिन रत्नमैं अपना कर्तव्य मानता हूँ।
कोश में इसका निर्देश 'चिन्तामणि व्याकरण' ऐसा किया (१) 'शुभचन्द्र और उनका प्राकृत व्याकरण' तथा है, किन्तु वहाँ भी हस्तलिखितों का निर्देश नहीं है। मैं उसका 'श्रुतसागर के प्राकृत व्याकरण के सम्बन्ध' इस सुनता हूँ कि इसकी एक हस्तलिखित प्रति व्यावर में है, विषय पर पूर्व में बहुत कुछ लेखन हो चुका है। उसका और उसकी प्रतिलिपि शायद शोलापुर में उपलब्ध है । सदर्भ इस प्रकार है: i) शभचन्द्र एण्ड हिज प्राकृत ग्रामर, अनल्स प्रॉफ दि भांडारकर ओरिएण्टल इन्स्टिट्यूट, पूना,
(५) मैंने १९३० में शुभचन्द्र व्याकरण के सूत्रपाठ
की प्रतिलिपि की थी, वह अभी मेरे पास उपलब्ध है। भाग-१३, अक १, पृष्ठ ३७-५८, ii) कार्तिकेयानुप्रेक्षा, अगस्त १९६०, प्रस्तावना, पृष्ट ७९-८८, iii) नितिडोलची शुभचन्द्र के प्राकृत व्याकरण का अध्ययन तथा उसकी का प्राकृत व्याकरणों पर लिखा हुमा फ्रेन्च ग्रन्थ । मौलिकता का निर्णय करते समय दो मुख्य बातें ध्यान मे
(२) इस व्याकरण के प्रकाशन के बारे में बहुत कुछ रखनी चाहिए। 'शुभचन्द्र ने अपने व्याकरण में ऐसे कितने प्रयत्न पहले हुए थे, परन्तु विपुल हस्तलिखित ग्रन्थ उपलब्ध नियम और उदाहरण दिये है, जो पूर्ववर्ती व्याकरणकारों नहीं हुए पोर जो हुए वे भी असमाधानकारक थे। व्याक- ने-खासकर त्रिविक्रम और हेमचन्द्र ने नहीं दिये करणसरीखे ग्रन्थों का जल्दबाजी से सम्पादन करना है। (२) और ऐसे कौन-से साहित्य का-खासकर प्राकृत दुःसाहस है यह दिवंगत पडित प्रेमी जी की सूचना ध्यान ग्रन्थों का-शुभचन्द्र ने अपने व्याकरण मे निर्देश और में रखकर इस ग्रन्थ की प्रसिद्धि अब तक नहीं हुई। उपयोग किया है जिनका उपयोग हेमचन्द्र और त्रिविक्रम
(३) पंडित अप्पाशास्त्री उदगांवकर ने जो हस्त- ने नही किया है । लिखित प्रति मुझे दी थी, वह अब दुर्मिल है। ईडर में पाशा करता हूँ कि इस विषय पर जहाँ-जहाँ प्रति से ५० प्रेमी जी ने जो प्रतिलिपि कराई थी, वह सशोधनात्मक कार्य हुआ है, उसे ध्यान मे लेकर आगे कार्य सम्भवतः पं० प्रेमी जी के संग्रह मे होगी ही।
करने से ही सशोधन का क्षेत्र बढ जायेगा। .
संग्रह और दान कवि-जलघर ! तुझे रहने के लिए बहुत ऊंचा स्थान मिला है। तू सारे ससार पर गर्जता है । सारा मानवसमाज चातक बनकर तेरी ओर निहार रहा है। तेरे समागम से मयूर की भाँति जन-जन का मानस शान्ति उद्यान में नृत्य करने लग जाता है। तू सबको प्रिय लगता है। तु जहाँ जाता है, वही तेरा बड़ा सम्मान होता है। पर थोड़ा गौर से तो देख, तेरे पिता समुद्र की प्राज क्या स्थिति हो रही है। पिता होने के नाते उसे भी बहुत ऊँचा सम्मानीय स्थान मिलना चाहिये था। किन्तु उसे तो रसातल-सबसे निम्न स्थान मिला है। उसकी सम्पत्ति का तनिक भी उपयोग नहीं होता । मेघ ! इतना बड़ा अन्तर क्यों ?
जलघर-कविवर ! इस रहस्य की गिरि-कन्दरा में एक गहन तत्त्व छिपा हुआ है। वह है-सग्रहशील न होना । संग्रह करना बहुत बड़ा पाप है। यही मानव को नीचे की ओर ढकेलने वाला है। संग्रह वृत्ति के कारण ही समुद्र को रहने के लिए निम्न स्थान मिला है और उसका पानी भी पड़ा-पड़ा कड़वा हो गया । समुद्र ने अपने जीवन में लेना ही अधिक सीखा है और देना अत्यन्त प्रल्प । मैं देने का ही व्यसनी हूँ। सम्मान और असम्मान का, उन्नति और अवनति का, निम्नता और उच्चता का यही मुख्य निमित्त है ।
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जैन काव्य में विरहानुभूति
डा० गंगाराम गर्ग
कवियों की साधना में विरह का महत्त्वपूर्ण स्थान तड़पती ही रही। राजमती की नेमिनाथ से मिलन की है। विरह की अनुभूति प्रेम मे तीव्रता, नवीनता लाने के इसी तड़पन और पीड़ा में जैन भक्तों की प्राराध्य के प्रति लिए बड़ी उपादेय होती है तथा काव्य-मर्मज्ञों के लिए विकलता व प्रातुरता अन्तनिहित है। जैन साधकों ने मर्मस्पर्शी तथा मधुर, इसीलिए श्रेष्ठ कवि अपने काव्य मे चेतन के कुमति से प्रेम करने पर सुमति की तड़पन विरह का वर्णन करते आये है। आदि कवि बाल्मीकि के दिखलाकर प्राध्यात्मिक विरह के भी थोड़े चित्र प्रस्तुत राम के प्रलाप, कालिदास के अज और रति के विलाप किये है। तथा पत्थरों को भी रुला देने वाले भवभूति की करुणा हिन्दी साहित्य में विरह की १० प्रवस्थायें मानी गई विगलित वाणी से काव्य-प्रेमियो का मन आज भी सिक्त है-अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, प्रलाप, है। हिन्दी मे जायसी की नागमती के ग्रासू युग-युगो तक।
उन्माद, व्याधि, जड़ता और मरण । इनमें से 'उन्माद' के न भुलाये जा सकेंगे। समाज के कल्मष-कर्दम को फेकने
के अतिरिक्त विरह की सभी अवस्थाये जैन काव्य में उपमे प्रयत्नशील कबीर प्रादि सत कवियों ने भी अन्तःकरण
लब्ध होती हैमे ज्ञान उत्पन्न करने के लिए मामिक विरह रागिनियाँ
अभिलाषा :अलापी है । कृष्ण काव्य-भूमि का वह भाग अधिक मधुर और पाकर्षक जो गोपिकामों की अविरल अश्रुधाग से
अभिलाषा विरहानुभूति की पहली अवस्था है। इनमें अभिसिञ्चत है। इसी प्रकार द्यानतराय, जगजीवन,
विरहिणी को प्रिय-दर्शन की सामान्य इच्छा रहा करती नवल, पावदास प्रादि जैन साधको का विशाल काव्य
है । राजमती नेमिनाथ के दर्शन पर ही अपनी प्रसन्नता सागर की विरह-उर्मियो द्वारा तरगायित होने से वचित नही आधारित मानती है
देख्यो, री! कहीं नेमिकुमार। हिन्दी काव्य मे विरह के दो रूप होते है-१. नननि प्यारो नाथ हमारो प्रान जीवन प्रानन प्राधार । लौकिक विरह २. अलौकिक विरह । लौकिक विरह मे
-भूघरदास पालम्बन और प्राश्रय लौकिक होते है अथवा लौकिक चिन्ता :प्रतीत होते है यथा-नागमती-रत्नसेन, गोपी कृष्ण । सामान्यतः अभिलापा से ही जब प्रियतम के दर्शन अलौकिक विरह में पालम्बन अलौकिक होता है । कबीर, नही होते, तो विरहिणी को उसका विरह पीड़ित करने दादू प्रादि सभी सन्तों का विरह इसी प्रकार का है। जैन लगता है । प्रब बह चिन्तित रहने लगती है। राजमती कवियों का विरह वीतरागी तीर्थकरो के प्रति है, अतः वह वियोग के प्रारम्भिक क्षणों मे स्वप्न में प्रिय-दर्शन का अलौकिक है। जैन कवियों ने अपनी विरहजन्य वेदनायें किञ्चित् लाभ उठा लिया करती थी, किन्तु कोरे स्वप्न राजमती के माध्यम से परोक्षरूप में नेमिनाथ (तीर्थकर) उसके वेदनाग्रस्त हृदय को कब तक सहलाते ? रंगीन तक पहुँचाई हैं । जूनागढ़ के राजा उग्रसेन की पुत्री राजमती स्वप्नों का महल भी जब ढह गया तो वह तड़पती पुकार का विवाह नेमिनाथ से होना था। नेमिनाथ वारात की उठीभोज्य-सामग्री के लिए एकत्रित पशुमों को देखकर इस अज क्यों देर हो, जपति नेमिकुमार प्रभू सुनि । हिंसक संसार से विरक्त हो गये और राजमती विरह मे किंचित सुल सपने का वीत्यौ, अब दुःख भयो सुमेर हो।
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अनेकान्त
मैं मनाथ मोहि साथ निबाहो, अब क्यों करत अबेर हो। सखी री सावन घटा ई सतावे । 'मानिक' प्ररज सुनो रजमति प्रभु राखो चरननि लेर हो। रिमझिम बंद वदरिया बरसत नेमि नेरे नहिं प्रावे । स्मृति :
कुजत कीर कोकिला बोलत, पपीहा वचन न भावे । प्रिय-दर्शन की चिन्ता के बढ़ते रहने के साथ प्रियतम दादुर मोर घोर गन गरजत, इन्द्र धनुष डरावे । की स्मृतियां विरहिणी के विरहदग्ध हृदय को कुरेदने लग रजनी, शभचन्द्र, रजत रश्मि या नक्षत्र भी राजमती जाती हैं । तो उसकी प्राकुलता अधिक बढ़ जाती है। को बड़ी पीडा देते हैंस्मृतियों में प्रियतम के अनुपम रूप और सयोगकालीन नेम निशाकर बिन यह चंदा, तन मन दहत सकल री। मधुर घटनाओं की ही अभिव्यंजना नही होती, अपितु किरन किषों नाविक शर, तति के ज्यों पावक की मलरी। उसके निर्मोहीपन को उलाहना भी निहित रहता है। तारे हैं कि अंगारे सजनी, रजनी राकस दलरी ।-भूधरदास राजमती ने नेमिनाथ के सौम्यरूप और दया मन को प्रलाप :कई बार याद किया है किन्तु उसके निर्मोहीपन की कसक बहुत दिनों तक तडपते रहने पर भी प्रियतम के वह मन से नहीं निकाल पाई है
दर्शन न पाकर विहरिणी लोक-लज्जा को भी कतई भूल हे जी, मोकं सुरतितिहारी सय्यां हो नैना लागि ।
जाती है तथा अपनी प्रेमातुरता को गुरुजनो के समक्ष जब से चढ़े गिरि सुषिहू ना लीनी, तुमने पिया हो। स्पष्ट करने में भी नहीं हिचकती। प्रलाप की अवस्था गुणकथन :
राजमती के विरह-वर्णन मे भी देखी जा सकती हैइस अवस्था में प्रियतम की गुण पयस्विनी का प्रवाह
मां विलंब न लावरी, पठाव तहारी, जहं जगपति प्रिय प्यारो विरहिणी के हृदय सागर में होकर कण्ठ के माध्यम से
और न मोहि सुहाव कछु अब, दीस जगत अंधारो री। उन्मुक्त निस्सरित होने लगता है। लोक-लाज की अभेद्य
मीरा की तरह राजमती भी ढोल बजा-बजाकर प्राचीरें भी उसे वाधित नही कर पाती । नेमिनाथ की दया और विरक्ति भाव से प्रभावित राजमती अपने मन
कहती फिरती है कि वह न तो नेत्रों में काजल डालेगी, को समझाने में असमर्थ होकर कहती है
न शृंगार करेगी। स्नान करने तथा अलको को मोतीकैसे समझाऊँ मेरी सजनी,
मांग से संवारने में भी अब उसकी रुचि नही । वह तो
वैरागिनी होगी। नेमिनाथ की सच्ची दासी बनेगीश्री जदुपति प्रभु सौ प्रीति लगी।
कहां थे मंडन करूं कजरा नैन भलं, पशुयन बंष निहारि दयानिधि, जग प्रसारि लखि भये हैं विरागी। -माणिकचंद
हो रे वैरागन नेम की चेरी।। वन को प्रस्थान करने वाले नेमिनाथ लौकिक माया
शीश न मंजन देउ, मांग मोती न लड़े, मोह से उदासीन राजमती को पहचान न सके - राजमती अब पूरह तेरे गुनन की बेरी। -रत्नकीर्ति का यह उलाहना कितना मार्मिक है
व्याधि:
' इस अवस्था में विरहिणी को प्रिय-मिलन की प्राशा कहारी, कित जाऊँ सखी मैं नेमि गये वन मोरे री।
अत्यन्त क्षीण हो जाती है। उसको शामिल करने के कहा चूक प्रभु सौं मैं कोनी, जो पीड मोह न लारै री।।
-द्यानतराय ।
प्रसाधन भी प्रतिकूल साबित होते हैं। राजमती भी उग:
प्रिय-वियोग में इतनी संतप्त है कि कर्पूर, कमलदल चन्द्रइस अवस्था में पहुँच कर विरहिणी को सुखद वस्तुएं किरण मादि प्रसाधन उसके संताप को बढ़ाते ही हैंदुःखद प्रतीत होती हैं। राजमती को भी पावस कालीन नेमि बिना न रहै मेरा जियरा। घटाएं, नन्हीं नन्हीं फहारें कीर, कोयल पपीहादि के स्वर हेररी हेली तपतउरकेसो, लावत क्यों न निज हाथ न नियरा, अब अच्छे नहीं लगते । सप्तरंगी इन्द्रधनुष, धन गर्जन तो करि करिधर कपूर कमलदल, लगत कर कलापरसियरा। उसका हृदय बेघते हैं
'भूषर' के प्रभु नेमि पिया बिन, शीतल होय न हियरा।
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जैन काव्य में विरहानुभूति
जड़ता:
प्राश बांधि अपनो जिय राखं, प्रातः मिल पिय प्यारी। त् सुख-दुःख का महसूस न कर पाना, खान- मैं निराश निरषारिनी कैसें जीवों प्रती दुःखारी। पीने तथा सोने आदि की पावश्यकता न होना वियोग की इह विषि विरह नदी में व्याकूल उग्रसेन की बारी। 'जडता' अवस्था है। जैन कवियों के कई पदों में 'जड़ता'
उक्त विवेचन के प्राधार पर कहा जा सकता है कि अवस्था के दर्शन होते है
अभिव्यक्ति की शैली के अन्यथा होने पर भी जैन कवियों नहि न भूख नहिं तिसु लागत, घरहिं घर मुरझात । मन तो उझि रह्यो मोहन सू, सेवन ही सुरझात ।
की विरह-स्थितियाँ हिन्दी के अन्य कवियों जैसी ही हैं । नाहिं न नींव परत निसि, बासुर होत विसरत प्रात ।
जैन कवियो के विरह में 'उन्माद' की स्थिति न मिलने -कुमुदचन्द्र
का कारण उसकी आध्यात्मिकता है। 'उन्माद' की मात तात परयन न सहावे, षान पान विष ह गया।
अवस्था मे विरहिणी प्रात्म-विस्मृत और विक्षिप्त-सी अब हमकू घर में नहि रहनो, चित वर्शन बिन बह गया।
रहती है-कभी रोना, कभी हसना, कभी पति मैं अनुरक्त मरण
होना तथा कभी विरक्त होना प्रादि । जैन कवियों के यह विरह की अन्तिम अवस्था है। इसमें विरहिणी विरह मे राजमती के माध्यम से परमात्म के प्रति प्रात्मा या तो प्रात्मघात करने लगती है या ईश्वर से मरने की की व्याकुलता का निदशन है अतः उसमे प्रात्म विस्मृति प्रार्थना करती है। साहित्य मे यह अवस्था विरल है। कैसी? 'उन्माद' के प्रभाव के अतिरिक्त जैन कवियों की जैन काव्य मे विरहिणी ने कभी अात्मघात करने या मरने विरह उक्तियो में न तो मुफी कवियों के से बीभत्स प्रसंग की बात नही सोची । एकाध स्थल पर उसे अपने निराधार है और न रीतिकालीन कवियों जैसी उनहात्मकता। 'मान' जीवन के अधिक दिनो तक चल सकने की शका अवश्य प्रादि से रहित जैन कवियों का विरह-वर्णन अपना हो गई
सजीवता, नैरन्तर्य व मर्मस्पशिता के कारण हिन्दी विरहदेखो रेन वियोगिनी चकई, सो विलख निशि सारी। काव्य में निराले स्थान का अधिकारी है । एक रूपक
कवि रवीन्द्रनाथ टेगौर । एक फूल डाली पर हंस रहा था, अपने रूप और सौरभ पर गदराया हुमा। पास ही में एक पत्थर पड़ा था, . बिल्कुल श्री-हीन ! बेडौल ! पत्थर की ओर देखकर फल का अहंकार उद्दीप्त हो उठा-"पत्थर ! तुर जिन्दगी है ! न रूप है, न सौन्दर्य ! न सौरभ और न सरसता ! तुच्छ और व्यर्थ है तुम्हारा जीवन ! सिर्फ जगत् की ठोकरे खाने लायक ? एक ओर मुझे देखो-हजारों लाखो ऑखें मेरी रूप-सुधा को पी रही हैं, मधुर-सुवास पर मानव ही क्या, हजारो-हजार भौरे मँडराए प्रारहे है, सष्टि का समस्त सौन्दर्य मेरे मघुकोषो मे उछ्वसित हो रहा है।"
पत्थर फिर भी मौन था, फूल के अहकार का उत्तर देने के लिए समय की प्रतीक्षा करने लगा। एक कलाकार (शिल्पी) पाया, पत्थर को उठाकर छैनी और हथौड़ों से तरासा, सुन्दर दिव्य देव प्रतिमा बनाई, किसी धनिक श्रद्धालु ने एक भव्य एवं विराट मन्दिर बनाकर, उसे भगवान के सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दिया। और पूजा के लिए वही फूल तोड़ कर भगवान के चरणो में चढ़ाया गया ।
फूल ने देखा, तो स्तब्ध ! अरे, यह तो वही पत्थर है, जिसकी मैं हँसी उड़ाया करता था, पाज यह भगवान् बन गया और मुझे इसके चरण स्पर्श करने पड़े यह सब क्या हुआ ?
पत्थर की देव प्रतिमा फूल को यों चरणों में चढ़ा देख कर हलकी-सी मुस्कराहट के साथ बोली-"पुष्प ! तुम वही हो न, जो कल अपनी डाली पर इतराए मुझे नफरत की नजरों से घूर कर व्यर्थ और तुच्छ बता रहे रहे थे । कब क्या हो एकता है, कुछ पता नही। यह ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर का खेल सदा होता रहता है। इसमें उदास होने जैसी क्या बात है भाई।"
फूल बिल्कुल मौन था, अपनी दयनीय दशा को वह प्रांख खोल कर ठीक तरह देख भी नहीं सका।
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जैन कीर्तिस्तम्भ चित्तौड़ के अप्रकाशित शिलालेख
श्री रामवल्लभ सोमानी जयपुर
"महाराणा कुम्भा" और "वीर भूमि चित्तौड" पुस्तके जाति का वणित किया है। [बघेरवाल जातीय सा० नाय लिखते समय मुझे कई दिनों तक चित्तौड़ रहना पड़ा था सुतः जीजा केन स्तम्भः कारापितः] ।
और यहाँ के शिलालेखों के बारे में भी विस्तृत अध्ययन पुण्यसिंह सम्बन्धी लेख सम्भवत: किसी मन्दिर मे लग करने का अवसर मिला था। उदयपूर महाराणा साहब के रहा था। इसका प्रस्तुत खड गुसाईजी के चबूतरे पर स्थित संग्रह में. कई शिलालेखों की प्रतिलिपियाँ देखने को मिली। समाधि पर लग रहा है जिसे किसी ने बुरी तरह से घिस इनमें से ३ लेख जैन कीर्तिस्तम्भ से सम्बन्धित है और दिया है जिसे अब अच्छी तरह से पढ़ नही सकते है। इस एक किसी विस्तृत प्रशस्ति का खंड था। ये लेख मेवाड़ लेख को ढढने के लिए गत वर्ष मई मे चित्तौड गया या । के विस्तृत इतिहास “वीर विनोद" लिखते समय संग्रहीत तब वहाँ अनायास ही जैन कीति स्तम्भ के पास महावीर व राये गये थे। इनमें से कुछ उदयपुर सग्रहालय मे रखे प्रसाद प्रशस्ति वि०स० १४६५ का खंड मिल गया है जिसे है और अब तक अप्रकाशित है। लेख बहुत अधिक मैने "वरदा" पत्रिका में प्रकाशित करा दिया है। सडित हैं।
श्रेष्ठि पुण्यसिह वाला यह लेख कई दृष्टियो से वि० सं० १५४१ के मूर्ति लेख में जैन कीर्तिस्तम्भ महत्त्वपूर्ण है । इसमे जैन साधु विशालकीर्ति और शुभस्थापित करने वाले साह जीजा और उसके पुत्र पुण्यसिह कीर्ति का उल्लेख है जो निस्सदेह दिगम्बर सम्प्रदाय के का नामोल्लेख है। प्रस्तुत लेखो में एक जीजा का और है। प्रस्तुत लेख में इनका बडा सुन्दर वर्णन है। इन्हे दूसरा श्रेष्ठि पुण्यसिंह का है।
बड़ा विद्वान वणित किया गया है। श्लोक स० ४० से मैंने कुछ वर्षों पूर्व "चित्तौड़ और दिगम्बर जैन सम्प्र. ४२ तक विशालकीर्ति का वर्णन है। ये सभवतः दर्शनदाय" नामक विस्तृत लेख शोध पत्रिका (उदयपुर) मे शास्त्र के विद्वान थे । श्लोक सं० ४३ एव ४४ में शुभप्रकाशित कराया था। इसके बाद गगराल और सेणवाँ कीर्ति का उल्लेख है। जिला (चित्तौड़) से प्राप्त १३७५-७६ और १३८६ के प्रारम्भ मे श्लोक सं० २२ से २५ तक जीजा श्रेष्ठि दिगम्बर जैन लेख भी 'वीरवाणी' जयपुर में प्रकाशित का वर्णन है। इसके द्वारा सुन्दर मन्दिर निर्माण का कराये थे। इन लेखों के मिल जाने से चित्तोड़ मे दिगम्बर उल्लेख है। दुर्ग के अतिरिक्त चित्तौड की तलहटी, खोहर सम्प्रदाय की स्थिति का विस्तृत परिचय मिलता है। सांचोर आदि में भी जैन मदिर बनवाये । इसका पुत्र
श्रेष्ठि जीजा शाह सम्बन्धी ३ लेख मिले है। इनमें पुण्यसिंह था जो महाराणा हमीर का समकालीन था। से २ लेख इसके साथ दिये जा रहे है। तीसरा लेख बहुत इसका प्रस्तुत प्रशस्ति में बड़ा सुन्दर वर्णन है। ही अधिक खंडितावस्था मे है। पहले में प्रथम श्लोक में इन प्रशस्तियों के मिल जाने से यह विवादास्पद प्रश्न फैलाश शैल शिखर स्थित आदिनाथ देव की स्तुति की गई समाप्त हो जाता है कि जैन कित्तिस्तम्भ दिगम्बर सम्प्रदाय है । दूसरे श्लोक में अरिष्टनेमि की स्तुति की गई है। इसके का ही था। इसे श्रेष्ठि जीजा ने बनाया था। इसके पुत्र बाद पावापुरी सम्मेद शिखर आदि निर्वाण स्थलों का पुण्यसिंह ने भी कई निर्माण कार्य कराये । संभवतः कीत्तिउल्लेख है। कुल १२ श्लोक हैं । पाठ अधिकतर खंडित हैं। स्तम्भ की प्रतिष्ठा विशालकीत्ति से कराई गई थी, अन्त में "संघ जीजान्वितं सदा" उल्लेखित है । दूसरे लेख में क्योंकि लेख की अंतिम पंक्ति में 'मानसस्तम्भ" की जि.सका मागे का कुछ भाग खंडित हो गया है। संघपति - प्रतिष्ठा का जो वर्णन माता है वह संभवत: इससे ही जीजा का सुन्दर वर्णन है। इसमे उसके द्वारा स्तम्भ सम्बधित रहा हो । इसका निर्माणकाल भी १३वीं शताब्दी निर्माण करने का भी उल्लेख किया है। इसे बधेरवाल सिद्ध होता है ।
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जैन कोतिस्तम्भ चितौड़ के प्रप्रकाशित शिलालेख
गुसाई जी के चबूतरे के पास को अपूर्ण प्रशस्ति विग्रहाः ॥३६॥ 'पुण्यसिंहो' जयत्येष दानिनां जनसुनुस्तस्य तु दीनाको वाच्छो भार्या समन्वितः अधः कुञ्जर: यत्कीत्ति कामिनी नेत्रे कज्जल भुवनांबरं सूरोति पूजाय पुरदरसचीरुचं ॥२१॥ नायख्यः ॥३७॥ कि मेरु: कनकप्रभः किमु हरि र्गीर्वाणसूनुर-यासीत् नायकाद्धर्म कर्मणि अथवा न......
प्रियः कि सोमः सकलं चकार:पुन्योदयात्पेयं धर्मकमस सर्वदा ॥२२॥ विशाल कच्छके तच्छ च्छाया धुराधराविजयते श्री पूर्णसिहः कलौ ॥३८॥ कि छलध्वज बज निज प्रासाद मौधायनत्यतगकरिव मेरु. कि न मेरु. किमुत सुरगुरुः कि हारः कि ॥२३॥ तत्रयः कारयामास......मदिरमिदिर सुन्दरं मुरारिः कि रुद्रः किं समुद्रः किमुत च विलसच्चरम्यकाम्यं सम्यक्त्व वेतसा ॥२४॥ स्वःसोपानोपदेश
द्रिका चद्र चद्रः उन्नत्या स्वेष्टदत्त्या विमलतरद्रढयति च जिनः श्रीपदोत्कंठितानां । सोपानर्मडपोपि
धियासद्धि भूत्या विमत्या गोनीत्या रत्नभृत्यासकल प्रकटयति ह... . विवाहः उच्च प्रासाद चचत्कनक
तनुतया पूर्णसिहः पृथिव्यां ॥३६॥ ध्येयस्तस्य मय महा कुभ शुभदध्वजारारूढा नृत्यतीवप्रभु
'विशालकीत्ति' मुनिपः सारस्वत श्रीलता कंदोद्भेदपदजयिनी मानसी सिद्धिरस्य ॥२५॥ नागश्री
घनाय मानवधनः स्याद्वादविद्यापतिः, वर्गत्या संगतो देन......जडाग्नयः कालकटान्वयोमाथी स गर्वचो विलोम् विलसह भोलिदीर्यत्यस क्षोणी योवृषांक: कलौयुगे ।।२६।। हाल्लजिजुस्तथा न्योट्टल
[चं] च्चत्स मयास्तपो निधिरसा वासीद्धरत्री तले ऽसमभिधः श्री कुमार स्थिगख्य पष्ट थी ए......
॥४०॥ कत्तार्काकार्छश्य कृसित परवादि द्विप पि विजयिनश्चक्रवर्ती थियस्त तेषां या जिज नामा मदं क्वनिः श्रीमत् प्रेमप्रचुररस निस्यदि कवितो जनि जनि हनभप्राण पोराणमार्य: प्रजाति धीत्रिवर्ग पन्यास प्राप्ते क्वच विहित वगव्य जनिता मनो प्रभुरभव दसो जैन (जैनधर्माभिलम्बी]।।२७।। यश्च- नन्
गम्य रम्य श्रुतमिह यदीय विलसितं ॥४१॥ योगा न्द्र प्रभमुच्चकटघटनं श्री 'वित्रकूटे' नटत्कोत्रत्पल्लब
नगत्रिनेत्रस्त्रिभुवनरचनानुतनेऽपित्रिनेत्रो मीमांसा तालवी जनमरुप्रध्वस्तसूर्याथमे श्री चैत्ये तलहट्रिका
वाग्निरोध प्रकटनदिन कृत सांख्य मत्तेभसिंहः समघटी श्रीसाद पीध्या......वि जिनेश्वरस्य सदन
उद्यद्वोद्वाहि दप्पस्फूरदूजगरुडः प्रौढयाधीक शैलश्री खोट्टरेसत्पुरे ।।१६।। बूढा डोगरके भ, घा च
श्रेणी सपात शंपा कलित वर वचो वणिनी वल्लसुमिरौ जाने समारभ्यंतन्मानस्तम्भ महादिम......
भो यः ॥४२॥ तत्पुत्रः 'शुभकीतिरुजित तपोनुष्ठान मिदंनिर्वयं......सत्य सय समगला य जयिने 'श्री
निष्ठापति श्री संसारविकार कारण गुणस्तृप्यन्मनो पूर्णसिंहायवैः'। गीर्णावोदयिनीश्चि यं समगम
देवत: प्रारब्धाय पद प्रयाण कलसत्पंचाक्षरोच्चारण धर्मानुरागोल्वणः ॥३०॥ पुण्यसिंहोपि धर्मधरा पुत्यत्कीकृत निभंवे हिमककृक्षब्धत्स माध्याब्धिठः धवलवहणः जितारि: पितृसद्धारदत्तस्कंधो जयत्य- ॥४३॥ सिद्धांतोदधिवीचिवद्धनस्त्रद्धं द्रोवितं द्रोधना सौ ॥३१॥ किंचि दारोपित स्कंधोऽभ्यास योगादिने विख्यातोऽस्ति समग्रशुद्ध चरितः श्रीधर्मव...... दिने विषमेऽधिवलो भूयोद्धवलः शवलोचन ॥३२॥ यतिः तत्कीत्तिः किल धोर वाद्धि नृपति श्रीनार. अन्वयागत सद्धर्म भार धोरेय विक्रमः अकिणां कष्ट सिंहादिह स्वीकृत्य प्रकटीचकार सततं 'हमीर'वीरोथु स्कन्धः 'पुण्यसिंहो' महाद्भतम् ॥३३॥ यत्पुण्यं प्यसौ ॥४४॥ तच्चरण कमलमधुपेमानस्तंभ निटले भाति भारती चक्रमण्डले यत्कीत्तिस्त्रिजग- प्रतिष्ठयामानं । प्रकटी चकार भुवने धनिकः श्रीत्सौधे धर्मलक्ष्मीर्मलांबुजे ॥३४।। अपूर्वोयं धनीक- 'पूर्णसिंहोऽत्र' ॥४५॥ श्चिद्यच्छन्नपिय दच्छया बद्धर्यत्य निशं स्व स्वं
जंन कीर्तिस्तम्भ सम्बन्धि लेख परं सत्पुण्य संचयः ॥३५॥ उररीकृत निर्वाहनिव "खाति साय न सुधा सं प्राव में प्रोदयाः ॥१॥ सौम्यैव संपद: स्थिरा श्रयपदं मेजुस्तेजो कृभित्त- दुवारप्रतिपक्षशाक्तविभवन्यग्भावभगोद्गत स्व
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अनेकान्त
मायचिद निस्वार्थ प्रकाशाकार विलसकरव्यति
व्यापारमनारतंयद वृ......
पद्मोत्सला कुलवतां सरसां हि मध्ये । पदस्वाद्याकाररसानुरक्ति खचितं क्षोभभ्रभा- श्रीवर्द्धमान जिनदेव इतिप्रतीतो, वतितं चित्तं क्षेत्र नियंत्रितं महदणु ख्यात्यं कितं निर्वाणमापभगवनप्रविधूत पाप्मा ।। विनित त्यागादि......
शेषास्तु ते जिनवराहतमोहमल्ला, तत् कौटस्थ्यं प्रति पद्यनंदथ सदामुद्धि परा विभ्रता
ज्ञानार्कभूरिकिरणरवभास्य लोकान् । ।।४।। प्रत्येकार्पित सप्त भंग्यु पहितैर्द्धमरनतविधि...
स्थानं परं निरवधारितसौख्यनिष्ठं. मत द्रूप विद्रूप शाश्वदने दसानवलवी भांवम्व सा सम्मेदपर्वततले समवा पुरीशा: ।। कुर्वत भावान्निविंशतः पराक्रत तृषो द्वेष्या न शेषा...
प्राद्यश्चतुर्दशदिनै विनिवृत्तयोगः, मचलस्तच्छ प्रभंगेस्फुरन् दूरं स्वरैमसंकरव्यति- षष्ठेन निष्ठितकृतिजिनवर्द्धमानः । करंति तिर्यङ्...लेतोद्धंतां प्राकार वियुत युतं च ... शेषा विधूतवनकर्मनिबद्धपाशा, स्व महसि स्वार्थ प्रकाशात्मके मज्जन्नोनिरुपाक्ष
मासेन ते यतिवरास्त्वभवान्वियोगाः ।। मोथचिद चिन्मोक्षार्थितीर्थ क्षिपः कृत्वा नाद्य......
माल्यानिवास्तुतिमयः कुसुमैः, मुद्धा स्थिति कृते स्वर्गापवर्गात्तयो यः प्राज्ञैरनुमीयते
-न्यादायमानसकरैरभितः किरतः । स्वीकृति ना 'जीजेन निर्मापित स्तम्भः' सै......
पर्येम प्रादृति युताभगवन्निपद्या, शभा लोकनक ख्यते 'बघेरवाल जातीय' सा नाय
सप्राथिता वयमिमे परमा गति ताः ॥७ सुतः जीजाकेन' स्तम्भः कारापितः । शुभ भवतु ।।
शत्रुजये नगवरे दमितारिपक्षाः, ३ यत्रार्हता गणभृतां श्रुतपारगाणा,
पंडोः सुताः परमनिर्वृतिमभ्युपेताः । निर्वाणभूमिरिह भारतवषजानाम् ।
तु ग्या तु संगरहितो बलभद्रनामा, ता मद्य शुद्धमनसा क्रियया वचोभिः,
नद्यास्तटे जितरिपुश्च सुवर्णभद्रः ॥८ संस्तोतूमुद्यतमतिः परिणौमि भक्त्या ॥१
द्रोणीमति प्रबलकु डलमेढ़के च, कैलाशे शैलशिखरे परिनिवृतोऽसौ ।
वैभारपर्वततले वर सिद्धकूटे । शैलेशिभावमुपपद्य वृषो महात्मा।
'ऋष्यद्रिके च विपुलाद्रि बलाहके च, चम्पापुरे च वसुपूज्यसुतः सुधीमान् ।
विन्ध्ये च पौदनपुरेवृषदीपके च INE सिद्धि परामुपगतो गतरागबधः ।।२
सहयाचले च हिमवत्यपि सुप्रतिष्ठे, यत्प्रार्थ्यते शिवमयंविबुधेश्वराद्यैः,
दडात्मके गजपथे पृथुसारयष्टौ । पाखडिभिश्च परमार्थ गवेशशीलः ।
ये साधवो हतमला: सुगतिप्रयाताः, नष्टाष्टकर्मसमये तदरिष्टनेमिः,
स्थानानि तानिजगति प्रथितान्यभूवन ॥१० संप्राप्तवान् क्षितिधरे वृहदूर्जयन्ते ॥३
इक्षोविकाररसपृक्तगुणेन लोके, पावापुरस्य वहिरुन्नतभूमिदेशे,
पिष्टोऽधिकं मधुरतामुपयाति यद्वत् । * ये दोनो लेख पाषाणखडों मे अपूर्ण और त्रुटित होने के तद्वच्च पुण्यपुरुषरुषितानि नित्यं, कारण अत्यन्त प्रशुद्ध है । फिर भी वे अपनी इष्ट सिद्धिमे
स्थानानितानि जगतामिह पावनानि ॥११ सहायक है । प्रतएव उन्हे जैसे का तैसा दिया जाता है। इत्यर्हता शमवतां च महामुनीनां, हां, तीसरा लेख पूज्यपादकी निर्वाणभक्ति के अन्त मे १२
प्रोक्ता मयात्र परिनिर्वृतिभूमिदेशाः । पद्यों में निबद्ध है, उससे शुद्ध करने में मुझे सहायता मिली
ते मे जिना जितभया मुनयश्च शांता, है। वे १२ पद्य जैन कीर्तिस्तम्भ के शिलालेख मे कित
दिश्यासुराशु सुगति निरवद्यसौख्याम् ॥१२ है। अन्तिम पद्य में जीजा के सघ की रक्षा की कामना
तेन सुवानंत जिने [श्वराणां मुनिगणानां च[निर्वाण] की गई है।
परमानन्द शास्त्री स्थानानि निवृत्त्यैः [वा] पातु संघ जीजान्वितं सदा।.
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वसुनन्दि के नाम से प्राकृत का एक संग्रह-ग्रन्थः 'तत्वविचार'
प्रो० प्रेमसुमन जैन एम. ए., शास्त्री 'तत्व विचार' की सं० १९८८ मे लिखित प्रति का वर्णन तथा तेरहवें और अन्तिम दान प्रकरण में ५६ मैंने अवलोकन किया है, पन्नालाल सरस्वती भवन व्यावर गाथाओं द्वारा सभी प्रकार दानों का स्वरूप एवं फल निरू. से प्राप्त हुई थी। इतनी अाधुनिक प्रति होने पर भी पण किया गया है। अशुद्धियाँ इसमें काफी हैं। जगह-जगह पाठ भी छुटे है। अन्त की दो गाथाओं में से प्रथम ग्रन्थ और ग्रन्थकुछ गाथाएँ भी लुप्त हैं। ग्रन्थ का प्रारम्भ श्री पार्श्वनाथ कार का नाम निर्दिष्ट है तथा अन्तिम गाथा प्राशीष की वन्दना के साथ प्रारम्भ होता है
__ वचन के रूप में हैणमिय जिणपासपयं विम्बहरं पणय बंछियत्थपयं ।
जो पढाइ सुणइ प्रक्ख अण्णं पढ़ाइ ई उवएसं। बच्छं तत्तवियारं सखेवेण निसामेह ॥१॥
सो हण इणियय कम्म कमेण सिद्धालयं जाइ॥२६॥ तदुपरांत पचनमस्कार मन्त्र की महिमा एवं फल का
प्रस्तुत 'तत्वविचार' के सम्पादन प्रादि के विषय में निरूपण २७ गाथानों में किया गया है । मन्त्र को जिन भाई सा० डा० गोकुलचन्द्र जैन, वाराणसी मुझे बराबर शासन का सार बतलाया गया है
प्रेरित करते रहे। अतः मै इसी दृष्टि से इस ग्रन्थ को जिण सासणस्य सारो चउबसपुष्वाण जो समुद्वारो। देख रहा था। 'तत्वविचार' को बहुत समय तक मैं वसुजस्स मणे णवकारी संसारो तस्य किं कुणई ॥२८॥ नन्दि सैद्धांतिक की ही एक अन्य रचना मानता रहा ।
इसके बाद दूसरे धर्मप्रकरण मे १३ गाथाम्रो द्वारा ग्रन्थ में स्वय इस बात का निर्देश हैदस धर्मों का वर्णन, तीसरे एकोनत्रिशद् भावना प्रकरण एसो तसवियारो सारो सज्जण जणाण सिवसुहवो। में २६ गाथाओं द्वारा भावनामो का वर्णन, चोथे सम्य- 'वसुन दिसूरि रहनो भवाण पवोहणढें खु ॥२४॥ क्त्व प्रकरण में २१ गाथाओ द्वारा सम्यक्त्व का वर्णन,
- वसुनन्दिसूरि, प्राचार्य वसुनन्दि, वसुनन्दि सैद्धान्तिक पाँचवे पूजाफल प्रकरण मे २० गाथामो द्वारा पूजा एव ये सब एक ही व्यक्ति के विशेषणयुक्त नाम मुझे प्रतीत उसके फल का वर्णन, छठे विनयफल प्रकरण मे १६ हए । 'तत्व विचार' के लिपिकार ने अपनी प्रशस्ति मे भी गाथानों में पांच विषयों का स्वरूप एवं फल का वर्णन, इसी बात की पुष्टि की है-'इति वसुनन्दी सैडांती विरसातवे वैयावृत्य प्रकरण में १४ गाथाम्रो द्वारा वैयावृत्य का चित तत्वविचार समाप्तः।' १० माशाघर ने वसूनन्दि की वर्णन, पाठवें सप्तव्यसन प्रकरण' में १३ गाथायो द्वारा बहमुखी प्रतिभा, संस्कृत-प्राकृत की उभय भाषा विज्ञता सात व्यसनों का वर्णन, नौवे एकादश प्रतिमा प्रकरण मे
एवं अनेक सैद्धांतिक ग्रंथों के रचयिता होने के कारण उन्हे ४० गाथाओं द्वारा प्रतिमानों का विशद वर्णन, दसवें
सैद्धांतिक कहा है-'इति वसुनन्दि सैद्धांतिकमतेजीवदया प्रकरण में २३ गाथानों द्वारा अहिंसा प्रादि
इससे भी मुझे अपनी मान्यता के लिए बल मिला। साथ का वर्णन, ग्यारहवें श्रावकविधि प्रकरण मे ६ गाथाओं
ही 'तत्वविचार' और वसुनन्दि श्रावकाचार के विषय की द्वारा जिन प्रतिष्ठा प्रादि का वर्णन, बारहवे अणुव्रत प्रक
सभ्यता, भाषा की एकता और श्रावकाचार की लगभग रण में १० गाथाओं द्वारा संक्षेप में अणुव्रतो का स्वरूप
१०० गाथानों का 'तत्वविचार' में पाया जाना प्रादि ने १. प्रति में 'इति सप्त व्यसन प्रकरण ॥' लिखना मुझे यह मानने को मजबूर कर दिया कि प्रस्तुत 'तत्व
छूट गया है। अतः ग्रन्थ में १३ प्रकरण होने पर भी २. सागार धर्मामृत प्र.३, श्लोक १६ की टीका तथा १२ प्रकरण का ही निर्देश है।
४-५२ की टीका में।
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अनेकान्त
विचार' श्रावकाचार के रचयिता वसुनन्दि की ही परवर्ती गण जैन मन्दिर कारजा में उपलब्ध 'तत्वविचार' की दो रचना होनी चाहिए। क्योंकि दूसरे के ग्रन्थ की इतनी प्रतियों की सूचना मिली। उन्हे मैं अभी देख नही पाया गथाएं अपने मौलिक ग्रंथ मे कौन लेखक उद्धृत करेगा? हूँ। उपलब्ध होने पर प्रस्तुत पथ पर अधिक प्रकाश पड़ __'तत्वविचार' के सम्बन्ध मे जानकारी प्राप्त करते सकता है। समय श्री अगरचद जी नाहटा का 'तत्वविचार' के सबध अनेकान्त (वर्ष प्रथम, किरण ५) में स्व० ५० थी में एक लेख राजस्थान भारती' मे देखने को मिला । इसमे जुगलकिशोर जी मुख्तार ने 'तत्वविचार और वसुनन्दि' उन्होंने 'तत्वविचार' को राजस्थानी का गद्य-अथ बतलाते नाम से एक नोट लिखा है। इसमें उन्होने ग्रन्थ के १२ हए थोड़ा-सा परिचय दिया है। प्रकाशित प्रश मे 'तत्व- प्रकरणों का उल्लेख करते हुए ग्रन्थ परिमाण केवल ६५ विचार' की प्रथम गाथा के बाद राजस्थानी मे टीका है, गाथानों का बतलाया है, जबकि प्रस्तुन प्रति में ग्रथ की जिसमें बारह व्रतोंका वर्णन दिया गया है। और अन्त मे- गाथा सख्या २६५ है। यह भूल इस कारण हुई प्रतीत
एवं तत्सवियारं रइयं सुयसागराइ उरिय। होती है कि प्रति मे अन्तिम गाथा का न०६५ ही पड़ा योवक्खरं गहत्यं भव्वाण मणुग्गठाणं ॥ है। ग्रन्थकार अथवा लिपिकार न १०० गाथाओं के बाद
गाथा के द्वारा 'तत्वविचार' प्रकरण के समाप्ति की पुनः अगली गाथा मे १ नम्बर दिया है। अत: सरसरी सूचना दी गयी है । बीच में सम्यक्त्व का वर्णन करते हए निगाह मे देखने पर ऐसी भूल होनी स्वाभाविक थी। श्री एक गाथा और पाई है
मुख्नार साहब ने स्वयं 'पुरातन जैन वाक्यसूची' की प्रस्ताअरिहं देवो गुरुणो सुसाहुणो जिणमयं महापमाण । वना (प. १००) मे स्पष्ट लिखा है कि उन्होंने बम्बई में इच्चाइ सुहो भावो सम्मतं विति जग गुरुणो॥ थोड़े समय में इस ग्रथ की प्रति को देखा था। और उसी
उक्त ये दोनों गाथाएँ 'तत्वविचार' की चचित प्रति- प्राधार पर यह नोट लिखा है। लिपि में नहीं हैं। दूसरी बात, श्री नाहटा द्वारा प्रकाशित किन्तु 'तत्वविचार' की गाथाम्रो का मिलान करने पर इस प्रश मे १२ व्रतों का वर्णन भी 'तत्वविचार' के तो उनकी संख्या २६५ भी नही हो पाती। कारण, गाथा न. के वर्णन से भिन्न है। तथा अन्त में अरिहत देव का जो ११ के बाद १३ न. पड़ा है। ८१, ८२ न. की गाथाएँ स्वरूप उसमें वर्णित है वह भी श्वेताम्बर परम्परा से समान है। तथा ७ न. के बाद ८६ एव १८६ के १८८ अधिक सम्बन्ध रखता है । यथा-"परिहत देवता किसउ नं. लिख दिया गया है। इस तरह चार गाथाएं कम हो होइ ?......वारह भेदे तपु कीजइ । सत्तरहे भेदे सजमु जाने से २६१ गाथाएं ही बचती है। किन्तु ग्रन्थ मे जगह पालियइ ।। पाठ प्रवचन माता उपयोगु दीजइ । रजो हरणु जगह विषयभग को देखते हुए लगता है कि लिपिकारों की महत्ती । गोछ । पडिगहिउ घरइ ।' इन सब कारणों से असावधानी के कारण गाथाएँ "छूटी हैं। सम्भवतः ३०० श्री नाहटा जी द्वारा प्रकाशित प्रश प्रस्तुत 'तत्वविचार' गाथा-प्रमाण" यह ग्रन्थ रहा होगा। ग्रन्थ से सम्बन्धित नही माना जा सकता । दोनों के स्वरूप स्व० श्री मुख्तार सा० ने अपने उक्त नोट में कहा है एवं भाषा में भी भेद है। केवल प्रथम मगल गाथा कि यह ग्रन्थ श्रावकाचार के रचयिता वपुनन्दि का नहीं (णमिय जिण...) का दोनों में एक-सा पाया जाना इस हो सकता, क्योंकि उसमें कई जगह विषय क्रम भेद है । मोर संकेत करता है कि सम्भवतः किसी एक ही स्रोत से यथा-'तत्वविचार' मे व्रत प्रतिमा के वर्णन में 'गुणवत' दोनों जगह उक्त गाथा ग्रहण की गयी है।
और 'शिक्षावत' के इस प्रकार भेद किये गये है-१ गुणवत 'तत्वविचार' के सम्बन्ध मे जानकारी प्राप्त करते -दिग्विदिक प्रत्याख्यान, अनर्थदण्डपरिहार और भोगोसमय केटलाग अॉफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मॉक सी. पी. पभोग संख्या । (२) शिक्षावत-त्रिकालदेव स्तुति, पर्व में (पृ. ६४७) में सेनगण जैन मन्दिर कारंजा और बलात्कार
४. दिसिविदिसि पच्चक्खाण मणत्यदंडाण होई परिहारो। ३. वर्ष ३, लंक ३-४, पु. ११८ ।
भामोवभोयसंखा एए हु गुणव्वया तिणि ॥१५७।।
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सुगन्दि के नाम से प्राकृत का एक संग्रहान् सत्यविचार
प्रोषधोपवास, प्रतिथिसंविभाग और मरणान्त में सहमेखना' । जबकि वसुनंदि श्रावकाचार का कथन इससे भिन्न है । उसमें दिग्विरति, देशविरति घोर अनर्थदण्डविरति को गुणव्रत' तथा भोगविरति, परभोगनिवृत्ति, प्रतिथिसंविभाग और सल्लेखना इन चार को शिक्षावत कहा गया है'। और 'तत्वविचार' में दो गाथाएं भावसग्रह की भी प्राप्त होती है। अतः इसे मौलिक ग्रन्थ न होकर, सग्रह ग्रंथ होना चाहिए।
श्री मुख्तार सा० की इस सूचना के कारण 'तत्वविचार को वसुनन्दि का ही परवर्ती ग्रंथ मानने में मुझे भी हिचक हुई। श्री नाहटा जी से विचार-विमर्श करने पर भी इसके संग्रह ग्रन्थ होने की पुष्टि हुई मतः मैं इसके सदर्भ खोजने में जुट गया । परिणामस्वरूप जो तथ्य सामने आये उनसे यह भलीभांति प्रमाणित हो गया कि तत्वविचार' में न केवल वसुनन्दि के धावकाचार और भावसंग्रह से गाथाएँ उड़त की गई है, बल्कि लगभग २०-२५ प्राचीन ग्रंथों की गाथाएँ इसमें संग्रहीत है कुछ गयाएँ पवेताम्बर ग्रन्थों की भी हैं, जिनके कारण इसमें न केवल विभिन्न गाथाओं का सग्रह है, अपितु विभिन्न विचारों का भी समावेश है। यथा- 'तत्वविचार' की एक गाया मे 'णमोकारमन्त्र' के एक लाख जाप से निःसन्देह तीर्थंकर गोत्र का बन्ध होना बतलाया है' जो श्वेताम्बर परम्परा का प्रभाव हैं ।
'तत्वविचार' की प्रस्तुत २९१ गाथाओं में से अपिकाश गाथाओं के सन्दर्भ निम्नलिखित ग्रंथों में खोजे जा सके हैं, जो इसके संग्रह ग्रथ होने के लिए पर्याप्त है ।
यथा
५. देवे थुवइ तिदाले पव्वे पव्वे य पोसहोवासं । प्रतिहीण संविभाम्रो मरणते कुणइ सल्लिङ्ग ॥। १५८।।
६. वसु. श्रा. गाथा २१४, १५, १६ ।
७. वही, गा० २१७-२० ।
८. जो गुणइ लक्खमेणं प्रथविही जिन गमोपकारं । तित्ययरनामगोत सो बंध णत्थि सदेही ।। १-१५।। C. 'लघुनवकारफलं' श्वेताम्बर ग्रन्थ की गाथा नं० १२ ।
·
ग्रन्थ का नाम
१. वसुनन्दि श्रावकाचार
२. भावसंग्रह
३. लघुनवकार फलं
४. जीवदया प्रकरण
५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा
६. मोक्खपाहुड
७. मूलाचार
भगवती श्राराधना
से
"
31
"
"
४१
उद्धृत गाया संख्या
६०
गाथाएँ
७५
२३
१७
८.
६. वृद्धनवकारफल
१०. प्रायणाणतिलय, ११. धारषनासार, १२. कल्याणालोयणा, १३. छेदसत्व, १४. नियमसार, १५. तिलोयपण्णत्त १६. दंसण पाहुड, १७. धम्मरसायण १८. वारस अणुवेक्खा, १६. पचत्पिपाहुड २०. पंचसंग्रह, २१. रिट्ठसमुच्चय २१. सीलपाइड इन ग्रंथों में से १-१
यथा
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ܕܐ
६
३
२
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19
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11
१३
२४५
कुल
शेष लगभग ५० गाथाओं में से अधिकांश तीसरे एकोनत्रिशत्प्रकरण एवं तेरहवें दान प्रकरण की गाथाएं है, जिनके संदर्भ नहीं खोजे जा सके। सम्भवतः इस नाम के प्रकरण जिन ग्रन्थों में हों उन्ही से ये गवाएं ली गयीं होंगी। अथवा संग्रहकर्ता ने शायद इतनी गाथाएँ मौलिक रूप से लिली होंगी। इसका निर्णय धागेके अध्ययन से हो सकेगा।
'तत्वविचार' सग्रह प्रमाणित हो जाने के बाद प्रश्न उपस्थित करता है, उतने उसके मौलिक ग्रंथ होने मे न उठते । कुछ प्रमुख प्रश्न विचारणीय हैं । यथा - १. 'तत्वविचार का संग्रहकर्ता कौन ? २. उसका पाण्डित्य एवं समय ? ३. संग्रह ग्रथ निर्माण का प्रयोजन ? ४. ग्रन्थ के रचयिता मे वसुनन्दिसूरि के नाम देने का रहस्य ? ५. दिगम्बर व श्वेताम्बर परम्परा के विचारों के समन्वय का उद्देश्य ? भादि । इस सब पर प्रामाणिक रूप से विचार करना समय सापेक्ष है। श्रमसाध्य भी । विद्वानों से अनुरोध है, इस सम्बन्ध में कोई जानकारी हो या भागे प्राप्त हो तो कृपया सूचित करेंगे ।
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अनेकान्त
४२
५-६४ इय संखेवं कहियं भावसं० ४७ २-३५ इह परलोय सुहाणं जीव.४०० ३-६५ इह लोयम्मि वि कज्जे
__ तत्त्वविचार की गाथानुक्रमणिका एवं सन्दर्भ तत्व.नं.
७-१२७ माइबाल बुड्ढ रोगाभिभूय वसु० सा० ३३७ १३-२६५ प्रकह य णियाण सम्मो भावसं० ४०५
१.२२ अडवि गिदि रन्न मज्झे लघु० २१ १३-२७० अणिमा महिमा लहिमा वसु. ५१३
भावस० ४१. तिलो०५०४-१०२२ १३-२७३ अणुकूल परियणय भावस० ४१३ ३-४३ प्रथिरं जीवं रिद्धि ३-५१ प्रथिराण चंचराण य १३-२३२ अभय पयाणं पढम भावसं० ४८६
६-१२२ अभय समो णत्यि रसो १३-२४६ अवगाहिय तेण संच्छ
५-१०४ अहिसेय फलेण णरो वसु० सा० ४६१ १३-२६६ अंतरमुहुत्त मज्झे भावस० ६७६ ६-१७८ प्रायंबिलणिव्वियडीए वसु० सा० २९२
भग० प्रा० २५४ मूला० २८२ छेदस० ३ ३-६४ प्रारंभ सयाइं जणो वसु० सा० ३५१ १२-२२७ प्रालिउ भजयहु दुन्वयणु
१-६ प्रवाहि पि पढिज्जइ लघु०६ १३-२४२ पाहारमो देहो भावस० ५१६ भग० मा०
४३५ १३-२४४ माहारासण णिहा वि भावसं०६१७
पारा० सा० २६ मोक्खपा० ६३ १३-२८३ पाहारेण य देहो भावसं० ५२१
५-६२ उच्चारिऊण मंते भावसं० ४४१ ८-१४५ उज्जाणम्मि रमंता वसु० सा० १२६ १-५ उड्ढमधो तिरियम्हि दु मूला० ७५ लघु० ३ १३-२८१ उत्तमकुले महतो भाव० सा० ४२१
उत्तमणाण पहाणो जीव० ३६५ ६.१६६ उत्तम-मज्झ-जहणं वसु० सा० २८० ६-१७४ उत्त विहाणेण तो , , २८८ ६-१६१ उद्दिपिंड विरउ , , ३१३ १३-२८२ उप्पण्णो रयणमए भावस० ४१२ ४-८६ उवग्रहण गुणजुत्तो वसु० सा० ५५ भावसं.
२८३ ६-११६ उदयारि ओ वि विणो वसु० सा० ३२५ १३-२३५ उसह दाणेण गरो
८-१४१ उबर बपिलपिय १३-२५० ऊसर छेत्तै बीयं भावसं० ५३२
१०-१९७ इक्कं चिय जीवदया जीव० १६ ६-१२० इच्चेवमाइकाइय वसु० सा० ३३० ६-१२१ इति पच्चक्खा एसो वसु० सा० ३३१ १-२१ इय एसो णवकारो लघु. २० १३-२७८ इय चितत्तो पसरइ भावसं० ४१८ ३-७० इय जाणिऊण एवं भावसं० ५८५
कत्ति० अणु० ३ माक्खपा० ३२ ।
प्रायति. १०-२५ ३-५३ इय गाऊण असारे
जीव. ०५ १३-२८० इय बहुकालं सग्गो
८-१५१ ए ए महाणुभावा भावस०५४० १-७ एको वि णमोकारो ३-६६ एगे दोघदघडारहेहिं १. एयाण णमोयारो लघु०२ ६-१८६ एयारसम्मिठाणे वसु० सा० ३०१ ५-११० एयारसंगधारी वसु० सा० ४७६ भावसं० १२२ १-१७ एरावएहि पंचहि लघु० १४ ४-८७ एरिसगुण अट्ठ जुवं वसु. सा. ५६ भावसं०
२८४ ९-१८० एवं चतुच्छ ठाणं वसु० सा० २६४ ७-१४० एव णाऊण फलं , " ३५० ९-१६५ एवं तइयं ठाणं , , २७६ ९-१५४ एवं दसण सावय , , ८-१५३ एवं बहुप्पयारं दुक्खं ,, ७६ ९-१५६ एवं बारसभेयं , ३७३
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बसुनधि के नाम से प्राकृत का एक संग्रह-पन्य : तत्वविचार
३-४
घरबासे वा मूढो भन्छ।
१-१९ एसो प्रणाहकालो लघु०१६ २-९१ एसो तच्च विचारो २.४१ एसो दहय्ययारो कत्ति० अणु० ४०४
७-१२८ करचरणपिट्ठ सिराणं वसु० सा० ३३८ १०-२१४ कल्लाण कोडि जणणी १३-२५४ कस्स थिरा इह लच्छी भावसं० ५६० ६-१६२ काउसग्गम्मि टिउ वसु० सा० २७६ मूला.
२-३६ चइऊण मिट्ठभोज १३.२५१ चंडाल-भिल्ल-छिपिय भावसं. ५४३
५-६६ चंदन-सुपंध-लोमो , ४७१ १४-२६७ चम्म रुहिरं मंसं भावसं० ४०७ १३-२८६ चलणं वलणं चिंता भावसं० ६६७
चितामणिरयणाई लघु० १०
६-१७२ काऊण किं चि रत्ति ६.११६ कायाणु रूव मद्दण वसु० सा० ३२६
५-१०३ छत्तेहिं एयछतं भुजंइ वसु० सा० ४६० १३-२५३ किवणेण संचिय धणं भावसं० ५५६
४-७८ छुहा तण्हा भय दोसो , , ८ १-१३ कि एस महारयणं लघु० ६ ३-६६ कि जंपिएण बहुणा वसु० सा० ३४७ १२-२२६ जइ णिव्वउ दुह पवरिणि ७-१३७ कि जंपिएण बहुणा तिलो० ४६३
३-५७ जइ पइससि पायाले ५-१०६ कि जपिएण बहुणा तीसु
१२-२२८ जइ पाणहिसंलइ चढहिज्जइ १३-२७७ कि दाणं मे दिण्णं भावस० ४१७
११-२१६ जच्छ पुरे जिण भवणं ४-७३ किं बहुणा भणिएणं मोक्ख० पा० ८८
५-६५ जलधारा णिक्खवणेण वसु० सा० ४८३ ३-५६ सिसि सुससि सूससि
७-१३६ जल्लोसहि सव्वोसहि , , ३४६ ५-६८ कुसुमेहिं कुसेसय वयण वसु० सा० ४८५
१३-२४६ जस्स ण तवो ण चरणं भवसं० ५३१ ५-१०६ कुंथु भरिदलमेत
, ४८१ १०-२१२ जस्स दया सो तवसी जीव० ६५ १३-२७६ को हैं इह कच्छाउ भावस० ४१६
१०-२११ जस्स दया तस्स गुणा , ९५ २.१९ कोहेण जो ण तप्पदि कत्ति० अणु० ३६४ १-११ जह अहिणा दट्ठाणं लघु०८ ३-५२ कोहो माणो माया मूला० १२२८
६-१७६ जह उक्किट्ठ तहम्मि वसु० सा० २६० बा० अणु० ४६ कल्लाणा० ३३ ११-२२२ जह गेहेसु पलिते कूपं
१३-२३६ जह नीरं उछगयं ११-२२३ खण भंगुरे सरीरे
६-१८४ जं किं चि गिहारंभं वसु० सा० २६८
१०-२०२ जं किं चि णाम दुक्खं जीव० २ण लघु० ११ ६-१७५ गहिऊण य सम्मत्तं मोक्खपा०८६
१-१४ जंकि चि परम तत्तं लघु० ११ ४-७२ गंतूण य णियगेहं वसु० सा० २८६
९-१६० जं कि पि पडियभिक्ख वसु० सा० ३०५ १२-२३० गाढ परिगह गहिउ
३-५८ जंचेव कय त चेव भुंजसि ६-१६६ गुरुपुरउकिरयम्मं वसु० सा० २८३
३-५५ जंण कयं अण्ण भवे
६-११७ जं दुप्परिणामामो मणं वसु० सा० ३२६ १-३ घणघाइ कम्म मुक्का णियमसा० ७१ ६-१८१ जे बज्जिज्जिदि हरिदं , , २६५ लथु नवकारफलं १
३-४६ जं मारेसि रसते जीवा ५-१०२ घंटाहिं घंट मदाउलेसु वसु० सा. ४८६ १३-२४८ ज रयणत्तय रहियं भावसं० ५३०
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अनेकान्त
५-१०७ जो पुणु जिणिद भवणं वसु० सा०४८२ १२-२२५ जो संत्तावइ प्रणुदि
४-८५ ठिदिकरण गुणपउत्तो भावसं. २८२
__ - य -
ण
६-१९२ जं सक्कइ तं कीरई दसंणपाः २२ ३५० जं हरसि परघणाई
१-८ जाए वि जो पढिज्जइ लघु०५ १३-२८६ जाणतो पेछंतो कालत्तय भावसं० ६७४ ५-६६ जायइ णिविज्जदाणेण वसु० सा० ४८६ ५-६७ जार्याद अक्खयणिहि , , ४८४ १२-२२४ जिणवंदण गुण विणउ ६-१६१ जिणवयणधम्म चेइय वसु० सा० २७५ २-३३ जिणवयणमेव भासदि कत्ति० अणु० ३९८ १-२८ जिणसासणस्स सारो लघु०२३ ३-४७ जीव तुम णावमासे ४-८० जीवाजीवासव बंध वसु० सा० १० १०.२१० जीवदया सच्चवयणं सीलपा० १६ जीव०४७ १-२१५ जीविय जलबिंदु समं . ८-१४३ जूयं-मज्ज-मंसं वेसा रिस० ५ १-२० जे केवि गया मोक्खं लघु०१७ १२-२३१ जे जिणणाह हं मुहकमलि
१-१८ जेण मरतेण इमो लघु०१५ १०-१९४ जे पुणु छ जीव वहं कुणं १३-२६२ जेहि ण दिण्णं दाणं भावसं० ५६६
६-१२४ जो कइ विउव एसा इहपर १०-२०८ जो कुणइ जणो धम्म जीव० ४३ १०.२०६ जो कुणइ मणे रवंती , ४१ १.१५ जो गुणइ लक्खमेगं लघु० १२ २-३१ जो चितेइ ण वंक कत्ति० अणु० ३६६ १०-२१३ जो जीवदया जुत्तो जीव० ६६ २-३४ जो जीव-रक्षण-परो कत्ति० अणु० ३६६ २-३६ जो णवि जादि वियारं १०-२०६ जो देइ अभयदाणं जीव० २० १०-१६६ जो देइ अभय दाणं सो जीव० ४४ १०-१९६ जो देइ परे दुक्खं जीवद० १४
२६२ जो पढइ सुण प्रक्खइ भावसं० ७०० ६.१६३ जो पस्सइ समभावं वसु० सा० २७७ २-३८ जो परिहरेदि संप्सां जीव. ४०३ १०.२०७ जो पहरइ जीवण्णं जीव० ४२ ५-१०५ जो पुज्जा प्रणवरयं भावसं० ४५६
१३.२६० णट्टकम्मबंधण भावस. ६६८ १२-२८७ णट्ठट्ठ पयडिबधो , ६८७ ३-५६ ण परं करेइ दुक्खं । १/१ णमिय जिणपास पयं १-२४ ण य (नह) कि चि तस्स पहवइ लघु. १५ २-४० गयणाणमो कलाणं १३-२६८ णहदंत सिरहारू भावस. ४०८ १०.१६५ णाऊण दुहमणतं ८-१४६ णासावहार दोसेण वसु. सा. १३० ६-११३ णाणेणाणुवयरणे य , , ३२२ १२-२२६ णिग्धिण णिठुर दुट्ठ
४-७६ णिद्दा तहा विसामो वसु. सा. ६ १०-१९८ णिबानो ण होइ गुलो जीवदया. १९ ४-८४ णिन्विदिगिछो राम्रो वसु. सा. ५३ भावसं.
२८१ ६.११२ णिस्संकिय संवेगाइ जे वसु. सा. ३२१ १३.२८३ णिस्संगो णिम्मोहो भावसं. ६१८ १३-२७४ णिसुणतो थोत्तसए , ४१४
१३-२८२ तच्छवि सुहाई भुत्तं ७-१३८ तरुणि मण णयणहारि वसु. सा. ३४८ १-२७ तवसंजमणियमरहो वृहद पंचनमस्कार फल
४-७७ तं सम्मत्तं उत्तं जत्थ भावसं. २७२ १३-२७५ तितंइ कि एवउत्तमन्भ २-३७ तिविहेण जो विवज्जइ कत्ति. मणु. ४०२ १-१६ तेण इमो णिच्चम्मि य लघु. ४ १३-३६० ते षणा लोय तए तेहिं ४-८१ तेणुत्त णव पयत्था भावसं. २७८
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बसूनन्दिके नाम से प्राकृतका एक संग्रह-प्रयतत्वविचार
४-७१ ते घण्णा ते धणिणो भ. पारा. २००२ ४-७४ ते धण्णा सुकयत्था मोक्ख पा. ८९
१-२४
थंभेइ जलं जलणं लघु. २२
६-१११ दसण णाण चरित्ते वसु. सा. ३२० १३-२३६ दाणस्साहार फलं को भावस. ४६३ १३-२३७ दायारो उबसतो मणवय , ४६५ ६-१५७ दिसिविदिसि पंचक्खा , ३५४ ५-१०० दीवेहि दीवियासे वसु. सा. ४८७ ३-६७ दोहरं पवास सहयर १३-२५५ दुक्खेण लहइ वित्तं भावसं. ५६१ १३-२७१ देवाण होई देहो , ४११
|१२६५ १०-१६३ देविदं चक्कवट्टि तणाई भ. पारा. १६५५
२१४८ ६-१२५ देविदचक्कहरमंडलीय वसु. सा. ३३४ ६.१५८ देवे थुवइतियाले पव्वे भावसं. ३५५ ७-१३२ देहतवणियमसयम वसु. सा. ३४२ १३-२४० देहो पाणारूग्रं विज्जा भावसं. ५१७
९-१६८ पक्खालिऊण वयणं वसु. सा. २८२ १३-२५२ पच्छ रमया वि दोणी
६.१७३ पच्चूसे उट्टित्ता वंदण वस. सा. २८७ १३-२५७ पडिकूलमाइ काउं भावसं. ५६३ ७-१२६ पडिजग्गणेहि तणु वसु. सा. ३३६ ३.६८ पणयजण पूरियासा ६-१८९ परकालिऊण पत्तं ७-१३५ परलोए वि सरुवो वसु. सा. ३४५ ६-११४ पचविह चारित्तं ,, ३२३ ८.१४१ पचुबर सहियाई ,, ५७ ६-१५५ पचय अणुव्वयाई भ. पारा. २०७६ धम्मर.
१४२ ४-८९ पंच वि थावरवियले पंचसं. १-३६ १३-२७६ पुणरवि तमेव धम्म (काया) भावसं. ४१६ १३-२६३ पुण्णेण कुल विउलं
" ५८६ पुण्णेण कुलं विउल
५८६ ५.६० पुराणस्स कारणं फुड ६-१८३ पुव्वुत्तणव विहाणं वसु. सा. २६७
५-६१ फासुय जलेणण्हाइय भावस. ४२६
वालोयं बुड्ढोयं वसु. सा. ३२४
१०-२०१ धम्म करेइ तुरिया जीव. २४ ३-६१ घम्मेण कुल पसइ ३.६६ धम्मेण धणं विमल ३-६० घम्मेण विणा जइचिंतयाइ ३-६२ धम्मो मंगल मूलं प्रोसह ६-१८७ धम्मेल्लाणं चयणं कयेरि ५-१०१ घूवेण सिसिरक्करधवल वसु. स. ४८८
१३-२३८ भत्ती सद्धायखम सत्त
७-१३४ भमइ जए जस किती वसु. सा.३४४ ११-२२० भवणं जिणस्स ण कयं ११.२२१ भावहुअणुव्वयाइ पालट्ट भावसं. ४८८ १३-२४५ भुक्खाकयमरणभयं , ५२३ १३-२४१ भुक्ख समो णहु वाही ६.१८६ भुजेइ पाणिपत्तम्मि भायणे वसु. सा. ३०३
१०-२०३ नर णरवइ देवाणं जीव. २६ १-१० नवसिरि हुँति सिराणं लघु. ७ ५-६३ न्हवणं काऊणपुणो १३-२४३ ना देहा ता पाणा तत्त ७-१३१ निस्संकियं सवेगाइ वसु. सा. ३२१, ३४१
६-१८२ मणवयण काय-कय वसु. सा. २६६
८-१४६ मंसासणेणगिरो , १२७ १३-२३७ महिसीए तिणदिणं पत्त ११-२१६ महमज्ज मंस विरई भावसं. ३५६
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अनेकान्त
१०.२०५ मा कीरउ पाणिवहो
६-१७७ मुणिऊण गरुवकज्ज वसु. सा. २६१ १३-२६१ मुणि भोयणेण दव्वं भावसं. ५६७ ६-१८५ मोतूणवच्छमेत्तं वसु. सा. २६६
८.१४४ रजभंसं वसणं बारह वसु. सा. १२५ ६-१७१ रयणि समयम्मि ठिच्चा वसु. सा. २८५ ४-८३ रायगिहे णिस्संको वस. सा. ५२ भावसं. २८० ३.५४ रे जीव पावणिग्घिणं -४८ रे जीव संपयं चिय
७-१३० संथार मोहणे हिय , ३४० २-३२ सम संतो स-जलेणं कत्ति. अणु. ३९७ १३-२६४ सम्मादिट्ठि पुण्णं ण होइ भावसं. ४०४
८-१४७ सव्वत्थ णिउण बुद्धी वसु. सा. १२८ १३-२३३ सन्वेसि जीवाणं अभयं भावसं. ४६० पंचत्थि.
६. १.१६ सट्ठिसयं विजयाणं लघु. १३ ४-८२ संकाइ दोसरहियं भावसं. ६७८ ४-७६ संवेमो णिव्वेप्रो जिंदा वसु. सा. ४६ भावसं.
२६३ ३-४२ संसारम्मि असारे णसि ८-१५२ साकेए सेवंतो सत्तवि वसु. सा. १३३ ६-१६४ सिद्धसरूवं झायइ वसु. सा. २७८ भावसं.
५६८ ६-१७६ सिरण्हाणुंवट्टण गंध वसु. सा. २६३ १३-२६६ सुइ अमलो वरवण्णो देहो भावसं. ४०६
७-१३३ सुभपरिणामो जायइ १३-२३४ सुय दाणेण य लब्भइ भावसं.४६१
१-२ सुय सायरो अपारो १३-२५८ सो किह सयणो भण्णइ भावस. ५६४ १०-२०४ सो दाया सं तवस्सी जीव. ३१ १३-२५६ सो सयणो सो बंधू भावसं. ५६५
३.४६ लहिऊण माणुसत्तं १३-२८५ लहिऊण सुक्कझाणं भावसं. ४८६ १०-२०० लोभायो प्रारंभो प्रारंभाउ १३-२८८ लोयग्ग सिहरखितं भावसं. ६८८
५-१०५ विजय पडाएहिणरो संगामे वसु. सा. ४६२ ११-२१७ विणउ वेय्या वच्च वसु. सा. ३१६ ६-१२३ विणएण ससकुज्जल ,, ३३२
विणो तिबिहेणतो १३-२५६ वित्तं चित्त पत्तं तिणि ६-१७० वायणकहाणुपेहण वसु. सा. २८४
१-२६ हियय गुहाये नवकार ६-११८ हियमियपुज्जं सुत्ता वसु. सा. ३२७ ४-७५ हिंसा रहिए धम्मे भावस. २६८ मोक्खपा.
७.१३६ वारवइएवेज्जा वच्चं , , ३४६ ४-८८ वारह मिच्छा वायइ १-२५ वाहि जल जलणतवकर लघु. १६
बाहिविमुक्क सरीरो ३-४५ बाही दिट्ठवि उग्गो
११-२१८ हिंसा रहिए धम्मे अट्ठारह ६-१५६ हिंसा विरई सच्च अदत भावसं. ३५३ मूला.
६-१६० होइ(ऊण)सुइ चे इय गिहम्मि वस. सा. २७४ ८-१५० होऊण खयरणाहो. ८-१४८ होऊण चक्कवट्टि वसु. सा. १२९ भावसं.
४८४
६-१२६ सत्तू वि मित्त भावं जम्हा वसु. सा. ३३६ ६-१६७ सत्तमि तेरसि दिवसम्मि , , २८१
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साहित्य-समीक्षा
१. गद्यचिन्तामणिमूल वादीभसिंह सूरि, सम्पादक अनुवादक पं. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ काशी। बड़ा साइज पृष्ठ संख्या ५०० मूल्य सजिल्द प्रतिका १२.०० रुपया ।
प्रस्तुत ग्रन्थ कादम्बरी के समकक्ष का एक महत्वपूर्ण गद्य संस्कृत काव्य है, जिसके कर्ता प्राचार्य वादीभसिंह सूरि हैं जो अपने समय के एक विशिष्ट विद्वान थे । आचार्य वादीभसिंह ने प्रौढ़ संस्कृत में जीवंधर का यह चरित्र निबद्ध किया है। जैन साहित्य में इस पर विविध भाषाओं में अनेक प्रथ लिखे गए है, जिससे उनकी महत्ता का सहज ही प्रामात हो जाता है। जीवधर कुमार भगवान महावीर के समय होने वाले राजा सत्यधर के क्षत्रिय पुत्र थे। प्रापने अपने पिता के राज्य को पुनः प्राप्त किया, और अन्त मे उसका परित्याग कर आत्मसाधना सम्पन्न की। कवि ने अपनी पूर्ववर्ती साहित्यिक उपलब्धियों को प्रात्मसात नही किया किन्तु उनकी विशाल प्रतिभा ने उस युग के सास्कृतिक जीवन के जो चित्र ग्रहण किये, उन्हें कवि ने कुशल मणिहार निर्माता की भांति सावधानी से काव्य में उतार दिया है। कर्ता ने मणिहार की तरह काव्यप्रथ के एक-एक शब्द को इस तरह पिरोया है कि लम्बे दीर्घ समासो मे भी काव्य का लालित्य एवं सौन्दर्य कही खोया नही, किन्तु जागृत रहा है।
इस सस्करण में सम्पादक ने संस्कृत व्याख्या श्रौर मूलानुगामी सरल हिन्दी अनुवाद देकर ग्रंथ को अत्यन्त उपयोगी बना दिया है । और प्रस्तावना मे ग्रन्थ और ग्रन्थकार के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी दे दी है । और परिशिष्ट में व्यक्ति वाचक, भौगोलिक, परिभाषिक तथा विशिष्ट शब्दों का एक शब्दकोष भी दे दिया है जिससे ग्रंथ की उपयोगिता बढ़ गई है । गद्यचिन्तामणि का यह विशिष्ट संस्करण अध्येतानों के लिए विशेष रुचिकार होगा ग्रंथ का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ के
अनुरूप हुआ है। प्राचीन भारतीय संस्कृत के मध्येताओं को इस ग्रंथ को मंगाकर अवश्य पढ़ना चाहिए। इस उत्तम प्रकाशन के लिए भारतीय ज्ञानपीठ धन्यवाद की पात्र है।
२. योगासार प्राभृत- मूल अमितगतिप्रथम सम्पादक अनुवादक पं० जुगलकिशोर मुख्तार प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी, बड़ा साइज, सजिल्द प्रति मूल्य ८.००
रुपया ।
प्रस्तुत ग्रंथ देवसेनाचार्य के शिष्य निस्संग धमितगति प्रथम की रचना है, जो अध्यात्म विषय का एक सुन्दर ग्रंथ है। इस ग्रंथ में अधिकार है और ५४० पथ हैं जिनमें आत्मतत्व की प्राप्ति का सरस वर्णन है। साथ अधिकारो में जीवादि सप्त तत्त्वों का दिग्दर्शन कराते हुए उनकी महत्ता का कथन किया गया है । श्रौर भाठवां अधिकार चारित्राधिकार है, जिसके १०० पद्यों मे चारित्र का बड़ा ही सुन्दर भोर संक्षिप्त कथन दिया है। उसे पढ़ कर प्रवचनसार के चारित्राधिकार की स्मृति हो जाती है । और अन्तिम चूलिकाधिकार में योगी के योग का स्वरूप बतलाते हुए भोग से उत्पन्न सुख की विशिष्टता, सुख का लक्षण, तथा योग के स्वरूप का कथन करते हुए भोग को महान रोग बतलाते हुए उससे छुटकारा मिलने पर उसे फिर संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता । भोग से सच्चा वैराग्य कब होता है उसका भी निर्देश किया है। और भी संबद्ध विषयका सुन्दर विवेचन किया है।
मुख्तार सा. ने ग्रंथ पद्योंका मूलानुगामी अनुवाद देकर उसके विषय को अच्छी तरह विशद किया है। टिप्पणियों में भी उसका स्पष्ट संकेत किया और प्रस्तावना मे अमितगति प्रथमके संबंध में जो विचार किया है वह सुन्दर है । ग्रंथ की छपाई सफाई ज्ञानपीठ के अनुरूप है और वह मुस्तार साहब के जीवन काल में ही छप कर तैयार हो गया था, उसे देख कर उन्हें श्रात्म संतोष हुआ होगा । इस ग्रंथ को सभी मंदिरों, स्वाध्यायशालाओं, अध्यात्म के विचारकों को मंगाकर अवश्य पढ़ना चाहिए ।
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भनेकान्त
३. कर्म प्रकृति संस्कृत-मूल अभयचन्द्र सिद्धान्त साधन के रूप में अपनाया गया है। इस अंक में गांधीजी चक्रवर्ती, सम्पादक अनुवादक डा. गोकुलचन्दजी एम. के सिद्धान्तों और जैन सिद्धान्तों की तुलना की गई है। ए.पी० एच० डी०, प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी। इस अंक में अनेक लेख पठनीय है-जैसे स्वतंत्रता संग्राम पृष्ठ ७५, मूल्य दो रुपया।
में हिंसा की भूमिका-श्री उ० न० वर । अध्यक्ष प्रस्तुत ग्रंथ संस्कृत के गद्यसूत्रों में कर्म प्रकृतियों के खादीग्रामोद्योग कमीशन। गांधीजी के जीवन में अहिंसा स्वरूप का वर्णन किया है। प्रकृति, प्रदेश स्थिति और अनु. का प्रयोग, मांसाशन का मन और तन पर कुप्रभाव, दया भाग इन चार प्रकार के बंधों का स्वरूप भी दिया हुआ है। जब हिंसा बन जाती है? अहिंसा के कुछ सूत्र आदि । अनुवाद मूलानुगामी है। ग्रन्थ कर्ता अभयचन्द सैद्धान्तिक इस सामयिक उपयोगी सामग्री प्रकाशन के लिए अणुव्रत चक्रवर्ती है । उनका समय ईसा की तेरवीं शताब्दी है ग्रंथ- समिति धन्यवाद की पात्र है। कार के सम्बन्ध में सम्पादकजी ने जो लिखा है वह प्रायः ५. महावीर जयन्ती स्मारिका-प्रधान सम्पादक ठीक है । अभयचन्द सिद्धान्ती की इस कृति का अनेकान्त पं० भंवरलाल पोल्याका जैन दर्शनाचार्य प्रकाशक राजके पाठवें वर्ष की किरण ११ में मुख्तार साहब ने परिचय स्थान जैन सभा, जयपुर, मूल्य २ रुपया। दिया था। ग्रंथ उपयोगी है। पाठकों को कर्म प्रकृति
प्रस्तुत स्मारिका ४ खंडों में विभाजित है। ३ खंड मंगा कर अवश्य पढ़ना चाहिए ।
की सामग्री हिन्दी भाषा मे दी हुई है और चतुर्थ खण्ड ४. अणुव्रत (विशेषांक)-सम्पादक रिषभदास की अंग्रेजी मे । लेखों का चयन सन्दर और नयनाभिराम रांका, प्रबन्ध सम्पादक हर्षचन्द प्रकाशक रामेश्वरदयाल है। स्मारिका अपने उद्देश्य में सफल होती जा रही है । अग्रवाल, प्र. भा० अणुव्रत समिति छतरपुर रोड, राजस्थान सभा की कर्तव्य परायणता और सम्पादक एवं महरौली, नई दिल्ली ३०, वार्षिक मूल्य १० रुपया। सम्पादक मंडल तथा प्रकाशक की तत्परता शोध-खोज के
प्रस्तुत विशेषांक गांधी शताब्दी के उपलक्ष मे प्रका- लेखों से परिपूर्ण स्मारिका, पत्र जगत में अपना महत्वपूर्ण शित किया गया है । यह प्रणुव्रत समिति के नैतिक जागरण स्थान रखती है। श्रद्धेय पं० चैनसुखदासजी का प्रभाव का अग्रदूत पाक्षिक पत्र है । तेरा पंथी सम्प्रदाय के विद्वान सचमुच खटकता है। ऐसे पत्रों में खोजपूर्ण लेखों के प्राचार्य तुलसीगणी के प्रयत्नों का यह सुफल प्रयास है साथ कुछ ऐतिहासिक और पुरातात्त्विक चित्रों का न कि अणुव्रत का व्यापक प्रचार करने एवं जीवन की होना कुछ खटकता है। परन्तु उनका शिष्य वर्ग उनके अनैतक धारा को नैतिकता मे बदलने मे अणुव्रत एक आदर्श कार्य को कायम रखेगा ऐसी आशा है। ★
दानी महानुभावों से वीर-सेवा-मन्दिर एक प्रसिद्ध शोध-सस्थान है, उसकी लायब्रेरी से अनेक रिसर्चस्कालर अपनी थीमिस के लिए उपयोगी ग्रंथ लेकर अनुसन्धान करते है । लायब्रेरी में इस समय पांच हजार के लगभग ग्रन्थ है । गोम्मट सार जीवकाण्ड की भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्ता से प्रकाशित बडी टीका की लक्षणावली के लिए आवश्यकता है जो महानुभाव भेंट स्वरूप या मूल्य से प्रदान करेगे इसके लिए हम उनके बहुत प्राभारी होगे ।
जिन शास्त्र भंडारों में हस्तलिखित ग्रंथों की व्यवस्था नही हो रही है । उनसे निवेदन है कि वे अपने भण्डार के उन हस्तलिखित ग्रंथों को वीर सेवामन्दिर लायब्रेरी को प्रदान कर दे । यहाँ उनकी पूर्ण व्यवस्था है, उससे रिसर्च स्कालरों को विशेष सुविधा हो जायगी । पाशा है मन्दिर और भण्डार के प्रबन्धक अपनी उदारता का परिचय देकर अनुगृहीत करेंगे।
प्रेमचन्द्र जैन मंत्री, वीरसेवामन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली।
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एक महान विभूति का वियोग
इस अंक के छपते-छपते बड़ा ही दुखद समाचार मिला है कि राष्ट्रपति डा. जाकिरहसेन का ३ मई को हृदयगति के रुक जाने से अकस्मात् देहान्त हो गया। इस समाचार से सारे देश का शोक-मग्न हो जाना स्वा डा० जाकिरहुसेन देश की महान विभूति थे, वह भारत के राष्ट्रपति पद पर प्रासीन थे । पर उनकी महत्ता इस बात मे थी कि वे मानवता के केवल हामी ही नहीं थे किन्तु उसमे बडे थे। देश के अभ्युत्थान मे जिन-जिन क्षेत्रों में उनकी सेवारों की आवश्यकता हुई वे सदा तत्पर रहे । बुनियादी शिक्षा के क्षेत्र मे उन्होने जो कार्य किया वह हमारे इतिहास मे सदा अमर रहेगा । उन्होने जामा मिलिया के रूप में जो देन दी है, वह महान है।
डा. जाकिरहुसेन ने देश के सामने धर्म-निरपेक्षता की एक ऐसी मिसाल पेश की, जिसने लोक-मानस पर बड़ा प्रभाव डाला । सभी धर्मों के अनुयायी उन्हें आदर की दृष्टि से देखते थे। ऐसी विभूति के निधन से जो स्थान रिक्त हुआ है उसकी पूर्ति सहज ही नही हो सकती।
हम दिवगत आत्मा के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पित करते हुए आशा करते है कि उन्होंने अपने वैयक्तिगुणों और सेवाकार्यो से जो प्रेरणाएँ दी है वे देशवासियो का मार्गदर्शन करती रहेगी। अनेकान्त पत्र के माध्यम से उनके शोक-सन्तप्त परिवार के लिए हमारी समवेदनाएँ।
दि. जैन समाज में उपेक्षा का परिणाम
दि० जैन समाज यद्यपि मन्दगति से अपना कार्य कर रहा है। उसकी जैसी प्रगति होनी चाहिए थी नही हो सकी। अनेक जैन मन्दिरों और मूर्तियो का निर्माण तथा पचकल्याणक प्रतिष्ठानो मे अपार धन खर्च किया जाता है। पर तीर्थकरो की वाणी के प्रसार मे या शास्त्रों के जीर्णोद्धार में एक पैसा भी कोई खर्च करने को तैयार नही है। दि. जैन मन्दिरो मे स्थित शास्त्रभण्डार अव्यवस्थित है, चहा, दीमक और कीटकादि के भक्ष्य हो रहे है। अभी १० परमानन्द शास्त्री का लश्कर जाना हुम्रा था। उनसे ज्ञात हुआ कि ग्वालियर किसी समय जैन समाज का केन्द्र स्थल था, वहाँ के मन्दिरों में दसवी शताब्दी से २०वी शताब्दी तक की प्रतिष्ठत अनेक मनियाँ मन्दिरो में विराजमान है। किले मे उर्वाही द्वार की दायें बाये दोनो पोर चट्टानो को खोद कर बनाई गयी प्रतिमाएँ अत्यन्त आकर्षक और कला पूर्ण हैं और अधिकाश खण्डित है। परन्तु वे जैनो द्वारा सदा उपेक्षित रही है। उनका पत्थर गल रहा है, शिला लेख नष्ट होते जा रहे है। अनेक मूर्तियाँ खण्डित है। उनकी ओर वहाँ की समाज की पूर्ण उपेक्षा है। मन्दिरो के शास्त्र भण्डारो की कोई व्यवस्था नहीं है। ग्वालियर का भट्टारकीय शास्त्र भडार ४० वर्ष से बन्द पड़ा है, उसकी न कोई सूची है, और न यही ज्ञात हो सका कि वहा कितने और क्या-क्या अमूल्य प्रथ हैं। उनकी सार सम्हाल यदि जल्दी न की गई तो फिर इस अमूल्य सम्पदा से सदा के लिये हाथ धोना पडेगा। शास्त्र भडारो की सम्पत्ति जैन समाज की व राष्ट्र की निधि है। उसका संरक्षण देव मन्दिर व प्रतिमानो के समान ही होना चाहिये। ग्वालियर में ७ हजार जैनियों की संख्या है, २३, २४ मन्दिर है। प्राशा है ग्वालियर और लश्कर की जैन समाज के धर्मात्मा सज्जन इस उपेक्षावृत्ति को छोड़कर धर्म रक्षार्थ मंदिर मूर्तियों की तरह शास्त्रों के प्रति अपनी भक्ति का परिचय देगी, भट्टारकजी के भंडार को भी प्रादर्श रूप में व्यवस्थित करेगी।
- मन्त्री-बीर सेवामन्दिर
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/82 (१) पुरातन-चैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४५ टीकादिग्रन्थों में
उद्धृत दूसरे पद्यों को भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका
(Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५.०० (२) मा त परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,माप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक
सुन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से यूक्त, सजिल्द । ८.०० (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महन्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।।
__... २.०० (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगल
किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हना था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द ।
७५ (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ (८) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वीं शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ (९) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्याचार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द। ... ३.०० (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० १ संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो ओर पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलंकृत, सजिल्द ।
४.०० (११) समाधितन्त्र और इष्टोपदेश-अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित
४.०० (१२) अनित्यभावना-प्रा० पद्मनन्दीकी महत्व की रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ (१३) तत्वार्थसूत्र--(प्रभाचन्द्रीय)--मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । ... २५ (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ । (१५। महावीर का सर्वोदय तीर्थ ·१६ पैसे, १६ समन्तभद्र विचार-दीपिका १६ मे, (१७) महावीर पूजा २५ (१८) अध्यात्म रहस्य-पं० प्राशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित ।
१.०० (१९) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण सग्रह। '५५
ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । स.प.परमान्द शास्त्री। सजिल्द १२.०० (२०) न्याय-दीपिका-प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु० ७०० (२१) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-सघ प्रकाशन ५-०० (२२) कसायपाहुड सुत्त-मूलग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व धी गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दो अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।।
... २०.०० (२३) Reality मा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े प्राकार के ३०० प. पक्की जिल्द ६.००
प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित ।
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द्वे मासिक
जून १९६६
য়ণচন।
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米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米条米类米类
खण्डगिरि में उत्कीर्ण तीर्थकर मतियां
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समन्तभद्राश्रम (वोर-सेवा-मन्दिर) का मुख पत्र
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क्र०
विषय-सूची | अनेकान्त के लिए स्थायी ग्राहकों और
पृ० विशेष सहायक सदस्यों की आवश्यकता १ अर्हत्परमेष्ठी स्तवन-मुनि श्री पद्मनन्दि
अनेकान्त जैन सस्कृति की प्रतिष्ठित एव प्रामाणिक २ जैन समाज की कुछ उपजातियां
पत्रिका है। इतना होने पर भी जैन समाज का ध्यान इस परमानन्द शास्त्री
पत्रिका की अोर नही है। तो भी पत्रिका घाटा उठाकर ३ एक प्रतीकांकित द्वार-गोपीलाल अमर एम. ए. ६० भी सस्कृति के प्रचार और प्रसार में संलग्न रहती है। ४ अंतरीक्ष पार्श्वनाथ विनंति
अनेकान्त द्वारा जो खोज की गई है, वे महत्वपूर्ण है । अतः नेमचन्द धन्नूसा जैन
हम अनेकान्त के संरक्षको विशेष सहायको और स्थायी
सदस्यो तथा विद्वानों से प्रेरणा करते है कि वे अनेकान्त ५ प्रात्म सम्बोधन-परमानन्द शास्त्री
की ग्राहक सख्या बढ़ाने मे हमे सहयोग प्रदान करे । मह. ६ ग्वालियर के कुछ काप्टासबधी भट्टारक
गाई होने पर भी अनेकान्त का वही ६) रु० मूल्य है। परमानन्द शास्त्री
जब कि सब पत्रों का मूल्य बढ़ गया है तब भी अनेकान्त का ७ शहडोल जिले में जैन सस्कृति का एक अज्ञात मल्य नहीं बढ़ाया गया। केन्द्र-प्रो० भागचन्द जैन 'भागेन्दु'
अनेकान्त के लिए २५१) प्रदान करने वाले ५० विशेष ८ युक्त्यनुशासन : एक अध्ययन
सहायक सदस्यो, और १०१) प्रदान करने वाले सौ स्थायी डा० दरबारी लाल जैन कोठिया
सदस्यों की आवश्यकता है। कुछ ऐसे धर्मात्मा सज्जनो ६ भगवान ऋषभदेव-परमानन्द शास्त्री
को भी अावश्यकता है जो अपनी ओर से अनेकान्त पत्रिका
कालेजो, पुस्तकालयों और विश्वविद्यालयों को अपनी ओर १० हृदय की कठोरता-मुनि कन्हैयालाल
, से भिजवा सके । साथ ही विवाहो, पर्वो और उत्सबो पर ११ मगध सम्राट् राजा बिम्बसार का जनधर्म
निकाले जाने वाले दान मे से अनेकान्त को भी प्राथिक परिग्रहण-परमानन्द शास्त्री
सहयोग प्राप्त हो। १२ अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व शान्ति किस प्रकार
कुछ दानी महानुभाव अपनी ओर से जैन संस्थानो प्राप्त हो सकती है
पुस्तकालयो मे अनेकान्त भिजवाएं। व्यवस्थापक शान्तीलाल वनमाली शेठ
'अनेकान्त' १३ लश्कर में मेरे पांच दिन-परमानन्द शास्त्री ६१ /
अनेकान्त के पाठकों से १४ साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री तथा बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री
अनेकान्त प्रेमी पाठको से निवेदन है कि उनका वार्षिक मूल्य समाप्त हो चुका है। नए २२वे वर्ष का मूल्य
६) रुपया मनीआर्डर द्वारा भिजवा कर अनुगृहीत करे । सम्पादक-मण्डल
अन्यथा अगला अक वी. पी. से भेजा जायगा। जिससे डा० प्रा० ने० उपाध्ये
आपको १) एक रुपया अधिक खर्च देना पड़ेगा। डा०प्रेमसागर जन
व्यवस्थापक : 'अनेकान्त' श्री यशपाल जैन
'वीरसेवामन्दिर' २१ दरियागंज, दिल्ली परमानन्द शास्त्री अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया माल उत्तरदायी नहीं हैं। -व्यवस्थापक मनेकान्त एक किरण का मल्य १ रुपया २५ पंसा
MMA
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वर्ष २२ किरण २
}
श्रोम् अर्हम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्ध सिन्धुर विधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वीर- सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६५, वि० सं० २०२६
अर्हत परमेष्ठी स्तवन
रागो यस्य न विद्यते क्वचिदपि प्रध्वस्तसंगग्रहात् प्रस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधैर्देषोऽपि संभाव्यते । तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जातः क्षयः कर्मरणामानन्दादि गुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन्सदा पातु वः ॥३॥ मुनि श्री पद्मनन्दि
{ जून
10:1
सन् १६६६
अर्थ - जिस प्ररहंत परमेष्ठी के परिग्रहरूपी पिशाच से रहित हो जाने के कारण किसी भी इन्द्रिय विषय राग नही है, त्रिशूल आदि आयुधों से रहित होने के कारण उक्त अरहंत परमेष्ठी के विद्वानों के द्वारा द्वेष की भी सम्भावना नहीं की जा सकती है । इसीलिए राग-द्वेष से रहित हो जाने के कारण उनके समताभाव प्राविर्भूत हुआ है । अतएव कर्मों के क्षय से जो श्रर्हत् परमेष्ठी अनन्त सुख प्रादि गुणो के श्राश्रय को प्राप्त हुए है वे अर्हत परमेष्ठी सर्वदा आप लोगों की रक्षा करे ।।
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जैन समाज की कुछ उपजातियों
परमानन्द जैन शास्त्री
उपजातियां कब और कैसे बनीं, इसका कोई प्रामाणिक इतिवृत्त अभी तक भी नहीं लिखा गया । पर ग्रामनगरों या व्यवसाय के नाम पर अनेक उपजातियों का नामकरण धौर गोत्रों यादि का निर्माण किया गया है। दसवीं शताब्दी से पूर्व उपजातियों का कोई इतिवृत्त नहीं मिलता सम्भव है उससे पूर्व भी उनका अस्तित्व रहा हो । जैन समाज में चौरासी उपजातिया प्रसिद्ध है । अठारहवीं शताब्दी के विद्वान १० विनोदलालाल की 'फनमाला पश्चीमी' एक पच्चीस पद्यात्मक रचना है। जिसमे चवाल खण्डेलवाल, बरवाल, गोलापूर्व, परदार, (पौर पट्ट) प्रादि जातियों का नामाकन किया गया है । ग्राम नगरादि के नाम पर अनेक उपजातिया बनी। श्रसा से ओसवाल, बघेरा से वधेरवाल । पालि से पल्लीवाल, मेवाड से मेवाड़ा। इस तरह ग्राम एव नगरों तथा कार्यों आदि से उपजातियो और गोत्रो आदि का निर्माण हुआ है। अनेक उपजातियों के उल्लेख मूर्ति लेखों और ग्रंथ प्रशस्तियों आदि में उपलब्ध होते है । पर उनका अस्तित्व पत्र वर्तमान मे नही मिलता। जैसे धक्कड़ या कंट यह एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक जाति है जिसकी ब परम्परा पूर्व काल मे अच्छी प्रतिष्ठित रही है। इसमे अनेक प्रतिष्ठित विद्वान हुए है। इसका निकास 'उजपुर' सिरोंज (टोंक) से बतलाया गया है। " इह मेवाड़ देते जण सकुले, सिरि उजपुर निग्गयधक्कड कुले ।" धर्म परीक्षा के कर्ता हरियण (१०४४) भी इसी धर्कट वशीय गोवर्द्धन के पुत्र और सिद्धसेन के शिष्य थे। यह चित्तौड़ के निवासी थे और कार्यवश अचलपुर चले गए थे और वहाँ पर उन्होंने सं० १०४४ मे धर्म परीक्षा का निर्माण किया था । मालव देश की समृद्ध नगरी सिन्धुवर्षी मे भी घटना के तिलक मधुसूदन श्रेष्ठी के पुत्र त पर भरत थे, जिनकी प्रेरणा से वीर कवि ने जम्बू स्वामी
चरित की रचना की थी। यह घर्कट वश दिल्ली के ग्रासपास नही रहा जान पडता यह राजपूताने और गुजरात आदि मे रहा है। वर्तमान में इस जाति का अस्तित्व ही नहीं जान पडता । सहलवाल, गंगेरवाल, गर्गराट, आदि अनेक उपजातिया ऐसी है जिनका परिचय नहीं मिलता ।
कविवर विनोदीलाल ने लिखा है कि एक बार उप जातियों का समूह गिरिनार जी में नेमिप्रभु की फूलमाल लेने के लिए इकट्ठा हुआ और परस्पर में यह होड़ लगी कि प्रभु को जयमाल पहले मैं तू दूसरा कहता था कि पहले मैं लू । और तीसरा भी चाहता था कि फूलमाल मुझे मिले। इस होड मे सभी उपजातियाँ अपने वैभव के अनुसार बोली हाने के लिए तैयार थी। फलमान लेने की जिज्ञासा ने जन साधारण में अपूर्व जागृति की लहर उत्पन्न कर दी । और एक से एक वढकर फूलमाल का मूल्य देने के लिये तय्यार हो गया । पर उन सबमे से किसी एक को ही फूलमाल मिली यह रचना विक्रम की १८वी शताब्दी के मध्य काल की है। यद्यपि १६वी शताब्दी के विद्वान ब्रह्म मदत ने भी फूलमात जयमाला का निर्माण किया है। जो सक्षिप्त सरल और सुन्दर है जो सज्जन इस महधिक फूलमाल को अपनी लक्ष्मी देकर लेते है उनके सब दुख दूर हो जाते है' ।
इस लेख में कुछ उपजातियों का सक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। जिन जातियों का नामादि के अतिरिक्त कुछ परिचय भी नहीं मिला, उन्हें छोड़ दिया गया है।
अग्रवाल - यह शब्द एक क्षत्रिय जाति का सूचक है । जिसका निकास अग्रोहा या 'अग्रोदक' जनपद से हुआ
1
१. भो भवियण जिण-पय-कमल माल महम्पिय नेह फिलु करिकरहु दुक्ख मलजल देहू ।। माता रोहिणी
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जैन समाज को कुछ उपजातियाँ
है। यह स्थान हिसार जिले में है। अग्रोहा एक प्राचीन इसका प्राचीनतम उल्लेख मौलाना दाऊदकृत अवधी काव्य ऐतिहासिक नगर था । यहाँ के एक साठ फुट ऊचे टीले की चन्द्रामन (रचना काल सन् १३७६ ई०) में हुआ है। खुदाई सन् १९३६-४० में हुई थी। उसमे प्राचीन नगर 'वामन खतरी' वंसह गुवारा, गहरवार और अग्गरवारा।' के अवशेष और प्राचीन सिक्कों आदि का एक ढेर प्राप्त डा. परमेश्वरीलाल का उक्त निष्कर्ष ठीक नहीं हुआ था । २६ फुट से नीचे पाहत मुद्रा का नमूना, ४ मालूम होता, क्योंकि अग्रवाल वश का सूचक 'प्रयरवाल' यूनानी सिक्के और ११ चौखूटे ताँबे के सिक्के भी मिले शब्द अपभ्रंशभापा के १२वी से १७वी शताब्दी तक के है। तांबे के सिक्कों में सामने की ओर 'वृषभ' और पीछे ग्रन्यो मे उल्लिखित मिला है। वि० सं० ११८६ (सन् की ओर सिंह या चैत्यवृक्ष की मूर्ति है । सिक्कों के पीछे ११३२ ई०) मे दिल्ली के तोमरवशी शासक अनंगपाल ब्राह्मी अक्षरो में-'अगोद के अगच जनपदस' शिलालेख तृतीय के राज्य काल मे रचित 'पासणाह चरिउ की आदि भी अंकित है जिसका अर्थ अग्रोदक मे अगच जनपद का अन्त प्रशस्ति मे अयरवाल शब्द का प्रयोग हुअा है, यह सिक्का होता है। अग्रोहे का नाम अग्रोदक भी रहा है। कवि स्वय अग्रवाल कुल मे उत्पन्न हुआ था। उसने अपने उक्त सिक्कों पर अकित वृषभ, सिंह या चैत्य वृक्ष की मूर्ति लिये-'सिरि अयरवाल कुल सम्भवेण, जणणी वील्हा जैन मान्यता की ओर सकेत करती है। (देखो एपिग्राफि गब्मब्भवेण' का प्रयोग किया है। कवि स्वय हरियाणा प्रदेश का इडिकाजिल्द २ पृ० २४४ और इण्डियन एण्टी क्वेरी का निवासी था वहा से यमुना नदी को पार कर वह भा० १५ पृ० ३४३ पर अग्रोतक वैश्यो का वर्णन दिया दिल्ली में पाया था। उस समय के राजा अनंगपाल नृतीय हुअा है।
के मन्त्री सिरि नट्टलसाह अग्रवाल थे । थे । जिन्हे ववि ने अग्रोहा मे अग्रसेन नाम का एक क्षत्रिय राजा था, सिरि अयरवाल कुल कमल, 'मित्त, सुहधम्म-कम्म उसी की सन्तान परम्परा अग्रवाल कहलाते है । अग्रवाल पवियण्य-वित्त ।' रूप मे उल्लिखित किया है। इन शब्द के अनेक अर्थ है किन्तु यहाँ उनकी विवक्षा नही प्रमाणो से स्पष्ट है कि अग्रवाल शब्द का व्यवहार है। यहा अग्रदेश के रहने वाले प्रर्य ही विविक्षत है। विक्रम की १२वी शताब्दी में प्रचलित था, और अग्रवालो के १८ गोत्र बतलाये जाते है, जिनमे गर्ग, उनके पूर्वज १२वी शताब्दी से पूर्ववर्ती रहे है । उस समय गोयल, मित्तल, जिन्दल और सिंहल प्रादि नाम प्रसिद्ध है। दिल्ली म अग्रवाल जैन और वैष्णव दोनो का निवास था। इनमे दो धर्मों के मानने वाले पाये जाते है । जैन अग्रवाल कई अग्रवाल अब प्रार्य समाजी भी है। निवास की दृष्टि और वैष्णव अग्रवाल । श्री लोहाचार्य के उपदेश से जो से मारवाड़ मारवाड़ी कहे जाते है। किन्तु रक्त शुद्धि जैन धर्म मे दीक्षित हो गये थे, वै जन अग्रवाल कहलाये आदि के कारण किसी समय वीसा और दस्सा भेदो में -उनके आचार-विचार सभी जैन धर्ममूलक है। शेप विभक्त देखे जाते है। अब मेद वाली बात नगण्य हो गई वैष्णव अग्रवाल । दोनो मे रोटी-बेटी व्यवहार होता है। है। और सब एक रूप में देखे जाने लगे है। ये लोग रीति-रिवाजो मे भी कुछ समानता होते हुए भी अपने- धर्मज्ञ, प्राचारनिष्ठ, अहिंसक, जन धन से सम्पन्न राज्यअपने धर्मपरक प्रवृत्ति पाई जाती है । हाँ वे सभी अहिंमा मान रहे है। इनको वृत्ति शासन की ओर रही है । धर्म के मानने वाले है। उपजातियों का इतिहास १०वी तोमरवंशी राजा अनंगपाल तृतीय के राज्य श्रेष्ठी और शताब्दी से पूर्व का नहीं मिलता, पर हो सकता है कि आमात्य अग्रवाल कुलावतश साहू नट्टल ने दिल्ली में उनमे कुछ उपजातिया पूर्ववर्ती रही हों । अग्रवाल जैन आदिनाथ का विशाल सुन्दरतम् मन्दिर बनवाया था परम्परा के उल्लेख १२वीं शताब्दी से पूर्व के मेरे अव- जिसका उल्लेख उसी समय के कवि श्रीधर द्वारा रचित लोकन मे नही आये।
पार्श्वपुराण प्रशस्ति में उपलब्ध होता है । डा० परमेश्वरीलाल ने लिखा है कि 'अग्रवाल संवत् १३६३ में साहू वाघू अग्रवाल ने मुहम्मद शाह नामका उल्लेख १४वीं शताब्दी से पहले नही मिलता है। १. देखो, अग्रवाल जाति का इतिहास पृ० ६१ ।
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जैन समाज की कुछ उपजातियाँ
परमानन्द जैन शास्त्री
उपजातिया कब और कैसे बनीं, इसका कोई प्रामा- चरित की रचना की थी। यह धर्कट वश दिल्ली के पासणिक इतिवृत्त अभी तक भी नही लिखा गया। पर ग्राम- पास नही रहा जान पडता । यह राजपूताने और गुजरात नगरों या व्यवसाय के नाम पर अनेक उपजातियों का प्रादि मे रहा है। वर्तमान में इस जाति का अस्तित्व ही नामकरण और गोत्रों यादि का निर्माण किया गया है। नहीं जान पडता । सहलवाल, गगेरवाल, गर्गराट, आदि दसवीं शताब्दी से पूर्व उपजातियों का कोई इतिवृत्त नहीं अनेक उपजातिया ऐसी है जिनका परिचय नहीं मिलता। मिलता। सम्भव ह उमम पूर्व भा उनका अस्तित्व रहा कविवर विनोदीलाल ने लिखा है कि एक बार उप हो। जैन समाज मे चौरासी उपजातिया प्रसिद्ध है। ,
द है। जातियो का समुह गिरिनार जी में नेमिप्रभु की फूलमाल अठारहवीं शताब्दी के विद्वान प. विनोदीलाल अग्रवाल
प्रवाल लेने के लिए इकट्ठा हुआ और परस्पर मे यह होड लगी
के की 'फलमाला पच्चीसी' एक पच्चीस पद्यात्मक रचना है। कि प्रभ को जयमाल पहले मै लू । दूसरा कहता था कि जिसमे अग्रवाल, खण्डेलवाल, बघेरवाल, गोलापूर्व, परवार,
पहले मै लू । और तीसरा भी चाहता था कि फलमाल (पौर पट्ट) प्रादि जातियो का नामाकन किया गया है।
मुझे मिले। इस होड में सभी उपजातियाँ अपने वैभव के ग्राम नगरादि के नाम पर अनेक उपजातिया बनी।
__ अनुसार बोली छुड़ाने के लिए तैयार थी । फलमान लेने प्रोसा से प्रोसवाल, वघेरा से वधेरवाल । पालि से पल्ली
की जिज्ञासा ने जन-साधारण मे अपूर्व जागृति की लहर वाल, मेवाड से मेवाडा । इस तरह ग्राम एव नगरो तथा
उत्पन्न कर दी। और एक से एक बढकर फूलमाल का कार्यों आदि से उपजातियों और गोत्रों आदि का निर्माण
मुल्य देने के लिये तय्यार हो गया। पर उन सबमे से हुपा है। अनेक उपजातियों के उल्लेख मूर्ति लेखो और
किसी एक को ही फूलमाल मिली। यह रचना विक्रम की ग्रथ प्रशस्तियों आदि में उपलब्ध होते है। पर उनका
१८वी शताब्दी के मध्य काल की है । यद्यपि १६वी शताब्दी अस्तित्व अब वर्तमान मे नही मिलता । जैसे धक्कड़ या
के विद्वान ब्रह्म नेमिदत्त ने भी फूलमाल जयमाला का धर्कट । यह एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक जाति है जिसकी वश
निर्माण किया है । जो सक्षिप्त सरल और सुन्दर है । जो परम्परा पूर्व काल में अच्छी प्रतिष्ठित रही है। इसमे
सज्जन इस महधिक फूलमाल को अपनी लक्ष्मी देकर लेते अनेक प्रतिष्ठित विद्वान हुए है । इसका निकास 'उजपुर'
है उनके सब दुख दूर हो जाते है। सिरोंज (टोंक) से बतलाया गया है। "इह मेवाड़ देसे ।
इस लेख मे कुछ उपजातियों का सक्षिप्त परिचय जण सकुले, सिरि उजपुर निग्गयधक्कड कुले ।" धर्म
दिया जा रहा है। जिन जातियों का नामादि के अतिरिक्त परीक्षा के कर्ता हरिषेण (१०४४) भी इसी धर्कट वशीय ।
कुछ परिचय भी नहीं मिला, उन्हें छोड दिया गया है। गोवर्द्धन के पुत्र और सिद्धसेन के शिप्य थे। यह चित्तौड़
अग्रवाल-यह शब्द एक क्षत्रिय जाति का सूचक के निवासी थे और कार्यवश अचलपुर चले गए थे और
है। जिसका निकास अग्रोहा या 'अग्रोदक' जनपद से हुआ वहाँ पर उन्होंने स० १०४४ मे धर्म परीक्षा का निर्माण किया था। मालव देश की समृद्ध नगरी सिन्धुवर्षी में भी १. भो भवियण जिण-पय-कमल, माल महग्घिय लेहु । धर्कट वश के तिलक मधुसूदन श्रेष्ठी के पुत्र तक्खडु और णिय लच्छि फल करिकरहु, दुक्ख जलजलु देहु ।। भरत थे, जिनकी प्रेरणा से वीर कवि ने जम्बू स्वामी
माला रोहिणी
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जैन समाज को कुछ उपजातियाँ
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है । यह स्थान हिसार जिले में है। अग्रोहा एक प्राचीन इसका प्राचीनतम उल्लेख मौलाना दाऊदकृत अवधी काव्य ऐतिहासिक नगर था । यहाँ के एक साठ फुट ऊचे टीले की चन्द्रामन (रचना काल सन् १३७६ ई०) में हुआ है। खुदाई सन् १९३६-४० मे हुई थी। उसमे प्राचीन नगर 'वामन खतरी' वंसह गुवारा, गहरवार और अग्गरवारा।' के अवशेष और प्राचीन सिक्कों आदि का एक ढेर प्राप्त डा० परमेश्वरीलाल का उक्त निष्कर्ष ठीक नही हुआ था। २६ फुट से नीचे पाहत मुद्रा का नमूना, ४ मालूम होता, क्योंकि अग्रवाल वंश का सूचक 'अयरवाल' यूनानी सिक्के और ११ चौखूटे ताँबे के सिक्के भी मिले शब्द अपभ्रशभाषा के १२वी से १७वीं शताब्दी तक के है। तांबे के सिक्कों मे सामने की ओर 'वृषभ' और पीछे ग्रन्थो में उल्लिखित मिला है। वि० सं० ११८६ (सन् की अोर सिंह या चैत्यवृक्ष की मूर्ति है। सिक्कों के पीछे ११३२ ई०) मे दिल्ली के तोमरवशी शासक अनंगपाल ब्राह्मी अक्षरों मे-'अगोद के अगच जनपदस' शिलालेख तृतीय के राज्य काल में रचित 'पासणाह चरिउ की आदि भी अकित है जिसका अर्थ अनोदक मे अगच जनपद का अन्त प्रशस्ति मे अयरवाल शब्द का प्रयोग हुमा है, यह सिक्का होता है। अग्रोहे का नाम अग्रोदक भी रहा है। कवि स्वय अग्रवाल कुल मे उत्पन्न हुआ था। उसने अपने उक्त सिक्कों पर अकित वृषभ, सिंह या चैत्य वृक्ष की मूर्ति लिये-'सिरि अयरवाल कुल सम्भवेण, जणणी वील्हा जैन मान्यता की ओर सकेत करती है। (देखो एपिग्राफि गब्मब्भवेण' का प्रयोग किया है। कवि स्वय हरियाणा प्रदेश का इडिकाजिल्द २ पृ० २४४ और इण्डियन एण्टी क्वेरी का निवासी था वहा से यमुना नदी को पार कर वह भा०१५ पृ० ३४३ पर अग्रांतक वैश्यों का वर्णन दिया दिल्ली में पाया था। उस समय के राजा अनंगपाल तृतीय हुआ है।
के मन्त्री सिरि नट्टलसाहू अग्रवाल थे । थे । जिन्हे कवि ने अग्रोहा मे अग्रसेन नाम का एक क्षत्रिय राजा था, सिरि अयरवाल कुल कमल, 'मित्त, सुहधम्म-कम्म उसी की सन्तान परम्परा अग्रवाल कहलाते है । अग्रवाल पवियण्य-वित्तु ।' रूप में उल्लिखित किया है। इन शब्द के अनेक अर्थ है किन्तु यहाँ उनकी विवक्षा नही प्रमाणो से स्पष्ट है कि अग्रवाल शब्द का व्यवहार है। यहा अग्रदेश के रहने वाले अर्थ ही विविक्षत है। विक्रम की १२वी शताब्दी में प्रचलित था, और अग्रवालों के १८ गोत्र बतलाये जाते है, जिनमे गर्ग, उनके पूर्वज १२वी शताब्दी से पूर्ववर्ती रहे है । उस समय गोयल, मित्तल, जिन्दल और सिंहल प्रादि नाम प्रसिद्ध है। दिल्ली म अग्रवाल जैन और वैष्णव दोनो का निवास था । इनमे दो धर्मों के मानने वाले पाये जाते है। जैन अग्रवाल कई अग्रवाल अब आर्य समाजी भी है। निवास की दृष्टि और वैष्णव अग्रवाल । श्री लोहाचार्य के उपदेश से जो से मारवाड़ मारवाडी कहे जाते है। किन्तु रक्त शुद्धि जैन धर्म में दीक्षित हो गये थे, वै जैन अग्रवाल कहलाये आदि के कारण किसी समय वीसा और दस्सा भेदो में -~-उनके आचार-विचार सभी जैन धर्ममूलक है। शेप विभक्त देखे जाते है। अब मेद वाली बात नगण्य हो गई वैष्णव अग्रवाल । दोनो मे रोटी-बेटी व्यवहार होता है। है। और सब एक रूप में देखे जाने लगे है। ये लोग रीति-रिवाजों में भी कुछ समानता होते हुए भी अपने- धर्मज्ञ, प्राचारनिष्ठ, अहिसक, जन धन से सम्पन्न राज्यअपने धर्मपरक प्रवृत्ति पाई जाती है। हां वे सभी अहिंमा मान रहे है। इनकी वृत्ति शासन की ओर रही है। धर्म के मानने वाले है। उपजातियो का इतिहास १०वी तोमरवंशी राजा अनंगपाल तृतीय के राज्य श्रेष्ठी और शताब्दी से पूर्व का नहीं मिलता, पर हो सकता है कि आमात्य अग्रवाल कुलावतश साहू नट्टल ने दिल्ली में उनमे कुछ उपजातिया पूर्ववर्ती रही हो। अग्रवाल जैन ग्रादिनाथ का विशाल सुन्दरतम् मन्दिर बनवाया था परम्परा के उल्लेख १२वी शताब्दी से पूर्व के मेरे अव- जिसका उल्लेख उसी समय के कवि श्रीधर द्वारा रचित लोकन में नही आये।
पार्श्वपुराण प्रशस्ति में उपलब्ध होता है । डा. परमेश्वरीलाल ने लिखा है कि 'अग्रवाल संवत् १३६३ में साहू वाघु अग्रवाल ने मुहम्मद शाह नामका उल्लेख १४वी शताब्दी से पहले नही मिलता है। १.देखो, अग्रवाल जाति का इतिहास पृ० ६१ ।
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अनेकान्त
तुगलक के राज्य काल मे धनपाल कविकृत भविष्य दत्त इस जाति मे अनेक धन सम्पन्न, विद्वान कोषाध्यक्ष और पचमी कथा की प्रतिलिपि कराई थी।
दीवान जैसे राज्यकीय उच्च पदों पर काम करने वाले संवत् १४९४ सन् १४३७ में दिल्ली के बादशाह धर्मनिष्ठ व्यक्ति हुए है। और वर्तमान मे भी है । अकेले फिरोजशाह तुगलक द्वारा बसाये हुए फिरोजाबादसे दिल्ली जयपुर मे २५-२६ दीवान हुए है। जिन्होंने राज्य की मे आकर साहू खेतल ने अपनी धर्मपत्नी के श्रुतपचमी व्रत सदा रक्षा की है। इन दीवानो मे बालचन्द छावड़ा, के उद्यापन के लिए मूलाचार की प्रतिलिपि कराकर भ० रायचन्द्र' अमरचन्द दीवान अधिक ख्याति प्राप्त है। धर्मकीर्ति को अर्पित की थी। उनके दिवगत होने पर वह अमरचन्द दीवान की महत्ता का लोक में विशेष आदर ग्रंथ उनके शिष्य मलयकीर्ति को समर्पित किया गया। है। अमरचन्द दीवान की सुजनता, उदारता और धर्म
भटानियाकोल (अलीगढ़) वासी साहू पारस के पुत्र तत्परता की जितनी अधिक तारीफ की जाय वह थोड़ी साहू टोडरमल अग्रवाल ने मथुरा मे ५१४ स्तूपों का जीर्णो- है। उनका जयपुर की रक्षा मे प्रमुख हाथ है । उसके लिए द्धार करा कर प्रतिष्ठा कराई थी। और आगरा मे जैन उन्होंने अपनी देह तक का उत्सर्ग कर दिया। ऐसे परोपकारी मन्दिर का निर्माण कराया था। साथ ही वि० स० और धर्मात्मा दीवान का कौन स्मरण नही करेगा। इनके १६३२ मे पाडे राजमल से जबूस्वामी चरित का निर्माण द्वारा निर्मित मन्दिर और मूर्तियां, जैन ग्रन्थो का निर्माण कराया था। उनके पुत्र ऋपभदास ने ज्ञानार्णव की सस्कृत कार्य, और प्रतिलिपि कार्य, महत्वपूर्ण है। वर्तमान में भी टीका बनवाई थी। साहू टोडर अकबर की शाही टकसाल
इनकी सम्पन्नता श्लाघनीय है। खडेलवालो द्वारा प्रतिका अध्यक्ष और कृष्णामंगल चौधरी का मन्त्री था। बड़ा।
प्ठित मूर्ति लेख स० १२०७, १२२३ और १२३७ के धर्मात्मा, उदार और प्रकृति का सज्जन पुरुष था। अग्र
देखने में आए है'। खडेलवाल समाज के अनेक विद्वानों वालों ने ग्वालियर किले की सुन्दर मतियों का निर्माण का परिचय भी लेखक द्वारा लिखा गया है जो अनेकान्त मे कराया था और कवि रइधू से अनेक ग्रन्थों की रचना प्रकाशित है, पं० टोडरमलजी, दीपचन्द जी शाह, दौलतकराई थी। इसी तरह दिल्ली के राजा हरसुखराय सुगन रामजी, जयचन्द जी, सदासुखदास जी बुधजन जी (वधीचन्द्र ने अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था। चंद जी) आदि का परिचय पढने योग्य है। इनके द्वारा राजा हरसुखराय भरतपुर राज्य के कोसलर भी थे। प्रतिष्ठित मदिर, मूर्तिया और शास्त्रभडार आदि इनकी इनके द्वारा निर्मित मन्दिर-मतियाँ और ग्रन्थों का निर्माण, महानता के निदर्शक और गौरव के प्रतीक है। शास्त्रों का निर्माण तथा प्रतिलेखन कार्य भी महत्व- १. देखो, अनेकान्त वर्ष १३ कि० १० मे दीवान रामचद पूर्ण है।
छावड़ा वाला लेख खडलवाल-यह उपजाति भा चारासा उपजातिया २. देखो, दीवान अमरचन्द, अनेकान्त वर्ष १३ कि०८ में से एक है। इस जाति का निकास स्थान 'खडेला है पृ० १९८१ जो राजस्थान में एक छोटासा स्थान है, जो कभी अच्छा ३. संवत् १२०७ । माघ वदी ८ खडेलवालान्वये समृद्ध रहा है। इस जाति के चौरासी गोत्र बतलाये जाते
साहु माहवस्तत्सुत वाल प्रसन भार्या सावित्री तत्सुत है। जिनमे छावड़ा, कासलीवाल, वाकलीवाल, लुहाड्या, बीकऊ नित्य प्रणमन्ति । पाण्डया, पहाडया, सोनी, गोधा, भौसा, काला और खडेलवालान्वये साहु धामदेव भार्या पल्हा पुत्र साल भार्या पाटनी आदि है। इन गोत्रों की कल्पना ग्राम-नगर और
वस्त्रा स० १२२३ वैसाख सुदी ८ प्रणमन्ति नित्यम् । व्यवसाय प्रादि के नाम पर हुई है। इसमे भी दो धर्मों के
संवत् १२३७ अगहन सुदी ३ शुक्ले खडिल्लवालान्वये मानने वाले हैं। जैन और वैष्णव । यह जाति सम्पन्न साहु वाल्हल भार्या वस्ता सुत लाखना विघ्ननाशाय और व्यापार में कुशल रही है । आज व्यापार आदि की प्रणमन्तिनित्यम् । अनेकान्त में प्रकाशित पाहार दष्टि से ही यह भारत के सभी नगरों में पाये जाते है। के मूर्तिलेख वर्ष १०
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जैन समाज को कुछ उपजातियाँ
गोलापूर्व-जैन समाज की ८४ उपजातियो मे से इस जाति के द्वारा प्रतिष्ठित अनेक मूर्तियां देखने में यह भी एक सम्पन्न जाति रही है। इस जाति का वर्तमान पाती है। अनेक विद्वान तथा श्रीमान पुरुष भी इसमे होते में अधिकतर निवास बंदेल खण्ड मे पाया जाता है। साथ रहते है और कुछ वर्तमान भी है। अनेक ग्रथकार और ही सागर जिला, दमोह, छतरपुर पन्ना, सतना, रीवा कवि भी हुए है। इसके निकास का स्थान गोल्नागढ़ है। पाहार, महोबा, नावई धुवेला. जबलपुर, शिवपुरी और गोलाराडान्वय में खरोमा एक जाति है जिसका गोत्र ग्वालियर के आस-पास के स्थानो में निवास रहा है। कुलहा कहा जाता है। इनके गोत्रों की संख्या कितनी १२वी शताब्दी और १३वी के मूर्ति लेखो से इसकी समृद्धि और उनके क्या-क्या नाम है यह मेरे जानने मे नही का अनुमान किया जा सकता है। इस जाति का निकास पाया। एक यत्र लेख में 'सेठि' गोत्र मिलता है जिससे गोत्र गोल्लागढ (गोला कोट) की पूर्व दिशा से हुआ है। मान्यता का स्पष्ट प्राभास होता है । उसकी पूर्व दिशा में रहने वाले गोलापूर्व कहलाते है। कवि रइधू ने सम्यक्त्व कौमुदी या सावयचरिउ की यह जाति किसी समय इक्ष्वाकु वशी क्षत्रिय थी। किन्तु प्रशस्ति मे ग्वालियरवासी साहू सेऊ के पुत्र सघाधिप व्यापार प्रादि करने के कारण वणिको (वानियो) मे कुसराज की प्रेरणा से उक्त ग्रथ बनाया था और एक इसकी गणना होने लगी। ग्वालियर के पास कितने ही जिन मन्दिर का भी निर्माण कराया था जो ध्वजा पंक्तियों गोलापूर्व विद्वानोने अन्य रचना और ग्रथ प्रतिलिपि की है। से अलकृत था। ग्वालियर के अतर्गत श्योपुर (शिवपुरी) में कवि धनराज गोलसिंघारे (गोल शृगार)-गोल्लागढ़ में सामूहिक गोलापूर्व ने स० १६६४ से कुछ ही समय पूर्व 'भव्यानन्द रूपसे निवास करने वालोमे वे उसके सिंगार कहे जाते है। पचासिका' (भकामर का भापा पद्यानुवाद) किया था यदि शृगार शब्द का ठीक अर्थ सहज अभिप्राय को व्यक्त और उनके पितृव्य जिनदास के पुत्र खड्गसेन (ग्रसिसेन) करना ठीक मा
करना ठीक माना जाय तो वे उसके भूपण कहला सकते है। ने पन्द्रह-पन्द्रह पद्यों की एक सस्कृत जयमाला बनाई थी। इसकी एक जीर्ण-शीर्ण सचित्र प्रति श्वे० मुनि कान्ति सागर
इसके उदय अभ्युदय और ह्रास आदि का कोई इतिके पास है। यह टीका पाडे हेमराज की टीका से पूर्ववर्ती है। १. सं० १४७४ माघसदी १३ गुरी मूलसधै गोलाराडामुति लेखो और मन्दिरों की विशालता से गोलापुर्वान्वय
न्वये सा० लम्पू पुत्र नरसिंह इद यत्रं प्रतिष्ठापित । गौरवान्वित है। वर्तमान में भी उसके अनेक शिखर बन्द
(अनेकान्त वर्ष १८ कि०६१० २६४) मन्दिर मौजूद हैं । धुलेवा के सं० ११६६ के मूर्ति लेख तो
स० १६५८ मूलसघे भ० ललितकीर्ति उपदेशात् मस्कृत पद्यो मे अकित है। शेष सब गद्य मे पाये जाते है।
गोलालारे सा० रूपनुभार्या रुक्मनी पुत्र सा० चतुर्भुज अनेक सम्पन्न परिवार और अच्छे विद्वान और ग्रथकार
भार्या हीरा पुत्र भाउने हरिवंस मनोहर नित्यं इस जाति मे पाये जाते है। उन पर से इस जाति की प्रणमन्ति । (अनेकान्त वर्ष १८ कि० ६१० २६३) समृद्धि का मूल्याकन किया जा सकता है। गोलापून्विय के
स० १७२६ माघसुदी १३ रवी पद्मनन्दि सकलकीर्ति स० ११६६, १२०२, १२०७, १२१३ और १२३७ अादि
उपदेशात् गोलालारे सेठि गोत्र सिलच्छे भा० कपूरा के अनेक लेख है: जिन्हे लेख वृद्धि के भयसे छोड़ा जाता है।
पुत्र खांडे राय भा० वसन्ती पुत्र ३ जेठा पुत्र विसुनदास इसमें अनेक ग्रथकार विद्वान और कवि है । वर्तमान में भी
भा० लालमती द्वि० पुत्र श्रीराम भा० सुवती तृतीय अनेक विद्वान डा०, प्राचार्य और शास्त्री व्याख्याता और
पुत्र भगवानदासेन यत्र प्रतिष्ठितं वरना ग्रामे । सुलेखक विद्वान है।
(अनेकान्त वर्ष १८ कि. ६ पृ० २६४) गोलालारे-गोल्लागढ़ के समीप रहने वाले गोला- २. जेण कराविउ जिणहरु ससेउ, घयवड पंतिहि रहलारे कहलाते हैं। यह उपजाति यद्यपि संख्या में अल्प सूरते। रही है। परन्तु फिर भी अपना विकास करती रही है।
-अनेकान्त वर्ष १७ कि० १ पृ. १३
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XV
अनेकान्त
वृत्त ज्ञात नहीं हो सका और न इसके ग्रंथकर्ता विद्वान कवियों का ही परिचय ज्ञात हो सका। मूर्ति लेख भी मेरे अवलोकन मे नहीं प्राया । एक सिद्धयंत्र का लेख प्रवश्य मिला है। जो स० १६८८ है उसमे गोल सिंघार गोत्र का स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है जिससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि इस उपजाति में भी गोत्रो की मान्यता है। संभवतः लम्बकल्क, गोलारादाग्थय घोर गोल सिंगारान्यय ये तीनों नाम गोलालारीय जाति के अभिसूचक है। किसी समय ये तीनो एक रूप में रहे होंगे। पर अलग-अलग कब और कैसे हुए, इसके जानने का भी कोई साधन प्राप्त नही है । इसलिए इसके सम्बन्ध मे विशेष विचार करना संभव नहीं है । वह यत्रलेख इस प्रकार है :
रगा
" सं० १६८८ वर्षे प्रापाठ वंदी ८ श्री मूलस बलात्कार गणे सरस्वती गच्छे कुंदकुंदाम्नाये भ० श्री शीलभूषण देवास्तत्पट्टे भ० श्री ज्ञानभूषणदेवास्त भ० श्री जगत्भूषणदेवास्तदास्नायें गोल सिगारान्वये गोत्रे साहू श्री लालू तस्य भार्या जिना तयो पुत्र कुवेरसी भार्या चढा तयोः पुत्राः चत्वारि ज्येष्ट पुत्र धरमदास द्वितीय पुत्र दामोदर तृतीय पुत्र भगवान [ दास ] चतुर्थ जमधरदास भार्या अर्जुना एतंयामध्ये धरमदास दशलक्षणी व्रत उद्यापनार्थं यंत्र प्रतिष्ठाकारापित शुभ भवतु । जैन सि० भा० भा० २ किरण ३ पृ० १८ जैसवाल यदु यादव, जायव, जायम ये मध्द एक ही जैसवाल नामक क्षत्रिय जाति के सूचक है । यदु कुल एक प्रस्थात एवं ऐतिहासिक कुल है। यदुकुल का हो अपभ्रंश जायव या जायस बन गया है। यह एक प्रसिद्ध क्षत्रिय वंश है। इसी पावन कुल में जैनियो के बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ और श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था जो कृष्ण के चचेरे भाई थे। इस कुल में जैनधर्म के धारक अनेक राजा राजश्रेष्ठी, महामात्य और राज्यमान महापुरुष हुए है। यह क्षत्रिय कुल भी वैदयकुल मे परिवर्तित हो गया है ।
वि० सं० १९४५ में कच्छप वंशी महाराज विक्रमसिंह के राज्यकाल मे मुनि विजयकीति के उपदेश से जैसवाल वंशी पाहड, सूर्पट, देवधर और महीचन्द्र यादि
चतुर श्रावको ने ७५० फीट लम्बे और ४०० वर्ग फीट चौडे अडाकार क्षेत्र में विशाल मंदिर का निर्माण कराया था और उसके पूजन, सरक्षण एवं जीर्णोद्धार आदि के लिए उक्त कच्छपवशी विक्रमसिंह ने भूमिदान दिया
था ।
वि०स० १११० मे जैसवाल बधी साहू नेमिचन्द ने कवि श्रीधर अग्रवाल से 'वर्धमान चरित' की रचना कराई थी। जैसवाल कवि माणिक्यराज ने 'अमरसेन चरित' और नागकुमारचरित की रचना की थी।
सोमरवशी राजा वीरमदेव के महामात्य जैसवाल वंशी कुशराज ने ग्वालियर मे चन्द्रप्रभ का मन्दिर बन वाया था और पद्मनाम कायस्थ से भ० गुणकीर्ति के प्रदेश से 'यशोधर चरित' अपरनाम दयासुन्दर विधान काव्य की रचना कराई थी। और सवत् १४७५ में थापा सुदी ५ के दिन ग्वालियर के राजा वीरमदेव के राज्य काल में कुशराज ने एक यंत्र को प्रतिष्ठित किया था, जो अब नरवर के मन्दिर मे विराजमान हैं।
१.
२.
कविवर लक्ष्मण ने जो जैसवाल कुन मे उत्पन्न हुधा
1
४.
See Epigraphica Indka Vol || P. 227-240 एयारह एहि पर विगह, सवच्छ सय वहि समेपहि जे पढम पक्ख पंचमि दिणे, सूरुवारे गयणगणि ठिइयणे ॥
वर्धमानचरित प्रशस्ति २. देखो, जंनग्रंथ प्रस्ति संग्रह भा० २० ४७, ६१ दोनों ग्रंथो का रचनाकाल कृम से १५७६ और १५७९ है ।
स० [१४७५ भाषाढ़ मुदि १ गोपाद्रिममा राजाधिराज श्री वीरमेन्द्रराज्ये श्री कर्षतां जनैः संघीन्द्र वंशे [ साधु भुल्लन भार्या पितामही] पुत्र जैनपाल भा० [ लोणा देवी ] तयो पुत्रः परमश्रावकः साधु कुशराजो भूत । भार्या [तिस्त्रा ] रल्हो, लक्षण श्रो, कौशीरा तयो तत्पु कल्याणमात्र भूत भायें धर्म श्री जयम्मि दे इत्यादि परिवारेण समे शाह कुशराजा यंत्र प्रणमति । नरबर जैन मन्दिर
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था, सं० १२७५ मे जिनदत्त चरित की रचना की थी। और स० १३१३ में 'अणुवयरयण पव' की रचना की थी' । इन्ही सब कार्यों से इस जाति की सम्पन्नता और धार्मिकता पर प्रकाश पड़ता है। इस जाति के द्वारा प्रतिष्ठित अनेकमूर्ति लेख भी उपलब्ध होते हैं । जिनमे से कुछ यहा दिये जाते है जिनसे उनकी धर्मत्रियता और जिनभक्ति का परिचय मिल जाता है । परवार या पौरपट्ट परवार जाति का उल्लेख पौर पाटान्वय के रूप में मूर्तिलेखो में मिलता है । पर इसका निकास कब कहाँ और कैसे हुआ, इस पर अभी तक कोई प्रामाणिक विवेचन नहीं किया गया। कुछ लोग प्राग्वाट या पोरवाडी के साथ परवारो का सम्बन्ध बतलाते है । पर उसने कोई प्रामाणिक उल्लेख उपस्थित नही किया गया । पोरवाड और प्राबाट शव्द संभवतः एक
जैन समाज की कुछ उपजातियां
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५. बारह सय सत्तरयं पचोत्तर विक्कम कालवि दत्त पढम पक्व रविवार छट्टि सहारइ पूसमासे सम्मत्तउ ॥ विनदत्तचरितप्रदारित
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६. तेरह सब तेरह उत्तराल परगलिय विक्कमाइच्च काल ।
पर सम्वहं समय, कतिय मासम्म पसेपि सत्तमि दिन गुरु वारे समोए, पट्टमि खिमे साहिज्ज जोए || - प्रणुक्यरयण पईच प्रशस्ति ७. संवत् १२०३ माघमुदी १३ जैसवालान्वयं साहू खोने भार्या यशकरी सुन नायक साहु भ्रातृ पाल्हण पील्हे, माहू परने महिणी सुत श्रीरा प्रणमन्ति नित्यम् । सवत् १२०३ माचमुदी १३ जमवलान्वये साहु बाहड़ भार्या शिवदेवि सुत साहु सोमिनि भ्राता साहु माल्ह जन प्राह लालू साल्हे प्रणमन्ति नित्यम् । स० [१२०३ माघसुदी १३ जैसवानान्वये साहू खोने भार्या जसकरी सुत नायक साहू नान्तिपाल बोल्हे परये महिपाल मृत श्री प्रणयन्ति नित्यम् । सं० १२०७ माघवदी ८ जैसवालान्वये साहु तना तत्सुताः श्री देवकान्त-भूपसिंह प्रणयन्ति नित्यम् ।
प्रकार वर्ष १०, किरण २,३
५५
अर्थ के वाची हो सकते है, किन्तु पौरपट्ट नही । पौरपट्ट के साथ प्रष्ट शाखा और चतु शाखा का सम्बन्ध उल्लिखित मिलता है पर पोरवाड के साथ ऐसा कोई सम्बन्ध देखने में नहीं प्राया उपजातियों में गोभी की परम्परा है । वैयाकरण पाणिनी ने गोत्र का लक्षण 'अत्यन्त पौत्र प्रभुति गोत्रम् किया है। अर्थात् पौत्र से शुरू करके संतति या वंशजो को गोत्र कहते है । वैदिक समय से लेकर ब्राह्मण परम्परा में गोत्र परम्परा श्रखण्ड रूप से चली आ रही है। महाभारत में मूल गोत्र चार बतलायें है अंगिरा, काश्यप, वशिष्ठ और भृगु जन संख्या बहने पर गोत्र संख्या भी बढ़ने लगी। गोत्र परम्परा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वंदयो मे उपलब्ध होती है। अन्य जातियों में गोत्र परम्परा किस रूप में प्रचलित है यह मुझे ज्ञात नही है । परवारो मे १२ गोत्र माने जाते है जो गोइल्ल, कामिल्ल, भारिल्ल, कोछल्ल और फागुल आदि है । किन्तु एक गोत्र के बारह बारह मूर होते है । अतएव मूरो की संख्या १४४ हो जाती है । मूर अन्य जातियों में भी प्रचलित है या नही कुछ ज्ञात नहीं होता उपजातियां का इतिवृत दशवी शताब्दी से पहले का देखने में नहीं पाता पचराई के शान्तिनाथ मन्दिर मे वि० सं० १९२२ का लेख है, उसमें पौर पट्टान्वय' का उल्लेख है :
पौर पट्टान्वये शुद्धं साधु नाम्ना महेश्वरः । महेश्वरे व विख्यातस्तत्युतः धर्म सज्ञकः ॥ " चन्देरी की ऋषभदेव की प्राचीन मूर्ति पर भी सं० ११०३ वर्षे माघ सुदि बुधे मूल संघे लिखा हुआ है । इससे पुरातन उल्लेख अभी प्राप्त नहीं हुए।
इस जाति मे भी अनेक विद्वान होते रहे है । उनमे से एक विद्वान की कृति के नाम के साथ संक्षिप्त परिचय दिया जाता है :
सं० १२७१ में कवि देने २६ पद्यात्मक एक चौबीसी छन्द नाम की कविता बनाई थी जो उपलब्ध है जिसका जन्म परवार जाति में हुआ था। इनके धर्मसाह, पंतसाह, उसाह तीन भाई थे । यह टिहडा नगरी के निवासी थे । इनके द्वारा बनवाए हुए अनेक मन्दिर और मूर्तियां तथा ग्रन्थ रचना देखी जाती है। यह भी एक सम्पन्न जाति
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अनेकान्त
है। इसमें अनेक महापुरुष हुए है। प्रतिष्ठित मन्दिर पूर्वकाल में अत्यन्त समृद्ध थी। इसकी समद्धि का उल्लेख और मूर्तियां विक्रम की १२वीं शताब्दी से पूर्व की नहीं खजुराहो के स० १०५२ के शिलालेख मे पाया जाता मिलतीं।
है। इस नगरी में गगनचुम्बी अनेक विशाल भवन बने विक्रम की १३वी शताब्दी के विद्वान पं० आशाधर
हुए थे। यह नागराजाओं की राजधानी थी। इसकी जी ने महीचन्द्र साहु का उल्लेख किया है, जो पौरपट्ट खुदाई मे अनेक नागराजारों के सिक्के वगैरह प्राप्त हुए वंशी समुद्धर श्रेष्ठी के पुत्र थे। इनकी प्रेरणा से 'सागार- हैं। 'नव नागा: पद्मावत्या कातिपुर्या' वाक्य से भी स्पष्ट धर्मामृत' की टीका की रचना की। इनके द्वारा प्रतिष्ठित है। ग्यारहवीं शताब्दी मे रचित सरस्वती कठाभरण मे कई मूर्तिया देवगढ़, आहार आदि मे पाई जाती है । बार- भी पद्मावती का वर्णन है। मालती माधव में भी पद्माहवी (११२२)शताब्दी के उत्कीर्ण पचराई लेख का ऊपर वती का वर्णन पाया जाता है। वर्तमान में ग्वालियर मे उल्लेख किया गया है। १३वी १४वी और १५वी शताब्दी 'पद्मपवाया' नाम का एक छोटा सा गाँव बसा हुआ है के तीन लेख नीचे दिये जाते है :
जो देहली से बम्बई जाने वाली रेलवे लाइन पर देवरा स० १२५२ फाल्गुण सुदि १२ सोमे पोर पाटान्वये नामक स्टेशन से कुछ ही दूरी पर स्थित है। इस कारण यशहृद रुद्रपाल साधु नाल भार्या यनि..... "पुत्र सोल पद्मावती नगरी ही पद्मावती पुरवालो के निकास का भीमू प्रणमन्ति नित्यम्।
स्थल है। उपजातियो मे यह एक समृद्ध जाति रही है। (-चन्देरी का पार्श्वनाथ मन्दिर) जिसकी जनसख्या चालीस हजार के लगभग है। इसमे सं० १३४५ प्राषाढ सुदि २ बधौ (धे) श्री मूल सघे भी अनेक विद्वान, त्यागी, ब्रह्मचारी और साधु पुरुष हुए भट्टारक श्री रत्नकीर्ति देवा. पौरपाटान्वये साधु याहृद है। वर्तमान में भी है जो धर्मनिष्ठ है, जैनधर्म के परम भार्या वानी सुतश्चासी प्रणमन्ति नित्यम् ।
श्रद्वाल और धावक व्रतो का अनुष्ठान करते है। इनके (-प्रानपुरा चन्देरी)
द्वारा अनेक मन्दिर और मूर्तियो का निर्माण भी हुआ है। स० १२१० वैशाख सुदी १३ पौर पाटान्वये साह महाकवि रइधू जैसा विद्वान कविभी इसी जातिमे उत्पन्न टुडु भार्या यशकरी तत्सत साह भार्या दिल्ली नलछी हुअा था। जिसने सं० १४४८ से १५२५ तक अनेक ग्रन्थों तत्सुत पोषति एतै प्रणमन्ति नित्यम् ।
की रचना की, और अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा सम्पन्न की (आहार क्षेत्र लेख) सवत् १४६७, १५०६ और १५२५ की प्रतिष्ठित मूर्तियो ___ सं० १४०३ वर्षे माघसूदी बधे मूल संघे भट्टारक मे कुछ मूर्तिया रइधु के द्वारा प्रतिष्ठित मिलती श्री पद्मनन्दि देव शिष्य देवेन्द्रकीति पौरपट्ट अष्टशाखा है। ग्वालियर किले की मूर्तियों का निर्माण और प्रतिष्ठा प्राम्नाय सं० थणऊ भार्या पुतस्तत्पुत्र स० कालि भार्या रइधू के समय में हुई है। कवि छत्रपति की और कवि आमिणि तत्पुत्र स० जसिघ भार्या महासिरि तत्पुत्र स०... ब्रह्म गुलाल की कविताएं भी भावपूर्ण है। रइध की प्रायः
(चन्देरी की ऋषभदेव मूर्ति) सभी रचनाएँ तोमरवशी राजा डूगर सिंह और कीर्ति देवगढ के एक लेख में जो स० १४६३ का है, उसमे सिह के राज्यकाल मे रची गई है। यद्यपि यह उपजाति पौरपाटान्वय के साथ अष्टशाखा का भी उल्लेख है। अन्य उपजातियो की अपेक्षा कुछ पिछड़ी हुई है। फिर अष्टशाखा और चार शाखा का उल्लेख परवारों में ही भी अपना शानदार अस्तित्व बनाए हुए है। ये सभी पाया जाता है। जब तक भारतीय जैन मूर्तियो के समस्त दिगम्बर जैन पाम्नाय के पोषक और वीस पथ के प्रबल लेख संकलित होकर नहीं पाते, तब तक हम उन उप- समर्थक है । प्रचारक है । पद्मावती पुरवाल ब्राह्यण भी जातियों के सम्बन्ध में विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता। पाये जाते है। यह अपने को ब्राह्मणो से सम्बद्ध मानते
पद्मावती पुरवाल-इस उपजाति का निकास 'पोमा- है। इस जाति के विद्वानो मे ब्राह्मणो जैसी वृत्ति पाई वई' (पद्मावती) नाम की नगरी से हमा है। यह नगरी जाती है। वर्तमान मे इसमे अनेक विद्वान और प्रतिष्ठित
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जैन समाज को कुछ उपजातियां
घनी व्यक्ति पाए जाते हैं। इस जाति का अधिकाश के मणि साह सेठ के द्वितीय पुत्र, जो मल्हादेबी की कुक्षी से निवास आगरा जिला, मैनपुरी, एटा, दिल्ली, ग्वालियर जन्मे थे, बड़े बुद्धिमान और राजनीति में दक्ष थे। इनका और कलकत्ता आदि स्थानों में पाया जाता है। नाम कण्ह या कृष्णादित्य था, माहवमल्लन के प्रधान मंत्री
पल्लिबाल-पालि नगर से पल्लिवालों का निकास थे। जो बड़े धर्मात्मा थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुप्रा है। यह उपजाति भी अपने समय में प्रसिद्ध रही 'सुलक्षणा' था जो उदार, धर्मात्मा, पतिभक्ता और रूपहै। इनके द्वारा भी मन्दिर और मूर्तियों का निर्माण वती थी। इनके दो पुत्र थे हरिदेव और द्विजराज । इन्हीं हुमा है। सेठ छदामोलाल जो फिरोजाबाद पल्लिवाल कण्ह की प्रार्थना से कविलक्ष्मण ने वि० स० १३१३ में कुल के एक संभ्रान्त परिवार के व्यक्ति है। उन्होंने जैन अणुवय-रयण-पइव नाम का ग्रन्थ बनाया था। नगर मे एक सुन्दर विशाल मन्दिर का निर्माण कराया कवि धनपाल ने अपने 'बाहुवलि चरित' की प्रशस्ति है। पल्लिवालों द्वारा प्रतिष्ठित अनेक मतिया भी उप- में चन्द्रवाड में चौहानवशी राजा अभयचन्द्र के और उनके लब्ध होती है। १० मक्खनलाल जी प्रचारक इसी जाति पुत्र जयचन्द के राज्यकाल में लम्बकचुक वश के साहु के भूपण है । इस जाति की पावादी अल्प है। इस जाति सोमदेव मन्त्रि पद पर प्रतिप्ठित थे। और उनके द्वितीय के लोग दिगम्बर श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायो मे पाये
पुत्र रामचन्द्र के समय सोमदेव के पुत्र साहू वासाधर जाते है।
गज्य के मत्री थे, जो सम्यकत्वी जिनचरणो के भक्त, लमेच-यह भी एक उपजाति है जो मूतिलेखो और
जैनधर्म के पालन में तत्पर, दयालू, मिथ्यात्व रहित, बहुग्रन्थ प्रशस्तियो में 'लम्ब कचुकान्वय' के नाम से प्रसिद्ध
लोक मित्र और शुद्ध चित्त के धारक थे। इनके पाठ है। मूर्ति लेग्बो मे लम्बकचुकान्वय के साथ यदुवंशी
पुत्र । जमपाल, रतपाल, चन्द्रपाल, विहराज, पुण्यपाल,
वाहड़ और रूपदेव । ये पाठो ही पुत्र अपने पिता के लिखा हुमा मिलना है। जिससे यह एक क्षत्रिय जाति ज्ञात होती है। यद्यपि वर्तमान मे ये क्षत्रिय नही है वैश्य
समान धर्मज्ञ और सुयोग्य थे। भ० प्रभाचन्द्र ने स० है। इस जाति का निकास किसी लम्ब काचन नामक
१४५४ मे वासाधर की प्रेरणा से बाहबलि चरित की
रचना की थी। इन्होने चन्द्रवाड में एक मन्दिर बनवाया नगर से हुअा जान पड़ता है। इसमें रपरिया, रावत, ककोग्रा और पचोले गोत्रो का भी उल्लेख मिलता है।
और उसकी प्रतिष्ठा की थी। इन सब उल्लेखों से स्पष्ट इस जाति मे अनेक पुरुष प्रतिष्ठित और परोपकारी हुए १ देखो अणुवय-ग्यण-पईव, प्रशस्ति, तथा चन्द्र वाड नाम है। जिन्होने जिन मन्दिरो और मूर्तियो का निर्माण का मेरा लेख जैनसि० भा० भा० २३ कि० १, पृ. ७५ कराया है, अनेक ग्रन्थ लिखवाए है। इनमे बुढेले और २ तेरह सय तेरह उत्तराल, परिगलियविक्कमाइच्च काल । लमेच ये दो भेद पाये जाते है, जो प्राचीन नहीं है। बाबू सवेय रहइ सत्वह समक्ख, कत्तिय-मासम्मि असेय-पक्ख ॥ कामता प्रसाद जी ने 'प्रतिमा लेख सग्रह' मे लिखा है ३ थी लम्बकेचुकुल पद्मविकासभानुः, कि-बुढेले लमेचू अथवा लम्ब कचुक जाति का एक गोत्र सोमात्मजो दुरितदास चय कृशानुः । था; किन्तु किसी सामाजिक अनवन के कारण स० १५६० धक साधन परो भुविभव्व बन्धु, और १६७० के मध्य किसी समय यह पृथक् जाति वन वासाघरो विजयते गुणरत्न सिन्धुः ॥ गया। बढेले जाति के रावत संधई आदि गोत्रो का
-बाहुबलि चरित सघि ४ उल्लेख मिलता है। इससे प्रकट है कि इस गोत्र के साथ जिणणाहचरणभत्तो जिणधम्मपरोदयालोए। अन्य लोग भी लमेचुत्रों से अलग होकर एक अन्य उप- सिरि सोमदेव तणयो गंदउ वासद्धरो णिच्वं ॥ जाति बनाकर बैठ गये। इन उपजातियों के इतिवृत्त के सम्मत्त जुत्तो जिण पायभत्तो दयालुरत्तो बहुलोयमित्तो । लिए अन्वेषण की आवश्यकता है। चन्द्रवाड के चौहान मिच्छत्तचत्तो सुविसुद्धचित्तो वासाधरो णंदउ पुण्ण चित्तो। वशी राजा पाहवमल्ल के राज्यकाल मे लंब कंचुक कुल
-बाहुबलिचरित संघि ३
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अनेकान्त
है कि लम्ब कंचुक अाम्नायी भी अच्छे सम्पन्न और राज- अपना योगदान दिया है। इस जाति के १५ गोत्र बतमान्य रहे हैं। वर्तमान में भी वे अच्छे धनी और प्रति- लाये जाते है जिनका उल्लेख डा. विद्याधर जोहरापुरकर ष्ठित है। यहाँ लम्बकंचकान्वय के एक दी मूतिलेख उद्धत ने किया है। खरोड, खंडारिया. वोखडिया, गोवाल, किये जाते हैं :
चवरिया, जुग्गिया, ठोलया, नगोत्या, पितलिया, वागदिया, १ संवत् १४१३ वर्षे वैशाख सुदी १३ बुधे श्रीमूल- भूरिया, मढया, सावला, सेठिया, हरसोरा । इनमें ढोल्या संघे प्रतिष्ठाचार्य श्री जिनचन्द्रदेव लम्बकचुक साह निगोत्या-ये दोनों गोत्र खंडेलवालों के गोत्र ठोल्या और सहदेव भार्या चम्पा पुत्र दोनदेव भार्या मूला पुत्र लखनदेव, निगोत्या से साम्य रखते है और हरसोरा गोत्र राजस्थान पद्मदेव, धर्मदेव प्रणमन्ति नित्यम् ।
के 'हरसोरा ग्राम की याद दिलाता है।' जहाँ आज भी -जैनसि० भा० भा० २ १०६ अनेक वघेरवाल जन विद्यमान है । वघेरवालो का वर्तमान २ सं० १४१२ वर्षे वैशाख सुदी १३ बधे मूलसघे निवास महाराष्ट्र और राजस्थान (जयपुर) में पाया जाता प्रतिष्ठाचार्य प्रभाचन्द्रदेव लम्बकचुक सा० न्याङ्गदेव भार्या है, वघेरवालो के २०-२५ घर धार स्टेट में है, और अन्यत्र ताण पूत्र लाल्ह भायां महादेवी वारम्बारं प्रणमति । भी होगे । प्राचार्य कल्प प० पाशाधर जी इसी जाति के
-जैनसि० भा० भा० २, पृ०५ अलकार थे। जिनके द्वारा धर्मामृत नाम का महान ग्रथ वघेरवाल-इस जाति का निकास 'वघेरा' से है। स्वोपज्ञ टीका सहित बनाया गया है । इनका समय विक्रम वघेरा राजस्थान में केकड़ी से १०-११ मील के लगभग की तेरहवीं शताब्दी है । अनगार धर्मामत की टीका वि० दूर है । यद्यपि वर्तमान मे वहां वघेरवालों का एकभी घर सं० १३०० मे पूर्ण हुई है। विद्यमान नही है। किन्तु राजस्थान मे अजमेर और
चित्तौड के दिगम्बर जैन कीर्ति स्तम्भ के निर्मापक जयपुर के पास-पास रहने वाले वघेरवाल अपनी पंतक शाह जीजा वधेरवाल वशी है। जो साह सानाय के पुत्र जन्मभूमि को देखने और वहा की शान्तिनाथ की मति के थे, और जीजा के पुत्र पूर्णसिंह या पुण्यसिह भी अपने दर्शन करने अवश्य प्राते रहने के मामले को पूर्वजो की कीर्ति का सरक्षण करते रहे है। इनके द्वारा के महीने में केकड़ी से वघेरा गया था तो वहा अनेक समा
प्रतिष्ठित मूर्तिया और मन्दिर अनेक स्थानों पर पाये जाते गत वघेरवाल सज्जनो से परिचय हुमा। उनसे पूछने पर
है'। नेनवां (राजस्थान) में वघेरवालो का अच्छा मन्दिर ज्ञात हुआ कि किसी समय यह स्थान वघेरवालो से प्रावृत
बना हुआ है। अनेकान्त वर्ष २२ किरण १ मे चित्तौड़ के
कीति स्तम्भ से सम्बन्धित जो अप्रकाशित अपूर्ण शिलालेख था, हमारे पूर्वज पहले यही रहे । वघेरवाल कुटुम्बियो के मध्य में बसा हुआ था, किसी समय उसका विनाश हुआ
छपा है उससे ऐसा आभास होता है कि उक्त कीर्ति स्तम्भ होगा । वहाँ अनेक खण्डहर पड़े है। किसी समय वह एक १. स. १५३२ वैशाख सुदी ७ श्री मूलसंघे भट्टारक बड़े नगर के रूप में प्रसिद्ध होगा, इस समय वह एक जिनचन्द्रदेवा वधेरवालान्वये साह टीकम पुत्र कोनो छोटा-सा गाँव जान पडता है। १२वी १३वी शताब्दी
भार्या धर्मणी तस्य पुत्र वछमाडल नित्य प्रणमति । की प्रतिष्ठित अनेक मूर्तिया विराजमान है, जिनमे शान्ति
(पादौदी मन्दिर जयपुर) नाथ की मूर्ति बडी मनोग्य है। यहाँ दो मन्दिर है, एक
सं० १५७१ जेठ सुदी २ मूलसघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये कुछ पुराना और दूसरा नवीन । स्थान अवश्य प्राचीन
प्रभाचन्द्राम्नाये बघेलवाल वशे रतन... । जान पड़ता है। एक स्थान पर दो बड़े शिलालेख भी
स० १७४६ सावन सुदी ६ मूलसघे भ० जगत्कीर्ति देखने में आये पर वे साधन सामग्री के प्रभाव मे पढ़े नहीं
तदाम्नाये वघेरवालान्वये मघा गोत्रे सा० श्री नेपूसी जा सके।
भार्या नौलादे तयोः पुत्रः सं० श्री किशनदास प्रतिष्ठा इस उपजाति में भी अनेक महापुरुष होते रहे है कारापिता डूगरसी छील नित्य प्रणमति । जिन्हें समय-समय पर जैन धर्म के उत्थान एवं प्रसार में
(अनेकात वर्ष १८ किरण ६ पृ० २६२, २६४),
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जैन समाज की कुछ उपजातियाँ
शाह जोजा ने बनवाया और उनके पुत्र पुण्यसिंह ने उसकी निर्माण में भी यह प्रेरक रहे हैं। इनके द्वारा लिखाये विधिवत प्रतिष्ठा की। प्रतिष्ठाकर्ता मुनि विशालकीर्ति हुए ग्रन्थ अनेक शास्त्र भडारों में उपलब्ध होते है। वर्तके शिष्य शुभकीति है जो बडे विद्वान और तपस्वी थे। मान मे भी वे समृद्ध देखे जाते हैं। इनमें १८ गोत्र प्रचइनसे कीर्ति स्तम्भ के समय पर पर्याप्त प्रकाश पडने की लित हैं। खेरज, कमलेश्वर, काकड़ेश्वर, उत्तेरश्वर, मंत्रसम्भावना है।
श्वर, भीमेश्वर, भद्रेश्वर, विश्वेश्वर, सखेश्वर, अम्बेश्वर, वघेरवाल वंश में कृष्णदास नाम के कोई मिष्ठ चाचनेश्वर, सोमेश्वर, राजियानो, ललितेश्वर, काशवेश्वर, श्रावक हए है । वे चाँदखेड़ी के हाडा वंशीय राजा किशोर बूद्धेश्वर और सघेश्वर । इनके अतिरिक्त 'वजीयान' नाम सिंह के प्रामात्य थे । राज्य का सब कार्यभार वहन करते का एक गोत्र और पाया जाता है। इस गोत्र वाली वाई थे। उन्होंने चांदखेडी में एक विशाल भोयरे का निर्माण हीरो ने जो भ० सकलचन्द्र के द्वारा दीक्षित थी। उसने कराया था जो स० १७३६ मे बनकर समाप्त हुआ था। सं० १६६८ मे सागवाडे मे सकलकीति के वर्धमान पुराण उसकी उन्होंने पंच कल्याणक प्रतिष्ठा स. १७४६ मे की प्रति सकलचन्द्र को भेट की थी। कराई थी, जो महत्वपूर्ण थी। और जिसे आमेर के भट्टा- इस वंश के द्वारा निर्मित मन्दिरो में सबसे प्राचीन रक जयकीर्ति ने सम्पन्न कराई थी।
मन्दिर झालरापाटन का वह शान्तिनाथ का मन्दिर है, हुबड या हमड़-यह उपजाति भी उन चौरासी जिसकी प्रतिष्ठा हुमडवशी शाह पीपा ने वि० स० ११०३ उपजातियों में से एक है। इसका यह नामकरण कब में करवाई थी। इस जाति में अनेक विद्वान भट्टारक भी
और कैसे हुआ, इसका कोई इतिवृत्त नहीं मिलता। पर हुए हैं। यह जाति सम्पन्न और वैभवशालिनी रही है । इस जाति
भट्टारक सकलकीति और ब्रह्म जिनदास इसी वश के का निवास स्थान गुजरात, बम्बई प्रान्त और बागड प्रात
भूपण थे, जिनकी परम्परा २.३ सौ वर्षों तक चमकी। में रहा है। यह दस्सा और वीसा दो भागो मे बटी हुई
इस जाति में जैनधर्म परम्परा का बराबर पालन होता है। इस जाति में भी अनेक महापुरुष और धर्मनिष्ठ व्यक्ति हुए है। अनेक राज्य मन्त्री और कोषाध्यक्ष प्रादि
इनके अतिरिक्त गंगेरवाल, सहलवाल, नरसिंहपुरा, सम्माननीय पदो पर प्रतिष्ठित रहे है। इनके द्वारा
आदि अनेक उप जातिया है जिनका परिचय प्राप्त नही निर्मित अनेक मन्दिर और मूर्तियां पाई जाती है। ग्रन्थ ।
है, इसलिए उनके सम्बन्ध मे यहाँ कुछ प्रकाश नही डाला २. देखो अनेकान्त वर्ष २२ किरण १ ।
जा सका। ३. देखो, कृष्ण बघेरवाला का रासा, जयपुर भण्डार नोट-विशेष परिचय के लिए देखे अनेकान्त वर्ष १३ (अप्रकाशित)।
किरण ५ ।
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व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
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एक प्रतीकांकित द्वार
गोपीलाल अमर एम. ए.
मन्दिरों के प्रवेशद्वार पर अलकरण की परंपरा प्राचीन है । देव देवियों और तीर्थकरों की मूर्तियां भी प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण होती रहीं । कुछ प्रतीक भी उन पर स्थान पाते रहे । पर एक ऐसा भी प्रवेशद्वार है जिस पर ५६ प्रतीक, ८ बीजाक्षर और दो अभिलेख समूहबद्ध और शास्त्रीय रूप में उत्कीर्ण है ।
सागर ( म०प्र०) के चकराघाट मुहल्ले में 'बुघूब्या का दिगम्बर जैन मन्दिर' है । इस आधुनिक मन्दिर के दूसरे खण्ड पर १६३५ ई० मे यहाँ प्रसिद्ध दानवीर सिंघई रेवाराम ने एक वेदी स्थापित करायी जिस पर आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ की सफेद संगमर्मर की मूर्ति स्थापित है ।
यह वेदी जिस गर्भगृह में है उसके प्रवेशद्वार ने आधुनिक होकर भी प्राचीन भारतीय कला की बेशकीमत विरासत सहेज रखी है । ५ फु० ७ इ० ऊंचा श्रौर ४ फु० १ इं० चौड़ा यह द्वार देशी पत्थर का बना है । उस पर बार्निश कर दिया गया है द्वार को जालीदार शटर से बंद किया जाता है ।
।
द्वार की आधार शिला पर एक पंक्ति का अभिलेख तर्जनी दिखाता हुआ हाथ 'सिंघई उमराव श्रात्मज निरवाण सवत् २४६२
। इसके प्रादि और अत में अंकित है। अभिलेख के शब्द है बुद्धू लाल तत पुत्र रेवाराम वीर विक्रम संवत् १६६२ सन् १९३५' ।
बायें पक्ष पर ऊपर से नीचे, पहले से बारहवे तक और दायें पक्ष पर ऊपर से नीचे, तेरहवे से चौबीसवें तक तीर्थकर चिह्न उत्कीर्ण हैं। जन्मकाल में तीर्थंकर के दाये चरण के प्रगृठे पर जो चिह्न होता है उसी से उनकी मूर्ति की पहचान की जाती है । एक अन्य मान्यता के अनुसार जो व्यावहारिक भी है, तीर्थकर की ध्वजा पर जो चिह्न होता है उसी से उनकी मूर्ति भी पहिचानी जाती है। इन चिह्नों की परंपरागत सूचियों में कुछ अन्तर मिलता
है। यहां जो चिह्न उत्कीर्ण हैं वे सम्बद्ध तीर्थकर के साथ ये है : १. बैल - श्रादिनाथ, २. हाथी- अजित, ३. घोडासभव, ४. बंदर अभिनन्दन, ५. चकवा-सुमति, ६. कमलपद्मप्रभ, ७. स्वस्तिक- सुपार्श्व ८ चन्द्र-चन्द्रप्रभ, ६. मगरपुष्पदन्त, १०. कल्पवृक्ष - शीतल, ११. गेड़ा- श्रेयांस, १२. भैसा-वासुपूज्य, १३. सुनर-विमल, १४. भालू- अनन्त, १५. वज्र-धर्म, १६. हिरन - शान्ति, १७. बकरा- कुन्थु, १८. मछली परिह, १६. घड़ा-मल्लि, २०. कछवा मुनिसुव्रत, २१. नीलकमल नमि, २२. शख-नेमि, २३. सर्प-पावं, २४. सिंह- महावीर ।
ऊपर, तोरण पर अष्ट मंगल द्रव्य-उत्कीर्ण है : भृंगार कलश, व्यजन, स्वस्तिक, ध्वज, छत्र, चमर, दर्पण | शास्त्रीय दृष्टि से यह क्रम होना चाहिए था : भृगार, कलश, दर्पण, व्यजन, ध्वज, चमर, छत्र, स्वस्तिक । तीर्थकर के समवशरण की गन्धकुटी के प्रथम द्वार पर ये आठ मंगल द्रव्य शोभित होते है ।
इनके ऊपर एक पत्थर की जाली है जिसके मध्य मे एक श्रभिलिखित शिलाजड़ी है। उसके दो पक्तियो के अभिलेख के शब्द है : 'श्री सि० रज्जीलाल जी के उपदेश से निर्मित' ।
दोनों पक्षों के बाजू मे ३ फु० ६ इ० की ऊँचाई तक टाइल जड़े है जिन पर मयूर का रंगीन प्रकन है ।
इनके ऊपर बाये पहले से आठवे तक और दायें नवे से सोलहवेंतक, सोलह स्वप्नो का प्रकन है जिन्हे तीर्थकर की माता गर्भाधान के समय देखा करती है। ये स्वप्न और उनसे सूचित होने वाले गुण (तीर्थकर के ) ये है : १. हाथी - उच्चकोटि का आचरण, २. बैल धर्मात्मत्व, ३. सिह-पराक्रम, ४. लक्ष्मी प्रतिशयलक्ष्मी, ५. दो मालाएँशिरोधार्यता, ६. चंद्र-संतापहरण, ७. सूर्य तेजस्विता, ८. मछलियों का दो जोड़ा-सौन्दर्य, ६. दो कलश-कल्याण, १०.
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अंतरिक्ष पार्श्वनाथ विन ति
सरोवर-वात्सल्य, ११. समुद्र-पूर्णज्ञान, १२. सिंहासन- प्रातिहार्यों के ऊपर जो माठ बीजाक्षर उत्कीर्ण है राज्याधिकार, १३. देव विमान देवो द्वारा सेवा, १४. उसका सकारण और सक्रम विवेचन कदाचित् उपलब्ध नागभवन-नागकुमार जाति के देवो द्वारा सेवा, १५. रत्न- नहीं। इनमे से तीसरा 'पों' सभी भारतीय धर्मों में मान्य समूह-गुणसमूह, १६. जाज्वल्यमान अग्नि-कर्मदाह । है। जैनवर्म में यह पाँच परमेष्ठियों प्रर्हन्त, अशरीरी श्वेताम्बर जैन मान्यता के अनुसार माता सोलह नहीं, (सिद्ध), प्राचार्य, उपाध्याय, मुनि (सर्वसाधु) के प्रथम चौदह स्वप्न देखती है। प्रथम तीर्थकर के ज्येष्ठ पुत्र अक्षरों की सन्धि से बना माना गया है। यहाँ का पांचा भरत चक्रवर्ती और सम्राट चन्द्रगुप्त (मौर्य) द्वारा भी बीजाक्षर 'णमो' है, जिसका अर्थ है नमस्कार । जैनधर्म सोलह-सोलह स्वप्न देखे गये थे, यद्यपि वे भिन्न-भिन्न थे। के आदिमन्त्र 'णमोकार' का प्रथम शब्द भी ‘णमो' है; इन स्वप्नो और उक्त जाली के ऊपर अप्ट प्रातिहार्य इसलिए यह बीजाक्षर सपूर्ण णमोकारमंत्र का प्रतीक उत्कीर्ण है। तीर्थकर की ऐश्वर्य सूचक विशेषताएं प्राति- मालूम पड़ता है। हार्य । वे ये है : सिहासन, अशोक वृक्ष, छत्रत्रय, प्रभामण्डल, दिव्य ध्वनि, पुष्पवृष्टि, चमर, देवदुन्दुभि । इस इस संक्षिप्त विवरण से भी स्पष्ट है कि यह द्वार द्वार पर उत्कीर्ण प्रातिहार्यों का क्रम (अशुद्ध) यह है : अपनी शैली और कला मे अनुपम है। भारतीय प्रतीकों दिव्य ध्वनि, अशोक वृक्ष, छत्रत्रय, सिहासन, पुष्पवृष्टि, का अध्ययन इस द्वार के सन्दर्भ के बिना अपूर्ण ही चमर, प्रभामण्डल, देवदुन्दुभि ।
रहेगा।
अंतरोक्ष पार्श्वनाथ विनंती
नेमचन्द धन्नूसा जैन
श्रुत पचमी के दिन उपेक्षित कई हस्त लिखित पोथी था इस लिए इसका नाम (लेड-न-पास) 'लेडनपास' ऐसा मे से एक गुटका हाथ लगा। सहज ही धूल झटकते हुए रखा गया। इस तीर्थ की वंदना से क्या क्या लाभ होते उसको खोला तो पृष्ठ ८० पर लिखा हुअा बांचा-'इति है यह अत में बताया है। अतरिक्ष पार्श्वनाथ विनती समाप्त ।।' यह बाच कर जो शिरपुर के अतरिक्ष पार्श्वनाथ प्रतिमा का और इस हर्प हुआ, लिख नही सकता। न मालूम ऐसी कितनी तीर्थ का कोई सम्बन्ध नही है तो भी अंतिम पुष्पिका सामग्री अभी अप्रकाशित है। यह एक ऐसी सामग्री है वाक्य मे 'अंतरिक्ष' शब्द का प्रयोग क्यों ? इसपर विद्वानों जिसमें कुमुदचन्द्र जी ने बताया है कि डभोई नगर के को विचार करना चाहिए। साथ ही उस काल सम्बन्धी पार्श्वनाथ की प्रतिमा सागरदत बनजारा के स्वप्नो में माहित्य और इतिवृत्त का भी अनुसंधान पावश्यक
आई। यह प्रतिमा वालुकामय थी। और डाली थी एक है। क्या यह लेडन पास की प्रतिमा कभी अतरिक्ष जलकूप में। ऊपर निकालने का मार्ग बतलाया गया था थी? इसका समाधानहोना चाहिए और इस प्रतिमा कि-कच्चे सूत को कूप में छोड़ना उसमे बैठ कर प्रभू जी को स्थापन करने वाले सागरदत्त वनजारा का स्थल ऊपर आए, जयजयकार हुमा । अनेक मंगल वाद्य के साथ काल का पता चलना चाहिए। डभोई क्षेत्र में इस वनजारा ने हाथ पर उस प्रतिमा को ले जाकर डभोई बाबत इससे अधिक इतिहास विदित हो तो उसे प्रकाश में नगर में स्थापन किया। इस प्रतिमा का भार कुछ नहीं लाना चाहिए । अस्तु ।
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अनेकान्त
__ वह काव्य इस प्रकार है :--
सज्जन साथै वात करीने, मुक्यो तांतन जिन समरीने। सुमरु सारदा देवी माय, राहनीस सुरनर सेवे पाय ।
सागर दत्त जातें ॥१६॥ प्रापे वचन विशाल ॥१॥ काचे तातें जिनवर वेठा, लेह कता लोक ते दीठा। लाड देस दीसे अभिराम, नयर डभोइ सुबर ठाम ।
हलवा फूल समान ॥१७॥ जहां छे लोडन पास ॥२॥ बाहेर पधरावी बेसाडयो, जय जय जिन सह कोने जहाया। मावे संघ मली मनरंगे, नर नारो वांवे सह सगे।
प्राप्या उलट दान ॥१८॥ माना जो तां है। हरष न माये, वचन रूप कह नवी जाये। जयजयकार करे मन हरणे, जिन अपरि कुसुमांजलि वरखें।
चील अचंभो भाये ॥१९॥ स्तवन करे बहु छंदे ॥४॥ नाना विघ्न वाजीभ बजाडे, पागल थी खेल नचाई। गायें गोत मनोहर सादें, पच सवद बादे वर नावे ।
माननी मंगल गायें ॥२०॥ नाचे नारी वृन्द ॥॥
पर पान्या अधिक दीवाज्या साथे, वनजारे लीधी जिन हाथे ।
आन्या वाल मय प्रतिमा वीस्नात्, जानें देस विदेसे वात ।
रम्य डभोई गाम ॥२१॥ सोहे सीस फणोंद ॥६॥ रूड दोन मूरत जोई ने, वारु पूजा नमन करीने। सागरबत्त हतो बनजारो, पाले नेम भले एक सारो।
पधराव्या जिन धाम ॥२२॥ जीन वांदी जम वानो ॥७॥ नाम धरू ते लाडन पास पंचम काले पूरे पास । एक समे वाटे उतरयो, जम वा वेल जीन सांभले ।
वांका विघ्न निवारे ॥२३॥ सच करे प्रतीमानो नामे चीरन डे नही वाटे, उज्जड अटवी शरmi
दरियो पार उतारें ॥२४॥ वालनी प्रतिमा पालेषी, वांदी पूजीने मन हरषी।।
ते पघरावी कूप ॥६॥
है भूत पिशाच तणो भय टाले, चेडा चेटक मंत्र न चालें।
भूत त्यारे ते बालूनी मूरत, जल माहे भइ सुंदर सूरत ।
___डांकिनी दूरे त्रासे ।।२।। अंग अनूपम रूप ॥१०॥
व्यंतर वापानी भइ जाए, जेह नामे विषधर न विषाये । बनजारो ते प्राव्यो वेहले, वलतो लभ घनो एक लख्यो।
वाघ न पावे पास ॥२६॥ उत्तरीयो तेने ठाम ॥११॥ भव भवनी भाव भंजे, रन माहे वैरी न विगंजे । सागरदत्त करे सुविचार, वाटे कुसल न लागो वार ।
रोग न प्रावे अंगे ॥२७॥ जह ने नामे नाहासे सोक, संकट सघल थाये कोक । ते स्वामी ने नामें ॥१२॥ राते स्वप्न हवु ते त्यारे, केम नाषी हूँ कृप मझारे ।
लक्ष्मी रहे निति संगे ॥२८॥ काठ तीहां मडने ॥१३॥
नाम जपंतां न रहे पाप, जनम मरन टाले संताप । तुंकाचे तांतन पर बेसाडे, का नही हूँ लागु भारे ।
आये मुगती निवास ॥२६॥ ज नर समरे लेडन नाम, ते पाये मन वांचित काम। वचन कहूँछु तुमने ॥१४॥ बनजारो जाग्यो वेहल कसु, उठयो उल्लथ घरयो मनसु ।
कुमुदचन्द्र कहे भास ॥३०॥ गयो तोहां परभाते ॥१॥ इति प्रतरिक्ष पाश्वनाथ विनती समाप्त ॥
'प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने प्राचार विचार को पवित्र रक्खे। प्राचार विचारों की पवित्रता जीवन की प्रान्तरिक पवित्रता पर प्रभाव डालती है, उससे जीवन मादर्श और समुन्नत बनता है। -अज्ञात
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आत्म-सम्बोधन
कविवर दौलतराम १६वी २०वी शताब्दी के प्रमुख विद्वान और कवि थे। वे सस्कृत-प्राकृत भाषा के साथ अध्यात्म ग्रन्थों के अच्छे अभ्यासी थे । उनकी दृष्टि बाह्य कामो मे नही लगती थी वे अन्तप्टि की ओर अग्रसर रहते थे। सिद्धान्त-ग्रथो के दोहन से निष्पन्न प्रात्मरस से ओत-प्रोत रहते थे। उनकी दृष्टि में जगत का वैभव ऐश्वर्य और भोगविलास की रमणीय वस्तुएं जिन्हे रागीजन अपनी समझ उनमे रति करते है। कविवर उनसे सदा विमुख रहते थे, उन्हे राग-रग मे रहना असह्य हो उठता। उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना है कि मथुरा के प्रसिद्ध सेठ मनीराम जी पडितजी को जब हाथरस से मथुरा ले गये और अपने सजे हुए मकान में उन्हे बड़े प्रेम एव प्राग्रह से ठहराया। पर उन्हे मखमली गद्दों और झाड फानूसो और चाँदी सोने की कुसियो से अलकृत भवन में रहना दुष्कर हो गया। यद्यपि उन गधो पर सीतल पाटी बिछाकर बैठे हुए थे। फिर भी उनके चित्त मे 'मै अनत जीवो के पिण्ड' पर बैठा हुमा हूँ यह विकल्प मन मे शान्ति एव स्थिरता नहीं आने देता था। जी चाहता था कि मै यहाँ से अभी चला जाऊँ। पर उन्हे सेठ जी के प्रत्याग्रह से ३-४ दिन गुजारने ही पड़े। जब वे वहाँ से लश्कर चले गये। तब उनके मन मे शान्ति आई । कवि का मन अध्यात्म रस से छकाछक भरा हुआ था। पर द्रव्यों से उनका राग नहीं था, और न उनसे द्वेष ही रखते थे। किन्तु परद्रव्यो से अपनी स्वामित्व बुद्धि का परित्याग करना श्रेयस्कर समझते थे। भोगो को भुजग के समान जानकर उनसे रति करना दुःख का कारण मानते थे। वे अपनी आत्मा को समझाते हुए कहते थे कि'मान ले या सिख मोरी, झुके मत भोगन ओरी-' इससे उनकी अन्तरपरिणति का सहज ही आभास हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि वे सदा आत्महित का लक्ष्य रखते थे। वे नीचे पद्य में अपने को सम्बोधन करते हुए कहते है किजगत के सब द्वन्दो को मिटाकर जिन पागम से प्रीति करनी चाहिए। उसी की प्रतीति करनी भी आवश्यक है। जगत के सब द्वन्द बध कर और प्रसार है । वे तेरी कुछ भी गरज को नहीं सारते । कमला चपला है। यौवन इन्द्र धनुष के समान अस्थिर है स्वजन पथिकजनो के समान है । इनसे तू वृथा रति क्यो जोडता है । विषय कषाय दोनो ही भवों में दुखद है । इनसे तू स्नेह की डोरी तोड , तेरी बुद्धि बडी भोली है तू पर द्रव्यो को अपनावत को क्यों नहीं छोड़ता। जब देवो की सागरो की स्थिति वीन जाती है तब मनुष्य पर्याय की तो स्थिति अल्प ही है । हे दौलतराम ! अब तुम शुभ अवसर पाकर चूक गये तो सागर में गिरी हुई मणि के समान पुन. नरभव मिलना कठिन है।
और सबै जग द्वन्द मिटावो, लौ लावो जिन आगम अोरी ।।टेक।। है असार जग द्वन्द्व बन्धकर, ये कछ गरज न सारत तोरी। कमला चपला यौवन सुरधनु, स्वजन पथिक जन क्यों रति जोरो॥१ विषय-कपाय दुखद दोनों भव, इन ते तोर नेह की डोरी। पर द्रव्यन को तू अपनावत, क्यों न तजे ऐसी बुधि भारी २ बीत जाय सागर थिति सुर की, नर परजायतनी अति थोरी। अवसर पाय दौल' अव चूको, फिर न मिलै मनि सागर बोरो ।।३
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ग्वालियर के कुछ काष्ठासंघी भट्टारक
परमानन्द शास्त्री
श्रमण संस्कृति युगादि देव (आदिनाथ) के समय से भट्टारक बराबर प्रेम से रहे है ।। दोनो के द्वारा प्रतिष्ठालेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर के परिनिर्वाण काल पित अनेक मूर्तियाँ मन्दिरों में विराजमान हैं। उन सब पश्चात् तक अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित रही है । और भट्टारको मे भट्टारक गुणकीति अपने समय के विशिष्ट उनके निर्वाण के बाद अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय विद्वान, तपस्वी और प्रभावक थे। उनके निर्मल चरित्र द्वादश वर्षीय भिक्षके कारण वह दिगम्बर श्वेताम्बर रूप और व्यक्तित्व का प्रभाव तोमर वंश के क्षत्रीय शासकों दो घाराप्रो में विभक्त हो गई। उक्त दोनों घारागों में भी पर अप्रतिहत रूप में पड़ा, जिससे वे स्वय जैनधर्म के प्रति परवर्ती कालों में अनेक अवान्तर सध और गण-गच्छों का निष्ठावान हुए। उनके तपश्चरण के प्रभाव से राज्य में माविर्भाव हुआ। इसका कारण दुभिक्ष के समय की सक्रान्ति और विरोध जैसे विकार पास मे भी नही फटक विकट परिस्थिति, विचार विभिन्नता और संकीर्ण मनो- सके। राजा गण अपने राज्य का संचालन स्वतन्त्रता वृत्ति हैं। संकुचित मनोवृत्ति से प्रात्म परिणति में अनु- और विवेक से करते रहे। राज्यकीय विपम समस्याओं दारता रहती है। संकीर्ण दायरे में अनेकान्त की सर्वोदयी का समाधान भी होता रहा। अपनी प्रजा का पालन समुदार भावना तिरोहित हो जाती है। इससे वह करते हुए राज्य वृद्धि मे सहायक हुए। जनता स्वतंत्रता परस्पर में सौहार्द को उत्पन्न नहीं होने देती प्रत्युत से अपने-अपने धर्म का पालन करती हुई सासारिक सुखकटुता को जन्म देती रहती है। दोनो ही परम्पराग्रो मे शान्ति का उपभोग करती थी। अनेक वरिष्ठ श्रेप्टि जन मत विभिन्नतादि कारणो से विभिन्न गण-गच्छ उत्पन्न राज्य के प्रामात्य और कोषाध्यक्ष जैसे उच्च पदो पर होते रहे हैं। और २४ सौ वर्षों के दीर्घ काल मे भी प्रतिष्ठित रहते हुए निरंतर राज्य की अभिवृद्धि और गण-गच्छों की विभिन्नता मे कोई प्रतर नही पा पाया है। अमन में सहायक हुए। उस समय के ग्वालियर राज्य को शिलाभेद के समान इन संघों की विभिन्नता परस्पर मे परिस्थिति का सुन्दर वर्णन कविवर रइधू ने पार्श्व नाथ अभिन्नता में परिणत नही हो सकी। यदि गण-गच्छादि चरित्र मे किया है। उससे उम समय की सुखद स्थिति के सम्बन्ध मे अन्वेषण किया जाय तो एक बड़े ग्रथ का का खासा आभास हो जाता है। निर्माण किया जा सकता है।
यहाँ उन भट्टारको का जिनके नाम का उब्लेख कवियहाँ ग्वालियर के काष्ठा संघ के कुछ भट्टारकों का
वर रइधू के प्रथों और मूर्ति लेखो में उपलब्ध होता परिचय दिया जाता है।
है उनका सक्षिप्त परिचय देना ही इस लेख का प्रमुख ग्वालियर प्राचीन काल से दि० जैन संस्कृति का किया। केन्द्र रहा है। यहाँ के दिगम्बर जैन मन्दिरों में ११वी शताब्दी तक की धातु मूर्तिया उपलब्ध होती है । यहाँ १ भट्टारक वेवसेन-काष्ठामघ, माथुरान्वय, बालाकाष्ठा संघी भट्टारको की बडी गद्दी रही है जिनके द्वारा कारगण सरस्वती गच्छ के विद्वान भट्टारक उद्धरसेन के वहां आस-पास के प्रदेशो मे जैन धर्म और जैन संस्कृति पटधर एव तपस्वी थे। वे मिथ्यात्वरूप अधकार के का प्रसार हुआ है। अनेक विद्वान और भट्टारको द्वारा विनाशक, पागम और अर्थ के धारक तथा तप के निलय ग्रंथों की रचना हुई है। यहाँ मूलसंघी और काष्ठा सघी और विद्वानो मे तिलक स्वरूप थे। इन्द्रिय रूपी भजंगों
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ग्वालियर के काष्ठासंयी कुछ भट्टारक
के दलने वाले और गरुड के समान (इंद्रियजयी) थे। थे, जो अनुपम गुणो के घारक, समितियों से युक्त, कर्मकाष्ठा संघ की गुर्वावली में उन्हें अमित गुणों का निवास, बन्धादि से भय-भीत, तथा चन्द्रकिरण के समान शीतल कर्मपाश के खण्डक, समय के ज्ञायक निर्दोष, संसार की विमलसेन हमे सुख प्रदान करें। जो भव्यजनो के चित्त शंका के नाशक, मदन कदन (युद्ध) के विनाशक, धर्मतीर्थ को मानन्द प्रदान करने वाले, विमलमति । मलसग के के नेता वे देवसेन गणी जयवंत रहें। ऐसा प्रकट किया विनाशक, अनुपम गृणमंदिर, ऐसे ऋषि पुगव विमलसेन है। इससे स्पष्ट है कि प्रस्तुत देवसेन अपने समय के बड़े थे। इस गुणानुवाद से ज्ञात होता है कि भट्टारक विमलविद्वान थे। इसीसे उनके यश का खुला गान किया गया सेन विद्वान, तपस्वी, द्विविधसंग के त्यागी और प्रतिष्ठाहै। इनका समय विक्रम की १४वी शताब्दी संभव है। चार्य थे। इनके द्वारा प्रतिष्ठित धातु की एक पद्मासन
दूसरे देवसेन वे हैं जिनका उल्लेख व कुण्ड (चडोभ) चौबीसी मूर्ति सं० १४१४ की प्रतिष्ठित जयपुर के मानस्तम्भ के नीचे दो पंक्तियों वाले लेख मे पाया (राजस्थान) क पाटा
(राजस्थान) के पाटौदी मन्दिर में विराजमान है। और जाता है, उसमें देवसेन की भग्नमूर्ति भी अंकित है।
दूसरी प्रतिष्ठित प्रादिनाथकी एक मूर्ति दिल्लीकै नयामन्दिर "संवत् ११५२ वैशाखसुदि पंचम्याम्
धर्मपुरा में विद्यमान है जो सवत् १४२८ में किसी जयसश्री काष्ठासंघे श्रीदेवसेन पादुका युगलम् ।
वाल सज्जन के द्वारा प्रतिष्ठित कराई गई थी। इनकी प्रस्तुत देवसेन किसके शिष्य थे, और इन्होंने क्या- ३. तास पट्टि णिरुवम गुण मन्दिरु, क्या कार्य किये है यह अभी कुछ ज्ञात नहीं हो सका। णिच्चुभवजणचित्ताणदिरु । इनका समय विक्रम की १२वीं शताब्दी का मध्यकाल है। विमलमई फैडिय-मल-सगमु, यह किसके शिष्य थे और इनकी गुरु परम्परा क्या है विमलसेणु णामे रिसि पुगमु ।। यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका । क्योंकि इनके साथ काष्ठा
-सम्मइ जिनचरिउ प्रशस्ति संघ का उल्लेख है। इसलिए यह जानना आवश्यक है ४. सं० १४१४ वैशाख सुदि १५ गुरौ श्री काप्ठासघे यह किसके शिष्य थे।
माथुरान्वये भट्टारक श्री देवसेन तत्प? प्रतिष्ठाचार्य विमलसेन-यह देवसेन गणी के पट्टधर एवं शिष्य
श्री विमलसेन देवा अग्रोतकान्वये गगं गोत्र......
साह गोकल भार्या लिरदा पुत्र कुघरा भार्या गयसिरि १. मिच्छत्त-तिमिर हरणाई सुहायरु,
पत्र देवराज भार्या......। पाटौदी मन्दिर जयपुर प्रायमत्थहरु तव-णिलउ । णामेण पयदु जणि देवसेणु गणि,
सवत् १४२८ वर्षे जेष्ठ सुदि १२ द्वादश्या सोम
वासरे काष्ठासघे माथुरान्वये भट्टारक देवसेन देवा सजायउ चिरु वुह-तिलउ ।। -सम्मइ जिन चरिउ प्रशस्ति
स्तत्पट्ट त्रयोदशचारित्ररत्नालंकृता सकलविमल इदिय-भुअंग णिद्दलण-वेणु। पद्मपुराण प्रशस्ति ।
मुनिमडलीशिष्यशिखामणयः प्रतिष्ठाचार्य श्री२. विज्ञानसारी जिनयज्ञकारी,
भट्टारक विमलसेनदेवाः तेषामुपदेशेन जाइसवालान्वये तत्त्वार्थ वेदी वर सषभेदी ।
सा० वूइपति भार्या मदना पुत्र विजयदेव पत्नी पूजा स्वकर्मभंगी वुघयूथसंगी,
द्वितीय पुत्र लालसिंह तत्पुत्र विजयदेव तत्पुत्र समस्तचिरं क्षिती नंदतु देवसेनः ।।
दातुधुरीण साधु श्री भोज भार्या ईसरी पुत्र हम्मीरअमितगुणनिवासः खंडिता कर्मपाशः,
देवः द्वितीय भार्या कर्षी करपूरा पुत्र शुभराज समयविदकलंकः क्षीणसंसार-शंकः ।
कोल्हाको हम्मीर देवा मार्या धर्मश्री तत्पुत्र धर्मसिंह मदन-कदनहंता धर्मतीर्थस्य नेता,
एतेषां स्व श्रेयोऽर्थ शिव तत्पत्र: प्रादिनाथ नेमिचन्द्राजयति महतिलीन: शासने देवसेनः ।।
भ्यां प्रतिष्ठतम् ।। -काष्ठासंघ मा० गुर्वावली
नया मन्दिर धर्मपुरा दिल्ली वेदी १ कटनी २
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अनेकान्त
उपाधि मलधारी थी। इनका समय १५वीं शताब्दी का सहत्रकीति-यह भावसेन के पट्टधर विद्वान थे। पूर्षि है।
रत्नत्रय के प्राकर, कर्म-प्रन्थों के सार विचारक, व्रताधर्मसेन-यह भट्टारक विमलसेन के पट्टघर थे, जो दिक के अनुष्ठाता और अनेक सद्गुणों से परिपूर्ण थे। वस्तधर्म के धारक थे, जिन्होंने लोक में दश धर्मों का अपने समय के अच्छे विद्वान थे। इनके द्वारा प्रतिष्ठित विस्तार किया था । व्रत, तप शील गुणों में जो श्रेष्ठ थे, कोई प्रतिमा लेख और ग्रंथ रचना अभी तक मेरे देखने बाद्याभ्यान्तर परिग्रहों के निवारक, वे धर्मसेन मुनि में नहीं पाई। अन्वेषण करने पर उसकी प्राप्ति सम्भव जनता को संसार समुद्र से तारने वाले थे। वे काष्ठसंघ है। इनका समय भी विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी है। के नायक थे और धर्मध्यान के विधान में दक्ष थे, तथा
भट्टारक गुणकोति-यह भट्टारक सहस्रकीर्ति के शिष्य सकल सघ मे शोभायमान थे। यह प्रतिष्ठाचार्य भी थे।
- एवं पट्टधर थे । १५वीं शताब्दी के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान, इनके द्वारा प्रतिष्ठित तीन मूर्तियां पार्श्वनाथ, अजितनाथ
विशिष्ट तपस्वी और ज्ञानी थे। ये अपने समय के बड़े पौर वर्धमान तीर्थकर की हिसार जिले के मिट्टी ग्राम से
प्रभावक और प्रकृति से प्रशान्त एवं सौम्य मूर्ति थे । इनके मनीराम जाट को प्राप्त हुई थी। जो अब हिसारके मन्दिर
तप और चारित्र का प्रभाव तोमर वंश के शासकों पर में विराजमान हैं। जो १४४१० इंच के प्राकार को
पड़ा, जिससे वे जैनधर्म के प्रति निष्ठावान हुए। उनके लिए हुए हैं। तीनों मूर्तियां पहाड़ी मटियाले पाषाण की
तपश्चरण के प्रभाव से राज्य में किसी तरह की कोई हैं। इससे भट्टारक धर्मसेन का समय विक्रम की १५वी
सक्रान्ति या विरोध उत्पन्न नहीं हुआ। राजा गण राज्य शताब्दी का मध्यकाल जान पड़ता है।
कार्य का स्वतन्त्रता और विवेक से संचालन करते रहे। भावसेन-इस नाम के अनेक विद्वान हो गए है।
और अपनी प्रजा का पुत्रवत पालन करते हुए धर्म-कर्म में उनमें प्रस्तुत भावसेन काष्ठासंघ मथुरान्वय के प्राचार्य
निष्ठ रहकर राज्य वैभव की वृद्धि में सहायक हुए। थे, वे धर्मसेन के शिष्य एवं पट्टधर थे। तथा सहस्रकीति
कविवर रइधू और काष्ठासघ की पट्टावली प्रादि में इनका के गुरु थे। सिद्धान्त के पारगामी विद्वान थे, शीलादि
खुला यशोगान किया गया है। वे काष्ठासंघ रूप उदव्रतों के धारक, शम, दम और क्षमा से युक्त थे । वभा
धर्मोद्धारविधिप्रवीणमतिकः सिद्धान्तपारंगामी। रादि तीर्थ में हुए प्रतिष्ठोदय में जिन्होंने महान योग दिया था । और जो अपने गुणोंकी भावना में सदा तन्मय
शीलादि व्रतधारकः शम-दम-क्षान्तिप्रभा भासुरः । रहते थे। इनका समय विक्रम की १५वीं शताब्दी है ।
वभारादिक तीर्थराज रचित प्राज्यप्रतिष्ठोदय
स्तत्पट्टाब्ज विकासनकतरणिः श्री भावसेनो गुरुः ।। १. वत्थु सरूप धम्म-धुरधारउ, दहविहषम्मु भुवणि
-काष्ठासंघ मा० पट्टावली वित्थारउ । वय-तव-सील गुणहिं जे सारउ, वज्झन्भतर ४. कर्म-ग्रंथ विचारसार सरणी रत्नत्रयस्याकरः, संगणिवारउ, धम्मसेणु मुणि भवसर तारउ,
श्रद्धाबन्धुरलोकलोकनलिनीनायोपमः साम्प्रतम् । सम्मइ जिणचरिउ प्रशस्ति ।
तत्पट्टेऽचलचूलिकासुतरणि: कीति ऽपि विश्वंभरी। काष्ठासघ गणनायकवीरः, धर्मसाधनविधानपटीरः । नित्यं भाति सहस्रकीति यतिपः क्षान्तोऽस्ति दैगम्बरः । राजते सकल संघसमेत, धर्मसेन गुणरेव चिदेतः ।।
काष्ठासंघ मा०प० ___-काष्ठासघ मा० पट्टावली
५. तासुपट्टि उदयहि दिवायरु, बज्झन्भतरुन्तव-कय-पायरु २. संवत् १४४२ वैशाख सुदी ५ शनो श्री काष्ठासघे
बुहयण-सत्थ-प्रत्य-चितामणि, सिरिगुणकित्ति-सूरि माथुरान्वये प्राचार्य श्री धर्मसेनदेव. इन्द्रमीनाकः
मानव जणि । भयोतक वंशे सा० जाल्ह सहाय [भा०] जियतो ।
-सम्मइ जिन चरित ३. भाव सेणु पुण भाविय णियगुण ।
(क) दीक्षा परीक्षा-निपुणः प्रभावान् प्रभावयुक्तो सम्मइजिण चरिउ प्रशस्ति ।
धमदादि मुक्तः ।
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ग्वालियर के काष्ठासंधी कुछ भट्टारक
यादि के लिये दिवाकर थे। बाह्य और माभ्यन्तर तप के पुष्कर गण के भट्टारक गुणकीति की प्राम्नाय में साहू मर माकर थे। बुध जनों में शास्त्र अर्थ के चिन्तामणि थे। देव की पुत्री देवसिरी ने पंचास्तिकाय टीका की प्रति दीक्षा परीक्षा में निपुण, प्रभावयुक्त, मदादि से रहित, लिखवाई थी। माथुरान्वय के ललामभूत, राजामों के द्वारा मान्य प्राचार्य सं०१४६६ में माघ सुदी ६ रविवार के दिन राजथे। तपश्चरण से उनका शरीर क्षीण हो गया था। कुमारसिंह की प्रेरणा से गुणकीर्ति ने एक धातु की मूर्ति रावान्त के वेदी, पापरहित, विद्वानों के प्रिय, माया मान की प्रतिष्ठा कराई थी। मादि पर्वतों के लिए वज, हेयोपादेय के विचार में अग्रणी, सं०१४७३ में भ० गुणकीर्ति द्वारा एक मूर्ति की काम रूप हस्तनियों के लिए कंठीरव (सिंह) थे। स्यावाद प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। इनका समय सं० १४६० से १५१० के द्वारा वादियों के विजेता, रत्नत्रय के धारक, माथुर- तक है। राजा डूगरसिंह के राज्य काल में जैन मूर्तियों संघ रूप पुष्कर के लिये शशी थे। दम्भादि से रहित, के उत्खनन का जो महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुआ उस सब वस्तु तत्त्व के विचारक और जगतजन के कल्याणकर्ता थे। का श्रेय भ० गुण कीर्ति को ही है। इनके द्वारा अनेक सं० १४६० में वैशाख सुदि १३ के दिन खडेलवाल वंशी मूर्तियों की प्रतिष्ठा और निर्माण कार्य हुआ है। इन्होंने पंडित गणपति के पुत्र पंडित खेमल ने पुष्पदन्त के उत्तर. क्या-क्या अथ रचना की यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका। पुराण की एक प्रति भ० पद्मनन्दि के आदेश से भ० गुण- यश:कोति-भ० गुणकीति के लघु भ्राता और शिष्य कीति को प्रदान की थी।
थे । प्राकृत संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के विद्वान, कवि वीरमदेव के राज्य मे भ० गुणकीति के आदेश से और सुलेखक थे। जैसा कि पार्श्वपुराण के निम्न पद्य से पद्मनाम कायस्थ ने यशोधर चरित्र की रचना की थी। स्पष्ट है :सं० १४६८ में प्राषाढ वदि २ शुक्रवार के दिन ग्वालियर "सु तासु पट्टिभायरो विप्रायमत्थ-सायरो, मे उक्त वीरमदेव के राज्य काल मे काष्ठासघ माथुरान्वय रिसि सु गच्छणायको जयत्तसिक्खदायको, श्रीमाथुरान कललामभूतो, भूनाथमान्यो गुण
जसक्खु कित्ति सुन्दरो प्रकंपुणायमंदिरो॥
पास पुराण प्रश. कीति सूरिः ।
तहो बंधउ जसमुणि सीसु जाउ, -समयसार लिपि प्र० कारजाभंडार
पायरिय पणासिय दोसु राउ। (ख) श्रीमान् तस्य सहस्रकीर्तियतिनः पट्टे विकृ
-हरिवंश पुराण ष्टेऽभवत् ।
भव्य कमल संबोह पयंगो, क्षीणांगो गुणकीतिसाघरनघां विद्वज्जनानां तह पुण सु-तव-ताव तबियंगो। प्रियः ।
णिच्चोग्भासि य पवयण अंगो, मायामानमदादिभूघरपवी रावान्तवेदी गणी,
३. संवत्सरेस्मिन् विक्रमादित्य गताब्द १४६८ वर्षे प्राषाढ़ हेयादेय विचारचारुधिषण: कामेभकंठीरवः ३२
वदि २ शुक्रदिने श्री गोपाचले राजा वीरमदेव विजय यत्तेजोगुणबद्धबुद्धि मनसो मूलाभवन्तो नुताः।
राज्य प्रवर्तमान श्री काष्ठासघे माथुरान्वये पुष्कर१. संवत् १४६० वैशाख सुदी १३ खंडिल्लवाल वंशे गणे प्राचार्य श्री भावसेनदेवाः तत्पट्टे श्री सहस्रकीति
पंडित गणपति पुत्र पं० खेमलेन एषा पुस्तिका भट्टा- देवाः तत्पट्टे भट्टारक श्री गुणकीतिदेवास्तेषामाम्नाये रक पद्मनन्दिदेवादेशेन गुणकीतिये प्रदत्तं ।।
संघइ महाराज वधू साधू मारदेव पुत्री देवसिरि तया -उत्तरपुराण प्रशस्ति भामेरभंडार इदं पचास्तिकाय सार अथ लिखापितम । २. उपदेशेन ग्रंथोऽयं गुणकीर्ति महामुनेः ।
-कारंजाभंडार कायस्थ पपनाभेन रचितं पूर्व सूत्रतः ॥
१.सं. १४८६ वर्षे प्राषाढ़ वदि गुरुदिने गोपाचल -यशोधर रचित प्रश. दुर्गे राजा इंगरसी (सि)ह राज्य प्रवर्तमाने श्री
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अनेकान्त
वंदिवि सिरि जस कित्ति प्रसंगो।
सम्बन्ध में कुछ नही लिखा। इनका समय सं० १४८०
-सन्मति जिनच० से १५१० तक तो है ही, उसके बाद वे कब तक इस भूभाग यशःकोति प्रसंग (परिग्रह रहित) भव्य रूप कमलों को अलंकृत करते रहे यह अन्वेषणीय है। प्रापके अनेक को विकसित करने के लिये मूर्य के समान थे, वे यशःकीर्ति शिष्य थे । और आपने अनेक देशों में विहार करके जिन वन्दनीय हैं। काष्ठासंघ माथुर गच्छ की पट्टावली में भी शासन को चमकाने का प्रयत्न किया था। यह प्रतिष्ठाउनकी अच्छी प्रशंसा की गई है। जिनकी गुणकीर्ति प्रसिद्ध चार्य भी थे । आपके द्वारा प्रतिष्ठित अनेक मूर्तियां होंगी। थी । पुण्य मूर्ति और कामदेव के विनाशक अनेक शिष्यों किन्तु उनका मुझे दर्शन नहीं हमा। ग्वालियर भट्टारकीय से परिपूर्ण, निर्ग्रन्थ मुद्रा के धारक, जिनके चितग्रह में भंडार मे उनके द्वारा रचित अन्य ग्रन्थ भी उपलब्ध हो जिन चरण-कमल प्रतिष्ठित थे-जिन भक्त थे और सकते हैं। और मूर्तिलेख भी, ग्वालियर का भट्टारकीय स्याद्वाद के सत्प्रेक्षक थे। इनकी इस समय चार कृतियां मन्दिर बन्द होने से मैं उनके लेखादि नहीं ले सका । इनके उपलब्ध हैं। पाण्डव पुराण, हरिवंश पुराण, आदित्यवार समय में कवि रइधु ने अनेकों ग्रन्थों की रचना की है। कथा और जिन रात्रि कथा ।
मलयकोति-यह यशःकीति के पट्टधर थे। अच्छे प्रापके द्वारा लिखवाए हुए दो ग्रंथ विबुध श्रीधरकृत विद्वान और प्रतिष्ठाचार्य थे। कवि रइधु ने प्रापका निम्न भविष्यदत्त चरित्र और सुकमाल चरिउ स० १४८६ में लिखे वाक्यों से उल्लेख किया है :गए थे। आपने अपने गुरु को अनुमति से महाकवि स्वयं
उत्तम खम वासेण प्रमंदउ, भदेव के खडित एवं जीर्ण-शीर्ण दशा को प्राप्त हरिवश
मलयकिस्ति रिसिवर चिरुणंदउ । पुराण का ग्वालियर के समीप कुमार नगर मे पणियार के
-सम्मइ जिन चरिउ जिन चैत्यालय में श्रावक जनों के व्याख्यान करने के लिये
काष्ठासंघ स्थित माथु रगच्छ पदावली में भी, दीक्षा उद्धार किया था। इनकी दोनों पुराण रचना स. १४६७ देने में सुदक्ष, सहृदय, सच्चरित, मुक्तिमार्गी, लोभ, क्रोध, और १५०० की है। यह भ० पद पर कब प्रतिष्ठित हुए और मायारूप मेघों को उड़ाने के लिये मारुति (वायु) देव और कब उसका परित्याग कर अपने शिष्य मलयकीर्ति थे। वे मलयकीति जयवन्त हों। को उस पर प्रतिष्ठित किया, इसका कोई प्रामाणिक
२. तं जसकित्ति-मुणिह उद्धरियउ, उल्लेख नहीं मिलता है । कवि रघु ने भी इनकी मृत्यु के
णिएवि सुत्तु हरिवसच्छचरिउ । काष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे प्राचार्य श्री सहस णिय-गुरु-सिरि-गुणकित्ति-पसाएं, (स) कीति देवास्तत्प? प्राचार्य गुणकीर्तिदेवास्त- किउ परिपुण्णु पणहो प्राणुराए । च्छिष्य श्री यशःकीर्तिदेवास्तेन निजज्ञानावरणी सरह सणेद (?) सेठि पाएस, कर्मक्षयार्थ इद भविष्यदत्त-पंचमी कथा लिखापितम् । कुमर-णयरि प्राविउ सविसेसें।
-जैन नया मन्दिर धर्मपुरा, दिल्ली गोवग्गिरिहे समीवे विसालए, स० १४८६ वर्षे प्राश्वणि वदि १३ सोमादिने पणियारहे जिणवर-चेयालए। गोपाचलदुर्ग राजा डूगरेन्द्रसिंह देव राज्य प्रवर्तमाने सावयजणहो पुरउ वक्खाणिउ, श्री काष्ठासघे माथुरान्वये पुष्करगणे प्राचार्य श्री दिद मिच्छत्तु मोहु अवमाणिउ । हरिवंश पुराण प्र. भावसेनदेवास्तत्प? थीसहस्रकीतिदेवास्तत्पटे ३. दीक्षादाने सुदक्षोवगतगुरु शिष्यवा क्षेत्रनाथ । श्रीगुणकीर्तिदेवास्तशिष्येन श्रीयशःकीर्तिदेवेन ध्यायतन्त श्रान्त शिष्टं चरित सहृदयो मुक्तिमार्गे।। निजज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इद सुकमालचरित
यो लोभक्रोध मायाजलद विलयने मारुतो माथुरेशः । लिखापितम् कायस्थ याजन पुत्र थलू लेखनीयं ।
काष्ठासघे गरिष्ठो जयति स मलयाद्यस्तत: कोतिसूरिः। -सुकमालचरित प्रश.
-काष्ठासघ मा०प्र०
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ग्वायलिर के काठासंघो कुछ भट्टारक
यह मलयकीर्ति वही जान पडते है जिन्होंने सं० आचरण की विधि और फल का प्रतिपादन करते हुए व्रत १४९४ में मूलाचार को प्रशस्ति लिखी थी । यह प्रतिष्ठा की महत्ता पर अच्छा प्रकाश डाला है। इनमे से सवण चार्य भी थे। इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां मन्दिरों में वारसि कहा और लब्धि विधान कहा, इन दो कथाओं को अनेक मिलेंगी किन्तु मुझे तो केवल दो मूर्ति लेख ही प्राप्त ग्वालियर के संघपति उद्धरण के जिन मन्दिर में बैठकर हो सके है। अन्वेषण करने पर और भी मिल सकते है। सारंगदेव के पुत्र देवदास की प्रेरणा से रचा गया है। इनकी रचनाएं अभी तक प्राप्त नहीं हुई। जिनका अन्व- पुष्पाजलि, दहलक्खणवय कहा मोर अनंतवय कहा इन षण करना आवश्यक है। या कोई भिन्न मलयकीति है। तीनो को जयसवालवंसी लक्ष्मणसिंह चौधरी के पुत्र पंडित
भट्टारक गुणभद्र-भ० मलयकीति के पटटधर एवं भीमसेन के अनुरोध से रचा है । और नरक उतारी दुद्धाशिष्य थे। पाप अपभ्रंश भाषा के विद्वान कवि और रस कहा, ग्वालियर निवासी साहू वीषा के पुत्र सहणपाल प्रतिष्ठाचार्य थे। आपने अपने जीवन को प्रात्म-साधना ।
के अनुरोध से रची गई है। भ० गुणभद्र नाम के अनेक के साथ धर्म और समाज-सेवा में लगाया था। आपके
विद्वान हो गए है। परन्तु उनमे प्रस्तुत गुणभद्र सबसे द्वारा रची गई १५ कथाए खज़र मस्जिद दिल्ली के पंचा
भिन्न जान पड़ते है। इनका समय विक्रम की १६वीं यती मन्दिर के एक गुच्छक मे उपलब्ध है । जिन्हे उन्होंने
शताब्दी है। इनके समय में अनेक ग्रन्थों की प्रतिलिपि ग्वालियर में रहकर भक्त श्रावको की प्रेरणा से बनाई
सो की गई, और मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी हुई है। उनमें से थी, जिनके नाम इस प्रकार है -१. सवणवारसि कहा,
दो मूर्ति लेख यहाँ दिये जाते है। २. पक्खवइ कहा, ३. प्रायास पंचमी कहा, ४. चदायणवय
१. स० १५२६ वैशाख सुदि ७ बुधे श्री काष्ठासंघ कहा, ५. चदण छठ्ठी कहा, ६. दुग्धारस कहा, ७. णिदुह
भ. श्री मलयकीति भ० गुणभद्राम्नाये अग्रोत्कान्वये मित्तल मत्तमी कहा, ८. मउड सत्तमी कहा, ६. पुष्पांजलि कहा,
गोत्रे आदि लेख है । यह घातु की मूर्ति भ० आदिनाथ की
यक्ष यक्षिणी सहित है। १०. रयणत्तय कहा, ११. दहलक्खणवयकहा, १२.
२. सं० १५३१ फाल्गुण सुदि ५ शके काप्ठासंघे भ. प्रणतवय कहा, १३. लद्धिविहाण कहा, १४. सोलहका
गुणभद्राम्नाये जैसवाल सा. काल्हा भार्या [जयश्री] रणकहा रयणत्तय कहा, १५. सुगध दहमी कहा।
प्रादि । यह मूर्ति १८ इच धातु की है। कवि ने इन कथानों मे, व्रत का स्वरूप, उनके
इस सब विवेचन से पाठक भट्टारक गुणभद्र के १. स. १५०२ वर्षे कार्तिक सुदी ५ भौमदिने श्री काष्ठा. व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचय प्राप्त कर सकते हैं।
संघे श्री गुणकीर्तिदेवाः तत्पी श्री यशःकीति देवाः भानुकोति-यह भट्टारक गुणभद्र के पट्टधर थे। तत्पटटे मलयकीर्तिदेवान्वये साह नरदेव तस्य भार्या अपने समय के अच्छे विद्वान, उपदेशक और प्रतिष्ठाचार्य जणी।
थे। शब्द शास्त्र, तर्क, काव्य अलंकार एवं छन्दों मे -~-अनेकान्त वर्ष १०, पृ० १५६ निष्णात थे। इनके द्वारा लिखी हुई एक रविव्रत कथा स० १५१० माघ सदि १३ सोमे श्री काष्ठासघे ६. यी जानातिसुशब्दशास्त्रमनघ काव्यानि तर्कादिद, प्राचार्य मलयकीर्ति देवाः तः प्रतिष्ठितम् ।
सालाकार गुणयुतानि नियत जानाति छन्दासि च । गुणगणमणिभूषो बीतकामादि शेषः,
यो विज्ञानयुतो दयाशमगुणर्भातीहि नित्योदय, कृत जिनमत तोषस्तत्पदेशान्त वेय. ।
जीयाच्छी गुणभद्रमूरि...श्रीमानुकीर्ति गुरुः ।। धनचरणविशेष: सत्यघोषे विरोधो,
कमलकित्ति उत्तमखम धारउ, जयति च गुणभद्र' गरिरानन्दभूरिः ।
भवह भव-अम्भोणिहितारउ ।
-काष्ठासं मा०प० तस्स पट्ट कणयट्टि परिट्ठउ, २. देखो, जैन अन्य प्रशस्ति संग्रह भा०२ पृ० ११२ । सिरि सुहचंद सु-तव उक्कट्ठिउ ।।
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अनेकान्त
मेरे अवलोकन में भाई है। परन्तु अन्य रचनाओं का प्रभी हुए थे। कुमारसेन के शिष्य हेमचन्द्र थे और हेमचन्द्र के तक पता नहीं चला । इनका समय विक्रम की १६वीं और शिष्य पद्मनन्दि । पपनन्दि के शिष्य यश-कीति थे जिन्होंने १७वीं शताब्दी है।
सं० १५७२ मे केशरिया जी में सभा मण्डप बनवाया था। कमलकीति-हेमकीर्ति के पट्टधर थे। यह सं० इन यशःकीति के दो शिष्य थे गुणचन्द्र और क्षेमकीर्ति, १५०६ में पट्टधर थे, उस समय चन्द्रवाड में राजा राम- गुणचन्द्रका सम्बन्ध दिल्ली पट्ट परम्परा से है । चन्द्रदेव और उनके पुत्र युवराज प्रतापचन्द्र के समय
माथुरगच्छ के एक अन्य कमलकीति का उल्लेख कविवर रघु ने शान्तिनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा की
मिलता है जिन्होने देवसेन के तत्त्वसार की एक संस्कृत थी। तब हेमकीति के पटटघर कमलकीर्ति प्रतिष्ठित थे।
टीका बनाई है, वे अमलकीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने उस इनका समय भी विक्रम की १६वीं शताब्दी है ।
टीका की प्रशस्ति मे अपनी गुरु-परम्परा निम्न प्रकार बतइनके दो शिष्य थे शुभचन्द्र और कुमारसेन । उनमें लाई है। क्षेमकीर्ति, हेमकीति, संयमकीर्ति, अमलकीति शुभचन्द्र कमलकीर्ति के पट्ट पर सोनागिर में प्रतिष्ठित और कमलकीति'। हो सकता है कि ये दोनों कमलकीति हुए थे। और कुमारसेन भानुकीति के पट्ट पर आसीन एक हों। कारण कि सं० १५२५ के मूर्तिलेख मे जो कवि१. देखो जैन ग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह भा० २ १० १११
वर रइघ द्वारा प्रतिष्ठित है । उसमें भ० अमलकीति और की टिप्पणी।
उनके बाद शुभचन्द्र का उल्लेख है। और यह भी हो २. सिरि-कंजकित्ति-पटेंबरेसु,
सकता है कि दोनों कमलकीति भिन्न ही हों, क्योंकि दोनों
के गुरु भिन्न-भिन्न है और वह भी सम्भव है कि एक ही तच्चत्थ-सत्य भासण दिणेसु ।
विद्वान के दीक्षा और शिक्षा गुरु के भेद से दो विद्वान उदइय-मिच्छत्त तमोह-णासु,
गुरु रहे हों। कुछ भी हो, इस संबंध में अन्वेषण करना सुहचन्द भडारउ सुजस-वासु ॥
अत्यन्त आवश्यक है। -हरिवंश पुराण प्रशस्ति तत्पट्टमुच्चमुदयाद्रि मिवानुभानुः,
कुमारसेन'-भान कीर्ति के शिष्य थे। स्याद्वाद रूप
निर्दोष विद्या के द्वारा वादीरूपी गजों के कुभस्थल के श्रीभानुकीर्तिरिह भाति हतांधकारः ।
विदारक थे। सम्यक दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र उद्योतयन्निखिल सूक्ष्मपदार्थसार्यान्,
के धारक थे। कामदेव के जीतने वाले तथा महाव्रतों का भट्टारको भुवनपालक पनबन्धुः ॥६॥
पाचरण करने वाले थे। अच्छे विद्वान तपस्वी और जन-जम्बूस्वामि चरित पृ०८
कल्याण करने मे सदा तत्पर रहते थे। इसीसे पांडे राजहेमकीर्ति दिल्ली के भट्टारक प्रभाचन्द्र के प्रशिष्य
मल जी ने उनकी विजय कामना की है। मौर शुभचन्द्र के शिष्य थे। ये वही हेमकीर्ति ज्ञात होते है जिनका उल्लेख सं० १४६५ के विजो- ३. तत्पट्टमब्धिमभिवर्द्धनहेतुरिन्द्रः, लिया में उत्कीर्ण शिलालेख में हमा है। इससे इनका
सौम्यः सदोदयमयोलसदंशुजालैः । समय विक्रम की १५वीं शताब्दी है।
ब्रह्मव्रताचरणनिजितमारसेनो, शिष्येऽय शुभचन्द्रस्य हेमकीति महासुधीः ।
भट्टारकोविजयतेऽथकुमारसेनः ॥६३।। देखो अनेकान्त वर्ष ११ कि० १०, पृ० ३६ ।
-जम्बस्वामी चरित पृ०८ चेतन चित परिचय विना, जप तप सबै निरत्थ । कण बिन तुव जिम फटकत, कछु न प्राव हत्थ । चेतन चित परिचय बिना कहा भये व्रत धार । शालि विहूने खेत की, वृथा बनावत वार ॥
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शहडोल जिले में जैन संस्कृति का एक अज्ञात केन्द्र
प्रो० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु', एम. ए., शास्त्री
वर्तमान मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ सम्भाग में भारतीय इतिहास, कला और संस्कृति की अनेक अनुपम निधियाँ अब भी अछूती हैं। शहडोल जिला इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है । शहडोल जिले में पर्यटन करने का अवसर मुझे गत माह मिला और इसी सन्दर्भ में, मैंने एक महत्वपूर्ण स्थान का पर्यवेक्षण किया ।
शहडोल जिले में, दक्षिण-पूर्वी रेलवे के अनूपपुर जकशन से चिरमिरी जाने वाली ब्राञ्च लाइन पर कोतमा एक महत्वपूर्ण एवं समृद्ध व्यापारिक और राजनैतिक केन्द्र है । कोतमारेलवे स्टेशन से पांच मील पूर्व की श्रोर 'किवई' नामक रमणीय नदी बहती है । इस नदी के तट पर अनेक महत्वपूर्ण प्राचीन स्थान होने की सूचनाएं मुझे स्थानीय लोगों से मिली। उनमें से एक स्थान का सर्वेक्षण मैने किया है, वह यहाँ प्रस्तुत है
कोतमा से पांच मील पूर्व में 'किवई नदी' के तटवर्ती प्रदेश को अब रण्डही और गड़ई नामों से पुकारा जाता है । 'रण्डही ' अरण्य का 'गड़ई' गढ़ी का अपभ्रंश हो सकता है । कदाचित् पहले इस स्थान पर कोई गढ़ी ( छोटा किला) रही होगी, जो भब ध्वस्त हो गई है । वर्तमान में इस तटवर्ती प्रदेश को अरण्य संज्ञा सरलता से दी जा सकती है । यह स्थान निकटवर्ती ग्रामों ― चन्दोरी से एक मील पूर्व में. ऊरा से एक मील उत्तर-पश्चिम में तथा कठकोना से एक मील दक्षिण-पश्चिम मे किवई नदी के पूर्वी तट पर है । इस स्थान का चारों श्रोर काफी दूर तक पर्यवेक्षण किया । लेखक का दृढ़ विश्वास है कि प्राचीन काल में यह एक समृद्ध केन्द्र था । प्राचीन नागरिक सभ्यता के अवशेष पर्याप्त मात्रा में अब भी यत्र-तत्र दिखाई देते हैं । तांबे तथा लोहे की प्रचीन वस्तुए, पकी मिट्टी के खिलौने तथा गृहोपयोगी पत्थर श्रादि की वस्तुएं भूमि के अन्दर तथा ऊपर प्रचुरता से प्राप्त होती हैं ।
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यदि इस स्थान पर उत्खनन कार्य कराया जाय तो निश्चित ही नई सामग्री उपलब्ध होगी यहाँ उलब्ध कलाकृतियों और पुरातात्त्विक अवशेषों से यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि इस प्रदेश में शैव मौर जैन-धर्मो का अच्छा प्रभाव था ।
यद्यपि शैव धर्म से सम्बन्धित शिवलिंग ही यहाँ उपलब्ध होते हैं जबकि जैन तीर्थकर मूर्ति वहाँ विशेष कही जा सकती है । प्रस्तुत निबन्ध में इस प्रदेश में विशेष रूप से प्रसिद्ध और मान्यता प्राप्त एक जैन तीर्थकर प्रतिमा का विश्लेषण उपस्थित किया जा रहा है ।
प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभनाथ की यह प्रत्यन्त सुन्दर और प्राचीन प्रतिमा इस प्रदेश में "ठाकुर बाबा" के नाम से विख्यात है । वर्तमान में यह एक बेल के वृक्ष के निकट नवनिर्मित चबूतरा सम्प्रति दो फुट तीन इच ऊँचा, छह फुट नौ इंच लम्बा और पाठ फुट तीन इच चौड़ा है । इसी चबूतरे के मध्य में कुछ पुराने मूर्ति खण्डों और अन्य शिलाखण्डों के सहारे उक्त तीर्थकर प्रतिमा टिकी हुई है। भगवान् ऋषभनाथ की यह प्रतिमा किंचित् हरित् वर्ण, चमकदार, काले पाषाण से निर्मित है। यह पत्थर वैसा ही है जैसा कि खजुराहो की मूर्तियों के निर्माण में प्रयुक्त हुआ है। मूर्तिफलक की ऊंचाई दो तीन इंच, फुट चौड़ाई एक फुट दो इंच तथा मोटाई छह इंच है। पद्मासनस्थ इस जिन प्रतिमा के छह इंच ऊंचे पादपीठ में (दोनों श्रोर) शार्दूलों के मध्य भूलती हुई मणिमाला के बीचोंबीच तीर्थंकर का लाञ्छन बृषभ बहुत सुन्दरता से
कित है । इसके ऊपर बायें एक श्रावक और दायें एक श्राविका अपने हाथों में फल ( कदाचित् नारियल ) लिए हुए भक्तिविभोर और श्रद्धावनत हो उठे है । कदाचित् ये प्राकृतियाँ मूर्ति समर्पकों या प्रतिष्ठापकों की होंगी। पादपीठ में ही दायें गोमुख यक्ष तथा बायें चक्रेश्वरी
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धनेकान्त
यक्षी को लघु प्राकृतियां अकित है ।
मंगल कार्य में वे बहुत आदर के साथ इसे स्मरण करते पादपीठ पर से मुख्य मूर्ति एक फुट तीन इच ऊची है तथा यथाशक्ति घी, दूध, नारियल, सुपाड़ी, फूल, फल एवं एक फुट दो इंक चोली है । मूर्ति में श्रीवत्स का लघु तथा अगरबत्ती अर्पित करते हैं। नौदुर्गा के अवसर पर आकार में अंकन, कन्धों तक लटकती हुई केश राशि तथा एक बड़े मेले का आयोजन भी यहाँ होता है। इस मूर्ति पृष्ठभाग में चक्राकार भामण्डल विशेष उल्लेखनीय है। के महत्त्व के सम्बन्ध मे निकटवर्ती ग्राम कठकोना के प्रमुख मूर्ति के शिरोभाग पर क्रमशः तीन छत्र इस भव्यता और भूतपूर्व जमीदार का जबानी बयान सुनिए, जो अपने पूरे चारुता से उत्कीर्ण किये गये है कि उनमें गुथा हुमा एक गाँव की ओर से इस मूर्ति की उपासना करने पाया था। प्रत्येक मणि साकार हो उठा है। छत्रत्रय के दोनों पाश्वो उसी के शब्दो में प्रस्तुत है :मे भगवान का मानों अभिषेक करने हेतु अपने शडादण्डो
"हमारा नांव अग्नू बलद काशीराम है। मोर उमर में कलश लिए हुए अत्यन्त सुसज्जित गजराजो का
६५ साल की है। हम ई गाँव के जमीदार पाहन । ई मनोरम निदर्शन दर्शको का मन सहज ही अपनी ओर
मूरत की पूजन हमी करत हन । रोट, नरियल, दम कथा आकृष्ट कर लेता है।
गाँव वारन की तरफ से टम-टम से होत रहत है । पासमुख्य मूर्ति के उभय पार्यो में अशोक वृक्ष के नीचे
पास के गाँवन के लोग हर सम्वार को इकट्ठे होकर तीन-तीन इंच की दो-दो (प्रत्येक पोर) तीर्थकर मूर्तियाँ
फल, फूल, दूध, घी चढाते है, भक्त गावत है। ई देवता और भी अंकित है । इन सबके पृष्ठ भागो मे प्रभामण्डल जीव नहीं मांगता । ए ही देव हमारे गाँव का रक्षक है।" तो है ही, कंधों पर केशराशि भी दिखाई गई है।
इस बयान के समय उसकी श्रद्धा पद पद पर टपक यद्यपि इस मूर्ति पर कोई लेख नहीं है, तथापि सम. रही थी। गाँव मे पहुँचने पर अन्य लोगों से बर्ता मे उक्त सामयिक कला और मूर्तिगत विशिष्ट लक्षणों के प्राधार
तथ्वों की पुष्टि पाई। इस मति से करीब १ फर्लाग दूर पर इनका निर्माण काल ईसाकी सातवीं-पाठवी शती प्रतीत
एक प्राचीन मन्दिर के अवशेष भी है। होता है। इस समय महाकौशल में जैन धर्म एक शक्ति
किवई नदी के तट पर ही अन्यत्र, कोतमा से करीब शाली धर्म के रूप मे समादृत था और कलचुरि वश के ।
दो मील एक शिलालेख उत्कीर्ण होने की सूचनाएं भी शासको ने इसे पर्याप्त प्रोत्साहन प्रदान किया था। विवेच्य प्रदेश कलचूरियों की राज्य सीमा में विद्यमान था।
प्राप्त हुई है । यदि किवई नदी के तटवर्ती प्राचीन स्थानो
का सर्वेक्षण और आवश्यकतानुसार उत्खनन कराया जाता दुःख का विषय है कि कुछ वर्ष पूर्व किसी पागल ने
है तो प्राचीन कौशल, विशेष रूप से छत्तीसगढ़ के इतिइसे खण्डित कर दिया। किन्तु मूर्ति के तीनो खण्ड सुर
हास पर नया प्रकाश पडेगा। क्षित हैं तथा अच्छी स्थिति में है। ___ यद्यपि इस मूति के पास-पास के ग्रामों में अब एक १. मुझे इस स्थान का पर्यटन कराने का श्रेय श्रीविरतीभी जैन नही है तथापि उस प्रदेश की जैनेतर जनता लाल जैन कोतमा तथा उनके मित्रो को है। अतः इसे बहुत श्रद्धा और भक्ति के साथ पूजती है। प्रत्येक उन्हे धन्यवाद ।
सन् १६७९ की जनगणना के समय धर्मके | खाना नं. १० में जैन लिखाकर सही आँकड़े इकट्ठा करने में सरकार की मदद करें।
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युक्त्यनुशासन : एक अध्ययन
डा० दरबारीलाल जैन कोठिया
युक्त्यनुशासन के उल्लेख और मान्यता :
मर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते।" इस वाक्य का प्रभाव युक्त्यनुशासन समन्तभद्र की एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक लक्षित होता है। इसके अतिरिक्त त० वा. १-१२ (पृ. कृति है। यों तो उनकी प्रायः सभी कृतियाँ अर्थ गम्भीर ५७) मे 'प्रत्यक्ष बुद्धिः क्रमने न यत्र" (युक्त्य. का. और दुरूह है । पर युक्त्यनुशासन उनमें भी अत्यन्त जटिल २२) इत्यादि पूरी कारिका भी उद्धत पाई जाती है और एव गम्भीर है। इसका एक-एक वाक्य सूत्रात्मक है और उसे “उक्तंच" के साथ प्रस्तुत करके उन्हें उससे अपने बहु-प्रर्थ का बोधक है। साधारण बुद्धि और पायाम से प्रतिवादन को प्रमाणित किया है। इसकी गहराई एवं अन्तस्तल में नहीं पहुंचा जा सकता है।
प्रकलङ्कदेव से लगभग दो शताब्दी पहले प्राचार्य इसे समझने के लिए दार्शनिक प्रतिभा, असाधारण मेधा' पूज्यपाद-(ई. ५वीं शती) ने भी युक्त्यनुशासन का एकाग्र साधना और विशिष्ट परिश्रम की आवश्यकता है। उपयोग किया जान पड़ता है । युक्त्यनुशासन मे दो स्थलों युक्त्यनुशासन की इन्ही विशेषताओं के कारण हरिवश (का० ३६, ३७) में शीर्षोपहार, दीक्षा प्रादि से देवों की पुराणकार ने समन्तभद्र-वाणी को वीर-वाणी की तरह पाराधना कर सिद्ध बनने वालो की मीमांसा की गई है, प्रभावशालिनी बतलाया है। विद्यानन्द ने तो उससे प्रभा. जो सुख की तीव्र लालसा रखते हैं, पर अपने दोषों (रागवित होकर उस पर व्याख्या लिखी है और अपने ग्रन्थ मे द्वेष-मोहादि) की निवृत्ति नहीं करते । यथाउसके वाक्यों को प्रमाण रूप में प्रस्तुत करके अपने कथन शीर्षोपहारादिभिरात्मदुःखदेवान् किलाराध्य सुखाभिगवाः। की सम्पुष्टि की है। प्राप्तपरीक्षा (पृ० ११८) मे वैशे- सियन्ति दोषापचयानपेक्षा युक्त च तेषां त्वमपिन येषाम् । षिक दर्शन की समीक्षा के सन्दर्भ में युक्त्यनुशासन +
+
+ (का० ७) के एक प्रमाण-वाक्य "संसर्गहानेः सकलार्थ
स्वच्छन्दवृत्तेजगतः स्वभावादुच्चरनाचारपयेष्वदोषम् । हानिः' का विस्तृत अर्थोद्घाटन किया है। उसे भाष्य
निघुष्य दीक्षासम-मुक्तिमानास्त्वदृष्टिबाह्यावत कहा जाय तो आश्चर्य नहीं है। वस्तुतः विद्यानन्द के इस
विभ्रमन्ति ॥३७॥ अर्थोद्घाटन से उक्त वाक्य की गम्भीरता और दुरूहता
पूज्यपाद ने भी लगभग इन्हीं शब्दों में अपनी सर्वार्थ की कुछ झोंकी मिल जाती है । यही बात समग्र युक्त्यनु
सिद्धि (६-२, पृ० ४१०) में संवर के गुप्त्यादि साधनों शासन की है।
के विवेचन सन्दर्भ में यही कहा हैविद्यानन्द से दो शती पूर्व भट्ट प्रकलङ्कदेव (ईसा की 'तेन तीर्थाभिषेक-दीक्षा-शीर्षोपहार-वतारापनादयो ७वीं शती) ने भी युक्त्यनुशासन के वाक्यो और कारि- निवतिता भवन्तिः राग-रेष-मोहोपात्तस्य कर्मणोऽन्यथा कानों को उद्धत किया है। तत्त्वार्थवात्तिक (पृ० ३५) में निवस्यभावात् ।' मागत अनेकान्त लक्षण-"एकत्र सप्रतिपक्षानेकधर्मस्वरूप.
इन दोनों स्थलों की तुलना से प्रतीत होता है कि निरूपणो युक्त्यागमाम्यामविरुद्धाः सम्यगनेकान्तः"-पर
पूज्यपाद युक्त्यनुशासन से परिचित एवं प्रभावित थे और युक्त्यनुशासन (का. ४८) के "युक्त्यागमाम्यामविरुद्ध
उसकी उक्त कारिका का उनके उक्त वाक्यों पर प्रभाव १. वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजुम्भते ।
है। युक्त्यनुशासन के "शीर्षोपहारादिभिः" और "दीक्षा. -जिनसेन (द्वितीय), हरिवंश पुराण १-३० । सममुक्तिमानाः" तथा सर्वार्थसिद्धि के "...दीक्षा-शीर्षों
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अनेकान्त
पहर-देवताराधनादयो" इन शब्दों के अतिरिक्त युक्त्य- 'युक्त्यनुशासन' दिया है और उन्हें उसका कर्ता कहा है। नुशासन के "सिद्धयन्ति दोषापचयानपेक्षा" और सर्वार्थ- आश्चर्य नही, उनकी वह 'युक्त्यनुशासन' नाम से उल्लिसिद्धि के "राग-द्वेष-मोहोपात्तस्य कर्मणोऽन्यथा निवृत्त्य- खित कृति प्रस्तुत कृति ही हो। भावात्" पद विशेष ध्यातव्य हैं जो स्पष्टतः युक्त्यनु- यहाँ प्रश्न हो सकता है कि उक्त नाम स्वयं समन्तशासन का सर्वार्थसिद्धि पर प्रभाव सूचित करते हैं ।
भद्र के लिए भी इष्ट है या नहीं? यदि इष्ट है तो उन्होंने
ग्रंथ के अादि अथवा अन्त में वह नाम निर्दिष्ट क्यों नहीं संस्कृत टीकाकार प्रा०विद्यानन्द ने टीका का प्रारम्भ किया ? इसका उत्तर यह है कि उपर्युक्त नाम स्वयं मध्य प्रौर पन्त में 'युक्त्यनुशासन' नाम से उल्लेख किया समन्तभद्रोक्त है । यद्यपि उन्होंने वह नाम ग्रंथ के प्रारम्भ है। आदिवाक्य', जो मंगलाचरण या जयकार पद्य के रूप में या अन्त में नहीं दिया, तथापि उसके मध्य में वह नाम में है, समन्तभद्र के इस स्तोत्र का जयकार करते हुए उपलब्ध है। कारिका ४८ में समन्तभद्र ने युक्त्यनुशासन' उन्होंने इसका नाम स्पष्ठतया 'युक्त्यनुशासन' प्रकट किया पद का प्रयोग करके उसकी सार्थकता भी प्रदर्शित की है। हैं। कारिका ३६ की टीका समाप्ति पर, जहाँ प्रथम उन्होंने बतलाया है कि 'युक्त्यनुशासन' वह शास्त्र है, जो प्रस्ताव पूर्ण हुमा है और जो प्रायः ग्रंथ का मध्य भाग है, प्रत्यक्ष और मागम से अविरुद्ध अर्थ का प्ररूपक है। एक पद्य' तथा पुष्पिका वाक्य में भी विद्यानन्द ने प्रस्तुत अर्थात् युक्ति (हेत), जो प्रत्यक्ष और पागम के विरुद्ध स्तोत्र का नाम 'युक्त्यनुशासन' बतलाया है। इसके नही है, पूर्वक तत्व (वस्तु स्वरूप) की व्यवस्था करने अतिरिक्त टीका के अन्त में दिये गये दो समाप्ति पद्यों वाले शास्त्र का नाम युक्त्यनुशासन है। जो अर्थ प्ररूपण में से दूसरे पद्य में और टीका समाप्ति पुष्पिकावाक्य में प्रत्यक्ष विरुद्ध अथवा पागम विरुद्ध है वह युक्त्यनुशासन स्वामी समन्तभद्र की कृति के रूप मे इसका 'युक्त्यनु- नहीं है । युक्त्यनुशासन की यह परिभाषा प्रस्तुत ग्रथ में शासन' नाम स्पष्टतः निर्दिष्ट है।
पूर्णतया पाई जाती है। अपनी इस परिभाषा के समर्थन हरिवंश पुराण के कर्ता जिनसेन' (वि० सं०८४०) मे समन्तभद ने इसी कारिका (४८) मे एक उदाहरण ने भी अपने इसी पुराण के प्रारम्भ में पूर्ववतीं प्राचार्यों भी उपस्थित किया है। वह इस प्रकार है-'अर्थरूप के गुण वर्णन सन्दर्भ में समन्तभद्र की एक कृति का नाम (वस्तूस्वरूप) स्थिति, उत्पत्ति और विनाश इन तीनों को १. जीयात्समन्तभद्रस्य स्तोत्रं युक्त्यनुशासनम् ।
प्रति समय लिए हुए ही तत्त्वतः व्यवस्थित होता है, क्योंकि -युक्त्य० टी० पृ० १, माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थ
वह सत् है' इस उदाहरण में जिस प्रकार वस्तु का स्वरूप माला, बम्बई।
सत्पादादित्रयात्मक (युक्ति हेतु) पुरस्सर सिद्ध किया गया २. स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपतेर्वीरस्य निःशेषतः ।
है और वह प्रत्यक्ष अथवा पागम से विरुद्ध नहीं है उसी -वही पृ०.६।
प्रकार वीर-शासन में समग्र अर्थसमूह प्रत्यक्ष और प्रागमा३. इति युक्त्यनुशासनं परमेष्ठिस्तोत्रे प्रथमः प्रस्तावः ।
विरोधी युक्तियों से सिद्ध है। तात्पर्य यह कि प्रत्यक्ष और -वही पृ० ८६।
पागम से अबाधित तथा प्रमाण और नय से निर्णीत अर्थ ४. प्रोक्तं युक्त्यनुशासनु विजयिभिः स्याद्वादमार्गानुगः।
प्ररूपण वीर-शासन में ही उपलब्ध होता है और उसी -युक्त्य०टी० पृ० १८२ ।
प्रकार मर्थ प्ररूपण समन्तभद्र ने युक्त्यनुशासन ग्रन्थ में ५. इति श्रीमद्विद्यानन्द्याचार्यकृतो युक्त्यनुशासनालङ्कारः किया है ।
किया है। अतः प्रत्यक्ष और पागमाविरुद्ध अर्थ (तत्त्व) समाप्तः।
का प्ररूपक होने से वीर-शासन युक्त्यनुशासन है और -वही पृ०१२।
वीर-शासन का ही इस ग्रन्थ में प्ररूपण होने से इमें युक्त्य६. जीवसिद्धिविधायीह कृत युक्त्यनुशासनम् ।
नुशासन' नाम दिया जाना सर्वथा उपयुक्त है। और वह -हरि: पु०१-३०॥
७. दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते ।
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युक्त्यनुशासन : एक अध्ययन
उक्त प्रकार से समन्तभद्र अभिहित ही है ।
"..स्तुतिगोचरत्वं निनीषवः स्मो वयमद्य वीर" (का.१) परवर्ती विद्यानन्द, जिनसेन (हरिवंश पुराणकार) जैसे इससे "वीर-स्तुति", 'न रागान्नः स्तोत्रं भवति भव पाशमूर्धन्य ग्रंथकारों ने समन्तभद्र द्वारा दत्त नाम से ही इसका छिदि मुनौ" (का०६३) और "स्तुतः शक्त्या "वीरो" उल्लेख किया है। उन्होंने वह नाम स्वयं कल्पित नहीं किया। (का० ६४) इन पदों से तथा "स्तोत्रे युक्त्यनुशासने
एक प्रश्न और यहाँ उठ सकता है। वह यह कि यदि जिनपतेर्वीरस्य निःशेषतः" (टी०८९) इस टीका पथ से उक्त नाम स्वयं समन्तभद्रोक्त है तो उसे उन्होंने ग्रथ के "वीर-स्तोत्र", "इति युक्त्यनुशासने परमेष्ठिस्तोत्रे प्रादि अथवा अन्त में ही क्यों नहीं दिया, जैसा कि दूसरे प्रथमः प्रस्तावः" (टी० पृ० ८६) इस मध्यवर्ती टीकाग्रंथकारों की भी परम्परा है ? समन्तभद्र ने स्वयं अपने पुष्पिकावाक्य से "परमेष्ठिस्तोत्रे" और "श्रद्धागुणज्ञतयोरेव अन्य ग्रंथों के नाम या तो उनके प्रादि में दिये हैं और या परमात्मस्तोत्रे युक्त्यनुशासने प्रयोजकत्वात्" (टी० पृ० अन्त में । देवागम (आप्तमीमांसा) में उसका नाम प्रादि १७८) इस टीका-वाक्य से "परमात्म-स्तोत्र" ये चार नाम में देवागम और अन्त में प्राप्तमीमांसा निर्दिष्ट है। स्वय. फलित होते है। वस्तुतः समन्तभद्र ने इसमें भगवान् म्भूस्तोत्र में उसका नाम प्रारम्भ में "स्वयम्भुवा" (स्व- वीर और उनके शासन का गुणस्तवन किया है। प्रत: यम्भू) के रूप में पाया जाता है। इसी प्रकार रत्नकरण्ड- इनके ये नाम सार्थक होने से फलित हों तो कोई पाश्चर्य श्रावकाचार में उसका नाम उसके अन्तिम पद्य में पाये नही है । ग्रंथ की प्रकृति उन्हें बतलाती है। "...रत्नकरण्डभावं" पद के द्वारा प्रकट किया है। परतु नाम पर प्रभावप्रस्तुत युक्त्यनुशासन में ऐसा कुछ नहीं हैं ?
लगता है कि समन्तभद्र ने युक्त्यनुशासन की रचना इसका समाधान यह है कि ग्रन्थकार अपने प्रथ का नागार्जन की 'युक्तिपष्ठिका' से प्रेरित होकर की नाम उसके प्रादि और अन्त की तरह मध्य में भी देते है। 'युक्तिपष्ठिका' ६१ पद्यों की बौद्ध दार्शनिक कृति हुए मिलते हैं। उदाहरण के लिए विषापहारकार घन- है। इसमें नागार्जुन ने, जो माध्यमिक (शून्यात)
जय को लिया जा सकता है। धनञ्जय ने अपने स्तोत्र सम्प्रदाय के प्रभावशाली विद्वान् हैं, और जिन्होंने प्राचार्य 'विषापहार' का नाम न उसके प्रारम्भ में किया और न कुन्दकुन्द तथा गृद्धपिच्छ की समीक्षा की है', भाव, प्रभाव अन्त में। किन्तु स्तोत्र के मध्य में एक पद्य (१४) मे
२. १० फरवरी १९४७ में शान्तिनिकेतन के शोधकर्ता प्रकट किया है, जिसमें विषापहार' पद पाया है और
श्रीरामसिंह तोमर द्वारा युक्तिषष्ठिका के १ से ४० उसके द्वारा स्तोत्र का नाम 'विषापहार' मूचित किया है ।
संख्यक पद्यों में से केवल विभिन्न सख्या वाले २३ इसी प्रकार समन्तभद्र ने इस ग्रन्थ के मध्य मे "दृष्टागमा
पद्य प्राप्त हुए थे। उनसे ज्ञात हमा था कि चीनी भ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं" (का० ४८) इस
भाषा मे जो युक्तिषष्ठिका उपलब्ध है उस पर से ही कारिका वाक्य में प्रयुक्त 'युक्त्यनुशासन ते' पद से इसका
उक्त पद्य संस्कृत में अनूदित हो सके हैं। शेष का 'युक्त्यनुशासन' नाम अभिहित किया है। फलतः उत्तर
अनुवाद नही हुमा। मालूम नहीं, उसके बाद शेष वर्ती ग्रंथकारों में इसका यही नाम विश्रुत हया और
पद्यों का अनुवाद हो सका या नहीं। प्रकट है कि उन्होंने उसी नाम से अपने ग्रंथों में निर्देश किया। प्रतः
कम-बढ़ पद्य-संख्या होने पर भी युक्तिषष्ठिका इसका मूल नाम 'युक्त्यनुशासन' (युक्ति शास्त्र) है।
'षष्ठिका' कही जा सकती है। विशतिका प्रादि मूल ग्रंथ और उसकी विद्यानंद-रचित संस्कृत-टीका
नामों से रची जाने वाली रचनामों से कम-बढ़ पर से इसके अन्य नाम भी प्राप्त होते हैं । वे हैं-वीर
श्लोक होने पर भी उन्हें उन नामों से अभिहित स्तुति, वीर-स्तोत्र, परमेष्ठि-स्तोत्र और परमात्मस्तोत्र ।
किया जाता है। लेखक। १. 'विषापहारं मणिमौषधानि मन्त्रं समुद्दिश्य रसा. ३. 'नागार्जुन पर कुन्दकुन्द और गृपिच्छका प्रभाव
यनं च। -बिषपहारस्तोत्र श्लो०१४ । शीर्षक मेरा प्रकाश्यमान लेख।
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अनेकान्त
मादिरूप से तत्त्वका निरास करके शून्यावत की सम्पुष्टि की मीमांसा करके वह प्राप्त वीर को और प्राप्त-शासन वीरहै। युक्त्यनुशासन में ६४ पद्य हैं और उनमें भाव, प्रभाव शासन को सिद्ध किया है तथा अन्यो को अनाप्त और प्रादि अनेकान्तात्मक वस्तु की स्याद्वाद द्वारा व्यवस्था की उसके शासनों को अनाप्त शासन बतलाया है। इस गयी है। प्रतएव युक्त्यनुशासन नागार्जुन की युक्तिषष्ठिका मीमांसा (परीक्षा) की कसौटी पर कसे जाने और सत्य के अन्तर में लिखा गया प्रतीत होता है। इस प्रकार की प्रमाणित होने के उपरान्त वीर और उनके स्याद्वाद-शासन परम्परा दार्शनिकों में रही है। उद्योतकरके न्यायवार्तिकका की स्तुति (गुणाख्यान) करने के उद्देश्य से समन्तभद्र ने उत्तर धर्मकीति ने प्रमाणवातिक और कुमारिल ने मीमांसा युक्त्यनुशासन की रचना की है। यह उन्होंने स्वय प्रथम श्लोकवार्तिक द्वारा तदनुरूप नामकरण पूर्वक दिया है। कारिका' के द्वारा व्यक्त किया है। उसमें प्रयुक्त “प्रद्य" भकलंक का तत्त्वार्थवातिक और विद्यानन्द का तत्त्वार्थ- पद तो, जिसका विद्यानन्द ने 'परीक्षा के अन्त में यह श्लोकवार्तिक भी उक्त परम्परा की ही प्रदर्शक रचानाए अर्थ किया है, सारी स्थिति को स्पष्ट कर देता है। हैं। यूक्ति शब्द से प्रारम्भकर रचे जाने वाले ग्रन्थो के टीका के अनुसार यह ग्रंथ दो प्रस्तावों में विभक्त है। निर्माण की भी परम्परा उत्तर काल में दार्शनिको में रही पहला प्रस्ताव कारिका १ से लेकर ३६ तक है और है। फलत: 'युक्तिदीपिका' (साख्यकारिका-व्याख्या) जैसे दूसरा कारिका ४० से ६४ तक है। यद्यपि ग्रंथ के अन्त ग्रंथ रचे गये है।
मे पहले प्रस्ताव की तरह दूसरे प्रस्ताव का नाम-निर्देश यहाँ यह भी उल्लेख्य है कि लंकावतार सूत्र पद्यकार
नही है, व्याख्याकार ने "इति श्रीमद्विद्यानन्द्याचार्यकृतो ने' बुद्ध के सिद्धान्त (देशना) को “चतुर्विधो नयविधिः
युक्त्यनुशासनालङ्कारः समाप्तः।" इस समाप्ति-पुष्पिकासिद्धान्तं युक्तिदेशना" (श्लो० २४६) शब्दों द्वारा 'युक्ति- वाक्य के साथ ग्रन्थों को समाप्त किया है, तथापि ग्रन्थ देशना' प्रतिपादित किया है। समन्तभद्र ने वर्धमान वीर के मध्य (का०३६] में जब टीकाकार द्वारा स्पष्टतया के सिद्धान्त (शासन) को 'युक्त्यनुशासन' कहा है । अतः प्रथम प्रस्ताव की समाप्ति का उल्लेख किया गया है तो असम्भव नहीं कि युक्त्यनुशासन युक्त देशना का भी शेषांक द्वितीय प्रस्ताव सूतरां सिद्ध हो जाता है । तथा जवाब हो; क्योंकि दोनों का अर्थ प्राय: एक ही है, जो शेषांशके बीच मे किसी अन्य प्रस्ताव की कल्पना है नहीं। 'यक्ति पुरस्सर उपदेश' के रूप में कहा जा सकता है। प्रश्न हो सकता है कि प्रस्तावों का यह विभाजन अन्तर यही है कि लंकावतार सूत्र पद्यकार बुद्ध के उपदेश मूलकार कृत है या व्याख्याकारकृत ? इसका उत्तर यह को 'युक्ति पुरस्सर उपदेश' कहते हैं और समन्तभद वीर है कि यद्यपि ग्रंथकार ने उसका निर्देश नही किया, तथापि के उपदेश को समन्तभद्र इतना विशेष कहते है कि उस ग्रन्थ के अध्ययन से अवगत होता है कि उक्त प्रस्गवयुक्ति पुरस्सर उपदेश को प्रत्यक्ष और पागम से अबाधित विभाजन ग्रन्थकार को अभिप्रेत है, क्योंकि जिस कारिका भी होना चाहिए, मात्र युक्ति बल पर ही उसे टिका नहीं (३६) पर व्याख्याकार ने प्रथम प्रस्ताव का विराम माना होना चाहिए।
है वहाँ ग्रन्थकार की विचार-धारा या प्रकरण पूर्वपक्ष प्रन्य-परिचय---
(एकान्तवाद निरूपण व समीक्षा) के रूप में समाप्त है युक्त्यनुशासन ६४ पद्यों की विशिष्ट दार्शनिक रचना है । देवागम' युक्तिपूर्वक प्राप्त और प्राप्त-शासन की
और कारिका ४० से ६४ तक उत्तर पक्ष (अनेकान्त
निरूपण) है । यतः प्रथम प्रस्ताव में मुख्यतया एकान्तवादों १. लंकावतार सूत्र पद्य भाग की एक दुर्लभ प्रति, जो - खण्डित एवं मपूर्ण जान पड़ती है, ३० मार्च ४३ में
३. कीर्त्या महत्या भुविवर्द्धमानं र
त्वां वर्तमान स्तुतिगोचरत्वम् । श्रद्धेय पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार से प्राप्त हुई थी,
निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं उसीसे इन पद्योंको हमने अपनी नोटबुक में लिखा था। विशीर्णदोषाशयपाशबन्धम् ॥ २. देवागम का. ६, ७; वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट-प्रकाशन, ४. प्रद्यस्मिन् काले परीक्षावसान समये। वाराणसी।
-युक्त्य० टी० पृ०१।
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युक्त्यनुशासन : एक अध्ययन
की समीक्षा होने से उसे पूर्वपक्ष और द्वितीय प्रस्ताव में तीसरी और चौथी कारिकामों द्वारा प्रश्नोत्तर पूर्वक अनेकान्तवाद का निरूपण होने से उत्तर पक्ष कहा जा "तथापि वैयात्यमुपेत्य भक्त्या स्तोस्ताऽस्मि ते शक्त्यनुरूप सकता है । अतः विद्यानन्दने ग्रन्थकार के इस अभिप्राय को वाक्य:" (का० ३) जैसे बाक्यों को लिए हुए उनके प्रति ध्यान में रखकर ही दो प्रस्तावोंका स्पष्ट उल्लेख किया है। असीम भक्ति का प्रकाशन हो तो माश्चर्य नही, और प्रन्थ की अन्तिम दो कारिकाएँ
तब उक्त दोनो अन्तिम कारिकाएं ग्रन्थकारोक्त कही जा प्रथकार ने अपने नाम का उल्लेख "भवत्यभद्रोऽपि सकती है। समन्तभद्रः" इस ६२वी कारिका में किया है। उनके इस युक्त्यनुशासन-टीकाउल्लेख से प्रतीत होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ यही (६२वीं युक्त्यनुशासन पर विद्यानन्द की एक मध्यम परिभाण कारिका पर) समाप्त है। स्वयम्भूस्तोत्र में भी "तव देव! की संस्कृत-टीका प्राप्त है। यह टीका ग्रंय के हार्द को मतं समन्तभद्र सकलम्" (स्वयं० १४३) इस नामोल्लेख सप्ट करने में पूर्णतः सक्षम है। टीकाकार ने अत्यन्त वाली कारिका पर ही उनकी समाप्ति है और वही विशदता के साथ इसके पद-वाक्यादिका अर्थोद्घाटन कारिका उसकी अन्तिम कारिका है-उसके बाद उसमें किया है। व्याख्याकार की सूक्ष्म दृष्टि इसके प्रत्येक पद और कोई कारिका उपलब्ध नही है। जिनस्तुति प्राप्त- और उसके प्राशय के अन्तस्तल तक पहुंची है। वस्तुतः मीमासा और रत्नकरण्डकश्रावकाचार मे ग्रन्धकार का इस पर यह व्याख्या न होती तो युक्त्यनुशासन के अनेक नाम-निर्देश न होने से उनका कोई प्रश्न ही नही उठता। स्थल दूरधिगम्य बने रहते । व्याख्याकार ने अपनी इस अतः युक्त्यनुशासन मे उक्त ६२वी कारिका के बाद जो व्याख्या का नाम "युक्त्यनुशासनालङ्कार" दिया है, जो ६३ व ६४ नम्बर वाली दो कारिकाए अन्त मे पायी युक्त्यनुशासन का अलकरण करने के कारण सार्थक है । जाती है वे ग्रंथकारोक्त नही ज्ञात होती।
इसकी रचना प्राप्तपरीक्षा और प्रमाणपरीक्षा के बाद हुई प्रश्न है कि फिर प्राचार्य विद्यानन्द जैसे मूर्धन्य है, क्योंकि इस (१०१०, ११) मे उनके उल्लेख हैं । यह मनीषी ने उनकी व्याख्या क्यो की उससे तो उक्त दोनों व्याख्या मूल प्रथ के साथ वि० स० १९७७ में मा० दि. कारिकाएँ मूल ग्रन्थ की ही ज्ञात होती है ?
जैन प्रथमाला से एक बार प्रकाशित हो चुकी है, जो अब ___ इसका उत्तर यह दिया जाता है कि विद्यानन्द से अप्राप्य है और पुनः प्रकाश्य है । पूर्व युक्त्यनुशासन पर किसी विद्वान् के द्वारा व्याख्या हिन्दी-अनुवादलिखी गयी हो और व्याख्याकार ने अपनी व्याख्या के यक्त्यनशासन के मर्म को हिन्दी भाषा में प्रकट करने अन्त में उक्त पद्य दिये हों। कालान्तर में वह व्याख्या के उद्देश्य से स्वामी समन्तभद्र के अनन्य भक्त भोर लुप्त हो गयी हो और व्याख्या के उक्त अन्तिम पद्य मूल उनके प्रायः सभी ग्रन्थों के हिन्दी अनुवादक, प्रसिद्ध के साथ किसी ने जोड़ दिये हों। या यह भी सम्भव है साहित्य और इतिहासकार १० जुगलकिशोर मुख्तार कि किसी पाठ करने वाले विद्वान् ने उक्त पद्य स्वयं रच- 'युगवीर' ने इस पर एक हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है, कर उसके साथ सम्बद्ध कर दिए हो और वही प्रति जो विशद, सुन्दर पोर ग्रन्थानुरूप है। यह अनुवाद व्याख्या रहित विद्यानन्द को मिली हो तथा उन्होंने उक्त उन्होने विद्यानन्द की उक्त संस्कृत-टीका के आधार से दोनों पद्यों को उनके साथ पाकर उनकी भी व्याख्या की किया है। ग्रन्थ के दुरूह और क्लिष्ट पदों का अच्छा हो । जो हो, ये दोनों अन्तिम पद्य यथास्थिति के अनुसार अर्थ एवं प्राशय व्यक्त किया है। मूल ग्रंथ का अनुगम विचारणीय अवश्य हैं।
करने के लिए यह मनुवाद बहत उपयोगी और सहायक हाँ, एक बात यहाँ कही जा सकती है। वह यह कि है। यह वीर-सेवा-मन्दिर दिल्ली से सन् १९५१ में प्रकाग्रंथकार ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रथम कारिका मे वीर- शित हो चुका है। १४ जुलाई १९६६ जिन की स्तुति की इच्छा व्यक्त की है । तथा दूसरी,
काशी हिन्दूविश्वविद्यालय, वाराणसी।
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भगवान ऋषभदेव
परमानन्द शास्त्री
भारतीय वाङ्मय में जैनधर्म के प्राद्य प्रतिष्ठापक, के कारण व्रात्य नाम से, उल्लेखित किये जाते थे। प्रादि ब्रह्मा, प्रजापति, जातवेदस, विधाता, विश्वकर्मा, ऋषभदेव जन्मकाल से ही विशिष्ट प्रतिभा के धनी थे। हिरण्यगर्भ, विश्ववेदिस, व्रात्य, स्वयंभू, कपर्दी पौर वात. अतएव उन्होने जीने की इच्छा करने वाली प्रजा को रशना प्रादि नामों से जिन ऋषभदेव का संस्तवन किया असि, मषि, कृषि, सेवा, विविध शिल्प, पशुपालन और गया है। वे ऋषभदेव ऐतिहासिक महापुरुष हैं, जो आदि वाणिज्यादि का उपदेश दिया था। उन्होने जनता को ब्रह्मा और माद्य योगी के नाम से प्रसिद्ध है। ऋग्वेदादि लोक शास्त्र और व्यवहार की शिक्षा दी थी। और उस में इनकी स्तुति की गई है। ऋग्वेद में उन्हे 'केशी बत- धर्म की स्थापना की जिसका मूल अहिंसा है । इसी कारण लाया है और वातरशना का जो उल्लेख है वह भी ऋषभ- वे प्रादि ब्रह्मा कहलाते थे। उनकी दो पत्नियां थी। देव के लिए प्रयुक्त हुमा जान पड़ता है। महाभारत मे नन्दा और सुनन्दा । नन्दा से भरतादि निन्यानवे पुत्र और इन्हें पाठवां अवतार माना गया है। और भागवत के एक पुत्री ब्राह्मी का जन्म हुआ था। सुनन्दा से बाहुबली पंचम स्कध में ऋषभावतार का वर्णन है। विष्णुपुराण में
"सैपा हिरण्यमयी वृष्टिः धनेशेन निपातितः । भी ऋषभावतार का कथन है। और उन्हीं के उपदेश से
विभोहिरण्यगर्भवमिव बोधयितं जगत् ।।" जैनधर्म की उत्पत्ति बतलाई है। इन सब प्रमाणों से
महापु० ५० १२, ६५ ऋषभदेव की महत्ता का स्पष्ट भान होता है, वे उस काल
"गब्भट्ठि अस्स जस्सउ हिरण्णवुट्ठी सकचणा पडिया। के महान योगी थे।
तेणं हिरण्णगब्भो जयम्मि उवगिज्जए उसभो॥" भगवान ऋषभदेव सर्वार्थसिद्धि नामक स्वर्गसे अवधि
पउमचरिउ, ३-६८ समाप्त होने पर इस भूमण्डल के जम्बूद्वीपान्तर्गत भरत "दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थेशोनिरम्बरः ।" क्षेत्र के मध्य देशस्थ प्रयोध्या नगरी मे महाराज नाभि
-महापुराण राज के घर मरुदेवी के गर्भ से चैत्र वदी नवमी के दिन २ प्रजापतिर्गः प्रथम जिजीविषु सशास कृष्यादिषु कर्मअवतरित हुए थे। इनके गर्भ मे आने से षट् मास पूर्व ही सुप्रजाः ।
-वृहत्स्वयभू स्तोत्र नाभिराज का सदन इन्द्र द्वारा की हुई रत्न दृष्टि से भर
३ पुरगाम पट्टणादी लोलिय सत्थं च लोय व्यवहारो। पूर हो गया था। इस कारण वे लोक में 'हिरण्यगर्भ' नाम घम्मो वि दयामूलो विणिम्मियो प्रादि बम्हेण ॥ से प्रसिद्ध हुए। ऋषभदेव जन्म से ही तीन ज्ञान के
-त्रिलोकसार ८२० धारक थे। अतएव वे जातवेदस कहे जाते थे। स्वयं ज्ञानी
४ वायुपुराण में लिखा है कि भगवान ऋषभदेव से वीर होने के कारण स्वयंभू और महाव्रतों का अनुष्ठान करने
भरत का जन्म हुमा, जो कि अन्य नव से पुत्रों से बड़ा
था। भरत के नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष १ ऋग्वेद मं० १० सू० १२१ में-हिरण्यगर्भः सम- पड़ापर्वताने' रूप से उल्लेख किया है। 'हिरण्यगर्भयोगस्य
ऋषभाद् भरतोजज्ञे वीरः पुत्र शताग्रजः । वक्ता नान्यः पुरातमः ।"
तस्मात् मारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधा ।। महाभारत शान्तिपर्व०म० ३४६
-५२, वायुपुराण
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भगवान ऋषभदेव
WE
पौर सुन्दरी नाम की कन्या का जन्म हुआ था। जिनका उनकी रक्षा की। पालन-पोषण माता-पिता ने सम्यक रीति से किया। राज्यप्रादर्श गृहस्थाश्रम का मूलाधार विवेक और सयम है। किसी एक दिन भगवान ऋषभदेव राजसिंहासन पर सन्तान चाहे पुत्र हों या पुत्री, उनका भात्मज्ञानी और विराजमान थे। राजसभा लगी हुई थी और नीलांजना विवेकी होना आवश्यक है। इसी कारण भगवान ऋषभ- नाम की अप्सरा नृत्य कर रही थी। नृत्य करते करते देव ने अपने पुत्रो से पहले पुत्रियों को शिक्षित किया था। यकायक नीलाजना का शरीर नष्ट हो गया, तभी दूसरी उन्होंने ब्राह्मी और सुन्दरी को अपने पास बैठा कर काष्ठ भासरा नृत्य करने लगी। किन्तु इस प्राकस्मिक घटना से पट्रिका पर चित्राण करके उनका मन ललितकला के भगवान का चित्त उद्विग्न हो उठा-इन्द्रिय भोगों से सौन्दर्य से मुग्ध कर लिया। सुन्दर विटपों और मनोहर विरक्त हो गया। उन्होंने तुरन्त भरत को राज्य और शावक शिशुओं के रूप को देखकर उन्हें बडा कौतहल बाहुबली को युवराज मोर अन्य पुत्रों को यथायोग्य राज्य होता था। इस तरह उनका मन शिक्षा की अोर पाक- देकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। उनकी देखादेखी और भी र्षित करते हुए ऋषभदेव ने ब्राह्मी को अक्षर लिपिका अनेक राजामों ने दीक्षा ली; किन्तु वे सब भूख प्यास बोध कराया, वह लिपि ब्राह्मी के कारण 'ब्राह्मीलिपि' के मादि की बाधा को न सह सके और तप से भ्रष्ट हो नाम से लोक में ख्यात हुई। भगवान ऋषभदेव ने दूसरी गए। छह मास के बाद जब उनकी समाधि भंग हुई, तब पुत्री सुन्दरी को अक विद्या सिखलाई। उसी समय उन्होंने उन्होंने भाहार के लिए विहार किया। उनके प्रशान्त अकों का प्राधार निर्धारित किया मोर गणित शास्त्र के नग्न रूप को देखने के लिए प्रजा उमड़ पड़ी, कोई उन्हे बहुत से गुर बताये। सगीत और ज्योतिष का भी परि- वस्त्र भेट करता था, कोई प्राभूषण और कोई हाथी घोड़े ज्ञान कराया। आज भी ब्राह्मी लिपि और अङ्कगणित लेकर उनकी सेवा में उपस्थित होता था। किन्तु उन्हें मिलते है। भरतादि सभी पुत्रों को भी शस्त्र और भिक्षा देने की कोई विधि न जानता था, इस तरह से शास्त्र विद्या मे निष्णात बनाया था। इस तरह ऋषभदेव उन्हें विहार करते हुए छह महीने बीत गए। ने अपने पुत्र और पुत्रियों को विद्याओं और कलाओं में
एक दिन घूमते-घामते वे हस्तिनापुर में जा पहुंचे। निष्णात बना दिया और उनके कर्ण छेदन मुडन प्रादि
वहां का सोमवंशी राजा श्रेयान्स बड़ा दानी था, उसने सस्कार किए। इन पुत्रो मे भरत पाद्य चक्रवर्ती थे जिनके
भगवान का बड़ा भादर-सत्कार किया। भोर पादर पूर्वक नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। ऋषभदेव ने
उनका प्रतिगृह करके उच्चासन पर बैठाया, श्रद्धा और चिरकाल तक प्रजा का हित साधन किया और शासन द्वारा
भक्ति से उनके चरण घोए, पूजन की और फिर नमस्कार ६ पहले इस देश का नाम हिमवर्ष था, नाभि और करके बोला-भगवन् ! यह इक्षुरस निर्दोष और प्रासुक ऋषभदेव के समय प्रजनाम । किन्तु ऋषभ के पुत्र है, इसे पाप स्वीकार करें। तब भगवान ने खड़े होकर भरत के समय इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। अपनी प्रजली मे रस लेकर पिया। उस समय लोगों को विष्णुपुराण में लिखा है
जो मानन्द हुमा वह वर्णनातीत है। चूंकि भगवान का ऋषभात् भरतो जज्ञे ज्येष्ठः पुत्र शताग्रजः । यह पाहार वैशाख शुक्ला तीज के दिन हुमा था, इसी से ततश्च भारत वर्ष मेतल्लोकेषु गीयते ॥
यह तिथि 'अक्षय तृतिया'-प्रखती' कहलाती है। -विष्णुपुराण अंश २, म०१ माहार लेकर भगवान फिर वन को चले गए और प्रात्मभागवत में भी ऋषभ पुत्र महायोगी भरत से ही ध्यान में लीन हो गए । इस तरह ऋषभदेव ने एक हजार भारत नाम की ख्याति मानी गई है।
वर्ष तक कठोर तपश्चरण द्वारा प्रात्म-शोधन किया। येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठ गुणश्चासीत्। तपश्चरण से उनका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ।"
किन्तु पात्मबल मौर मारम तेज अधिक बढ़ गया था।
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८
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भनेकान्त
एक समय भगवान 'पुरिमतालपुर' (प्रयाग) नामक सुनते थे। जो उपदेश होता था उसे सभी जीव अपनी-अपनी नगर के उद्यान में ध्यानावस्थ थे। उस समय उन्हें केवल- भाषा में समझ लेते थे, यही उस वाणी की महत्ता थी। ज्ञान की प्राप्ति हुई। इस तरह वे पूर्णज्ञानी बन गए। इस तरह भगवान ने जीवन पर्यन्त विविध देशों-काशी, भगवान बड़े भारी जन समुदाय के साथ धार्मिक उपदेश अवन्ति, शल, सुह्य, पुण्ड, चेदि, बङ्ग, मगध, प्राध्र, देते हुए विचरण करने लगे। उनकी व्याख्यान सभा मद्र, कलिंग, पाचाल, मालव, दशार्ण और विदर्भ मादि में 'समवसरण' कहलाती थी। और उनकी वाणी 'दिव्य- विहार कर जनता को कल्याणमार्ग का उपदेश दिया ध्वनि' कहलाती थी, जिसका स्वभाव सब भाषा रूप परि- था। और कैलाश पर्वत से माघ कृष्णा चतुर्दशी को निर्वाण णत होना है।
पद प्राप्त किया। भगदान प्रादि नाथ ही श्रमण सस्कृति समवसरण सभा की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि के पाद्य प्रणेता बतलाए गए है। हिन्दू पुराणो मे भी उसमे पशुओं को भी स्थान मिलता था, उसमे सिंह जैसे कैलाश पर्वत से उनका मुक्ति प्राप्त करना लिखा है। भयानक और हिरण जैसे भीरू तथा बिल्ली चहा जैसे ।
१ काशी अवन्ति कोशलसुह्यपुण्ड्रान् । जाति विरोधी हिंसक जीव भी शान्ति से बैठकर धर्मोप
चेद्यङ्ग वङ्गमगधान्ध्रकलिङ्गमहान् । देश का पान करते थे। क्योकि भगवान ऋषभदेव अहिंसा
पञ्चालमालवदशार्णविदर्भदेशान् । की पूर्ण प्रतिष्ठा को पा चुके थे । जैसा कि पतजलि ऋाष
सन्मार्गदेशनपरो विजहार धीरः ।। के निम्न सूत्र से स्पष्ट है कि 'अहिसा प्रतिष्ठाया तत्स
-महापुराण २४-२८७ न्निधौ वर त्यागः ।' आत्मा मे अहिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा २ कैलाशे विमले रम्ये वृषभोऽयं जिनेश्वरः । होने पर वैर का परित्याग हो जाता है। यही कारण है चकार स्वावधार च सर्वज्ञः सर्वगः शिवः ।। कि समरसी भगवान ऋषभदेव की वाणी मनुष्य, तिर्यंच
-प्रभास पुराण (पशु-पक्षी वगैरह) देव देवाङ्गनाए आदि सभी जीव
१५ जुलाई १९६६ हृदय की कठोरता. चिन्तन-सहकार ! तेरा सौन्दर्य समग्र संसार को प्राकर्षित कर रहा है ! तेरी प्राकृति का निरीक्षण करने के लिए जनता उत्सक रहती है। जहाँ तेरा गमन होता है, सभी सोत्साह तेरे से हाथ मिलाना चाहते हैं। तेरे मधुर रस का आस्वादन करने के लिए रसना उतावली हो उठतो है और उसकी अभिकांक्षा को शान्त करने के लिए तू अपना स्वत्व विसजित करने का प्रशंसनीय प्रयास भी करता है । तू अपनी अपरिमित परिमल के द्वारा दिग् मण्डल को सुरभित करता हुआ जन मानस का केन्द्र बिन्दु बन रहा है । इन सब विशेषताओं के साथ यदि तेरे में एक साधारणता नहीं होती तो क्या तेरा सुयश अनिल की भाँति इससे भी अधिक प्रसारित नहीं होता ?
सहकार-विज्ञवर ! जो कहा गया, क्या वह शतशः सत्य है ?
चिन्तक-स्वयं की स्खलना स्वयं गम्य नही होती, इसी अमर सिद्धान्त के अनुसार मैं यह कह सकता हूँ कि स्वयं को अपना दोष ज्ञात नहीं होता । तू सजगता से अपना निरीक्षण कर । तेरा हृदय कैसा है ? वह पाषाण की भाँति कठोर है या नवनीत की भॉति कोमल ? ऊपर की अधिक कोमलता व सरसता क्या तेरी आन्तरिक कठोरता की प्रतीक नहीं है ?
अपने अहं का अनुभव करते हुए सहकार के मुंह से सहसा ये शब्द निकल पड़-हाय ! मेरा हृदय कठोर है। मेरे अन्तस्थल में यह गांठ नहीं होती तो आज मैं जन-जन के दाँतों से क्यों पीसा जाता और क्यों मुझे अंगारों की शय्या पर सुला कर जलाया जाता। -मुनि कन्हैया लाल
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कहानी
मगध सम्राट् राजा विम्बसार का जैनधर्म परिग्रहण
परमानन्द शास्त्री
एक समय राजा बिम्बसार (श्रेणिक) एक बड़ी सेना के साथ वन में शिकार खेलने के लिए गया । वहाँ उन्होंने उस वन में यशोधर नाम के एक जैन तपस्वी महा मुनि को कायोत्सर्ग में स्थित ध्यानारूढ देखा । महामुनि यशोधर ध्यान अवस्था में निश्चल, निष्कप खड्गासन में स्थित थे । वे परमज्ञानी क्षमाशील और श्रात्मस्वरूप के सच्चे वेत्ता, उपसर्ग परीषह के जीतने में समर्थ मुनिपुंगव थे । उन्होने मन को सर्वथा वश में कर लिया श्रा । शत्रु, मित्र, मणि और कंचन में समभाव रखने वाले तत्त्वज्ञ तपस्वी थे । वे परम दयालु, निष्कंचन इन्द्रियजयी तथा समतारस में निरत रहते थे । राजा बिम्बसार की दृष्टि उन पर पड़ी, उन्होने उससे पूर्व कभी कोई जैन श्रमण नहीं देखा था । अतएव उन्होंने पार्श्ववर्ती एक सैनिक से पूछा
"देखो भाई ! स्नान आदि के संस्कार से रहित एवं मुण्ड मुडाए नग्न यह कौन व्यक्ति खड़ा है ? मुझे शीघ्र बतलाओ ।"
" कृपानाथ ! क्या श्राप इसे नहीं जानते ? यही महाभिमानी महारानी चेलना का गुरु जैन मुनि है ।" बिम्बसार की तो यह इच्छा पहले ही थी कि महारानी के गुरु से बदला लिया जाय । पार्श्वचर की बात सुनकर उनकी प्रतिहिंसा की अग्नि भड़क उठी, उन्हें तुरंत रानी द्वारा किये गए अपमान का स्मरण हो आया प्रतएव उन्होंने क्षण एक विचार कर अपने साथ श्राए हुए सभी शिकारी कुत्तों को मुनिराज के ऊपर छुड़वा दिया ।
दूर हो गई। उन्होंने ज्यों ही मुनिराज की परमशान्त मुद्रा देखी, तो वे मंत्र कीलित सर्प के समान शान्त हो गए। और उनकी प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों के समीप शान्त होकर बैठ गए ।
बिम्बसार रोष के प्रवेश में गाफिल होकर म्यान से तलवार खींच कर मुनिराज को मारने के लिए चल दिया। जब वह मार्ग में जा रहा था तब एक भयानक काला सर्प फण ऊँचा किए हुए मार्ग में प्राया, राजा ने सर्प को पार्श्वचर चूंकि बौद्ध था । उसने महाराज से निवेदन देखते ही उसे जान से मार डाला । श्रौर उसको धनुष से किया कि
उठा कर मुनिराज के गले में डाल दिया। मुनिराज गले में सर्प पड जाने पर भी अपने श्रात्मध्यान से जरा भी विचलित नहीं हुए किन्तु संसार की स्थिति का यथार्थ परिज्ञान कर समभाव में स्थित हो गए । मुनिराज की सौम्यता और क्षमाशीलता देखते ही बनती थी ।
वे कुत्ते बड़े भयानक थे, उनकी दाढ़े बड़ी लम्बी थीं, नौर डील-डौल में भी वे सिंह के समान ऊँचे थे । किन्तु मुनिराज के समीप पहुँचते ही उनकी सारी भयानकता
विम्बसार इस दृश्य उन्होंने कुत्तों को जब क्रोष की प्रदक्षिणा करते देखा,
को दूर से देख ही रहे थे । रहित शान्त होकर मुनिराज तो मारे क्रोध से उनके नेत्र लाल हो गए । वे सोचने लगे कि यह साधु नहीं, किन्तु कोई धूर्त, वंचक, मन्त्रकारी है। इस दुष्ट ने मेरे बलवान कुत्तों को भी मन्त्र द्वारा कीलित कर दिया है। मैं भी इसे दण्ड देता हूँ । उनके रोष ने उन्हें विवेक रहित श्रौर अज्ञानी जो बना दिया था । इससे उस समय बिम्बसार की उस वक्र दृष्टि का सहज ही प्राभास हो जाता है ।
बिम्बसार शिकार का कार्यक्रम स्थगित कर राजगृह वापिस आ गया, वहां अपने गुरुनों को उक्त सब समाचार सुनाया । बिम्बसार द्वारा जैन गुरु का अपमान किये जाने से उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई ।
एक प्रहर रात्रि बीती होगी। रानी चेलना अपनी सामायिक समाप्त कर उठ ही रही थी कि राजा बिम्बसार प्रत्यन्त प्रसन्न होते हुए उसके पास आकर बोले
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१२
अनेकान्त
"रानी! तूने जो मेरे गुरु का अपमान किया था गये होंगे। मरे हए सर्प का गले से निकालना कोई उसका बदला लेने का मुझे प्राज अवसर मिला।" कठिन काम नही है।"
राजा के यह वाक्य सुनते ही रानी सन्नाटे में प्रा गई, महाराजा के वचन सुनकर रानी बोलीउसने एकदम घबरा कर पूछा
"नाथ ! आपका यह कथन भ्रम पर आधारित है । आपने क्या किया महाराज! मुझे शीघ्र बतलाइये। यदि वे मुनिराज वास्तव में मेरे गुरु है तो उन्होंने अपने मेरे हृदय की बेचैनी बढ़ती जाती है।'
गले से मृत सर्प कभी नही निकाला होगा। वे योगीश्वर "बिम्बसार बोला कुछ भी नही रानी! तेरे गुरु वहीं पर उसी रूप मे ध्यान में स्थित होगे। भले ही मुनिराज जंगल में खड़े ध्यान कर रहे थे कि मैने धनुष सुमेरु चलायमान हो जावे, समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ दे, से उठाकर एक मरा हुमा सर्प उनके गले में डाल दिया। किन्तु जैन मुनि उपसर्ग और परीषह से अपना मुख कभी
राजा का वचन सुनते ही रानी का हृदय अत्यन्त नही मोडते । वे ध्यान अवस्था मे उपसर्ग पाने पर उसी रूप व्याकुल हो उठा, मुनि पर घोर उपसर्ग जानकर उसके में सहन करते रहते है । उसका स्वयं निवारण नहीं करते । नेत्रों से प्रविरल अश्रुधारा वहने लगी, उसकी हिचकिया जैन मुनि पृथ्वी के समान सहनशील एवं क्षमाभाव से बंध गई और वह फूट-फूट कर रोने लगी। वह रोते-रोते अलंकृत होते है। वे समुद्र के समान गम्भीर, वायु के कहने लगी
समान निष्परिग्रह, प्राकाश के समान निर्मल और अग्नि के "राजन् ! तुमने यह महापाप कर डाला। अब आप समान कर्म को भस्म करने वाले और जल के समन स्वच्छ का अगला जन्म कभी उत्तम नही बन सकता, अब मेरा और मेघ के समान परोपकारी होते है। हे प्राणेश्वर ! जन्म निष्फल गया । यह इतना भयकर पाप है जिसका आप विश्वास रखिए मेरे गुरु निश्चय से परमज्ञानी, परिणाम भी अत्यन्त भयंकर है। राजमन्दिर मे मेरा ध्यानी और सुदृढ वैरागी होते है। बे कभी किसी का भोग भोगना भी महापाप है, हाय ! मेरा यह सबध बग चिन्तन नहीं करते। सबके साथ सम दृष्टि रखते है। ऐसे कुमार्गी के साथ क्यो हुमा ? युवावस्था प्राप्त होत वे करुणानिधि होते है। अपकार करने वालों के प्रति भी ही मैं मर क्यों न गई ? हाय ! अब मैं क्या करूं? उनका रोष नहीं होता और न पूजा करने वाले के प्रति कहाँ जाऊँ ? कहाँ रहूँ ? हाय हाय ! मेरे प्राण पखेरू राग ही होता है। इसके विपरीत, उपसर्ग परीषह से भय .इस शरीर से क्यों नही विदा हो जाते ! प्रभो ! मै बड़ी करने वाले व्रत एवं तपादि से शून्य मद्य मास और मधु अभागिन है अब मेरा किस प्रकार हित होगा। छोटे से के लोभी मेरे गुरु कदापि नहीं हो सकते। यही कारण है छोटे गांव, वन और पर्वतोंमें रहना अच्छा है, किन्तु जिनधर्म कि आपके अनेक प्रयत्न करने पर भी जैन साधुओं रहित एक क्षण राजप्रासाद मे भी जीवन बिताना दूभर पर मेरी श्रद्धा कम नहीं हुई। मैं किसी के धर्म पर कोई है। जिनधर्म ही जीवन की सफलता का मापदण्ड है। प्राक्षेप भी नहीं करती, इतना अवश्य कहती हैं कि जैन उसके बिना वह निष्फल है।
मुनि जैसा पवित्र माचरण अन्य किसी धर्म के साधुपो में हाय दुर्दैव! तुझे क्या मुझ प्रभागिन पर ही वज नहीं होता।" प्रहार करना था। इस तरह रानी बड़ी देर तक विलख रानी के इन शब्दों को सुन कर बिम्बसार का हृदय विलख कर रोती रही। रानी के इस रुदन से राजा का भय के मारे कांप गया। वह और कुछ न कह कर केवल पाषाण जैसा कठोर हृदय भी द्रवित हो गया । मब बिम्ब- इतना ही कह सकेसार के मुख से वह प्रसन्नता विलीन हो गई, वह एक "प्रिये ! तूने इस समय जो कुछ कहा है वह बहुत दम किंकर्तव्य विमूढ होकर रानी को समझाने लगा। कुछ सत्य दिखलाई देता है। यदि तेरे गुरु इतने क्षमाशील
'प्रिये ! तू इस बात के लिए तनिक भी शोक न कर, हैं, तो हम दोनों उनको इसी समय रात्रि में जाकर देखेंगे वे मुनि अपने गले से मरा हुमा सर्प फैक कर वहां से चले और उनका उपसर्ग दूर करेंगे । मैं अभी तेज चलने वाली
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मगध सम्राट् राजा बिम्बसार का जैनधर्म परिग्रहण
सवारी का प्रबन्ध करता है।"
परमाणुओं का पिण्ड है। रानी बोली
वह विनाशीक है और प्रात्मा मविनाशी है। जीव “नाथ ! अब आपके मुख से फल झड़े हैं। यदि आप अकेला ही जन्म मरण के दुःख सहता है। इसका कोई स्वयं न भी जाते तो मैं स्वयं अवश्य जाती। आपने यह सगा साथी नहीं है। शरीर अपवित्र है । व्रत, तप, संयम बात मेरे मन की कही, अब आप चलने की शीघ्र तय्यारी आत्मा के कल्याणकर्ता है। इस तरह मुनिराज यशोधर करें।"
अनित्यादि बारह भावनामों का चिन्तवन करते हुए गले यह कह कर रानी चलने की तैयारी करने लगी। मे पड़े सर्प के कारण परीषह सहन कर रहे थे। कि इतने राजा ने उसी समय एक तेज घोड़ो वाली गाड़ी तय्यार मे राजा और रानी उनके दर्शन करने शीघ्रता पूर्वक चले करा कर थोड़े से सैनिक साथ लेकर वन की ओर प्रयाण पा रहे थे। उन्होंने जब मुनिराज के समीप पाकर उन्हें करना प्रारम्भ किया और थोड़ी देर मे ही वे मुनि यशो- ज्यों का त्यों ध्यानस्थ खड़ा देखा तो मानन्द और श्रद्धा घर के समीप जा पहुँचे।
के मारे उनके शरीर में रोमांच हो पाया। राजा ने ___इधर तो बिम्बसार मुनिराज के गले में सर्प डालकर सबसे पहले मुनिराज के गले से सर्प निकाला, रानी ने वापिस गया, उधर मुनि महाराज ने अपना ध्यान और खांड आदि मीठा डाला, जिसकी गंध से चीटियां मुनिभी दृढ़ कर इस तरह चिन्तन करना प्रारम्भ किया। राज के शरीर से उतर कर नीचे प्रा गई। उन्होंने मुनि
इस व्यक्ति ने मेरे गले मे सर्प डाल कर बड़ा उप- राज के शरीर को काट काट कर खोखला कर दिया था। कार किया है, क्योंकि इससे मेरे प्रशभ कर्म शीघ्र ही अतएव रानी ने उनके शरीर को उष्ण जल में भिगोये नष्ट हो जावेगे। और पूर्व सचित कर्मों की उदीरणा हुए कोमल वस्त्र से धोया। फिर रानी ने उनके शरीर करने के लिए मुझे परीषह सहने का अवसर बड़े भारी की जलन दूर करने के लिए चन्दनादि शीतल पदार्थों का भाग्य से मिला है। यह सर्प डालने वाला व्यक्ति मेरा लेप किया। इस तरह दोनो मुनिराज के उपसर्ग को अपने बड़ा उपकारी है जो इसने परीषह की सामग्री मेरे लिए हाथो से दूर कर और उनको नमस्कार कर मानन्दपूर्वक एकत्रित कर दी। यह शरीर जड़ और नाशवान है, और उनके सामने भूमि पर बैठ गए। राजा मुनिराज की मेरे चैतन्य स्वरूप से सर्वथा भिन्न है। यह कर्मोदय से ध्यान मुद्रा पर माश्चर्य कर रहा था, वह उनके दर्शन से उत्पन्न हुआ है, किन्तु मेरा प्रात्मा कर्म बन्धन से रहित सतुष्ट हुमा ।। चिदानन्द है। यह शरीर अनित्य, अपावन, अस्थिर, मनिराज रात्रि भर उसी प्रकार ध्यान में लीन हो मल-मूत्र का घर एवं घृणित है। लोग न जाने क्यो इसे खडे रहे और राजा रानी जागरण करते हुए उनके सामने अच्छा समझते है और इत्र-फुलेल आदि सुगधित पदार्थों उसी प्रकार बैठे रहे । रात्रि समाप्त होने पर जब सूर्य से इसे संस्कारित करते है। शरीर से चैतन्यात्मा के चले का प्रकाश चारो ओर फैल गया तो रानी ने मुनिराज की जाने पर शरीर एक पग भी आगे नहीं चल सकता। तीन प्रदक्षिणा दी और उनकी स्तुति इस प्रकार करने इस शरीर को अपना समझना निरी अज्ञानता है। जो लगीमनुष्य यह कहते है कि शरीर मे सुख दुःख प्रादि होने "हे प्रभो! आप समस्त ससार में पूज्य और अनुपम पर प्रात्मा सुखी-दुखी होता है, उनका यह भ्रम है। गुणों के भण्डार है। मापके गले में सर्प डालने वाले मोर क्योंकि जिस तरह छप्पर में भाग लग जाने पर छप्पर फलों का हार पहिनाने वाले दोनों ही प्रापकी दृष्टि मे ही जलता है तद्गत माकाश नहीं जलता, उसी प्रकार समान हैं। भगवन् ! पाप इस संसार रूपी समुद्र को शारीरिक सुख-दुःख मेरी आत्मा को सुखी-दुखी नहीं बना पार कर चुके है तथा औरों को भी पार उतारने वाले हैं। सकते । मैं द्रव्य दृष्टि से अपने प्रात्मा को चतन्य ज्ञाता- आप सभी जीवों के कल्याणकर्ता हैं । हे करुणा सागर ! दृष्टा शुद्ध, निष्कलंक समझता है। शरीर तो पुदगल प्रज्ञानवश प्रापकी अवज्ञा करके हमसे जो अपराध हो
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४
अनेकान्त
गया है उसे आप क्षमा करें। यद्यपि मैं जानती हूँ कि राजा बिम्बसार का सिर इस तरह विचार करते हुए माप राग-द्वेष से रहित किसी का भी अहित करने वाले लज्जा से झुक गया, और दुःख के मारे उनके नेत्रों से नहीं हैं, तथापि आपकी अवज्ञा-जनित अशुभ कर्म हमें अविरल अश्रुधारा बहने लगी। सन्ताप दे रहा है। प्रभो श्राप मेघ के समान सभी
मनिराज बड़े भारी ज्ञानी थे। उन्होने राजा के मन जीवों का उपकार करने वाले, धीर-वीर परमोपकारी है। की संकल्प-विकल्प की बात जान ली अतएव राजा को प्रापके प्रसाद से ही हमारा अशुभ कर्म दूर हो सकता है। सान्त्वना देते हुए बोलेहे मुनिपुंगव ! हमें आपकी ही शरण है, आप ही हमारे
"राजन् तुमने अपने मन में जो प्रात्महत्या का विचार
"राजन तमने अपने म प्रकारण बन्धु हैं। आपसे बढकर ससार में हमारा कोई
किया है, उससे पाप का प्रायश्चित्त न होकर और भीषण हितैषी नहीं हैं। दयानिधि ! आप हमें क्षमा करें, और
पाप होगा। प्रात्महत्या से बढ़ कर कोई दूसरा पाप नही कर्म बन्धन से छूटने का विमल उपाय बताएं।"
है । पाप से अथवा कष्ट के कारण जो लोग परभव में रानी द्वारा मुनिराज की स्तुति कर चुकने पर उनको सूख मिलने की प्राशा से आत्महत्या करते है, उनकी यह राजा तथा रानी दोनों ने पुनः भक्तिभाव से प्रणाम भारी भूल है। आत्मघात से कभी सुख नहीं मिल सकता। किया। मुनिराज इस समय अपना ध्यान छोड़ कर बैठ अात्मघात तो हिंसा है उससे पाप कैसे धुल सकते हैं ? गए थे। उन्होंने उन दोनों से कहा-"पाप दोनों की हिंसा से तो पाप की अभिवृद्धि ही होगी। इससे प्रात्मधर्मवृद्धि हो।" मुनिराज के मुख से इन शब्दों को सुनकर परिणामों मे संक्लेश होता है, और संक्लेश से अशुभ कर्मो राजा पर बड़ा प्रभाव पड़ा।
का बन्ध होता है, उससे नर्कादि दुर्गतियो मे जन्म लेकर वह मन ही मन इस प्रकार विचारने लगा
अनन्त दु:खों का पात्र होना पड़ता है। राजन् यदि तुम अहो ! यह मुनिराज तो वास्तव में बड़े भारी महा- अपना भला चाहते हो और दुर्गतिके दुःखोसे बचना चाहते त्मा है। इनके लिए शत्रु और मित्र सब समान है। एक तो हो तो प्रात्महत्या का विचार छोड़ दो, अशुभ सकल्प गले में सर्प डालने वाला मैं, तथा दूसरे उनकी परमभक्ता दुखों के जनक है यदि तुम्हे प्रायश्चित्त करना है, तो रानी, दोनों पर उनकी एक सी कृपा है। यह मुनिवर आत्म-निन्दा करो, शुभाचरण में प्रवृत्ति करो। प्रात्मबड़े धन्य हैं, जो सर्प गले में पड़ने पर अनेक कष्ट सहन हत्या से पापों की शान्ति नहीं हो सकती।" करते हुए भी उनका रचमात्र भी मेरे पर कोप नही है किन्तु क्षमाभाव को धारण किए हुए है। हाय ! हाय !
मुनिराज के वचनों को सुनकर राजा को बड़ा पाश्चर्य मैं बड़ा अधम, पापी और नीच व्यक्ति हूँ, जो मैने ऐसे हुआ आर म
को हरा और महारानी से कहने लगे, सुन्दरी ! यह क्या बात परम योगी की अवज्ञा की। ससार मे मेरे समान और हुई । मुनिर
हुई ? मुनिराज ने मेरे मन की बात कैसे जान ली। तब वापापी कौन होगा? प्रज्ञानवश मैने कितना महान् ।
रानी ने कहा-नाथ ! मुनिराज मनःपर्ययज्ञानी है वे मनर्थ कर डाला । अब इस पाप से छुटकारा कैसे होगा?
आपके मन की बात के अतिरिक्त आपके अगले-पिछले अवश्य ही मुझे इस पाप से नरकादि दुर्गतियों में जाना '
जन्मों का भी हाल बतला सकते है। होगा। अब मैं क्या करूं और कहां जाऊं। इस कमाये रानी के वचन सुनकर राजा ने मुनिराज के मुख से हुए पापपुंज का प्रायश्चित्त कैसे करूं । इस पाप को धोने धर्म का वास्तविक स्वरूप सुना, और जैनधर्म को धारण का केवल यही उपाय अब समझ में आता है कि अपना किया। और रानी सहित मुनिराज के चरणों की वन्दना सिर शस्त्र से काट कर मुनि के चरणों में अर्पण कर कर उनके गुणों का स्मरण करते हुए नगर में वापिस पा मुक्त होऊ।
गया।
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अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व शान्ति किस प्रकार प्राप्त हो सकती है ?
शान्तोलाल वनमाली शेठ
झिगोरक्षक मास्को (रूस) में होने वाले सर्व धर्म सम्मेलन में जनसमाज की ओर से शान्तीलाल बनमाली शेठ ने उसमें भाग लिया, वहाँ मापने जो भाषण दिया उसे यहाँ ज्यों का त्यों नीचे दिया जाता है। -सम्पादक]
सबसे पहले मै इस सम्मेलन के आयोजकों को हार्दिक में, इस पवित्र शान्ति-यज्ञ में सम्मिलित होने में मैं गौरव बधाई देना चाहता है कि जिन्होंने मानवतावादी मार्क्स अनुभव करता है। टॉल्सटॉय, और लेनिन की कर्मभूमि-इस सोवियत सघ- यह बडे ही सौभाग्य की बात है कि हम इस शान्तिमें मानवता का मूल्यांकन करने का हमें मौका दिया है। यज्ञ का मगलाचरण ऐसे शभावसर पर कर रहे हैं जब कि
मुझे इस बात का गौरव है कि प्राज मै ऐसे महान् अहिंसक समाज-क्रांति के अग्रदत भ० महावीर की २५वी प्राचीन जैनधर्म का प्रतिनिधित्व करने जा रहा हूँ जिस निर्माताली हिंसामान प्रयोगवीर महात्मा गांधी धर्म के प्ररूपक भगवान महावीर का प्राणतत्त्व एवं जीवन
की जन्म-शताब्दी एवं मानवतावादी महान नेता लेनिन मंत्र ही 'समता सर्वभूतेषु,-सर्वभूतों के प्रति साम्यभाव
की शताब्दी मनाने जा रहे है। विश्वशान्ति के पुरस्कर्ता रहा है और जिसने सह-अस्तित्व, परस्पर सहयोग द्वारा
इन महापुरुषों के जीवन में से पवित्र प्रेरणा पाकर मानवविश्व को शान्ति एवं मंत्री का जीवन-संदेश दिया है।
समाज को एक विश्व-कुटुम्ब के रूप मे, प्रखण्ड बनाने का भ० महावीर अहिंसा मूलक साम्यवाद-सिद्धान्त के प्रमुख
सत्संकल्प करें यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धाजलि होगी। उद्घोषक, प्रबल समर्थक, प्ररूपक एवं प्रहरी थे। आज जिस सहअस्तित्व एवं शान्ति की पवित्र भावना
विश्व के सभी राष्ट्र शान्ति एव मैत्री चाहते है। से यह सम्मेलन आयोजित किया गया है वही विश्वशान्ति
क्योकि प्रत्येक राष्ट्र, जाति एवं व्यक्ति हिंसा के दुष्परिएव विश्वमैत्री स्थापित करने के महान उद्देश्य से भारतीय णामों से भयाक्रांत हैं। हिंसक क्राति का युग समाप्त हो समन्वय-संस्कृति के प्रखर स्वरवाहक, तेजस्वी जैन संत चुका है। हिंसा, वैमनस्य, विद्वेष के स्थान पर प्राज मुनिश्री सुशीलकुमारजी म० की प्रेरणा से भारत मे बम्बई, अहिंसा एवं विज्ञान के समन्वय का, समता तथा शान्ति दिल्ली, कलकत्ता मादि स्थानों पर तीन विश्व-धर्म-सम्मे- का युग पा रहा है। इस पानेवाले अहिंसा-युग का यह लन सफलतापूर्वक सम्पन्न हो चुके है जिसमे दिल्ली- आह्वान है कि-'विषमता एवं विसंवादिता से दूर रहकर, सम्मेलन मे तो आपके यहाँ के तीन महानुभाव प्रतिनिधियो समता-शान्ति तथा श्रमता का प्राधार बनाकर शान्तिपूर्ण ने भी भाग लिया था, यह सतोष का विषय है। मुनिश्री सह-अस्तित्व एवं पारस्परिक सहयोग-द्वारा समग्र विश्व मे सुशीलकुमारजी म. अपनी परम्परा की मर्यादानुसार यहाँ शान्ति एवं मैत्री का मधुर वातावरण पैदा करें।' साक्षात् उपस्थित नहीं हो सके हैं लेकिन विश्वधर्म सम्मे- वर्तमान युग में दो प्रयोग चल रहे है-एक अणु का, लन द्वारा विश्व में शान्ति एवं मैत्री स्थापित हो सकती अस्त्र का एवं युद्ध का और दूसरा सह अस्तित्व, पारस्पहै ऐसा उनका विश्वास है। उन्होंने इस सम्मेलन की रिक सहयोग एवं शान्ति का। एक भौतिक, है. दूसरा सफलता के लिए अपनी शुभ कामनाएं प्रेषित की हैं और प्राध्यात्मिक, एक मारक है, दूसरा तारक, एक मृत्यु है, अागामी फरवरी १९७० में दिल्ली में होने वाले चौथे दूसरा जीवन, एक विष है, दूसरा अमृत । विश्वधर्म सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए सप्रेम सह-अस्तित्व एवं पारस्परिक सहयोग का यह मामंत्रण भेजा है। माज उन्हीं के एक प्रतिनिधि के रूप नारा है
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अनेकान्त
"प्रायो, हम सब मिलकर चलें, मिलकर बैठें, मिल- आधारशिला है। जहाँ मानवता एवं सर्वोदय की भावना कर समस्याओं का हल करें, कन्धे से कन्धा मिलाकर नहीं वहाँ 'धर्मत्व' नहीं। जब मानवता का जीवन में सब कल्याण-पथ पर आगे बढ़ते चलें ताकि हम मानव साक्षात्कार हो जाता है तब प्रत्येक मानव का यह ध्येय मिलकर रहे । परस्पर विचार्गे मे भेद है, कोई भय नही, मन्त्र बन जाता है कि-'मैं सर्वप्रथम मानव हूँ। मै कार्य करने की पद्धति भिन्न है, कोई खतरा नहीं, सोचने अपना मानव धर्म समझे और मानव-समाज के कल्याण का तरीका अलग है, कोई डर नहीं क्योंकि सबका तन के लिए जीऊं-यह मेरा पहला कर्तव्य है क्योंकि सभी भले ही भिन्न हों पर मन सबका एक ही है, हमारे सुख- धर्म महान् है लेकिन मानवधर्म उससे भी महानतम है । दुख एक-से हैं । हमारी समस्याएं समान है। क्योंकि हम जब मानवधर्म का जीवन मे साक्षात्कार हो जाता है तब सब मानव है और मानव एक साथ ही रह सकते हैं, अपने माने हुए राष्ट्र, समाज व धर्म के क्षुद्र सीमा-बधन बिखर कर नहीं, बिगड़ कर नही।"
टूट जाते है और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की विराट भावना जो अणु-अस्त्र या युद्ध मे विश्वास करता है वह स्वतः पैदा हो जाती है। यह महान् मानवधर्म इतना भौतिक शक्ति का पुजारी है, वह अपनी जीवन-यात्रा अणु- सीधा-सादा है कि उसे एक ही वाक्य 'प्रात्मवत् सर्वभूतेषु' अस्त्र पर चला रहा है लेकिन जो सह-अस्तित्व एव पार- में प्रकट कर सकत है। स्परिक सहयोग में विश्वास करता है वह अध्यात्मवादी भ. महावीर समता, शान्ति, श्रमशीलता को अपना है। पश्चिमी राष्ट्र अधिक भौतिकवादी है जब कि पूर्व जीवन ध्येय बनाकर 'श्रमण' बन थ और उनकी श्रमणअध्यात्मवादी है। एक देह पर शासन कर रहा है और सस्कृति का मूलमन्त्र भी सह-अस्तित्व एव विश्व शाति था। दूसरा देही पर । एक तीर-तलवार मे विश्वास करता है आज से करीबन ढाई हजार वर्ष पूर्व मानवता एव और दूसरा मानव के अन्तर मन मे, मानव के सहज स्वा. समानता क प्रखर स्वरवाहक, हिसक समाज-क्रान्ति के भाविक स्नेह-शीलता में। एक मुक्का तानकर सामने अग्रदूत महामानव महावीर ने आध्यात्मिकता के आधार प्राता है और दूसरा मिलने के लिए प्यार का, शान्ति पर हिसा, अनेकान्त एव अपरिग्रह द्वारा "जीमो और तथा मत्री का हाथ बढाता है।
जीने दो" का जीवन-सन्देश दिया था। महामानव महाआखिर जीवन-धम क्या है ? सब के प्रति मगल वीर ने मानवधर्म का स्वरूप बतलाते हुए स्पष्ट उद्घोभावना, शुभ कामना । सबक सुख मे सुखबुद्धि और दुःख षणा की थी- 'धम्मो मंगलमक्किट्ठ अहिंसा, संजमो, मे दःखद्धि । समता-योग की, सदिय की इस विराट तवो। जो धर्म अहिंसा, संयम एवं तप प्रधान होता है एव पवित्र भावना को 'धर्म' के नाम से सबोधित किया वह विश्वकल्याणकारी-मगलमय ही होता है । उनके समग्र गया है । अहिंसा, सयम एव तपमूलक मंगलधर्म के पालन जीवन एव उपदेश का सार प्राचार मे सम्पूर्ण अहिंसा एवं से ही विश्वकल्याण सभवित है।
विचार में अनेकान्तवाद था। अहिंसा द्वारा विश्वशान्ति सभी धर्म केवल मानव-मानव के बीच ही नही, समग्र और अनेकान्त द्वारा विश्वमैत्री का मूलमन्त्र दिया था। विश्व प्राणियो के प्रति स्नह-सद्भाव, मैत्रीभाव, गुणिजनों भ. महावीर ने जीवन की समता एवं शान्ति के लिए के प्रति प्रमोदभाव, दुःखी प्राणियों के प्रति करुणाभाव एवं अहिंसा के तीन रूप बताये है :-समानता, प्रेम, और दुश्मनों के प्रति माध्यस्थभाव स्थापित करने के लिए हैं। सेवा। जो धर्म रगभेद, जातिभेद, वर्णभेद या क्षेत्रभेद को लेकर समानता मानव-मानव के बीच दरार डालते हैं, तिरस्कार, नफरत प्रत्येक प्राणी को प्रात्मतुल्य समझो यही सामाजिक पंदा करते है वे वास्तव मे धर्म ही नहीं हैं, ये तो केवल
भावना का मूलाधाम है। उनका यह उद्देश्य था किधर्मभ्रम है। मनुष्य धर्म का इसलिए पालन करता है कि
सध्ये पाणा पियाउया, सुहसाया, दुक्ख-पडिकूला। वह सच्चे अर्थ में 'मानव' बने । मानवता ही धर्म की
अप्पियवहा, पियजीवणो, जीवि कामा।
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अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व शान्ति किस प्रकार प्राप्त हो सकती है?
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सम्वेसि जीवियं पियं, नाइवाएज्ज कंचणं। वैरभाव का शमन करने से ही मैत्री भावना पैदा होती
-पाचारांग १-२-३ है। वास्तव में सर्वभत हितकारी अहिंसा भगवती है। तुमं सि नाम तं चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि। इसलिए अहिंसा परम 'ब्रह्म' रूप कही गई है। तुम सि नाम तं चेव जं प्रज्जावेद व्वं ति मन्नसि। यदि विश्व के नागरिक महावीर द्वारा प्ररूपित तुम सि नाम तं चेव जं परियावेयव्य ति मनसि । अहिंसा को जीवन में उतारें तो विषमता समता के रूप में
--प्राचारांग १-५.५ परिवर्तित हो जाय और विश्वशाति स्थापित हो जाय । 'सभी प्राणियो को अपनी जिन्दगी प्यारी है। सबको सुख अच्छा लगता है और दुःख बुग। वध सबको अप्रिय दष्टि' है। अनेकान्त दृष्टि या स्यावाद कथनशैली भी है और जीवन प्रिय । सब प्राणी जीना चाहते है। कुछ वैचारिक हिंसा की ही एक प्रणाली है। सहिष्णुता-समभी हो, सबको जीवन प्रिय है। सभी सुख-शान्ति चाहते वय दर्शिता एवं उदारता अनेकान्त का प्रगट स्वरूप पारहैं, अतः किसी भी प्राणी की हिसा न करो।' क्योकि म्परिक विवादों को मिटाकर विश्वमैत्री स्थापित करने की
'जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। एक व्यावहारिक प्रक्रिया है। "जो सत्य है वही मेरा है जिसे तू शासित करना चाहता है. वह तू ही है। और दूसरे की सच्ची बात भी स्वीकार्य सही हो सकती
जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है।' है"-यदि इस अनेकान्त की जीवन-दृष्टि को अपनाई जाय प्रेम
तो विश्व के सभी वैचारिक द्वन्द्व ही समाप्त हो सकते हैं। जो व्यक्ति निकट परिचय में प्राते है उसके साथ अनाग्रहवृत्ति और मध्यस्थ बुद्धि का समन्वय ही 'अनेकांत विग्रह और विरोध मत करो। प्रत्येक व्यक्ति को अपना या स्याद्वाद' है । यदि विचारों के समन्वय एवं पारस्परिक बन्धु समझो और उसके प्रति मैत्रीभावना का-विश्व- सहयोग द्वारा आपस के झगड़े को निपटाने के लिए अनेवात्सल्य का विकास करो-मित्ती मे सव्व भएसु सबके कान्त सिद्धान्त को अपनाया गया तो विश्वमैत्री स्थापित प्रति मेरा मंत्रीभाव है-यह प्रेम का सन्देश है।
करने में यह महामूल्यवान योगदान दे सकता है। वास्तव सेवा
मे विचार वायु के रोग से पीडित मानव-समाज को प्रारोग्य __सेबा का तीसरा उदघोष सामाजिक सम्बन्धों की प्रदान करने वाली यह एक अमोघ प्रौषध है। यदि मधुरता एव प्रानन्द का मूल स्रोत है। जहाँ दो व्यक्तियो स्याद्वाद-अनेकान्त दृष्टि का सामाजिक एवं राजकीय उलमें परस्पर सहयोग नही, वहा सामाजिक सम्बन्ध कितने झनों को सुलझाने में उपयोग किया जाय तो विश्व का दिन टिकेंगे ! सेवा के क्षेत्र में महावीर ने जो सबसे बडी तनावपूर्ण वातावरण ही समाप्त हो जाय और उसके स्थान बात कही वह यह थी कि-"मेरी उपासना से भी अधिक पर मैत्री और शान्ति की स्थिति पैदा हो जाय । महान् है किसी वृद्ध, रुग्ण और असहाय मनुष्य एवं प्राणी भ० महावीर के जीवन का तीसरा प्रखर स्वर हैकी सेवा । सेवा से व्यक्ति साधना के उच्चतम पद-तीर्थक अपरिग्रह । प्रासक्ति ही जीवन की विडम्बना का मूल है। रत्व को भी प्राप्त कर सकता है।"
आज मानव-समाज स्वार्थ, माशा और तृष्णा के अन्दर -अहिंसा की यह त्रिवेणी अहंकार की कलुषता को इस प्रकार उलझ रहा है कि वह कर्तव्य का भान ही भूल घोती है, प्रेम और मैत्री की मधुरता सरसाती है और गया है। यही कारण है कि एक पोर धन के अंबार लग सेवा-सहयोग को उर्वर बनाकर सर्वतोमुखी विश्वकल्याण रहे है और दूसरी भोर भूखमरी और गरीबी से मानव की भावना पैदा करती है। वास्तव मे 'अहिंसा' जीवन- छटपटा रहा है। संस्कृति का प्राण है। मानवीय चिन्तन का नवनीत पंदा समाज की दुख-दरिद्रता की जड़ सामाजिक विषमता करती है। समता और मानवता मूलाधार है। ज्ञानी के (Disparity) ही है। इस विषमता को दूर करने के शान का सार है। वैर से वैर शान्त नहीं होता है अपितु लिए समाज के धनाढ्य एवं श्रीमंत वर्ग को महावीर ने
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सर्वप्रथम यही उपदेश दिया था कि "अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित करो। भोग को लालसाओं को सीमित करो। अपार सम्पत्ति और प्रगणित दास प्रादि जो भी तुम्हारे अधिकार में केन्द्रित है, उन्हें मुक्त करो, उनका विसर्जन करो अथवा उनका उचित परिमाण करो ।"
गरीबी स्वयं में कोई समस्या नहीं, किन्तु प्रमीरी ने समस्या बना दिया है। गड्ढा स्वयं मे कोई बहुत बडी बीज नहीं किन्तु पहाड़ों की असीम ऊंचाईयों ने इस धरती पर जगह-जगह गड्ढे पैदा कर दिये हैं। पहाड़ टूटेंगे तो गड्ढे अपने आप भर जायेंगे, सम्पत्ति का विसर्जन होगा तो गरीबी अपने आप दूर हो जायेगी ।
संग्रह की अग्नि भोगेच्छा के पवन से प्रज्ज्वलित होती है । भ० महावीर ने अपरिग्रह को दो रूपों मे अभिव्यक्ति दी वस्तु का परिमाण धौर भोगेच्छा पर नियन्त्रण व्यक्ति की भोगेच्छा जब सीमित हो जाती है तो वह विश्व के प्रसीम साधनों को अपने पास बटोर कर रखने की चेष्टा नहीं करता । जितनी श्रावश्यकता उतना ही संग्रह | आवश्यकता रूप सयम की प्रास्था को सुदृढ करने के लिए महावीर ने एक बार कहा कि जो आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है - वह स्तेन कर्म (चोरी) का दोष करता है। अर्थात् आवश्यकता से अधिक संग्रह करने वाला समाज की चोरी करता है । महावीर के इस अपरिग्रह दर्शन ने समाज शुद्धि की प्रक्रिया को बल प्रदान किया । समाज मे परिग्रह की जगह त्याग की प्रतिष्ठा हुई जनता की निष्ठा भोग से हटी, त्याग की ओर बढ़ी। त्याग की निष्ठा एवं तप की प्रतिष्ठा ही समाज की पवित्रता और श्रेष्ठता का प्रमाण है ।
मर्क्स एवं लेनिन ने समाज के सशोधन की अपेक्षा ऐसे समाज की रचना पर बल दिया है जिसमें बुराइयाँ ही पैदा न हों। बुराई को जन्म लेने का अवसर हो न मिले । समाज व्यवस्था के नाते मार्क्स एवं लेनिन की यह सैद्धान्तिक प्रक्रिया ठीक है परन्तु वह मानवसमाज पर ऊपर से बलात् नही थोपी जानी चाहिए, स्वयं उभरनी चाहिए। मानवता के विकास में मार्क्स, टोल्सटॉय, तथा लेनिन का महत्वपूर्ण योगदान इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित है।
अनेकान्त
यदि महावीर के अहिंसा, अनेकान्त एवं अपरिग्रह पर नवीन दृष्टि से चिंतन किया जाय, तो इस समस्या का भारत की प्रोर से सांस्कृतिक समाधान श्राज हमें मिल सकता है । महावीर ने समाज रचना की अनेक तात्कालिक एव चिरकालिक समस्याओं का समाधान जिस अहिंसा और अपरिग्रह की व्यापक प्रक्रिया के द्वारा किया उसके मूल मे मानव चेतना की आन्तरिक शुद्धि एवं पवि त्रता पर बल दिया गया था । अतः वह मानव के श्रन्तद्वन्द्वों का क्षणिक समाधान नही, शाश्वत समाधान था । श्राज भी इसी प्रक्रिया के बल पर हम समाज को धन की गुलामी से मुक्त करके अपरिग्रह की प्रतिष्ठा कर सकते है।
इस प्रकार महामानव महावीर ने हिंसा-शक्ति का सशोधन प्रहिसा और मंत्री की प्रक्रिया से धन की कलुपता का परिमार्जन अपरिग्रह तथा संयम से एव बौद्धिक विग्रह का समाधान अनेकान्त एव स्याद्वाद दृष्टि से करने का स्पष्ट मार्गदर्शन किया । श्रहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की उपलब्धि महावीर के धर्म की महान् उपलब्धि है ।
भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से ही विश्वशान्ति के लिए सह श्रस्तित्व एवं पारस्परिक सहयोग की उद्घोषणा करती आई है । स्वतन्त्र भारत की राजनीति का श्राधार भी शान्तिपूर्ण सह प्रस्तित्व एवं पारस्परिक सहयोग रहा है। भारत के प्राचीन ऋषियों ने भ० महावीर एव महात्मा बुद्ध ने इसी का जीवन संदेश दिया, हमारे राष्ट्र पिता महात्मा गांधी ने इसी सिद्धान्त को जीवन मे प्रगट कर विश्व को मार्गदर्शन किया। भारत के स्व० प्रधान मन्त्री प० जवाहरलाल नेहरू, श्री लालबहादुर शास्त्री और वर्तमान प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाधी ने भी इसी सह अस्तित्व एवं पारस्परिक सहयोग की राजनीति द्वारा विश्वशान्ति के मार्ग को प्रशस्त किया है और कर रहे हैं। भारत और रूस इस विश्व की सबसे महान शक्तियाँ भाज सह-अस्तित्व सिद्धान्त के श्राधार पर परस्पर अभिन्न मित्र बने हुए है। इतना ही नहीं समग्र विश्व में शान्तिपूर्ण सह प्रस्तित्व एवं पारस्प रिक सहयोग द्वारा शान्ति एवं मंत्री स्थापित करने के लिए उत्सुक एवं प्रयत्नशील हैं। धाज का सम्मेलन भी
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अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व शान्ति किस प्रकार प्राप्त हो सकती है
विश्वशांति व मंत्री को चिरस्थायी बनाने की ओर एक ठोस कदम है।
यदि हम वास्तव में राष्ट्र-राष्ट्र के बीच अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पारस्परिक सहयोग एव सहअस्तित्व द्वारा विश्वशान्ति स्थापित करना चाहते हैं तो निम्नलिखित शान्तिसूत्रों को मूर्तस्वरूप देना मावश्यक होगा :१. अखण्डता :
एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की सीमा का यथासंभव अतिक्रमण न करे। उसकी स्वतन्त्रता एव प्रभुसत्ता पर अाक्रमण न करे । उस पर इस प्रकार का दबाव न डाले, जिससे उसकी अखण्डता पर संकट उपस्थित हो। २. प्रभुसत्ता : प्रत्येक राष्ट्र की अपनी प्रभुसत्ता है। उसकी इच्छा के विरुद्ध स्वतन्त्रता में किसी प्रकार की बाधा-बाहर से नहीं पानी चाहिए। ३. अहस्तक्षेप : किसी देश के प्रान्तरिक या बाह्य सम्बन्धों में किसी
प्रकार का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए । ४. सह-अस्तित्व:
अपने से भिन्न सिद्धान्तों और मान्यताओं के कारण किसी देश का अस्तित्व समाप्त करके उस पर अपने सिद्धान्त और व्यवस्था लादने का प्रयत्न न किया जाय। सबको साथ जीने का, सम्मानपूर्वक जीवित
रहने का अधिकार है। ५. पारस्परिक सहयोग:
एक दूसरे के राष्ट्र-विकास में सहयोग-सहकार की भावना रखें । एक के विकास में सबका विकास और एक के विनाश में सबका विनाश है। ये पांच शान्ति-सूत्र हैं जो आज से सहस्रों वर्ष पूर्व भारतीय संस्कृति, श्रमण-संस्कृति एवं गणतन्त्र प्रणाली के प्रयोग-व्यवहार में लाए गए हैं और शान्ति और मैत्री स्थापित करने में सफल सिद्ध हुए हैं। यदि उक्त पांच शान्तिसूत्रों को सह-अस्तित्व में प्रग मान लिए जाते हैं तो विश्व की सभी उलझी हुई गुत्थियां सहज सुलझ सकती हैं।
भाज इन पांच शान्ति-सूत्रों को पुनः प्रयोग व्यवहार में लाना जरूरी है। समय की भी यही मांग है। समग्र विश्व में शान्ति एवं मैत्रीमय वातावरण पैदा करने के लिए निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किए
जाएं :(१) शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व एवं अन्तर्राष्ट्रीय पारस्परिक
सहयोग स्थापित करने के लिए एक 'विश्व-नागरिकसघ' का निर्माण किया जाय जो विश्व की जनता को प्रेमसूत्र से बांध सके और विश्वात्मक्य के मादर्श को मूर्त कर सके। विश्व के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को हर जगह जाने की स्वतन्त्रता हो। पार-पत्र का सीमा
बन्धन न हो। २) राजनैतिक एकता के लिए सयुक्त राष्ट्र-संघ एवं
सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक एकता लिए 'युनेस्को' जैसी महान् संस्थाएं स्थापित की गई है वैसे ही विश्व में शाति, मैत्री, सहृदयता, मानवता का विशुद्ध वातावरण पैदा करने के लिए एक विश्वधर्म-संसद' जैसी
आध्यात्मिक संस्था स्थापित हो। इस संस्था की विश्व भर में शाखाएं हों और उसका एक प्रमुख केन्द्र भारत में रहे। इस सस्था में सभी धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन की व्यवस्था हो जिससे विश्व में सर्व धर्म-समन्वय स्थापित करने में प्रेरणाबल मिल
सके। (३) विश्व में 'अभय' का वातावरण पैदा करने के लिए
निःशस्त्रीकरण के सिद्धान्त को मान्यता दी जाय एवं अणु-अस्त्र के निर्माण पर नियंत्रण करके माक्रमण प्रत्याक्रमण की भावना को ही समाप्त की जाय । प्राण्विक शक्तियों का रचनात्मक कार्यों में सदुपयोग
किया जाय। (४) अहिंसा की भावना को विश्व-व्यापक बनाने के लिए
प्रमुख स्थानों पर 'अहिंसा-शोधपीठ' स्थापित किये जाय। जहां पर मांसाहार के स्थान पर सात्विक शाकाहार का प्रचार करने के लिए महिंसा-भावना के विस्तार के साधनों पर अनुसंधान किया जाय । मानव-मानव के बीच जैसी सहृदयता है वैसी सहृदयता प्राणीमात्र-मूक पशु-पक्षी तक विस्तीर्ण हो।
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अनेकान्त
साथियो !
प्रत्येक राष्ट्र, जाति एवं व्यक्ति सभी शान्ति तथा मंत्री चाहते हैं फिर भी क्यों हो नही पाती ? इसका मूल कारण यही है शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व एवं श्रन्तराष्ट्रीय पारस्परिक सहयोग की भावना के प्रति बड़े बडे राष्ट्रों के अधिनायकों के हृदय मे दृढ श्रद्धा नहीं है ।
यदि हम वास्तव में एक विश्वराष्ट्र, एक विश्वजाति एवं विश्वनागरिक की कल्पना को मूर्त स्वरूप देना चाहते है तो सर्वप्रथम सभी राष्ट्रों में सहअस्तित्व एवं पारस्परिक सहयोग की भावना मे दृढ श्रद्धा पैदा करनी होगी । सम्यग्दृष्टि - सच्ची श्रद्धा नहीं होने के कारण ही बड़े-बड़े राष्ट्रो के अधिनायक स्वीकृत सिद्धान्तों से भटक जाते है । महामानव महावीर ने स्वीकृत सिद्धान्तो पर दृढ रहने के लिए चार अंतरंग साधन बताये है जो साध्य की सिद्धि में उपयोगी सिद्ध हो सकते है (१) स्वीकृत सिद्धान्त में निःशकित रहे । (२) स्वीकृत सिद्धान्त के अतिरिक्त प्रलोभन में पड कर दूसरे सिद्धांतो की कांक्षा न करें ।
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( ३ ) स्वीकृत सिद्धान्त मे फलाकांक्षा नही रखते हुए, दृढ़ता रखें ।
(४) स्वीकृत सिद्धान्त के अनुपालन मे श्रमूढ दृष्टि रखे अर्थात् पूर्वाग्रहों को, परम्परागत रूढ़ि को एक बाजू रखकर सत्यदृष्टि एवं सत्याग्रह को ही बल दें ।
यदि स्वीकृत सिद्धान्त के परिपालन मे निःशंका, निःकांक्षा, निर्विचिकित्सा एव श्रमूढदृष्टि श्रा जाती है तो विश्वास रखें कि सहअस्तित्व एवं पारस्परिक सहयोग का शान्ति पथ अवश्य प्रशस्त होकर ही रहेगा ।
इसी प्रकार जो-जो राष्ट्र सह-अस्तित्व एवं सहयोग के शान्ति प्रस्तावों को स्वीकार कर लेते हैं उन्हें निम्नानुसार सहयोग देकर सह-अस्तित्व का प्रत्यक्ष परिचय देना चहिए अर्थात् उन छोटे-बड़े राष्ट्रों को(१) प्रोत्साहन देना ( उपबृंहण), सहयोग देना । (२) स्थिरीकरण - जो राष्ट्र विचलित हो उठते है उन्हें सहकार देकर स्थिर करना ।
(३) वात्सल्य - स्नेह सद्भाव द्वारा राष्ट्र विकास में सहयोग देना एव उनके प्रति विश्व वात्सल्य का परिचय देना ।
(४) प्रभावना -सह-अस्तित्व एव सहयोग के सिद्धान्तों को यशस्वी एवं प्रभावशाली बनाने के लिए सयुक्त प्रयत्न
करना ।
यदि आज इस सम्मेलन मे हम लोगों ने सह-अस्तित्व गव सहयोग की भावना को मूर्त स्वरूप देने का निष्ठापूर्वक निश्चय कर लिया तो विश्व मे 'सवोदय' का सूर्योदय अवश्य होगा । इस सर्वोदय की किरणे पाकर सारा विश्व धन्य धन्य और कृतकृत्य हो जायेगा ।
युगदृष्टा भ० महावीर ने शोषण, दोहन और उत्पीउन पर आधारित आपाधापी का अपरिग्रह की मौलिक व्याख्या प्रस्तुत कर, अन्त कर दिया था । यदि श्राज महावीर का 'प्र' मूलाक्षर अर्थात् श्रहिसा, अनेकान्त, अभय, अपरिग्रह, अस्वाद, अद्रोह आदि अकारादि मूलाक्षरसिद्धान्त मानवमात्र की श्रात्मा का संगीत बन जाए तो राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय तनाव सभी द्वन्द समाप्त हो सकते है । हिंसा और अनेकान्त यही भगवान् महावीर के जीवन का भाष्य है और यही सर्वोदय के मूलमन्त्र है । 'सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।'
भगवान् महावीर के तीर्थ को 'सर्वोदयतीर्थ' ही कहा गया है— अर्थात् जहाँ सर्वोदय - सबका भला करने की भावना - अन्तर्निहित हो वही महावीर का 'शासनतीर्थ' है ।
मुझे इस बात का गौरव है कि मेरा भारत देश और मेरा जैनधर्म सहप्रस्तित्व एव अन्तर्राष्ट्रीय पारस्परिक सहयोग द्वारा विश्वशाति में विश्वास ही नही करता श्रपितु सहस्त्राब्दों से विश्वशांति एवं विश्वमंत्री का जीवन-संदेश देने में अग्रसर रहा है। आज हमारे मित्र राष्ट्र के धर्मनायकों ने सह अस्तित्व एवं सहयोग द्वारा विश्वशांति स्थापित करने की दिशा में जो ठोस कदम उठाकर धर्मनीति का परिचय दिया है इसके लिए हम सम्मेलन के आयोजक धन्यवादाहं है ।
अन्त में हम सबकी यही मन्तर्भावना हो कि - सर्वे सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत् ॥
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लश्कर में मेरे पांच दिन
परमानन्द शास्त्री
मैं लश्कर-ग्वालियर में जून महीने के शुरू मे वहाँ दिगम्बर सम्प्रदाय के है । एक लेख सं० १३१६ का भीमकी प्रगतिशील संस्था नवयुक मण्डल के निमन्त्रण पर गया पुर (नरवर) का है, जो ६६ पद्यों मे उत्कीर्ण है और था। सेठ मिश्रीलाल जी पाटनी के पास ठहरा, वे बडे भद्र जिसमे यज्वपाल के सामन्त जैसिंह द्वारा जैन मन्दिर बनपरिणामी है, और लगन से काम करते है। उनकी धार्मिक वाने और पौरपट्टान्वयी नागदेव द्वारा प्रतिष्ठा कराने का लगन सराहनीय है । वे नियम से नये मन्दिर मे प्रति दिन उल्लेख है । वह लेख भी मूल शिला परसे नोट करके लाया पूजन करते है । संस्था द्वारा निर्मापित 'ग्वालियर निर्देशि- हूँ उसे अनेकान्त के अगले अकमें दिया जावेगा । दूसरी एक का भी देखी, जिसे उन्होंने बड़े भारी परिश्रम से तय्यार प्रशस्ति है जो एक शिला पर उत्कीर्ण है उसे नोट करने का किया है, उसके लिए कुछ उपयोगी सामग्री वतलाई, और समय नहीं मिला । इस अंकमें कुछ मति लेख दिये जाते है।
. और शेष अगले अंक मे । कुछ सुझाव दिये । नवयुवकों मे स्वाध्याय करने की प्रेरणा की। मुझे लगा कि नवयुवक यदि इस तरह से परिश्रम कुछ मूर्ति-यत्र-लेख नयामन्दिर लश्कर करते रहे तो वहाँ की समाज की अच्छी प्रगति हो सकती १. पार्श्वनाथ मूल नायक पाषाण पीला पद्मासन ढाई है । ग्वालियर निर्देशिका से ज्ञात होता है कि ग्वालियर मे फुट, ऊंची-चौडाई सवा दो फुट । सं० १५४० वर्षे इस समय जैनियों की जनसंख्या सात हजार है। लश्कर भट्टारक जिनचन्द्र राजाशिवसिंह जीवराज पापडीवाल मे २२-२३ जनमन्दिर है।
प्रतिष्ठा कारापिता। ग्वालियर का भट्टारकीय शास्त्र भण्डार असें से बन्द २ चौवीसी धातु ॐ०१। फुट चौ. ६ इंच । प्रतिष्ठा सं० पड़ा है। वहाँ की समाज को चाहिए कि शास्त्र भडार को १४७६ वर्षे वैशाख सुदी ३ शुक्रवासरे श्रीगणपतिदेवसम्हालने का यत्न करे उसे खुलवाए और उसकी विधि- राज्ये श्री मूलसघे...भट्टारक शुभचन्द्रदेवा मंडलाचार्य वत सूची बनाकर प्रकाशित करें, जिससे जनता को अज्ञात
पं० भगवत तत्पुत्र संघवी खेमा भार्या खेमादे जिनकृतियों का पता चल सके ।
बिम्ब प्रतिष्ठा कारापितम् ।। मैने ग्वालियर और लश्कर के दो-तीन मन्दिरों के ३ चौबीसी धातु साइज १ फुट ऊँची ६ इंच चौड़ी। मूर्तिलेख लिए है और किले में अग्रवालों द्वारा उत्कीणित सं० १६४७ पासाढ़ सुदी ५ प्रतिष्ठा गढ़ नरवर श्री मूर्तियों का भी अवलोकन किया, वे विशाल मूर्तियां जो काष्ठासघे भट्टारक श्री शुभचन्द्रदेवा तत्पट्टे भट्टारक श्री खडित की गई है उनकी मरम्मत होनी चाहिए। मूर्तियों यशःकीति प्राम्नाये श्रीमालज्ञाति वसुदेव भार्या गोदेवी की खुदाई का कार्य डूगरसिंह और कीतिसिंह के राज्य -तत्भार्या डरूको तथा पुत्र चतुरधा रविचन्द्र तत्भार्या काल में ३३ वर्ष पर्यन्त चला। किले में छोटी-बड़ी एक रतोदेवी तत्पुत्र टोडरमल, महेशदास तत्र टोडरमल देवमती सहस्र से अधिक मूर्तियों उत्कीर्ण की गई है। मूर्तियों का तत्पुत्री खड़गसेन ब्रह्म गाइ सेनऊ महेशदास भायी कपूरदेवी पाषाण करने लगा है, कई लेख भर गए हैं, जो पढ़ने में एतेपा पाम्नाये मध्ये चतुरघा हेमदासो नित्यं प्रणमति । नहीं पाते । यदि उनकी मरम्रत न हुई तो इस महत्वपूर्ण चौसठि ऋषि यन्त्र । सामग्री का विनाश अवश्यम्भावी है।
सं० १७२२ वर्षे अगहन सुदी १ सोमे श्री मूलसंधे ग्वालियर का म्यूजियम भी देखा, उसमें दो लेख बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे कदकदाचार्यान्वये श्री भ०
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अनेकान्त
जगत्भूषण देवास्त तत्पट्टे भ० श्री विश्वभूषण देवास्तदा- १४ इंच । म्नाए इक्ष्वाकुवंशे गोलसिंघारान्वये सं० पोर्षे भार्या सं० १५२६ फाल्गुन सुदि १० मूलसंघे विद्यानन्दि केसरिदे पुत्र वैकुण्ठ भार्या विशो-देवसेन भा० धर्माव- देवा तद्दीक्षिता अजिका लग्न श्री......। तारी प्रताप भा० श्यामा वलिराम भा० घरमदे एतेषां मन्दिर फालके का बाजार लश्कर मध्ये सं० पोषे तेनेदं यन्त्र प्रतिष्ठा कारापितम् ।
नेमिनाथ, सं० १५०५ वर्षे वैशाख सुदि ७ बुधे श्री सम्यक् चारित्र यन्त्र
मूलसघे भट्टारक श्री जिनचन्द्र देवाः लंबकुचुकान्वये साधु सं० १६६४ वर्षे वैशाख...श्री मूलसंघे बलात्कारगणे श्रापात भाया सुशाला तयाः पुत्राः ।
श्रीपति भार्या सुशीला तयोः पुत्राः [षट्] दामोदर भ. श्री ज्ञानभूषणदेवास्तत्पट्टे भ० श्री जगत्भूषणदेवा
कमलसिंह उदेसिंह, यतीपाल, दिवाजित, महाजित तेषां स्तदाम्नाये गोलाराडान्वये सोहान गोत्रे संघाधिप रामचंद्र
मध्ये सा० महीपाल भार्या चुंदो द्वितीया भार्या सपूता, स्तदभार्या जया तयोः पुत्रास्त्रयः श्री लाला खरगसेन, पर
तयोः पुत्रा कुडकाले......होला तयोपुत्र नेमिदास, लउक
भार्या कोडो कमलसी सकला ते नित्यं प्रणमति सूत्रधारि शुराम, अगरमल तत्र खरगसेन भार्या परमलदेवी तयो
जाखा। पुत्राः ५ मकरन्द, कन्हरदास श्री चिन्तामणि पयग श्याम
इस नए मन्दिरमें अनेक ग्रंथ है। जिन्हे मिश्रीलाल दास, मकरंद भार्या राममति पुत्र ३ नामसाहि, संमेदी जी पाटनी प्रदर्शनी में दिखलाते है। कुछ सिक्कों का भी विहारी, कन्हर भा० कंचुनदे तत्पुत्र प्रताप किशनदास ।
संकलन है, पर वे अधिक पुराने और महत्वपूर्ण नहीं हैं । भिखानी प्रताप भा० ससजादी पु० चन्द्रमणि भा० चंपा
शास्त्र भंडार में कुछ खडित और कुछ अखंडित शास्त्र हैं । तत्पुत्र ३ भगवत, जीवन, सबलसिंधु पयागलता तद्भार्या
कुछ गुच्छक भी है । इन सबकी सूची तो है किन्तु वह व्यवकमल के पुत्र ३ गगाराम, भोगाजीत, श्मामदास भार्या
स्थित और प्रामाणिक नहीं है। उनमें कर्ता, टीकाकार, नागा तत्पुत्र गगदेव जयनाम तत्र एतेषां मध्ये श्यामदास
भाषा, रचना समय और लेखम काल, विषय, पत्र संख्या नित्यं प्रणमति ।
और भडार का नाम अवश्य रहना चाहिए । यदि अन्त मे चौबीसी धातु, साइज ६ इंच ऊची ५ इंच चौड़ी ग्रथ लिपि की प्रशस्ति हो तो वह सकलित होनी आव
सं० १५५२ वर्षे ज्येष्ठ सुदि २ सोमे श्री मूलसंघे श्यक है । पाटनीजी इस मन्दिर में रोज पूजा करते है और बलात्कार गणे सरस्वती गच्छे भ० श्री जिनचन्द्रदेवा भ० मन्दिर की सार-संभाल भी रखते ही हैं, उन्हें धर्मसे विशेष विद्यानन्दिदेवा श्री सा० प्रससार भा० संतसिरो पुत्र २ लगन है, सरलस्वभावी है। प्राशा है वर्धमान नवयुवक ज्येष्ठ पुत्र धरमू भा० सत्तुणा लघुभ्राता......। मण्डल लश्कर के तमाम मन्दिरो के मूर्ति लेखों और शास्त्र
अजितनाथ-पाणण सफेद ऊंचाई सवाफुट, चौड़ाई भंडारों को भी व्यवस्थित करने का यत्न करेगा।
अनेकान्त की पुरानी फाइलें अनेकान्त की कुछ पुरानी फाइलें प्रवशिष्ट हैं। जिनमें इतिहास पुरातत्व, दर्शन और साहित्य के सम्बन्ध में खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं। जो पठनीय तथा संग्रहणीय है। फाइलें अनेकान्त के लागत मूल्य पर ही दी जावेगी। पोष्टेन खर्च अलग होगा।
फाइलें बर्ष ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९ २० तथा २१ की हैं। अगर माप ने अभी तक नहीं मंगाई है तो शीघ्र मंगवा लें। ये फाइलें अनुसंषातामों, और थीसिस लिखने वाले विद्वानों के लिए बहुत उपयोगी है। प्रतियां थोड़ी है, अतः जल्दी करें।
मैनेजर 'अनेकान्त' वीर सेवामन्दिर, २१ परितागंज, दिल्ली
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साहित्य-समीक्षा
१. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास - भाग ४ लेखक डा० मोहनलालजी मेहता, प्रो० हीरा लालजी कापड़िया । प्रकाशक पार्श्वनाथ जैन शोध संस्थान जैनाथम हिन्दू यूनिवर्सिटी वाराणसी, पाकार डिमाई पुष्ट सस्था ४०० मूल्य १५ रुपया
प्रस्तुत ग्रंथ मे छह अधिकार है, कर्म साहित्य, आगमिक प्रकरण, धर्मोपदेश, योग और अध्यात्म अनगार और सागार का प्राचार, और विधि-विधान, कल्प मंत्र तत्र पर्व और तीर्थ
।
प्रथम अधिकार में कर्मसाहित्य का परिचय कराया गया है, जिससे जैन कर्मसिद्धान्त का परिचय सहज ही मिल जाता है दिगम्बरों के कर्मसाहित्य का और खट्खण्डागम कसायपाहुड का परिचय ८० पृष्ठो मे संक्षिप्त रूप मे कराया गया है। डा० मेहता अच्छे सुलेखक हैं उनकी लेखनी सद्भावपूर्ण स्पष्ट और सरल होती है। विषय का थोड़े शब्दो मे परिचय कराना यह उनकी विशेषता है। कर्म साहित्य का परिचय कराते हुए दिग म्वरीय कर्मसाहित्य की तालिका भी दी है। दिगम्बरीय कर्मसाहित्य के गोम्मटसार की दो टीकाओं का परिचय सम्भवतः मेहता जी को ज्ञात नहीं हो सका । अन्यथा वे उसका उल्लेख अवश्य ही करते। यद्यपि गोम्मट सार की प्राकृत टीका का परिचय अनेकान्त के वर्ष १४ किरण १ पु. २६ में मुस्तार साहबने कराया है, जो अजमेरके शास्त्र भंडार में सुरक्षित है। यह टीका अपूर्ण है इसी से वे उनके कर्तृव्य के सम्बन्ध में विशेष विचार नहीं कर सके हैं। पर उसके देखने से स्पष्ट बोध होता है कि यह टीका शक सं० २०१६ वि० सं० १९५१ में रचित गिरी कीर्ति की गोम्मट पजिका से पूर्ववर्ती है; क्योंकि कुछ वाक्यों की दोनों में समानता भी देखी जाती है। पंजिका का उल्लेख प्रा० प्रभयचन्द की मन्दप्रबोधिका टीका में निम्न वाक्यों में पाया जाता है :
" अथवा सम्मूच्छंन गर्भोपादात्तानाश्रित्य जन्म भव
तीति गोम्मट पंचिकाकारादीनामभिप्रायः । (गो० जी० म०प्र०टी० गा० ८३५० २०५ बड़ी टीका )
अभयचन्द की मन्दप्रबोधिका टीका का रचना काल ईसा की १३वी शताब्दी का तीसरा चरण (सन् १२७६ ) है । क्योंकि अभयचन्द्र का स्वर्गवास इसी समय हुआ है । इससे स्पष्ट है कि पत्रिका इससे पूर्ववर्ती है। पंजिकाकार गिरिकीर्ति ने उसका रचनाकाल शक संवत् १०१६ (वि० सं० ११५१ ) बतलाया है, जैसा कि उसकी निम्न गाथा से स्पष्ट है :
:
सोलह सहिय सहस्से गए सककाले पवमाणस्स । भाव समस्त समत्ता कत्तियणंदीसरे एसा | मेहताजी ने डड्ढा के संस्कृत पंचसंग्रह का रचना काल वि० की १७वी शताब्दी लिख दिया है, जो ठीक नहीं है, उड्ढा का पंचसंग्रह तो प्राचार्य प्रमितगति से भी पूर्ववर्ती है। सभवत: उसका समय विक्रम की दशवीं शताब्दी है ।
इसके अनन्तर श्वेताम्बर कर्मसाहित्य का परिचय कराया गया है उसके साहित्य की भी तालिका दी हुई है ।
दूसरे प्रागमिक प्रकरण के प्रारम्भ में ग्रंथों का परिचय दिया है उसमे बोधपाड की अन्तिम गाया के आधार पर विद्वान उन्हे भद्रबाहु का शिष्य मानते है । डा० सा० ने उस मान्यता को ठीक नहीं बतलाया, उस पर प्रामाणिक रूप से विचार करना श्रावश्यक था। डा० सा० ने उस वाक्य को चलती लेखनीसे ही लिख दिया जान पड़ता है। कुन्दकुन्दाचार्य भद्रवाह के साक्षात् शिष्य भले ही न हों किन्तु वे उनकी परम्परा के शिष्य थे। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। वे उनसे कुछ समय बाद हुए हों यह सम्भव है ।
तीसरे धर्मोपदेश प्रकरण में 'उपदेशमाला' जैसे ग्रंथों का परिचय कराया गया है और योग तथा अध्यात्म के प्रकरण में दोनों विषयों का अच्छा विवेचन किया गया
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अनेकान्त
है। प्रनगार और सागार प्रकरण में उभय धर्मों का कयन लाल जी पाटनी और केशरीमल जी पाटनी (महामंत्री भी अच्छा दिया हैं। और अन्तिम प्रकरण विधि-विधान उक्त सघ) धन्यवाद के पात्र हैं।। में प्रजादिक के अनुष्ठान के साथ प्रतिष्ठा विधि मत्र-तत्र- ३. प्रादि-मानव (भगवान ऋषभदेव)-लेखक लाला विषयक साहित्य का परिचय कराते हुए उनकी कृतियों महेन्द्रसेन जैन, प्रकाशक अग्रवाल दि० समाज दिल्ली। का सक्षिप्त विवरण दिया है। इस तरह यह ग्रंथ बहुत लेखक ने भगवान ऋषभदेव का परिचय कराते हए उपयोगी हो गया है, प्रकाशन साफ और सुथरा है । इसे उनके सिद्धान्तों का सरल भाषा मे परिचय कराने का मगाकर पढ़ना चाहिए। इस सब कार्य के लिए मेहताजी प्रयत्न किया है। पुस्तक की भाषा जहां सरल है वहाँ धन्यवाद के पात्र हैं । सचालक समितिका प्रयास भी समा- सुबोध भी है। ग्राशा है लेखक महोदय आगे और भी दरणीय है।
कोई पूस्तक लिखने का कप्ट करेगे। समाज को प्राज २. ग्वालियर जन निर्देशिका-प्रधान सम्पादक प्रो.
सरल सुबोध भापा वाली पुस्तको की जरूरत है, जिसमे नरेन्द्रलाल जैन एम. कॉम, साहित्यरत्न, सहसम्पादक श्री
जैन संस्कृति का परिचय निहित हो। लेखक का प्रयास कपूरचन्ब जी वरैया। प्रकाशक वर्द्धमान दि० जैन नव
- सराहनीय है । पुस्तक लेखक से मगा कर पढना चाहिए। युवक संघ डीडवाना अोली लश्कर ।
-परमानन्द शास्त्री प्रस्तुत निर्देशिका २०४३० पाटपेजी साइज के
___४. जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार-(ऐतिहासिक १६८ पृष्ठों मे मुद्रित है जिसमे ग्वालियर के ७००० हजार जैनियों का परिचय प्रकित किया गया है नवयुवक
एव समीक्षात्मक अध्ययन) ले० डॉ० दरबारीलाल जैन
कोठिया, प्रकाशक-वीर-सेवा-मन्दिर ट्रस्ट, पृष्टसख्या सघ के कार्यकर्तामौ ने इस रूक्ष विषय को सरस बनान के
२६६, डिमाई, मूल्य १५ रुपये। लिए अनेक प्रयत्न किये है। यह निर्देशिका दि० श्वेताम्बर स्थानकवासी और तेरापंथी समाजो की है। जिसमे निया
प्रस्तुत अथ श्री डॉ० दरबारीलाल जी के द्वारा 'पी० द्वारा संस्थापित शिक्षा संस्थाएँ, औषधालय धर्मशालाए,
एच० डी०' उपाधि के प्राप्त्यर्थ शोध-प्रबन्ध के रूप में पुस्तकालकय, वाचनालय, जैन छात्रावास और सभी
लिखा गया था, जिसे काशी विश्वविद्यालय ने स्वीकार सास्कृतिक संस्थाओ का परिचय दिया है। साथ ही
कर उन्हे उनकी विद्वत्ता के अनुरूप उक्त उपाधि प्रदान ग्वालियर के अतीत के इतिहास पर भी कुछ पृष्ठ
की है। डॉ० कोठिया जी न्यायशास्त्र के माने हुए विद्वान् लिखे है। जिन पर मेरे लेख की स्पष्ट छाप है। जन
है। उन्होने जैन न्याय के अतिरिक्त बौद्ध, मीमासक, गणना से यह भी प्रतीत होता है कि ग्वालियर मे वत- साख्य, नैयायिक, वैशेषिक एव चार्वाक प्रादि इतर प्राचीन मान में खडेलवाल, अग्रवाल परवार, गोनापूर्व गोलालारे,
दर्शनों के भी विविध तर्क ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन किया गोलासिंघारे, लेबकचुक, वरैया हमड आदि विविध है। उसी के बल पर वे ऐसे महत्त्वपूर्ण सुन्दर ग्रन्थ के जातियो का निवास है। १४वी १५वी शताब्दी मे वहा लिखने मे पूर्णतया सफल हुए है। अग्रवालो की सम्पन्नता थी। ग्वालियर किले में उत्कीर्ण प्रकृत ग्रन्थ पांच अध्यायों और उनके अन्तर्गत अनेक सभी मूर्तिया डूगर सिंह और कीर्तिसिह के राज्यकाल मे परिच्छेदों में विभक्त है। उनमे से प्रथम अध्याय में यह अग्रवालो की प्रेरणा एव दानशीलता का परिणाम है। स्पष्ट किया गया है कि प्राचीन काल में बौद्ध, नैयायिक, दुःख है कि आज वहा की समाज उनका जीर्णोद्धार कराने वैशेषिक, मीमासक, सांख्य और जैन परम्परा में इस अनुमें भी असमर्थ है। प्राशा है समाज के नवयुवक अपनी मान का क्या रूप रहा है और तत्पश्चात् उसमें फिर पुरातन सास्कृतिक वस्तुओं की रक्षा करेगी । निर्देशिका मे उत्तरोत्तर किस प्रकार से विकास हुआ है। इसके अति. जाति परिचय और मूर्तिलखो का न होना खटकता है। इस रिक्त इस अध्याय में अनुमान के स्वरूप, उसके भेद, सब कार्य के लिए वर्धमान नवयुवक सघ और प्रेरक मिश्री. अवयव और तद्गत दोषों की भी संक्षेप में चर्चा की गई
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साहित्य-समीक्षा
है। विस्तार से अवयवों और दोषो का विचार प्रागे प्रमाण से भिन्न नहीं है-तदन्तर्गत ही है। चतुर्थ और पंचम अध्याय में किया गया है।
तृतीय अध्याय मे वैशेषिक, मीमासक, सांख्य मौर जैसा कि प्रकृत ग्रंथ मे विवेचित है (पृ० २५-२६) बौद्ध सम्प्रदायो में जो अनुमान के भेद स्वीकार किये गये जैन आगम ग्रंथों मे उक्त अनुमान का कुछ विकसित रूा हैं उनके विषय में अकलंक, विद्यानन्द, वादिराज और अनुयोगद्वार सूत्र में उपलब्ध होता है । यहाँ प्रथमतः प्रभाचन्द्र इन जैन ताकिकों का क्या अभिमत रहा है। (सूत्र १३१) प्रमाण के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप इसका विश्लेषण करते हुए उक्त भेदों की समीक्षा की गई से चार भेद निर्दिष्ट किये गये है। इनमे से अन्तिम भाव है। तत्पश्चात् अनुमान के स्वार्थ और परार्थ भेदों की प्रमाण का विचार करते हुए उसके भी ये तीन भेद निर्दिष्ट चर्चा करते हए अनुमान की भित्तिभूत व्याप्ति के विषय किये गये है-गुणप्रमाण, नयप्रमाण और संख्याप्रमाण। में सूक्ष्मता से विचार किया गया है। इनमें गुणप्रमाण जीवगुणप्रमाण और अजीवगुणप्रमाण के चतुर्थ अध्याय में प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और भेद से दो प्रकारका है। इनमे भी जीवगुणप्रमाण के निगमन ; इन अनुमानावयवों में से कितने किस सम्प्रदाय तीन भेद कहे गये हैं-ज्ञानगुणप्रमाण, दर्शनगुणप्रमाण में स्वीकृत है, इसका निर्देश करते हुए उनकी तुलनात्मक और चारित्रगुणप्रमाण, ज्ञानगुणप्रमाण भी प्रत्यक्ष, अनु- रूप से समीक्षा की गई है। इस प्रसंग मे यहाँ सर्वप्रथम मान, उपमान और पागम के भेद से चार प्रकारका तत्त्वार्थसत्र के अन्तर्गत दसवें अध्याय के "तदनन्तरमूवं है। इस प्रकार प्रसंग प्राप्त अनुमान के विवेचन में वहां गच्छत्या लोकान्तात्" आदि तीन (५-७) सूत्रों को उद्धृत उसके मूल में पूर्ववत्, शेषवत् पोर दप्टसावयंवत् ये तीन करके उनके अाधार से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। इनके स्वरूप का विचार करते यद्यपि तत्त्वार्थसूत्राकार ने अनुमान के अवयव और उनकी हुए वहाँ उनके यथासम्भव अन्यान्य भेदों का भी उदा- संख्या का स्पष्टतया कोई उल्लेख नही किया है, फिर भी हरणपूर्वक उल्लेख किया गया है ।
उनकी रचना के क्रम को देखते हुए यह स्पष्ट प्रतिभासित मलधारीय हेमचन्द सूरि ने उसकी टीका में इन पूर्व होता है कि तत्वार्थसूत्रकार को प्रतिज्ञा, हेतु पोर दृष्टान्त वत् प्रादि पदो को मतप् प्रत्ययान्त माना है। यथा- ये तीन अनुमान के अवयव अभीष्ट रहे है। पूर्ववत् अनुमान के स्वरूप का स्पष्टीकरण करते हुए वे यहां यह विशेष स्मरणीय है कि उपर्युक्त तीन सूत्र कहते हैं कि पूर्व में उपलब्ध विशिष्ट चिह्न- जैसे क्षत दि० सूत्रपाठ का अनुसरण करते हैं, श्वे० सूत्रपाठ में (फोडा आदि) व्रण (घाव) और लांछन (स्वस्तिक उक्त तीन सूत्रों में से दृष्टान्त का सूचक अन्तिम सूत्र आदि) को पूर्व कहा जाता है । उससे युक्त, अर्थात् उसके "प्राविद्धकूलालचक्रवद..." प्रादि नहीं है। इसी प्रकार आश्रय से उत्पन्न होने वाले, अनुमान का नाम पूर्ववत् दि० सूत्रपाठ के अनुसार आगे भी जो लोकान्त के ऊपर है। इत्यादि।
मुक्त जीव के गमनाभाव का साधक एक मात्र हेतु प्रवइस प्रथम अध्याय के अन्त में भारतीय अनुमान की यव रूप "धर्मास्तिकायाभावात्" सूत्र उपलब्ध होता है पाश्चात्य तर्कशास्त्र से भी कुछ तुलना की गई है। वह भी श्वे० सूत्र पाठ में संगृहीत नही है। हो, लोकान्त
द्वितीय अध्याय में विविध प्राचीन सम्प्रदायों के प्राधार के ऊपर मुक्त जीव की गति क्यों सम्भव नही है, इस से प्रमाण के स्वरूप और उसके प्रयोजन का विचार करते शंका के समाधान में भाष्य में उन्हीं शब्दों (धर्मास्तिकाहुए समन्तभद्र आदि कितने ही जैन ताकिको के अभिमता- याभावात्) के द्वारा धर्मास्तिकाय का अभाव ही उसका नुसार प्रमाण के स्वरूप का पृथक्-पृथक् विवेचन किया कारण बतलाया गया है। इसी प्रकार भाप्य में कुलालगया है। साथ ही यहां यह भी स्पष्ट किया गया है कि चक्र, अग्नि, एरण्डबीज और मलावु ये दि० सूत्रोक्त कुछ प्रवादियों के द्वारा जो अर्थापत्ति, प्रभाव, सम्भव और दृष्टान्त भी संगृहीत है। प्रातिभ ये पृथक् प्रमाण माने गये हैं वे उक्त अनुमान प्रस्तुत ग्रन्थ में यहां जैन तार्किकों में अनुमानावयवों
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अनेकान्त
६६
का उल्लेख करने वाले उन सिद्धसेन को प्रथम बतलाया गया है, जिन्होंने अपने न्यायावतार में प्रतिज्ञा ( पक्ष ), हेतु और दृष्टान्त इन तीन धनुमानावयवों का स्पष्टतया निर्देश किया है।
आगे चलकर लेखक ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जैन तार्किकों मे अधिकांश का यह स्पष्ट मत है कि विजिगीषु कथा (वाद) में तो प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अनुमान के अवयव पर्याप्त है, पर वीतराग कथा - तात्त्विक चर्चा - मे प्रतिपाद्य ( श्रोता ) के अभिप्रायानुसार तीन, चार और पांच भी वे माने जा सकते हैं - उनकी कोई नियत सख्या निर्धारित नही की जा सकती ।
में यहाँ हेतुभेदों की भी चर्चा की गई है व उनका स्पष्टीकरण तालिकाओं द्वारा किया गया है ।
पांचवें अध्याय में अनुमानाभास का विचार करते हुए साध्याभास, साधनाभास और दृष्टान्ताभास आदि दोषों का भी अच्छा विचार किया गया है । अन्त में उपसहार करते हुए जैन दृष्टिकोण के अनुसार सभी प्रमाणों का अन्तर्भाव प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो ही प्रमाण भेदों मे किया गया है।
इस प्रकार अनुमानविषयक सभी चर्चनीय विषयों से संकलित प्रस्तुत ग्रंथ अतिशय उपयोगी प्रमाणित होगा । अनुमानविषयक इतनी विशद और विस्तीर्ण चर्चा सम्भवतः अन्यत्र दृष्टिगोचर नही होगी। इसके लिए लेखक और प्रकाशक धन्यवादाह है। पुस्तक की छपाई नौर साज-सज्जा प्रादि भी आकर्षक है । ऐसे उपयोगी ग्रंथ का सार्वजनिक पुस्तकालयों और जिनमन्दिरों मे अवश्य ही संग्रह किया जाना चाहिये ।
- बालचन्द सिद्धगत शास्त्री
इसी अध्याय के द्वितीय परिच्छेद मे हेतु का विचार करते हुए उसके विविध तार्किकों द्वारा माने गये द्विलक्षण, षड्लक्षण और सप्तलक्षण; इन हेतुलक्षणों का उल्लेख करते हुए उनकी समीक्षा के साथ यह बतलाया गया है कि जैन ताकिकों ने अविनाभाव या अन्यथानुपपत्ति रूप एक लक्षण ही हेतु का निर्दोष स्वरूप स्वीकार किया है, अन्त
वीर सेवामन्दिर में वीरशासन जयन्ती सानन्द सम्पन्न
२६ जुलाई दिन मंगलवार को प्रातः काल ८ बजे वीरशासन जयन्ती महोत्सव बाबू यशपाल जी की अध्यक्षता में सानन्द सम्पन्न हुया ।
परमानन्द शास्त्री के मंगलाचरण के बाद दि० जैन महिलाश्रम की छात्राओंों का मधुर भजन हुआ पश्चात् पं० बालचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री, ला० प्रेमचन्द जी जैनावाच, पं० मथरादास जी शास्त्री, प्रिन्सिपल समन्तभद्र महाविद्यालय और अध्यक्ष बा० यशपाल जी सम्पादक जीवन साहित्य के महत्वपूर्ण भाषण हुए ।
भाषणों में भगवान महावीर के शासन की महत्ता ख्यापित करते हुए उनके सर्वोदयतीर्थ का प्रवर्तन सबके अभ्युदय के लिए हुआ । यह कम लोग ही जानते हैं, महावीर केवल जैनियों के नहीं थे । उनका उपदेश विश्व कल्याण की भावना से ओत-प्रोत था, उससे दानवता हटी और मानवता का स्वच्छ वातावरण लोक में प्रसारित हुआ । हिंसा पर रोक लगी, और पाप प्रवृत्तियों से बुद्धि हटी, संसार के सभी जीवों को सुख-शान्ति का मार्ग मिला। उनके शासन में ऊँच-नीच का भेद भाव नहीं था इसी से मानव के सिवाय पशुओं तक को प्राश्रय मिला। सभी ने उनकी वाणी का पान कर श्रात्मलाभ लिया । महावीर शासन के अहिंसा और अपरिग्रह विश्व कल्याण करने वाले सिद्धान्त हैं उनका जीवन में विकास आवश्यक है । अन्त में मंत्री जी ने उपस्थिति की कमी को महसूस करते हुए कहा कि आगामी वीरशासन जयन्ती का उत्सव प्रातःकाल की बजाय सायंकाल मनाया जायगा, जिससे उत्सव में भाग लेने वाले सभी महानुभाव समय पर पधार सकें। दूसरे उत्सव को रोचक बनाने के लिए और भी सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर विचार किया जायगा । मंत्री जी ने समागत सभी सज्जनों को धन्यवाद दिया और भगवान महावीर की जयध्वनिपूर्वक उत्सव समाप्त हुआ । प्रेमचन्द जैन मंत्री बोरसेवा मन्दिर
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समाज के तीन महानुभावों का निधन
१. बा० रघुबर दयालजी, वकील दिल्ली आप अच्छे धर्मात्मा और मुख्तार श्री जुगल किशोर के मित्रों में से थे । वीरसेवामन्दिर के सदस्य थे। पहले प्रबन्धकारिणी के भो सदस्य रहे हैं। जैन साहित्य और संस्कृति के प्रेमी थे ।
२. सेठ भागचन्द जी डोंगरगढ़ - अच्छे सम्पन्न, धार्मिक कार्यों का अनुष्ठान करने वाले, संस्कृति के प्रेमी, जयधवला के प्रकाशन में आर्थिक सहयोग प्रदान करने वाले सज्जन थे ।
३. ला० कपूरचन्द जी कानपुर- धर्मनिष्ठ जिनवाणी भक्त उदार सज्जन थे, वीरसेवामन्दिर के सदस्य थे । बड़े सहृदय और सरल स्वभावी एवं मिलनसार थे ।
ये तीनों ही समाज के मान्य धर्मनिष्ठ महानुभाव थे । ऐसे व्यक्तियों का असमय में वियोग हो जाने से समाज को बडी क्षति उठानी पड़ती है । पर काल के सामने किसी की नही चलती, वह बड़ा निष्ठुर और निर्दयी है ।
हम उन सबके कुटुम्बियों के प्रति सम्वेदना प्रकट करते हैं। और भगवान से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें परलोक में सुख-शान्ति की प्राप्ति हो । - प्रनेकान्त परिवार
वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक
१०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ट्रस्ट
श्री साहू शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता ५०० ) श्री रामजीवन सगवगो एण्ड सस, कलकत्ता ५०) श्री गजराज जो सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता ५०० ) श्री वैजनाथ जो धर्मचन्द जी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता २५१) श्री रा० बा० हरखचन्द जी जैन, रांची
२५१ श्री अमरचन्द जी जंन (पहाडधा), कलकत्ता २५१) श्री स० सि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी २५१) श्री सेठ सोहनलाल जो जैन,
मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन
स्वस्तिक मेटल वर्क्स, जगाधरी
२५०) श्री मोतीलाल हीराचन्द गांधी, उस्मानाबाद २५०) श्री मन्शीधर जो जुगलकिशोर जी, कलकत्ता २५०) श्री जुगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी २५० ) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता २५०) श्री बी० धार० सी० जन, कलकत्ता २५०) श्री रामस्वरूप जो नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १५०) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता
१५० ) श्री चम्पालाल जो सरावगी, कलकता १५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता १५० )
१५० )
१५० )
१५० )
१५० )
, कस्तूरचन्द जी प्रानन्दीलाल जी कलकत्ता कन्हैयालाल जो सोताराम, कलकत्ता
""
पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता
प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकता भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता शिखरचन्न जो सरावगी, कलकत्ता
12
१०१)
१०१)
१०१ )
१०१)
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12
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१५० ) १५० ),
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१५० ) सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता १०१ ) मारवाड़ी वि० जैन समाज, ब्यावर १०१), दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी १०१), से5 चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं० २ १०१ ) " लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज दिली सेठ भंवरलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल
१०१)
"
"1
"
"1
शान्तिप्रसाद जी जैन, जैन बुक एजेन्सी, सेठ जगन्नाथजी पाण्ड्या भूमरीतल्या सेठ भगवानवास शोभाराम जी सागर
बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता बद्रीप्रसाद जी प्रात्माराम जी, पटना
१०० )
रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता
१००) जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या इन्दौर
""
"1
11
"
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62 (१) पुरातन-जनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-प्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थो मे
उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यो की सूची। सपादक मुस्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेपणापूर्ण महत्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका
(Introduction) से भूपित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५.०० (२) प्रा त परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक
सुन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेपणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।
...
२-०० (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगल
किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि राजमल का सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हना था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, जिल्द । ... १२५ (७) श्रीपूरपाश्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ (८) शासनचतुस्थिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वो शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ (E) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशार . जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक, सजिल्द । ... ३.०० (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० १ सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रशस्तियों का मगलाचरण
सहित अपूर्व सग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और प० परमानन्द शास्तीफी इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलकृत, सजिल्द ।
४.०० (११) समाधितन्त्र और टोपदेश-अध्यात्म कृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दो टीका सहित
४.०० (१२) अनित्यभावना-पा० पद्मनन्दीकी महत्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ (१३) तत्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त ।
... २५ (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ । ।१५ महावीर का सर्वोदय तीर्थ १६ पैसे, १६ समन्तभद्र विचार-दीपिका १६ पैसे, (१७) महावीर पूजा १६ (१८) अध्यात्म रहस्य-प. प्राशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । (१६) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा० २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थीको प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण सग्रह। पचपन
ग्रन्थकारो के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । स. प० परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२.०० (२०) न्याय-दीपिका-प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु० ७.०० (२१) जैन साहित्य पोर इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-सघ प्रकाशन ५-०० (२२) कसायपाहुड सुत्त-मूलग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दो अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठो मे। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
...
... २०.०० (२३) Reality मा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अग्रेजी में अनुवाद बड़े माकार के ३०० पृ. पक्की जिल्द ६.००
प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित ।
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समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवामन्दिर) का द्वै मासिक
मुखपत्र
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साहित्य इतिहास अंक
नरवर से प्राप्त और शिवपुरी ग्वालियर' के म्यूजियम में
स्थित तीर्थंकर की प्राचीन मूर्ति
(कुन्दनलाल प्रिन्सिपल के सौजन्य से प्राप्त)
सम्पादक मण्डल जैनेन्द्रकुमार यशपाल जैन प्रक्षयकुमार जैन परमानन्द शास्त्री
वर्ष २२ ] वार्षिक मूल्य ६)
[अंक ३, ४.५ इस अंक कामू० ४) ०
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विषय-सूची विषय
विषय १ श्री पार्श्वनाथ जिन स्तुति-कविवर बनारसीदास ६७ | २० अनेकान्त एक आदर्श पत्र-प०मिलापचन्द २ तीर्थंकरों को प्राचीन ता-कस्तूरचन्द जैन 'सुमन' १८ | रतनलाल जैन कटारिया ३ इच्छा नियत्रण-सम्पादक (परमानन्द) १०३ | २१ वीरसेवा मन्दिर का साहित्यिक शोध-कार्य४ पाडे लालचन्द का वरांगचरित
| प० परमानन्द जैन शास्त्री
१६८ डा. भागचन्द 'भास्कर'
| २२ स्वामी समन्तभद्र की जैनदर्शन को देन५ विश्व मंत्री का प्रतीक : पयूषण पर्व
डा० दरबारीलाल कोठिया
१७७ प्रो० भागचन्द भागेन्दु'
११० | २३ पत्रिकाए कैसे चले?-डा. गोकूलचन्द जैन १८२ ६ गुण स्थान, एक परिचय-मुनि श्री समेरमल २१३ | २४ अनेकान्त पत्र का गौरव-पं० जयन्तीप्रसाद ७ ग्वालियर के कुछ मूर्ति-यत्र लेख
शास्त्री परमानन्द शास्त्री
१२२
२५ अनेकान्त और उसकी सेवाएं८ अनेकान्त-मुनि श्री उदयचन्द जी
| डा० दरबारीलाल कोठिया
१२४ हबारह प्रकार के सभोग पारस्परिक व्यवहार
२६ जैन विद्या का अध्ययन-अनुशीलन : प्रगति के मुनि श्री नथमल
१२७
| पथ पर-प्रो. प्रेम सुमन जैन एम. ए. १८७ १० हरिवंशपुराण को प्रशस्ति एव वत्सराज
२७ भगवान महावीर का २५सौवा निर्वाणदिवस- १६२ रामवल्लभ सोमाणी
२८ श्री आदिनाथ स्तुति-कविवर भूधरदास १६३ ११ वायुपुराण और जन कथाएँ
२६ अनेकान्त में प्रकाशित रचनाएं :डा. विद्याधर जोहरापुरकर
(१) सैद्धान्तिक (धर्म, दर्शन, न्याय, व्याकरण) १६४ (२) साहित्य
२०१ १२ अनेकान्त का दिव्य आलोक
३) पुरातत्त्व(इतिहास, सस्कृति, स्थापत्य, कला)२२२ ५० पन्नालाल साहित्याचार्य
(४) समीक्षा
२२२ १३ सस्कृत की सीमा-प्रो० उदयचन्द जैन
(५) कहानियां
(६) कविताए एम. ए. दर्शनाचार्य
२२४ १३८
(७) व्यक्तिगत (परिचय, अभिनन्दन आदि) १४ सालोनी ग्राम में उपलब्ध प्राचीन मूर्तियां
(८) सामयिक
२३१ महेशकुमार जैन
१४१ (8) विविध
२३७ १५ अब मुखरित विनाश के पथ पर नूतन अनु.
(१०) सकलन सन्धान है, (कविता)-कल्याणकुमार जैन 'शशि' १४४ | ३० अनेकान्त के लेखक-गोपीलाल अमर २४२ १६ अलब्ध पर्याप्तक और निगोद-40 मिलापचन्द | ३१ अनेकान्त द्वे मासिक : एक दृष्टि मेरतनलाल जैन कटारिया
गोपीलाल 'अमर'
२५३ १७ विजोलिया के जैन लेख-रामवल्लभ सोमाणी १५५
| ३२ श्रात्मा का देह-प्रमाणत्व-डा. प्रद्युम्नकुमार १८ अनेकान्त पत्र का इतिहास-पं० परमानन्द शा. १५
२५५
३३ ज्ञानपीठ साहित्य-पुरस्कार इस वर्ष वरिष्ठ कवि १६ अनेकान्त और श्री परमानन्द जी शास्त्री
श्री पंत जी को समर्पित
२६० श्रीमती पुष्पलता जैन एम. ए.
१६१ | ३४ साहित्य-समीक्षा-परमानन्द, बालचन्द सि. शा. २६२
२२३
२४०
जैन
सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा० प्रेमसागर जैन
श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री
अनेकन्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मल्य १ रुपया २५ पैसा अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक मलाल उत्तरदायी नहीं है। -व्यवस्थापक अनेकान्त
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प्रकाशकीय
जैनधर्म और जैन संस्कृति की यह पत्रिका अपने इतिहास और लेखों की वर्गीकृत सूची के साथ प्रस्तुत है; इसमें अनेकान्त के अब तक के प्रकाशित ११२ अंकों की उल्लेखनीय सामग्री का दिग्दर्शन भी कराया गया है । और वह अनेकान्त के जिस वर्ष के जिस अंक में प्रकाशित हुई है उसका भी उल्लेख अंकों द्वारा स्पष्ट किया गया है।
इस सूची के निर्माण करने में काफी श्रम करना पड़ा है। पं. गोपीलाल जी 'अमर' ने हमारी प्रेरणा से अनेकान्त के इतिहास को तथा लेखकों के नाम और लेख सूची का वर्गीकरण किया है, इसके तैयार करने में उन्हें काफी समय लगा है। तैयार होकर पाने के बाद उसके संशोधन में तथा छपने में भी बिलम्ब हआ है। इस सहयोग के लिए गोपीलाल जी 'अमर' का जितना आभार माना जाय वह थोड़ा है। उन्होंने यह कार्य बिना किसी स्वार्थ के किया है, जिसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। आशा है भविष्य में उनका उचित सहयोग प्राप्त होता रहेगा।
अनेकान्त के इस साहित्य इतिहास अंक के प्रकाशन में आशातीत विलम्ब हो गया है, पाठकगण उसकी उत्कंठा के साथ प्रतीक्षा कर रहे हैं । इस विलम्ब के कई कारण हैं । रचनामों को समय पर न मिलना, दूसरा कारण अनेकान्त की ऐतिहासिक साहित्यिक सामग्री का वर्गीकरण करने में अधिक समय लगना तीसरे प्रेसकी अव्यवस्था, उसमें छपाई का काम अधिक होने से हरा है। इसके लिए हम पाठकों से क्षमा चाहते हैं। यह ग्रंक पाठकों को देर से अवश्य मिल रहा है, पर उसमें प्रकाशित सामग्री उनका अनुरंजन अवश्य करेगी।
भविष्य में अनेकान्त के प्रकाशन में विलम्ब न हो, वह समय पर प्रकाशित होता रहे, इसके लिए प्रयत्न किया है। प्राशा है पागे हम उसके समय पर प्रकाशन में समर्थ हो सकेंगे।
प्रेमचन्द जैन प्रकाशक 'अनेकान्त'
अनेकान्त को प्राप्त सहायता अनेकान्त को जिन सज्जनों ने सहायता भेजी या भिजवाई हैं वे सब धन्यवाद के पात्र हैं। माशा है दूसरे महानुभाव भी इसका अनुकरण करेंगे। सहायता निम्न प्रकार है :१०१) सहायता पनेकान्त, बाबू निर्मलकुमार जी, कलकत्ता । २२) बा. मानमल जी जैन, दो बार कलकत्ता। २१) जगमोहन जी जैन धर्मपत्नी श्री सुमित्रा देवी, कलकत्ता। ११) ला. इन्द्रलाल जैन दरियागंज, विवाहोपलक्ष में निकाले हए दान में से। ११) सेठ भंवरीलाल जी कासलीवाल ।
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सम्पादकीय 'अनेकान्त' जैन संस्कृति और साहित्य तथा ऐतिहासिक विषय की द्वैमासिक पत्रिका है । जन वाङ्मय में उसे जो अप्रकाशित और अनुपलब्ध रचनाएं मिली हैं। अनेकान्तमें केवल उनका परिचय ही प्रस्तुत नहीं किया गया, प्रत्युत उनके अन्त: रहस्यका उद्घाटन करते हुए ऐतिहासिक गुत्थियों को सुलझानेका उपक्रम किया है। समाज को चाहिए कि वह ऐसे उपयोगी पत्रको अपना सहयोग प्रदान करे ।
अनेकान्त के इस अंक से पाठक उसकी महत्ता को अवगत करेंगे। उससे उन्हें यह सहज ही ज्ञात हो सकेगा कि अनेकान्त में अब तक जो महत्व के लेख प्रकाशित हए हैं। उनका परिचय पाठको को तथा ऐतिहासिक विद्वानों को सहज ही मिल सकेगा। इसमें उनके लेखों और लेखकों की भी तालिका मिलेगी।
साथ ही, वीर-सेवा-मन्दिर द्वारा अब तक की शोध खोज का कार्य भी प्रस्तत किया गया है। उसका भी दिग्दर्शन हो सकेगा। और यह ज्ञात हो सकेगा कि वीरसेवामन्दिर ने जैन साहित्य प्ररि इतिहास के बारे में कितनी सामग्री संकलित कर उसका परिचयादि अनेकान्त द्वारा दिया है।
वीरसेवामन्दिर इतिहास और साहित्य जैसे महत्वपूर्ण कार्य में तो अपनी शक्ति लगाता ही है, किन्तु जैन संस्कृति के पुरातात्विक अवशेषों, प्रशस्तियों, ताम्रपत्रों, शिलालेखों और हस्तलिखित प्रन्थों का भी संकलन करने में तत्पर है। अनुपलब्ध और अप्रकाशित ग्रंथों के संरक्षण की यहां पूर्ण सुविधा है । जो महानुभाव अपने यहां के हस्तलिखित ग्रन्थों को प्रदान करना चाहें वे वीर-सेवामन्दिर में भिजवा दें, या हमें उनकी सूचना दें। हम उनका संरक्षण सावधानी के साथ करेंगे।
अनेकान्त के इस अंक के प्रकाशन में बहुत अधिक बिलम्ब हो गया है। पाठकगण काफी समय से उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। हमें इस बात का खेद है कि हम उनकी प्राशा समय पर पूरी न कर सके । किन्तु भविष्य में हम उसे समय पर प्रकाशित करने का प्रयत्न अवश्य करेंगे ।
अनेकान्त के लेखक विद्वानों के हम बहुत आभारी हैं जिन्होंने अपनी रचनाए भेजकर हमें अनुगृहीत किया है। हम खास कर पं० गोपीलाल जी अमर के विशेष आभारी हैं, कि जिन्होंने हमें इस अंक में पर्याप्त सहयोग प्रदान किया है। प्राशा है भविष्य में उनसे और भी अधिक सहयोग मिलेगा।
-परमानन्द जैन
अनेकान्त पर अभिमत 'अनेकान्त' ने जैन साहित्य के शोध क्षेत्र में जो सेवाएं की हैं वे भारतीय साहित्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में उल्लेखनीय होंगी। जैन समाज की जागृति एव विकास के साथ-साथ रूढ़िवादिता से समाज को मुक्ति दिलाने में 'भनेकान्त' के प्राण पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार की सबल लेखनी ने जो उत्क्रांति पैदा की थी वह सर्व विदित है।
मुख्तार सा० ने इसका जो बीजारोपण किया था उसे अपने ही समय में पल्लवित और पुष्पित होता हमा देखा था। 'भनेकान्त' ने जैन समाज को प्रगति और उत्थान का पथ प्रदर्शन किया था। 'अनेकान्त' के विकास मौर निर्माण में जिन व्यक्तियों ने अपना सर्वस्व बलिदान किया उनमें पं. परमानन्द जी, पं. दरबारीलालजी कोठिया, बाबू छोटेलाल जी तथा बाबू जयभगवान जी के नाम सर्वथा उल्लेखनीय एवं चिरस्मरणीय हैं। वीर प्रम से कामना है कि 'अनेकान्त' दिन प्रतिदिन प्रगति करता रहे।
-कुन्दनलालजन
प्रिन्सिपल
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प्रोम् महम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमपनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वर्ष २२ । किरण ३-४ ।
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६५, वि० सं० २०२६
(अगस्त और अक्टूबर १९६६
श्री पार्श्वनाथ जिन-स्तुति
कविवर बनारसीदास
निरखत नयन भविक जल वरखत, हरखत प्रमित भविक जन सरसी। मदन-कदन-जित परम-धरम हित, सुमिरत भगत भगत सब उरसो। सजल-जलद-तन मुकुट सपत फन, कमठ दलन जिन नमत बनरसी।
सवैया ३१सा
जिन्ह के वचन उर धारत जुगल नाग भये परनिंद पदमावतो पलकमें। जाको नाम महिमा सों कुधातु कनक करे पारस पखान नामी भयो है खलकमें। जिन को जनमपुरी नाम के प्रभाव हम अपनों स्वरूप लल्यो भानुसौ भलकमें। तेई प्रभु पारस महारस के दाता अब, अब दीजे मोहि साता हग लोलाको लालकमें ।
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तीर्थडुरों की प्राचीनता
कस्तूरबन जैन 'सुमन' एम. ए. मध्यप्रदेश में प्राप्त जैन अभिलेखों में प्रथम जन भी अजितनाथ का स्मरण किया गया है। तृतीय तीर्थङ्कर तीर्थङ्कर के दो नाम मिलते हैं। चन्देल शासन कालीन, सभवनाथ-प्रतिमा पर उत्कीर्ण खजुराहो से प्राप्त अभिलेख खजुराहो से प्राप्त सं० ११४२ के एक अभिलेख में आदि- प्रतिमा की प्राचीनता म० १२१५ प्रगट करता है। ऊन से नाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराये जाने का उल्लेख है। प्राप्त सं०१२५८ का अभिलेख भी संभवनाथ प्रतिमा की इससे प्रथम प्रादिनाथ नाम की जानकारी मिलती है। प्राचीनता का बोध कराता है। पांचवे तीर्थङ्कर सुमतिनाथ द्वितीय नाम ऋषभदेव था । दूबकुण्ड प्रशस्ति में मंगलाचरण की प्राचीनतम तिथि मं० १३३१ अजयगढ मे प्राप्तके रूप में सर्व प्रथम ऋषभदेव का ही स्मरण किया गया चक्रवाक चिन्ह युक्त चरण पर अङ्कित अभिलेख में मिली है।'महार(टीकमगढ़) से प्राप्त अभिलेख में भी यही नाम है। मिलता है। पूर्वोल्लेख में दूबकुण्ड प्रशस्ति से यह प्रमा- छठवे तीर्थङ्कर पद्मप्रभु का सकेतात्मक उल्लेख “प्रों णित होता है कि आदिनाथ या ऋषभदेव ११ वी शती के नमः पद्यनाथाय" रूप में स० ११५० के ग्वालियर अभि. भारम्भ में सर्वप्रमुख तीर्थकर स्वीकार किए गए थे। लेख में मिला है। अभिलेख का लेखक जैन होने के कारण प्रशस्ति में आदिनाथ को सर्वप्रथम स्थान मिलने का अर्थ पद्मनाथ-पद्मप्रभु तीर्थङ्कर ही ज्ञात होते है । पाठवे तीर्थही, उनका तीर्थकुरों में सर्व प्रथम तीर्थङ्कर होना प्रमाणित र चन्द्रप्रभु सम्बन्धी उनके चरण-चिन्ह सहित दो अभिहोता है । इस प्रकार क्या जैन-जनेतर साहित्य और क्या लेख-एक दूबकुण्ड से" और द्वितीय होशगाबाद" से प्राप्त पुरातत्व सभी दृष्टियों से ऋषभदेव प्रथम तीर्थकर ज्ञात
५. डॉ. राधाकृष्णन् इण्डियन फिलासफी : जि०१, १० होते हैं । अन्य तीर्थङ्करों की प्राचीनता सम्बन्धी उल्लेख
२८७। भी म०प्र० से प्राप्त जैन अभिलेखों में दृष्टव्य हैं।
६. एपि० इं० जि० १, पृ० १५३ । द्वितीय जैन तीर्थधर अजितनाथ की प्रतिमा का ७.५० परमानंद शास्त्री, अनेकान्त : वर्ष १२, पृ. उल्लेख खजुराहो के जैन अभिलेख में मिलता है। यजुर्वेद में १६२।
८. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, अनेकान्त : वर्ष १३ कि० ४, १. कनिंघम रिपोर्ट जि. २ पृ० ४६१ ।
पृ०६८-६९ । और
६. इण्डियन एन्टीक्वेरी जि० १५ पृ० ३३-४६ । एवं सं० ११४२ श्री प्रादिनाथ प्रतिष्ठाकारक श्रेष्ठी पूर्णचन्द्रनाहर : जैन लेख संग्रह भाग २, पृ०८५-६२ वीवनशाह भार्या सेठानी पद्मावती"
सख्या १४२६ । अनेकान्त, बाबू छोटेलाल स्मृति अङ्क पृ० ५७ १०. जाडचं सस्वदखंडितक्षयमपिक्षीणाखिलोपक्षयं २. एपि. ई. जि. २ पृ० २३२-२४०। मभिः साक्षादीक्षितमक्षिभिर्दधदपि प्रौढं कलंक तथा पंक्ति ।
चिह्नत्वाद्यदुपांतमाप्यसततं (जातस्तथा) नंदकृत् ३. सं० १२३७ मार्ग सुदी ३ शुक्रे......श्री ऋषभनाथ चन्द्रः सर्वजनस्य पातु विपदश्चन्द्रप्रभोर्हन्स नः ।।
प्रणमन्ति नित्यं महार अभिलेख सं० १२३७, मनु- एपि. इंजि .२ पृ. २३२-२४०, दूबकुण्ड अभिलेख क्रमाङ्क।
पंक्ति०४-६। ४. कनिषम रिपोर्ट २१, पृ० ६६ ।
११. नागपुर संग्रहालय में संग्रहीत ।
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तीर्थपुरों की प्राचीनता
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हए हैं। जिनमें क्रमशः सं० ११४५ और सं० १२७८ उन्हें प्रणाम किए जाने का उल्लेख है। बीसवें तीर्थकर तिथियां दी गई हैं। नववें तीर्थङ्कर पुष्पदन्त-जिन्हें सुविध- मुनिसुव्रतनाथ जिनके उल्लेख मउ," पोर खजुराहो के नाथ भी कहा गया है --की प्रतिमा के पासन पर सं० अभिलेखोंमें मिलते हैं, राम-लक्ष्मणके समकालीन बताए गए १२०८ का अभिलेख मिला है। इसी प्रकार पन्द्रहवें हैं।" योगवशिष्ट में रामचन्द्रजी ने अपने विचार इस प्रकार तीर्थकर धर्मनाथ प्रतिमा के पासन पर उत्कीणित सं०
प्रकट किए हैं, कि "न में राम हैं, न मेरी कोई इच्छाएं है" १२७१ का एक अभिलेख होसंगाबाद से भी प्राप्त हुआ
और न मेरा मन विषयों की मोर ही प्राकर्षित है। मैं तो है।" सोलहवें तीर्थडुर शान्तिनाथ से सम्बन्धित म०प्र०
'जिन' के समान अपनी मात्मा में ही शान्ति स्थापित से प्राप्त जैन अभिलेखों में बहोरीबन्द, खजुराहो,' दूब- करना चाहता हूँ।" योगवशिष्ट के इस उल्लेख से प्रमाकुण्ड" और अहार" से प्राप्त मूर्तिलेख मुख्य है। इनकी
णित होता है कि रामचन्द्र के समय में कोई जैन मुनि प्राचीनतम तिथि १० वी शती ज्ञात होती है । सत्रहवे
थे जो प्रात्म-शान्ति के मार्ग में लवलीन थे। जिनकी तीर्थङ्कर कुन्थनाथ से सम्बन्धित सं० १२०३ का पहार"
प्रात्म बुद्धि से प्रभावित होकर रामचन्द्र जी के मन में भी से और स० १२६३ का ऊनसे प्राप्त अभिलेख मुख्य है।
'जिन' के समान शान्ति प्राप्त करने की इच्छा प्रकट हुई।
वे 'जिन' काल निर्धारण करने पर मुनिसुव्रतनाथ ही बताये अठारहवें तीर्थङ्कर अरनाथ या अरहनाथ का एक
गए हैं। बाइसवें तीर्थकर नेमिनाथ थे जिन्हे मऊ से प्राप्त प्रतिमा लेख स० १२०६ का अहार से मिला है जिसमे
सं० ११६६ के अभिलेख में जगत का स्वामी, संसार के १२. श्री सूत्रधारमण्डन, प्रतिमाशास्त्र : अध्याय ६ १०
अन्तक और तीनो लोकोंकी शरण तथा जगतका मंगलकर्ता ३०३-२०४।
कहा गया है। डॉ. फ्यूरर ने नेमिनाथ को बाइसवा १३. मेमॉयर्स अफ दि माकिलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया,
जैन तीर्थङ्कर ऐतिहासिक रूप से स्वीकार किया है। पत्रिका ११, ई० १९२२, पृ० १४ ।
२१. स० १२०६, गोलापूर्वान्वये साह सुपट...अरहनाथं १८. नागपुर मग्रहालय में संग्रहीत
प्रणमन्ति नित्य" प्रहार अभिलेख सं० १२०९, अनु१५. तस्य पुत्र महाभोज धर्मदानाध्ययनरतः ।
क्रमाङ्क ७. तेनेदं कारितं रम्यं शान्तिनाथस्य मन्दिरम् ।
२२. मुनिसुव्रतनाथस्य बिबं त्रैलोक्य पूजितः। इन्स्क्रिप्शन्स अॉफ दि कलचुरि चेदि एरा, जि. ४, कारितं सुतहवेनेदंमात्मश्रियोभिवृद्धये ।। स० ११६६ भाग १ पृ० ३०६ ।
वैसाख सुदि २। धुवेला संग्रहालय में संग्रहीत, प्रविष्ट १६. मं०१०८५...श्री सिवि चनुयदेव : श्री शान्तिनाथस्य क्र. ४२।
प्रतिमाकारी । कनिंघम रिपोर्ट, जि० २१ पृ६१ २३. डॉ० मस्टाफरोट, ट्रेक्ट सं०६८, श्री म. वि. जैन १७. एपि० इ० जि० २ १० २३२-२४० । अभि० मिशन, अलीगंज, एटा, पृ०७॥ पंक्ति ।
२४. नाहं रामो न मे वाञ्छा भावेषु न च मे मनः । १८. ताभ्यामशेष दुरितीघशमैकहैतु निर्मापितं भुवनभूषण
शान्ति मास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा । भूतमेतत् श्री शान्ति चैत्यमिति नित्य सुखप्रदानात् -योगवशिष्ठ, भ० १५, श्लोक ८ । मुक्तिश्रियोवदनवीक्षणलोलुपाभ्याम् । प्रहार अभिलेख
२५. क्षु०पार्श्वकीति, विश्वधर्म की रूपरेखा, वही : पृ.३१ । सं० १२३७ ।
२६. कारितश्च जगन्नाथ (नेमि) नाथो भवान्तकः । १६. सं० १२०३ गोलापूर्वान्वये साहु सुपट तस्य पुत्र मे (लोक्यश) रणं देवी जगन्मंगल कारकः ॥ सं.
शान्ति तस्य पुत्र यशकर कुंथुनाथ प्रणमन्ति नित्यं" ११६९ वैसाख सुदि २। धुवेला संग्रहालय में संग्रवही : सं० १२०३ अनुक्रमाङ्क ३ ।
हीत, प्रविष्टि क्र.७। २०.५० परमानन्द शास्त्री, मनेकान्त वर्ष १२, १० १९२ २७. एपि.इं. जि. १, पृ. ३८६ ।
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अनेकान्त
डॉ० प्राणनाथ विद्यालंकार ने तीथंकर नेमिनाथ को कृष्ण लेख में पार्श्वनाथ का उल्लेख मिला है"। डा० गुस्टाका समकालीन बताया है। जबकि जैन साहित्य में फरोट ने पार्श्वनाथ को १०२ वर्ष की आयु मे ही वीर नेमिनाथ स्पष्ट रूप से कृष्ण के चचेरे भाई बताये प्रभु से २५० वर्ष पूर्व मुक्त होना बताया है"। डा. गये हैं।
रामधारी सिंह 'दिनकर' ने भी लिखा है कि तेईसवें तीर्थकर नेमिनाथ का दूसरा नाम अरिष्टनेमि था। तीर्थकर पाश्र्वनाथ थे, जो ऐतिहासिक पुरुष है और ऋग्वेद में-जिसमें बड़े-बड़े घोड़े जुते हुए हैं, ऐसे रथ में जिनका ममय महावीर और बुद्ध, दोनों से कोई २५० वर्ष बैठे हुए प्राकाशपथगामी सूर्य के समान विद्यारथ में पहले पडता है। कुछ अन्य विद्वानो ने भी अनुसन्धान बैठे हुए अरिष्टनेमि नाम का माह्वानन के रूप मे उल्लेख पूर्वक तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक महापुरुष तथा मिलता है"। यजुर्वेद मे भी नेमिनाथ सम्बन्धी उल्लेख महान् धर्म-प्रचारक बताया है। है"। महाभारत में तो नेमिनाथ को रेवत पर्वत से मुक्ति अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर थे जिनके विभिन्न नामों प्राप्त करने का उल्लेख पाया है। डा. गुस्टाफरोट ने मे से वीर-वर्द्धमान" एवं सन्मति नामों का उल्लेख म० नेमिनाथ के सम्बन्ध में विचार प्रगट किए है कि वे श्री प्र. के जैन अभिलेखों में किया गया है। कृष्ण के समकालीन थे और उनका निर्वाण बीर प्रभू से अभिलेखीय उल्लेखों से-जैन साहित्य मे वणित", ८४००० वर्ष पूर्व अर्थात् ८४५०० ई०पू० मे हुआ। चौबीस तीर्थङ्करो की मान्यता सत्य प्रतीत होती है। म्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमार ने नेमिनाथ को श्रीकृष्ण का गुरू अभिलेखों से यह भी प्रमाणित हो जाता है कि वे प्रथम बताया है"। तेवीसवे तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ थे। उदयगिरि अहंन् ऋषभ ही थे, जो अवपिणी काल में अवतरित (विदिशा) के गुप्त सं० १०६ (ई. सं. ४२६) के गुड़ा- हुए थे । अभिलेखो मे जिन कतिपय तीर्थङ्करो के उल्लेख
मिले है, उनसे स्पष्ट है कि प्राचीन कालीन तीर्थङ्करो की २८. टाइम्स ऑफ इडिया, १६ मार्च १९३५ ई०पू०६।
३५. राज्ये कुलस्याभिविवर्द्धमाने पभियुतवर्षशतेऽथ२९.पं.कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन धर्म : श्री. भा. दि.
मासे सुकार्तिके बहुलदिनेथ पचमे गुहामुखे स्फुटविकटो संघ, चौरासी, मथुरा; १९५५ ई. पू. १५ ।
कटामिमा जितद्विषो जिनवरपार्श्वसज्ञिकाम् । ३०. तवा रथ वयद्याहु वेमस्तो मेरश्विना सविताय नव्य ।
इण्डियन एण्टीक्वेरी जि० ११, पृ० ३१० । भरिष्टनेमि परिद्यामियान विद्यामेष वृजन जीरदानम् ॥ ३६. ट्रेक्ट म०६८ वही: पृ०७।।
ऋग्वेद, मडल २, अ० ४, व २४ । ३७. सस्कृति के चार अध्याय : पृ० १३० । ३१. वाजस्यनु प्रसव माभूवेमा च विश्वा भुवनानि सर्वत. ३८. (अ) डा. हेनरी, फिलासफी आफ इण्डिया १०
स नेमिराजा परियाति विद्वान् प्रजा पुष्टि वर्धयमानो १८२-१८३ ।। अस्मै स्वाहा ।" यजुर्वेद, अध्याय ६, मत्र २५ ।
(ब) प्रो० पायङ्कर, स्टडीज इन साउथ इण्डियन
जैनिज्म, जि० १, पृ० २। ३२. रेवताद्री जिनो नेमि यंगादिविमलाचले ।
३६.स० १२०३..... श्री वीर-वद्धमानस्वामि प्रतिष्ठापिक: ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम् । महाभारत
......" अहार अभिलेख . स. १२०३, अनुक्र.१ । पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैनधर्म वही, पृ० १६ ।
४०. “सोऽय जिनः सन्मतिः" ३३. ट्रेक्ट सं० ६८, अ. वि. जैन मिशन अलीगंज, एटा,
एपि० इ० जिल्द २ : पृ० २३२-२४० अभि० .८ । वही, पृ०७।
४१. श्री यतिवृषभ; तिलोयपण्णत्तिः भाग २; श्री जैन ३४. रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय । सस्कृति सरक्षक संघ शोलापुर, १९४३ ई० पृ.
चतुर्थ संस्करण, १९६६ ई. राजेन्द्रनगर, पटना ४, १०१३ । पृ०७॥
४२. सूत्रधार मण्डन; प्रतिमाशास्त्र : बही; पृ० २०३-२०४
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तीर्थरों की प्राचीनता
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मान्यता का अनुशरण ही परवर्ती काल में किया गया था। तिया ऋषभ मूर्ति के पूर्व रूप है"। ये प्राकृतिया
जैन तीर्थहरों में प्रथम प्र प्रादिनाथ को योग कायोत्सर्ग प्रासन में हैं तथा यह प्रासन खास तौर से विद्या का प्रारम्भकर्ता एवं समस्त क्षत्रियों का पूर्वज जैनों का होने के कारण भी यह कथन उपयुक्त प्रतीत बताया गया है"। जनदर्शन में भी स्पष्ट कथन मिलता होता है। है कि जिस समय आदिनाथ जन्मे थे उस समय कोई वर्ण कतिपय अन्य शीलोका अध्ययन कर स्व. बा. कामताव्यवस्था न थी किन्तु जब उन्होंने प्रजा की रक्षा द्वारा प्रसाद जी ने भी अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है अपनी आजीविका करना निश्चित कर लिया तब वे स्वय कि इन मुद्रामों पर ऊपर की ओर जो छ नग्न योगी हैं। को क्षत्रिय वर्ण का कहने लगे थे। आजीविका के आधार वे ऋषभ मन के योगी है जिन्होंने अहिंसा का उपदेश पर क्षत्रिय, वैश्य और शद्र, तीन भागों में मनुष्य को दिया है। जैन पुराणों में छ चारण योगी प्रसिद्ध हैं, जो पाप ने ही विभाजित किया था। इस प्रकार जैन साहित्य यादव राजर्षि थे"। से भी प्रादिनाथ समस्त क्षत्रियों के पूर्वज ज्ञात होते है। डा. दिनकर ने भी लिखा है कि मोहनजोदड़ो की
खदाई में योग के प्रमाण मिले है। उनका कथन है जनइसी प्रकार उनके योगी होने के प्रमाण भी पुरा
मार्ग के प्रादि तीर्थङ्कर ऋषभदेव थे जिनके माथ योग तात्विक सामग्री से उपलब्ध हो जाते है। मोहनजोदडो से
और वैगग्य की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई है, जैसी साढ़े पांच हजार वर्ष पुरानी वस्तुएं खुदाई से प्राप्त हुई
कालान्तर में, वह शिव के साथ समन्वित हो गयी। इस हैं। उनमे प्लेट संख्या २ की ३ से ५ तक की सीलो पर
दृष्टि से कई जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्ति युक्त अकित योगी प्राकृतियों का अध्ययन कर प्रो. रामप्रसाद
नहीं दीखता कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी, चन्दा ने लिखा है कि ये एक योगी के आसन की मुद्राएं।
वेद पूर्व है"। है। उन्होंने इन योगी-प्राकृतियो की तुलना जिन
___ इस प्रकार न केवल पुरातात्विक सामग्री से ही यादिमूतियो से करके, यह भी घोषित किया था कि ये प्राकृ
नाथ प्रथम योगी ज्ञात होते है अपितु साहित्यिक उल्लेखों ४३. "श्री आदिनाथाय नमोस्तु तस्मै, येनोपदिष्टा हठयोग
से भी यही प्रकट होता है कि नाभि पुत्र ऋषभ ने योग
चर्या समादृष्टा के रूप में धारण की थी। इस प्रकार विद्या" क्षु० पावकीति बर्णी; विश्वधर्म की रूपरेखा : वीर सं० २४२५, जैन साहित्य सदन, चाँदनी चौक,
सैन्धव-कालीन पुगतात्विक मामग्री से यह प्रमाणित हो दिल्ली, पृ० २३ । एत्र देखिए :-(ब) सन्मति
जाता है कि आदिनाथ का अस्तित्व बहुत प्राचीन कालीन सन्देश, ५३५, गांधीनगर देहली-३१, जुलाई १९६६
है। वे बहुतप्राचीन समय से जैनियो के प्राराध्य देव रहे
है। एक प्राचीन-उदयगिरि (उड़ीसा) से प्राप्त, हाथीपृ० ४-५। ४४. नाभिस्त्वजनयत्पुत्र मरुदेव्यां महाद्युतिम् ।
४७. माडन-रिव्युः प्रकाशन-अगस्त १९३२ ई० । ऋषभ पार्थिवश्रेष्ठ सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ।।
४८. जैनधर्म और तीर्थंकरो की ऐतिहासिकता एवं प्राचीवायु-पुराण : म० ३३, श्लोक ५० ।
_____नता ट्रेक्ट संख्या ६८, वही, पृ० ११-१२ । ४५.५० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री; जैनधर्म और व्यवस्था : ४६. डा. गमधारीसिंह "दिनकर" सस्कृति के चार
भारतवर्षीय दि. जैन परिषद् दरीबाकला, दिल्ली, अध्याय : उदयाचल, राजेन्द्रनगर, पटना-४, चतुर्थ पृ०६।
मस्करण १९६६ ई० पृ० ३६ । ४६. उत्पादितस्त्रयो वर्णस्तदातेनादिवेघसा क्षत्रिया : वणि- ५०. नाभेरसौ ऋषभ प्राप्तसुदेवसूनुः ।
जः शूद्रा: क्षतत्राणादिभिर्गुण ॥१८३॥ प्राचार्य जिन- यो व चचार समदृग योगचर्याम् ॥ सेन ; प्रादिपुराण : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, दि. भागवत पुराण : स्कन्ध-द्वितीय, अध्याय ७, पृ. ३७२, सं० १९६३ ई०, भाग-१, पर्व १६, पृ० ३६२ । इलोक १०।
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१०२
अनेकान्त
गुम्फा अभिलेख से भी यही ज्ञात होता है कि राजा परमेश्वर ने ऋषभावतार लिया था, जो जगत के लिए खारवेल के प्राराध्य देव भी ऋषभ ही थे। वह जिन की परमहस चर्या का पथ दिखाने वाले थे, जिन्हें जैनधर्मावप्रतिमा उसके द्वारा वृहस्पति मित्र से लायी गयी थी। लम्बी भाई आदिनाथ कहकर स्मरण करते हुए जैनधर्म जिसे मगध का राजा नन्द, विजयचिह्न स्वरूप कलिंग का प्रादि प्रचारक मानते है। जीत कर, उसके शासन के ३०० वर्ष पूर्व मगध ले गया बौद्ध साहित्य में उपलब्ध जैनधर्म की प्राचीनता था।
विषयक उद्धरणों से एक समय था जब बेवर जैसे विद्वानों . इस उल्लेख से तथा मध्य प्रदेश के जैन अभिलेखों ने जैनधर्म को बौद्धधर्म की एक शाखा बताया था। मे यही प्रकट होता है कि जैनियों के चौबीस प्राराध्य- किन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने में भी विद्वानों को देर न देवों की मान्यता बहुत प्राचीन कालीन है। जैन, परम्परा- लगी। विद्वान् जैकोबी ने इस धारणा का खण्डन किया। नसार उन्हें बहुत प्राचीनकाल से अपना प्राराध्य-देव तथा यह प्रमाणित कर दिया कि जैनधर्म बौद्धधर्म से न स्वीकार करते चले आ रहे है।
केवल स्वतन्त्र एवं पृथक् धर्म है अपितु वह उससे बहुत ईसवी सन् की पहिली शती में होने वाले-हुविष्क प्राचीन भी है। और कनिष्क के समय के जो अभिलेख मथुरा से प्राप्त कतिपय विद्वानों की यह भी धारणा है कि जैनधर्म हुए है, उनमें भी ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर का वर्णन के प्रवर्तक पार्श्वनाथ अथवा महावीर थे। परन्तु यह पाया है। कतिपय ऋषभदेव की मूर्तियाँ भी उपलल्ध हुई विचारणीय प्रश्न है यदि महावीर या पार्श्वनाथ ही जैनहै"। इन शिलालेखों से स्पष्ट विदित होता है कि ईसवी धर्म के चलाने वाले होते तो उनकी मूर्ति भी जैनधर्म के मन की पहिली शती में ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर रूप में प्रवर्तक इस उल्लेख सहित स्थापित की गयी होती। माने जाते थे। भागवत में ऋषभदेव के सम्बन्ध में यह भी जैसी कि ईसवी सन् की प्रथम शती की ऋषभदेव की कथन मिलता है कि वे न केवल दिगम्बर थे अपितु जैनधर्म प्रतिमाएँ पूर्वोल्लेख सहित मथरा से प्राप्त हुई हैं । जैनधर्म के चलाने वाले भी थे । एक माहत राजा से सम्बन्धित के प्रवर्तक के सम्बन्ध में कतिपय विद्वानों के विचार भी उल्लेखों से भी ऋषभदेव की जानकारी मिलती है। उल्लेखनीय हैं। डा. सतीशचन्द महोमहापाध्याय ने
भागवत-पुराण के अाधार पर ही अन्य विद्वान् भी लिखा है कि "जैनधर्म तब से प्रचलित हुआ है, जब से यही स्वीकार करते हैं कि एक "त्रिगुणातीत पुरुष विशेष संसार में सृष्टि का प्रारम्भ हुमा है। मुझे इसमें किसी
प्रकार की उच्च नहीं है कि जैनधर्म वेदान्तादि दर्शनों से ५१. डा. वासुदेव उपाध्याय, प्राचीन भारतीय अभिलेखों
पूर्व का है।" डा. संकलिया ने भी ऐसे ही विचार का अध्ययन : प्रकाशक मोतीलाल बनारसीदास,
प्रकट किये हैं"। डा. राधाकृष्णन् ने तो स्पष्ट रूप से बनारस, १९६१ ई. द्वि० भाग पृ० २७, अभि.
लिखा है कि "वर्द्धमान अपने को उन्हीं सिद्धान्तों का प०१२। ५२. नन्दराजनीतानि प्रगस जिनस-नागनह रतन पडि- ५७. प्रो० माधवाचार्य एम.ए; जैन दर्शन : वर्णी अभि
हारेहि अंग मागध वसव नेयाति–खारवेल शिला- नन्दन ग्रन्थ : बही पृ. ७६ ।
लेख जन सि० भा० भा० १६ कि० २, पृ० १३४। ५८. Weber; Indische studian : XVI. P. 210 ५३.५० कैलाशचन्द शास्त्री; जैनधर्म : वही, पृ०६। ५६. The Dictionary of Chinese Budhist Terms ५४. प्रो. त्र्यम्बक गुरुनाथ काले; महावीर स्वामी की P. 184.
पूर्व परम्पराः वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ, वी. नि. ६०.९० पार्श्वकीति; विश्वधर्म की रूपरेखा : जैन २४७३, पृ. २४०।
साहित्य सदन, चांदनी चौक दिल्ली; वि. सं. २४८५ ५५. वही २४०।
पृ. ६२। ५६. श्रीमद्भागवत : अध्याय ६ श्लोक १-११। ६१. बही : पृ. ६१
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इच्छा नियंत्रण यह मानव अनादिकाल से इच्छामों की अनंत ज्वालाओं में झुलस रहा है। इच्छामोंका पन्तद्वंन्द प्रात्म-शक्ति का शोषक है वह उसे कमजोर बनाता जा रहा है। इच्छामों का परिणमन प्रति समय हो रहा है। साधक इनके जाल से उन्मुक्त होना चाहता है, वह छटपटा रहा है। पर वे असीम इच्छाएँ इसे एक समय भी चैन नहीं लेने देतीं। ऐसा मालूम होता है मानो इच्छात्रों ने उसे खरीद लिया है-अपना दास बना लिया है-इसी से उन पर विजय प्राप्त करने में वह अपनेको असमर्थ पा रहा है। इच्छाओंका अनियन्त्रण इन्द्रिय-विषयों में धकेल रहा है । साधक की इस दयनीय दशा को देख कर गुरु बोले, वत्स ! तू इतना कायर और अधीर क्यों हो रहा है। इस दीन दशा से छुटकारा पाने का उपाय क्यों नहीं सोचता । तू अनन्त चैतन्य गुणों का भंडार है, तेरी शक्ति अपरिमित है, असीम है। अपनी ज्ञाता दृष्टा शक्ति की ओर देख, पर पदार्थों से स्नेह कम कर। उनमें अहंकार ममकार न कर। इन्द्रियों के अनियन्त्रण से मन चंचल होता है मन की चचलता से मामा बहिर्मखी हो जाती है। और बाह्य जड़ पदार्थों की ओर झुकने लग जाती है।
पर साधक ! यदि तू इससे छुटकारा चाहता है और अपनी प्रात्म-निधि को पाना चाहता है। एव दुःख विनिवृत्ति से होने वाला सुख चाहता है, तो इन्द्रिय विषयों पर नियन्त्रण कर, इन्द्रियों की विषयों से विमुखता होने पर मन की चंचलता मिटेगी, प्रात्मबल जागेगा। और पात्मा अपने स्वरूप की अोर अग्रसर होने लगेगा। धीरे-धीरे पात्म-शक्ति का विकास बढ़ता जायगा, माशालता मुरझाने लगेगी। आत्मा और ज्ञान के प्रालोक से पालोकित हो उठेगा, अभिलाषामों का नियंत्रण आत्मा को कुमार्ग से रोकेगा, एक समय ऐसा प्राप्त होगा जब मोह के प्रभाव से प्राशा लता । अल जायगी। मौर मामक प्रात्मानन्द में मस्त हुमा प्रात्म-निधि का उपभोग करने वाला चैतन्य जिन बन जायगा । वह सुदिन मुझे कब प्राप्त होगा, उसी की अन्तर्भावना मुझे भव-भव में प्राप्त हो यही कामना है।
प्रवर्तक बतलाते थे, जिन सिद्धान्तों को परम्परानुसार इस प्रकार विभिन्न विद्वानों के विचारों से यह धारणा उनके पूर्ववर्ती २३ तीर्थङ्कर स्वीकार करते है।" डा० भी अनुपयुक्त प्रतीत होती है कि जैनधर्म के प्रवर्तक महासा० के विचार से महावीर किसी नये मत के संस्थापक वीर या पाश्र्वनाथ थे। पूर्वोल्लेखी से यह स्पष्ट ज्ञात नहीं थे। भागवत पुराण के आधार पर उन्होंने ऋषभ- होता है कि जैनियों के प्राराध्य देव बहुत प्राचीन कालीन देव को ही जैनधर्म का प्रवर्तक बताया है। डा. सका- है। परम्परानुसार जैन युग-युगों से उन्हें पूजते चले पा लिया ने भी लिखा है कि "ऋषभदेव का उस समय रहे हैं। प्रत्येक निष्पक्ष विद्वान् तीर्थङ्करों की प्राचीनता अस्तित्व था जब मनुष्य जंगली जानवर सा था।" के सम्बन्ध में उपरोक्त प्रमाणों के प्राधार पर यही मत तत्कालीन मनुष्यों का जीवन स्तर ऋषभदेव द्वारा ही निरूपित करेगा कि तीर्थरों की प्राचीनता न केवल पूर्व उन्नत किया गया था। सम्भवतः इसीलिए वे प्रथम वैदिक कालीन है अपितु बहुत प्राचीन समय से ही उनका तीर्थङ्कर और उपदेष्टा कहे जाते हैं।
अस्तित्व चला पा रहा है।" इन सभी प्रमाणों के माधार ६२. इण्डियन फिलासफी : जिल्द १, पृ. २२७ ।
पर यह भी स्वीकार करना होगा कि बाह्मण संस्कृति की ६३. "The Bhagavata Puran endorscs the View मपेक्षा श्रमण संस्कृति प्राचीनतर है"।
that Rishabha was the founder as Jai
nism." वही : जिल्द १, पृ. २८७। ६५. डा. भगचन्द्र जैन; बौद्ध साहित्य में जैनधर्म : मने६४. वायस पाँव महिसा: ऋषभदेव विशेषांक : १९५२ ई. कान्त-बाबू छोटेलाल स्मृति ग्रंक : पृ. ६०।
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पाण्डे लालचन्द का वरांगचरित
डॉ० भागचन्द्र भास्कर इसी वर्ष के ग्रीष्मावकाश में जैन मन्दिर नदूखेडा नगर आगरौ तजि रहे हीरापुर में प्राय । (होशंगाबाद) मे सरक्षित हस्तलिखित ग्रथों को देखते करत देखि इस ग्रन्थ को कीनो अधिक सहाय ।। ममय पाण्डे लालचन्द का वरॉगचरित हाथ आ गया। ग्रन्थ की समाप्ति संवत् १८२७ में माघ शुक्ल पंचमी यकायक ध्यान आया कि यह वरांगचरित सम्भवत वही शनिवार को हुई, डा० ए० एन० उपाध्ये की सूचनानुवराँगचरित हो जिसका उल्लेख श्रद्धेय डा० ए० एन० सार । पर इस प्रति में शायद भूल से शनिवार के स्थान उपाध्ये ने अपने वरागचरित की प्रस्तावना (पृ. ५५) मे पर शशिवार लिख दिया गया है। किया है । मिलान करने पर मेरा अनुमान सही निकला। रचयिताइसकी एक प्रति पंचायती मन्दिर, दिल्ली में भी होनी
प्रस्तुत कृति के रचयिता पाण्डे लालचन्द के विषय में चाहिए।
अधिक जानकारी नहीं मिलती। वे हीरापुर (हिंडौन, जयप्रति परिचय
पुर) के निवासी थे। बलात्कार गण की अटेर शाखा के ते,खेडा जैन मन्दिर की इस प्रति मे ५४ पत्र है।
भट्टारक विश्वभूषण (सं० १७२२-२७२४) के प्रशिप्य और प्रत्येक पत्र के पृष्ठ में लगभग पन्द्रह पंक्तियों है और
अग्रवाल वंशीय ब्रह्मसागर के शिष्य थे। प्रत्येक पंक्ति में लगभग ५० अक्षर है । अक्षर मुपाठ्य है।
सं० सु अष्टादस सत जान ऊपर सत्ताईस परवान । छन्द नाम, सर्ग नाम, पद्य क्रमाक आदि लिखने में लाल
माहु सुकल पावै ससिवार ग्रंथ समापति कीनौ सार ।। म्याही का भी उपयोग किया गया है। पत्र के चारों पोर
देस भदावर सहर अटेर प्रमानिये । हाँसिया छूटा है। जहां-तहाँ उसका उपयोग लेखन काल
तहाँ विश्वभूषण भट्टारक मानिये ।। में छूटे हुए शब्दों को लिखने मे भी किया गया है । लिपि
तिनके शिष्य प्रसिद्ध ब्रह्मसागर सही। काल का उल्लेख इस प्रति में दिखाई नहीं दिया। प्रतः
अग्रवाल वरवस विष उत्पति लही ॥१३-८६।। प्रति कब की है, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी
यात्रा कर गिरनार शिखर की अति सुखदायक। कहना शक्य नहीं। सम्भव नहीं यदि यह प्रति स्वय
पूनि पाए हिंडौन जहां सब श्रावक लायक । कवि द्वारा लिखी गई हो । ग्रंथ की प्रशस्ति से भी यह अनु- जिनमति कौ परभाव देखि जिन मन थिर कीनौ ।। मान सही होता दिखाई देता है। वहां लिखा है कि शोभा- महावीर जिन चरत काल में तो नीती॥ चन्द के पुत्र नथमल प्रागरे से हीरापुर पाये और ग्रन्थ ब्रह्म उदधि की शिष्य पुनि पांडे लाल अयान । उन्ही के सहयोग से हीरापुर में समाप्त हमा। हीरापुर छन्द शब्द व्याकरण को जामैं नाहीं ग्यान १३९११ का भी जैन मन्दिर देखा मैंने । वहाँ इस ग्रंथ की कोई कवि ने वरांगचरित में स्वयं के सन्दर्भ में प्रायः कुछ प्रति नहीं मिल सकी। हीरापुर और तेदूंखेड़ा के बीच नहीं लिखा । वरागचरित के अतिरिक्त षट्कर्मोपदेशरलकोई बहुत दूरी नहीं। हो सकता है, कभी किसी प्रकार माला, विमलनाथ पुराण, शिवरविलास, सम्यक्त्व कौमुदी, यह प्रति हीरापुर से तेदूखेड़ा पहुँच गई हो । प्रशस्ति की अगमशतक आदि अनेक हिन्दी काव्यों के भी वे रचयिता कुछेक पक्तियां इस प्रकार है :नन्दन, सोभाचन्द को नथमल अति गुणवान । बरांगचरित का भाषार-- गोत विलालागगन मे उदयौ चन्द्र समान ।। जीवन्धर व यशोधर जैसे नपति वरांग भी जैन लेखकों
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पाण्डे लालचन्द का वरांगचरित
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और कवियों के अत्यन्त प्रिय नायक रहे है । उनके चरित तउग्रहीन के सुपुष्य हेत मै कियो सही ।। का प्राधार लेकर संस्कृत, प्राकृत व हिन्दी में पुस्कल- वरांग भूप के बड़े चरित्र को प्रबन्ध है। सृजन हुआ हैं । उसमे जटासिंहनन्दि का (७वीं शती) वरांग- सुधीन के सुचित कूहरै सदीव ग्रंथ है ॥१३-६७॥ चरित अधिक प्रसिद्ध है । यह संस्कृत भाषा में ३१ सर्गो भट्टारक श्री वर्धमान अत ही विसाल मति । मे निबद्ध है। और माणिकचन्द ग्रंथमाला से प्रकाशित कियौ संस्कृत पाठ ताहि समझ न तुच्छ मति ।। हो चुका है।
ताही के अनुसार अरथ जो मन मैं प्रायो। पाण्डे लालचन्द ने जिस वरांगचरित का प्राधार निज पर हित सुविचार लाल भाषा कर गायौ ।। लिया है भट्टारक वर्धमान द्वारा सस्कृत में रचित वरांग- जो छन्द अर्थ अनमिल कहं वरन्यौ सुजान के । चरित है। यह ग्रन्थ मराठी अनुवाद के साथ प्रकाशित हो लीजो संवार वधजन सकल यह विनती उर मानि के। चुका है परन्तु प्रयत्न करने के बावजुद उसे देखने का ग्रंथ संक्षेपसुअवसर नहीं मिल सका । अतः कहा नहीं जा सकता कि समूचा ग्रन्थ १३ सर्गों में विभक्त है। सक्षिप्त कथा पाण्डे जी ने इस ग्रंथ का अविकल हिन्दी पद्यानुवाद किया इस प्रकार हैहै अथवा उसका प्राधार लेकर नये ग्रंथ का निर्माण किया प्रथम सर्ग-मंगलाचरण तथा ग्रंथ के आधार है। प्रथम विकल्प अधिक सम्भावित है। उन्होंने लिखा आदि के विषय में लिखने के बाद कवि कथा प्रारम्भ
करता है । जम्बू द्वीप में भरत क्षेत्रवर्ती सोम्याजो वराग की कथा कही आग गन नायक । चल पर्वत के पास रम्या नामक नदी है। उसके किनारे अति विस्तार समेत मनोहर सुमति विधायक ।। कोतपुर नामक नगर बसा है। जैन मन्दिर व मुनियों से सोई काव्य अनूप काव्य रचना कर ठानी। शोभित उस ग्राम का अनोखा सौन्दर्य है। महिलायें भी भट्रारक श्री वर्धमान पडित वर ज्ञानी।।
रूप की निधान है । कोतपुर नगर (जटासिंहनन्दि के अनुतिनही को पुनि अनुसार ले मैं भाषा रचना करू। सार उत्तमपुर) का राजा हरिवंशोत्पन्न धर्मसेन था। जिन पर हित सुविचार के,,
उसकी ३०० पत्नियां थीं। उनमें मृगसेना और गुणदेवि कछ अभिमान निजि प्रघरूं ॥१-१२॥ मुख्य थी। महिषी गुणदेवि को पुत्र हुँप्रा जिसका नाम कहां श्री वरांग नाम भूपति की कथा,
वरांग रखा गया। वरांग की वाल्यावस्था और युवावस्था यह अति ही कटिन वर सस्कृत वानी हैं। का मुन्दर वर्णन है। इस सर्ग का नाम वंशोत्पत्ति है। कहां पून निहचै म अल्प मात्र मेरी मति,
द्वितीय सर्ग-युवक वरांग बिवाह के योग्य हुमा। ताकै कहिवे को निज मनसा में ठानी है।।
सभा में एक दिन भूपति के पास एक वणिक माया । उसने जैसै कल्पतरू साखा फल नभ पर,
समृद्धपुर नरेश घृतसेन और महाराज्ञी अतुला की राजसत वामन नर तीरी चाहै मूढता सुजानो है। कूमारी अनूपमा का उल्लेख किया। वणिक को विदाकर तैसे बाल ख्याल सम ग्रथ मै प्रारम्भ कीनौ,
धर्म सेन ने मन्त्रियों से विचार-विमर्श किया फलतः ललितवुधजन हासीकर कहैगो अज्ञानी हैं ।।१-३१॥
पुर नरेश देवसेन, वरांग के मामा विद्धपुर नरेश महेन्द्रदत्त, ग्रन्थ के अन्त में भी कवि ने स्पष्ट कर दिया है कि सिन्धुपुर नृपति तप, अरिष्टपुर नृपति सनतकुमार, मलय यह रचना भट्टारक वर्धमान द्वारा वरांगचरित के प्राधार देशाधिपति मकरध्वज, चक्रतुर नपति सुरेन्द्रदत्त, गिरिव्रजपुर पर प्रसूत हुई है
वज्रायुध, कौसलेश सिंघमित्र एवं अंगदेशाधिपति विनयमूल ग्रंथ अनुसार सब कथन आदि अवसान । वरत के पास निमन्त्रण भेजे । उक्त सभी राजा क्रमशः निज कपोल कल्पित कही वरनौ नाही सुजान ॥ सुनन्दा, वपुष्मती, यशोमति, वसुन्धरा, पनन्तसेना, प्रियसमस्त शास्त्र अर्थ को वियोज्ञ मौ विष नहीं। व्रता, सुकेसी और विश्वसेना नाम की अपनी-अपनी सुपुत्री
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ले धाये। सभी के साथ वरांग का पाणिग्रहण सम्पन्न हो गया। इस सर्ग का नाम वरांग पाणिग्रहण रखा गया है। तृतीय सर्ग - सभागार में एक दिन धर्मसेन के पास वनपाल आया और उसने वरदत्त मुनि के श्रागमन का शुभ सन्देश दिया । धर्मसेन सपरिकर उनकी वन्दना करने गये । उत्तर में वरदत्त ने धर्मोपदेश दिया । वरांग पर उस धर्मोपदेश का अत्यन्त गहरा प्रभाव पड़ा। यहाँ बारह व्रतों का सुन्दर वर्णन है। इस सर्ग का नाम धर्मोपदेश है।
1
चतुर्थ सर्ग - मन्त्रियों द्वारा बरांग के गुणों का वर्णन । घमंसेन ने वरांग को राज्याभिषिक्त किया। इस अवसर पर गुणदेवी को प्रसन्नता होना स्वाभाविक ही था । परंतु बरांग की सौतेली माता मृगसेना को ईर्ष्या भाव जागृत हो गया। उसने अपने पुत्र सुवेण को उकसाया। सुषेण बरांग से युद्ध करने को तैयार हो गया, परन्तु वरांग के पक्ष में जनमत होने के कारण यह उसे अनुकूल प्रतीत नहीं हुआ। अतः उसने भेदक नीति का अवलम्बन लिया और अपनी कार्य सिद्धि के लिए सुबुद्धि नामक मन्त्री को अपनी चोर करने में सफल हो गया। इधर वरांग ने कौशल देश में कुशलतापूर्वक राज्य करना प्रारम्भ कर दिया। भृगुसीपुराधिपति ने बरांग को दो सुन्दर षोड़े भेंट किये। मन्त्री सुबुद्धि ने उन्हें शिक्षित करने का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर ले लिया, सुषेण को राज्यासीन कराने के उद्देश्य से उसने एक घोड़े को अच्छी शिक्षा दी घोर दूसरे को बुरी। इस सगं का नाम 'राज्यलाभ' है । पंचम सर्ग - दोनों घोड़ों की परीक्षा ली गई मन्त्री सुबुद्धि ने दो सवारों को उन पर बैठाकर नृत्य वगैरह बरांग के समक्ष प्रस्तुत किया और स्वयं ने परीक्षा करने के लिए उनको प्रेरित किया। वरांग जैसे ही दूसरे (कुशि क्षित) भाव पर बैठा, वह राजा को लेकर वन की घोर तेज दौड़ा। इसी बीच दोनों एक प्रन्ध कूप में जाकर गिर पड़े। प्रश्व तत्काल ही काल-कलवित हो गया पर
रांग पूर्व कर्म के प्रभाव से बच गया । इस घटना से उसे संसार से विरक्ति हो गई। प्राभूषणादि उसी कूप में फेंके और चल पड़ा भागे । तृषातुर हो मूर्च्छित हुभा । शीतल मन्द पक्न के कोरों से मूर्छा दूर हुई । पुनः सांसारिक
अनेकान्त
अवस्था का चिन्तन किया । इसी समय गज द्वारा सिंह का मर्दन करते हुए उसने देखा इस संघर्ष से बचने के लिए बरांग तक पर चढ़ गये उतर कर बाद में उन्होंने सरोवर में नहाया । नहाते समय मगर ने पैर जकड़ लिया । धर्मध्यान किया । पैर छुड़ाने मे यक्ष ने सहायता की। वरांग की परीक्षा लेने एक देवी धाई। उसने स्वयं को स्वीकार करने की राजा से प्रार्थना की। परन्तु वरांग अपने एकपत्नीव्रत से डिगे नहीं।
पुन विपत्ति थाई वरांग को भीलों ने बांध लिया। बलि निमित्त उसे ले जाते समय भीलों को समाचार मिला कि भील राजा के पुत्र को सर्प ने काट लिया है । उसके कोई बचने का उपाय न देखकर वराग ने णमोकार मन्त्र पड़कर विष दूर किया प्रसन्न होकर भीलराज ने उसे छोड़ा और घर्ष-सम्पदा देनी चाही। पर वरांव ने अपने पर जाने की कामना व्यक्त की भीतराज ने सुरक्षा पूर्वक उसके लौटाने का प्रबन्ध किया । मार्ग में सार्थवाह मिलें। उन्होंने कोई विशेष व्यक्ति मानकर उसे सार्थवाह पति सागरवृद्ध के पास से गये वरोग को कोई महापुरुष समझकर सागरवृद्ध ने छोड़ दिया । उसे भोजन कराया ।
I
षष्ठ सर्ग - सागरवृद्ध सार्थवाहपति के साथ १२ हजार भीलों का युद्ध हुआ । पराजयोन्मुख सागरवूद्ध को वरांग ने विजय का हार पहनाया। सारी भील सेना मारी गई । वरांग भी घायल हुए। पर वे सागरवृद्ध की सेवा से शीघ्र ही स्वस्थ हो गये। इस उपलक्ष्य में ललितपुर
में एक बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया। सागरवृद्ध श्रीर उनकी पत्नी ने वरांग को अपना धर्म पुत्र स्वीकार किया। वहां उसे नगर सेठ बना दिया गया। इस सर्ग का नाम ललितपुर प्रवेश रखा है ।
सप्तम सर्ग - इधर धर्मसेन से सेवकों ने समूची कहानी सुनाई कि किस प्रकार अश्व वराग को लेकर भाग गया। यह हृदय विदारक वृत्तान्त मुनकर भूपति मूर्च्छित हो गया। सचेत होने पर चारों भोर सेना भेजी उसे खोजने । वारांग के प्राभूषण तथा अवश्व के तो प्रस्थि-पंजर मिले पर वरांग नही मिल सके । संसार की यह विचित्र अवस्था देखकर भूपाल को संसार से वैराग्य होने लगा। मुनि का धर्मोपदेश पाया । तथा सुषेण को
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पाण्डे लालचन्द का बरांग चरित
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युवराज बना दिया। इस सर्ग का नाम अपूय रखा । इच्छा व्यक्त की। संयोगवश यह लेख वराग को मिल
अष्टम सर्ग-मथुरापुरी में राजा इन्द्रमेन व उसका गया । देवसेन पोर बरांग का गाढ़ परिचय हुमा । मनोपुत्र उपेन्द्रसेन राज्य करते थे । इन्द्रसेन ने देवसेन के पास रमा के साथ वरांग का विवाह हमा। सभी लोग परांग उसका हाथी लेने के लिए दूत को ललितपुर भेजा। के साथ धर्मसेन के पास पहुंचे। धर्मसेन और वरांग का देवसेन ने इसे अपना अपमान समझा। फलतः दोनों में पिता-पुत्र के रूप में भेंट हुमा। इस सर्ग का नाम बरांग युद्ध हुमा। इन्द्रसेन की ओर से अंग, वंग, कलिंग, कस- प्रत्यागम नृपसंगम नाम दिया है। मीर, केरल प्रादि के राजा रण में उतरे । देवसेन के नगर एकादश सर्ग-वरांग ने विविध भोग भोगे । देवसेन को भरपूर लूटा गया। देवसेन भागना चाहता था परन्तु ने अपनी पुत्रियों को बरांग की माता और अपनी बहन नहीं भाग सका । अभेद्य कोट के भीतर बैठकर इन्द्रसेन गुणदेवी के लिए सौपा। सुषेण व माता मृगसेना को को पराजित करने के लिए मन्त्रियों से विचार-विमर्श सम्पदादिदान देकर सम्मानपूर्वक विदा किया। विजय किया। किसी एक मन्त्री ने सागरवद्ध के धर्मपुत्र भट प्राप्ति के लिए वरांग का ससन्य गमन । इन्द्रसेन ने भय(रांग) की वीरता की प्रशंसा की और उसे युद्ध में भीत होकर अपनी मनोहरा नामक पुत्री का वरांग के साथ अपनी भोर से लड़ने के लिए प्रामन्त्रित करने की सलाह विवाह किया। यहाँ वरांग की विजयों का उल्लेख तो दी। वराग देवसेन का भानजा निकला। इन्द्रसेन को नहीं किया गया पर इतना तो अवश्य लिखा गयाविजित करने पर राजा ने उसे पाषा राज्य व सुन्दरी सुता "उदधि अन्त लौ अवनी सबै जीती नप वरांग ने तवं." देने को कहा । इस प्रसंग में प्रस्तुत वरांगचरित मे सस्कृत राज्य भेट करते समय यह बात कुछ अधिक स्पष्ट हो ग्रंथों की तरह सेना प्रयाण तथा युद्ध का सुन्दर वर्णन जाती है। विदर्भ का राज्य उदषिद्ध को, कलिंग का मिलता है । कृषक समाज ने भी इस युद्ध में भाग लिया। राज्य उदधिदृद्ध के कनिष्ठ-पुत्र को, पल्लव का राज्य उपेन्द्र व विजयकुमार तथा उपेन्द्र और वरांग के युद्ध का अनन्त सचिव को, बनारस का राज्य चित्रसेन मन्त्री को, जीवन्त वर्णन यहाँ उपस्थित किया गया है। इसी प्रसंग विसालापूरी का राज्य प्रजित मन्त्री को, मालव देश मे जैनधर्म के अनुसार जातिवाद पर भी विचार किया का राज्य देवसेन मन्त्री को भेंट किया। बाद में सरस्वती गया है । उपेन्द्र द्वारा वरांग पर चक्रचालन हुआ । वरांग नदी के किनारे अनन्तपूर की स्थापना व उस पर स्वयं ने उसका खण्डन किया। उपेन्द्र का युद्ध में मरण हुमा। वरांग राज्य करने लगे। इन्द्रसेन को भी वरांग ने पराजित किया। यहाँ वरांग को
द्वादश सर्ग'-वरांग एक दिन अनूपमा के घर गये। 'कश्चिद् भट' कहा गया है । इस सर्ग को इन्द्रसेन पराजय
'अनूपमा ने वरांग से धर्मस्वरूप पूछा । इस प्रसंग में कवि नाम दिया गया है।
ने त्रिरत्न, बारह बत, जिन मन्दिर निर्माण, जिनबिम्ब नवम् सर्ग-वरांग के साथ देवसेन ने अपनी पुत्री प्रतिष्ठा, पंचामताभिषेक मादि का वर्णन किया है । धर्मसुनन्दा को विवाहा । प्राधा राज्य भेंट दिया । सागरवृद्ध स्वरूप सनकर अनूपमा ने नगर के बीच एक चन्द्रप्रभ के घर दम्पति सुख पूर्वक रहें। नप सुता मनोरमा वरांग जिन मन्दिर का निर्माण कराया। बड़े उत्साह से बिम्बपर प्रसक्त हो गई। परम्परानुसार चित्र निर्माण, रुदन प्रतिष्ठा हुई। व वियोगावस्था का चित्रण किया गया। वरांग के पास
कालान्तर में बरांग का एकान्तवादियों के साथ दूती पहुंची । वरांग ने अपने एकपत्नी व्रत का स्मरण शास्त्रार्थ हमा। स्यावाद के माधार पर उन्होंने सभी को करा दिया। इस सर्ग को 'सुनन्दा लाल मनोरमा दुःख- पराजित किया। कुछ समय बाद अनूपमा को पुत्र लाभ विरहावस्था' नाम दिया है।
बशम् सर्ग-धर्मसेन के पुत्र सुषेण को शत्रुनों ने १. प्रस्तुत प्रति में एकादशव द्वादश शर्ग के बीच कोई पराजित किया। धर्मसेन ने देवसेन के पास पहुँचने की सीमा रेखा नहीं।
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अनेकान्त
हमा । उसका नाम सुगात्र रखा गया । विवाह भी हुमा। अव्यय अचित ज्ञान मई महातेज धाम, इस सर्ग का नाम सिद्धायतन निर्माण जिन बिम्ब-प्रतिष्ठा
असे शुद्ध पातमा को चिंतन चहत है ।। प्रतिपादक रखा है।
ताही के प्रभाव सेती केवल सु ज्ञान पाय, त्रयोदश सर्ग-वरांग ने एक दिन प्रात.काल स्नेहा
वसविधि कर्म नाश शिव जे लहत हैं। भाव से दीपक को बुझते हुए देखा। इसका असर उसके ।
असे जे महान गुणथान सूर सदा हमें, मन पर अधिक पड़ा। फलतः संसार से उद्विग्न हो गया।
ज्ञान लाल भी नमो नमो करत है ॥४॥ धर्मसेन से जिनमुद्रा धारण करने की अनुमति मांगी पर
श्री जिन पागम सागर विचार समेत,
है पिता के भाग्रह से वे कुछ समय और गृहस्थावस्था में
पढे नित जे चित लाई। रहे। बाद में सुगात्र को अभिषिक्त कर वरदत्त मुनि से
शिष्यन को पुनि आप पढावत, मुनि दीक्षा ग्रहण की। उदधिवृद्ध आदि लोग भी साथ हो
प्रीत समेत क्रिया सिखलाई ।। लिए। वरांग मुनि सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए। वहाँ
पंच प्रकार मिथ्यात महातम, से च्युत होकर नर जन्म ग्रहण कर मुनिव्रत धारण कर
नासन कू उमगे मुनिराई। मोक्ष जावेंगे।'
ते उवझाय सदा सुखदाय, अन्य का प्रारम्भ भाग
हरौ अघपुज नमो सिर नाई ।।५।। कवि ने प्रथ के प्रारम्भ में जिनेन्द्र भगवान को प्रणाम समदमधारी क्षमा सेज के अधिकारी, किया है। उसका मादि भाग इस प्रकार है
निज रस लीन अपहारी कर्म रोग के। कनक वरन तन आदि जिन हरन अखिल दुख वन्द। दोय विध तप धार तत्त्व को करे विचार, नाभराय मरुदेवि श्रुत बंदो रिषभ जिनेंद ॥१॥
तजिकै सकल पास ज्ञाता उपजोन के ।। श्री जिन को सुभज्ञान मूकर प्रति निर्मल राजत ।
भो जल तरौ या राग दोस के हरैया, जामै जगत समस्त हस्त रेखावत भासत ॥
सिव तिय के चहैया भोगी जिन रस भोग के। मोह सहित संसार विष मन जिन चिन्तन का। पैसे मनि निरग्रंथ देह मोहि मोक्ष, पावन करह सदीव चित्त सो जिन वर तन को ।।
पन्थ अविचल अगधारी तीन काल जोग के ॥६॥ अति विशुद्ध वर सुकुल ध्यान चलकर सुखदायक । निर्मल केवल ज्ञान पाय तिष्टे जग नायक ।। मूलसंघ सरसुती गछ बलात्कार गण, वसुविधि कर्म प्रचण्ड नास करि एक क्षिनक मे।
धारक विसालमति विदित भुवन मे। अजरामर सिव सुख लह्यो जिन एक समय मे ॥ भट्टारक वधमान गण गुण को निधान, असे जे सिद्ध अनंत गुण सहित वसत शिव लोक मे।
वादीभइव पचानन गाढौ निजपन मे ।। तो परम सुद्ध ता हेत मुझ होऊ देत नित धोक मैं ।३। कर्ता पुरानन को वक्ता जिन ग्रंथन को,
इसके बाद सवैया इकतीसा लिखा गया है। उसका अक्षण को जेता जाकै माया नहि मन में। भाव व भाषा सौन्दर्य बहुत अच्छा है
भूपति वरांग को चरित्र यह कोनौ सार, हय गज रथ राज भारी सुत धन साज,
रहौ जयवन्त ससि रवि लौ गगन मे ॥७॥ विनाशीक चित चाह न धरत है।
देश भदावर शहर अटेर प्रमानिये। १. सर्ग की यहाँ समाप्ति होनी चाहिए पर मालोच्य तहां विश्वभूषण भट्टारक मानिये ।। प्रति में प्रशस्ति लिखने के बाद यह समाप्ति दिखाई तिनके सिष्य प्रसिद्ध ब्रह्म सागर सही।
अग्रवाल वर वंस विष उतपति लही।
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पाण्डे लालचन्द का वरांग चरित
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ब्रह्म उदधि को शिष्य पुनि पांडे लाल अयान । तिनको सबद प्रचंड दसौ दिसमें विसतारत । छन्द शब्द व्याकर्ण को जाम नाहीं ग्यान ॥ अंजन अंचल समान श्याम उन्नत तन भाषत । संवत स अष्टादस शत जान ।
फेरत संड दण्ड देत दीरघ सुप्रकाशत ।। ऊपर सत्ताईस परवान ॥ अतिक्षुधित निरख गज उछरिक, माहु सुकल पावै शशिवार।
तिहि सन्मुख घायो जब। ग्रन्थ समापत कीनौ सार ।। निज दतनि सौ मातंग ने हरि, छन्द विधान
को उर भेद्यो तबै ।।५-३७॥
युद्ध का जीवन्त चित्रणआलोच्य वरांगचरित में दोहा, काव्य, छन्द, छप्पय,
खैच कान परजंत वीर को दंड कौ। सवैया, इकतीसा, अडिल्ल, चौपाई, नाराच, हरिगीत, रोला, भुजंगप्रयात सबैया, तेईसा, तोटक, कुण्डलिया,
छोरत तीछन सायक धरत उमंग कौ।। पद्धड़ी, सोरठा, कुसुमलता, वरवीर आदि छन्दों का उप
भेदत है छाती अरीन की जाय के।
पीवत भये रुधिर ते वान अघाय के। योग किया गया है। कुल छन्द १,२३४ है। सर्ग-क्रम से
कवच धरै तन माहि शूर या जेह जू । ५५, ७८, ५४, ६५, १३२, ७३, १०१, १६५, ८४, ९४, १७२ और १०१ पद्य है। कवि को अनुष्ठप, सर्वया इक
छाती तिन की भेद तिस्य सर तेह जू ॥ तीसा, चौपाई और अडिल्ल अधिक प्रिय लगते हैं। प्रायः
सभट नरन को प्रथम डार निरधार ज। सभी छन्द निर्दोष है। छन्दों का उपयोग भावानुसार पार्छ परत भये ते भूम मझार जू ॥८-१०५॥ किया गया है।
इसी प्रकार अन्य वर्णनों में भी कवि ने विषय के भाषा शैली
अनुरूप भाव और भाषा का प्राधान किया-पत्नी विलय कवि की भाषा में लय व प्रवाह है। सरलता के
७, ३६-४३, नृपविलाप ७. ६५-६८, नृप सुता का वियोग
कालीन विलाप 8-४६, ससार अवस्था का चित्रण, ७, कारण पाठक का मन ऊबता नहीं। पद्यों में जहाँ एकता,
८१-६१, १३, १-११, तप वर्णन, १३, ७४-७८, पुण्यमुदा, कश्चित् जैसे संस्कृत शब्द मिलते है वही धोस
पाप का चित्रण ४, ६४, ५, ३२ प्रादि। इन वर्णनों को (३-३४), मौसों जोलो (-८५), फैट (८-६३), कित
पढकर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत कृति मे प्रायः जायगो (८-६५), लर (-२७८) आदि जैसे शुद्ध बुन्देल
सभी रसो का उपयोग किया गया है। खण्डी शब्द भी देखने को मिलते हैं। सच तो यह है कि
पाण्डे लालचन्द की यह कृति 'वरागचरित' भाव बुन्देलखण्डी का प्रभाव ग्रंय पर अधिक है। होनाभी चाहिए।
और भाषा दोनों दृष्टियो से निःसन्देह उच्च कोटि की है । कवि व उसकी कृति, दोनों राजस्थान मे प्रमूत है।
उसे आद्योपान्त पढ़ने पर कर्ता को महाकवि और कृति कवि के प्रायः प्रत्येक चित्रण में स्वाभाविकता झल
को महाकाव्य कहे बिना जी नही मानता । महाकाव्य के कती है। प्रकृति चित्रण की मनोहारिता देखिये
आवश्यक लक्षण इसमें मौजूद हैं। अत' कृति प्रकाशमद जल करत कपोल लोल अलिकुल झंकारत। नीय है। .
धन सम्पदा से ममता हटाने का उपदेश जासों तू कहत यह सम्पदा हमारी, सो तो, साधनि अडारी जैसे नाक सिनकी। जासों तूं कहत हम पुण्य जोग पाई सो तो, नरक की साई बड़ाई डेढ़ दिनकी । घेरा मांहि परयो तू विचार सुख आखिन को, माखन के चूटत मिठाई जैसें भिनकी । एते पर उदासी होय न जगवासी जीव, जग में असाता है न साता एक छिनकी।
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विश्व मैत्री का प्रतीक : पयूषण पर्व
प्रो० भागचन्द्र 'भागेन्दु' एम. ए. शास्त्री
'पर्व' शब्द अनेक अर्थो का ज्ञापन है । इसे बांस आदि की गांठ (ग्रन्थि) वाचक तो कहा हो गया है' तिथि-भेद ( अमावस्या - पूर्णिमा श्रादि प्रतिपद् और पंचदशी अर्थात् श्रमावस्या पूर्णिमा की सन्धि ), उत्सव तथा ग्रन्थ के अंश (जैसे भादि पर्व, वन पर्व, शान्ति पर्व प्रादि) का सूचक भी निरूपित किया है।'
साहित्य में उपर्युक्त सभी अर्थों में इसका प्रयोग प्राप्त होता है, किन्तु समाज में सामान्य रूप मे 'पर्व' का अभिप्राय किसी त्यौहार, उत्सव या विशिष्ट अवसर से ही समझा जाता है । इस अर्थ में प्रचलित 'पर्व' धर्म और समाज की सामूहिक अभिव्यक्ति है । मानव जीवन में जिस निष्ठा, लगन, मान्यता, साधना आदि को प्रतिष्ठित करने के माध्यम से उपलब्ध होती हैं । ऊपर कहा जा चुका है कि 'पर्व' शब्द उत्सव का वाची भी है। पर्व और उत्सव - दोनों ही समाज में आस्था और नवीन चेतना का संचार करते हैं । इनके माध्यम से समाज में अच्छे संस्कारों का निर्माण होता है । किसी भी धर्म, समय तथा राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति की अभिव्यक्ति पर्वो के द्वारा सहज ही हुआा करती है।
भारतवर्ष में समाज को स्वस्थ, संयमी, सन्तुष्ट तथा सुखी बनाने के लिए अनेक प्रकार के पर्व समय-समय पर मनाये जाते | संयमप्रधान जैनधर्म में भी इसी प्रकार
१. 'ग्रन्थि र्ना पर्व परुषी ।'
-'भ्रमरकोष' : (चौखम्बा संस्करण, १९५७ ई० ), २-४-१६२ ।
हिन्दी में इसे पोर या पोरा नाम से जाना जाता है। २. ' स पर्व सन्धिः प्रतिपत्यं च दश्यो यदन्तरम् ।'
- उपर्युक्त : १-४-७ ।
३. 'तिथिभेदे क्षणे पर्व ' उपर्युक्त : ३-३-१२१ ।
के अनेक पर्वों का प्रावधान है। वे पर्व केवल खेल-कूद, आमोद-प्रमोद, या हर्ष-विषाद तक ही सीमित न होकर मानव में परोपकार, अहिंसा, सत्य, प्रेम, उदारता, श्रात्मसयम, श्रात्म-मन्थन, मैत्रीभाव और विश्व बन्धुत्व प्रादि उच्चकोटि की भावनात्मक प्रवृत्तियों का संचार करते हैं ।
जैन पर्वो में 'पर्याषण पर्व' या 'दशलक्षण पर्व' का बहुत अधिक महत्व और प्रचलन है । 'पर्युषण' का शाब्दिक अर्थ - पूर्ण रूप से निवास करना, आत्म-रमण करना अथवा आत्म-साधना में तन्मय होना । जैन श्रागमों में इस अर्थ को व्यक्त करने वाले अनेक प्रकार के शब्द प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थं पज्जुषणा, पज्जूषणा, पज्जोसवणा इत्यादि । 'पर्यषण' उक्त प्राकृत शब्दों का संस्कृतीकरण है । इस पर्व में श्रात्मिक विकारों (क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या प्रादि) पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है ।
दिगम्बर परम्परा में वह पर्व भाद्रपद शुक्ल पंचमी से भाद्रपद (अनन्त) चतुर्दशी तक बड़े उत्साह के साथ सम्पन्न होता है जबकि श्वेताम्बर परम्परा मे भाद्रपद कृष्ण १२ से भाद्रपद शुक्ल ४ तक सोत्साह मनाया जाता है । सम्पूर्ण जैन संघ धार्मिक माराधना और प्रात्म-चिंतन में पूर्ण रूप से लीन हो जाता है । प्राबाल-वृद्ध सभी मे विशेष उत्साह दिखाई पड़ता है ।
पर्व के अन्त में 'क्षमा वाणी महोत्सव" होता है । इस अवसर पर सभी एक दूसरे से सस्नेह मिलते हैं तथा अपनी
४. इसमें श्रावक, श्राविका, मुनि तथा प्रायिका - सभी सम्मिलित हैं ।
५. इसकी मूल भावना प्रस्तुत गाया में देखी जा सकती है :--
खम्मामि सम्व जीवाणं सब्वे जीवा खमंतु मे । मिती मे सव्व भूदेसु बैरं ममं ण केण वि 1
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विश्वमंत्री का प्रतीक : पyषण पर्व
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विगत भलों-गलतियों-अपराधों प्रादि के लिए क्षमा-याचना "पर विश्वासघात नहीं कीजे" इस भावना का अनुकरण करते हैं। वस्तुतः पर्युषण पर्व के मूल-माघार विश्व करना मावश्यक हैं। अतः मायाचार को त्याग सीधा वात्सल्य और विश्व-मैत्री ही हैं। इस पर्व के दश दिनों में सरल व्यवहार करने से मार्जव धर्म पलता है। एक-एक धर्म का मनन किया जाता है। प्रस्तुत निबन्ध मे उत्तम सत्य:-जहाँ मार्जव धर्म पलेगा वहाँ सत्य सक्षेपतः उन्ही दश अगो' का विवेचन किया जा रहा है : भी अवश्य पाला जावेगा। क्योंकि कपट के वशीभूत होकर
उत्तम क्षमा :-इस विश्व में क्रोधाग्नि अत्यन्त प्रबल ही जीव असत्य बोलते है। सत्य के द्वारा अपना है। वही सब कुछ नष्ट कर डालती है। इस अग्नि को आत्मा पवित्र होता है। दूसरों को भी कष्ट नहीं शान्त करने के लिए अहिंसा, दयाभाव मादि धारण करना होता । माधुनिक समय में जितने धर्म प्रचलित हैं सभी में पावश्यक है। "क्षमावीरस्य भूषणम्" अर्थात् वीर पुरुष सत्य प्रमुख स्थान रखता है। हमारे राष्ट्र पिता महात्मा का प्रलंकरण क्षमा ही है। क्रोधादि भावों से प्रशुभगति का गांधीजी ने सत्य एवं अहिंसा का सूक्ष्म प्राधार लेकर ही बन्ध होता है।
स्वराज्य प्राप्त किया था। व्यापार में तो सत्य परमाकिन्तु क्षमाभाव से शुभ शारीरादि प्राप्त होते है। वश्यक है। सत्य प्रात्मस्वरूप हैं, उसी से प्राप्त होता है। प्रात्मा का स्वभाव उत्तम क्षमा है। क्रोध इसे नष्ट कर
इसलिए "उत्तम सत्य वरत पालीजे, पर विश्वासघात नहीं देता है। क्षमा मोक्षमार्ग में प्रत्यन्त सहायक है। कोले
उत्तम मानव :-अभिमान का त्याग करना उत्तम उत्तम शौच:-प्रिय तथा अप्रिय वस्तुमों में समानता मार्दव है। मान कषाय के वशीभूत होकर ही जीव प्रात्मा का व्यवहार करना तथा लोभ रूपी मल को धोना ही के मार्दव गण को दूषित करता है। संस्कृत मे इसकी वास्तविक शोच धर्म है। इस धर्म को धारण करने से व्युत्पत्ति इस प्रकार है कि "मृदोर्भावः मादवम्" म्दुता परिणाम शुद्धि होती है ठीक ही कहा है-"लोभ पाप का कोमल जगती के सदृश है। जो जीव कोमलता युक्त है, वाप बखानो" प्रत. वह हेय है। साधुजन उत्तम शौच समझिए कि वह प्रात्मधर्म का बीजारोपण कर रहा है। धर्म को धारण करते है, परिणाम विशुद्धि तथा इन्द्रिय इस मार्दव धर्म के धारण करने से परिणाम विशुद्ध होते दमन करते हैं। उनकी पवित्रता प्रांतरिक होती है। हैं । इसमें जीव पापों से बचकर पुण्य में प्रवेश करता है।
उत्तम संयम :-जीवों की रक्षा करना, तथा इंद्रियो "स्वभावमार्दवम् च" इस सूत्र में बतलाया है कि स्वतः
और मन पर विजय पाना संयम है। छह कायके प्राणियो स्वभाव से कोमल परिणाम होने से मनुष्यायु का प्रास्रव
की दया पालना प्राणी संयम है। मुनिगण दोनों को होता है।
पालते हैं । वर्तमान में इन्द्रियो के आधीन होकर समस्त उत्तम मार्जव:-कपट कषाय के त्याग करने को
समाज विषयवासना का शिकार हो रहा है। मानवता पार्जव कहते हैं । सरल भाव से ही धर्म पालन करना
न करना तो इसी में है कि इंद्रियों को स्वाधीन किया जाय । हर चाहिए । कपट भाव से पाला गया धर्म कभी भी सफल तरह से सूखी एवं निर्द्वन्द, जीवन यापन के लिए संयम की नहीं होता । पार्जव धर्म पर चलने से अपने त्रियोग भी अत्यन्त प्रावश्यकता है। संयम के प्रत्यक्ष उदाहरण त्यागपवित्र होते हैं तथा दूसरे अपने व्यवहार से सुखी होते है। मूर्ति अनेक प्राचार्य और मुनिगण अब भी विद्यमान हैं। मुनिजन सदा मायाकों जीतते हैं। प्रत्येक धर्मावलम्बी को इनके जीवन से प्रत्येक को शिक्षा लेना चाहिए।
उसम तप:-जीवन को उच्च स्तर पर पहुंचाने के ६. धर्म के दश प्रग इस प्रकार हैं
लिए तथा मात्मा की स्वच्छता प्रगट करने के लिए तप ___ "उत्तमक्षमा, मार्दवार्जव, सत्य, शौच, संयम, तपस्त्या, म. गाऽकिञ्चन्य, ब्रह्मचर्याणि धर्मः।"
८. कविवर द्यानतराय : 'दश लक्षण धर्म पूजा', बृह-प्राचार्य उमास्वामी : 'तत्त्वार्थ सूत्र', 8.६ । ज्जिनवाणी संग्रह, पृ. ४७ ७. प्राचार्य उमास्वामी : 'तत्त्वार्थ सूत्र',६-१८
६. वही, पृ०४८
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अनेकान्त
धर्म प्रावश्यक है। व्रतोपवास करना, एकासन से सामायिक इस प्रकार है :करना, दुःखी पुरुष की सेवा शधृपा करना, पूजा के प्रति ब्राह्मणि-मात्मनि, चरण-रमण इति ब्रह्मचर्यम् । पादरभाव, शास्त्र स्वाध्याय प्रादि तपस्या के कई भेद प्रभेद ब्रह्मचर्य का लक्षण निम्न प्रकार कहा गया है है:हैं। सिर्फ भूखे रहना, धूप में बैठना प्रादि तप नही कहे जा कायेन, मनसा, वाचा, सर्वावस्थासु सर्वथा। सकते है किन्तु कषाय' को शात करके प्रत्मा-शुद्धि करना सर्वत्र मैथुनं त्यागो, ब्रह्मचर्य प्रचक्षते ॥ ही श्रेष्टतप है। कर्मों की प्रविपाक-निर्जरा"तप से ही होती त्रियोग से सर्वदा और सर्वत्र मैथुन त्याग को ब्रह्मचर्य है। त्रिकाल सामायिक करना भी एक प्रकार का तप है। कहते हैं। तथा ब्रह्मचर्य परं तीर्थ, पालनीयं प्रयत्नतः"उत्तम त्याग:-परद्रव्य से ममत्व भाव दूर करना त्याग ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट तप है, इसे अवश्य पालना चाहिए। धर्म है त्याग धर्म में चार प्रकार का दान वर्णित है।
मनष्य की काम-भोग की लालसा को पहले सीमित ___ दान से महान पुण्यबन्ध होता है । मुनिगण हमेशा करने तथा क्रमशः पूर्ण परित्याग करने का वैज्ञानिक प्रावप्राणी गात्र की रक्षा से ज्ञानदान देते है। धन की तीन धान जैनधर्म में उपलब्ध होता है। अवस्थाएँ वणित है १-भोग, २-दान, ३-क्षय। भोग तो
मैथन का अभिप्राय केवल शारीरिक भोग से ही नही सभी भोगते हैं किन्तु बुद्धिमान मनुष्य उपभोग करते हुए
है, प्रत्युत उस प्रकार की चर्चाएँ करना और मन मे उस दान मार्ग में प्रवृत्त होते है। कुछ जन ऐसे रहते है कि
प्रकार के विचारों का पाना भी "मैथुन" में शामिल है। वे न तो भोग में और न दान मे ही देते है। ऐसों के
सयम को मन से सरलतापूर्वक नियंत्रित किया जा धन की तीसरी गति क्षय ही निश्चित है।
सकता है। यही मानसिक संयम ब्रह्मचर्य की ओर अग्रसर उत्तम प्राकिन्चन्य :-संसार के समस्त पदार्थो से
कराता है । वस्तुत: पांचों इन्द्रियों के विषयों से निवृति मोह छोडना आकिन्चन्य धर्म कहते है। अपनी आत्मा के
का नाम ही 'ब्रह्मचर्य' है। सिवाय संसार में कोई भी पदार्थ अपना नहीं है। मित्र,
भारत वर्ष में पर्व प्रेरणा स्रोत तो होते ही है, चित्त. पिता, पुत्र, माता, स्त्री, धन प्रादि जिन वस्तुप्रो को मोह से हमने अपनाया है, वे सब अपनी नहीं है। यहाँ तक कि
शुद्धि के भी अनुपम साधन होते है। क्योंकि जब तक यह शरीर भी अपना साथ नहीं देता। तीर्थकरों ने वस्तु
चित्त शुद्ध न होगा, तब तक विकास और उत्कर्ष असभव के स्वभाव को धर्म बतलाया है, और धर्म वही है, जो
होगा।
इस सन्दर्भ में प्राचार्य योगीद्र देव के विचार बहुत प्रात्मानुकूल हो। यह धर्म प्रात्मस्वभाव का द्योतक है।
महत्वपूर्ण तो हैं ही, प्रेरणा स्रोत भी है : उत्तम ब्रह्मचर्य :-प्रात्मा में रमण करने को ब्रह्मचर्य ।
"जहिं भावइ तहिं जाहि, जिन जं भावइ करित जि ! कहते है । प्रात्मा में प्रात्मा का रमण तभी हो सकता है,
केम्वइ मोक्खु ण अत्थि पर चित्तइ सुद्धि ण ज जि ॥" जब उचित्त वृत्ति निर्लिप्त हो । संस्कृत मे इसकी व्युत्पत्ति
[हे प्राणिन् ! जहाँ तुम्हारी इच्छा हो जायो और १०. कषन्ति=घ्नन्ति इति कषायाः । जो आत्मा के शुद्ध जो इच्छा हो वह कार्य करो, किन्तु चित्त-शुद्धि पर ध्यान
भावो की हिसा करे, उनको मैला कर दे । मूलतः दो। क्योंकि जब तक चित्त शुद्ध न होगा तब तक किसी वे चार है : क्रोध, मान, माया, लोभ । इनमें से भी प्रकार अपना चरम उत्कर्ष (मोक्ष) नहीं प्राप्त कर प्रत्येक के भी चार-चार भेद होते हैं।
सकते हो। ११. कर्मों का अपने नियत विपाक समय के पूर्व तप आदि इस प्रकार संक्षेप में कह सकते है कि विश्व वात्सल्य
के द्वारा व अन्य कारणों से उदय की प्रावलि में और विश्व बन्धुत्व का यह महापर्व हिंसा के विरुद्ध सम्पूर्ण लाकर बिना फल भोगे या फल भोगकर खिरा देना। जैन समाज का सामूहिक अभियान है। इस प्रकार के विस्तार के लिए देखिए
अभियानों से विश्व-मैत्री और विश्व-शान्ति सहज ही प्राचार्य पूज्यपाद : सर्वार्थ सिद्धि, ८.३ ।
सम्भव है।
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गणस्थान, एक परिचय
मुनि श्री सुमेरमल जी
जैन दर्शन माध्यात्मवाद पर टिका हुआ है। वह आत्म- फिर भी चौदहवां गुणस्थान सकर्मा है । भकर्मावस्था एक सत्ता को ही परम सत्य मान कर चला है। प्रात्म-शक्ति मात्र निर्वाण ही है । निर्वाण को हम मंजिल का रूप का विकास ही जैन साधना पद्धति का फलित है। प्रात्म तो गुणस्थान को उस तक पहुँचने के लिए पमोडियां कह शक्ति की विकसित तथा अल्प विकसित रूप अवस्था को सकते है । जो जितनी पोडियां चढा वह निर्वाण (मंजिल) ही जैन दर्शन ने गुणस्थान के रूप मे बतलाया है। क्रमशः के उतना ही नजदीक पहुँच गया। प्रस्तुत निबन्ध में चौदह प्रात्म विकास की ओर बढ़ना ही गुणस्थान रोहण कह- गुणस्थानो की सक्षिप्त मीमांसा की गई है। लाता है। विश्व में ऐसा कोई प्राणी नही जो सर्वथा चौवह गुणस्थानों के नामअविकसित हो, कुछ न कुछ विकास की किरपा हर प्रात्मा
१. मिथ्यात्वीगुणस्थान । में विद्यमान है। फिर चाहे वह एकेन्द्रिय है या अभव्य है।
२. सास्वादन सम्यक्दृष्टि गुणस्थान । इन्द्रिय सत्ता सब संसारी मे है। गुणस्थान का प्रारम्भ भी
३. मिथ गुणस्थान। वही से होता है । शरीरधारी जीवो मे ऐसा कोई भी नहीं ४. अविरति सम्यक दृष्टि गुणस्थान । है जो गुणस्थान से बाहर हो । प्रव्यवहार राशि के जीव
५. देशव्रती श्रावक गुणस्थान । भी प्रथम गुणस्थानवर्ती है । अल्प नही अत्यल्प ही सही
६. प्रमत्त संयति गुणस्थान । क्षयोपशम की मात्रा तो उनमे भी है । वह क्षयोपशम
७. अप्रमतसंयति गुणस्थान । ही गुणस्थान है गुणस्थान की परिभाषा भी हमे यही
८. निवृत्तबादर गुणस्थान । बतलाती है-गुणनामस्थान-गुणस्थानम् । गुणों के स्थान
६. अनिवृत्त बादर गुणस्थान । को गुणस्थान कहा जाता है। निष्कर्ष की भाषा मे
१०. सूक्ष्म संपराय चारित्र गुणस्थान । गुणो को ही गुणस्थान कहा जाता है। प्रात्म-विकास की ११. उपशांत मोह गुणस्थान । भूमिका का ही पर्यायवाची नाम गुणस्थान है।
१२. क्षीण मोह गुणस्थान । प्रात्म' विकास की भूमिकाएं चौदह है। कुछ भूमि- १३. सयोगी केवली गुणस्थान । बाएं दर्शन से सम्बन्धित है, कुछ चारित्र से और कुछ
१४. अयोगी केवली गुणस्थान । भूमिकाएँ भी निर्जरण तथा योग निरोध सापेक्ष है। इस प्रकार प्रत्यल्प विकास की प्रगति करता हुप्रा प्राणी पूर्ण
प्रथम गुणस्थान - विकास की अवस्था को प्राप्त करता है। प्रात्मस्वरूप के
मात्मा के न्यूनतम विकास में रहने वाले प्राणी प्रथम पूर्ण विकास का नाम ही निर्वाण है। बन्धन विमक्ति है। गुण स्थानवती हुमा करते हैं । यह गुणस्थान वैसे दर्शन से यह गुणस्थान से कार की अवस्था है । गुणस्थानो मे कुछ न
सम्बन्धित है, जब तक मिथ्या दर्शन के दश बोलों में से ।
एक भी बोल यदि विपरीत समझता है, तब तक उसमें कुछ बन्धन जरूर है । चाहे समाप्त प्राय भी क्यों न हो? चौदहवे गुणस्थान में प्रवशिष्ट चारकर्म विलीन प्रायः हैं .
पहला गुणस्थान है।
यह तो व्यवहारकी बात हुई, निश्चयमें जब तक अनन्तानु १. विसोहिमग्गणपडउच्च चउद्दसगुण ठाणापन्न-बंधी क्रोध मान,माया-लोभ, मिथ्यात्व मोहनीय मिश्रमोहनीय तास०१४।
सम्यक्त्व मोहनीय, इन सात प्रकृत्तियों का उपशम, अयोप
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भनेकान्त
शम या क्षायिक नहीं हो जाता तब तक कोई जीव पहला नुबन्धी कषाय चतुष्क में से एक' का भी मनन्तानुबन्धा गुणस्थान नहीं छोड़ सकता। इन प्रकृतियों के उदय भाव उदय हो गया तो प्राणी सम्यक्त्व से निश्चित गिरेगा। में अन्य प्रकृतियों की क्षयोपशमावस्था प्रथम गुणस्थान है। सम्यक्त्व के मूल गुणस्थान से तो वह गिर चुका, मिथ्याकाल की अपेक्षा से इसमें चार में से तीन विकल्प पाते हैं त्वतक पहुँचा नहीं, उस बीच की अवस्था का नाम है
-अनादि अनन्त प्रभव्य की अपेक्षा से अनादिशांत सास्वादन सम्यक्त्व'गणस्थान। इसका उत्कृष्ट कालमान भव्य की अपेक्षा से सादि शान्त प्रति पाति सम्यक्त्वा है छ: पावलिका मात्र, उदाहरणतः जैसे-किसी ने खीर की अपेक्षा से सादि अनन्त यह विकल्प इसमें नहीं पाता का भोजन किया और तत्काल किसी कारणवश उसे वमन है। पहले गुणस्थान की प्रादि तभी होती है, जब सम्यक्त्व हो गई. जमीन
हो गई, उसमें खीर तो वापिस निकल गई, किन्तु कुछ से कोई गिर कर पहले गुणस्थान में पाए । भोर सम्यक्त्व प्रास्वादन प्रवशिष्ट कुछ समय के लिए जरूर रहता है। प्राप्ति जिसे होती है वह निश्चित मोक्षगामी हपा करता।
बाद में वह भी समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार है। प्रतः पहले गुणस्थान में प्राकर वह पुनः गुणस्थानारूढ़
सम्यक्त्व का तो वमन हो गया है। किन्तु उज्ज्वलता प्रव होता है। इसलिए पहले गुणस्थान की जहां प्रादि हो गई
भी शेष है, प्रतः द्वितीय गणस्थानवर्ती बताया गया। प्रश्न वहाँ उसका अन्त अवश्यम्भावी है।
-सास्वादन सम्यक्त्वी से प्रात्मा को क्या लाभ ? अगर कर्म प्रकृतियों का बन्धन -
कोई लाभ नहीं है तो फिर प्रथम गुणस्थानवर्ती ही क्यों बन्धनाईकर्म प्रकृतियों का बन्धन सिर्फ तीन प्रकृतियों नहीं मान लिया गया ? उत्तर-गुणस्थानों का क्रम को छोड़कर शेष सभी प्रकृतियों का बन्धन पहले गुणस्थान प्रात्म अवस्था के साथ जुड़ा हुआ है। लाभ या नुकसान में होता है, जिन तीन प्रकृतियों का बन्धन पहले गुण- यह उसका गौण पक्ष है । सास्वादन सम्यक्त्व से तो कई स्थान में नहीं होता उसके नाम हैं ? तीर्थकर नाम कर्म, लाभ हैं। किन्तु अगर लाभ न भी हो फिर भी यह पाहारक शरीर पाहारक अंगोपांग नाम कर्म । उदय एक सच्चाई है, इसे कैसे नकारा जा सकता है। प्रात्मप्रायोग्य कर्म प्रकृतियों में पांच को छोड़कर शेष सभी पहले स्वरूप मिथ्यात्व में परिणत नहीं हुआ तब तक उसे गणस्थान में उदय पाती हैं। अनुदयशील पाँच प्रकृतियों मिथ्यात्वी कैसे कह सकते हैं। उसे सम्यक्त्वी ही मानना के नाम हैं-(१) मिश्रमोहनीय, (२) सम्यक्त्व मोहनीय, पडेगा, चाहे दो क्षण के लिए भी क्यों न हो। (३) माहारक शरीर, (४) माहारक अंगोपांग नामकर्म, (५) तीर्थकर नामकर्म इन पाँचों में से मिश्रमोहनीय का
कर्म बन्धन के बारे में जब हम सोचते हैं तो इस उदय सिर्फ तीसरे गुणस्थान में होता है, अन्य किसी गुण
गुणस्थान से लाभ निश्चित नजर माता है। प्रथम गुणस्थान में नहीं होता । सम्यक्त्व मोहनीय का उदय क्षयोप
स्थान में बन्धने वाली कर्म प्रकृतियों में से सोलह कर्म शम सम्यक्त्व में रहता है। माहारक द्विक का उदय छठे
प्रकृतियों का बन्ध, इस गुणस्थान में नहीं होता। वे और सातवें गुणस्थानवी माहारक लब्धिवाले संयति में
प्रकृतियाँ हैं-(१) नर्कगति, (२) नरकायु, (३) नरही हो सकता है। अन्यत्र नहीं। तीर्थकर नाम कर्म का
कानुपूर्वी, (४) एकेन्द्रिय, (५) द्वीन्द्रिय, (६) त्रिइन्द्रिय, उदय तीर्थकर के जन्म काल में होता है। द्रव्य तीथंकरों
(७) चतुरिंद्रिय, (८) स्थावर नाम कर्म,(8) सूक्ष्मनाम कर्म, में भी गुणस्थान कम से कम चौथा पाता है।
(१०) अपर्याप्त नाम कर्म, (११) साधारण नाम कर्म, इतरा सास्वादन सम्यक दृष्टि गुणस्थान
(१२) प्राताप नाम कम, (१३) मन्तिम संस्थान नाम यह प्रतिपाती सम्यक्त्व की एक अवस्था है। अनन्ता२.अभव्याश्रित मिथ्यात्वे, मनाचनन्ता स्थितिर्भवेत् । ३. एक स्मिन्नु दिते मध्याच्छान्तानन्तानुबंधिनाम् गुण। • साव्याश्रितामिथ्यात्वेनादिशांता पुनर्मता- गु५० ४. समयादावनी षटकं. यापन्निध्यात्व भतलम। कमारोह।
नासादयति जीवोयं, तावत्सास्वादनो भवेत्-१२गण.
लाभ
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गुणस्थान, एक परिचय
N
कर्म, (१४) मन्तिम संहनननामकर्म, (१५) स्त्री वेद, निर्णय कर लेती है, निर्णय के साथ ही चतुर्थ गुणस्थान (१६) नपुंसक वेद । कुछ प्राचार्य इससे भी ज्यादा कर्म मा जाता है यह फिर पहले गुणस्थान में पहुँच जाता है। प्रकृतियों के बन्धन का प्रभाव मानते हैं। क्या यह लाभ इस गणस्थान में संस्थान सहनन चारों गतियों का पायुष्य कम है? इसके अलावा प्रथम गुणस्थान से दूसरे गुण- अनुवर्ती भादि कई प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। कई स्थान में क्षयोपशम के बोल चार नये पाते हैं। कुल प्राचार्य इसमें चुहत्तर कर्म प्रकृतियों का बन्ध मानते हैं। मिलाकर दूसरे गुणस्थान की स्थिति लाभप्रद है, किन्तु कई इससे भी कम प्रकृतियों का बन्ध होना स्वीकार है स्वल्पकाल स्थायी।
करते हैं। तीसरा मित्रगुणस्थान
चौषा अविरति सम्पदृष्टि गुणस्थानइसे नाम से ही पहिचाना जा सकता है । जिस यह गुणस्थान प्रात्माकी सम्यक्त्वावस्था का है । जब अवस्था में न सम्यक्त्व के भावपूर्ण हैं, और न मिथ्यात्व मात्मा कर्मों से कुछ हल्की होती है, कुछ न्यून प्रर्ष पुद्गल का पूरा अन्धकार है उस पात्म अवस्था को मिश्र गुण- परावर्तन में मोक्ष जाने की स्थिति बन जाती है। जैन स्थान कहते हैं। प्राचार्य रत्लशेखरसूरी ने गुणस्थान दर्शन में सम्यक्त्व का बहुत बड़ा महत्व है। क्रिया की क्रमारोह नामक ग्रन्थ में इस गुणस्थान के लिए बतलाया पूर्ण सफलता सम्यक दर्शन युक्त ही मानी गई है । सम्यक् है, जैसे घोड़ी और गधे के संयोग से एक तीसरी जाति दर्शन के प्रभाव में की जाने वाली धार्मिक क्रिया न्यून पैदा हो जाती है खच्चर की। दही और गुढ़ मिलाने फल देने वाली ही सिद्ध होती है। तामली तापस के से एक अन्य स्वभाव वाली रसायन बन जाती है, इसी प्रकरण में टीकाकारों ने कहा है-इतनी तपस्या इन प्रकार मिथ्यात्व'और सम्यक्त्व के मिल जाने से एक परिणामों से अगर सम्यक्त्वी करता है तो एक नहीं सात तीसरा ही रूप निखर पाता है, इसे मित्र गुणस्थान प्राणी मोक्ष चले जाते । किन्तु तामली तापस एकाभवकहते हैं।
तारी (एक भववाद मोक्षगामी) ही बन सके । सम्यक्त्व बह गुणस्थान अमर है
का महत्व इस घटना से स्वतः सिद्ध हो जाता है। पूर्ण संदिग्ध अवस्था में होने के कारण यह गुणस्थान अध्यात्म में सम्यक् दर्शन की उपादेयता असंदिग्ध है। है। इस गुणस्थान में न पायुष्य का बन्धन होता है, और क्रिया चाहे कितनी ही शुभ है शरीर के साथ अवश्य ही न मायुष्य पूर्ण । इसीलिए यह गुणस्थान अमर कहलाता छटने वाली है, किन्तु सम्यक्त्व मुक्त अवस्था में भी है इस गणस्थान का कालमान मन्तर मुहूतं मात्र माना विद्यमान है। क्रिया प्रात्मस्वरूप प्राप्त करने में साधन जाता है। इस अन्तरमुहूर्त में मात्मा सम्यक्त्व के काफी मात्रा
काफी मात्र बन सकती है, किन्तु पात्म स्वरूप नहीं है। सम्य
मक नजदीक पढेच कर भी सम्यक्त्व दर्शन अवस्था को नहीं क्त्व स्वयं मारमावस्था है। पा सकता। मिथ्यात्व के दस बोलों में से नौ को सम्यक् परिभाषा समझ लिया। सिर्फ एक में सन्देह है, जब तक संशय है देवगह और धर्म पर यथार्थ श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व तब तक मिश्रगुणस्थान है, मात्मा बहुत जल्दी उसका है। तत्व के प्रति यथार्थ श्रद्धा का होना सम्यक्त्व का ही ५. जात्यान्तर समुद्भूति वंड़वाखरयोर्यथा । गडदनोः फालत ह । सम्यक्त्व के अभाव में यथाथ बया का मी समायोगे, रसभेदान्तरयथा-१४ । गुण.
प्रभाव रहता है। नौ तत्व और पट् द्रव्य की यथार्थ ६. मिश्रकर्मोदयाज्जीवे, सम्पमिथ्यात्वमिश्रितः । ८. भगवती टीका। यो भावोन्त-महतं स्यातन्मित्रस्थानमुच्यते-१३ । ६.मरिहंतो महादेवो, जावज्जीवं सुसाहणो गुरुणो।
जिणपणतं तत्तं, इय सम्मतं मयेगहियं । म. ७. पायुर्वघ्नाति नो जीवो, मिश्रस्थोप्रियतेन वा। १०. तत्त सद्दहाणं सम्मत्तं । पंचा० । १
सदृष्टिा कुदृष्टिा , भूत्वामरणमश्नुते-१६ । गुण. म. प्र. कोशिक
गुण.
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अनेकान्त
जानकारी करने वाले को व्यवहार में सम्यक्त्वी कहा जाने के बाद ही अनिवृत्ति करण पा जाता है, जो विशुद्ध जाता है, व्यवहार शब्द का प्रयोग यहाँ इसलिए किया है, सम्यक्त्वावस्था है । ग्रंथी भेदन के साथ मिथ्यात्व मोहनीय कि देव गुरु और धर्म को अलग-अलग समझ लेना या प्रादि सात प्रकृतियों का यदि क्षय हो जाता है तो क्षायक जीव-प्रजीव प्रादि नौ तत्वो की जानकारी कर लेना ही सम्यक्त्व क्षयोपशम होता है तो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सम्यक्त्व हो तो मरुदेवा जी को सम्यक्त्व प्राप्ति केसे हुई उपशम होने से प्रौपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। होगी? उन्होंने जीव-अजीव के बारे है या गुरु देव के तीनों कारणों को समझने के लिए प्राचार्यों ने पीपीलिका बारे में कभी कुछ सुना ही नही था, इधर मिथ्यात्वी भी।
का उदाहरण दिया है-जैसे पीपीलिका २ निलक्ष्य घूमती नो पूर्वो का ज्ञान कर लेता है। फिर भी वह सम्यक्त्वी किसी स्तंभविशेष को पाती है, फिर प्रयत्न करके ऊपर नहीं बनता । अतः सम्यक्त्व प्राप्ति के उपादान करण. कुछ चढती है, और पखों से प्राकाश की ओर उड जाती है। भोर होने चाहिए। प्रमुक सीमा तक जानकारी करना तो उसी प्रकार स्तभविशेष पाने को यथा प्रवृत्ति करण ऊपर सम्यक्त्व की व्यावहारिक कसौटी ही बन सकती है। चढने की क्रिया विशेष को अपूर्वकरण और ऊपर उड़ने सम्यक्त्व का नैश्चयिक रूप
की क्रिया अनिवृत्ति करण कहते है। सम्यक्त्व की नैश्चयिक व्याख्या हुए शास्त्रकारो ने प्रविरतिकहा--प्रनतानुबन्धी क्रोध मान, माया, लोभ मिथ्यात्व ग्रथी भेदन के साथ सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। मोहनीय मिश्र मोहनीय; सम्यक्त्व मोहनीय, इन सात किन्तु संवर की उपलब्धि नहीं होती। जब तक अप्रत्याप्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम या क्षायक होने से प्रात्मा ख्यानी क्रोध मान, माया, लोभ का उदय रहता है, तब की जो अवस्था होती है, उस अवस्था" को सम्यक्त्व तक सम्यक, श्रद्धा होने पर भी सवर का लाभ नही मिल अवस्था कही जाती है। उस अवस्था मे अगर कुछ सकता। जिस प्रकार किसी कारणवश कारावास भुगतने तात्त्विक जानकारी भी करता है तो वह सम्यक् होगी, वाला धनाढ्य सेठ अपने धन का अपने लिए कोई उपयोग यथार्थ होगी। इन सात प्रकृतियो के उपशम, क्षयोपशम नहीं कर सकता, अपना कमाया हुआ धन अपना होते हुए प्राक्षायक होने से पहले प्रत्येक प्रात्मा को ग्रथीभेद करना भी अपने काम नही पाता यह कारावास की करतूत है। पडता है। बिना ग्रंथी भेद किए कोई प्रात्मा सम्यक्त्व इसी प्रकार अप्रत्याख्यानी कषाय के कटघरे मे रहता हुआ पा नहीं सकती। ग्रंथी भेद के साथ ही इन प्रकृतियो का सम्यक दर्शन वाला व्यक्ति भी सवर के लाभ से लाभान्वित उपशम प्रादि होता है।
नही हो सकता। अतः इस गुणस्थान को अवरति सम्यक् अंची भेव का क्रम
दृष्टि गुणस्थान कहते है। इस गुणस्थान मे सम्यक् दृष्टि प्रायष्य छोड़कर शेष सात कमों की स्थिति कुछ न्यून देवता, कछ नारक जीवन, कछ मनुष्य मोर तियच भी
कोटा कोटी सागर की स्वाभाविक रूप मे हो जाती ऐसे होते है जो केवल सम्यक्त्वी ही है। है. उसे यथा प्रवृत्ति करण कहते हैं। यह स्थिति क्रिया सम्यक्त्व के भेदविशेष से नहीं पाती, स्वभावतः पाती है, एक बार नहीं सम्यक्त्व के विकल्प दो प्रकार से किये जाते हैं, १. भनेकों बार इस स्थिति को व्यक्ति पा लेता है। किन्तु कर्म निर्जरा की अपेक्षा से, २. प्राप्ति के लक्षणो से । कर्म अपर्व करण के प्रभाव में वह भागे नहीं बढ़ सकता । यथा निर्जरा की अपेक्षा से सम्यक्त्व के पांच" विकल्प होते है, प्रवृत्ति करण में प्राकर प्रात्मा विशेष प्रयत्न करता है प्रनतानुवधी कषाय चतुष्क के उपशम से होने वाला तभी ग्रन्थी भेदन होता है। अपूर्व करण से ग्रंथी भेद हो -
१२. गुणस्थान क्रमारोह । ११. सेय सम्मत्ते पसत्थसंमत्त मोहनीय कम्मांणु वेयणो व १३. उपसामग सासायण, खग्रोवसमियं चवेदगं खइयं । समक्खय समुत्वोपसम संवेगाइलिगे सुहे मायपरिणामे । सम्मत्तं पंच विहं, जह लग्भइ तं तहा वोच्छं। प्र०४
१४ मभि.
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गुणस्थान, एक परिचय
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सम्यक्त्व उपशम सम्यक्त्व है। इनके क्षमोपशम से होने का स्पर्श हो जाये तो कुछ न्यून अर्ध पुद्गल परावर्तन में वाला सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक है। इसका भेद और है, वह निश्चित मोक्ष जायेगा। चाहे क्रिया नही हो पाती जिसका नाम है सास्वादन सम्यक्त्व क्षयोपशम से क्षायक सम्यक दर्शन है तो उसका आयुष्य विमान वासी देवों सम्यक्त्व भी होता है उस स्थिति मे क्षयोपशमिक सम्यक्त्व का ही बंधता है। अर्थात् चौथे गुणस्थान में प्रायुष्य सिर्फ के प्रतिम" समय को वेदन सम्यक्त्व कहा जाता है। बैमानिक या मनुष्य का ही बधता है अन्य किसी का नही अर्थात्-वह इन प्रकृतियों के प्रदेशोदय में वेदन होने पहले का बधा हुआ हो तो वहां तो जाना ही पड़ेगा। वाला अतिम क्षण है, उसके बाद क्षायक होना है । वेदक सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद ही व्यक्ति श्रावक या साधुत्व सम्यक्त्व की स्थिति जघन्य उत्कृष्टतः एक समय की है। की भूमिका पा सकता है। अध्यात्म में सम्यक दर्शन को इन प्रकृतियो के क्षय होने से होने वाली दर्शन सम्बन्धी मूल बतलाया है । यही से प्रात्म ज्ञान का प्रारम्भ होता उज्ज्वलता को क्षायक सम्यक्त्व कहते है। इस प्रकार १. चिन्तन मे विशुद्धि करण पाता है। सम्यक्त्व के श्रोत उपशम सम्यक्त्व २. क्षयोपशम सम्यक्त्व ३. सास्वादन से निकलने वाला हर उपक्रम अध्यात्म को परिपुष्ट करने सम्यक्त्व ४. वेदक सम्यक्त्व ५. क्षायक सम्यक्त्व ये पाच वाला सिद्ध होता है। इसीलिए प्राप्त पुरुषो ने कहाप्रकार कर्म निर्जरा की अपेक्षा से हुए है।
"सम्मत्त दसी न करेई पाव" सम्यक् दर्शन मे रहा हुआ सम्यक्त्व प्राप्ति के लक्षणो की अपेक्षा से रुचि की प्राणी सब से बडा पाप जो मिथ्यात्व का है, उसे वह कभी अपेक्षा से सम्यक्त्व के अनेक विकल्प है। किसी को उपदेश नहीं करता। यह है सम्यक्त्व का फल । इसे मोक्ष का से सम्यक्त्व के प्राप्ति हुई किसी को नैसर्गिक सम्यक्त्व प्राप्ति द्वार कह सकते है, साधना की प्राधार शिला मान हुई। किसी को सक्षेप मे तत्व की जानकारी है, किसी सकते है। को विस्तार से तत्वज्ञता" प्राप्त है। उत्तराध्ययन प्रज्ञापना पांचवां व्रतावती श्रावक गुणस्थानपादि प्रागमो मे ऐसे सम्यक्त्व के दश विकल्प बतलाये हैं। अप्रत्याख्यानी" कषायचतुष्क का क्षयोपशम होने से १. निसर्ग रुचि, २. उपदेश रुचि, ४. सूत्र रुचि, ५. बीज प्रात्मा सवर की ओर प्रयत्नशील होती है। प्रवृत्ति प्रधान ६. अभिगम रुचि, ७. विस्तार रुचि ८ क्रिया रुचि ह सक्षेप जीवन मे निवृत्ति को स्थान देती है। पुर्णत: चारित्रशील रुचि १० धर्म रुचि ।
न होने पर भी पाशिक चारित्र (व्रत) को ग्रहण कर सम्यक्त्व से लाभ
उपासना युक्त जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति श्रावक सम्यक्त्व से क्या लाभ है? इस सदर्भ मे अगर चौथे कहलाता है । कुछ व्रत और कुछ अव्रत इस मिश्रित प्रात्म गुणस्थान को देखे तो अनुभव होगा कि चौथा गुणस्णान ही अवस्था को व्रताव्रती गुणस्थान कहते हैं। चौथा गुणस्थान चौदहवे गुणस्थान की भूमिका है-निर्वाण की भूमिका है। जहाँ सर्वथा अविरति था। वहा पाचवां गुणस्थान व्रताव्रती मागमों में कहा है-अन्तर"मुहर्त मात्र भी अगर सम्यक्त्व अवस्था में पहुँचा। उपासना के क्रम में इस गुणस्थान १४. तच्च वेदगसम्यक्त्वं सम्यक्त्वपुंजस्य बहुतरक्षपितस्य
वाले व्यक्तियो को श्रावक कहा जाता है । आगमों में एक चरमपुद्गलाना वेदनकाल ग्रास समये भवति ।
प्राणातिपात का त्याग करने वाले से लेकर एक प्राणाति
पात जिसके बाकी है, उन सबको पचम गुणस्थानवर्ती
मभिः १५. निसग्गुवएसरुई प्राणारुइ सुत्त-वीयइमेव ।
बतलाया है। श्रावक के बारह व्रत और ग्यारह प्रतिमा अहिगमवित्थाररुई, किरियासखेवधम्मरुई। १७. सम्मद्दिट्टी जीवो गच्छइ नियमा विमाणावासीसु ।
१६ उ०२८
जइ न विगयसम्मत्तो महवा न वद्धाउमो पुन्विं । १६. अंतोमुहूर्तमित्तं, विफासिय हुज्जे हिंसम्मत्त ।
स्थान० टी० ते सि प्रवड्ढ़ पुग्गल-परियट्टोचेवसंसारो ॥ १८. प्रत्याख्यानोदयात्देश विरती यत्र जायते तत्, श्रद्धत्वं
१। स्थान० टी. देशोन पूर्व कोटिगुरुस्थिति : २४ गुणस्थान क्रमारोह
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अनेकान्त
इसी गुणस्थान की उपासना पद्धति में प्रा जाती है। यहाँ श्रावक अवस्था में (पांचवें गुणस्थान में) नर्क तिर्यच तथा तत्त्वनिष्ठा के साथ संयम और सम्यक्रिया का योग भी मनुष्य का प्रायुष्य नहीं बंधता, न नपुंसक तथा स्त्री वेद हो जाता है । श्रावक के बारह व्रतों में से पाठ व्रत तो का बंधन नहीं होता । एक मात्र वैमानिक देव और पुरुष यावज्जीवन के लिए किया जाता है। और चार व्रत वेद का बंध पड़ता है। इस प्रकार अध्यात्म व व्यवहार अल्पकालिक हैं। ग्यारह" प्रतिमा का कालमान पांच दोनों में श्रावक की भूमिका महत्वपूर्ण है। वर्ष छ: महीने का व्रत है, वैसे पहली प्रतिमा एक मास प्रमत्त संयति गणस्थानकी दूसरी प्रतिमा दो मास की इसी प्रकार तीसरी, चौथी प्रत्याख्यानी कोष मान माया और लोभ का क्षयोपमादि सभी प्रतिमाओं में एक-एक मास की वृद्धि हो जाती शम होने से प्रात्मा संयम की ओर विशेष प्रयत्नशील होती है। ग्यारह प्रतिमा एक साथ तो करते ही हैं। किन्तु है। सावध योगों का सर्वथा त्याग करके संयमी बन जाती कोई ग्यारहवीं पडिमा (प्रतिमा) न कर सके तो पीछे है। किन्तु अन्तर प्रदेशों में प्रमाद फिर भी बना रहता की पांचवी छठी या सातवीं तक भी कर सकता है। एक है। प्रमत्त युक्त संयमावस्था का नाम ही व छठा गुणही प्रतिमा कई बार भी कर कर सकता है। प्रागमोत्तर स्थान है। इस गणस्थान में पाने के बाद साधक पारिसाहित्य में माता है कार्तिक सेठ पांचवी प्रतिमा तक सौ
वारिक परिस्थितियों के ऊपर उठ जाता है। व्यवसायिक वार की थी। मानन्द श्रावक आदि दसों श्रावकों ने अपने
प्रक्रिया उसके लिए त्याज्य होती है। वह जीवन भर अनुजीवन के अंतिम समय में प्रतिमा ग्रहण की थी, और
दृष्टि भिक्षा जीवी बन जाता है। शारीरिक प्रावश्यकताओं प्रतिमा समाप्ति के बाद अंतिम संलेखना की थी। पांचवे
की पूर्ति साधक भिक्षा वृत्ति से ही प्राप्त करता है । सब गुणस्थान की जघन्य स्थिति अन्तर मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति कुछ कम एक कोटि पूर्व की है । नौ साल की उम्र
__ नामों से ऊपर उठकर की जाने वाली साधना का प्रारम्भ में श्रावक व्रत किसी ने ले लिए और करोड़ पूर्व का
छठे गुणस्थान में ही होता है। मायुष्य हो तब यह उत्कुष्ट स्थिति होती है।
संयम
पापकारी प्रवृत्तियों से उपरम (विरती) होने का मात्मा पांचवें गुणस्थान तक पहुँच कर प्रांशिक संयम नाम ही संयम है। चारित्र ग्रहण के संयम में सामायक की साधना का लाभ प्राप्त कर लेती है। प्रत्याख्यानी पाठ के द्वारा सावद्य" योगों का त्याग किया जाता है। कषाय चतुष्क के उदय से संयमी नहीं बन सकती, फिर संयम चर्या में रहता हा साधक वावन" अनाचारों का भी संयमा संयमी तो हो ही जाती है।
वर्जन करता है। बाईस परीषहों को समता के साथ सहन श्रद्धा विवेक और क्रिया युक्त जीवन निश्चित ही करता है। उन्नति कारक होता है। इस गुणस्थान मे आने वाले
पाहार प्रादि की एषणा (अन्वेषण) में वयांलीस मनुष्य और तिर्यच निकट भविष्य मे ही मोक्षगामी होते दोषों का परिहार करना होता है । मंडल पांच दोषो का हैं। वैसे भव तो श्रावक के काफी है, मानन्दप्रादि दसों परित्याग कर के भोजन करता है। श्रावक एका भवतारी हुए थे। पावश्यकता सजकता के प्राजीवन अहिंसा प्रादि पांच महाव्रतों का सम्यक् साथ मागे बढ़ने की है, फिर एका भवतारी होते देर नहीं पालन करना ही साधना का मौलिक रुप है। पांच समति लगती । सचमुच श्रावक अवस्था साधुत्व की पूर्व भूमिका
२१. सव्वं सावज्ज जोगं पच्चक्खामि । है। प्रभ्यास और क्षयोपशम का योग पाकर श्रावक कभी
२२. दशवकालिक प्र० ३ न कभी साधुत्व को ग्रहण कर ही लेता है । इसके अलावा
२३. उत्तराध्ययन न प्र०२ १६. दसाश्रुतस्कंध ।
२५. उत्तराध्यय अं० ७२१ २०. उपासक दसांग,
२६. आवश्यक उत्तराध्यन ।
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गुणस्थान, एक परिचय
तथा तीन गुप्तियों की सम्यक् पाराधना करने वाला ही सातवा अप्रमत्त संयति गुणस्थानमुनि कहलाता है । ध्यान" स्वाध्याय मुनिचर्या का प्रमुख प्रात्मा की सर्वथा अप्रमत्त अवस्था इस गुणस्थान में अंग है । साधना में निखार इन्ही से प्राता है।
पाती है। यहाँ प्रमाद का भी निरोध हो जाता है साभ
अध्यात्म के प्रति यहाँ पूर्ण उत्साह रहता है। यहाँ नियछठे गुणस्थान की भूमिका तक प्रात्मा को ले जाना
मतः धर्म या शुक्ल ध्यान मे से एक जरूर होता है। प्रसंसाधक के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। सम्यक्त्व प्राप्ति के यम से जब सयम की ओर प्रात्मा गति करती है, तो बाद साधक की छलांग संयम की पोर हा करती है। पहले सातवें गुणस्थान में जाती है, अन्तर मुहर्त के बाद संयमावस्था अध्यात्म का महत्वपूर्ण पक्ष है। यहां पहुँचने या तो आठवे गुणस्थान में चली जाती है। या छठे गुणके साथ ही पिछली सारी अव्रत समाप्त हो जाती है। स्थान म आ जाता । सातव
स्थान मे पा जाती है। सातवे गुणस्थान का कालमान अर्यात्-पांच पाश्रव में से दो पाश्रव बिलकुल रुक जाते अन्तर मु
अन्तर मुहूर्त मात्र का ही है, छदमस्थ साधक अनेकों बार हैं-मिथ्यात्व और प्रव्रत। छठे गुणस्थान में मृत्यु
इस गुणस्थान में माता और जाता है अगले भव का प्रायुष्य प्राप्त करने वाला मुनि जघन्यतः एक भव वाद मोक्षगामी
बन्ध इस गुणस्थान मे नही होता, छठे गुणस्थान मे प्रारम्भ उत्कृष्टतः पन्द्रह भववाद मोक्षगामी होता है। अर्थात्
किया हुआ आयुष्य सातवें गुणस्थान मे पूर्ण अवश्य छठे गुणस्थान में प्रायुष्य पूरा करने वाले साधक के भव
होता है । प्रायुष्य बन्ध का प्रारम्भ सातवे मे नही होता। ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह ही होते है। पन्द्रहवें भव में तो
इसमे प्रमाद निरोध के साथ-साथ अशुभ योग का भी निरोष निश्चित रूप से मोक्ष चले ही जाते हैं। छठे गुणस्थान में ।
हो जाता है । लेश्या भी यहाँ तीन शुभ ही रह जाती है। आयुष्य पूरा करने के बाद जब तक मोक्षमें नही जाता तब
पाठवें निवृत्त बादर गुणस्थान मे पात्मा स्थूलकषायों तक देव और मनुष्य इन दो गतियों में ही जाते हैं । नरक से निवृत्त हो जाती है। यह अवस्था प्रमाद निरोध के और तिथंच गति में वे नहीं जाते हैं ।
बाद पाती है। पाठवाँ गुणस्थान साधक विशेष प्रयत्न कालमान
करके ही पाता है। यहाँ क्षयोपशम सम्यक्त्व समाप्त हो ___ छठे गुणस्थान का कालमान जघन्यतः अन्तर मुहूर्त
जाता है। आठवें गुणस्थान मे सम्यक्त्व या तो उपशम और उत्कृष्टतः नौ वर्ष कम करोड़ पूर्व की छद्मस्थ अवस्था
या क्षायिक हो जाता है । इसी गुणस्थान से साधक उपशम में संयति की सबसे अधिक लम्बी अवधि वाला यही गुणस्थान
क्षपक इन दो श्रेणियों में से एक पर प्रारूढ़ होता है। है । भिक्षु की बारह प्रतिमा व अन्यान्य अभिग्रह इसी इस
इसका भी कालमान अन्तर मुहर्त मात्र का है। गुणस्थान में किये जाते हैं । सामायिक पाठ से लेकर चौदह नौवा मनिवृत्त बादर गुणस्थान श्रेण्यारूढ़ मात्मा ही पूर्व तक का ज्ञान इसी गुणस्थान में सीखा जाता है। छठे प्राप्त करता है। उत्तम श्रेणियों में कर्म प्रकृतियों का गुणस्थान में पांच ज्ञान में से मति श्रत प्रवधि मनः पर्यय उपशमन होता है और क्षपक श्रेणी में प्रकृतियों का क्षय ये चार ज्ञान हो सकते हैं। छ: निर्ग्रन्थों में पूलाक वकश होता रहता है। नौवं गुणस्थान में दशवे गुणस्थान की पडि सेवणा, कसाय कुशील, ये चार निर्ग्रन्थ होते है। अपेक्षा तो कुछ मनिवृत्ति रह जाती है, वैसे अधिकांश पांच चारित्र में, सामायिक, छेदोपस्थापना, पडिहार- अशुभ प्रतिकृयों की निवृत्ति होती जाती है । अन्तर महतं विशुद्धि ये तीन चारित्र हो सकते हैं।
की स्थिति वाले इस गुणस्थान मे संज्वलन, क्रोध, मान, २७. सज्झायसज्जाणरयस्सताइणे, पावभावस्स तवेरयस्स ।
माया, नपुंसक वेद, स्त्री वेद, पुरुष वेद प्रादि अनेक प्रवविसुज्झइज सिमलं पुरे कडं, समीरियरुप्पमलवजोइणो ।
त्तियों का उपशम क्षय हो जाता है । दस का०७ दसवें सूक्ष्म संपराय गणस्थान में चारित्र मोहनीय
की सिर्फ एक प्रकृति संज्वलन लोभ ही शेष रह जाती है। दसवें गुणस्थान का कालमान पाठवें, नवें गुणस्थान
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अनेकान्त
से भी कम है। इसीलिए यहाँ ज्ञान का उपयोग लिया है, होता है। यहाँ इन दोनों का प्रभाव है, यहां कर्म प्रकृतियों दर्शन का उपयोग होने से पहले ग्यारहवे में या नवे गुण- का या तो उदय है, या फिर क्षायक ही होता है। चार स्थान मे साधक पा जाता है। यहाँ की चारित्रावस्था अघातिक कर्म की उदयावस्था है, और चार धातिक की भी पिछले गुणस्थान से भिन्न है। नौवें गुणस्थान तक क्षयावस्था है जो प्रात्मा अणु से पूर्ण विकास की भावना सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र रहता है । दशवे लिए पहले गणस्थान से ऊर्ध्वगमन प्रारम्भ करती है, वह गुणस्थान में सूक्ष्म साम्पराय चारित्र है । साधक यहाँ प्रा यहाँ प्राकर पूर्णता की स्वानुभूति करने लग जाती है। कर विशद्धि के एक महत्वपूर्ण मोड तक पहुँच जाता है। यहाँ ज्ञान पूर्ण है, दर्शन पूर्ण है, सम्यक्त्व पूर्ण है, अंतइससे आगे की स्थिति सर्वथा मोहाभाव की है।
राय मुक्ततापूर्ण है, अर्थात् चौदहवें गुणस्थान में और ___ग्यारहवें में उपशान्त मोह गुणस्थान में मोह को सिद्धावस्था में भी गण ऐसे ही रहेगे । सर्वथा उपशान्त दशा रहती है। मोहनीय कर्म की किसी अपूर्णताभी प्रकृति का विपाकोदय या प्रदेशोदय यहाँ नही रहता। यह गुणस्थान कुछ बातों में पूर्ण होने पर कुछ अपूर्ण अन्तर महतं के लिए प्रात्मा की वीतराग अवस्था हो भी है । तभी गुणस्थान है, बग्ना सिद्ध हो जाते है चार जाती है। उपशम श्रेणी का यह अन्तिम स्थान है। यहाँ अधातिक कर्मो से सबधित प्रात्मगुण तेरहवे गुणस्थान मे से वापिस मुड़ना ही पड़ता है । कई बार तो यहाँ प्रायुष्य नहीं होते। वेदनीय कर्म के कारण अनन्त आत्मिक सुख पूर्ण हो जाता है। तो साधक को ग्यारहवें से सीधा चौथे की अनुभूति इस गुणस्थान मे नही होती, आयुष्य कर्म के में माना पडता है । ग्यारहवे में आयुष्य पूरा करने वाला कारण सर्वथा, आत्मिक स्थैर्य का अनुभव नहीं होता। जीव देव लोक मे सर्वोच्च देवालय को पाता है। वहा नाम कर्म के कारण अगा लघुत्व नही पा सकते । ये गण गुणस्थान 'चौथा है । कई साधक' अन्तर महतं के बाद पुनः अकर्मा अवस्था में ही होते है । इस गुणस्थान मे ये चार मोहोदय के कारण दसवे, पाठवें, सातवे गणस्थान में
र कर्म विद्यमान है।
१ उतर पाते हैं। उपशम श्रेणी में ऐसा होना अनिवार्य है। मुनि और तीर्थकर
बारहवें क्षीण मोह गुणस्थान में प्रात्मा को मोह की तेरहवं गुणस्थान में प्रात्म विकास दृष्टि से सब साधक सत्ता से भी छुटकारा मिल जाता है । क्षपक श्रेणीरूढ समान है। सबको ज्ञान दर्शन, चारित्र, आत्मवल, आदि मुनि यहाँ पाकर मोह का सर्वथा क्षय कर देता है। गुण सदृश है, किन्तु विद्यमान चार कर्मो के शुभाशुभ उदय अनादि काल से प्रात्मा के साथ चला आ रहा मोह यहाँ के कारण कुछ भेद रहता है। मुख्यत: इनमे दो विकल्प पाकर छुटता है। अन्तर मुहूर्त की स्थिति वाले इस गुण- है मुनि और तीर्थकर मुनि अवस्था साधक की सामान्य स्थान में सात कर्म शेष रहते है। किन्तु मोह की सत्ता अवस्था है। तीर्थकर अवस्था नाम और गौत्र कर्म की छट जाने पर शेष घातिक त्रिक भी अतिम स्थिति मे पहुँच विशिष्ट परिणति से प्राप्त होती है। किसी-किसी साधक जाते है। बारहवे गुणस्थानमे पहुँच कर पहली बार क्षायकि की विशिष्ट साधना से कभी-कभी नाम कर्म की विशेष चारित्र को प्राप्त करता है। यह छद्मस्थ अवस्था की उत्तर प्रकृति तीर्थकर नाम कर्म का बघ हो जाता है । अन्तिम भूमिका है। इस गुणस्थान से साधक न तो वापिस उसके साथ अन्य शुभ प्रकृतियो का भी बघ हो जाता है। गिरता है, और न प्रायुष्य पूरा करता है। यहाँ से तो आगे उच्च गोत्र का भी प्रबल बंध पड जाता है। उन प्रकृतियों संपूर्ण विकास की अोर गति करने का अवसर प्राप्त है। के उदय से व्यक्ति तीर्थकर पद प्राप्त करता है। तीर्थकर तेरहवां सयोगी केवली गणस्थान
मे शारीरिक विशेषताओं के साथ कुछ अतिशय और भी तेरहवां सयोगी केवली गुणस्थान घातिक त्रिक ज्ञाना।
हुआ करता है, जिससे साधारण जनता को भी पौरो से वरणीय दर्शनावरणीय प्रतराय के क्षय होने पर प्राप्त विशेष होने का पता लगता रहता है । होता है। यह प्रात्मा की सर्वज्ञावस्था है। उपशम ग्या- इर्यापथिक क्रियारहवें गुणस्थान तक है। क्षयोपशम बारहवे गुणस्थान तक तेरहवें गणस्थान में अवस्थित साधक से जो कुछ भी
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गुणस्थान, एक परिचय
१२१
क्रिया होती है। वह निर्जरा प्रधान हुआ करती है । पाप फिर बचन योग का निरोध होता है। बादमे काययोग का का बन्ध तो पिछले गुणस्थानों में ही रुक गया, यहाँ तो निरोध किया जाता है। काययोग का निरोध होते ही पुण्य भी स्वल्प मात्रा में लगता है। केवल दो समय तेरहवां गुणस्थान छूट कर चौदहवां अयोगी केवल गुणस्थिति वाले पुण्य ही सर्वज्ञ के चिपकते है । इस क्रिया का स्थान की अवस्था पा जाती है। इसे शैलेषी अवस्था भी नाम इपिथिक क्रिया है। इससे लगे पुण्य मोक्ष प्राप्ति कहते है। शैलेश अर्थात -पर्वतों में सर्वोच्च पर्वत मेरू में बाधक नहीं बनते, दो समय मात्र की स्थिति के होने उस जैसी निष्प्रकप अवस्था यहाँ हो जाती है। इस गुणके कारण बंध ने के साथ ही उदय और निर्जरण की स्थान मे अवशिष्ट चार कर्म भी क्षय हो जाते हैं । इन प्रक्रिया चालू हो जाती है। इसलिए प्रात्मा पर इसका चारों कर्मों के क्षय के साथ कार्मण शरीर तंजस शरीर कोई अलग प्रभाव नहीं होता।
(जो प्रात्मा के साथ अनादि काल से लगे हुए है) छूट केवली समद घात
जाते है । औदारिक शरीर की क्रिया तेरहवे के अंत में तेरहवें गुणस्थान में समुद्घात भी होता है, इसे केवली
छूटती है। शरीर चौदहवे मे छटता है। बस उसी क्षण समुद् घात कहते है। जब आयुष्य कर्म कम हो पीर नाम
प्रात्मा लोकाग्र भाग में जा टिकती है। फिर न जन्म है न गोत्र आदि कर्म ज्यादा हो तब केवली समुद्घात होता है। मृत्यु है। यह अवस्था गुणस्थान से ऊपर को है। केवली समुद् घात करने से नहीं होता, यह स्वभावतः उपहंसारहोता है । प्रयत्न से की जाने वाली क्रिया मे असख्य समय प्रात्म विकास की दृष्टि से चौदह गुणस्थानों का क्रम लगते है। केवली समुद्घात में केवल आठ समय ही बहुत ही युक्ति सगत है। प्रात्मा जैसे-जैसे ऊपर उठती है लगते है । अत: यह कृत प्रक्रिया नही है, कर्मों की प्रस- वैसे-वैसे गणस्थान बदलता रहता है, और बिजाती तत्त्व मान अवधि को समान बनाने की स्वतः भूत प्रकृतिया है। छूटते रहते हैं । प्रात्मगुणों का प्राविर्भाव होता रहता है। केवली समुद् घात मे पहले समय में दड के रूप मे प्रात्म चौदह गुणस्थानो मे सम्यक दर्शन युवत बारह गुणस्थान प्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं। दूसरे समय मे कपाट है, मिथ्या दर्शन सम दर्शन वाले एक-एक है। संयमी नो के रूप में प्रात्म प्रदेश फैलते है। तीसरे समय मे मथान गुणस्थान है । प्रसयमी चार गुणस्थान है, संयमा-संयमी एक (मथानी) के रूप मे आत्म प्रदेश फैल जाते है। चौथे गुणस्थान है। प्रमादी छ: गुणस्थान है, अप्रमादी पाठ समय मे बीच का अन्तर पात्म प्रदेशो से भर जाता है। गुणस्थान है । सवेदी पाठ गुणस्थान है, अवेदी पाच गुणपांचवें समय में फैले हुए पात्म प्रदेश पुनः संकुचित होने स्थान है, सवेदी अवेदी एक गुणस्थान है। सकषायी दस लग जाते है, और मथानी के आकार मे आ जाते है। छठे गुणस्थान है, अकपायी चार गुणस्थान है । छद्मस्थ बारह समय में कपाट के रूप में, सातवें समय में दंड के रूप में गुणस्थान है, और सर्वज्ञ दो गुणस्थान है। सयोगी तेरह तथा पाठवे समय में शरीरस्थ हो जाते है। इन पाठ
गुणस्थान है, और अयोगी एक गुणस्थान है। आयुष्य समय की स्थिति वाली समुद घातिक क्रिया से कर्मों की
कर्म के प्रबंधक पाठ गुणस्थान है । सबधक छ: गुणस्थान अवधि समान हो जाती है। यह समुद्घात तीर्थकरों के
है । अमर जिसमे प्रायुप्य पूरा नहीं होता, तीन गुणस्थान नही होता। मुनियों में भी केवल ज्ञान पाए, छः महीने
है । शेष ग्यारह मे प्रायुष्य पूरा होता है । अन्तर मुहूर्त बीतने पर ही यह समुद् घात हो सकता है।
की स्थिति वाले नो गुणस्थान है, इससे अधिक स्थिति
वाले पाच गुणस्थान है। चौदहवां प्रयोग केवली गुणस्थान
व्याख्यानों में कहीं-कही ग्रथकारों में मतभेद भी वह शरीरधारी प्रात्मा की अंतिम विकास अवस्था है।
मिलता है। किन्तु गुणस्थान की मौलिकता में किसी को इस गुणस्थान का मायुष्य जब पांच हस्वाक्षर उच्चारण मोह
मतभेद नहीं है। जिन बातों में मतभेद है तटस्थतया मात्र शेष रहता है, तब प्राप्त होता है । प्राप्त होने से पहले
अध्ययन पूर्वक उसे भी मिटाया जा सकता है। जैन दर्शन योग निरोध की प्रक्रिया चालू होती है। योग निरोध की समन्वय दर्शन है. इससे मतभेद मिटते हैं, मतभेद होने की प्रक्रिया में साधक पहले मनोयोग का निरोध करता है, बात पाश्चर्यजनक लगती है।
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ग्वालियर के कुछ मूर्ति यंत्र लेख
परमानन्द शास्त्री
सुपार्श्वनाथ-२ च १ इंच
सं०११२५.........। १ चौवीसी पीतल-सं० १४३०......... ।
चौवीसी मूर्ति पातु-१ २ पीतल-सं० १४८६ वैशाख सुदि ६..-लेख घिस
सं० ११२० वैशाखसुदि २ गोपालरूपो गोल्ह-पौत्र गया पढ़ने में नहीं पाता।
पूना........। ३ चौवीसी धातु-सं० १५२० वैशाख सुदि ११ । काले पाषाण की पार्श्वनाथ की मति४ पातु मूर्ति-(घिसी हुई) सं० १५२४ ।
सं० ११२४ मिति ज्येष्ठ सुदी ५ पार्श्वनाथ मति धातु-स. १५४४ वर्ष वैशाख सुदि पार्श्वनाथ काले पाषाण...सोमे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वति गच्छे सं० १४६० फाल्गुण सुदी ५ श्री काष्ठासंघे श्री गुणनन्दीसंघे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री जिन- कीति शिष्य यशः कीर्ति अग्रोतकान्वये.........पुत्र ववीचन्द्रदेव तत्प भ० विद्यानंदि मण्डलाचार्य श्री त्रिभु- जा भार्या थनो.........। वनकीति उपदेशात् सहेलवालान्वये साह ऊधा भार्या चन्द्रप्रभ मुख्यमूतिउदयसिरि तस्य पुत्र राम भार्या मनसिरि।
सं० १८२४ मिति फाल्गुण शुक्ला २ रविवासरे मूल वीसी पात-१ फट लम्बी ६ इंच चौड़ी-सं० संघे बलात्कारगणे सरस्वतिगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये गोपा१५२८ वर्षे ज्येष्ठ सुदि ८ सोमे काष्ठासंघे भ० मल- चल दुर्गे महाराज सुरेन्द्रभूषण विद्यमाने श्रमणाचल भ. (मलय) कीर्ति भ० गुणभद्राम्नाये जैसवाल पं० पदम- विजयकीति जिस्काय परमशिष्य पं० परमसुख भगीरथ सी भार्या रवीरा तत्पुत्र ५ सोनिग, दिनु, डालव, उपदेशानुसार प्रणमति नित्यम् । पदर्थ, मणघल प्रणमति प्रतिष्ठितं पदमसीह ।
इस मन्दिर में शास्त्र भण्डार भी है। परन्तु उसकी ७ पार्श्वनाथ मति धातु-साइज ६ इंच ऊंची ३ इंच व्यवस्था अच्छी नही है। कुछ ग्रथ दीपक ने खा लिए हैं।
चौड़ी सं० १३४३ वर्षे श्री शुभकीर्तिदेव, भार्या जदु वेठन भी अच्छे नहीं हैं और यदि वेठन है तो उन पर गत्ते पुत्र नरपति प्रणमति ।
नही है, जिससे उनका वन्धन ठीक हो सके। स्थिति से - धातु मति-२ इंच ऊंची डेढ़ इच चौड़ी-स० यह स्पष्ट पता चलता है कि समाज की अत्यन्त उपेक्षा १५२५ ।
है। जनता को धर्म से वह प्रेम नहीं है, जैसा पहले था। ६ पार्श्वनाथ मूर्ति धातु-५ इंच ऊंची, ३ इंच चौड़ी
प्राशा है ग्वालियर समाज शास्त्र भण्डार की उचित स० १४१० माघ सुदि १२ श्री मूलसंघे श्री पद्मनन्दि
व्यवस्था करेगी। यदि व्यवस्था नही हो सकती तो वहाँ देवाः श्री पौरपाटान्वये साहो गिल भार्या लखमसी
का शास्त्र भण्डार के ग्रन्थ वीर सेवा मन्दिर को भिजवा तस्य पुत्र खिउपति....."नित्यं प्रणमति ।
दें। यहाँ उस की समुचित व्यवस्था हो जायगी। १. पार्श्वनाथ-२ इंच ऊंची, १ इंच चौड़ी-सं०९२५ ११ पातु मूर्ति-२ इंच-१ इच-सं० १३५२ वैशाख वासुपूज्य पंचायतीमन्दिर ग्वालियर सुदि १२।
___इस मन्दिर में तीन वेदिका हैं, जिनमें प्रथम वेदी में १२ पातु मूर्ति पार्श्वनाथ-३ इंच ऊंची, २ इंच चौड़ी।
२८ मूर्तियां विराजमान हैं जिनमें १२ मूर्ति पाषाण की सं० १४०३ माघसुदि ५ भ० देवसेन अग्रोतकसाह
ह हैं, और १६ धातु की। कुल २८ मूर्तियां विद्यमान हैं। जसोजा पुत्र पाणि भा० परसाला.........।
उनमें कुछ मूर्तियों के लेख निम्न प्रकार हैं:पानाव-२ इंच ऊंची चौड़ाई १ इंच धातु सं०
___सं० १५३७ वैशाख सुदी १० काष्ठासंघे भ० गुण१५०८। पातु-२ इंच ऊंची १ इंच चौड़ी
भद्र जैसवाल सा० वी स्त्री वधती, पुत्रौ दो लखनसी सं० ११०५
वेणुसिरि पुत्र जी महेश बल्लसाह पुत्र सरूपा गुपाल,
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गोपालसहाय स्त्री सहणू प्रतिष्ठा कारापिता ।
वालर के कुछ मूर्ति यंत्र लेख
पुत्र हेमचन्द रामचन्द चौधरी
पाषाणमूर्ति - १।। फुट ऊंचाई चोड़ाई १५ इंच
सं० १४७० वर्षे उद्दण्डधारा श्रीउदय राज्य देवराज्ये चौहानवंशे श्रीमूलसंघे नंद्याम्नाये बलात्कार गणे सरस्वती मक्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनन्दिदेव तत्पट्टे (पढ़ा नही जाता )
चन्द्रप्रभु मूर्ति - १॥ फुट ऊंचाई ११ फुट चौड़ाई । सं० १५३० माघ सुदि १० गुरौ श्री गोपाचले महाराजाधिराजकीर्तिदेव विजयराज्य प्रवर्तमाने भ० श्री मलय कीर्ति तत्पट्टे भ० गुणभद्र" जिनदास मल्लिदास उपदेशात्
मंत्र
सं० १६०० फाल्गुन वदि १ मूल संघे भ० ललित कीर्ति देवास्तत्पट्टे भ० रत्न कीर्तिदेवोपदेशात् जैसवालावये कणपुरिया गोत्रे हासू भा० खरगादे तत्पुत्रास्त्रयाः आसकरण, हरिमलजाणी मथुरा ऐते नित्य प्रणयति ।
वेदी नं० २ – इसमें पाषाणमूर्ति २३, चरण १ धातु मूर्ति छोटी-बडी ९५ हैं, जिसमें से कुछ मुख्य सूर्तियों के लेख नीचे दिए जाते है :
शान्तिनाथ - २ फूट ऊंची १ ॥ फूट चौड़ाई
१ संवत् १५१४ वैशाख सुदि १० काष्ठा संघे श्री भट्टारक मलकीर्ति श्री भ० गुणभद्राम्नाये...... (शेष पढ़ा नहीं जाता )
२ बाहुबली धातु-४ इंच ऊंची खड्गासन २ इंच चौड़ी सं० १५२२ माघ सुदि १३ मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे भ० जिनचन्द्र देवा भ० सिंहकीर्तिदेवा: श्री खेमचन्द्र तत्शिष्यती
।
३ सहस्रकूट चैत्यालय - ६ इंच ऊँची ४ इंच चौड़ाई
सं० १५०६ चैत्रसुदि ११ शुक्रवारे मूलसंघे भ० जिनचन्द्राम्नाये......।
४ पंचमेरू – १५ इंच ऊँची ३ इंच चौड़ी
सं० १७२५ मार्ग शीर्ष पंचमी शुक्रे श्री माथुर संघ पुष्करगणे लोहाचार्यन्वये श्री कुमारसेनदेवा श्रुतकीर्ति मेकीति भ० गुणभद्राम्नाये प्रग्रोतकान्वये गर्ग गोत्रे हेममल्ल भार्या रामदेवी......।
५ चतुविशति धातु - १ फूट ऊंचाई ६ इंच विस्तार
सं० १५३० वैशाखसुदि १३ वेदी नं० ३
१२३
१
इस वेदी में कुल ६८ मूर्तियां हैं जिसमें पाषाण मूर्ति पद्मासन २८ धातु की ४० और १ सिद्ध परमेष्ठी खड्गासन धातुमूर्ति संभवनाथ - ६ इंच ऊँचाई ३ इंच चौड़ाई स० १५४९ [ वर्षे ] फागुनसुदि ११ भौमे म० त्रिभुवनकीति सा० माधो भार्या करमा पुत्र रतन... धातु चोवीसी-६ इंच ऊंचाई ४ इंच चौड़ी २ सं० १५२२ वर्षे..सुदि १३ मूलसंघे श्री जिनचन्द्रदेवा तत्पट्टे सिंहकीर्तिदेवा पोरवाडान्वये सा० ऊदा भार्या छेमा पुत्र सा० सन्तोष भा० खोम्हदे पुत्र हल्यू.......
३
water मूर्ति धातु - ६ इंच ऊँचाई १|| चौड़ाई सं० १६६० वर्षे फाल्गुणमासे......।
चौवीसी धातु - ६ इंच ऊची, १॥ चौड़ाई
४
सं० १५२७ वर्षे माह वदि ५ शुक्ले मूलसंघे भ• सिहकीर्ति देवा जैसवालान्वये ......।
५
पार्श्वनाथ धातु - १० इंच ऊंचाई, ५ इंच चौड़ी स० १५२६ वैशाख सुदि ७ बुधवासरे मूलसंघे भ सिंह कीर्तिदेवा सा० जोगिन्दु भा० खाम्हदे पुत्र राम [ चन्द ] भा० गुणसिरि पुत्र करमू भार्या द्योमा पुत्र...... भा. पृथिवी ।
धातु पंचवालयति - ६ इंच ऊंची, ६ इंच चौड़ी ६ सं० १०३२ वैशाख सुदि ३ गुरुवासरे शुभे.......
इस मन्दिर में एक शास्त्रभंडार भी है, जिसमें डेढ़सी दो सौ के लगभग ग्रंथ हैं। उन्हें देखने का अवसर नहीं मिल सका । कारण कि शास्त्र भंडार दिखाने की व्यवस्था करने वाले मक्सीजी पार्श्वनाथ के मेले में चले गए थे। ग्वालियर के प्रास-पास के स्थानों में महत्वपूर्ण सामग्री पड़ी है, परन्तु जैन समाज को उसके संकलित करने या विद्वानों को दिखाने के लिए अवकाश ही नहीं मिलता। और न वे स्वयं ही उसका उपयोग कर सकते हैं ।
समाज के हितैषियों भौर जैनधर्म के प्रेमियों से निबेदन है कि वे इस घोर अपना लक्ष्य देकर महत्वपूर्ण सामग्री को नष्ट होने से बचाने का यत्न करें। और हस्तलिखित ग्रंथों को वीर - सेवा मन्दिर में भिजवाने का कष्ट करें, जिससे उनका संरक्षण हो सके । *
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अनेकान्त मुनि श्री उदयचन्द जो म० सिद्धान्तशास्त्री
अनेकान्त में भी अनेकान्त :
जाता है, उसी को असत् भी कहा जाता है अतएव भनेअनेकान्त में विविध और निषेध रूप सप्तभंगी की कान्त बाद छलमात्र है। प्रवृत्ति होती है या नहीं? अगर प्रवृत्ति होती है तो अनेकात
समाधान :-नहीं, अनेकान्त में छल का लक्षण का निषेध करने पर एकान्त की प्राप्ति होगी और एकान्त
घटित नहीं होता। किसी दूसरे अभिप्राय से बोले हुए में कहे हुए समस्त दोष पाजाएंगे। यदि अनेकान्त में
शब्द का दूसरा ही कोई अभिप्राय कल्पित करके उस सप्तभगी की प्रवृत्ति नहीं होती तो आपके सिद्धान्त मे
कथन का खडन करना छल कहलाता है। जैसे देवदत्त के बाधा पाएगी।
पास नया कम्बल देख कर किसी ने कहा-देवदत्त नब प्रमाण और नय की अपेक्षा से अनेक न्त मे भी सप्त
कम्बलवान है। दूसरे ने "नव" शब्द का "नौ" अर्थ मान भगी की प्रवृत्ति होती है। एकान्त दो प्रकार का है
कर कहा-बेचारे दरिद्र देवदत्त के पास नो कबल कहाँ सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त । इसी प्रकार अनेकान्त के भी दो भेद है।
___इस प्रकार अर्थान्तर की कल्पना करने पर छल होता प्रमाण से अनेक धर्म वाली वस्तु में से एक धर्म को
है । अनेकान्तवाद में इस तरह अर्थान्तर की कल्पना नहीं ग्रहण करने वाला किन्तु दूसरे धर्मों का निषेध न करने
की जाती, इस कारण अनेकान्त वाद छल नही है। वाला सम्यक् एकान्त कहलाता है। एक धर्म को ग्रहण दूसरे धर्म का निषेध करने वाला मिथ्या-एकान्त कह- अनेकान्त संशय का कारण नहीं : लाता है।
शंका-एक वस्तु मे परस्पर विरोधी अस्तित्व तथा एक वस्तु में अस्तित्व-नास्तित्व प्रादि अनेक धर्मों को नास्तित्व आदि धर्मों का होना सभव नही, अतः अनेकान्तजो स्वीकार करे और प्रत्यक्ष अनुमान प्रादि प्रमाणों से वाद संशय का कारण है। एक ही वस्तु में परस्पर अविरुद्ध, वह सम्यग-अनेकान्त है। जो प्रत्यक्षादि प्रमाणो विरोधी अनेक धर्मों का ज्ञान होना सशय है। एक ही घट से विरुद्ध अनेकान्त धर्मों को एक वस्तु में स्वीकार करता में परस्पर विरुद्ध धर्मों का अनेकान्तवाद ज्ञान कराता है, है, वह मिथ्या अनेकान्त है।
प्रतएव वह सशय का कारण है ? नय सम्यक एकान्त है, नयाभास मिथ्या एकान्त है। समाधान :-जब सामान्य का प्रत्यक्ष हो, विशेष प्रमाण अनेकान्त है और प्रमाणभास मिथ्या-अनेकान्त है। का प्रत्यक्ष न हो किन्तु विशेष का स्मरण हो, सशय उत्पन्न
इस प्रकार हम सम्यकएकान्त और सम्यक्अनेकान्त होता है। अनेकान्त वाद मे तो विशेष का ज्ञान होता है, को स्वीकार करते हैं, अत: इसमें भी सप्तभंगी की प्रवृत्ति अतएव वह संशय का कारण नहीं है। वस्तु में स्वरूप से होती है। यथा (१) स्यात् एकान्त, (२) स्यात्-प्रनेकान्त सत्ता है, पर रूप से प्रसत्ता है। इस प्रकार के विशेष की (३) स्यात्-एकान्तानेकान्त, (४) स्यात्-प्रवक्तव्य, (५) उपलब्धि होने के कारण अनेकान्तवाद को संशय का स्पात्-एकान्तवक्तव्य, (६) स्यात्-अनेकान्त वक्तव्य और कारण कहना उचित नहीं है। (७) स्यात्-एकान्तानेकान्त प्रवक्तव्य ।
शंका :-घटादि में अस्तित्व मादि धर्मों के साथ हेतु अनेकान्त छल नहीं है--
विद्यमान है अथवा नहीं ? अगर विद्यमान नहीं है तो शंका:-अनेकान्त वाक्य में जिस वस्तु को सत् कहा उन धर्मों का प्रतिपादन नहीं करना चाहिए। यदि सापक
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अनेकान्त
हेतु विद्यमान है तो परस्पर विरुद्ध धर्मों के साधक हेतु भी माता है। होने से संशय अवश्य उत्पन्न होगा।
समाधान :- भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से यदि अस्तित्व और नास्तित्व की विवक्षा की जाती है तो उनमे विरोध रहता ही नही है । जैसे एक ही देवदत्त को पिता की अपेक्षा पुत्र और पुत्र की अपेक्षा से पिता मानने मे कोई विरोध नही, उसी प्रकार घट मे स्वरूप से अस्तित्व और पररूप से नास्तित्व मानने में भी कोई विरोध नहीं है। अथवा जैसे एक हेतु मे पक्षसत्व और विपक्षत्व दोनों धर्म माने गए है, वैसे ही घटादि मे भी ये दोनो धर्म रहते है।
अनेकान्त में प्राठ दोष :
अनेकान्त मेाठ दोष आते है । वे इस प्रकार है१. एक ही वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व धर्म सम्भव नहीं, क्योंकि वे परस्पर विरोधी है जहाँ अस्तित्व है वहीं नास्तित्व का विरोध है, जहाँ नास्तित्व है वहीं अस्तित्व का "विशेष दोष" है ।
२. अस्तित्व का अधिकार (आधार) अलग और नास्तित्व का अधिकरण अलग होता है, अतएव यषि करणदोष" है।
३. जिस रूप से अस्तित्व है और जिस रूप से नास्तित्व है, वे रूप भी पस्तित्व नास्तित्व रूप है। उन्हें भी स्वरूप से सत् और पररूप से असत् मानना होगा । इस प्रकार स्वरूप और पररूप की कल्पना करते-करते कही विराम नही होगा, ग्रतः "अनवस्था दोष प्राता है ।
"
४. जिस रूप से सत्ता है उस रूप से प्रसत्ता भी मानी जाएगी। जिस रूप से असता है उस रूप से सत्ता भी माननी पड़ेगी । यतः "संकर दोष" धाता है।
५. जिस रूप से सरल है उस रूप से असत्य ही होगा, सत्त्व नही और जिस रूप से ग्रसत्व है उस रूप से सत्व ही होगा, श्रसत्व नहीं होगा। इस प्रकार "व्यतिकर दोष" को प्राप्ति होगी।
१२५
८. प्रप्रतिपत्ति के कारण सत्व-प्रसत्त्व रूप वस्तु का प्रभाव हो जाएगा, अतः "प्रभाव दोष" माता है । इन दोषों का परिहार इस प्रकार है :
विरोध की सिद्धि अनुपलम्भ से होती है, अर्थात् जो दो पदार्थ एक साथ न रह सकते हो उनमें विरोध माना जाता है। यहाँ विरोध नहीं है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ मे स्वरूप से सत्ता और पररूप से प्रसता प्रतीत होती है । प्रतीय मान वस्तु मे विरोध माना जाता।
अकेला सत्व ही वस्तु का स्वरूप नहीं है, ऐसा मानने पर पररूप से भी उसमे सत्त्व मानना पड़ेगा। तब प्रत्येक पदार्थ सर्वात्मक हो जाएगा। इसी प्रकार यदि एकान्त रूप से असत्व को पदार्थ का स्वरूप माना जाय तो सभी पदार्थ असत् हो जाएँगे। ऐसी स्थिति मे सर्व शून्यता का प्रसंग होगा अर्थात् किसी भी पदार्थ की सत्ता नही होगी । श्रतएव प्रत्येक पदार्थ को सत् - श्रसत् स्वरूप ही मानना पुक्ति संगत है। विरोध के तीन भेव :
।
विरोध तीन प्रकार का होता है- ( १ ) बध्यघातक भाव, ( २ ) सहानवस्थान और (३) प्रतिबद्धघ- प्रतिबंधकभाव ।
(१) बध्यघातक भाव - विरोध सर्प और नकुले में तथा भाग और पानी में होता है। एक ही काल मे दोनों मौजूद हो और उनका सयोग हो तभी यह विरोध होता है। धापके मतानुसार सत्य और असत्व क्षण भर के लिए भी एक पदार्थ में नही रहते। फिर उनका विरोध है, यह कल्पना कैसे की जा सकती है ?
1
(२) सहानवस्थान - विरोध भी सत्व श्रीर असत्व में नहीं कहा जा सकता। यह विरोध भिन्न-भिन्न काली में रहने वाले पदार्थों मे होता है जैसे ग्राम में हरि तता होती है तब पीतता नहीं होती, जब पीतता उत्पन्न होती है। तो हरितता को वह नष्ट कर देती है । अस्तित्व धौर नास्तित्व इस प्रकार पूर्वोत्तरकाल मावी नहीं है ।
६. वस्तु को सत्व और प्रसत्वरूप मानने से यह निश्चय नही हो सकता कि यह वस्तु ऐसे ही है । प्रतः स्याद्वाद में "संशय दोष" भी श्राता है ।
(३) प्रतिबद्धध- प्रतिबन्धकभाव-विरोध भी सत्व
७. संशय होने से अनिश्चय रूप " प्रप्रतिपत्ति दोष" श्रोर सत्य और असत्व में नहीं है । चन्द्रकान्तमणि की
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अनेकान्त
निकटता में अग्नि दाह नहीं करती, इस कारण चन्द्र- शंका-किसी भी वस्तु में स्वरूप से जो सत्व है, कास्तमणि और दाह में यह विरोष माना जाता है। वही पररूप से असत्व है। इस प्रकार एक वस्तु में सत्व किन्तु अस्तित्व के समय नास्तित्व में कोई प्रतिबन्ध नहीं और असत्व का भेद नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक वस्तु हाता और नास्तित्व के समय अस्तित्व में कोई रुकावट को भाव-प्रभाव रूप कसे कहा जा सकता है ? नहीं पाती, अतएव उनमें प्रतिवन्ध्य-प्रतिबन्धक भाव
समाधान :-सत्व और प्रसत्व दोनों एक नहीं है, विरोध भी नहीं कहा जा सकता। पदार्थ में जब स्वरूप क्योंकि उनके अपेक्षणीय है निमित्त अलग-अलग है। स्व से अस्तित्व होता है तभी पररूप से नास्तित्व भी रहता द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से प्रभाव प्रत्यय है यह बात प्रतीति से सिद्ध है।
को उत्पन्न करता है। इस प्रकार भाव और प्रभाव में ____सत्व और प्रसत्व में वैयधिकरण्य दोष भी नही है, भेद है। क्योंकि ये दोनों एक ही अधिकरण में रहते हैं, यह बात जैसे एक ही वस्तु में अपनी अपेक्षा से एकत्व संख्या अनुभव सिद्ध है।
रहती है और दूसरी वस्तु की अपेक्षा से द्वित्व सख्या रहती अनवस्था दोष के लिए भी गुंजाइश नहीं, क्योंकि जैन है। ये दोनों संख्याएं परस्पर भिन्न है, उसी प्रकार सत्व अनन्त धर्मात्मक वस्तु को प्रमाण से सिद्ध स्वीकार करते और असत्व को भी भिन्न ही समझना चाहिए। हैं। वहां प्रनवस्था दोष नही होता है जहां अप्रमाणिक पदार्थों शंका:-एक ही वस्तु में सत्व और असत्व की प्रतीति की कल्पना करते-करते बिधान्ति न हो वहां होता है। मिथ्या है। संकर और व्यतिकर दोषों को भी अनेकान्तवाद मे
समाधान :-नहीं, उनकी प्रतीति में कोई बाधा नहीं कोई स्थान नही है, क्योंकि जो वस्तु प्रतीति से जैसे सिद्ध है । अतः उस प्रतीति को मिथ्या नही कह सकते । कदाहोती है, उसमें किसी भी प्रकार का दोष नहीं पा सकता। चित् कहो कि विरोध बाधक है तो यह कथन पर पराश्रय सशय मादि का परिहार पहले किया जा चुका है।
दोष से दूषित है। विरोध हो तो वह प्रतीति मिथ्या सिद्ध
दाष स द्वाषत ह । विराष हा ता वह प्रतएव पूर्वोक्त पाठ दोषों में से कोई भी दोष अनेकान्त में हो और जब प्रतीति मिथ्या सिद्ध हो जाय तब विरोध नहीं पाता है।
की सिद्धि हो। कुछ शंका-समाधान :
इसके अतिरिक्त विरोध दोष का परिहार अन्यत्र शंका:-पर रूप से प्रसत्व का अर्थ है-पररूपा
किया जा चुका है। सत्व । घट यदि पराभाव रूप है तो यों कहना चाहिए
अनेकान्त सर्वमान्य :घट है, पट नहीं है।
वास्तव में अनेकान्त वाद को सभी वादियों ने स्वीसमाधान-घटादि में जो पट रूपा सत्व है वह
कार किया है, क्योंकि सभी वादी वस्तु को एक रूप और प्रसत्व पटादि का धर्म है अथवा घट का धर्म है ? पटरूपा
अनेक रूप मानते है। सत्व पट का धर्म तो हो नहीं सकता, अन्यथा पट में पट
सांख्य-लोग सत्व, रज, और तम इन तीन गुणों स्वरूप का प्रभाव हो जाएगा। यदि घट का धर्म है तो की साम्य-प्रवस्था को प्रकृति मानते हैं। ये तीनों गुण हमारा कथन (कथंचित् घट नहीं है) उचित ही है।
भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले हैं। ये तीन मिलकर एक प्रकृति घट भाव-प्रभाव रूप सिद्ध हो गया तो हमारा अभीष्ट हैं। इस प्रकार इनके मत में वस्तु एक-अनेक स्वरूप वाली सिद्ध हो गया। हम घट को कथंचित् प्रभावरूप सिद्ध सिद्ध होती है। समुदाय और समुदायि में प्रभेद होता है। करना चाहते हैं। प्रब रही शास्त्रों के प्रयोग की बात कि यहां समुदायी तीन हैं और उनका समुदाय एक है। इस कैसा बोलना चाहिए? सो यह तो परम्परा पर निर्भर है। प्रकार एक ही वस्तु में एकत्व और अनेकत्व सिद्ध है। जैसा पहले बाले शब्द प्रयोग करते पा रहे हैं, वैसा ही नैयायिक-द्रव्यत्व, गुणत्व मादि को सामान्य विशेष्य हम भी करते है इसमें प्रश्न के लिए अवकाश नहीं है। अर्थात् मपर सामान्य स्वीकार करते हैं, क्योंकि वह अनु.
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बारह प्रकार के संभोग पारस्परिक व्यवहार
मुनि श्री नथमल जी
संभोग बारह प्रकार का है
तप-इन उत्तरगुणों के सम्बन्ध में 'संभोग' और 'विसंभोग' १. उपधि ७. अभ्युत्थान
की व्यवस्था निष्पन्न हुई थी। निशीथ चूर्णिकार ने एक २. श्रुत
८. कृतिकर्मकरण (वन्दना) प्रश्न उपस्थित किया है कि "विसंभोग' उत्तरगुण में होता ३. भक्त-पान ६. वैयावृत्यकरण (सहयोग- है या मूल गुण में ? इसके उत्तर में प्राचार्य ने कहादान)
"वह उत्तर गुण में होता है।" मूलगुण का भेद होने पर ४. अंजलिप्रग्रह (प्रणाम)१०. समवसरण (सम्मिलन) साधु ही नहीं रहता, फिर संभोगिक पौर विसंभोगिक का ५. दान
११. सनिषद्या (मासन-विशेष) प्रश्न ही क्या ? ६. निकाचन (निमंत्रण) १२. कथा-प्रबन्ध ।
सभोग और विसंभोग की व्यवस्था का प्रारम्भ कर संभोग का अर्थ है पारस्परिक व्यवहार
से हमा, सहज ही यह जिज्ञासा उभरती है। निशीथ ___इस शब्द में श्रमण परम्परा में होने वाले अनेक परि. के चूणिकार ने इस जिज्ञासा पर विमर्श किया वर्तनों का इतिहास है। भोजन, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और है। उनके अनुसार पहले भद-भरत (उत्तर भारत)
में सब सविग्न साधुनों का एक ही संभोग था, फिर वृति प्रत्यय और व्यावृत्ति प्रत्यय-दोनों का विषय है। इस
कालक्रम से संभोग और असंभोग की व्यवस्था हुई मौर तरह इन्होंने भी एक ही परार्थ को सामान्य विशेषात्मक
उसके माधार पर साधुनों की भी दो कक्षाएं, साभोगिक स्वीकार किया है।
और प्रसांगभोगिक बन गई। बौद्ध-एक मेचक ज्ञान को अनेक प्राकारों (नीला
चूणिकार ने फिर एक प्रश्न उपस्थित किया है कि कार, पीताकार, रक्ताकार आदि प्राकारों) वाला स्वी
कितने प्राचार्यों तक एक संभोग रहा और किस प्राचार्य कार करते है। इस प्रकार इन्होंने भी एक ही ज्ञान को
के काल मे असंभोग की व्यवस्था का प्रवर्तन हुमा ? एक-अनेक रूप माना है। चार्वाक-पृथ्वी, जल, तेज और वायु-इन चार
इसके उत्तर में भाष्यकार का अभिमत प्रस्तुत करते भूतों से एक चैतन्य की उत्पत्ति होना मानते है। इस १. निशीथ भाष्य गाथा २०६६ (निशीथ सूत्र, द्वितीय प्रकार चैतन्य, पृथ्वी प्रादि चार भूतों से भिन्न है। यह विभाग) पृ० ४३१ । भी एक ही वस्तु को अनेक रूप मानना है।
सभोगपरूवणता सिरिघर-सिवपाहडे य संभुते । मीमांसक-मत के अनुसार एक ही ज्ञान के तीन दसणणाणचरित्ते, तवहे उत्तर गुणेसु ॥ पाकार होते है-प्रमातृ-प्राकार, प्रमिति-प्राकार, और २. निशीथ चूणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), प्रमेय-प्राकार, । इस प्रकार इनकी मान्यता के अनुसार एक पृ० ३६३ । ज्ञान अनेक प्राकारों वाला है। ज्ञान के ये अनेक प्राकार विसभोगो कि उत्तरगुणे मूलगुणे ? शाम से भिन्न है। अतः यह एक को अनेक रूप मानना मायरिमो भणति-'उत्तरगुणे।' कहलाया।
३. निशीथ चूणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय भाग),पृ. ३५६ : इस प्रकार अनेकान्त वाद की प्रक्रिया सभी दर्शनों को एस य पुव्वं सव्वसं विग्गाणं अड्ढभरहे एक्क स्वीकार करनी ही पड़ती है। उसे स्वीकार किए बिना सभोगो प्रासी, पच्छा जाया इमे सभोइया इमे काम नहीं चल सकता।
प्रसंभोइया।
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अनेकान्त
हुए उन्होंने लिखा है-"भगवान महावीर के प्रथम पट्ट- तब फिर दोनों का संभोग एक हो गया। यह संभोग और धर सुधर्मा थे। उनके उत्तरवर्ती क्रमशः जम्बू, प्रभव, विसंभोग की व्यवस्था का पहला निमित्त है । प्रार्य महाशय्य भव, यशोभद्र, सभूत और स्थूलभद्र-ये प्राचार्य हुए गिरि ने पाने वाले युग का चिन्तन कर सभोग और विसं. हैं । इनके शासनकाल में एक ही सभोग रहा है।" भोग की व्यवस्था को स्थायी रूप प्रदान कर दिया। स्थूलभद्र के दो प्रधान शिष्य थे, प्रार्य महागिरि
दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप-- इनसे सम्बन्धित और प्रार्य सुहस्ती। इनमें प्रार्य महागिरि ज्येष्ठ थे और .
सभोग और असभोग का विकास कब हुआ, इसका उल्लेख प्रार्य सुहस्ती कनिष्ठ । आर्य महागिरि गच्छ-प्रतिबद्ध-जिन ।
प्राप्त नही है। आर्य महागिरि ने सभुक्त-सभोग की कल्प-प्रतिमा वहन कर रहे थे और आर्य सुहस्ती गण का
व्यवस्था के साथ ही इनकी व्यवस्था की या इनका विकास नेतृत्व सभाल रहे थे। सम्राट् संप्रति ने कार्य सुहस्ती के
उनके उत्तरवर्ती काल मे हुआ यह निश्चयपूर्वक नही कहा लिए आहार, वस्त्र मादि की व्यवस्था कर दी। सम्राट
___ जा सकता। नियुक्तिकाल में सभोग के ये विभाग स्थिर ने जनता में यह प्रस्तावित कर दिया कि आर्य सुहस्ती ने
हो चुके थे, यह नियुक्ति की गाथा (२०६६) से स्पष्ट है । शिष्यों को प्राहार वस्त्र, आदि दिया जाय और जो व्यक्ति
स्थानाग सूत्र के निर्देशानुसार पाँच कारणो से साभोउनका मूल्य चाहे, वह राज्य से प्राप्त करे । प्रार्य सुहस्ती
गिक को विसाभोगिक किया जा सकता है। यदि संभोग ने इस प्रकार का आहार लेते हए अपने शिष्यो को नहीं
की व्यवस्था प्रार्य महागिरि से मानी जाए तो यह स्वीकार रोका । आर्य महागिरि को जब यह विदित हुआ तब
विहित नया तब करना होगा कि स्थानाग का प्रस्तुत सूत्र पार्य महागिरि उन्होंने पार्य सुहस्ती से कहा-प्रार्य ! तुम इस राजपिंड के पश्चात् हुई पागम-वाचना में संदृब्ध है। इसी प्रकार का सेवन कैसे कर रहे हो? आर्य सहस्ती ने उसके उत्तर समवायाग का प्रस्तुत सूत्र भी (१२-१) ग्रार्य महागिरि में कहा-यह राजपिण्ड नहीं है । इस चर्चा में दोनों युग- के उत्तरकाल में सदृब्ध है। निशीथ भाप्यकार ने सभोग पुरुषों में कुछ तनाव उत्पन्न हो गया। प्रार्य महागिरि ने विधि के छ: प्रकार बतलाए है-प्रोप, अभिग्रह, दानकहा-"आज से तुम्हारा और मेरा संभोग नही होगा- ग्रहण, अनुपालना, उपपात और सवास'। इनमे से प्रोध परस्पर भोजन प्रादि का सम्बन्ध नहीं रहेगा। इसलिए सभोग-विधि के बारह प्रकार बतलाए गए है । समवायांग तुम मेरे लिए असांभोगिक हो।" इस घटना के घटित के प्रस्तुत दो श्लोको मे उन्ही बारह प्रकारो का निर्देश होने पर प्रार्य सुहस्ती ने अपने प्रमाद को स्वीकार किया, है। निशीथ भाष्य में भी ये दो श्लोक लगभग उसी रूप १. निशीथ चूणि ( निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग),
में मिलते है-- पृ० ३६०।
१. निशीथ चणि ( निशीथ सूत्र, द्वितीय भाग ), सीसौ पुच्छति-कति पुरिसजुगे एक्को सभोगो ततो अज्जमहागिरि अज्जसुहस्थि भणति-अज्जप्पपासीत् ? कम्मि वा पुरिसे असभोगो पयट्टो ? केण
भिति तुम मम असंभौतियो । एव पाहुड-कलह वा कारणेण?
इत्यर्थः । ततो अज्जसुहत्थी पञ्चाउट्टो मिच्छादुक्कड ततो भणति-संपतिरण्णुप्पत्ती सिरिधर उज्जाणि करेति, ण पूणो गेण्हामो। एवं भणिए सभुत्तो। एत्थ हे? बोधव्वा।
पूरिसे विसंभोगो उप्पण्णो। कारण च भणियं । ततो अज्जमहागिरि इत्थिप्पमिती जाणह विसंभोगो ॥ अज्जमहागिरी उव उत्तो. पाएण मायाबहुलाभण्यत्ति
२१५४॥ काउविसंभोगं ठवेति । वद्धमाणसामिस्स सीसो सोहम्मो। तस्स जंबुणामा । २. स्थानांग ५.४००। तस्स वि पभवो। तस्स सेज्जभवो । तस्स वि सीसो ३. निशीथ भाष्य, गाथा २०७० । जस्सभद्दो। जस्सभद्दसीसो संभूतो। संभूयस्स थूल- श्रोह अभिग्गह दाणग्गहणे अणुपालणा य उववातो । भद्दो । थूलभद्दजाव सम्वेसि एक्कसभोगो पासी। संवासम्मि य छट्टो, संभोगविधी मुणेयव्वो।।
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बारह प्रकार के संभोग (पारस्परिक व्यवहार
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उवहि सुत मत्तपाणो, अंजलीपग्गहेति य। गिक साधुनों की वन्दना की जाती है। साध्वी को साधु दावणा यणिकाएव, अब्भटठाणेति यावरे ।२०७१। वन्दना नहीं करते । साध्वियों पाक्षिक क्षमा याचना मादि कितिकम्मस्स य करणे, वेयावच्चकरणेति य । कार्य के लिए साधुमों के उपाश्रय मे जाती हैं, तब साधुनों समोसरण सणिसेज्जा, कथाए य पबंधणे ।२०७२। को वन्दना करती हैं। जब वे भिक्षा मादि के लिए जाती
निशीथ भाष्य के अनुसार स्थितिकल्प, स्थापनाकल्प हैं तब मार्ग में साधुनों के मिलने पर उन्हें वन्दना नहीं मोर उत्तरगुणकल्प-ये कल्प (माचार-मर्यादा) जिनके करती है। समान होते हैं, वे मुनि सांभोगिक कहलाते है और जिन वान-संभोगमुनियों के ये कल्प समान नही होते वे असांभोगिक या इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधुनों विसांभोगिक कहलाते है।
को शय्या, उपधि, पाहार, शिष्य प्रादि दिये जाते है । उपषि-संभोग
सामान्य स्थिति में साध्वी को शय्या, उपधि, पाहार मादि इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधुनों नहीं देते। के साथ उपधि-ग्रहण की मर्यादा के अनुसार उपधि का निकाचना-संभोगसंग्रह किया जाता है। निशीथ भाष्य के अनुसार सांभो- इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधुमों गिक साध्वी के साथ निष्कारण अवस्था मे उपधि-याचना को उपधि, आहार आदि के लिए निमन्त्रित किया जाता का संभोग वजित है। श्रुत-संभोग
अभ्युत्थान-संभोग__ इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधुनों इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधुओं को याचना दी जाती है। वाचनाक्षम प्रतिनी के न होने को अभ्युत्थान का सम्मान किया जाता है । पर प्राचार्य साध्वी को वाचना देते है'।
कृतिकर्मकरण-संभोगभक्त-पान-संभोग
इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साघुमों इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधुमो का कृतिकर्म किया जाता है । इसमें खड़ा होना, हाथों से के साथ एक मण्डली भोजन किया जाता है । समान कल्प आवत्तं देना, सूत्रोच्चारण करना आदि अनेक विधियों का वाली साध्वी के साथ एक मण्डली में भोजन नही किया पालन किया जाता है। जाता।
वैयावत्यकरण-संभोगअंजलि-प्रग्रह संभोग
इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधुओं इस व्यवस्था के अनुसार सांभोगिक या अन्य सांभो- को सहयोग दिया जाता है। शारीरिक और मानसिक १. वही, गाथा २१४६ ।
सभी प्रकार की समस्याओं के समाधान में योग देना वैयाठितिकप्पम्मि दसविहे, ठवणाकप्पे य दुविधमण्णयरे।
वृत्यकरण है। जैसे आहार, वस्त्र प्रादि देना शारीरिक उत्तरगुणकप्पम्मि य, जो सरिकप्पो स सभोगो।। उपष्टभ है, वैसे ही कलह आदि के निवारण में योग देना २. निशीथ भाष्य, गाथा २०७८ ।
मानसिक उपष्टंभ है। सांभोगिक साध्वियों को यात्रा-पथ ३. निशीथ चुणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), ५. वही, पृ० ६४६ । पृ० ३४७ ।
६. वही, पृ० ३४६ । संजतीण जइ प्रायरिय मोत अण्णा पवतिणीमाती ७. नशीथ चूणि (निशीथसूत्र, द्वतीय विभाग), वायंत्ति णत्यि, मायरियो वायगातीणि सवाणि पृ० ३५० : एताणि देति न दोसः ।
८. वही, पृ० ३५० । ४. वही, पृ० ३४८ ।
६. वही, पृ० ३५१ ।
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प्रादि विशेष स्थिति में सहयोग दिया जाता है। द्रव्यास्तिकनय कथा। इसी प्रकार निश्चय कथा के भी दो समवसरण-संभोग
प्रकार हैं-प्रपवाद कथा भौर पर्यायास्तिकनय कथा । इस व्यवस्था के अनुसार समान कल्प वाले साधु एक प्रथम तीन कथाएं साध्वियों के साथ नहीं की जाती किंतु साथ मिलते हैं। प्रवग्रह की व्यवस्था भी इसी से अनु- अन्य-प्रसांभोगिक, अन्यतीथिक व गृहस्थ सभी के साथ स्यूत है। प्रवग्रह (अधिकृत स्थान) तीन प्रकार के होते की जा सकती है। है-वर्षा-प्रवग्रह, ऋतुबद्ध-अवग्रह और वृद्धवास-प्रवग्रह। इस प्रकार इन बारह संभोगों के द्वारा समानकल्पी अपने सांभोगिक साधुओं के प्रवग्रह में कोई साधु जाकर साधु-साध्वियों तथा असमानकल्पी साधूत्रों के साथ व्यवशिष्य, वस्त्र प्रादि का जान-बूझकर ग्रहण करता है तथा हार की मर्यादा निश्चित की गई है। इन व्यवस्थानों का अनजान में गृहीत शिष्य, वस्त्र प्रादि अवग्रहस्थ साधुनों अतिक्रमण करने पर समानकल्पी साधु का सम्बन्ध-विच्छेद को नहीं सौपता तो उसे असांभोगिक कर दिया जाता। कर दिया जाता। उदाहरण के लिए उपघि-संभोग की पार्श्वस्थ पादि का प्रवग्रह शुद्ध साधुनों को मान्य नहीं व्यवस्था प्रस्तुत की जा रही हैहोता, फिर भी उनका क्षेत्र छोटा हो मोर क्षुब्ध साधुओं कोई साधु उपषि की मर्यादा का प्रतिक्रमण कर का अन्यत्र निर्वाह होता हो तो साधु उस क्षेत्र को छोड़ उपधि ग्रहण करता है। उस समय दूसरे साधुभों द्वारा देते हैं। यदि पार्श्वस्थों मादि का क्षेत्र विस्तीर्ण हो और सावधान करने पर वह प्रायश्चित् स्वीकार करता है तो शद्ध साधूमों का अन्यत्र निर्वाह कठिन हो तो उस क्षेत्र में उसे विसांभोगिक नही किया जाता। इस प्रकार दूसरी साधू जा सकते है और शिष्य, वस्त्र प्रादि का ग्रहण कर और तीसरी बार भी सावधान करने पर वह प्रायश्चित सकते हैं।
स्वीकार करता है तो उसे विसाभोगिक नही किया जाता। संनिषधा-संभोग
किन्तु चौथी बार यदि वह वैसा करता है तो उसे विसांइस व्यवस्था के अनुसार दो सांभोगिक प्राचार्य भोगिक कर दिया जाता है। जो मुनि अन्य सांभोगिक निषद्या पर बैठकर श्रुत-परिवर्तना प्रादि करते है। साधुनों के साथ शुद्ध या अशुद्ध-किसी भी प्रकार से उपधि कथा-प्रबन्ध-संभोग
ग्रहण करता है और सावधान करने पर वह प्रायश्चित इसके द्वारा कथा सम्बन्धी व्यवस्था दी गई है। कथा स्वीकार नही करता तो उसे प्रथम बार ही विसांभोगिक के पांच प्रकार हैं-बाद, जल्प वितण्डा, प्रकीर्णकथा और किया जा सकता है और यदि वह प्रायश्चित स्वीकार कर निश्चयकथा प्रकीर्णकथा के दो प्रकार हैं-उत्सर्ग कथा और लेता है तो उसे विसाभोगिक नहीं किया जा सकता।
चौथी बार वैसा कार्य करने पर पूर्वोक्त की भांति उसे १. वही, पृ० ३५१; समवायांग वृत्ति, पत्र २२।
विसांभोगिक कर दिया जाता है। यह उपधि के प्राधार २. निशीथ चूणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), पृ० __३५३; समवायांग वृत्ति, पत्र २२ ।
पर संभोगिक और विसभोग की व्यवस्था है। ३. वही, पृ० ३५४; समवायांग वृत्ति, पत्र २३ । ४. वही, पृ० ३५४, ३५५ । ५. वही, पृ० ३४२ ।
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सन् १६७१ कीजनगणना के समय धर्मके खाना नं. १० में जैन लिखाकर सही आँकड़े इकट्ठा करने में सरकार की मदद करें।
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हरिवंशपुराण की प्रशस्ति एवं वत्सराज
श्री रामवल्लभ सोमारणी
हरिवंशपुराण को पुन्नाट गच्छ के जिनसेनाचार्य ने नागभट्ट को राज्य विस्तार का मौका मिला था । लाट शक सं०७०५ मे पूर्ण किया था। इसकी बहुचचित के शासक अवनि जनाश्रय ने भी जुनैद से युद्ध किया था। प्रशस्ति में तत्कालीन भारत के राजामों का वर्णन है। उस समय कुछ समय के लिए अवन्ति प्रदेश नागभट्ट प्रथम इसको लेकर विद्वानों में बड़ा मतभेद रहा है। इसका के अधिकार में रहा था जिसे राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग ने सामान्यतः यह अर्थ लेते हैं कि उस समय पूर्व में अवन्ति हस्तगत कर लिया था और इसके बाद कुछ समय तक क्षेत्र में वत्सराज शासक था। पश्चिम में सौराष्ट्र में वहाँ वापस प्रतिहारों का अधिकार नहीं हो सका था। जयवराह शासक था। दक्षिण में श्री वल्लभ (ध्रुव
वत्सराज के समय बड़ी राजनैतिक उथल पुथल हो निरुपम) एवं उत्तर में इन्द्रायुध । “पूर्वा श्री मदवन्ति
रही थी। दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा गोविन्द द्वितीय को भूभृतिनृपे वत्सादिराजेऽपरां" पद का अर्थ यह भी लेते है
अपदस्थ करके उसका छोटा भाई ध्रुव निरुपम राज्य का कि पूर्व में प्रवन्ति का शासक एवं वत्सराज । प्रश्न यह है
अधिकारी हो गया था। भोर म्युजियम के शक सं० ७०२ कि वत्सराज अवन्ति का शासक था अथवा नही ! कई
(७८० ई.) के दानपत्र में वर्णित है कि ध्रुवराज ने विद्वान गुर्जर प्रतिहारों की इस शाखा कि राजधानी
मालवे के उस शासक को हराया जो उसके भाई के पक्ष अवन्ति मानते है किन्तु मै समझता हूँ कि यह मत गलत में था। यह वत्सराज से भिन्न था। गोविन्द तृतीय के
हार. शासक न इस शाखा राधनपुर' ७३० शकसं० (८०८ई०) एवं मन्ने के शकसं० की स्थापना की थी। पुरातन' प्रबन्ध संग्रह के एक वर्णन ७२४ (८०२ ई.) के दानपत्रों में उसके पिता ध्रुवराज के अनुसार इसकी राजधानी जालोर ही थी। इसके के लिए लिखा है कि उसने वत्सराज को हराया नहीं किन्तु उत्तराधिकारी कन्नौज राजधानी स्थिर होने तक यही से राजस्थान के रेगिस्तान की ओर बढ़ने को बाध्य कर शासन कर रहे थे। संजान के ताम्रपत्र में यह वर्णन है दिया। इसके पश्चात उसने आगे बढ़कर धर्मपाल को कि दन्तिदुर्ग ने जब अवन्ति में हिरण्य महायज्ञ किया था हराया और उसके छत्र और चवर छीन लिये। मालवे तब गर्जरेश्वर को द्वारपाल बनाया था इसी प्रकार वहाँ के शासक का उल्लेख गोविन्द तृतीय के उक्त दानपत्रों में गुर्जरेश्वर के महलों का भी उल्लेख मिलता है । गुर्जरेश्वर स्पष्टत: पाता है जो प्रतिहार शासकों से भिन्न था। को जो द्वारपाल के रूप में प्रतिष्ठापित किया वह केवल गोविन्द तृतीय के सामने उसने बिना युद्ध किये ही प्रात्ममूर्ति के रूप में रहा होगा। जयचंद ने भी इसी प्रकार समर्पण किया था। लेखों मे "नय प्रिय कह कर व्यग किया पृथ्वीराज की मूर्ति द्वारपाल के रूप में बना रखी थी। है। इस प्रकार स्पष्ट है कि उस समय प्रतिहारों का वहां परब माक्रमणकारी जुनैद के आक्रमण के बाद वस्तुतः अधिकार नही रहा था। अगर वत्सराज ने इसे कुछ १. अवंदादी नाहडतटाक कारयित्वा गर्जनप्रतोल्याः ।
समय के लिए जीत भी लिया हो तो उसकी यह विजय कपाटमादाय तत्र प्रचिक्षिपे । तथा जाबालिपरे राज- अस्थायी थी। वहां वत्सराज के अलावा कोई अन्य
धानिः कृता।" (पुरातनप्रबंध संग्रह भूमिका पृ० १५ . २. डा० दशरथ शर्मा-राजस्थान प्रदी ऐजज भाग १ ३. इंडियन एंटिक्वेरी Vol.5 एवं जैन लेख संग्रह भाग में प्रतिहारों का वर्णन ।
२ में प्रकाशित ।
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इस मत की पुष्टि के लिए कई सबल प्रमाण उपलम्प हैं। (१) राष्ट्रकूट राजा भुवनिरुपम के धाक्रमण के बाद धर्मपाल ने वत्सराज द्वारा जीते हुए कन्नौज शीघ्र के भासपास के प्रदेश को हस्तगत कर इन्द्रायुध के स्थान पर चक्रायुद्ध को वहाँ का अधिकारी बनाया। उस समय वहाँ एक बड़ा दरबार किया जिसमें कई प्रदेशों के शासक विद्यमान थे इनमें प्रवन्ति का शासक भी था जो वत्सराज से भिन्न था।'A
(२) ग्वालियर के राजा भोज के शिलालेख में वत्सराज के पुत्र नागभट्ट द्वितीय के वर्णन में उसे मानतं मालव यादि प्रदेशों को जीतने वाला दणित किया है। इससे स्पष्ट है कि श्रवन्ति मालव प्रदेश उस समय तक प्रतिहार साम्राज्य का भू भाग नहीं बना था ।
प्रनेकान्त
(३) कुवलयमाला की शकसं० ६१९ (७७८ ई० ) की प्रशस्ति में लिखा है कि भ्रष्टापद जैसे ऊंचे जालोर दुर्ग मे एक ऊंचे धवल मनोहर रत्नों से युक्त भगवान ऋषभदेव का मन्दिर है वह कई ध्वजाओं से युक्त है । इस मन्दिर में यदि ३० के दिन उक्त ग्रंथ सम्पूर्ण किया। उस समय शत्रुओं के सैनिकों का मान भंग करने वाला और स्नेही वर्ग रूपी रोहणी पति सम्पूर्ण कलावान् चन्द्रमा के सदृश वत्सराज शासक था । यद्यपि इस प्रथ प्रशस्ति से राज्य की सीमाओंों का पता नही चलता है किन्तु पुरातन प्रबन्ध संग्रह के प्रसंग से प्रतीत होता है कि उस समय तक इन प्रतिहार राजाओं की राजधानी
34. ए लिस्ट ग्राफ दी इन्स् ग्राफ नोर्दन इंडिया Page 223-224
४. प्रामालय किरात तुरुष्क वस मत्स्यादि राजगिरिदुर्गादृचापहारैः ।
Epigraphia India Vol. XVIII पृ. ११२ ५. तुगमल जिग भवण मणहर सावयाउन विसम जाबालि उरं अट्ठावय व ग्रह प्रत्थि पुहईए । तुम धवल मगहारि-रयण- पसरत धयवडाडोय । उसभ- जिणंदायण करावियं वीरभद्देण । सिरि बच्छराय-गामो रणहत्थी परिषद जइया ॥ कुवलयमाला पृ. २८२-८३
जालोर ही थी ।
(४) कुवलय माला मे प्रारम्भ में एक प्रसंग वर्णित है। यद्यपि यह कथा प्रसंग है किन्तु इससे यह कहा जा । सकता है कि उस समय प्रवन्ति प्रदेश के लिए संघर्ष चल रहा था। इसकी काल्पनिक कथा मे राजा दृढवर्मा घोर उसकी रानी प्रियंगुश्यामा का उल्लेख है। इसके दरबार मे इसके सेनापति का पुत्र सुषेण ने जो शबर जाति का था अपने मालवा विजय का प्रसंग उल्लेखित करते हुए कहा "मैं आपकी ग्राशानुसार मालवे पर धाक्रमण करने गया। मेरे पास विशाल सेना विद्यमान थी। इस सेना के पराक्रम से दुश्मन की हार हुई और उसकी सेना भाग खडी हुई। इसके पश्चात् उसकी सेना ने नगर में प्रवेश करके उत्तम वस्तुओं को लूटा ।" कथा सूत्र में वस्तुतः इस प्रसंग का कोई महत्व नहीं है। किन्तु राजनैतिक घटनाओं में कहा जा सकता है कि वत्सराज का सघर्ष मालवे के लिए चल रहा हो। इस प्रकार अवन्ति का राजा वत्सराज से भिन्न था।
इन सब प्रसंगों से स्पष्ट है कि प्रतिहारों की इस शाखा की राजधानी प्रवन्ति नही थी। कई विद्वान इन प्रतिहार राजाओं को, अवन्ति के प्रतिहार कहते है किन्तु इसका कोई ऐतिहासिक आधार नही है । हरिवंश पुराण की प्रशस्ति का श्रतएव यही अर्थ लेना चाहिए कि " वत्सराज एवं प्रवन्ति का शासक" अर्थात् वत्सराज से अवन्ति का शासक भिन्न था।
६. पुच्छिम्रो राइणा "मालव र्णारिदेणसह तुम्हाणं को बुततो' ति भणिय सुसेणेण" जय देवो । इम्रो देव समासेणं तेहि चेम दिवसे दरिव महा करि तुरह-रह णर-सय- सहस्सुच्छलत कलयला राव-सघट्टघुट्टमाण णहल गुरुभर-दलत-महियल जणसय-संवाहरुममाण दिसायह उदड पोडरीय संकुल संपतं देवस्स सतियं बलं । जुज्झ च समादत्तं ताव व देव भ्रम्ह बलेणं विवदेत छतवं नियंत-विषयं पयंत रडंत जो खलंत प्रासयं फुरंत कोंतयं सरत- सरवरं कुजर दलंत-रह-वरं भग्गं रिउ बलंति....” ( उपरोक्त पृष्ठ १० मोर ३० )
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वायुपुराण और जैन कथाएं
डा० विद्याधर जोहरापुरकर
१. प्रास्ताविक-भगवान महावीर के पूर्व के भारत हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा प्रकाशित हुमा है। के इतिहास के कोई निश्चित साधन उपलब्ध नहीं है। कालचक्र कल्पना-पउमचरिय (प्रध्याय ३ व २०) में उस प्राचीन युग के बारे मे जैन, वैदिक और बौद्ध साहित्व बताया गया है कि भरत व ऐरावत क्षेत्रों मे काल का मे प्राप्त कथानों से ही कुछ अनुमान किये जाते है । इनमे चक्रवत परिवर्तन होता है। प्रवसपिणी मे प्रथम सुषमा बौद्ध साहित्य मे विविध प्रकीर्ण उल्लेख ही मिलते है- सुषमा काल होता है, दूसरा सुपमा, तीसरा सुषमा दुषमा, कोई सुसंगत व्यवस्थित वर्णन नहीं मिलता। जैन और चौथा दुषमा सुषमा, पाचवां दुषमा तथा छठा दुषमा दुषमा वैदिक पुराणों मे उस प्राचीन युग की कथानों को व्यव- होता है। तदनन्तर उत्सपिणी मे पहला दुषमा दुषमा, स्थित करने का प्रयास देखा जाता है। इनमे वैदिक दूसरा दुषमा इस प्रकार से छह काल होते है। वायुपुराण पुराणों के अाधार पर इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास में काल का परिवर्तन कुछ भिन्न प्रकार से बताया है का वर्णन करने का प्रयत्न किया है (जिसका उत्तम (अध्याय ४८)। सुखपूर्ण कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा उदाहरण भारतीय विद्याभवन बम्बई द्वारा प्रकाशित 'दि दुःखपूर्ण कलियुग ऐसा क्रम यहां बताया है तथा कलियुग वेदिक एज' ग्रंथ मे मिलता है)। किन्तु जैन कथापो का
के बाद पुनः कृतयुग का प्रारम्भ कहा है। अर्थात् जहाँ
के बाद पनः क्रता ऐसा समुचित उपयोग नहीं किया है। प्रस्तुत लेखमाला जैन कथानो में समय परिवर्तन क्रमिक है। वहाँ वायुमे हम जैन और वैदिक कथा ग्रन्थों की कुछ समानतामों
पुराण मे कलि के बाद माकस्मिक परिवर्तन से कृत के और भिन्नताओं का अध्ययन कर रहे है।
प्रारम्भ का वर्णन है। इनमें चारों युगो का सम्मिलित २ प्राधार भूत साहित्य-वैदिक पुराणो मे मुख्य- समय १२ हजार दिव्य वर्ष (एक दिव्य वर्ष मनुष्यों के मुख्य ग्रथों मे गुप्तवश तक के भारतीय राजापो का ३६० वर्षों के बराबर) माना है। जैन परम्परा मे उत्सउल्लेख मिलता है अत. उनका वर्तमान स्वरूप चौथी- पिणी के तथा अवसर्पिणी के समय के लिए दस कोटाकोटी पाचवी शताब्दी का है यद्यपि उनमें प्रथम पुराण-वर्णन का सागर शब्द का प्रयोग किया है (एक योजन व्यास के समय महाभारत युद्ध के बाद की पाचवी पीढी के राजा एक योजन गहरे वृत्ताकार खडु मे नवजात बकरो के अधिसीमकृष्ण का राज्यकाल बताया है। प्रस्तुत लेख मे सूक्ष्मातिसूक्ष्म जितने रोमखड समाते है उसके सोगुना जिस वायुपुराण का अध्ययन किया गया है उसमें भी वर्षों को पल्य कहा जाता है तथा दस कोटाकोटी पल्यों यही वर्णन है। दूसरी ओर जैन कथामो का प्रथम विस्तृत का एक सागर होता है)। अथ विमलसूरि का पउमरिय प्रथम शताब्दी का है
४ चौदह मनु-पउमचरिय (म० ३) में तीसरे (यद्यपि कुछ विद्वान उसे तीसरी शताब्दी का मानते है) मखमा
नित ह) सुषमा दुपमा काल के अन्त मे चौदह कुलकर हुए तथापि उनमे भी कहा गया है कि भगवान महावीर से ऐसा वर्णन है जिन्हें अन्य जैन ग्रंथों में मनु भी कहा गया चली आई श्रुतपरम्परा उसका प्राधार है। इस लेख में है (जैसे वरांग चरित्र स. २७ श्लो० ३६) । वायुपुराण पउमचरिय के प्राकृत टेक्स्ट सीरीज द्वारा प्रकाशित सस्क- ( १००) में भी चौदह मनुप्रो का वर्णन है। किन्तु रण का तथा वायुपुराण के श्री रामप्रताप त्रिपाठी द्वारा एक मनु से दूसरे मनु तक का समय यहाँ इकहत्तर चतुकिये गए हिन्दी अनुवाद का उपयोग किया है (यह अनुवाद युंग बताया है । अर्थात् दो मनुषों के बीच कृत प्रादि चार
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अनेकान्त
चार युगों का परिवर्तन इकहत्तर बार होता है ऐसा कहा धिकारी के रूप में भगीरथ का नाम दोनों में आता है है। दोनों में चौदह मनुमों के नाम और कार्यों के बारे में यद्यपि सगर से भगीरथ का सम्बन्ध दोनों में भिन्न है। कोई समानता नहीं हैं। वायुपुराण के अनुसार सात मनु प्रतिनारायण-पउमचरिय (म०४ व २०) में हो चुके है और सात प्रागे होंगे जब कि जैन वर्णन के चतुर्थ दुषमासूषमा काल में हुए नौ प्रतिनारायणों का अनुसार चौदह मनु हो चुके हैं।
वर्णन है जिनको विनष्ट करने वाले नो नारायण बताए ५. ऋषभदेव-उमचरिय (प्र. ३) में चौदहवें गए है। ग्यारहवें तीर्थकर श्रेयांस के समय में प्रथम कुलकर नाभिराज के पुत्र प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का नारायण त्रिपष्ट ने प्रतिनारायण प्रश्वग्रीव को मारा था। वर्णन है । उन्होंने प्रजा को कृषि प्रादि कर्मों का उपदेश
बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य के समय में द्विपृष्ट ने तारक
बारहवें तीर्थक दिया तथा कर्मानुसार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों का
को मारा था। तेरहवे तीर्थकर विमल के समय में स्वय भू विभाजन किया। उनके भरत आदि सौ पुत्र हुए। भरत ने मेरक को मारा था। चौदहवें तीर्थंकर अनन्त के समय ने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। वायुपुराण (प्र० ३३) में परुषोत्तम ने मधुकैटभ को मारा था। पन्द्रहवें तीर्थकर में भी नाभिपुत्र ऋषभ तथा उनके भरतादि सो पुत्रों का धर्म के समय में परुषसिह ने निशभ को मारा था । अठावर्णन है। ब्राह्मणादि वर्गों का विभाजन इनमें ब्रह्मा
इनम ब्रह्मा रहवें तीर्थकर अरनाथ के बाद पुरुषपुण्डरीक ने बलि को
तीन द्वारा त्रेतायुग के प्रारम्भ मे बताया है (अ०८) । ऋषभ
तथा दत्त प्रल्हाद को मारा था। बीसवें तीर्थकर मुनिदेव के पहले के समय में सब लोग सुखी थे, धर्म-अधर्म
सुव्रत के समय लक्ष्मण नारायण ने रावण को तथा का विचार नहीं था, माता-पिता केवल एक बार आयु के बाईसवें तीर्थकर अरिष्टनेमि के समय मे श्रीकृष्ण ने अन्त में युगल पुत्र-कन्या को जन्म देते थे, ऋतुपरिवर्तन
जरासन्ध को मारा था। वायुपुराण में इन नारायणनहीं होता था यह जैन कथाओं का वर्णन वायुपुराण
प्रतिनारायणों में से बहुतों के नाम पाते हैं यद्यपि विस्तृत (१०८) मे कृतयुग के संबंध में पाया जाता है । त्रेतायुग कथाएं नहीं हैं। इसमें (प्र० ४० में) अधोलोक निवासी के प्रारम्भ में मेघवृष्टि, कृषि, कल्पवृक्षो का प्रभाव, घर
दैत्यों के हयग्रीय (जो प्रथम प्रतिनारायण अश्वग्रीव का प्रादि का वर्णन भी यहाँ मिलता है जो जैन कथाओं के
पर्याय प्रतीत होता है), तारक, निशुम्भ, बलि और अनुसार ऋषभदेव के समय की (चौथे दुषमासुषमा काल प्रल्हाद के नाम पाते है। असुरराज के रूप में तारक का के प्रारम्भ की) घटनाएं थी। वायुपुराण (प्र. २३) मे वर्णन भी है (अ०७२) किन्तु यहाँ उनके विनाश का शिव के नवम योगावतार के रूप में भी ऋषभदेव का श्रेय शिवपुत्र स्कन्द को दिया है। मधु और कैटभ इन दो वर्णन है किन्तु यह नवम द्वापर युग की बात कही गई मौत
दैत्यों के विष्णु और जिष्णु द्वारा मारे जाने की कथा है है । अन्य कोई वर्णन न होने से यह तीर्थकर ऋषभ का ।
(म०२४)। विष्णु के अवतार वामन द्वारा बलि को वर्णन है या नही यह सन्दिग्ध है । वायुपुराण (प्र० ३३) पराजित कर पाताल में भेजे जाने की कथा है (म०६७) में ऋषभदेव प्रथम मनु स्वायंभुव के प्रपौत्र नाभि के पुत्र (जैन पराणकथाप्रो में इस से मिलतीजुलती बिष्णकुमार कहे गए है।
मुनि की कथा हरिवंशपुराण मे है)। जैन कथानों मे ६ सगर चक्रवती-पउमचरिय (प्र० ५) में दूसरे बलि के बाद प्रल्हाद का वर्णन है जबकि वायुपुराण चक्रवर्ती सगर तथा उनके साठ हजार पुत्रों की कथा है। (म०६८) में प्रल्हाद के पौत्र रूप में बलि का वर्णन है। वे दूसरे तीर्थकर अजितनाथ के समकालीन बताए गए है। किन्तु इसी के अन्य प्रसंग में (म०६७ में) वाराह कल्प वायुपुराण (म०८८) में वैवस्वत मनु के बाद मड़तीसवीं के बारह युद्धों की गणना में बलि का उल्लेख दूसरे और पीढ़ी में सगर व उनके साठ हजार पुत्रों का वर्णन आता प्रल्हाद का उल्लेख चौथे युद्ध में किया है । रावण का है। दोनों कथानों में सगर माता-पिता के नाम व उनके रामचन्द्र द्वारा विनाश होने की कथा है। (म०७०) पुत्रों के मृत्यु के कारण भिन्न-भिन्न हैं । सगर के उत्तरा. यहां रावण का राज्यकाल ५ करोड़ इकसठ नियुत वर्ष
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वायुपुराण और बन कथाएं
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बताया है । यहां तक प्रतिनारायणों के उल्लेख बताए। में अयोध्या के राजा प्रजित के पुत्र वमु के वारे में कहा पांचवे नारायण पुरुषसिंह का नामातर यहां नरसिंह के गया है कि यज्ञ में मज अर्पन करना चाहिए इम वाक्य
। है (प्र. ६७) किन्तु उनके द्वारा मारे गए में मज शब्द का अर्थ बकरा बता कर पशु बलि की प्रथा दैत्य का नाम हिरण्यकशिपु बताया है। सातवें नारायण का उसने समर्थन किया था, फलस्वरूप वह अधोगति को दत्त का विष्णु के अवतार के रूप मे वर्णन है (4०६८) प्राप्त हुआ था। अज शब्द का वास्तविक अर्थ तीन वर्ष किन्तु उनके किसी शत्रु का नाम नहीं है, दत्त (पूरा रूप से अधिक पुराने (प्रकुरित न होने योग्य) घान्यबीज दत्तात्रेय) अवतार दसवें त्रेतायुग का बताया है । पाठवें बताया गया है। यही कथा वायुपुराण (म० ४७) में है, नारायण लक्ष्मण को इसमें महत्त्व नही मिला है, उनके यहाँ वसु के त्रेतायुग के प्रारम्भ के राजा उत्तानपाद का बन्धु रामचन्द्र चौबीसवे त्रेतायुग मे हुए बताए गए है पुत्र बताया है, शेष कथा वैसी ही है, यद्यपि पशुहिंसा के (म०६८)। यही पर अट्ठाइसवे द्वापर युग मे हुए नवें स्पष्ट निषेध को यहां टाला गया है। इतना अवश्य कहा नारायण श्रीकृष्ण का विस्तार से वर्णन है।
गया है कि यज्ञ की अपेक्षा तपस्या विशेष फलदायिनी है। ८. अन्य कथाएं-जैन कथानो मे शलाका पुरुषों के ६. उपसहार-ऊपर पउमचरिय वायुपुराण के मुख्यरूप में गिने गए कथानायकों के उल्लेख अब तक बताए। मुख्य कथासाम्यों का विवरण दिया है। इससे स्पष्ट अब अन्य कुछ कथासाम्यों का निर्देश करते है । पउम- होगा कि इन दोनों में कौनसी परम्परा पूर्ववर्ती है यह चरिय (०२०) मे पाठवे चक्रवर्ती सुभौम के पिता । कहना सरल नही है। ऋषभदेव तथा वसु की कथाएं कार्तवीर्य बताए है। कार्तवीर्य का विनाश परशुराम द्वारा स्पष्टतः जैन परम्परा से ली गई हैं। अन्य कथानों में तथा परशुराम का विनाश सुभौम द्वारा बताया है । वायु- वायुपुराण में अद्भुत वर्णनों का बाहुल्य है कि जबकि पुराण में (म०६४) राजा यदु के वशनों की दसवीं पीढ़ी पउमचरिय तथा उसके बाद के जैन पुराणों में अधिकांश में कार्वतीर्थ अर्जुन का वर्णन है जिसे परशुराम ने मारा वर्णन मानवीय घरातल के है। वायुपुराण मे कथानों के था, यहाँ सुभौम की कोई चर्चा नही है । एक अन्य प्रसग कालानुक्रम में कई स्थानों पर उलझनें प्रतीत होती हैं मे (म०६८) परशुराम उन्नीसवें त्रेतायुग के अवतार जबकि पउमचरिय तथा उसके अनुवर्ती साहित्य की बताए है। कार्तवीर्य के सहस्र बन्धुओं द्वारा समुद्र को कथानों का क्रम अपेक्षाकृत सुलझा हुमा है। क्षुभित करने तथा रावण को पराजय करने की कथा है हम (अ०६४)। पउमचरिय (अ० १०) में इससे मिलती- भूमिका मे बहुत अन्तर है-वायुपुराण ईश्वर की प्रेरणा जुलती कथा मे राजा का नाम सहस्रकिरण बताया है। से जगत की सृष्टि और प्रलय को आधारभूत मानता है, तथा उसकी जलक्रीड़ा में नर्मदा के जल के रोके जाने का देवों और ऋषियों के कार्यकलापों के वर्णन मे भी जैन वर्णन है, रुके हुए नर्भदाजल के पुन: प्रवाहित होने पर परम्परा से वह बहुत अधिक भिन्न है । तथापि उपर्युक्त रावण की पूजा में विघ्न प्राने की तथा फलस्वरूप रावण विववरण से स्पष्ट होगा कि उनमें समानता के स्थल और सहस्रकिरण के युद्ध होने की भी चर्चा है। किन्तु भी है। इसमें सहस्रकिरण की पराजय व तदनन्तर प्रवजित होने सभव हुआ तो वैदिक परम्परा के अन्य पुराणों की की घटना वायुपुराण से भिन्न है । दूसरा महत्त्वपूर्ण कथा- कथाओं की समानता का विवरण देने का भी हम प्रयत्न साम्य राजा वसु की कथा का है। पउमचरिय (अ०११) करेगे।
सुभाषित-सुख स्वाधीन जु परिहरपो, विषयनि पर अनुराग ।
कमल सरोवर छोरि ज्यों, घट जल पोर्व काग। सेये विषय अनादित, तप्ति न कह सिराय। ज्यों जल के सरितापति, इंधन सिलिन प्रधाय ।
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अनेकान्त का दिव्य आलोक
पन्नालाल साहित्याचार्य
पदार्थ मे अनेक अन्त-धर्म रहते है । यहाँ अनेक का समस्त संसार विरोधी बातों से भरा पड़ा है। उनके अर्थ ऐसा नहीं है कि जैसे जीव में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, विरोध का निराकरण स्याद्वाद की पद्धति से ही हो सकता अव्यावाधत्व, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व व अगुरुलघुत्व आदि है। किसी एक पक्ष को खींचने से नहीं। अमृतचन्द्राचार्य गुण रहते है अथवा पुद्गल मे रूप, रस, गन्ध स्पर्श प्रादि। ने अनेकान्त की महिमा का उद्घोष करते हुए पुरुषार्थ यहां अनेक का पर्थ विवक्षित और अविवक्षित परस्पर सिद्धयुपाय में लिखा है :-- विरोधी दो धर्म है । जैसे-नित्य से विरोधी अनित्य, एक 'परमागमस्य वीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । से विरोधी अनेक, भेद से विरोधी अभेद आदि। इन्हीं सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। धर्मों को जो विषय करता है वह अनेकान्त कहलाता है। जो परमागम का प्राण है, जिसने जन्मान्ध मनुष्यो के अनेकान्त वाच्य है और स्याद्वाद वाचक है। 'स्यात्' इस हस्ति सम्बन्धी विधान को निपिद्ध कर दिया है तथा जो निपात का अर्थ कथचित्-किसी प्रकार से होता है। समस्त नय विकल्पों के विरोध को नष्ट करने वाला है एक पदार्थ में दो विरोधी धर्म किसी खास विवक्षा से ही रह उस अनेकान्त को नमस्कार करता हूँ। सकते है एक विवक्षा से नही । 'देवदत्त पुत्र है' यह अपने इस पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ की रचना अमृतचन्द्र पिता को अपेक्षा कथन है और देवदत्त पुत्र नही किन्तु सरि ने समयसारादि ग्रन्थों की प्रात्मख्याति टीका लिखने पिता है यह अपने पुत्र की अपेक्षा कथन है । ‘पदार्थ नित्य
त्य के बाद की है। समयसार की निश्चय प्रधान कथनी से
नाही है' यह द्रव्य दृष्टि की अपेक्षा कथन है और 'पदार्थ अनित्य
त्य कोई अपरिपक्व बुद्धि वाला श्रोता दिग्भ्रान्त न हो जावे
से है' यह पर्याय दृष्टि की अपेक्षा कथन है। एक ही दृष्टि इसलिए वे अनेकान्त का जयोद्धोष करते हुए कहते है से पदार्थ नित्य और अनित्य नही हो सकता । वक्ता जिस किसमय द्रव्य दृष्टि को विवक्षित कर कथन करता है उस 'ध्यवहारनिश्चयो यः प्रबध्य तत्वेन भवति मध्यस्थः। समय पर्याय दृष्टि प्रविवक्षित होने से गौण हो जाती है प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ।।' और जिस समय पर्याय दृष्टि को विवक्षित कर कथन
जो पदार्थ रूप से व्यवहार और निश्चय के स्वरूप करता है उस समय द्रव्य दृष्टि अविवक्षित होने से गौण
को अच्छी तरह जानकर मध्यस्थ होता है वही शिष्य हो जाती है। पदार्थ का निरूण करते समय उपर्युक्त दो जिनेन्द्र भगवान् की देशना के पूर्ण फल को प्राप्त होता दृष्टियो में से एक को मुख्य और दूसरी को गौण तो किया है। जा सकता है पर सर्वथा छोडा नही जा सकता। मनुष्य ससार का प्रत्येक पदार्थ द्रव्य और पर्याय रूप है। दो पैर से चलता है परनु आगे तो एक पैर ही बढ़ता है द्रव्य के बिना पर्याय और पर्याय के बिना द्रव्य एक क्षण कभी दांया और कभी बाया । इससे यह फलित नहीं किया भी नहीं रह सकते। यह ठीक है कि द्रव्य एक है और जा सकता कि एक ही पैर से चला जाय अथवा दोनो पर्याय अनेक हैं, द्रव्य अविनाशी है और पर्याय विनाशी पैरो को साथ मिलाकर मेढक के समान उछलते हुए चला है। पर्याय एक के बाद एक आती है परन्तु द्रव्य उन जाय । चलना तभी बनता है जब दोनों पैरों की अपेक्षा समस्त पर्यायों में अनुस्यूत रहता है। द्रव्य को सामान्य रक्खी जावे और एक को पागे तथा दूसरे को पीछे किया और पर्याय को विशेष कहते है। यही सामान्य विशेषाजावे।
त्मक पदार्थ प्रमाण का विषय होता है। द्रव्य का कथन
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भनेकान्त का विव्य पालोक
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करते समय पर्याय की ओर भी दृष्टि रखनी पड़ती है। जहां उपादान की मुख्यता से कथन है वहां प्रात्मा के कहा जब मनुष्य एकान्त रूप से द्रव्य दृष्टि या पर्याय दृष्टि बन है। जहाँ द्रव्य की स्वकीय योग्यता को प्रधानता देकर जाता है तब उसके सामने अनेक समस्यायें खड़ी हो जाती कथन है वहा एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है, ऐसा हैं । जब यह प्राणी, मनुष्यादि पर्यायों को ही सर्वस्व समझ कहा है परन्तु जहां निमित्त नैमित्तिक भाव की अपेक्षा उनमे राग-द्वेष करने लगता है तो उसे द्रव्यदृष्टि से उप- कथन है वहां प्रात्मा की रागादि रूप परिणति में परद्रव्य देश दिया जाता है और जब द्रव्य को निर्विकार या शुद्ध कर्म को कारण कहा है । द्रव्यादिक नय की अपेक्षा पदार्थ मानकर स्वच्छन्द होता है तब उसे पर्याय दृष्टि का पाल- नित्य, एक तथा अभेद रूप है परन्तु पर्यायार्थिक नय की म्बन लेकर उपदेश दिया जाता है। नय परार्थश्रुतज्ञान अपेक्षा द्रव्य अनित्य अनेक और भेद रूप है। के विकल्प है। जिससे दूसरे के प्रज्ञान निवृत्तिरूप प्रयो- स्याद्वाद न केवल जैन शास्त्रों में किन्तु लोक में सर्वत्र जन की सिद्धि होती है उसे परार्थश्रुत ज्ञान कहते हैं। बिखरा हुआ है । जो स्यावाद का विरोध करते हैं वे भी और जिससे अपना अज्ञान दूर होता है उसे स्वार्थश्रुत- स्याद्वाद के द्वारा ही अपनी लोक यात्रा सचालित करते ज्ञान कहते है। श्रत ज्ञान स्वार्थ के सिवाय चारों ज्ञान है। इन्दुमोहन के पुत्र हुमा। वह इष्टजनों को समाचार स्वार्थ रूप है परन्तु श्रत ज्ञान स्वार्थ और परार्थ के भेद देते सयय पिता को लिखता है-पापके पोता हमा है. से दो प्रकार का होता है। किस समय किसके लिए किस साले को लिखता है-पापके भानेज हुआ है, भाई को नय से उदेश देना चाहिए इसका उल्लेख कुन्दकुन्द स्वामी लिखता है-पापके भतीजा हुआ है। अरे! हा तो समयसार के प्रारम्भ मे ही कर देते है। वे आगे बढ़ने के एक ही बच्चा है पर वह इन सब रूप कैसे हो गया? पहले ही सूचनापट्ट लगा देते है कि शुद्धनय से किसे और अनेक सम्बन्धियो की अपेक्षा ही तो अनेक रूप है। व्यवहारनय से किसे उपदेश देना चाहिए :
गीता के दो प्रकरण मनन करने योग्य है .सुद्धो सुद्धादेशो णायव्वो परमभावदरिसीहि ।
महाभारत की तैयारी थी। श्रीकृष्ण चाहते थे कि ववहारदेसिदा पुण जेदु अपरमेट्ठिदा भावे ॥
किसी प्रकार युद्ध टल जावे। इसी उद्देश्य से वे सन्धि
कारक रूप मे दुर्योधन के पास गये। उन्होने दुर्योधन को अर्थात् परमभाव-प्रात्मा को निर्विकार दशा का अवलोकन करने वाले महानुभावों के द्वारा–पर पदार्थ के
अनेक प्रकार से समझाया। देख, ससार में किसी के दिन
एक से रहने वाले नहीं है। आज राज्य तेरे हाथ में है सम्बन्ध से अनुत्पन्न वस्तु स्वभाव को कथन करने वाला
और युधिष्ठिरादि वनवासी हैं पर समय परिवर्तित हो निश्चय नय ज्ञातव्य है परन्तु जो अपरमभावहीन दशा में
हो सकता है। युधिष्ठिरादि कोई दूसरे नहीं हैं, तेरे ही विद्यमान हैं वे व्यवहार नयके द्वारा उपदेश देने के योग्य है। कुन्दकुन्द स्वामी के इस सूचना पट्ट को पढ़े बिना जो
हैं। इनसे द्वेष रखना तुझे लाभदायक नहीं है। श्रीकृष्ण आगे बढ़ते हैं उन्हें पद-पद पर विरोध मालूम होता है।
की इस हितावह देशना को सुनकर दुर्योधन शान्त तो नहीं समयसार में एक जगह लिखा है कि रागादिक पुद्गल के
हुआ किन्तु उन्हें पाण्डवों का पक्षपाती समझ उनके साथ
हु हैं और एक जगह लिखा है कि रागादिक प्रात्मा के हैं।
दुर्व्यवहार करने लगा। इधर देखिये-श्रीकृष्ण कह रहे
थे-संसार में सबके दिन एक सदश नहीं बीतते, परिव. एक जगह लिखा है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का
तित होते रहते हैं। कुछ नहीं करता और एक जगह स्फटिक का दृष्टान्त देते
दूसरा प्रकरण देखिये-श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि हुए लिखा है कि प्रात्मा रागादि रूप परिणमन स्वयं नहीं बनकर युद्धभूमि मे पहुँच चुके है। अर्जुन उनसे कहते हैंकरता है परन्तु अन्य कर्मों के द्वारा करता है।
भगवन् ! सामने खडे हुए लोगों का परिचय कराइये । इत्यादि विरोधी बातों का समन्वय नय विवक्षा को
श्रीकृष्ण परिचय देते हुए कहते हैं-ये सामने भीष्मपितामह समझे बिना नहीं हो सकता। जहां निमित्त की मुख्यता हैं. ये बगल में द्रोणाचार्य हैं और ये उनके वाज़ में अमुक से कथन है वहां रागादिक को पुद्गल के कहा है और
(शेष पु०४१ पर)
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संस्कृति को सीमा प्रो. उदयचन्द्र जैन एम. ए. दर्शनाचार्य
व्यक्ति, समाज, देश और राष्ट्र सभी की एक सीमा सीमा का खिचाव अर्थात् निर्माण कर देता है। होती है। किसी एक पहल उद्देश्य को लेकर होतो है, भौतिकता का प्राधुनिक रूप चित्रित करके विचारोंकिसी की जनहित के लिए । मनुष्य ने मनुष्यत्व पाने की कथनों को एक सूत्र में पिरो देता और घोड़े की लगाम सीमा पाई है उसमें जितने गुण-प्रोगुण होते है वे इसी से की तरह कसकर बांध देता। हाँ; पर बन्धन से यह सम्बध्य होते हैं, खीचा-तानी भी इसी के अन्दर मौजूद तात्पर्य कदापि नही है कि वह व्यक्ति को जकड़कर रखे रहती है। रही संस्कृति, वह भी किसी के साथ जुड़ी हुई या केन्द्रित करे। यद्यपि केन्द्र एक बिन्दु की तरह माना होती हैं । संस्कृति, संस्कार है और सस्कार सस्कृति है। गया है, वह छोटी घिरी हुई होती है इसलिए कहा जा संस्कृति परम्परागत उस सुन्दर सरिता के समान है
सकता है कि इसका संतुलन ठीक नहीं है, यदि इसी परजो निरन्तर कोलाहल करती हुई प्रवाहित होती रहती
ज्यामिति तौरतरीके से विचार-विमर्श किया जाय तो है । संस्कृति को राष्ट्र की सीमा में नही बाधा जा सकता
निश्चित ही सूक्ष्मता, दीर्घता की ओर बढ़ती हुइ दिखलाई है। उसका सम्बन्ध इस प्रकार है, जैसा कि :-मैथ्यू
पडेगी। यही सस्कृति का हिसाब है। विषय छोटा होता मानल्ड ने कहा है :-"Culture is to know the
हुए भी विचार की दृष्टि से इतना लम्बा है कि उसे सम
झना टेढी खीर है, फिर उसका विचार-विमर्श तो रहा best that has been said and thought in the world." अर्थात् विश्व के सर्वोच्च कथनो और विचारों
कोसों दूर । जिस प्रकार दूरी का समानुपात लगाना का ज्ञान ही सच्ची सस्कृति है। मनुष्य के विकास का
पड़ता है उसी प्रकार विषय का भी।
अभी व्यक्ति को चलना मात्र पाया है और वह उत्कृष्ट साधन संस्कृति हैं। संस्कृति सरलता और सयम को प्रवाहित करने वाली है।
चलता जाता है, पर उसे पता नहीं कि इस चलने मात्र से
क्या हम, हमारी संस्कृति, राष्ट्र-देश, समाज उस पथ को व्यक्ति का जन्म लेना मात्र ही या उसका विलीन पा सकता है जब तक व्यक्ति में मनन-चिन्तन की वास्तहोना ही नहीं, वह सव है उसकी एक नवीन जागृति ज्ञान विकता मौजूद रहती है। वही सच्ची, सही और जग की की कुजी, जिसे हम चाबी के नाम से सम्बोधन करते मनोखी तथा अनुभव करने के योग्य रह सकती है। एक हैं । वास्तविकता क्या है ? यह तभी जान या समझ क्रिया का लोप होता है और दूसरी क्रिया का उसी ओर सकते हैं जब हमें उसकी उपयोगिता का सही पता चले। फिर से प्रयोग होता है, वह तभी जब हम विषय से विषयद्यपि वह किंचित् मात्र के लिए जानता और अनुभव यान्तर नहीं होते हैं। जब तक सांस है तब तक क्रियाओं करता है। फिर भी सही रूप से नही । यह गलती हमारी का मौजद होना स्वाभाविक है, अन्यथा उसकी गति में कहो या समाज की, राष्ट्र की या देश की। सभी अपने- अवरोध हो जायगा, हलन-चलन की क्रिया पूर्ण रूप से अपने स्थान पर हैं। जिसने अपने माप उस लक्ष्य को समाप्त हो जायगी; सिर्फ रह जायगा शरीर वह भी मिट्टी विचारा तक नहीं, उसका समझना तो रहा दूर, मनन- का ढेला है, उसकी कीमत कुछ भी नही है । संस्कारों की चिन्तन कैसा; क्योंकि चिन्तन की कुछ कणिकायें होती हैं क्रिया बनी हुई है, सच्चाई स्रोत बह रहा है उसे रोकने वाला जो उसे संस्कृति के विकास की भोर बन्धन से मुक्त करा- कोई नहीं है। फिर भी ऐसा कहना अपने पापको धोखे में कर ले जाती हैं । एक दिन ऐसा माता है कि वह संगठित डालना है, गलत रास्ते की ओर ले जाना है। जब ऐसा रूप से कानूनी दायरे भादि को जान-पहचान जाता है। होगा तो हमारे पास कुछ नहीं रह जायगा, सिर्फ कपोलऔर सहारा लेकर पथ का वास्तविक प्रदर्शन करता है। कल्पनामों के सिवा । स्वयं अवलोकन का ढंग रीति-रिवाज उस मोर करके संयम की धारा कुछ ऐसी विचित्र जीव-सी है कि
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संस्कृति की सीमा
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उस मोर छोटे-मोटे व्यक्ति का पाना मुश्किल हो जाता का प्रतीक.समझा जाता है; क्योंकि दुनिया का ज्ञानहै, उसका ध्यान तो रहा दूर । परम्पराये जिस प्रकार विज्ञान, पराक्रम, वैभव इसी से सम्बन्धित हैं जो स्वयं चलती हैं उसी प्रकार धाराये भी चलती है। चलन क्रिया दूसरे लोगों को पथ-प्रदर्शन एवं संकेत से सही धारा को यद्यपि दोनों में मौजूद-व्याप्त है, पर वैसी नहीं जैसी प्राप्त कराते है; वह मनुष्य को मनुष्यत्व सिखलाती है, न चाहिए । नदियों की धारा रुक सकती है, रोकी जा सकती कि समूचे अधिकार को प्रदान कर स्वीकार कराती है; है; पर सयमरूपी धारा का प्रवाह चलता रहता है यदि वह चाहती है ऊँच-नीच वीर-धीर, योगी-सन्त, साधारणकिसी ने पकड लिया तो निश्चय ही संस्कृति एव संस्कृत प्रसाधारण प्रादि । और :की अनुभूति हो सकती है वरना कूप-मण्डूक की तरह बने (२) सन्त संस्कृति :-जिसे योगी संस्कृति भी कह रहेगे। उसी प्रकार क्रियाये उत्पन्न हो जाती है वे ससार सकते है। ज्ञान की उत्कृष्ट दिशा, श्रद्धा, विश्वास और को बिन्दु की तरह मानकर चलने लगती है, पर उसकी समन्वय को फैलाना इसका जन्मसिद्ध अधिकार है। यह गहराई मे उतरने की कोशिश किसी ने नही की, उन्हे मानव को स्वार्थ-भावना, ऊंच-नीच और बाह्य माडम्बर से मालूम कहाँ है कि विन्दु मे भी सिन्धु है, उसकी अपार बिलकुल विरक्त होने को कहती है। सीमा है उसे मापा जाना हँसी खेल नही है । जिसे मालूम संस्कृति की विभिन्न दिशायें होने के बावजूद भी भी तो वह मापने की कोशिश नहीं करता है। जानते अलग-अलग दिशाओं में नहीं बहती, यह एक-दूसरे की हुए भी उसी मार्ग पर गमन करता है जहां दलदल है। सीमा में किसी न किसी रूप में अवश्य मौजद रहती हैं। ___सामाजिकता संस्कृति का प्राधार है : वह उससे फिर भी इसकी सीमा इतनी विशाल एवं विस्तीर्ण है कि अछुती नही है, न उससे अलग है उसका सम्बन्ध कडी की उसे शीघ्रता से परखना मुश्किल हो जाता है। यह सब तरह जुडा हुआ है। इसके शिथिल होने पर सस्कार टूट- कमी मेरी मापकी है। विखर एव छूट जाते है। छिन्न-भिन्न की क्रिया होने से एक योगी को अपनी साधना का प्रदर्शन जीवन की समाज मे स्थिरता, राग-वेष जैसी भावनाये उत्पन्न हो सही अनुभूति सुख-दुख को जानने के बाद होती है । योगजाती है जिससे समाज सस्कृति से अलग हो जाता है, तम साधना तब तक करता रहता है जब तक यम-नियम समाज मे प्रोगुण उत्पन्न हो जाते है; पर सामाजिकता का प्रतिक्रमण. संचरण एवं प्रवाह मौजूद रहता है। वैसे उसी प्रकार ज्यो की त्यों बनी रहती है, व्यक्ति समाप्त तो निरक्षर सत्-असत् का अविचारक भी उस पर विचहो जाता; व्यक्तित्व नही । संस्कृति का लोप याने समाज रण करता है, मागे की ओर बढ़ता है। पर इसका बढ़ना की सामाजिकता, मनुष्य की मनुष्यता एवं राष्ट्र की मात्र कहा जायेगा और दूसरे का उसकी अनुभूति से कठोराष्ट्रीयता का भी। दोनों का रहना ही प्राधार की कोटि रतम साधना की मौजूदी द्वारा विकास की ओर जाना। में पा सकता है। संस्कृति की परम्परा कई शताब्दी से रहे तो एक ही, पर दोनों मे पृथकता है। सिर्फ यही ही चली पा रही है, यह समाज की क्रियाओं पर ही। नहीं है; अपितु एक जीवन को बाह्य क्रियानों से हराकर
परम्परागत कुछ अनुभव होते है जो व्यक्ति के उच्चतम विकास की मोर ले जाती है और समय-समय व्यक्तित्व को सचेष्ट करते हैं। पथ सूना नही है उसे पर सच्चा पथ-प्रदर्शन भी करती है। पौर दूसरी इससे बनाया जाता है, व्यक्तित्व गलत नही, गलत है व्यक्ति भिन्न क्रियामों को प्रदर्शित करती है। उसका माचरण आदि । हम सूक्ष्म दृष्टि डालकर देखें तो व्यापक अर्थ में संस्कृति को दो भागों में विभक्त किया जरूर ही इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे।
जा सकता है भौतिक और आध्यात्मिक । भौतिक संस्कृति संस्कृति को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं :- में रहन-सहन एवं यन्त्र मादि कलायें पाती है और माध्या(१) भद्र संस्कृति और (२) सन्त संस्कृति ।
त्मिक संस्कृति में प्राचार-विचार और विज्ञान का समा(१) भद्र संस्कृतिः-इसका रूप ऐश्वर्यता और विभूति वेश रहता है जो सहज और सरल नहीं है।
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अनेकान्त
संस्कृति मानव के भूत, वर्तमान और भावी जीवन कण में समाये हुए हैं जिसे आगमों, वेदों और उपनिषदों का निर्माण करती है जीने की कला सिखलाती है। वह ने ध्याया है। क्रूरता से सुख न मिलने पर दया का प्रादुकल्पना मात्र नहीं है, जीवन का प्राणभूत तत्व है । नाना- र्भाव हुआ है। सघर्ष शान्ति का कारण न होने से दान । विध रूपों का समुदाय है। "सत्यं शिवं सुन्दरम्" का भोग में सुख प्राप्त न होने से दमन की क्रिया ।। ये मूल प्रतीक है। यह कभी रुकता नही है, पीढी-दर-पीड़ी पागे से एक होकर भी अनेक धारापो की प्रतीक समझी जाती बढ़कर धर्म; दर्शन, साहित्य और कला को प्राप्त कर लेता है। शरीर एक होते हुए भी विभिन्न ज्ञानों का अवयवों है; क्योकि सस्कृति मे निष्टा होने से मन की परिधि का प्रतीक समझा जाता है। इसे धरोहर की सम्पत्ति विशाल-विस्तीर्ण हो जाती है, उदारता की भावना झल- कहा जा सकता है जो स्थिर होते हुए भी चलायमान है। कने लगती है अत: इसकी उपयोगिता परमावश्यक है,
सस्कृति अनेक धाराओं मे बहने वाली है एक स्थिर होने संस्कृति एक वृक्ष है, व्यक्ति, समाज और राष्ट्र उसकी
पर भी। वेद मार्ग वैदिक सस्कृति है, पिटक मार्ग बौद्धशाखायें है और सभ्यता पल्लवित पत्ते है । राजनीति, अर्थ
सस्कृति है और आगम मार्ग जन संस्कृति है। ये एक शास्त्र और समाजशास्त्र प्राधार है।
होकर भी वैदिक बौद्ध और पागम के रूप से अनेक सस्कृति समाज, देश की विकृति को हटाने का एक धागों में प्रवाहित है जो अपनी-अपनी विशेषता रखती सर्वश्रेष्ठ साधन है; मानव-जीवन का उत्कृष्ट तत्त्व है। है । वेद दान की, बौद्ध दया की और पागम दमन की। मानाप्रकार के धर्म साधनों मे सामजस्य, कलात्मक प्रयत्न, भारत की संस्कृति का मूल तत्त्व अहिंसा और अनेयोगमूलक अनुभूति और परिपूर्ण कल्पना शक्ति से पवि- कान्त, समता और समन्वय है जो हजारों वर्षों से चले पा त्रता की ओर ले जाने वाली है। जो मनुष्य की विजय रहे है, साथ ही मनुष्य को समय-समय पर जागरण कराते पताका बनकर लहराने लगती है। इसी की साधना के रहे है। ऋषभदेव से लेकर गम तक और राम से लेकर बल पर विकृति से सस्कृति और सस्कृति से विकास की वर्तमान मे गाँधी यूग तक । यह ठीक है कि बीच-बीच में पोर निरन्तर गतिशील रहता है। इसकी आवश्यकता रुकावटें भी पायी, परन्तु वे सही मार्ग को बदल न सकी। मनुष्य में मनुष्यत्व लाने, राग द्वेष प्रादि विकृतियां हटाने महावीर ने जन-चेतना के समक्ष अहिंसा और अनेकान्त के लिए एवं प्रात्म-शोधन के लिये है।
को प्रस्तुत किया, समन्वयात्मक धारा को बहाया, उदारता भारतीय संस्कृति विश्वास, विचार, प्राचार की जीती- और सहिष्णुता को दर्शाया, जो सत्य सिद्ध कहे जा सकते जागती महिमा है। जो संसार में मधुरता और सरसता हैं। दूसरों के मतों को प्रादर से देखना और समझना को फैलाने वाली है, स्नेह, सहानुभूति, सहयोग और सह- अनेकान्तवादी कहा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर अस्तित्व को जाग्रत करने वाली है, अन्धकार से प्रकाश की सम्राट अशोक और हर्षवर्धन; जिन्होंने समान रूप से पोर ले जाने वाली है, पापसी भेद-भावरूपी कीचड़ से सभी धर्मों की सेवा की। मध्य युग में सम्राट अकबर ने निकालकर स्वच्छ जल से भिन्न कमल की ओर ले जाने और नवयुग में गांधी जी साक्षात् सिद्ध, सफल अभिनेता वाली है, विवेक की ओर ले जाने वाली है। ऐसे हितकारी रहे। जो दढ निश्चय विचारवादी थे, जन-जन को पावनमहिंसा के पुजारी, सत्य के प्रागार, समन्वय के आधार, पवित्र बनाने वाले थे। स्नेह, सहानुभूति और सद्भाव मधुरता, करुणा और वैराग्य के प्रतीक राम, कृष्ण, महा- सादि समता के सिद्धान्त इन्ही लोगों ने चित्रित किये और वीर, बुद्ध और गांधी हैं। जीते-जागते ज्वलन्त उदाहरण परस्पर की कटुता को बाहर निकाला। हैं । जो इस सिद्धान्त की कोटि में पा सकते है।
संस्कृति का सम्बन्ध सभ्यता के साथ जुड़ा हुआ है। संस्कृति का मूल माघार मात्मा है जिसे "दयतां दोनों एक होते हए भी विचार-प्रधान और प्राचार-प्रधान दीयतां, दम्यताम्" इस एक सूत्र में बांधकर दूसरे शब्दों की दष्टि से अलग है। संस्कृति का सही तात्पर्य मोह के में दया, दान, दमन कह सकते हैं । ये जन-जीवन के कण- मावरण को हटाना है और सभ्यता का-सुसंस्कृत विचारों
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संस्कृति की सीमा
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को आचार रूप देना, उन्हें जीवन के व्यवहार में लाना संस्कृति जीवन की ज्योति है, प्रकाश है। इसे हम एवं कला आदि के द्वारा अभिव्यक्त करना । एक शरीर है "Divine light." प्रात्मज्योति कहते है। सभ्यता जीवन और दूसरा प्रात्मा है । एक जीवन की चेतना है और की गति है। इन दोनों का वास्तविक कार्य निर्दिष्ट पथ दूसरी जीवन की अभिव्यक्ति है। दोनो भिन्न होते पर चलना, सही मार्ग का प्रदर्शन करना है। ये ललित, हुए भी प्रात्मा और शरीरवत् एक दूसरे से सम्बद्ध
वत् एक-दूसर स सम्बद्ध सुन्दर, सुहावने, सुकोमल और सुगन्धित पुष्प हैं जो जनहै। ससार में स्थित प्रात्मा शरीर के बिना नहीं
नहा जन के मन-मस्तिष्क को ताजगी प्रदान करते हैं। अत: रह सकता। जहाँ आत्मा का अस्तित्व होता है, चेतना
संस्कृति और सभ्यता एक ही वस्तु के दो पहलू हैं जो एक का स्रोत बहता है, वहां शरीर अवश्य होता है। परन्तु ।
सीमा के धातक हैं। वह मानव के विकास की पोर नही, शरीर के साथ प्रात्मा का सम्बन्ध नहीं है, कभी रहता है,
विनाशकी ओर ले जाती है । सभ्यतासे रहित संस्कृति केवल कभी नही भी। शव के रूप में शरीर रहता है, आत्मा
दिमागी कसरत है उसके जीवन का विकास सम्भव नही । नहीं । शरीर का प्रत्येक प्रग, प्रत्येक पहल किसी न किसी
भारतीय संस्कृति की एक अन्तरात्मा है, जो विरोध रूप में अवश्य जुड़े रहते हैं। जीवन मे जितनी आवश्यकता संस्कृति की हो सकती
विनोद विवधता में समन्वय तथा सामंजस्य । जीवन मे है, उससे कही अधिक सभ्यता की भी है। परन्तु केवल
सरसता और मधुरता को बरसाने वाली योग-साधना, सभ्य कहा जाने वाला सस्कृत होगा यह नियामक नियम
उदार भावना और शान्त एवं शुद्ध हृदय । यह युद्ध जैसे नहीं है। असंस्कृत व्यक्ति भी सभ्य हो सकता है। अतः
दारुण अवसर पर भी वैर के बदले प्रेम, क्रूरता के बदले सस्कृति के साथ सभ्यता का होना अनिवार्य है।
मृदुता और हिंसा के बदले अहिंसा। जैसा कि कहा है___सभ्यता जीवन-व्यवहार को चलाने की एक कला है "संस्कृति, शारीरिक, मानसिक, शक्तियों का प्रशिक्षण, इसके बिना व्यक्ति का जीवन पख से रहित पक्षी के अपूर्ण दृढीकरण, प्रकटीकरण एवं विकास करना है।" यह एक जीवन की तरह है; क्योकि वह गन्तव्य मार्ग को प्राप्त नही ऐसी सस्कृति है, जिसमें अधिक से अधिक विभिन्न जातियों हो सकता है । इसी प्रकार व्यक्ति, समाज और राष्ट्र भी। की मानसिक एवं प्राध्यात्मिक एकताका प्रतिनिधित्व है।
(पृ० १३७ का शेष) तमुक है। इस तरह परिचय पाने पर अर्जुन कहते है- है, उद्देश्य पृथक् है। दोनों उपदेशों का समन्वय बिना भगवन् मेरा रथ वापिस ले चलिये मुझे राज्य नहीं अनेकान्त या स्याद्वाद का पाश्रय लिए नहीं हो सकता। चाहिए । जिन भीष्मपितामह की गोद मे मैं खेला है और सांख्यदर्शन पदार्थ को सर्वथा नित्य मानता है और बौद्ध जिन द्रोणाचार्य से धनविद्या सीखी है उन्ही के प्रति शस्त्र दर्शन सर्वथा अनित्य मानता है । न सर्वथा नित्य मानने में उठाना पड़े जिस राज्य के लिए, उस राज्य की मुझे चाह पदार्थ की व्यवस्था बनती है और न सर्वथा प्रनित्य मानने नहीं है, मैं जंगल मे ही रहना पसन्द करता है। अर्जन में। प्रतः अपेक्षाकृत नित्यानित्य मानना प्रावश्यक है। की मनोदशा को पहचान कर श्रीकृष्ण कहते हैं-देख अनेकान्त ही समस्त द्वन्द्वों का शमन करने वाला है, इसी अर्जुन ! इन सबकी प्रात्मा अजर-अमर, अविनाशी है। लिए उसे परमागम का प्राण तथा समस्त नय विलासों है। प्रात्मा को शस्त्र नही छेद सकते, अग्नि नहीं जला के विरोध को नष्ट करने बाला कहा गया है। सकती, पानी नहीं गला ककता, हवा नहीं सुखा सकती। यह स्मर्तव्य है कि अनेकान्त का व्याख्यान विरोध जिस प्रकार वस्त्र बदलने से शरीर नहीं बदला जाता उसी को दूर करने वाला नहीं है किन्तु अनेकान्त का उपयोगीप्रकार शरीर बदलने से प्रात्मा नही बदलती।
करण ही विरोध को दूर करने वाला है। जब तक इस श्रीकृष्ण का यह सब उपदेश नित्यता को लेकर है। अनेकान्त सिद्धान्त को जीवन मे नही उतारेंगे तब तक गीता में हम अनित्य और नित्य दोनों प्रकार का उपदेश विरोध शान्त होने वाला नहीं है। नही पाते हैं। पर क्या यह परस्पर विरुद्ध उपदेश एक
अनेकान्त का दिव्य मालोक ही शाश्वत सुखदायक है। ही प्रकरण में ? एक ही उद्देश्य से ? नहीं, प्रकरण पृथक्
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सालोनी ग्राम में उपलब्ध प्राचीन मूर्तियां
महेशकुमार जैन राजस्थान के अलवर जिले में अरावली पर्वत की रहा था, क्योंकि मुझे अपने मकान में छप्पर के लिए शाखा सानोली पहाड़ी की घाटी में स्थित सानोली ग्राम लकड़ी की जरूरत थी। मैंने पेड़ काट दिया और जमीन प्राज जनजन के प्राकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। इसी खोदकर ज. निकालने लगा। ग्राम के एक निवासी श्री बहराम को पिछले दिनों अपने
मैंने तीन चार फूट ही खोदा था कि मुझे एक बर्तन खेत में खुदाई करते समय प्रष्ठ धातु की भव्य एवं मनो
(गंधोदक पात्र दिखाई दिया, बर्तन को देखकर मुझे हारी सात दिगंबर जैन प्रतिमाएं, पद्मावती की दो मूर्तियाँ
कुछ दहशत सी हुई मैंने बर्तन उठाकर बाहर निकाला, तथा पूजा के तीन बर्तन प्राप्त हुए थे। सभी मूर्तिया
तो उसके नीचे गोलाकार में मूर्तियां रखी दिखाई दी, जब सुरक्षित है।
मेरी हिम्मत जवाब दे गयी और मैंने तुरंत ही बराबर के रेतीले, ऊबड़-खाबड़ रास्ते को पार कर जब मै
खेतो मे ऊंट चरा रहे लोगों को आवाज दी। उनके पहुंचने दिल्ली से ७३ मील दूर सानोली गाव पहुँचा, तो ग्रामीणो
पर मैंने मिट्टी मे दबी सभी नौ मूर्तियां तथा दो और ने मुझे घेर लिया और पूछा आप जैनी है ?
बर्तन निकाले । चार दिन तक तो हमने मूर्तियों को घटना__ मैंने 'हाँ' कहकर जब उनसे यह पूछा कि क्या इस
स्थल पर ही रखे रहने दिया तथा उनकी दिन-रात गांव में कोई जैन रहते है, तो सभी ग्रामीणों ने एक स्वर
चौकसी की। से कहा, 'यह ग्रहीरो गांव अवश्य है, पर यहाँ तो सभी
कुछ लोगों ने मुझे इन मूर्तियों को सरकार को सौपने जैनी ही जैनी है ? यहा के एक शिक्षित प्रौढ़ श्री प्रताप
की सलाह दी, पर मैने इन्हे गांव वालों को ही सौप देना सिंह यादव ने कहा, 'इस गाव का कोई भी वृद्ध, युवक
ठीक समझा, खेत से हम मूर्तियों को जलूस मे लाये और और बालक सदियो से माँस, शराब, तंबाकू और हुक्का
गाव के बीच इस देवालय में प्रतिष्ठित कर दिया। व बीड़ी छूता तक नहीं, फिर आप बताएं हम अहीरो मौर जैनो मे क्या फर्क रहा, हम जैन नही है तो और
सानोली के निवासियो ने अपने गांव मे जैन मंदिर क्या है ? इन सब चीजो के खाने-पीने वाले को हमारे यहाँ
बनवाने के लिए दस बीघा जमीन देने का निश्चय किया समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है।
है। बाबा बहराम ने कहा-मेरे खेत मे जिस स्थान से भोले-भाले ५० वर्षीय बाबा बहराम की खुशियों का मूत
मूतिया निकाली हैं, वहा 'चरण' स्थापित हो चुके है, मैने माजकल पारावार ही नहीं। उनके पास अपनी २२ उक्त स्थान के
उक्त स्थान के इर्द-गिर्द का चार बीघा का अपना खेत इस बीघा जमीन है तथा उनके एक पुत्र और पुत्री है। जो काम क लिए दन का
र काम के लिए देने का सकल्प किया है, मंदिर के लिए भी व्यक्ति उनके पास जाता है, वह उससे प्रेम से गांव वालों ने एक समिति बना ली है। मिलते है, उसे पूरी घटना सुनाते है, उनकी यही कोशिश गांव के एक वृद्ध बाबा बुधराम ने कहा, बाबू शाम रहती है कि मूर्तियों के दर्शन के लिए गांव मे पाये किसी यही ठहरिये और 'भारती' लेकर जाइए। उन्होंने कहा व्यक्ति को कोई तकलीफ न हो, बार-बार कहने पर भी कि प्रातः पौर सायं गांव का प्रत्येक नर-नारी और वह बिना चाय पिलाये उठने नही देते।
बालक इस मंदिर मे इकट्ठा होता है तथा भारती उतारी बाबा बहराम से जब मैंने भूतिया मिलने की घटना जाती है । यह ठीक है कि गांव में कोई धर्मशाला नहीं, के बारे में पूछा तो वह जमीन पर मेरे बराबर बैठ गये संभव है मापको रात में ठहरने में कठिनाई हो, पर जहाँ भौर बोले, उस दिन की घटना तो मैं जीवन में कभी न तक हो सकेगा, हम मापको कोई तकलीफ न होने देंगे। भुला सकंगा । परमात्मा ने मेरे तो सभी कष्ट दूर कर गांव वालों ने बताया कि सानोली ग्राम देश रक्षा दिये । गत २१ जूलाई की बात है, सुबह नौ बजे के लग- कार्यों में भी सदैव मागे रहा है गांव के कई जवान चीनी भग अपने खेत में खड़े जांट (शमी) के पेड़ को मैं काट मोर पाकिस्तानी दुश्मन से जुझते हुए शहीद हो गए।
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सालोनी प्राम में प्राचीन उपलम्ब मूर्तियां
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गांव के अनेक युवक आज भी फौज में सीमा पर तैनात हैं। पास पहुँच कर नियम लिए।
यह पूछने पर कि इन मूर्तियों के निकालने पर खुदाई में प्राप्त लगभग सभी मूर्तियां एक हजार वर्ष क्या गांव में कोई विशेष बात हुई, तो वहाँ एक के बाद प्राचीन है। मूर्तियां भगवान पार्श्वनाथ, श्री श्रेयांस नाथ एक चर्चा चल पड़ी। वही बैठे ७० वर्षीय श्री शिव- तथा पदमावती देवी को है। पूजा के तीन वर्तन-सागर, नारायण यादव ने कहा, "मैं वायु के दर्द के मारे अपने
धूपदान, गधोदक पात्र है। जीवन से परेशान आ गया था। मैंने प्रारती के बाद सानोली गांव मे खुदाई में जिस ढंग से मूर्तियाँ भगवान से प्रार्थना की और एक रु. का प्रसाद बोला। मिली उससे स्पष्ट है कि उक्त मूर्तियों को खंडित होने मेरा वर्षों पुराना वायु का दर्द दूर हो गया ।" से बचाने के लिए जमीन में गाड दिया गया। गांव के
भूतपूर्व फौजी जुगलाल ने कहा, "मेरी भैस का पड़ा कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने बताया कि जिस जगह ये मूर्तियाँ मर गया था तथा वह दूध नही देती थी। मैंने प्रसाद निकली हैं, वह सम्पूर्ण क्षेत्र सनोदखेडा कहलाता था । बोला और उसी वक्त से मेरी भैस दूध देने लगी? कछ लोग उक्त क्षेत्र का नाम बिलासपुर तथा कांतिगढ
झम्मन नाई ने कहा कि भगवान के प्रताप से महीनों भी बताते है। पूर्व खोयी मेरी अंगूठी मिल गयी। एक अन्य ग्रामीण ने कहते है जब मेवों ने हमला कर इस क्षेत्र को जीत कहा कि पिछले वर्ष हमारे एक प्रादमी की, जो कि दिल्ली लिया. तो लोगों ने इन मूर्तियों को खंडित न होने देने के से यहाँ प्राया था, अंगूठी खो गयी थी। मूर्तियाँ निकली लिए इन्हें जमीन में गाड दिया। कालातर मे अहीरों ने सुनकर एक वर्ष बाद जब वह पूनः पिछले दिनों गांव
मेवों को मार भगाया और सनोदखेड़ा क्षेत्र वीरान हो पाए, तो उन्हे वही अंगूठी रास्ते में मिट्टी पर सामने ही गया। अहीरों ने सनोदखेडा के निकट ही यह सालोनी ऊपर रखी मिली। गांव के इस रास्ते पर हर रोज प्रात: गांव बसाया। से साय तक सैकड़ों लोग गुजरते है।
सालोनी गाँव की प्राबादी लगभग एक हजार है प्रापको शायद यह जान कर पाश्चर्य हो कि सानोली तथा यहाँ लड़के-लडकियो का एक स्कूल भी है। गांव ग्राम के ठीक बीच में आज भी एक ऐसा नगाड़ा रखा है, तक पहुँचने के लिए कोई पक्का रास्ता भी नही है। जिसके बजाते ही मिनटों मे गांव का हर निवासी अपने रेतीले. ऊबड़-खाबड मार्ग को पार कर गांव पहुंचना सभी काम-काज छोड़ कर नगाड़ा स्थल पर पहुँच होता है। इस गांव में यात्रियों की भीड़ को देखते हुए जाता है।
प्राशा है। सरकार इस गांव के लिए पक्की सड़क बनाने नगाडे का उपयोग गांव पर संकट अथवा किसी की ओर शीघ्र ध्यान देगी। विशेष अवसर पर किया जाता है। यह नगाड़ा जैन देवा- रेल और सडक दोनों ही मार्गों से सानोली गांव लय के निकट ही रखा है।
पहुंचा जा सकता है । सानोली गांव हरियाणा के बावल कुछ ग्रामीणों ने कहा-हम लोग अपने गाँव सानोली रेलवे स्टेशन से १० मील दूर है। बावल से सानोली के का नाम बदल कर देव भूमि रखना चाहते है। इस गाँव लिए सवारी मिल जाती है। राजस्थान में प्रजरका रेलवे की भूमि पर देवताओं का वास है। ७० वर्ष पूर्व भी स्टेशन सानोली से प्राठ मील दूर स्थित है। अजरका से यहाँ पहाडी के निकट भगवान विष्णु की एक विशाल ऊँटों पर सानोली पहुंचा जा सकता है। सानोली से १८ पत्थर की मूर्ति जमीन में दबी मिली थी। उक्त मूर्ति मील दूर खरतल रेलवे स्टेशन है। जहां से सानोली के यहां एक मंदिर में प्रतिष्ठित है।
के लिए सवारियां मिल जाती हैं। सानोली दिल्ली से पिछले दिनों गांव के पांच वृद्धों-बाबा बहराम, ७३ मील दूर है । तथा मोटर-कार व जीप द्वारा भी बाबा किशनलाल, बाबा हरपाल, बाबा रामचन्द्र पौर पहुंचा जा सकता है । बाबा बुधराम ने जैन प्राचार्य श्री विमल सागर जी के
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अब मुखरित विनाश के पथ पर नूतन अनुसन्धान है।
कल्याणकुमार जैन 'शशि'
मानब के चरित्र का, दिन दिन होता जाता ह्रास है।
सात्विकता को निधियों पर प्रब रहा नहीं विश्वास है। विश्व हड़प लेने को प्रतिदिन बढ़ती जाती प्यास है। कथनी और करनी में दिखता, घोर विरोधाभास है।
रोम रोम में व्याप्त हो रहा अतहाहाकार है। भौतिकता का भूत, हमारे सिर पर प्राज सवार है।
माज चन्द्रमा को प्रसने को लगी भयंकर होड़ है। पत्थर ही पा सके वहाँ भी, किन्तु अभी तक दौड़ है। अध्यात्मिकता इन्हें न छूती, भौतिकता के भक्त हैं। भ-पर इनको कुछ न मिल रहा, ये नभ पर प्रासक्त हैं।
इनके लिए व्योम, वैभव है, मातृ भूमि निःसार है। भौतिकता का भूत, मनुज के सिर पर हुमा सवार है।
कितनी धरती का स्वामी हो, पर न जरा सन्तोष है। छल प्रपंच लम्पटता पर अधिकारों का जयघोष है। पब मानवता के विरुद्ध ही उमड़ रहा प्रति-रोष है। अन्तरङ्ग में भरा दीखता, घोर घृणा का कोष है।
रण-विभीषिकानों में सारा रंगा हा संसार है। भौतिकता का भूत मनुज के सिर पर हुमा सवार है।
प्रण की उन्नति पर रोझा है, फल का रच न ध्यान है। मानवता का क्षय करने में, बना हुमा पाषाण है। रही न मानवता की इसको प्राज तनिक पहचान है, अब मुखरित विनाश के पथ पर, नूतन अनुसंधान है।
शान्ति नाम की बंधी हुई, 'रण-गृह' पर बन्दनवार है। भौतिकता का भूत मनुज के सिर पर प्राण सवार है।
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शास्त्रीयचर्चा
अलब्धपर्याप्तक और निगोद पं० मिलापचन्द्र रतनलाल जैन कटारिया
संसारी जीव पर्याप्तक, निवृत्य पर्याप्तक और अलब्ध- असंज्ञी माना है और उनकी उत्पत्ति भोगभूमि में भी पर्याप्तक ऐसे तीन प्रकार के होते है। अलब्धपर्याप्तक लिखी है । जो जीव अलब्ध पर्याप्तक होते हैं उनकी जघन्य का पर्याय नाम लब्ध्यपर्याप्तक भी होता है । जिस भव में और उत्कृष्ट प्रायु एक उच्छवास के १८ वें भाग मात्र जितनी पर्याप्तियें होती हैं उतनी को जो पूर्ण कर लेते है होती है । अर्थात् न इससे कम होती और न इससे अधिक बे जीव पर्याप्तक कहलाते हैं। अगर उनके कम से कम होती है । शरीरपर्याप्ति भी पूर्ण हो जाये तब भी वे पर्याप्तक कहला दिगबर मतमें मनुष्यों के ह भेद इस प्रकार बताये हैंसकते है । और जो पर्याप्तियों को पूर्ण करने में लगे हुए आर्यखंड, म्लेच्छखंड, भोगभूमि और कुभोगभूमि हैं किन्तु अभी शरीर पर्याप्ति को भी पूरी नहीं की है (अन्तर्वीप) इन ४ क्षेत्रों की अपेक्षा गर्भज मनुष्यो के ४ प्रागे पूरी करने वाले हैं वे जीव निवृत्यपर्याप्तक कहलाते भेद होते हैं । ये चारों ही पर्याप्त-निर्वत्य पर्याप्त होनेसे ८ है । तथा जो जीव एक उच्छ्वास के १८वे भाग प्रमाण भेद होते हैं । सम्मूर्च्छन मनुष्य आर्यखंड में ही होते है और आय को लेकर किसी पर्याय में जन्म लेते है और वहां की वे नियम से अलब्धपर्याप्तक ही होते है । अतः उसका एक पर्याप्तियों का सिर्फ प्रारंभ ही करते है । अत्यल्प प्रायु ही भेद हुा । इस १ को उक्त ८ में मिलाने से कुल : होने के कारण किसी एक भी पर्याप्ति को पूर्ण न करके भेद मनुष्यों के होते है । मर जाते है वे जीव अलब्धपर्याप्तक कहलाते हैं। ऐसे अलब्धपर्याप्तक जीव एकेन्द्रिय को आदि लेकर पांचों जीवो के भव क्षुद्रभव कहलाते है । वे जीव १ उच्छ्वास मे ही इंद्रियों के धारी होते हैं। एकेन्द्रियों में पृथ्वीकायिक १८ बार जन्मते है और १८ बार मरते है । इस प्रकार के प्रादि अलब्धपर्याप्त-स्थावर जीव अपनी २ स्थावरकाय में क्षुद्रभवों के धारी अलब्धपर्याप्यक जीव ही होते है, अन्य पैदा होते हैं। इसी तरह विकलत्रय अलब्धपर्याप्तकों के नही । सभी सम्मूर्छन जन्म वाले जीव पर्याप्तक, निवृत्य- उत्पत्तिस्थान भी पर्याप्त विकलत्रयों की तरह ही समझने पर्याप्तक और अलब्धपर्याप्तक होते है। शेष गर्भ और चाहिये। तथा सम्मूच्छिम पर्याप्त तिचंचों के भी जो-जो उपवाद जन्म वाले जीव पर्याप्तक-निवृत्यपर्याप्तक ही उत्पत्तिस्थान होते हैं, उन्ही में सम्मच्छिम अलब्धपर्याप्तक होते है, अलब्ध पर्याप्तक नहीं होते। विशेष यह है कि- पंचेद्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति समझ लेनी चाहिये। क्योंकि सिर्फ सम्मूच्छिम मनुष्य अलब्धपर्याप्तक ही होते है। वे ये अलब्धपर्याप्तक जीव गर्भज तो होते नहीं, ये तो सब पर्याप्तक-निवृत्यपर्याप्तक नही होते है। सभी एकेद्रिय-विक- सम्मूच्छिम होते है। अत: जैसे अन्य पर्याप्त सम्मूच्छिम लेन्द्रिय जीवों का एकमात्र सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है। त्रसजीव इधर-उधर के पुद्गल परमाणुषों को अपनी कायें संज्ञीसंजी पंचेंद्रिय नरतियंच सम्मूर्च्छन जन्म वाले भी होते बनाकर उनमे उत्पन्न हो जाते हैं । उसी तरह ये पलब्धहैं और गर्भज भी होते हैं। भोगभूमि में सम्मूर्छम पर्याप्तक स जीव भी उत्पन्न हो जाते हैं । किन्तु अलब्धत्रस जीव नहीं होते है। प्रतः वहां अलब्धपर्याप्तक त्रस पर्याप्तक मनुष्यों की उत्पत्ति स्थान के विषय मे स्पष्ट जीव भी नहीं होते हैं। दिगंबर मत में सम्मूछिम मनुष्यों प्रागम निर्देश इस प्रकार है। -"कर्म भूमि में चक्रवातको भी संज्ञी माना है। परन्तु स्वेताम्बर मत में उन्हें बलभद्र-नारायण की सेनामों में जहां मल मूत्रों का क्षपण १. शास्त्रों में सिर्फ 'भपर्याप्तक' शब्द से भी इसका उल्लेख होता है उन स्थानों में, तथा वीर्य, नाक का मल, कान का किया है।
मल दंतमल, कफ इत्यादि अपवित्र पदार्थों में सम्मूच्छिम
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प्रनेकान्त
मनुष्य उत्पन्न होते हैं । वे लब्धपर्याप्तक होते है और उनका शरीर प्रगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण होता है । " मूलाराधना पृष्ठ ६३८" गोम्मटसार जीवकांड की गाथा ६३ में लिखा है कि - सम्मूच्छिम मनुष्य नपुंसक लिंगी होते है । इसी प्रसंग में इस गाथा की संस्कृत टीका में लिखा है कि"स्त्रियो की योनि, कांख, स्तन मूल और स्तनों के प्रत राल में तथा चक्रवर्ती की पटराणी बिना अन्य के मलसूत्रादि अशुचि स्थानों में सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते है |
श्री कुंदकुंदाचार्य सूत्रपाहुड में लिखते हैं कि -- लिगम्मिय इत्थीर्ण थणतरे णाहिकक्खदेसेसु । afrat सुमो का तासं कह होइ पव्वज्जा ।। २४ ।। अर्थ - स्त्रियों की योनि में, स्तनों के बीच में, नाभि मे और कांख में सूक्ष्म शरीर के धारक जीव ( सम्मूच्छिममनुष्य) कहे गये है । अतः उनकी महाव्रती दीक्षा कैसे हो सकती है ?
इस विषय में कवि द्यानतराय जी का निम्न पद्य देखिये
नाभि कांख में पाइये ।
नारि जोनि थन नर नारिन के मलमूत्तर में गाइये ॥ मुरदे में सम्मूच्छिम सैनी जीयरा । अलबषपरयापती दयार्घारि हीयरा ॥
"धर्मविलास” लोकप्रकाश ( श्वेतांबर ग्रन्थ) के ७वें सर्ग के श्लोक ३ से २ में लिखा है कि-
"मल, मूत्र, कफ, नासिकामल, वमन, पित्त, रक्त, राध, शुक्र, मृतक्लेवर, दंपत्ति के मैथुनकर्म में गिरने वाला वीर्य पुरनिर्द्धमन ( खाल चर्म, गंदी नाली), गर्भज मनुष्य संबंधी सब अपवित्र स्थान, इतनी जगह सम्मूच्छिम मनुष्यों २. जैनागम शब्दसंग्रह (अर्धमागधी- गुजराती कोश) में पृ० ३६८ पर इसी का पर्यायवाची "णगरनिद्धमण" ( नगरनिर्धमन) का अर्थ इस प्रकार दिया है— शहर का गंदा पानी निकालने का मार्ग, खाण । यहां दोनों अर्थ उपयोगी है, दोनों में सम्मूच्छिम मनुष्योत्पत्ति होती है ।
की उत्पत्ति होती है' ।
ऐसा झलकता है कि जैनधर्म के जिन फिरकों मे स्त्री मुक्ति मानी है उनके यहां स्त्रियों के नाभि, काँख, स्तन आदि अवयवों में सम्मूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति का कथन नहीं किया है।
इनकी उत्पत्ति अढाई द्वीप से बाहर नहीं है । क्योंकि जिन पदार्थों में इनकी उत्पत्ति होती है वे सब गर्भज मनुष्यों से सबंधित होते है ।
लोक मे भोगभूमि-कर्मभूमि के जितने भी मनुष्य होते हैं उनसे असंख्यात गुणी संख्या इन सम्मूच्मि मनुष्यो की ३. (i) जीवसमास की मलधारी हेमचन्द्र कृत संस्कृत वृत्ति (श्वे० ) में लिखा है— सम्मूच्र्च्छन– गर्भनिरपेक्षं वात पित्तादिष्वेवमेव भवनं संमूच्छंस्तस्माज्जाताः संमूर्च्छजा मनुष्याः एते च मनुष्यक्षेत्र एवं गर्भजमनुयामेवोच्चारादिषूत्पयंते नान्यत्र यत उक्तं प्रज्ञापनायाम् - "कहि णं भते ! सम्मुच्छिम मणुस्सा समुच्छति ? गोयमा ! तो मणुस्स खेत्ते पणया लीसाए जोयणसय सहम्सेस श्रद्धा इज्जेसु दीवसमुद्दे सु पन्नरससु कम्मभूमीसु तीसाए ग्रकम्मभूमीसु छप्पण्णाए प्रतर दीवेसु गभवक्कतिय मणस्साणं देव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेमु वा सिंघाणेसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वासु वा सोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्क पोग्गलपरिसाडेसु वा थोपुरिस सजोएसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सव्वे चैव प्रणुइएसु ठाणेसु संमूच्छिम मणुस्सा समुच्छंति, अंगुलस्स प्रसखेज्जइभागमित्ताए श्रोगाहजाए प्रसन्णी मिच्छादिट्ठी सव्वाहि पज्जत्तीहि श्रपजत्तगा तो मुहुताउया चेव कालं करेति, सेत्त सम्मुच्छिम मणुस्सा ।"
(ii) कह भयवं उववज्जेपणिदि मणुया सम्मुच्छिमाजीवा । गोयम ! मणुस्सखिसे णायन्त्रा इत्थ ठाणेसु ।। उच्चारे पासवणे वेले सिंघाणवंत पिसेसु । सुक्के सोणिय गयजीवकलेवरे नगर गिद्धमणे || महमज्जमंत मंखण थी संगे सव्व असुइठाणेसु । उप्पज्जति चयंति च समुच्छिमा मणुय पंचिदी ॥ ब्लेक टाइप में छपे शब्द अन्यत्र नहीं मिलते)
- विचारसार प्रकरण ( प्रद्युम्न सूरि ) जीवाभिगमे
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पलब्धपर्याप्तक और निगोव
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रहती है। ऐसा मूलाचार पर्याप्ति अधिकार की गाथा केवल निगोद मे ही नही, अन्य स्थावरों और त्रसों में भी १७५-१७८ और त्रिलोकप्रज्ञप्ति अधिकार ४ गाथा २६३४ होते है। जहां वे एक उच्छवास में १८ बार जन्म-मरण मे कहा है।
करते है। इसलिए एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण जिस प्रकार सभी सम्मूच्छिम मनुष्य अलब्ध पर्याप्तक करना यह निगोदिया का कतई लक्षण नहीं है। किन्तु एक होते है और उनकी काय एक अंगुल के असंख्यातवें भाग- शरीरमे अनत जीवों का रहना यह निगोद का निर्बाध लक्षण प्रमाण की होती है, उस प्रकार से न तो सभी सम्मूच्छिम है। निगोद का ही दूसरा नाम साधारण वनस्पति है जिन्हें पचेद्रियतिर्यच अलब्धपर्याप्तक होते है और न उन सबकी अनंतकाय भी कहते है । एक शरीर में रहने वाले वे मनत काय एक अंगुल के असख्यातवें भाग की ही होती है। जीव सब साथ-साथ ही जन्मते है साथ-साथ ही मरते हैं बल्कि सम्मूच्चिम पचेद्रियतियच मत्स्य की काय तो एक
और साथ-साथ ही श्वास लेते है । एक श्वास में १५ बार हजार योजन की लिखी है। जबकि गर्भज तिर्यचो में
जन्म मरण करने वाले प्रलब्धपर्याप्तक जीव तो न तो साथकिसी भी तिर्यच की काय पाच सौ योजन से अधिक नहीं
साथ जन्मते-मरते है, न साथ-साथ श्वास लेते हैं और न लिखी है। तथा न केवल सम्मूच्छिम पचेद्रिय तिर्यच ही
उन बहुतसो का कोई एक शरीर ही होता है। हां अगर कि-तू एकेद्रिय से चौइद्रिय तक के तिर्यच भी सब ही
हा ये जीव साधारण-निगोद में पैदा होते है तो बेशक वहा वे पलब्धपर्याप्तक नही होते है। हा जो तिर्यच अलब्धपर्या
सब साथ-साथ ही जन्मते-मरते और श्वास लेते है। ये ही प्तक होते है उन सबकी काय अलवत्ता एक अगुल के
अलब्धपर्याप्तक जीव वहां एक श्वास में १८ बार जन्मअसख्यातवे भाग की होती है। किन्तु इसमे भी तरतमता
मरण करते है। इनसे अतिरिक्त अन्य जीव निगोद में रहती है। क्योकि असख्यातवे भाग के भी हीनाधिक भाग।
एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण नहीं करते है। तात्पर्य होते है। इसलिए तो पागम में लिखा है कि-सबसे छोटा
यह है कि समस्त निगोद मे पर्याप्तक जीव भी होते है।
उनमें से अलब्ध पर्याप्तक जीव ही सिर्फ एक श्वास में १८ अगर सभी अलब्धपर्याप्तको के शरीरो का प्रमाण एक
बार जन्म-मरण करते हैं, पर्याप्तक नही। पर्याप्तक जीव समान होता तो केवल सूक्ष्मनिगोदिया का ही नाम नहीं भी वहां अनतानत है जिनकी संख्या हमेशह अलब्धपर्यालिखा जाता। (देखो त्रि० प्रज्ञप्तिद्वि० भाग पृ० ६१८)। प्तकों से अधिक रहती है। निगोद ही नहीं अन्यत्र सा
अलब्धपर्याप्तक जीव सूक्ष्म और बादर दोनो तरह के दिकों में भी जो प्रलब्धपर्याप्तक जीव होते है वे ही एक होते हैं। तथा ये प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति श्वास मे १८ बार जन्म-मरण करते है, सब नही। सिद्धांतकायिक ही नहीं किन्तु सभी स्थावरकाय और सम्मूच्छिम- ग्रंथों मे इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी लोगों में भ्रांत बसकाय के धारी होते है। तथा ये एक श्वास मे १८ धारणा क्यों हुई? हम
धारणा क्यों हुई? इसका कारण निम्नांकित उल्लेख बार जन्म-मरण करते है।
ज्ञात होते हैं :कितने ही शास्त्रसभा मे भाग लेने वाले जनी भाई यह
(१) स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका (शुभसमझे हुए है कि-जो १ श्वास मे १८ बार जन्म-मरण
चन्द्रकृत) पृ० २०५ गाथा २८४ में-निगोदेषु जीवो करते है वे निगोदिया जीव होते हैं। यह उनकी भ्रांत
अनंतकालं बसति । ननु निगोदेषुएतावत्कालपर्यन्त धारणा है । एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण करना यह
स्थितिमान् जीवः एतावत्कालपरिमाणायुः किं वा अन्यदायुः निगोदिया जीव का लक्षण नहीं है। यह तो अलब्धपर्या
इत्युक्ते प्राह-"प्राउपरिहीणो" इति प्रायुः परिहीन: प्तक जीव का लक्षण है। ऐसे लब्धपर्याप्तक जीव तो
उच्छ्वासाष्टावकभागलक्षणान्तमुहूर्तः स्वल्पायुविशिष्टः ४. देखो स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा-उस्सासदारसमे, भागे- प्राणा
से भारे प्राणी। इसका हिन्दी अनुवादक जी ने कोई अनुवाद नहीं जो मरदि ण समाणेदिएक्को विय पज्जत्ती किया है, इसका हिन्दी अर्थ इस प्रकार है :-निगोद में लद्धि अपुण्णो हवे सो दु॥१३७॥
जीव अनंतकाल तक रहता है इससे क्या निगोद की इतनी
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अनेकान्त
पायु होती है ? इसका उत्तर है कि-यहां प्रायु 'परिहीन' अठदस जनमि भरायो । दुख पायो जी भारी । पाठ का अर्थ है-एक उच्छ्वास के १८ भाग प्रमाण इन उल्लेखों में निगोद (एकेन्द्रिय) के एक श्वास में अन्तर्मुहर्त को स्वल्पायु निगोद की होती है।
१८ बार जन्म-मरण बताया है। इससे प्रायः सभी धिद्वानों (२) बनारसी विलास (वि० सं० १७००) के कर्म- तक ने एक श्वास मे १८ बार जन्ममरण करना निगोद प्रकृति विधान प्रकरण में
का लक्षण समझ लिया है जो भ्रान्त है, क्योंकि एक श्वास एक निगोद शरीर में, जीव अनत अपार ।
में १८ बार जन्ममरण अन्य पचस्थावरों और प्रसों में भी घरें जन्म सब एकठे मरहिं एक ही बार ॥६५ जो अलब्धपर्याप्तक है पाया जाता है अतः उक्त लक्षण प्रति मरण अठारह बार कर, जनम अठारह बेव, व्याप्ति दोष से दूपित है। तथा सभी निगोदों में श्वास के एक स्वास उच्छ्वास मे, यह निगोद की टेव ॥९६ १८ वें भाग मे मरण नही पाया जाता (सिर्फ अलब्ध(३) बुधजन कृत--"छहढाला" ढाल२
पर्याप्तकों में ही पाया जाता है, पर्याप्तकों में नही) प्रतः जिस दुख से थावर तन पायो वरण सको सो नाहिं।
पर तन पायो वरण सको सो नाहिं। उक्त लक्षण अव्याप्ति दोष से भी दूषित है। बार अठारह मरा औ, जन्मा एक श्वास के माहि ॥१ एकेन्द्रियों में महान् दुःख बताने की प्रमुखता से ये (४) दौलतराम जी कृत-छहढाला
कथन किए गए है । इन सब उल्लेखों में "लब्ध्यपर्याप्त" काल अनंत निगोद मझार, बीत्यो एकेन्द्रीतनधार ॥४ विशेषण गुप्त है वह ऊपर से साथ मे ग्रहण करना चाहिए एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मरयो भरयो दुखभार॥ “छह ढाला" ग्रंथ का बहुत प्रचार है यह विद्यार्थियों के (५) दौलत विलास-(पृष्ठ ५५)
जैनकोर्स मे भी निर्धारित है अत: इसके अध्यापन के वक्त सादि अनादि निगोद दोय में परयो कर्मवश जाय । निगोद का निर्दोष लक्षण विशेषता के साथ विद्यार्थियों को स्वांस उसांस मझार तहा भवमरण अठारह थाय ।। बताना चाहिए ताकि शुरू से ही उन्हे वास्तविकता का (६) द्यानतराय जी कृत पदस ग्रह
ज्ञान हो सके और आगे वे भ्रम में नही पड़ें। टीकाओं में ज्ञान विना दुख पाया रे भाई।
भी यथोचित सुधार होना चाहिए । भी दस माठ उसांस साँस में साधारण लपटाया रे, भाई. ग्रंथकारों ने इस विषय में अभ्रान्त (निर्दोष) कथन भी काल अनंत यहां तोहि बीते जब भई मंद कषाया रे, किए हैं, देखो :तब तूं निकसि निगोद सिंधु ते थावर होय न सारा रे, भाई (१) स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका (७) बुध महाचन्द्र कृत भजन सग्रह
पृ० ३३ (गाथा ६८) (क) जिन वाणी सदा सुख दानी।
सूक्ष्म निगोदीऽपर्याप्तकःXxxक्षुद्रभवकालं :/१८ जीवि. इतर नित्य निगोद मांहि जे, जीव प्रनत समानी, त्वा मृतः। एक सांस अष्टादश जामन-मरण कहे दुखदानी ॥ जिन. (२) दौलतविलास (पृ० १५)-सुधि लीज्यो जी म्हारी। (ख) सदा सुख पावे रे प्राणी।
लब्धि अपर्याप्त निगोद में एक उसांस मझारी । दे निगोद बसि एक स्वांस अष्टादस मरण कहानी।
जन्ममरण नव दुगुण व्यथा की कथा न जात उचारी। सात सात लख योनि भोग के, पड़ियो थावर पानी। स० सुधि लीज्यो जी म्हारी।
(4) स्वरूपचन्दजी त्यागीकृत-स्वरूप भजन शतक (३) मोक्षमार्गप्रकाशक (तीसरा अधिकार) पं० (क) काल अनंत निगोद बिताये, एक उश्वास लखाई। टोडरमल्ल जी सा०
अष्टादश भव मरण लहे पुनि थावर देह धराई । पृ० ६२ (एकेन्द्रिय जीवों के महान् दुःख) हेरत क्यों नहीं रे । निज शुद्धातम भाई।
बहरि मायुकर्मतें इनि एकेन्द्रिय जीवनि विर्ष जे अपर्याप्त (ख) दुख पायोजी भारी । नित इतर वैसि युग निगोद में, हैं तिनि के तो पर्याय की स्थिति उश्वास के १८ वें भाग
काल अनंत बितायो । विषिवश भयो उसांस एक में, मात्र ही है।
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मलग्षपर्याप्तक और निगोद
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पृ०६६ (तिर्यच गति के दुख)
से बाकी निकालने पर अपने अपने माप शेष ६६१३२ बहरि तिर्यचगति विष बहत लब्ध्यपर्याप्त जीव है तिनि एकेन्द्रिय के क्षुद्रभव हो जाते हैं। कुन्दकुन्द के पाहड ग्रंथ की तो उश्वास के १८ वे भाग मात्र प्रायु है।
सूत्र रूप है अतः यहाँ परिशेष न्याय का प्राश्रय लेकर ____Y०६७ (मनुष्य गति के दुख) बहुरि मनुष्य गति १ गाथा की बचत की गई है। विषे प्रसंख्याते जीव तो लब्धिअपर्याप्त है त सम्मूच्छन हा निगोद का अर्थ साधारण अनन्तकायिक वनस्पति होता है तिनि की तो प्रायु उश्वास के १८ वे भागमात्र है।
है देखो :(४) नयनमुख जी कृत पद (अद्वितीय भजनमाला
(1) अनगारधर्मामृत पृ० २०२ (माणिकचन्द्रप्रथम भाग पृ०६०)
ग्रथमाला) सुन नैन चेत जिन बैन अरे मत जनम वृथा खोवे ।
निगोत लक्षणं यथा-(गोम्मटसार गाथा १६० से तरस-तरस के निगोद से निकास भयो,
१९२, धवला प्रथम भाग पृ० २७०) तहा एक श्वास मे अठारह बार मरे यो।
(साहारणोदयेण णिगोद शरीरा हवं ति सामण्णा। सूक्ष्म से सूक्ष्म थी तहां तेरी पायुकाय,
ते पुण दुविहा जीवा बादर सुहमात्ति विण्णेया) ॥१६॥ परजाय पूरी न करे थो फिर मरे थो॥
साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । भाव पाहुड में कुन्द कुन्द स्वामी ने लिखा है :
साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणियं ॥१६॥ छत्तीस तिण्णि सया छावट्टिसहस्सबारमरणाणि ।
जत्थेक्कु मरइ जीवो तत्थ दु मरण हवे प्रणताणं । अंतो मुहूत्त मज्झे पत्तोसि निगोयवासम्मि ॥२८॥
वक्कमइ जत्थ एक्को वक्कमण तत्थ ताण ॥१९२॥ विलिदिए प्रसीदी सट्ठी चालीसमेव जाणेह ।
(ii) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की सस्कृत टीका शुभपंचिन्दिय चउवीस खद्दभवंतोमहत्तस्स ॥२६।।
चन्द्र कृत पृ० २०४ (गाथा २८४):___इन गाथाओं मे निगोद वास मे ६६३३६ बार जनम- "नि नियतां गामनन्तसख्याविच्छिन्नानां जीवानां गां क्षेत्र मरण एक अन्तर्मुहत्तं में बताया है । तथा विकलत्रय और ददातीति निगोदं । निगोदं शरीर येषां ते निगोदाः पंचेन्द्रिय के क्षुद्रभवों की संख्या बताई है किन्तु एकेन्द्रिय निकोता वा साधारण जीवाः (अनन्तकायिकाः) ॥" के क्षुद्र भवों की संख्या नही दी है बिना उसके ६६३३६ ऐसी हालत मे उपरोक्त भाव पाहुड गाथा २८ में जो भवों का जोड नही बैठता है गोम्मटसार जीवकांड गाथा निगोद शब्द दिया है उसका अर्थ "अनन्तकायिक एकेन्द्रिय १२२ से १२४ में यही कथन है वहाँ एकेन्द्रियों के क्षुद्र- वनस्पति नहीं बैठता है क्योंकि ६६३३६ भव जो निगोद भवों को अलग संख्या बताई है इस पर सहज प्रश्न उठता के बताए है उनमें त्रस स्थावर सभी हैं। इसका समाधान है कि क्या भाव पाहड में यहाँ एक गाथा छूट गई है। बहुत से भाई यह करते हैं कि-निगोद का प्रथं लब्ध्यइसका समाधान यह है कि-अजित ब्रह्मकृत-"कल्लाणा- पर्याप्तक करना चाहिए किन्तु यह अव्याप्ति दूषण से लोयणा" (माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के "सिद्धान्तसारादि दूषित है क्योंकि सभी निगोद लब्ध्यपर्याप्तक नहीं होते संग्रह में प्रकाशित) ग्रन्थ मे भी ये ही दो गाथाए ठीक इसी बहत से पर्याप्तक भी होते हैं। इसके सिवाय यह अर्थ तरह पाई जाती हैं । श्रुतसागर ने भी सहस्र नाम (म०९ निगोद के प्रसिद्ध अर्थ (अनंतकायिक बनस्पति) से भी श्लोक ११६) की टीका में पृ० २२७ पर ये ही २ गाथाएं विरुद्ध जाता है। जयचन्दजी की वनिका भी अस्पष्ट और उद्धृत की हैं । इससे १ गाथा छूटने का तो सवाल नहीं कुछ भ्रांत है । रहता है। प्रब रहा एकेन्द्रिय जीवों के क्षद्रभवों की संख्या अतः हमारी राय में भावपाहर गाथा २८ के 'निगोद' का का सवाल सो वह परिशेष न्याय से बैठ जाता है। वह अर्थ "क्षुद्र" करना चाहिए गाथा २९ में निगोद का पर्यायइस तरह कि-विकलत्रय और पंचेन्द्रिय के क्षुद्रभवों की वाची क्षुद्र शब्द दिया भी है। इसके सिवा गोम्मटसार कुल संख्या गाथा २९ में २०४ बताई है इसे ६६३३६ में जीवकांड में भी जो इसा के समान गाथा है उसमें भी
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अनेकान्त
निगोद की जगह क्षुद्र शब्द का प्रयोग है देखो
वृन्दावन कृत चौवीस पूजा (विमलनाथ पूजा जयमाल) तिण्णिसया छत्तीसा छावट्टि सहस्सगाणि मरणाणि । मे यह कथन ठोक दिया हुआ है वहाँ देखो। अंगो मुहतकाने तावदिया चेव खुद्दभवा १२२
श्वेताबर प्रथों मे इस विषय में कथन इस प्रकार है :'निगोद' का 'क्षुद्र, कुत्सित, अप्रशस्त, हीन' अर्थ भी "जैनसिद्धात बोलसग्रह" दूसरा भाग (सेठिया जैन होता है देखो :
ग्रथमाला बीकानेर) पृ० १६-२१ मे लिखा है :(१) मूत्र प्राभृत गाथा १८ "तत्तो पुण जाई निग्गोद"
अनन्त जीवो के पिण्ड भूत एक शरीर को निगोद मे निगोद का अर्थ श्रुतसागर ने अप्रशसनीय दिया है कर
कहते है । लोकाकाश के जिनने प्रदेश है उतने सूक्ष्म निगोद (निगोदं प्रशंसनीयति न गच्छतीत्यर्थः)
के गोले है एक एक गोने में असख्यात निगोद है एक एक (२) हरिवंश पुराण (जिनसेनकृत) सर्ग ४ निगोद मे अनन्त जीव है। ये एक श्वास मे-कुछ अधिक मृदंग नाडिकाकारा निगोदा पृथ्वीत्रये ।।३४७॥ १७ जन्म मरण करते हैं, (एक मुहूर्त में मनुष्य के ३७७३ ते चतुर्थ्यांच पचम्या नारकोत्पत्तिभूमयः ॥३४८।। श्वासोच्छ्वास होते है) एक मुहर्त मे ६५५३६ भव सर्वेन्द्रिक निगोदास्ते त्रिद्वाराश्च त्रिकोणकाः ॥३५२।। करते है, निगोद का एक भव २५६ प्रावलियो का होता घर्मा निगोदजाः जीवा खमुत्पत्य पतन्त्यधः ३५५
है । सूक्ष्म निगोद मे नरक से भी अनतगुणा दुःख (प्रज्ञान नरक मे नारकियों के जो उत्पत्ति स्थान इन्द्रक से) है। आदि बिल है उन कुत्सित स्थानो को यहाँ 'निगोद' कहा सत्तरस समहिया किर इगाणु पाणम्मि हुति खुड्डुभवा । है। संस्कृत टिप्पणकारने भी यही अर्थ किया है :-"निगोदः सगतीस सय तिहत्तर पाणु पुण इग मूहुत्तम्मि ।। नारकोत्पत्ति स्थानानि"।
पणसटि सहस्स पणसय छत्तीसा इग मुहुत्त खुड्डभवा । धर्म विलास (द्यानतराय कृत) पृ० १७-(उपदेश
प्रावलियाण दो सय छप्पन्ना एग खुडुभवे ।। शतक)
दि० पाम्नाय मे जहाँ १८ बार जन्म-मरण बताया है वसत अनतकाल बीतन निगोद माहि । प्रखर अनंतभागज्ञान वहाँ श्वेताबर आम्नाय में कुछ अधिक १७ बार बताया अनुसरे है।
है। दि० पाम्नाय में क्षुद्रभवो की संख्या ६५३३६ बताई छासठि सहस तीन से छत्तीस बार जीव । अतर महरत है तब इव० आम्नाय मे ६५५३६ बताई है दि० आम्नाय मे जन्मे और मरे है ।।४८।।
मे यह सख्या स्थावर और त्रस सभी लब्ध्यपर्याप्तको
की बताई है किन्तु श्वे० प्राम्नाय में इसके लिए सिर्फ एक दौलत विलास पृ० ८०--जब मोहरिपु दीनी घुमरिया तसवश निगोद में पड़िया ।
निगोद शब्द का सामान्य प्रयोग किया है। दोनों माम्नायो तह श्वास एक के माहि अष्टादश मरण लहाहि ॥
में इस प्रकार यह मान्यता भेद है (यह भेद सापेक्षिक है
दोनो की सगति सभव है) लाह मरण अन्तर्मुहुर्त मे छ्यासठ सहस शत तीन ही।
महान् सिद्धात ग्रन्थ धवला में निगोद का कथनषट्तीस काल अनंत यों दुख सह उपमा ही नहीं ।
भाग ३ पृ० ३२७, भाग ४ पृ० ४०६, ४०८, भाग ७ पृ० ३७-फिर सादि प्रौ अनादि दो निगोद मे परा,
पृ० ५०६, भाग ८, पृ० १६२, भाग १४ पृ० ८६ आदि जह मंक के मसख्य भाग ज्ञान ऊबरा ।
में है। ब्रह्मचारी मूलशकर जी वेशाई ने अपनी बृहत तह भवअन्तर्मूहुर्त के कहे गणेश्वरा ।
पुस्तक "श्री जिनागम" पृ० १७५ से १८१ मे धवला के छयासठ सहस त्रिशत छत्तीस जन्मधर मरा।
कथनों की पालोचना की है और यहाँ तक लिखा है कियों बसि प्रनतकाल फिर तहां ते नीसरा ॥
धवलाकार ने 'निगोद" के अर्थ को समझा ही नहीं है ___इन उल्लेखों में ६६३३६ क्षुद्रभव सिर्फ निगोद-एके- किन्तु हमें देशाई जी के कथन, में कुछ भी बजन नही न्दिय के ही बनाए है. सह. ठीक नहीं है। ... मालूम पड़ता है। पवखाकार का कपल कोई मापत्तिजनक
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eosपर्याप्त और निगोद
नहीं है । अगर देशाई जी हमारे इस लेख की रोशनी मे पुनविचार करे तो उन्हें भी धवला का कथन सुसगत प्रतीत होगा ।
भावपाड की उक्त २८वी गाथा की संस्कृतटीका श्रुतसागर ने शब्दार्थ मात्र की है । अतः उससे भी - विषय स्पष्ट नही होता है ।
इन दिनों श्री शांतिवीर नगर से भ्रष्टपाहुड ग्रन्थ प्रकाशित हया है जिसके हिन्दी अनुवादक श्री पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर हैं। अनुवादक जी ने उक्त गाथा २८ का अर्थ करते हुए लिखा है कि- ६६३३६ भव निकोत जीयो के होते है न कि निगोद जीवों के। निकोत शब्द का अर्थ प्राप ने मध्यपर्याप्त जीव किया है । किन्तु ग्राप ने ऐसा कोई शास्त्र प्रमाण नही लिखा जहाँ निकोत का अर्थ तक किया हो। वल्कि लाटी मंहिता सर्ग ५ इलो० ६१ ६२, ६४, ८२ मे माघा रण और निकोत दोनों को एकार्थवाचक लिखा है।
ऊपर जो ६६३३६ भव संख्या बताई है उसका मनसब यह है कि एक अनन्यपर्यातक जीव जिसकी कि श्रम और स्थावर पर्यायों में अलग-अलग अधिक से अधिक भवसंख्या प्रागम में बताई है उन सब भवो को यदि वह लगातार धारण करे तो ६६३३६ भव धारण कर सकता है। इससे अधिक नहीं, इन सबो को धारण करने में उसे श्वास कम एक मुहूर्तकाल लगता है जिसे "अन्त हुकाल " संज्ञा शास्त्रों में दी है। इस हिसाब से -
पर्याप्त जीव एक उच्छ्वास मे १८ बार जन्मता ५. जिस तरह " श्री महावीर जी" मे पोस्ट ऑफिस है उसी तरह नदी के इस पार "श्री शांतिवीर नगर". नाम से अलग नया पोस्ट प्रॉफिस खुल गया है ।
६. स्वामि कार्ति के यानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका पृ० २०४ गाथा २८४ में लिखा है :- निगोदं शरीरं येषा ते निगोवा: निकोता वा साधारण जीवाः । भाव पाहुडगाथा ११३ की श्रुतसागर कृत संस्कृत टीका में भी निगोद और निकोत एकार्थवाची ही लिखे हैं। मूलाचार (पंचाचाराधिकार गाया २८ की वसुनंदि कृत टीका) में पृ० १९४-१९४ पर निकोत [शब्द निगोद का पर्यायवाची शब्द दिया है।
—
है और १८ बार मरता है। अतः १८ का भाग ६६३३६ में देने से लब्ध संख्या ३६८५- १/३ प्राती हैं। यानी ३६८५ उच्छवासों में वह ६६३३६ भव लेता है और एक मुहूर्त के १७७३ उपहास होते है। फलितार्थ यह हुआ कि ६६३३६ भव लेने मे उसे ८८ श्वास कम एक एक मुहूर्त का काल लगता है । इन ६६३३६ क्षुद्रभवों में से किसकिम पर्याय में कितने-कितने भव होते है उसका विवरण इस भांति है
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एकेन्द्रियों के द्वीन्द्रिय के त्रीन्द्रिय के
चतुरद्रय के
पचेन्द्रियों मे
असशी तिच के
सज्ञी
मनुष्य के
39
कुल
-
६६१३२
८०
६०
४०
१५१
८
६६३३६ देखो गोम्मटसार जीवकाड गाथा १२२ - श्रादि तथा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा बड़ा पृ० ७६
एकेन्द्रियों के ६६१३२ क्षुद्र भवों का विवरण निम्न प्रकार है
चार स्थावर और साधारण वनस्पति ये पांचों सूक्ष्म बादर होने से १० भेद हुए । प्रत्येक वनस्पति बादर हो होती है अतः उसका एक भेद १० मे मिलाने मे ११ हुए। इन ११ का भाग उक्त ६६१३२ मे देन से लब्ध ६०१२ आते हैं। बस हर एक लब्धपर्याप्तक स्थावर जीव के ६०१२ क्षुद्रभव होते है । इस विषय को इस तरह समझना कि – कोई जीव किसी एक पर्याय मे मरकर पुनः पुन उसी पर्याय में लगातार जन्म-मरण करे तो कितने बार कर सकता है इसकी भी ग्राम नियत सख्या लिखी मिलती है। जैसे नारकी देव भोग भूमिया जीव. मरकर लगते ही दुबारा अपनी उसी पर्याय में पैदा नही हो सकते है। कोई जीव मनुष्य योनि में जन्म लिए बाद फिर भी उसी मनुष्य योनि में लगातार जन्म ले तो वह बार से अधिक नहीं ले सकता है । पृथ्वी प्रादि ४ सूक्ष्म पर्याप्तक स्थावर
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१५२
अनेकान्त
जीव मर मर कर अपनी उसी पर्याय में लगातार अधिक से अलब्धपर्याप्तक जोव अधिक से अधिक निरंतर अपने अधिक असंख्यबार जन्म ले सकते हैं। और पर्याप्तक ६०१२ क्षुद्रभव लिए बाद उन्हे निश्चय ही उस पर्याय से निगोदिया जीव अनंतबार जन्म ले सकते है। उसी तरह निकलना पड़ता है । पलब्धपर्याप्तक जीव के लिए लिखा है कि वह भी यदि
उत्तर अलब्धपर्याप्तक के भव धारण करे तो ऊपर जिस पर्याय हां वहां से उन्हें भी अवश्य निकलना पड़ता है। में जितने भव लिखे है वहां वह अधिक से अधिक उतने ही अलब्धपर्याप्तक पर्याय को छोड कर वे पर्याप्तक-निगोद भव धारण कर सकता है। जैसे किसी जीव ने सूक्ष्मनिगो- में चले जाते है। मूल चीज निगोद को उन्होने छोडी नहीं दिया में प्रलब्धपर्याप्तक रूप से जन्म लिया। यदि वह जिससे वे नित्यनिगोदिया ही कहलाते है । इसी तरह वे मरकर फिर भी वहां के वहा ही बार बार निरंतर जन्म पर्याप्त से अपर्याप्त और सूक्ष्म से बादर पव बादर से मरण करे तो अधिक से अधिक ६०१२ बार तक कर सूक्ष्म भी होते रहते है। होते रहते है निगोद के सकता है। इसके बाद उसे नियमतः पर्याप्तक का भव निगोद मे ही जिससे उनके निगोद का नित्यत्व बना ही धारण करना पडेगा। भले ही वह भव निगोदिया का ही रहता है। क्यों न हो । यदि वह पर्याप्तक मे न जाये और फिर भी निगोदिया जीव अलब्धपर्याप्तक अवस्था में निरन्तर उसे अलब्धपर्याप्तक ही होना है तो वह सूक्ष्म निगोदिया रहें तो अधिक से अधिक सिर्फ ४ मिनट तक ही रह में जन्म न लेकर बादर निगोदिया या अन्य स्थावर-त्रसो सकते है। क्योकि उनके लगातार क्षुद्रभव ६०१२ लिखे मे अलब्धपर्याप्तक हो सकता है। वहा भी जितने वहा के है। जो ३३४ उच्छ्वासों में पूर्ण हो जाते है । ३३४ क्षुद्रभव लिखे है उतने भव धारण किये बाद वहां से भी उच्छ्वासों का काल ४ मिनट करीब का होता है । इस निकल कर या तो उसे पर्याप्तक का भव लेना होगा या थोडे से ४ मिनट के समय में ६०१२ जन्म और इतने ही उसी तरह अन्य स्थावर त्रसों में अलब्धपर्याप्तक रूप से मरण करने से मूक्ष्म निगोदिया अलब्धपर्याप्तक जीवों के जन्म लेना होगा। इस प्रकार से कोई भी जीव यदि सभी इस कदर
इस कदर संक्लेशता बढ़ती है कि उसके कारण जब वे स्थावर त्रसो में निरंतर प्रलब्धपर्याप्तक के भवों को धारण जीव पाखिरी ६०१२ वां जन्म लेने को विग्रहगति मे ३ करे तो वह ६६३३६ भव ले सकता है, इससे अधिक नही।
मोडा लेते है तो प्रथम मोड़ मे ज्ञानावरण का ऐसा तीव्र ऊपर पलब्धपर्याप्तक मनुष्य के अधिक से अधिक ८
उदय होता है कि उस समय उनके प्रतिजघन्य श्रुतज्ञान लगातार क्षुद्रभव लिखे है जिनका काल प्राधे श्वास से भी
होता है। जिसका नाम पर्याप्तज्ञान है। यह ज्ञान का कम होता है। मतलब कि वह अर्द्धश्वास कालमात्र
इतना छोटा प्रश है कि यदि यह भी न हो तो पात्मा जड तक ही मनुष्य भव में रहता है। इतना ही काल अलब्ध
बन जाए। यह कथन गोम्मटसार जीव काड गाथा ३२१ पर्याप्तक पचेन्द्रिय संज्ञी-असंज्ञी तिर्यचों का है। तदुपरांत
में किया है। उन्हें या तो किसी पर्याप्तक में जन्म लेना पड़ेगा या अन्य
निगोद के विषय में एक और भ्रान्त धारणा फली किसी स्थावरादि मे प्रलब्धपर्याप्तक होना पड़ेगा।
हुई है। कुछ जैन विद्वान् ऐसा समझे हुए हैं कि-'नरक यहां प्रश्न
की ७वी पृथ्वी के नीचे जो एक राजू शून्यस्थान है, जहां अनादि काल से लेकर जिन जीवों ने निगोद से
कि सनाडी भी नहीं है वहाँ निगोद जीवों का स्थान निकलकर दूसरी पर्याय न पाई वे जीव नित्य नियोटिया है।"" ऐसा समझना गलत है। जो सूक्ष्म निगोदिया जीव कहलाते हैं। नित्यनिगोदिया जीव पर्याप्तक ही नही, . (१)सरत, जबलपुर आदि से प्रकाशित तत्वार्थसूत्र(पाठ्य बहत से प्रलब्धपर्याप्तक भी होते हैं । वहां के उन अलब्ध- पुस्तक) में तीन लोक का नकशा दिया है उसमे ७वे पर्याप्तिकों ने भी प्राज तक निगोदवास को छोडा नहीं है। नरक के नीचे एक राजू में निगोद बताया है। ऐसा ऐसी सूरत में पाप यह कैसे कहते है कि-निगोदिया ही कथन कार्तिकेयानुप्रेक्षा (रायचन्द्र शास्त्रमाला)
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मलबषपर्याप्तकौर निगोद
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हैं वे तो असनाड़ी मोर उससे बाहर सब लोक में ठसाठस है वहाँ अन्य स्थावर जीव भी रहते हैं। ऐसा वृ० द्रव्य' भरे हुए हैं। ये ही नहीं, पृथ्वी प्रादि अन्य सूक्ष्म स्थावर संग्रह की ब्रह्मदेवकृत संस्कृतटीका में लोकानुप्रेक्षा का जीव भी समस्त लोक में व्याप्त है । इसलिए सातवी पृथ्वी वर्णन करते हुए कहा हैके नीचे ही निगोद कहना ठीक नही है, वह तो तीन लोक
"तस्मादधोभागे रज्जुप्रमाणं क्षेत्र भूमि रहित निगोदामें सर्वत्र है। वह सातवीं पृथ्वी से नीचे भी है और अन्यत्र
भा हमार अन्यत्र दिपंच स्थावरभूतं च तिष्ठति ।" अर्थ-उस सातवीं पृथ्वी
.. भी है। तथा ७वी पृथ्वी के नीचे केवल निगोद ही नही के नीचे एक राजप्रमाण क्षेत्र भूमि रहित है वहाँ निगोद
पृ०५६, ६२ में तथा सिद्धांतसार संग्रह (जीवराज को प्रादि लेकर पांच स्थावर जीव तिष्ठते है । ग्रंथमाला) पृ० १४४ मे हिन्दी अनुवादकों ने किया स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका में (पृष्ठ है जब कि मूल और संस्कृत टीका में ऐसा कुछ ५६ में) भी इसी गद्य को उद्धृत करके यही बात दर्शायी नहीं है। (२) जैन बाल गुटका (प्रथम भाग बाबू ज्ञानचन्द
प्रश्न :- "सूक्ष्मनिगोद सर्वत्र है यह ठीक है पर ७वीं जैनी, लाहौर) पृ० ३२ असनाली मे नीचे निगोद :- पृथ्वी के नीचे जो निगोद कही जाती है वह बादर निगोद (३) यशोधर चरित्र (लोकानूप्रेक्षा के वर्णन मे,
है।" उत्तर :-ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि हजारी लालजी कृत भाषा) पृ० १६१-"नर्क निगोद
बादर जीव बिना आधार के रह नहीं सकते ऐसा सिद्धान्त पाताल विषे जहाँ क्षेत्र जुराज सात बखानी।"
है। गोम्मटसार जीवकांड गाथा १८३ में लिखा है कि(४) द्यानतराय जो कृत चर्चाशतक के हिन्दी वच.
"प्राधारे थूलामो सव्वत्थ णिरंतरा सुहमा।" बादर जीव निकाकार हरजीमलजी ने पद्य ८, ११, १२, १३ क ।
आधार पर रहते है और सूक्ष्म जीव सर्वत्र बिना व्यवधान अपनी टीका मे सातवे नरक के नीचे निगोद लिखा
के भरे है। स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी लिखा है किहै (यह अथ वीर प्रेस, जयपुर से प्रकाशित हुआ है)
पुण्णा वि अपुण्णा वि य थूला जीवा हवति साहारा । (५) बनारसी विलास (वि० स० १७०० मे रचित)
छन्विह सुहमाजीवा लोयायासे वि सम्वत्थ ॥१२३।। के "कर्म प्रकृति विधान" प्रकरण मे लिखा है :जो गोलक रूपी पचधाम, अडर खडर इत्यादि नाम। ८. और यही बात नरेन्द्रसेनाचार्यकृत-सिद्धांतसार संग्रह ते सातनरकके हेट जान, पुनि सकललोक नभमे बखान अध्याय ६ श्लोक ६ में कही है :-ततोऽधस्ताद्धरा (६) बुद्धि विलास (बखतराम शाह कृत वि० सं०
शून्य रज्जुमान सुदुस्तरम् । क्षेत्रमस्ति निगोतादि १८२७) ग्रंथारंभ में
जीवस्थान मनेकपा । इसमें निगोद के प्रागे प्रादि रत्न शर्करा बालुका, पंक घूमतम सोदि ।
शब्द देकर पचस्थावरो का संसूचन किया है । पं० बहुरि महातम सात ये तिनतल कही निगोदि ।।११।। प्रवर गोपालदासजी वरैया ने भी "जैन सिद्धांतदर्पण" प्रथम हिं भूमि निगोदाल लाबी चौड़ी जानि ।
पृ० १६६ में यही लिखा है :-"सातवी पृथ्वी के सात सात राजू कही, पुनि सुनिए गुणखानि ॥१६॥ नीचे एक राजू प्रमाण अाकाश निगोदायिक जीवों से (७) छह ढाला (जैन पूस्तक भवन कलकत्ता की
भरा हुआ है।" प्रत: सातवी पृथ्वी के नीचे एक सचित्र) पृ०५-यद्यपि निगोद सर्वत्र पाये जाते है राजू में सिर्फ निगोद ही बताना बिल्कुल गलत है। तथापि सात नरकों के नीचे खास निगोदों का स्थान है। 6. पं० माणिकचन्द जी न्यायाचार्य ने "तीन लोक का (5) "जैन मित्र" वैशाख सुदि वि. स. २४६४ वर्णन" लेख मे (सरल जैनधर्म) पृ० १०६ में) "त्रिलोक परिचय" लेख मे लेखिका ने लिखा है- लिखा है :-प्रधो लोक में सबसे नीचे एक राजू तक अधोलोक में नीचे सात नरक हैं इस सबसे नीचे बादर निगोद जीव भरे हुए हैं और उससे ऊपर छह निगोद लोक है।
राजुओं में सात पृथ्वियां हैं।
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भनेकान्त
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अर्थ-चाहे पर्याप्त हो या अपर्याप्त हो सबही बादर मामास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । जीव भाषार के सहारे से रहते हैं । तथा पृथ्वी-जल-अग्नि- सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ॥ ६७ ॥ वाय-नित्य निगोद और इतरनिगोद ये ६ सूक्ष्म जीव लोका- ग
लाका- अर्थ-कच्ची, पक्की, पकती हुई मांस की डलियों में मांस
ली पकी पस काश में सब जगह भरे है।
जैसे वर्ण-रस-गध वाले निगोद जीव निरतर ही उत्पन्न नरक की ७वी पृथ्वी के नीचे एक राजप्रमाण क्षेत्र होते रहते हैं। में वातवलयों को छोड़कर बाकी सारा स्थान निराधार
पुरुषार्थसिद्धयुपाय के इस श्लोक में प्रयुक्त "तज्जातीनां शून्यमय है। और बिना प्राधार के बादरजीव रहते नहीं
निगोतानां" का अर्थ कोई ऐसा करते हैं कि जिस जाति है तो वहाँ बादर निगोद भी कैसे मानी जा सकती है?"
के जीव का मांस होता है उसमे उसी जाति के जीव पैदा दूसरी बात यह है कि-गोम्मटसार जीवकाड गाथा १९६
होते हैं । जैसे बैल का मास हो तो उसमे बल जैसे ही में वनस्पतिकायिक विकलत्रय पचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्यों
सूक्ष्म त्रस जीब पैदा होते है।" ऐसा अर्थ करने पर जब के (केवल शरीर-आहार शरीर को छोड़कर) शरीरो में
निगोद शब्द के साथ सगति बैठती नही, क्योंकि निगोदिया बादर निगोदिया का स्थान बताया है और सातवीं पृथ्वी के नीचे वातवलयो को छोडकर शेष स्थान में न प्रत्येक
जीव त्रस होते नहीं तब वे निगोत शब्द का लब्ध्यपर्याप्तक
अर्थ करके सगति बैठाने का प्रयत्न करने लगते है पर वनस्पतिकायिक हैं और न स है इससे भी वहा बादर
निगोत का लब्ध्यपर्याप्तक अर्थ किसी शास्त्र में देखने मे निगोद का प्रभाव सिद्ध होता है।
प्राया नहीं है। यह गड़बड़ 'तज्जातीनां' शब्द का ठीक इससे यह भी प्रगट होता है कि जिस प्रकार प्रत्येक अर्थ न समझने की वजह से हुई है। इसलिए 'तज्जातीना' वनस्पति के प्राश्रित बादर निगोद होने से वह सप्रतिष्ठित का सही अर्थ यों होना चाहिए कि-"उसी मांस की कहलाती है। उसी तरह त्रस जीवों के शरीरों के आश्रित जाति के (न कि उसी जीव की जाति के) अर्थात् उस भी बादर निगोद जीव रहते हैं प्रतः प्रसकाय भी सप्र- मांस का जैसा वर्ण-रस-गंध है उसी तरह के उसमे निगोदतिष्ठित कहलाता है" गोम्मटसार की उक्त गाथा १६६ जीव पैदा होते है।" ऐसा अर्थ करने से कोई असगतता में यह भी लिखा है कि-पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु इन चार नही रहती। जिस प्राकृत गाथा की छाया को लेकर पुरुस्थावरों के शरीर में, तथा देव शरीर, नारकी शरीर षार्थ सिद्धचपाय में उक्त पद्य रचा गया है उस गाथा में माहारक शरीर, और केवलीका शरीर सिर्फ इन पाठ भी मास में निरंतर निगोद जीवों की ही उत्पत्ति बताई शरीरों में निगोदिया जीव नहीं होते, शेष सब शरीरों में निगोदिया जाव नहा हात, शेष सब शराराम है। वह गाथा यह है
है। व निगोद जीव होते हैं । इसलिए अमृतचद्र स्वामी ने पुरुषार्थ
प्रामासु प्र पक्कासु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीम् । सिद्धघुपाय के निम्न श्लोक में मास में निगोद जीव
सययं चिय उववामो भणिमो उ निगोमजीवाणं ।। होने का कथन किया है
यह गाथा श्वेताम्बराचार्य हेमचंद्र ने योगशास्त्र के तीसरे १०. चर्चा समाधान (चर्चा नं. ६५) में सातवे नरक के प्रकाश में उद्धत की है। स्याद्वादमंजरी के पृष्ठ १७६ पर
नीचे बादर निगोद (पंचगोलक) का प्रभाव बताया भी यह गाथा उद्धत हुई है। तथा पुरुषार्थ सिडधुपाय की है। सुदृष्टि तरगिणी में भी प० टेकचन्द जी सा० ने पंडित टोडरमल जी साव ने वनिका लिखी है। उसमें लिखा है कि सातवें नरक के नीचे बादर निगोद
उक्त पद्य नं०-६७ का अर्थ इस प्रकार किया है-" माली बताने वाले भोले जीव हैं।
होउ, अग्निकरि पकाइ होउ, अथवा पकती होउ, कछु एक ११. प्रनगार धर्मामृत पृ० ४६१ में मलपरीषह प्रकरण में पकी होउ, ऐसे सबही जे मांस की डली तिनविष उसही
लिखा है:-उइवर्तन (उबटन, मैल उतारने) में जाति के निगोदिया अनंते जीव तिनका समय-समय विष बादर प्रतिष्ठित निगोद जीवों का घात होता है। निरंतर उपजना होय है। सर्व अवस्था सहित मांस की
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मलम्बपर्याप्तक पौर निगोद
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डलिनी विषं निरंतर वैसे ही मांस सारिखे नये-नये अनंत पर्याप्तक नहीं होते-थे पर्याप्तक भी होते हैं। इस तरह दोनों जीव उपज हैं।"
में विषमता होने से यह भी नहीं कह सकते कि जैसी यहां टोडरमल जी साव ने भी मास में मांस जैसे ही उत्पत्ति लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों की है। वैसी ही तिर्यंचों निगोद जीव की उत्पत्ति लिखी है । न कि लब्ध्यपर्याप्तको की भी है। यद्यपि प्रागम मे पंचेद्रिय तिर्यचों के गर्भज की। और देखिये सागारधर्मामृत अध्याय २ श्लोक ७ मे और सम्मूच्छिम ऐसे दो भेद जरूर किये है। पर इसका पं० प्राशाधर जी भी मांस में प्रचुर निगोद जीव बताते मतलब यह नहीं है कि जो बैल, हाथी, घोडे गर्भजन्म से हुए निगोत का अर्थ साधारण-अनतकाय लिखते है। पैदा होते है वे ही सम्मूच्छिम भी होते है। सम्मूच्छिम लब्ध्यपर्याप्तक नहीं लिखते । यहा यह भी समझना कि- पचेन्द्रिय तियंच और ही होते है -- जिस जाति के गर्भज जैसे स्थावर वनस्पतिकाय मे जो बादर निगोदजीव पैदा तिर्यच होते है उसी जाति के सम्मूच्छिम तिर्यंच नही होते होते है । वे भी तो उस वनस्पति के रूप-रस-गंध जैसे ही ऐसा कहने में कोई बाधक प्रमाण नजर नहीं पाता है । पैदा होते हैं। वैसे ही उस जीवो के कलेवरो मे समझ रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ६६ की टीका मे पं० लेना चाहिए। यह एक जुदी बात है कि-तिर्यचो के सदासुख जी ने लिखा है :-"मनुष्य तिर्यंचनि के मास का मांस में निगोदजीवों के अतिरिक्त लब्ध्यपर्याप्तक और एक कण में एत्ते बादर निगोदिया जीव है जो त्रैलोक्य के पर्याप्तक कृमि आदि त्रस जीव भी पैदा हो जाते है। यहा एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक जितने जीव है उनसे अनंतगुणे तक की उसमें सम्मूच्छिम पचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यच है ताते अन्न जलादिक असख्यात वर्ष भक्षण करे तिसमें तक पैदा हो सकते है। परन्तु इसका मायना यह नहीं है जो एकेन्द्रिय हिंसा होय ताते अनंतगुणे जीवन की हिंसा कि बैल के कलेवर में बैल जैसे पचेद्रिय सूक्ष्म लब्ध्य- सूई की अणीमात्र मास के भक्षण करने में है पृ० १८१।" पर्याप्तिक जीव पैदा होते है । ऐसा कोई पार्षप्रमाण हो प. सदासुख जी साब ने भी मांस मे जो निगोदिया जीव तो बताया जावे । मनुष्य के कलेवर मे लब्ध्यपर्याप्तक सतत उत्पन्न होते है उन्हे एकेन्द्रिय ही माना है। किन्तु मनुष्यों का पैदा होना ऐसा तो शास्त्रों मे स्पष्ट कथन "श्री जिनागम" पुस्तक के पृ. ३२३ पर देशाई जी ने इस मिलता है। परन्तु जिस जाति के तिर्यच का कलेवर कथन की पालोचना की है जो ठीक नहीं है। पं० सदासुख हो उसमें उसी तिर्यच जाति के लब्ध्यपर्याप्तक सूक्ष्म जीव जी का कथन प्रागमानुसार है। पैदा होते है ऐसा कथन नहीं मिलता है । तथा जिस प्राशा है बहुश्रुतज्ञ विद्वान और त्यागी वर्ग इस निबंध प्रकार सभी सम्मूच्छिम मनुष्य नियमतः लब्ध्यपर्याप्तक पर गहरे चिंतन के साथ अपने विचार प्रकट करने कि ही होते है। उस तरह सभी सम्मूच्छिम तिर्यच लब्ध्य- कृपा करेगे ।
विजोलिया के जैन लेख
श्री रामवल्लभ सोमानी बिजोलिया क्षेत्र भीलवाडा जिले का ऊपर माल क्षेत्र मांडलगढ़ और भीलवाडा पाते समय मै यहाँ ठहरा था का भाग है । इतिहास की दृष्डि से यह बड़ा प्रसिद्ध है। तब कुछ लेख देखे थे उनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है:पाश्चर्य नहीं कि गुजरात के लेखकों ने कुमारपाल के (i) वि० सं० १२२६ का प्रसिद्ध चौहान लेख :पूर्व भव में जन्म इसी क्षेत्र में माना है। यहाँ के कई शव इस लेख का प्रकाशन एपिग्राफिमा इंडिका में श्री अक्षयपौर दिगम्बर जैन लेख मिले हैं। कई वर्षों पूर्व बून्दी से कीति व्यास के सम्पादन में हुआ है । मूल लेख में ३०
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अनेकान्त
पंक्तियां हैं। एवं ९३ श्लोक पोर कुछ गद्य भाग है। इसका मूल पाठ इस प्रकार पढ़ा जाता है :प्रारम्भ के २८ श्लोकों मे चौहानों की वंशावली दी हई
॥ई०।। ऊ । अर्हद्भ्यो नमः । स्वायं भूवं चिदानंद है जो अधिकांशतः अन्य शिलालेखों से मिलती है। लेख स्वभावें शाहवतोटा। शा
स्वभावें शाश्वतोदयम् । घामध्वस्ततमस्तोमम्मेयं महिम में यह भी वणित है कि पार्श्वनाथ मन्दिर को मोराक्षरी
स्तुमः ॥१॥ ध्रौव्योपेत मपि व्ययोदय यूतं स्वात्मस्थमध्यागांव पृथ्वीभट द्वितीय ने दिया और सोमेश्वर ने रेवाणा त्मकं लोकव्यापि परं यदेकमपि चानेक सूक्ष्म महत, प्रानंदागांव दिया। इसके बाद लोलाक श्रेष्ठ का वर्णन है।
मृतपूरपूर्णमपियच्छन्य स्वसदेवनम् ज्ञानाद्गम्यमगम्यमप्य(ii) दुसरा बड़ा लेख उन्नत शिखर पुराण का है। भिमतप्राप्त्यै स्तुवे ब्रह्मतत्।।शात्वकर्म सोमो वृत(भूत)जगती इसमें कुल २६४ श्लोक खुदे हुए थे। किन्तु अब एक तलेऽस्मिन्धनान मूत्तिः किमविश्वरूपः । स्रष्टा विशिष्टार्थ शिला पर ३१ श्लोक हैं और दूसरी पर २७६ से २६४ विभेददक्षः स पाश्र्वनाथस्तनुताश्रिय वः ॥३॥ स पावतक मिलते है यह लेख वहाँ के स्थानीय अधिकारियों द्वारा ज्ञात हुआ था कि प्रकाशित हो चुका है। इसलिए येन पदार्थसार्था निजे (न) सज्ञान विलोचनेन ॥४॥ इसकी पूरी नकल नहीं की जा सकी। इसके शुरू के सवृत्ताः खलु यत्र लोक महिता मुक्ता भवंतिश्रियोःरत्ना४ श्लोकों में स्तुति है। ५ श्लोक टूटा हुआ है। इसमे नामपि भद्रये सुकृतिनो यं सर्वदोपासतेः सद्धर्मामृतपरपृष्टकिसी नगर का वर्णन है [श्री मद्राज न......नाम नगरं सुमनाः स्याद्वादचंद्रोदयाः काक्षीसोऽत्र सनातनो विजयते वसुधातले। प्रसिद्धम भवत् पुण्य वीतरीति जनावृत्त मूलसघोदधिः ॥५॥ श्रीगौत्तमस्वामिगणेशवशे श्री ॥६॥ यहाँ के कई देवालयों का वर्णन भी मिलता है। कुदकुदोहिमुनिर्बभूव पदेष्व नेकेषगतेषतस्माच्छी धर्मचंदो 'पूज्यंते परया भक्त्या सर्वसिद्धिप्रदो जिनः" कह कर गणिषु प्रसिद्धः॥ भवोद्भवपरिश्रमप्रशम केलिकोतहली स्थानीय क्षेत्र में प्रचलित जैन धर्म के प्रति श्रद्धा एवं सुधाकरसमः सदाजयति य द्वचःप्रकृमः । समेमुनिमतल्लिका भक्ति का उल्लेख भी किया है। आगे के श्लोकों मे जो विकचमल्लिका जित्वर प्रसृत्वर य सोभरो भवतु रत्नचित्र खीचा गया है उसमें बड़ा अलंकारिक वर्णन है। कीतिर्मुदे (ने) ७॥ दूसरी शिला में भगवान पार्श्वनाथ के सम्बन्ध में वर्णन यह पूरा लेख १५ पद्यों का है जिसमें भ० धर्मचन्द्र, है। अंत में इस प्रकार लिखा है “इति सिद्धेश्वर विरचित भ० रनकोति, प्रभाचन्द्र, पद्म नन्दि, शुभचन्द्र और शुभचन्द्र उन्नत शिखर पुराणे पंचमः सर्ग ॥ लिखापितं श्रीध...... के शिष्य हेमकीर्ति का उल्लेख है । यह लेख स० १४६५ पुत्र लालाकेन लिखितं । संवत् विक्रमादित्यकाले द्वादशशत फाल्गुनसुदि २ बुधवार का उत्कीर्ण किया हमा है। ऊपर घड़ विशाविक गते फाल्गुणवदि दशम्यां......" पाश्र्वनाथ जितना जल्दी में पढ़ा जा सका, दिया गया है । इसका मन्दिर का उक्त लेख वि० स० १२२६ फाल्गुण वदि ३ पुनः पढा जाना आवश्यक है। का है और यह लेख उससे ७ दिन बाद का ही है। यह इस लेख में मुनि पद्मनन्दि के शिष्य भ० शुभचन्द्र का लेख मुझे जहाँ तक जानकारी है अभी तक छपा नहीं है। उल्लेख है, सभवतः इन्हीं शुभचन्द्र द्वारा दीक्षित शिष्या
नरोप प्रार्या लोकसिरि विनयश्री और शिक्षिका वाई चारित्रश्री गया है। इसमें १. सर्वश्री वसंतकीर्तिदेव २. विशाल तथा चारित्रधी की शिक्षिणी वाई पागमश्री का भी नाम कीतिदेव ३. शुभकीर्तिदेव ४. धर्मचन्द्रदेव ५. रत्नकीति- दिया है। लेख महत्त्वपूर्ण है। देव ६. प्रभाचन्द्रदेव ७. पचनन्दिदेव ८. शुभचन्द्रदेव और इस प्रकार इस क्षेत्र में मोर भी कई लेख मिलते हैं। कुछ साध्वियों के नाम हैं। इसमें कुल ५ श्लोक और इनकी शोधयात्रा बहुत ही भावश्यक है । गत वर्ष जहाजकुछ गद्य भाग है।
पुर में भी दिगम्बर जैन लेख देखे थे जिन्हें वीर वाणी में (iv) सूरह लेख-यह लेख अब तक छपा नहीं है। मैंने प्रकाशित कराये हैं।
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अनेकान्त पत्र का इतिहास
पं. परमानन्द जैन शास्त्री
किसी भी सम्पन्न देश या समाज को, जो अपना में रखते हुए समाज के प्रसिद्ध ऐतिहासिक वयोवृद्ध विद्वान उत्कर्ष एव अभ्युदय चाहता है, उसे अपनी संस्कृति, स्व. पं. जुगल किशोरजी मुख्तार ने चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सभ्यता और प्राचार-विचारो की परम्परा को सदृढ बनाने, सं० १९८६ ता० २१ अप्रैल सन् १९२६ को करौलबाग, एव उनका प्रचार प्रसार करने एव ठोस साहित्य को प्रकट दिल्ली में 'समन्तभद्राश्रम' नामक संस्था की स्थापना करने के लिए साहित्यिक तथा ऐतिहासिक तथ्यो को की। और इसी सस्था से उक्त सवत् के मार्गशिर महीने गवेषणा के साथ लोक में प्रकट करने वाले पत्रो की पाव- में 'अनेकान्त' नाम के मासिक पत्र का प्रथम अंक श्यकता होती है । जिस देश और समाज के अच्छे उच्च- प्रकाशित किया। अनेकान्त पत्र का यह प्रक सचित्र, स्तर के पत्र होगे, वही देश अपनी संस्कृति का द्रुतगति से सुन्दर और महत्वपूर्ण शोध-खोज के लेखो की साज-सज्जा प्रचार करने में समर्थ हो सकते है । टोस पत्रकारिता तथा से विभषित है। इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं । प्रथम साहित्य प्रकाशन और प्राचीन शिलालेख, सिक्के, ताम्रपत्र, वर्ष के सभी प्रक भाषा-भाव, महत्वपूर्ण लेख, कहानी और प्रशस्तियाँ एवं पुरातात्त्विक अवशेष और पुरातन कलात्मक
सुभाषितो आदि की दृष्टि से उच्चकोटि के है । मुख्तार वस्तुप्रो का प्रदर्शन आदि उसकी प्राचीनता एव महत्ता के
सा० के सम्पादकीय लेख बड़े ही महत्वपूर्ण और खोजपूर्ण द्योतक है । इनसे ही देश-विदेशों में उसकी सस्कृति का
है। इससे उनकी लेखनी का सहज ही आभास मिल जाता प्रचार प्रसार एव महत्व ख्यापित हो सकता है। इन साधनो
है। प्रथम वर्ष की यह फाइल अप्राप्य है और जन साधाके अतिरिक्त अन्य कौन ऐसे सुलभ साधन है जो सस्कृति
रण के लिए अत्यन्त उपयोगी है, पाठको को उसका मनन को ऊँचा उठा सके । उसके अभ्युदय को लोक में प्रतिष्ठित
करना चाहिए। कर सके। प्राचार विचारो को ऊँचा उठाये बिना कोई भी देश या समाज अपनी उन्नति करने में समर्थ नही हो
__ खेद है कि अनेकान्त के प्रथम वर्ष की अन्तिम किरण सकता।
प्रकाशित होने के साथ ही स्थान की कमी और मर्थ जैन समाज को संगठित करने, एक सत्र में बांधने, सकोच के कारण पत्र को बन्द करना पड़ा। और पाकिस और श्रमण मस्कति की महता को लोक में पका को को सरसावा ले जाना पड़ा। सरसावा मे स्व. मुख्तार लिए बहुत दिनों से एक अच्छे साहित्यिक मासिक पत्र को सा० ने जमीन खरीद कर उस पर वीर सेवामन्दिर नाम निकालने की आवश्यकता प्रतीत हो रही थी। यद्यपि का भवन बनवाया। सन् १९३६ मे उसका उदघाटन श्रद्धेय पं. नाथूरामजी प्रेमी बम्बई ने जैन हितैषी नामक ब्रह्मचारी शीतल प्रसादजी के द्वारा हा और उसी में मासिक पत्र निकाला था उससे साहिशिकनिहासिक उक्त सस्था का कार्यालय स्थापित किया गया। शोध-खोज समीक्षात्मक लेख प्रकट होने लगे थे। किन्तु कुछ वर्षों के
र का कार्य भी वहीं सम्पन्न होने लगा। पुरातन जैन वाक्य
का बाद वह बन्द हो गया। उसके बन्द हो जाने पर समाज सूचा भार
म सूची और लक्षणावली के लिए लक्ष्य शब्द एवं उनके में साहित्यिक और ऐतिहासिक पत्र की बड़ी प्रावस्यकता लक्षणों के संग्रह का का कार्य भी होने लगा। इस तरह महसूस होने लगी, साथ में अनेक सैद्धान्तिक गुत्थियों को सरसावा साहित्यिक क्षेत्र बनने लगा। प्रामाणिकता के साथ सुलझाने की समस्या भी अपना उग्र- सन् १९३६ में वीर शासन जयन्ती के अवसर पर रूप धारण कर रही थी। इन्हीं दोनों समस्यामों को ध्यान ला० तनसुखराय जी-संचालक तिलक बीमा कम्पनी
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अनेकान्त
दिल्ली अध्यक्ष होकर सरसावा पाये, साथ में अयोध्या- चरण महा कवि सिंह और प्रद्युम्नचरित, धर्मरत्नाकर प्रसाद जी गोयलीय भी थे। अनेकान्त के प्रकाशन की और जयसेन नाम के प्राचार्य, अमृतचन्द्र सूरि का समय चर्चा होने पर उन्होंने उसके घाटे की स्वीकृति प्रदान की जैन सरस्वती। हरिषेणकृत अपभ्रंश धर्मपरीक्षा आदि पौर अयोध्याप्रसाद जी गोयलीय उसके प्रकाशक रहे।
महत्वपूर्ण लेखों का संकलन किया गया है। सात वर्ष दूसरे और तीसरे वर्ष के दोनो प्रथमाक विशेषाक के
के प्रकाशन मे बडी कठिनाइयों का सामना करना पडा रूप में प्रकाशित हुए। जिनमें अनेक लेख पठनीय और कागज की प्राप्ति में न्यूजप्रिन्ट लगाना पडा। मोर संग्रहणीय प्रकाशित हुए है। इन दोनों वर्षों की फाइले उससे प्रकाशन में भी विलम्ब हमा, और पेजो मे भी व फुटकर अक सभी अप्राप्य है। पर जिन्होने उनको पढ़ा कटौती करनी पड़ी। इन सबके होने पर भी पत्र को है वे उसकी महत्ता से कभी इकार नही कर सकते । विशे- बराबर जीवित रखने का उपक्रम मुख्तार सा० ने षांकों में जो पठनीय सामग्री सकलित की गई है वह किया है। आर्थिक सकोच तो अनेकान्त पत्र के जीवन मे स्थायी और महत्व की है। जिन पाठको ने उनका रसा- प्रारम्भ से ही रहा है। और प्रयत्न करने पर समाज से स्वादन किया है, वे उनकी गरिमा से परिचित है। उसके घाटे की कुछ पूर्ति भी हुई है । सन् १९४१ में अनेकान्त का प्रकाशन वीर सेवामन्दिर
हवे वर्ष मे अनेकान्त का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ सरसावा से ही निश्चित हया। सम्पादक मुख्तार साहब
काशी की ओर से हमा। और उसके सम्पादक मण्डल में और प्रकाशक मुझे बनाया गया। इस वर्ष का प्रथमाक
मुख्तार साहब के अतिरिक्त मुनि कान्तिसागर जी, पं. विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ, जिसके मुख पृष्ठ पर दरबारीलाल जी कोठिया और अयोध्याप्रसाद जी गोयचित्रमय जैनी नीति को प्रकट किया गया। इस अंक मे लीय का नाम शामिल किया गया। अन्य वर्षों की 'तत्त्वार्थसूत्र के बीजों की खोज' नाम का मेरा लेख भी भाति इस वर्ष मे भी अनेक लेख महत्त्व के प्रकाशित हुए। प्रकाशित हुपा है जो बडे परिश्रम से मैने डेढ महीने में इस वर्ष के अन्तिम प्रक मे जो 'सिद्धसेनांक' नाम से प्रकातय्यार किया था। और जिसे विद्वानो ने खूब पसन्द किया शित हया है, उसमें स्व. मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी ने था। गोम्मटसार की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका और तमिल
__ 'सम्मतिसूत्र और सिद्धसेन' के बारे मे जो खोजपूर्ण अनेक भाषा का जैन साहित्य' नामक लेख भी इसी प्रक मे दिये
म दिय महत्त्व के तथ्य प्रकाशित किये है, वे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गये हैं, जो महत्त्वपूर्ण है । इस वर्ष के अंकों में राजमल्लका
है। और ऐतिहासिक विद्वानों के द्वारा विचारणीय है। पिंगल और राजाभारमल लेख प्रकाशित हुमा। अनेकान्त
। उनका उत्तर आज तक भी विद्वानो के द्वारा नही हुआ पत्र को आर्थिक सकट के कारण प्रकाशन मे बड़ी अडचने है। उसी प्रक में 'ब्रह्म श्रुतसागर का समय' शीर्षक लेख प्राई, कागज का मिलना भी दुर्लभ हो गया, किन्तु जैसे-तैसे भी छपा है जिसमे ब्रह्मश्रुतसागर का समय निश्चित किया उसका प्रकाशन होता ही रहा ।
गया है। इसी वर्ष की दूसरी किरण मे 'चतुर्थ वाग्भट उक्त वर्षों की भांति ५, ६, ७ और आठवें वर्ष के और उनकी कृतिया' नाम का एक खोजपूर्ण लेख छपा है। अनेकान्त के अंकों मे पठनीय और सग्रहणीय सामग्री का और भी अनेक लेख महत्त्व की ज्ञातव्य सामग्री को प्रदान प्रकाशन हुआ है । पउमरिय का अन्तः परीक्षण, सर्वार्थ- करते है। सिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव, पडित प्रवर टोडरमल १०वे वर्ष में अनेकान्त का प्रकाशन वीर सेवामन्दिर जी और उनकी रचनाएं, क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और से ही हमा। स्व० मुख्तार सा० के साथ १० दरबारीलाल स्वामी समन्यभद्र एक हैं ? नाग सभ्यता की भारत को जी सहायक सम्पादक का कार्य करते थे। इस वर्ष मे भी देन, जयपुर में एक महीना, शिवभूति, शिवार्य और अनेक महत्त्व के लेख प्रकाशित हुए। इसी वर्ष के अंकों मे शिवकुमार, श्रीचन्द नामके तीन विद्वान । शित्तन्ना वासल हिन्दी भाषा के कवियों का परिचय भी दिया जाने लगा। केवलज्ञानकी विषय मर्यादा, तत्त्वार्थसूत्र का मंगला- पं.दौलतराम मौर उनकी रचनाएँ, शीर्षक लेख में जयपुर
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भनेकान्त पत्र का इतिहास
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के विद्वान दौलतराम काशलीवाल का परिचय दिया गया कलिका और कवि ठाकुर, भगवतीदास, रूपक काव्य है। महाकवि रइधु वाला लेख भी १०वीं किरण में दिया परम्परा, अपभ्रश भाषा का जंबूस्वामीचरित और कवि गया है।
वीर, कविवर ठकुरसी और उनकी कृतिया, पं० भागचन्द ११वें वर्ष में स्व० मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी ही जी, जैन कथा के प्रतीक और प्रतीकवाद, समन्तभद्र के उसके सम्पादक रहे। इस वर्ष की सर्वप्रथम किरण 'सर्वो- समय पर विचार प्रादि अनेक शोधपूर्ण लेख प्रकाशित हुए दय तीर्था' के नाम से प्रकाशित हुई, जिसमे भगवान है। वर्ष ४ से १४वे वर्ष तक मैं अनेकान्त का प्रकाशक महावीर के शासन सर्वोदय तीर्थ पर अनेक लेख लिखे गये रहा और अन्तिम दो वर्षों में सम्पादक भी। इन वर्षों जो महत्त्वपूर्ण है इसके मुख पृष्ठ पर सर्वोदय तीर्थका काल्प
मे अनेकान्त का सब कार्य मुझे ही करना पड़ता था। निक सुन्दर चित्र दिया है। इसी मे उदयगिरि खण्डगिरी
मुझसे जितनी भी सेवा बन पड़ी, उसे लगन के साथ की। का ऐतिहासिक परिचय वाला बाबू छोटेलाल जी कलकत्ता का सचित्र लेख भी प्रकाशित किया गया। इस वर्ष की ३री
१४वे वर्ष के बाद आर्थिक सकोच के कारण भनेकान्त किरण मे छहढाला के कर्ताकवि दौलतराम जी का परि- को ५ वर्ष के लिए बन्द करना पड़ा। इन वर्षों में साहित्य चय दिया गया है । और चौथी-पाचवी किरण में प्रागरा के
की शोध-खोज मे शैथिल्य पा जाना स्वाभाविक ही था। कवि द्यानतराय और भगवतीदास का भी परिचय दिया गया
बाब छोटेलाल जी को उनके अनेक मित्रों ने बार-बार
अनेकान्त के प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया। तब है। बुन्देलखण्ड के कवि देवीदास, हेमराजगोदी का पौर प्रवचन सार का पद्यानुवाद, फतेहपुर के मूर्तिलेख, मोहन
उन्होंने खूब सोच-विचार कर अनेकान्त के कुछ सहायक जोदडो की कला और जैन सस्कृति, महाराज खारवेल
बना कर सन् १९६२ मे अनेकान्त को वै मासिक रूप में
प्रकाशित किया। सम्पादक मण्डल और प्रकाशक भी चमे एक महान् निमतिा आदि अनेक खोजपूर्ण लेख प्रकाशित
रूप में नियुक्त किये गये। डा० ए० एन० उपाध्ये, श्री १२वे वर्ष में अनेकान्त के सम्पादक स्व० मुख्तार सा०
रतनलाल कटारिया, डा. प्रेमसागर और यशपाल जैन । ही रहे। इस वर्ष मे भी अनेकान्त मे महत्त्वपूर्ण सामग्री
और प्रकाशक बाबू प्रेमचन्द जी बी. ए. कश्मीर वाले प्रकाशित की गई है। हिन्दी कवियों मे कविवर भूधरदास
है। १७वें वर्ष में तीन ही सम्पादक रहे। १६ वर्ष का और उनकी विचारधारा पर ही लिखा गया, दशलक्षण
छोटेलाल स्मृति प्रक यशपाल जी और मैंने सम्पादित धर्म पर अच्छे महत्त्व के लेख लिखे गये है। मूलाचार के
किया। इन सभी वर्षों के अनेकान्त का कार्य मुझे अकेले सम्बन्ध में भी विचार किया गया है।
ही उठाना पड़ता है। २१वें वर्ष के जन के अंक से मेरा १३वें और १४वें वर्ष मे अनेकान्त का प्रकाशन मासिक
नाम भी सम्पादक मण्डल में जुड़ गया । २२वे वर्ष के दो
अंक प्रकाशित हो चुके हैं। तीसरा-चौथा पक छप रहा है रूप में ही हुआ है। किन्तु सम्पादक मण्डल में स्व० मुख्तार सा० के अतिरिक्त तीन नाम और शामिल किये
इन सब वर्षों में अनेक ऐतिहासिक, साहित्यिक, दार्शनिक, गये । बाबू छोटेलाल जी कलकत्ता, बा० जयभगवान एह
विचारात्मक, समीक्षात्मक और पुरातत्त्व सम्बन्धी महत्त्ववोकेट पानीपत और परमानन्द शास्त्री। इन दोनों वर्षों में पूर्ण लेख प्रकाशित हुए हैं। जिन सब का परिचय पाठकों अनेक महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित हए। 'मद्रास और मयिला. को लख सूची पर से ज्ञात होगा। पुर का जैन पुरातत्त्व' शीर्षक लेख बा. छोटेलाल जी इस सब विवेचन पर से विज्ञ पाठक भली भांति जान का सचित्र प्रकाशित हमा। दीवान ममरचन्द, रामचन्द सकेंगे कि अनेकान्त पत्र जैन संस्कृति के लिए कितना ठोस छाबड़ा, नागकुमारचरित मोर पं. धर्मघर, पं. जयचन्द पौर और उपयोगी कार्य कर रहा है। उसकी सेवाएं किसी उनकी साहित्य सेवा। पं.दीपचन्द जी शाह और उनकी तरह भी भोझल नहीं की जा सकती। रचनाएं, धारा और धारा के जैन विद्वान, महापुराण समाज के गण्यमान व्यक्तियों, विद्वानों, विज्ञ पाठकों,
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भनेकान्त
रिसर्च स्कॉलरों, विश्व विद्यालयों, कालेजों, हायरसेकण्डरी वेदी, डा. विद्याधर जोहरापुरकर, डा. श्यामाचरण जी स्कूलों और लायनेरियों में इसे मंगाकर अवश्य पढ़ना दीक्षित, पं० बेचरदास जी, पं० सुखलाल जी संघवी, चाहिये । और श्रमण सस्कृति के अनुयायियों को आर्थिक स्व. डा० जायसवाल, स्व० डा. वासुदेव शरण अग्रवाल, सहयोग प्रदान कर अर्थ संकट से बचाना चाहिए । प्रो० पुष्कर शर्मा एम० ए०, स्व० बा० कामता प्रसाद जी, पाभार प्रदर्शन
श्रीगोपाल वाकलीवाल एम० ए०, तेजसिंह जी गौड़ एम० अनेकान्त में अब तक जैन जैनेतर विद्वानों द्वारा लिखे ए० बी० एड, श्री रामवल्लभ सोमानी, प्रो. दुर्गाप्रसाद गये शोधपूर्ण महत्व के लेख प्रकाशित किये गए है। जिनकी जी दीक्षित एम० ए०, डा० टी० एन० रामचन्द्रन. डा. संख्या डेढ़ हजार से अधिक है और कविता, कहानी भी प्रभाकर शास्त्री, डा० गंगाराम जी गर्ग, डा. सत्यरंजन रुचिपूर्ण दी गई है। हम उन सब विद्वानों के विशेष बनर्जी, डा. ज्योतिप्रसादजी, डा० कमलचन्द जी सोगानी, आभारी हैं। जिन्होंने लेख भेजकर हमारी सहायता की मुनि श्री विद्यान वीर सेवामन्दिर के विद्वानो द्वारा अधिकाश लेख लिखे भगवत जैन, प्रो० उदयचन्दजी, क्षल्लक सिद्धसागरजी, पं. गए है। अनेकान्त के लेखक विद्वानों में से कितने कैलाशचन्द जी सि० शास्त्री, फूलचन्द जी सि० शास्त्री, ही विद्वान दिवंगत हो चुके है। उनमें स्व०प० जुगल
डा० गोकुलचन्द जी, डा० नरेन्द्र भानावत, पं० के० भुजकिशोर जी मुख्तार, स्व. बा. सूरजभान जी वकील,
बली शास्त्री, डा० नेमिचन्द शास्त्री, श्री नीरज जैन, डा. स्व. डा. महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य, स्व० ५० नाथूराम
देवेन्द्रकुमार जी, बा० सलेकचन्द जी, डा० भागचन्द जी जी प्रेमी बम्बई, स्व. बा. जयभगवानजी एडवोकेट पानीपत,
साहित्याचार्य, डा. कस्तूरचन्द जी कासलीवाल, स्व०५० स्व. बा. छोटेलालजी कलकत्ता के नाम उल्लेखनीय है तथा
चैनसुखदास जी, डा० राजारम जी, बाबू बालचन्द जी न्या० ५० दरबारीलाल जी कोठिया, पं० ताराचन्द जी
एम० ए०, अगरचन्द जी नाहटा, भवरलाल जी नाहटा,
एम. न्यायतीर्थ, परमानन्द शास्त्री, प० हीरालाल सि० शास्त्री,
पं. माणिकचन्द जी न्यायाचार्य, जबप्रसाद जी जैन, पं. दीपचन्द जी पाण्डया और बालचन्द्र जी सिद्धान्त
आनन्द प्रकाश जैन, डा. कैलाशचन्द जी, पं० अनूपचन्द
जी न्यायतीर्थ, मुनि श्री नथमल जी, मुनि श्री नगराज जी, शास्त्री। वीर सेवामन्दिर के इन विद्वानों के अतिरिक्त निम्न
मुनि श्री महेन्द्रकुमार जी, द्वितीय, पं. गोपीलाल जी अमर विद्वानों के नाम साभार उल्लेखित किये जाते है। डा.
एम० ए०, प्रो० भागचन्द जी, प्रो. प्रेम सुमन जी, डा. ए० एन० उपाध्ये कोल्हापुर, डा. हीरालाल जबलपुर,
प्रद्युम्नकुमार जी, बा० माणिकचन्द जी, पं० कुन्दनलाल मुनि कान्तिसागर जी, अयोध्याप्रसाद जी गोयलीय, प०
जी, डा. रवीन्द्रकुमार जैन, साध्वी श्री मंजुला, साध्वी श्री मिलापचन्द जी कटारिया, पं० रतनलाल जी कटारिया,
संघमित्रा, पं० नेमचन्द धन्नूसा जैन तथा कल्याणकुमार
जी 'शशि' आदि । वंशीधर जी व्याकरणाचार्य बीना, पन्नालाल जी साहित्याचार्य, डा. प्रेमसागर जी, डा. दशरथ शर्मा एम० ए० इन लेखक विद्वानों की कृतियों से हम अनेकान्त को ड़ी० लिट्, प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी, एस० वी० गुप्ता, डा. प्रकाशित कर सके है। इसके लिए हम उनके पुनः पुनः वी० एन० शर्मा, कालिकाप्रसाद जी एम० ए० व्यारणा- आभारी है । और प्राशा करते है कि इन सब विद्वानों का चार्य, श्री काका कालेलकर जी, पं. बनारसीदास जी चतु- हमे पूर्ववत् सदा सहयोग मिलता रहेगा।
सुभाषित-नहि पराग नहि मधुर मधु, नहि विकास का काल ।
अली-कली में बंधि रह्यो, प्रागे कौन . गल ॥ निपट प्रबुध समुझत नहीं, बुधजन बचन रसाल । कबहुं भेक नहिं जानता, अमल-कमल बस वास ।।
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अनेकान्त और श्री पं० परमानन्द जी शास्त्री
श्रीमती पुष्पलता जैन
अनेकान्त जैन शोध पत्रों में शायद प्राचीनतम पत्र है नवम्बर १९३८ से अनेकान्त का प्रकाशन पुनः प्रारम्भ जिसने जैनधर्म, सस्कृति और साहित्य की अनुपलब्ध व अप्र- हुमा । श्री पं० परमानन्द जी का सम्बन्ध भी अनेकान्त काशित विधामों को उपलब्ध कर प्रकाशित करने का बीडा से इसी समय हुआ। उठाया । इसका प्रकाशन स्व०५० जुगल किशोरजी मुक्तार लगभग इसी वर्ष तक अनेकान्त किसी तरह अपनी व स्व. बाब छोटे लाल जी कलकत्ता के अमित सहयोग से गाडी खींचता रहा पर सन १९४७ मे फिर उसकी कमर सन् १९२६ मे वीर सेवक संघ एवं समन्तभद्राश्रम की
टूटी । मन् १९४८ में भारतीय ज्ञान पीठ, काशी ने उसे स्थापना हुई तथा अनेकान्त का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ
अपने हाथ में लिया और घाटे के साथ एक वर्ष तक महावीर जयन्ती (वीर नि० सं० २४५६) के शुभावसर
चलाता रहा । ज्ञानपीठ इस घाटे को बहन करने के लिए पर ।
तैयार नहीं हुआ और अनेकान्त पुनः समन्त भद्राश्रम (वीर जैनसमाज ने अनेकान्त जैसे निर्भीक शोध पत्र की
सेवा मंदिर) के पास वापिस पा गया। जुलाई १९४६ में आवश्यकता का अनुभव बहुत पहले से किया था परन्तु
देहली से उसका प्रकाशन हुप्रा और सात मास तक किसी उसका समुचित पालन-पोपण नहीं किया जा सका । जैसा
तरह उसका प्रकाशन चलता ही रहा। यहा भी घाटे प्रायः देखा गया है, शोध पत्र का सम्पर्क सामान्य जन
की पूर्ति नहीं की जा सकी। पत्र के दसवे वर्ष के अन्त मे समाज से अधिक नहीं हो पाता और फलतः उसे अनेक
मुख्तार सा० को विवश होकर पुनः पत्र को बन्द कर देना समस्याम्रो का सामना करना पड़ता है। इनमें मुख्य
पड़ा । लगभग ढाई हजार का घाटा था। समस्या अर्थ व्यवस्था की है । अनेकान्त को अपने शिशु काल से ही इस अर्थक्षीणता का शिकार होना पड़ा । प्रथम वर्ष
अक्टूबर १९५१ मे फिर अनेकान्त का भाग्योदय में ही उसे लगभग १२५२ रुपये की हानि रही। इगहानि हुप्रा। मुख्तार मा० कलकत्ता पहुँचे । वहां छोटे लाल जी को देखकर प्रकाशन व्यय कम होगा' इस उद्देश्य से वीर
वा० नन्दलाल जी सरावगी के सहयोग से अनेकान्त में स्थासेवा संघ ने समन्तभद्राथम तथा अनेकान्त को सरसावा
यित्व लाने की योजना बनाई गई । सरक्षक व सहायक भेजने का निर्णय किया और ये दोनो संस्थाए मुम्नार
सदस्य बनाये गए। एतदर्थ प्राप्त प्राथिक सहायता से सा. के साथ नवम्बर १९३० मे सरसावा पहुँच गई।
सर्वोदय तीर्थाक के माथ अनेकान्त के ग्यारहवं वर्ष की परन्तु दुर्भाग्य से वहा भी अनेकान्त का प्रकाशन अबरुद्ध प्रथम किरण मार्च, १९५२ मे डेढ वर्ष बाद पुन: प्रकाशित हो गया।
हुई । इसी में मुख्तार सा० ने वीरसेवादिर ट्रस्ट, की इस बीच मुक्तार सा० वीर-सेवा-मदिर के भवन स्थापना की। इसके उद्देश्य निम्नलिखित निर्धारित किए निर्माण में अपना पूरा समय देने लगे। फलतः द्वितीय वर्ष गए--- की प्रथम किरण के बाद अनेकान्त बन्द पड गया । स्व० (क)-जैन संस्कृति और उसके साहित्य तथा इतिबाबू छोटेलाल जी ने पूर्ण मार्थिक सहयोग देने का प्रश्वा- हास से सम्बन्ध रखने वाले विभिन्न ग्रंथों शिलालेखों, सन दिया फिर भी अनेकान्त का प्रकाशन नहीं किया जा प्रशस्तियों, उल्लेख वाक्यों, सिक्कों, मूर्तियों, स्थापत्य, और सका । लाला तनसुखराय जी तथा अन्य महानुभावों ने भी चित्रकला के नमूनों आदि सामग्री का लायब्ररी व म्यूजियम मार्थिक सहायता दी। अर्थ व्यवस्था हो जाने पर एक प्रादि के रूप में अच्छा संग्रह करना और दूसरे ग्रंथों की
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अनेकान्त
भी ऐसी लायब्रेरी प्रस्तुत करना जो धर्मादि विषयक खोज भाव से अपने को जन-धर्म तथा समाज की सेवा के लिए के कामों में अच्छी मदद दे सके।
अर्पण कर देवें, उनके भोजनादि खर्च में सहायता पहुँचाना। (ख)-उक्त सामग्री पर से अनुसन्धान कार्य चलाना
(ज) कर्मयोगी जैन-मन्डल अथवा वीर समन्तभद्र और लुप्तप्राय प्राचीन जैन-साहित्य, इतिहास व तत्वज्ञान गुरुकुल का स्थापना करके उस च
गुरुकुल की स्थापना करके उसे चलाना । का उसके द्वारा पता लगाना और जैन-संस्कृति को उसके
इस दृस्ट और वीरसेवामन्दिर के ये उद्देश्य और असली तथा मूल रूप मे खोज निकालना।
ध्येय ट्रस्टनामा में लिखित उद्देश्यों और ध्येयों का शब्दशः (ग)-अनुसन्धान व खोज के आधार पर नये
उल्लेखन है । ये उद्देश्य सभी जैनधर्म तथा तदाम्यनाय मौलिक साहित्य का और लोकहित की दृष्टि से उसे प्रका
की उन्नति एव पुष्टि के द्वारा लोक की यथार्थ सेवा के
निमित्त निर्धारित किए गए है। इस ट्रस्ट में स्वर्गीय शित करानां; जैसे जैन-सस्कृति का इतिहास, जैनधर्म का
___ मुख्तार सा० की लगभग सभी सम्पत्ति का ट्रस्टनामा कर इतिहास, जैन साहित्य का इतिहास, भगवान महावीर का
दिया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य वीर-सेवा-मन्दिर का इतिहास, प्रधान-प्रधान जैनाचार्यों का इतिहास जातिगोत्रों का इतिहास, ऐतिहासिक जन व्यक्ति कोष जैन-लक्षणावली
संरक्षक व सम्वर्द्धन करना रहा है। जैन-पारिभाषिक शब्द-कोष जैन ग्रथो की सूची, जैन-मंदिर
ट्रस्ट बन जानेके वावजूद अनेकान्त घाटेकी अर्थ व्यवस्था मूर्तियों की सूची और किसी तत्व का नई शैली से विवेचन
से नहीं बच सका । कलकत्ता से प्राप्त ६५६६ रुपये की या रहस्यादि तैयार कराकर प्रकाशित कराना ।
सहायता से तीन वर्ष (दस से बारहवें तक) का घाटा पूरा
किया जा सका फिर भी ८७१ रुपये का घाटा बना रहा। (घ) उपयोगी प्राचीन जैन-ग्रथो तथा महत्व के नवीन
धोव्य फण्ड समाप्त हो जाने के कारण अनेकान्त को और ग्रन्थों एव लेखो का भी विभिन्न देशी-विदेशी भाषामो मे
भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। तेरहवे वर्ष में नई-शैली से अनुवाद तथा सम्पादन कराकर अथवा मूल
१४६२ रुपये तथा चौदहवे वर्ष में ५५०० रुपये का घाटा रूप मे ही प्रकाशित कराना । प्रशस्तियों और शिलालेखों
रहा। अतः मुख्तार सा० ने एक बार पुनः अनेकान्त में आदि के संग्रह भी पृथक् रूप से सानुवाद तथा बिना अनु
स्थायित्व लाने का प्रयत्न किया । तदर्थ उन्होने वीर सेवा वाद के ही प्रकाशित करना।
मन्दिर, दिल्ली की पैसा फण्ड गोलक योजना बनाई। यह (3) जैन सस्कृति के प्रचार और पब्लिक के प्राचार
योजना अनेकान्त वर्ष १४ किरण ६ जनवरी, १९५७ विचार को ऊँचा उठाने के लिए योग्य-व्यवस्था करना,
मे प्रकाशित हुई। परन्तु यह योजना भी सफल ने वर्तमान में प्रकाशित अनेकान्त पत्र को चालू रखकर उसे
सकी । फलतः जुलाई, १६५७ से अनेकान्त को पुनः बन्द और उन्नत लोकप्रिय बनाना । साथ ही, सार्वजनिक उप
कर देना पड़ा। इस प्रकार अनेकान्त ने अपने चौदह वर्ष योगी पेम्पलेट व ट्रैक्ट (लघु पत्र पुस्तिकाये) प्रकाशित का कार्यकाल प्रवाईस वर्ष मे पूर्ण किया। इन वर्षों में श्री करना और प्रचारक घुमाना ।
पं० परमानन्द जी प्रकाशक व सम्पादक के रूप में अपनी (च) जैन- साहित्य इतिहास और संस्कृति की सेवा सेवाए देते रहे है। तथा तत्वसम्बन्धी अनुसन्धान व नई पद्धति से प्रथ-निर्माण इसके बाद अनेकान्त का पन्द्रहवां वर्ष अप्रैल, १९६२ के कार्यों में दिलचस्पी पैदा करना और आवश्यकता से प्रारम्भ हुआ। इसी समय से पत्र को मासिक न रखकर शिक्षण (ट्रेनिंग) दिलाने के लिए योग्य विद्वानो को स्का- द्विमासिक बना दिया गया। अभी तक सम्पादक मण्डल लरशिप (वृत्तियां, वजीफे) देना।
में श्री डा० प्रा० ने० उपाध्ये, श्री रतन लाल (छ) योग्य विद्वानों को उनकी साहित्यिक सेवामों कटारिया, डा. प्रेम सागर व श्री यशपाल को रखा गया। तथा इतिहास प्रादि विषयक विशिष्ट खोजों के लिए कुछ समय बाद श्री रतनलाल कटारिया सम्पादक मण्डल पुरुस्कार या उपहार देना । और जो सज्जन निःस्वार्थ से पृथक हो गए। १९६५ में सम्पादक मण्डल में श्री पं.
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अनेकान्त पौरपं० परमानन्द जी शास्त्री
परमानन्द जी को भी सम्मिलित कर लिया गया । वस्तुतः अपभ्रंश भाषाका जंबूस्वामीचरिउ पौर कविवीर १३प्रारम्भ से ही परमानन्द जी प्रकाशन व सम्पादन का द्रव्यसंग्रहकै कर्ता और टीकाकारके संबंध में विचार १९ समूचा भार वहन करते रहे हैं। प्राज भी उन्हें इस कार्य मध्यभारत का जैन पुरातत्त्व १६-१-२-५४ ।। में और कोई दूसरा विद्वान सहयोग नही देता। यथार्थ में क्या द्रव्यसग्रहके कर्ता व टीकाकार समकालीन नहीं हैं? वे भनेकान्त के लिए प्राण हैं । उनके बिना अनेकान्त में श्रमण संस्कृति के उद्भावक ऋषभदेव १६, १-२, २७३ प्राण प्रतिष्ठा बनी रहने की न सम्भावना पहले थी और अग्रवालोंका जैन संस्कृतिमे योगदान वर्ष २०, ३, ६८, २०, न पाज भी है। इस वृद्धावस्था में भी वे कुशल शिल्पी ४, १७७, २०, ५, २३३, २१, वर्ष २१ , ४६, २, की भांति साहित्य सृजन करते हुए भी अनेकान्त के ६१, ४, पृ० १८५ सम्पादन व प्रकाशन में जुटे हुए हैं।
ग्वालियर के तोमर राजवंश में जनधर्म २, १-३३ विद्वज्जगत परमानन्द जी की सूक्ष्मेक्षिका से भली- भ० विनयचन्द के समय पर विचार २०, १, ३० भांति परिचित है। उन्होने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश तथा ब्रह्म जीवंधर और उनकी रचानाएं १७, ३, पृ० २४ हिन्दी के अनेक प्राचार्यों का काल निर्धारण किया एव कवि वल्ह या चिराज वर्ष १६ कि. ६, २५३ उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर असाधारण रूप मे शोध- ब्रह्म नेमिदत और उनकी रचनाएं १८, २, ८२ खोजकर प्रथमतः प्रकाश डाला। इतिहास, सस्कृति और भगवान पार्श्वनाथ वर्ष १८ कि. ६ पृ. २६९ भाषा पर उनका अधिकार है । अनेक शिलालेखों का हेमराज नाम के दो विद्वान वर्ष १८ कि. पृ. १३५ सम्पादन कर उन क्षेत्रों की ऐतिहासिकता आदि पर पूर्ण चित्तौड का दिगम्बर जैन कीर्तिस्तम्भ २१, ४, १७६ विचार किया है। महाकवि रइधू व कवि वीर के कृतित्व व छोहल २१-३-१२६ व्यक्तित्व पर सर्वप्रथम शास्त्री जी ने ही लेखनी चलायी। सीया चरिउ एक अध्ययन २१, ३, १३७ उसके बाद तो इन विषयों पर विद्वानों ने प्रबन्ध लिखकर जैन समाज की कुछ उपजातियाँ २२-२-५० PH. D. आदि उपाधिया भी ली। जैन रासा साहित्य, ग्वालियर के काष्ठासंघी भट्टारक २२-२-६४ अग्रवालों का जैन सस्कृति में योगदान, आदि लेख भी रासासाहित्य एक अध्ययन महत्वपूर्ण है। वस्तुतः परमानन्द जी का प्रत्येक लेख नई शुभकीति और शान्तिनाथ चरित्र २१, २, ९० दृष्टि और नई सूझबझ को लिए हए रहता है। तन, मन, अयोध्या एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर १७, २, ७८ घन वे से साहित्य सृजन करनेमे जुटे हुए है। अनेक ग्रन्था- कविवर द्यानतराय ११, ४-५ गारों को देखकर उन्हे व्यवस्थित करना तथा नये ग्रन्थों अमरचन्द्र दीवान १३, ८, पृ. १९८ और ग्रन्थकारो पर निबन्ध लिखना उनका लक्ष्य बनचुका है। अतिशयक्षेत्र चन्द्रवाड़ वर्ष ८-६, ३४५
अनेकान्त मे अभी तक, अनेक ग्रन्थों के लेखन, सम्पा- कविवर भूधरदास और उनकी विचारधारा दन समालोचन व अनुवादन के अतिरिक्त, उनके द्वारा श्वेताम्बर कर्म साहित्य और दि० पंच संग्रह ३-६-३७५ लिखित कुछ खास निबन्धों की एक तालिका दी जाती है। राजा हरसुखराय १५-१ पृ. ११ जो निबन्ध प्रकाशित हुए हैं।
पउमचरिय का अन्तः परीक्षण ५-१-३८ कुछ प्रमुख लेखों की सूची
अर्थप्रकाशिका और ५० सदासुख जी ३, ८-६-५१४ धारा और धाराके जैन विद्वान वर्ष १३, ११-१२ पृ. २८ सिद्धसेनके सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक ३-११-६२६ हूंमड या हुंबड वंश और उसके महत्वपूर्ण कार्य १३-५-१२३ तत्वार्थसूत्र के बीजों की खोज वर्ष ४ कि. १ पृ. ६२३ कविवर ठकुरसी और उनकी रचनाएं १४-१ पृ. १० जयपुर में एक महीना ६, १०-११, ३७२ कसाय पाहुड और गुणधराचार्य वर्ष १४-१ पृ.८ शिवमूर्ति, शिवार्य पौर शिवकुमार ७, १, १७ रूपक काव्य परम्परा वर्ष १४ कि.पू. २५६
सुलोचना चरित और देवसेन ७, ११-१२, पृ. १५६
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१६४
अनेकान्त
श्रीचन्द नाम के तीन विद्वान ७, ९-१०, पृ. १०७
४. श्रीपात्र केसरी और विद्यानन्द को एक समझने रामचन्द्र छाबड़ा वर्ष १३-१०-२५६
की भारी भूल का सप्रमाण निरसन । भगवती पाराधना और शिवकोटि २.६.३७१
५. गोम्मटसार की त्रुटि पूर्ति, रत्नकरण्ड का कर्तृत्व अपराजित सरि और विजयोदया वर्ष २ कि. ६ पृ. ३७१ और तिलोयपण्णत्ती की प्राचीनता विषयक विवादों का अपभ्रंश भाषा का जैनकथा साहित्य ८, ६/७, २७३
प्रबल युक्तियों द्वारा शान्तिकरण । दिल्ली और दिल्ली की राजाबली ८, २, ७१
६. दिल्ली के तोमरवंशी तृतीय अनगपाल की खोज, धर्मरत्नाकर और जयसेन नाम के प्राचार्य ८.२००
जिससे इतिहास की कितनी ही भूल-भ्रान्तिया दूर हो महाकवि सिंह और प्रद्युम्न चरित ८, १०/११ पृ० ३८६ जाती है। श्रीघर और विबुध श्रीधर नाम के विद्वान ८, १२, ४६२
७. गहरे अनुसन्धान द्वारा यह प्रमाणित किया जाना चतुर्थ वाग्भट और उनकी कृतियाँ वर्ष ६, कि. २, पृ. ७७ कि सन्मतिसूत्र के कर्ता प्राचार्य सिद्धसेन दिगंबर थे तथा ब्रह्म श्रुतसागर का समय और साहित्य ६, ११/१२, ४७४
सन्मति सूत्र न्यायावतार और द्वात्रिन्शिकामो के कर्ता एक अपभ्रश भाषा के दो महाकाव्य और नयनन्दी १०-३१३
ही सिद्धसेन नही, तीन या तीन से अधिक है । साथ ही ग्वालियर किले का इतिहास और जैन पुरातत्व १०,३,१०१
उपलब्ध २१ द्वात्रिन्शिकागो के कर्ता भी एक ही सिद्धसेन पं० दौलतराम और उनकी रचनाए १०-१.६
नही है। प्राचार्य कल्प प० टोडरमल जी ६, १, २५
८. इतिहास की दूसरी सैकडों बातो का उद्घाटन पांडे रूपचन्द और उनका साहित्य १०, २, ७५
और समयादि विषयक अनेक उलझी हुई गुत्थियो का महाकविरइधू १०, १०, ३७७, ११, ७/८, २६५ सुलझाया जाना। कविवर ५० दौलतरामजी ११, ३, २५२
६. लाकोपयोगी महत्व के नवसाहित्य का सर्जन भगवान महावीर और उनका सर्वोदयतीर्थ ११, १, ५५ और प्रकाशन जिसमे सोलह ग्रथो की खोजपूर्ण प्रस्तावनाये,
आदिनाथ मन्दिर और कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद, नवभारत २० ग्रंथो का हिन्दी अनुवाद और लगभग तीन सौ लेखों विजोलिया के शिलालेख ११, ११-३५६
का लिखा जाना भी शामिल है। नागकुमार चरित और कवि धर्मधर १३-६-२२७
१०. अनेकान्त मासिक द्वारा जनतामे विवेकको जाग्रत १० दीपचन्द शाह और उनकी रचनाएं १३, कि. ४, १३ करके उसके प्राचार-विचारको ऊंचा उठाने का सत्प्रयत्न । प. जयचन्द और उनकी साहित्य-सेवा १३-१६६
११. धवल, जयधवल, और महाधवल (महाबन्ध) अहिंसातत्व वर्ष १३, कि. ३, पृ. ६०
जैसे प्राचीन सिद्धान्त-ग्रथों की ताइपत्रीय प्रतियो काकविवर भगवतीदास वर्ष १४, ८, २२७
जो मडवद्री के जैन-मन्दिर में सात तालो के भीतर बन्द इस प्रकार अनेकान्त ने जैन साहित्य और सस्कृत की रहती थी-फोटो लिया जाना और जीर्णोद्धार के लिए, अभतपूर्व सेवा की है। जुलाई, १९५४ के अत में वीर- उनके दिल्ली बुलाने का प्रायोजन करके सबके लिए दर्शसेवामन्दिर की सेवायो का उल्लेख किया गया है. जो नादि का मार्ग सुलभ करना। इस प्रकार है .
१२. जैन लक्षणावली (लक्षणात्मक जैन पारिभाषिक १. वीर शासन जयन्ती जैसे पावन पर्व का उद्धार शब्दकोष), जैन-ग्रंथों की वृहत् सूची और समन्तभद्र और प्रचार।
भारती कोषादि के निर्माण का समारंभ । साथ ही पुरातन २ स्वामी समन्तभद्र के एक प्रश्रुत-पूर्व अपूर्व-परि
जैन वाक्य सूची प्रादि २१ ग्रथों का प्रकाशन । चय-पद्य की नवीन खोज।
३. लुप्तप्राय जैन साहित्य की खोज मे सस्कृत, प्राकृत १९५४ के बाद अब तक अनेकान्त और वीर सेवा अपभ्रंश और हिन्दी के लगभग दो सौ ग्रन्थों का अनुसघान मन्दिर द्वारा उक्त उद्देश्यों की पूर्ति में और भी विशिष्टता तथा परिचय प्रदान । दूसरे भी कितने ही प्रथों तथा ग्रन्थ- आई है। इसमें श्री पं० परमानन्द जी शास्त्री का सहयोग कारों का परिचय लेखन ।
प्रशंसनीय और साधुवादाह रहा है।
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वीर सेवा - मन्दिर -- समन्तभद्राश्रम का मुखपत्र" अनेकान्त" इतिहासादि विषयक अनुसंधानात्मक ख्याति प्राप्त एक आदर्श पत्र है । इसमें समाज के अनेक विद्वानो और त्यागियों के विविध विषयक खोज पूर्ण लेख है जैनतर विद्वानो के भी विशिष्ट उपयोगी लेख है जो अब तक १॥ हजार से ऊपर पहुँच गये है।
इस पत्र के संस्थापक -- प्रवर्तक स्व० पडितवय्यं जुगल किशोर जी मुख्तार सरसावा निवासी थे वे ही इसके प्रमुख सम्पादक थे उनके सैकड़ो खोजपूर्ण लेखों ने और उनकी प्रतिभापूर्ण गहन सम्पादन कला ने इसको उच्चकोटि का पत्र बना दिया था। मुख्तार मा० पुत्र विहीन थे किन्तु यह उनका वास्तविक आत्मज - पुत्र था एक पुत्र की तरह ही उन्होने इसका लालन-पालन किया था । पत्र के नाम ( श्रनेकान्त ] के अनरूप निम्नाकित श्लोक M TTO में से कोई भी प्रत्येक धक के प्रारंभ में दिए जाते श्रा रहे है ।
१- परमागमस्य बीज निषिद्धास्यतपुर विधान सकलनयविलसिताना विरोधमथन नमाम्यनेकातम || पुरुषार्थ मिद्धघुपाय ( अमृतचन्द्रसूरि ) २ नीतिविषयी लोकव्यवहारवत्तंकः सम्यक् । परमागमस्य वीजं, भुवनेगुरुजनेातः ॥
वर्ष
अक
प्रारम्भ काल
१ १२ मासिक वि० स० १६८६ मगशिर
वि० सं० १९९५
४
५
"
33
" अनेकान्त" एक आदर्श पत्र
पं० मिलापचन्द्र रतनलाल जैन कटारिया
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33
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२।। )
६८८
१९९६ ३) ७६४
६३२
१६६८
४२६
39
भाद्रपद २००० ४) ३५६
ताछ २००१
२२८
पोष २००२
४७२
मूल्य कुलपृष्ठ
४) ६७२
फागुण १६६७
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३ -- एकेनां कर्षन्ती, इलथयंती वस्तुत्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी, नीतिर्मयाननेषमिव गोपी ॥ - पुरुषार्थ सिदधुपाय विधेय वा चानुभयमुभय मिश्रमपि तद् विशेष: प्रत्येक नियम विषयश्चापरिमितः । सदान्योन्यापेक्षैः सकलभुवनज्येष्ठ गुरुणा, त्वया गीत तत्व बहुविवक्षेतरवशात् ॥
- ( स्वयंभू स्तोत्र )
४
-
५- सर्वान्त-वत्तद्गुण मुख्यकल्प, सर्वन्ति शून्यं च मिथोऽनपेक्ष ।
सर्वापदामन्तकरं निरंत सर्वोदयं तीर्थमिदं तव ॥ ( युक्त्यनुशासन ) लोक मुख पृष्ठ पर के "जंनीनीति" लिए तथा पाचवा श्लोक मुख पृष्ठ कल्पनात्मक चित्र के लिए प्रयुक्त
( इनमें से तीसरे पौधे कल्पनात्मक चित्र के पर के सर्वोदय तीवं" किए जाते रहे है)
"अनेकान्त" विक्रम सम्वत् १९८६ के मगसर मास में दिल्ली से प्रकट हुआ था इस वक्त विक्रम सं० २०२६ में उसे ४० वर्ष हो गये है किन्तु इस समय उसका २२ वां वर्ष चल रहा है इस हिसाब से यह १८ वर्ष बीच-बीच में बन्द रहा है नीचे २२ वर्षों का विवरण प्रस्तुत किया जाता है :
सम्पादक
विशेष प० जुगलकिशोरजी मुख्तार मुखपृष्ठ पर ३० प्रारोंका धनेकान्तात्मक चक्र - चित्र संचालक - तनसुखरायजी, प्रथम प्रक वीरशासनांक
दिल्ली
मुखपृष्ठ पर "जंनी नीति" चित्र
"
11
"
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किरण ५-६ मुख्तार सम्मान प्रक
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१६६
वर्ष
६
१०
११
१२
१३ १४
१२
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१६
१७
१८.
१६
२०
२१
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अंक
प्रारम्भ काल
१२ मासिक ज्येष्ट २००४ ५)
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मासिक
६ अंक
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फागुण २००६
ज्येष्ट २००८
श्रावण
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चैत्र
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13
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२०१०
२०२०
२०२१
२०२२
२०२३
२०२४
२०२५
मूल्य कुल पृ.
४९०
२०२६
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19
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२०११ ६) ३२२ जैतली सा. को छोड़कर पूर्वोक्त ४
२०१३
३६२
२०१६
३६०
27
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३८६
४६० सिर्फ जुगलकिशोर जी मुस्तार
**
३६०
३६०
३६०
३८२
अनेकान्त
३६०
३६०
सम्पादक
मुख्तार सा०, मुनि कांतिसागर जी दरवारीलालजी, प्रयोध्या प्रसाद जी
૪૨૦
किरण १० से बाबू छोटेलाल जी जयभगवान जी,
डी. एस. जंतली, परमानन्दजी
ए. एन. उपाध्ये, रतनलाल कटारिया, डा. प्रेमसागर, यशपाल जैन
चैत्र २०१६ से चैत्र २०२० तक हम भी इसके संपादक मन्डल में रहे हैं। अनेकांत में अब तक हमारे भी निम्नांकित ११ लेख प्रकाशित हुए हैं :
जून अंक से रतनलाल को छोड़कर बाकी ३ उपरोक्त
संख्या
इस तरह २२ वर्षों के सब मंकों की कुल पृष्ठ संख्या २ हजार से ऊपर है इनमें ज्ञान की अतुल निधि संग्रहीत है जिसे एक तरह से "जैन विश्व कोष" कहना चाहिए । कुछ अंको में मन्दिर मूर्ति सम्बन्धी प्राचीन महत्वपूर्ण चित्र भी संकलित किए गए है।
33
31
37
वर्ष
१२
अक
६ नवंबर १९६९
समय
१२ १ अप्रैल ६२
१५ १
-
37
जून पंक से परमानन्द प्रतिम ग्रक युगवीर स्मृति जी शास्त्री भी इस तरह कुल ४
अक
विशेष
संचालक भारतीय ज्ञानपीठ काशी कि० ११-१२ सन्मति सिद्धसेनांक
१५ २ जून ६२
वीर सेवामन्दिर, दिल्ली से कि० १ सर्वोदयतीयांक कि० ७ से महिसा मन्दिर, दिल्ली किरण १० से मूल्य ६)
मुखपृष्ठ सादे
"
समन्तभद्राश्रम (वीरसेवामन्दिर) मुखपृष्ठ पर "हाथी और ६ जन्मांध " चित्र प्रत्येक अक पर अलग-अलग प्राचीन मूर्ति - चित्र
प्रथम अंक बाबू छोटेलाल जैन स्मृति धक
लेख का शीर्षक
वसुनदि धावकाचार का सशोधन रात्रिभोजनत्यागः छठा अणुव्रत जयसेन प्रतिष्ठापाठ की प्रतिठा विधि का प्रशुद्ध प्रचार 'दर्शन' का अर्थ मिलना
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अनेकान्त एक मादर्श पत्र
१६७
वर्ष अंक समय
लेख का शीर्षक तीन सम्पादक विद्वान् भी इसी तरह प्रत्येक मंक में अपना १५ ३ अगस्त ६२ मंगलोत्तम शरण पाठ
कम से कम एक लेख अवश्य देते रहें तो लेख जुटाने में १८ २ जून ६५ क्षपणासार के कर्ता माधव
विशेष परिश्रम नहीं उठाना पड़े मोर अंक भी बिल्कुल
ठीक समय पर निकल जाये । हम तो उस मुदिन की चन्द्र १६ १ अप्रेल ६६ ज्ञानतपस्वी गुणिजनानु
प्रतीक्षा में हैं । जब कि पत्र द्वैमासिक से पुनः मासिक
हो जाय । रागी बाबू सा.
'अनेकान्त' की फाइलें बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । अनुचातुर्मास योग
सघान-प्रेमी विद्वान इन फाइलों का उपयोग करते रहते हैं २० २ जून ६७ राजाश्रुणिक या बिम्बसार
और अपने निबंधों एवं ग्रंथों में यत्र तत्र प्रमाण रूप में २१ १ अप्रेल ६८ प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता
इनका उल्लेख भी करते रहते है इससे इनकी उपयोगिता नेमिचन्द्र का समय
प्रामाणिकता और लोकप्रियता का संकेत मिलता है। २१ ६ फरवरी ६८ सरस्वती पुत्र मुख्तार सा०
हर सस्कृत विद्वान को ये फाइलें रखना बहुत ही 'अनेकान्त' पत्र से अनेकों ने अपने ज्ञान का संवर्द्धन अावश्यक हैं जो भी फाइले उपलब्ध हो उन्हें अवश्य मगा और परिमार्जन किया है बहुतों ने लेख लिखना और सपा- लेना चाहिए अन्यथा शुरू के कुछ वर्षों की तरह आगे की दन करना तक सीखा है।
भी फाइले मिलना मुश्किल हो जायेगा। यह समाज का ठोस और निर्भीक पत्र है फिर भी
प्रत्येक विद्वान्, स्कालर, ग्रेजुएट, सरस्वती भवन, इसकी ग्राहक संख्या कम है इससे इसकी महत्ता कम नहीं मन्दिर प्रादि को पत्र का ग्राहक हो जाना चाहिए इससे समझनी चाहिए, क्योंकि रत्नों के खरीददार और पारखी
पत्र को सहयोग मिलकर वह समुन्नत बनेगा तथा पाठकों अत्यल्प होते है।
की और भी सेवा कर सकेगा इस तरह परस्पर लाभ ही , इसमे भरती के लेख नही दिए जाते किन्तु शुद्ध इति- होगा। हास और शुद्ध सिद्धान्त आदि विषयक लेख ही दिए जाते
इसमें सस्कृतादि भाषाओं के सैकड़ों, प्राचीन, विविध, है व्यर्थ के विवाद और विसवादों से यथाशक्य दूर रहकर सून्दर स्तोत्र भी प्रकाशित होते रहे हैं अगर कोई महानुसमाज को उचित मार्ग दर्शन किया जाता है।
भाव "अनेकान्त" की फाइलों से उन्हे सकलित कर अलग रूढिवादिता और चाटुकारता से दूर रहकर पत्र पुस्तक रूप मे छपाये तो एक नवीन स्तोत्र सग्रह उपयोग ने सदा अपनी नीति निर्भीक और उदार रखी है । मुख्तार में आ सकता है। सा० और बाबू छोटेलाल जी सा० के स्वर्गवास हो जाने अनेकान्त मे विद्वद्भोग्य खोजपूर्ण सामग्री के अलावा के बाद भी पं० परमानन्द जी शास्त्री ने पत्र स्तर को नही जनसाधारण के लिए भी अनेक पौराणिक कथाये, उद्बोधक गिरने दिया है बल्कि पर्याप्त परिश्रम के साथ इसके गौरव कहानियां और सरस कवितायें भादि भी प्रकाशित को अक्षुण्ण रखा है और बराबर पत्र को निकाल रहे है। होती रहती है अतः सभी को इसका अवश्य ग्राहक होना प्रत्येक अंक में शास्त्री जो का कम से कम एक लेख अवश्य चाहिए। रहता है यह बडी खुशी की बात है। अगर पत्र के अन्य हम पत्र की समुन्नत की शुभकामना करते हैं। *
कंचन निजगुण नहिं तजे, वान हीन के होत। घट घट अंतर प्रातमा सहज स्वभाव उदोत ॥१७ पन्ना पीट पकाइये, शुद्ध कनक ज्यों होय । त्यों प्रगटे परमात्मा, पुण्य-पाप-मल खोय॥ -बनारसीदास
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वीर-सेवामन्दिर का साहित्यिक शोध-कार्य
पं० परमानन्द जा जैन शास्त्री
वीर सेवा मन्दिर एक प्रसिद्ध शोध संस्थान है, जिसके है। मुस्तार साहब ने अब तक जो कार्य इस सम्बन्ध में संस्थापक वयोवृद्ध ऐतिहासिक विद्वान स्वर्गीय पं० जुगल- किया व उनके सहायक विद्वानों ने किया, उनका आधार किशोर जी मुख्तार है। जिसका उद्देश्य जैन साहित्य, भी वही पुस्तकालय है । और मैं जो कुछ कार्य कर रहा इतिहास और तत्वज्ञान-विषयक अनुसन्धान कार्यो का हूँ वह भी उसके सहयोग से ही कर रहा हूँ मेरे प्रायः प्रसाधन, जैन- जैनेतर पुरातात्विक सामग्री का अच्छा सग्रह सभी अधिकाश लेख अनेकान्त पत्र में ही प्रकाशित हुए संकलन और प्रकाशन, तथा लोक-हितानुरूप नव-साहित्य है और हो रहे है । विज्ञ पाठक उन पर से सस्था के कार्यों का सजन, प्रकटीकरण एव प्रचार है। महत्व के प्राचीन की रूप-रेखा का अनुमान कर सकते है । इसी खोज का ग्रंथों का उद्धार, जैन सस्कृति, साहित्य, कला और इतिहास परिणाम जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह के वे दोनो भाग है, जिनमे के अध्ययन में सहायक विभिन्न ग्रन्थों, शिलालेखों, प्रश
अनेक ग्रन्थो, ग्रंथकारो, उनकी कृतियो के परिचय के साथ स्तियों, मतिलेखों, ताम्रपत्रों, सिक्को यत्रों, स्थापत्य और ग्रंथ निर्माण में प्रेरक श्रावक-थाविकाग्रो, राजापो, राज्यचित्रकला के नमूनों आदि का विशाल संग्रह करना है। मंत्रियों, कोषाध्यक्षो, भट्टारकों, प्राचार्यो, विद्वानो, लेखको, अनेकान्त पत्र द्वारा जनता के प्राचार को ऊँचा उठाना,
अन्वयो, गोत्रों, स्थानो, और अग्रवाल खडेलवाल आदि एवं शोध-खोज कार्यो को प्रकाश मे लाना है।
उपजातियों के ऐतिहासिक परिचय का अवलोकन करते
है । जिनमे विद्वानो के शोध कार्य में योगदान मिलता है। वीर-सेवा-मन्दिर अपने इस उद्देश्य के अनुसार जैन
इससे पाठक वीरसेवामन्दिर के साहित्यिक और ऐतिहासाहित्य, इतिहास और पुरातत्व के सम्बन्ध में अनेक शोध
सिक कार्यो की उस रूप-रेखा का, जो इतिहास के निर्माण खोज के कार्य में सलग्न रहता है, वह वर्तमान विज्ञापन
मे अत्यन्त आवश्यक है आशिक पूर्ति कर रहा है । वाजी से दूर है किन्तु उद्देश्यानुसार अपने कार्य सम्पन्न
यद्यपि वीर-सेवामन्दिर के इस पुनीत एव महत्वपूर्ण कार्य करने में कभी नहीं हिचकता। प्राज दिन जैन साहित्य और
में जैनसमाज का महयोग नगण्य-सा भी नहीं है परन्तु इतिहास के सम्बन्ध में जो कुछ प्रगति प्राप देख रहे है
फिर भी वीरसेवामन्दिर के सचालक और कार्य करता उस सबका श्रेय इम सस्था को ही है।
गण अपने अथक परिश्रम से उक्त कार्य में सलग्न देखे शोध-खोज का कार्य संचालन करने के लिए वीर ।
जाते है। विगत वर्षों में वीर सेवामन्दिर से जो शोधसेवामन्दिर में एक लायब्रेरी भी है जिसमे साढे चार हजार खोज कार्य सम्पन या उससे केवल कळमाना और के लगभग प्रथो का संग्रह है, वीर सेवामन्दिर के विद्वान
उनके समयादि पर ही प्रकाश नहीं डाला गया प्रत्युत
जो समयाटि इसी छोटी सी लायब्रेरी के सहारे अपने अनुसन्धान का अनेक पलभ्य और अप्रकाशित प्राकृत सस्कृत अपभ्रन्श कार्य करते है। अनुसन्धान का कार्य करते हुए जो कुछ
भाषा और हिन्दी की रचनाओं का भी सम्मुल्लेख किया विशेष ज्ञातव्य सामग्री प्राप्त हो जाती है, उससे साहित्यिक सामान कार्य अत्यन्त सूक्ष और श्रम साध्य हैं।
और ऐतिहासिक गुत्थियो को सुलझाने का प्रयत्न करते प्रशस्तिसंग्रह प्रथमभाग में १७१ सस्कृत-प्राकृत के अप्रहैं। वीर सेवामन्दिर के मुख पत्र 'अनेकान्त' मे शोधात्मक काशित ग्रंथों का प्रादि-अन्तभाग दिया गया है । उनके इतिहास, और पुरातत्व सम्बन्धी तथा समीक्षात्मक लेख कर्ता १०४ विद्वानों का उसकी प्रस्तावना में परिचय के प्रकाशित होते हैं वह सब इसी शोध-खोज का परिणाम साथ उनकी अन्य रचनामों का भी उल्लेख किया गया है।
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वीर सेवामन्दिर का साहित्यिक शोषकार्य
प्रशस्ति संग्रह के द्वितीय भाग में अपभ्रंश भाषा के उन्हें जहां तक भी बन सका ऐतिहासिक क्रमानुसार देने का १२२ दिगम्बर ग्रंथों की प्रादि-मन्त प्रशस्तियां दी गई है। प्रयत्न का किया है। इस समय लक्षणावली के संपादन मोर मोर ५५ अंधकारों का शोषपूर्ण परिचय भी लिखा गया प्रकाशन का कार्य चल रहा है, लक्षणों का हिन्दी अनुवाद अपभ्रश भाषा के अनुपलब्ध ग्रंथों का नामोल्लेख भी दिया भी दिया है जिससे विद्वान, विद्यार्थी और स्वाध्यायी जन है। परिचय में जो ऐतिहासिक सामग्री दी गई है वह सभी लाभ उठा सकते है। लक्षणावली का संपादन कार्य महत्वपूर्ण हैं। अनेक परिशिष्टों द्वारा उन ऐतिहासिक पं० बालचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री कर रहे हैं। उसके तथ्यों को उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है। प्रस्तुत अब तक तीस फार्म छप चुके हैं । प्रागे कार्य चालू है। संग्रह में ९ वीं शताब्दी से १७ वीं शताब्दी तक की सामा- अनेकान्त पत्र का प्रकाशन पहले १४ वर्ष तक मासिक जिक, धार्मिक और नैतिक परिस्थितियों पर अच्छा प्रकाश रूप में हमा और अब उसका प्रकाशन द्वैमासिक रूप में डाला गया है।
हो रहा है, जिसमें अनेक ऐतिहासिक, साहित्यिक, दार्शप्रशस्तिसंग्रह के तृतीय भाग का सकलन कार्य भी निक, तात्विक और समीक्षात्मक लेख, कहानी, कविता सामने है. उसका कुछ भाग सकलित हो चुका है, पर प्रादि प्रकाशित होते है। प्राधकांश कार्य शेष है, उसके लिए बाहर के कुछ प्रथ- वीरसेवामन्दिर का यह सेवा-कार्य किसी तरह भी भडारों का अवलोकन करना और अप्रकाशित ग्रन्थों के भुलाया नहीं जा सकता। इन सब ग्रंथों की तैयारी में आदि अन्तभाग का संकलन करना आवश्यक है, समय अन्य संस्थानों की अपेक्षा वीर सेवामन्दिर मे अल्प खर्च मिलने पर उसे पूरा करने का विचार है।
में महान कार्य संपन्न हुए है। जब कि उनमे अर्थ व्यय प्रकाशन-कार्य
अधिक होता है । यह तथ्यसमाज से छुपा हुआ नहीं है । वीर सेवा मन्दिर में केवल अनुसन्धान कार्य ही संपन्न मुझे प्राशा है कि समाज ऐसी महत्वपूर्ण सेवा भावी संस्था नहीं हुआ, किन्तु अनेक ग्रन्थों का सानुवाद प्रकाशन भी .
मी को अपनाएगी और उसे आर्थिक सहयोग प्रदान कर उसके हुपा है। पुरातन जैनवाक्य-सूची स्वयम्भूस्तोत्र, युक्त्यनु
सेवा कार्य मे अपना हाथ बटाएगी। शासन, स्तुति विद्या, समीचीन धर्मशास्त्र, आप्तपरीक्षा,
वीर सेवामन्दिर द्वारा अब तक जिन ग्रंथों, ग्रथकारों न्यायदीपिका, श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र, शासनचस्त्रि- आदि के सम्बन्ध में अन्वेषण कार्य हुआ है उसकी सक्षिप्त शिका, प्रभाचन्द्र का तत्त्वार्थसूत्र, समाधितत्र और इप्टो. तालिका निम्न प्रकार है :पदेश, अध्यात्मकमलमार्तण्ड, अनित्यभावना, सत्साधुम्मरण अनुसंधान कार्य के कुछ संकेतमंगलपाठ बनारसी नाममाला अध्यात्म रहस्य दिल्ली के तोमर वशी अनंगपाल तृतीय (स०११८६)
आदि ग्रंथ प्रकाशित हुए है। पुरातन जैन वाक्य- की खोज से दिल्ली के इतिहास पर महत्वपूर्ण प्रकाश सूची, जिसमे ६२ दिगम्बर ग्रथों के पद्यो का आदि भाग पडता है । सं० ११०६ से १२४६ तक के लिए जो प्रानंद दिया गया है और प्रस्तावना में मुख्तार सा० ने उनके सवत की कल्पना की गई थी, जिसका निरसन प्रसिद्ध सम्बन्ध में अच्छा विचार किया है, जो मनन करने योग्य विद्वान हीराचन्द जी मोझा ने किया था। इससे भी उसकी है, इन सब ग्रंथों की प्रस्तावनाये अत्यन्त महत्व पूर्ण है, निरर्थकता पर प्रकाश पड़ता है। और इतिहास की कितनी जो ऐतिहासिक अनुसन्धाताओं के लिए अत्यन्त उपयोगी ही भूल-भ्रांतिया दूर हो जाती है।
विजोलिया के शिलालेख से चौहान वंश की वंशावली जैन लक्षणावली (जैन पारिभाषिक शब्द कोष) का का सम्बन्ध भी ठीक घटित हो जाता है। संकलन दिगबर-श्वेतांबर ग्रंथों पर से किया गया है। यह सिद्धसेन के सामने सर्वार्थसिद्धि मोर 'राजवातिक' कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि लक्ष्य शब्दों का संग्रह दो नामक लेख से पं० सुखलाल जी संघवी की उस मान्यता सौ दिगंबर भौर इतनेही श्वेताम्बर प्रन्पों परसे हुमा है। मोर का निरसन हो जाता है कि सिद्धसेन गणी को दूर देश
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अनेकान्त
वर्ती होने से उक्त दोनों टीकाएँ उन्हें देखने को नहीं मिली, ग्वालियर के गोलापूर्व प्राम्नाय के शाह धनराज द्वारा अतएव वे बसी टीका नहीं बना सके । किन्तु उस लेख से सं. १६९४ से पूर्व का 'भक्तामरस्तोत्र' हिन्दी का पद्यानुवाद निश्चित है कि सिद्धसेन गणी की इस टीका में सर्वार्थ अनेकान्त में प्रकाशित हुपा है, उसकी सचित्र जीणंप्रति सिद्धि और राजवार्तिक की पंक्तियोंकी पंक्तियां उड़त है। मुनि कान्तिसागर जी के पास विद्यमान है। तब दूर देश होनेके कारण वे टीकाएं देखनेको नहीं मिली, प्रचलित गोम्मटसार-कर्मकाण्ड का प्रकृति समुत्कीर्तन मान्यता प्रामाणिक ठहरती है, उन टीकाओं के रहते अधिकार त्रुटिपूर्ण है। उसमें प्राकृत के कुछ गद्यसूत्र छुटे हुए भी सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्थवार्तिक जैसी टीका नही हुए हैं । जो कि मूडबिद्री की ताडपत्रीय प्रति में पाये जाते बनने में योग्यता भेद ही कारण है।
हैं। उन सूत्रों को मिलाकर उसके टित अश को पूरा अनंगपाल तृतीय के राज्यकाल में प्रामात्य अग्रवाल किया गया है। साहू नट्टल द्वारा आदिनाथ के मन्दिर का निर्माण और भविष्यदत्त कथा के शोध प्रबन्ध पर, जिसपर पी. एच. प्रतिष्ठा तथा पार्श्वनाथचरित्र का निर्माण, ये खोज महत्व- डी. की उपाधि मिली है, उसके निर्माण काल पर विचार-लेख पूर्ण है।
द्वारा उसके निर्माण काल पर विचार किया गया है। सं०
१३६३ को रचनाकाल बतलाया गया था वह उसका ___ गहरे अनुसन्धान द्वारा यह प्रमाणित किया गया कि
प्रतिलिपि काल है, निर्माण काल नहीं। सन्मति सिद्धसेन के कर्ता दिगवर थे । तथा सन्मति सूत्र, न्यायावतार और द्वात्रिन्शिकागो के कर्ता एक सिद्धसेन
तात्विक अनुसन्धान द्वारा तत्व विषयक सैकड़ों बातों नही किन्तु तीन या तीन से अधिक है।
पर नया प्रकाश डाला गया है । इसमे दर्शन, ज्ञान और कल्याणमन्दिर स्तोत्र के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर नहीं, चरित्र सम्बन्धि बातो का समावेश है। पौर न वह श्वेतांबरकृति है।
अनुसन्धान द्वारा अनेक प्राचार्यों, विद्वानों, और भट्टारत्नकरण्डश्रावकाचार देवागमादि ग्रथों के कर्ता रकों आदि के समय पर नया प्रकाश डाला गया है। और स्वामी समन्तभद्र की कृति है, ऐसा अनसधान पुष्ट उनके समयादि के सम्बन्ध मे प्रामाणिक विचार किया है। प्रमाणों के आधार पर किया गया है।
अनेक अप्रकाशित अलभ्य ग्रन्थों की शोध खोज 'अलोप पार्श्वनाथ प्रसाद' नामक लेख द्वारा शिला- की और दूसरों को प्रेरित करके कराने का उपक्रम किया लेखीय प्रमाणों के प्राधार पर मुनिकान्तिसागर जी ने है। अनक अप्रकाशित ग्रथा को ग्रथ भण्डारों मे से लाकर उसे नागदा का पार्श्वनाथ दिगबर जैन मन्दिर बतलाया
उनका परिचय अनेकान्तादि पत्रों में दिया है। है। यह लेख मुनि जी ने मेरी प्रेरणा पर तटस्थ भाव से वीरसेवामन्दिर द्वारा अन्वेषित ग्रन्थ और ग्रन्थकार लिखा है।
अक्षयनिधिव्रत कथा, भ० सकलकीति चित्तौड का जैन कीर्तिस्तम्भ-जिसे श्वेताबर सम्प्रदाय के अक्षयनिधिव्रत कथा, ब्र० श्रुतसागर विद्वान साम्प्रदायिक व्यामोहवश श्वेताबर बतलाते थे, वह अर्घकाण्ड. दुर्गदेव दिगंबर जैन कीर्तिस्तभ वघेरवालवशी शाह जीजा द्वारा बन- अजितपुराण, अरुणमणि वाया गया है, और उसकी प्रतिष्ठा उनके सुपुत्र शाह अध्यात्म तरंगिणी टीका, गणधर कीर्ति पूरनसिंह द्वारा सम्पन्न हुई है। उसके सम्बन्ध में दो अनंत जिन पूजा, भ० गुणचन्द्र (१६३३) शिलालेख भी उदयपुर राज्य के प्रकाशित किए है। अनन्त व्रत कथा, पद्मनन्दि
सिरिपुर पार्श्वनाथ का इतिहास और पार्श्वनाथ की अनन्त व्रत कथा, ब्र० श्रुतसागर मूर्ति के प्रतिष्ठापक राजा श्रीपाल ईल, का प्रामाणिक अम्बिकाकल्प, भ. शुभचन्द्र परिचय भी नेमचन्द धन्नूसा जैन द्वारा अनेकान्त में प्रका- अशोक रोहिणी कथा, ब्र० श्रुतसागर शित हुमा है।
माकाशपचमी कथा, ब्रह्म श्रुतसागर
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बोरसेवामन्दिर का साहित्यिक शोषकार्य
१७१
पाकाशपंचमी कथा, चन्द्रभूषण शिष्य मभ्रदेव
त्रैलोक्य दीपक, इन्द्र वामदेव मात्मानुशासन टीका, प्रभाचन्द्राचार्य
दशलाक्षणिक कथा, ब्रह्म श्रुतसागर मादिनाथ पुराण, भ. सकलकीति
द्विकावली कथा, भ. सकलकीति पादिनाथ पुराण टीका, भ. ललितकीर्ति
देवताकल्प, गुणसेन शिष्य अरिष्टनेमि पायज्ञान तिलक, भट्टवोसरि
द्रव्य संग्रह वृत्ति, पं. प्रभाचन्द्र प्राय सद्भाव, मल्लिषेणाचार्य
द्रोपदि प्रबन्ध, जिनसेन पाराधना सार टीका, पं० माशाधर
धन्यकुमार चरित्र, भ. गुणभद्र एकावली कथा, भ. सकलकीति
धन्यकुमार चरित्र, भ. यशःकीर्ति कथाकोप, चन्द्रकीति
धन्यकुमार चरित, ७० नेमिदत्त कनकावली कथा, सकलकीति
धर्मचक्र पूजा, बुधवीर कर्मप्रकृति, अभयचन्द्र
धर्मपरीक्षा, मुनि रामचन्द्र करकडू चरित, भ. शुभचन्द्र
धर्म प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, भ. सकलकीर्ति करकडुचरित, भ० जिनेन्द्रभूषण
धर्म रत्नाकर, जयसेन (१०५५) कर्म स्वरूप वर्णन, कवि जगन्नाथ
धर्मोपदेश पीयूष वर्ष श्रावकाचार, ब्र० नेमिदत्त कामचाण्डाली कल्प, मल्लिषेण सूरि
ध्यान स्तवन, भास्करनन्दि ज्ञानार्णव गद्य टीका, ब्र० श्रुतसागर
नक्षत्रमाला विधान, भ. सकलकोति चतुर्विशति सवान, कवि जगन्नाथ चन्द्रप्रभचरित्र, भ. शुभचन्द्र
नन्दीश्वर पंक्ति विधान कथा, भ. सकलकीर्ति चन्द्रप्रभचरित कवि दामोदर (१७२७)
नागकुमार चरित, मल्लिषेणाचार्य चन्द्रप्रभपुराण, पं० शिवाभिराम
नागकुमार पंचमी कथा, घरसेन चन्दनषष्ठीव्रत कथा, ब्र० श्रुतसागर
निर्दुख सत्तमी कथा, ब्र० श्रुतसागर चन्दनषष्ठी कथा, छत्रसेन
नीतिसार पुराण, सिद्धसेन छन्दोनुशासन वृत्ति, कवि वाग्भट
नेमिनरेन्द्र स्तोत्र, कवि जगन्नाथ छपणासार गद्य, माधवचन्द्र विद्य (शक स. ११२५)
पचकल्याणकोद्यापनविधि, ब० गोपाल जिन पुरदर विधि, भ. सकलकीर्ति
पंच नमस्कार मत्र, सिंहनन्दी (१६६७) जिन सुखावलोकन कथा, भ. सकलकीर्ति
पचास्तिकाय प्रदीप, प्रभाचन्द्राचार्य जम्बू स्वामी चरित्र, भ. सकलकीर्ति
• पद्मचरित टिप्पण, मुनि श्रीचन्द्र जम्बू स्वामी चरित्र, ब्र. जिनदास
पद्मपुराण, ब्र० जिनदास ज्येष्ठ जिनवर कथा, ब्रह्म श्रुतसागर
पद्मपुराण, भ. धर्मकोति (१६६९) ज्वालामालिनी कल्प, इन्द्रनन्दि योगीन्द्र
पदार्थदीपिका (कलश टीका), देवेन्द्रकोर्ति १७८८ तत्त्वसार टीका, भ. कमलकीति
परमागमसार, श्रुतमुनि [शक सं० १२६३] तत्त्वार्थ टिप्पण, (रल प्रभाकर) भ. प्रभाचन्द्र (१४८६)
परमात्मराज स्तोत्र, भ. सकलकीर्ति तपोलक्षण पंक्ति कथा, ब्रह्म श्रुतसागर
परमार्थोपदेश, भ. ज्ञानभूषण त्रिकाल चउवीसी कथा, चन्द्रभूषण शिष्य अभ्रदेव
पल्ल विधान कथा, ब्र. श्रुतसागर [१९५२] त्रिपंचाशत क्रियोद्यापन, देवेन्द्रकीति (१६४४)
पाण्डव पुराण, भ. श्रीभूषण त्रिभंगीसार टीका, सोमदेव सूरि
पाश्वंपुराण, चन्द्रकीर्ति [१६५४] त्रिलोकसार टीका, सहस्रकीर्ति
पावपुराण, भ. सकलकीर्ति
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१७२
प्रकान्त
यशोधर चरित्र पंजिका, श्री देव
पुरंदर विधान कथा, ब्र. श्रुतसागर पुष्पांजलि व्रत कथा, ब्र. श्रुतसागर पुराणसार, भ. सकलकीर्ति प्रद्युम्नचरित्र, सोमकीर्ति प्राकृत पंचसंग्रहकर्ता, (प्रज्ञात) प्राकृत पचसग्रह की प्रा० टीका प्राकृत पंचसंग्रह की संस्कृत टीका, प्रायश्चित्त समुच्चय सलिक वृत्ति, श्रीनन्दिगुरु प्रीतिकर महामुनि चरित, ब्र. नेमिदत्त वृहत्सिद्धचक्र पूजा, कवि वीरु भविष्यदत्तकथा, कवि श्रीधर भावना पंचविशति व्रत कथा, भ. सकलकीर्ति
भ. सुमतिकीर्ति
योग सार संग्रह, श्रीनन्दि गुरु योगसार टीका, इन्द्रनन्दि रत्नत्रय विधान कथा, पं. प्रशाघर रत्नत्रयकथा, ब्र. श्रुतसागर रत्नावली कथा, भ. सकलकीर्ति रात्रि भोजन त्याग कथा, ब्र. नेमिदत्त रिष्ट समुच्चय शास्त्र, दुर्गदेव रविव्रत कथा, ब्र. श्रुतसागर रुक्मणी विधान कथा, छत्रसेन लब्धि विधान कथा, ब्र. श्रुतसागर लब्धि विधान कथा, चन्द्रभूषण शिष्य अभ्रदेव वर्धमान चरित, भ. सकलकीर्ति वाग्भट्टाल कारावचूरि, कवि चन्द्रिका पोमराज सुत वादिराज विमानपंक्तिविधि, भ. सकलकीर्ति
11
भावसंग्रह, श्रुतमुनि भूपाल चतुविशति टीका, पं. प्रशाघर भैरव पद्मावती कल्प, मल्लिषेण सूरि मदन, पराजय, ठक्कुर जिनदेव मल्लिनाथ चरित्र, भ. सकलकीर्ति मल्लिषेण सूरि महापुराण, महीपाल चरित्र, चारित्रभूषण
विमानपंक्ति कथा, ब्रह्म श्रुतसागर विषापहार- टीका, नागचन्द सूरि वैद्यकशास्त्र, ( प्राकृत) हरिपाल वृषभदेव पुराण, चन्दकीर्ति
भ. सकलकीर्ति
मुकुट सप्तमी कथा, ब्र. श्रुतसागर
मुक्तावली कथा, भ. सकलकीर्ति मुक्तावली कथा वृहद्, भ. सकलकीर्ति
शातिकविधि, प. धर्मदेव शांतिनाथ पुराण, भ. श्रीभूषण शील कल्याणकविधि, भ. सकलकोति
मुक्तावली व्रतकथा, ब्र. श्रुतसागर मुनि सुव्रत पुराण, ब्र. कृष्णदास मूलाचार प्रदीप भ. सकलकीर्ति [१४८१]
श्वेताम्बर पराजय, कवि जगन्नाथ ( १७०३ ) श्रवण द्वादशी कथा, प. चन्द्रभूषण शिष्य श्रभ्रदेव श्रवण द्वादशी कथा, ब्र. श्रुतसागर
मेघमाला व्रतकथा, ब्र. श्रुतसागर मेरूपक्ति कथा मेरूपंक्ति विधि, भ. सकलकीर्ति
श्रावकाचार, पद्मनन्दि श्रुतज्ञान कथा, भ. सकलकीर्ति
मौनव्रत कथा, गुणचन्द्र सूरि यशोधर चरित्र, भ. सकलकीर्ति
श्रुतस्कघविधान, भ. सकलकीर्ति श्री देवताकल्प, अरिष्टनेमि श्रीपाल चरित्र, भ. सकलकीर्ति
यशोधर चरित्र, ब्र. श्रुतसागर यशोधर चरित्र, भ. ज्ञानकीर्ति
श्रीपाल चरित्र, विद्यानन्दि श्रीपाल चरित, ब्र. नेमिदत्त श्रीपाल चरित, घरसेन शृगार मंजरी, भजितसेन
शृगार समुद्रकाव्य, कवि जगन्नाथ [ अनुपलब्ध ]
यशोधर चरित्र, पद्मनाभ कायस्थ यशोधर चरित्र, वासवसेन सूरि यशोधर चरित्र, सोमकीर्ति
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षट् चतुर्थ वर्तमान जिनार्चन पं. शिवाभिराम षड्दर्शन प्रमाण प्रमेय संग्रह, शुभचन्द्र षण्णवति क्षेत्रपाल पूजा, मुनि विश्वसेन षोडशकारणकथा, चन्द्रभूषण शिष्य प. प्रभ्रदेव खोड कारण कथा, ब्र. श्रुतसागर सद्भापितावली, भ. सकलकीर्ति
सप्तपरमस्थानव्रत कथा, ब्रह्म श्रुतसागर सप्तव्यसन कथा, सोमकीर्ति
वीरसेवामन्दिर का साहित्यक शोधकार्य अणुवेक्खा, ब्रह्म साधारण
समवसरणपाठ, प. रूपचन्द सम्यक्त्व कौमदी, प० खेता
सम्मेद शिखर माहात्म्य, दीक्षित देवदत्त सरस्वती कल्प, मल्लिषेण मूरि सार चतुर्विंशतिका, भ. सकलकीर्ति सर्वतोभद्रत कथा, भ. सकलकीति सिद्धान्तसार नरेन्द्रसेन
सिद्धान्तसार दीपक, भ. सकलकीर्ति सुकमाल चरित्र, भ. सकलकीर्ति
सुख संपत्ति व्रत फल कथा भ. सकलकीति
सुगन्ध दशमी कथा, व्र. श्रुतसागर सुदर्शन चरित्र, भ. सकलकीर्ति सुदर्शन चरित्र, विद्यानन्दि सुभग सुलोचना चरित्र, वादिचन्द्र सुभौमचक्रिचरित, भ. रत्नचन्द्र ( १६८३ ) सुषेण चरित्र, कवि जगन्नाथ स्वर्णाचल माहात्म्य, दीक्षित देवदत्त हरिवंश पुराण, धर्मकीर्ति (१६७१) हरिवशपुराण ब्र. जिनदास होलिरेणुका चरित, जिनदास (१६०८ )
अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थ
अजित पुराण, विजसिंह [१५०५] प्रथमीकहा, रघू
अणथमी कहा, हरिश्चन्द्र अग्रवाल अणुवयरयण पईव, पं. लक्ष्मण अणुवेक्खा रास, कवि जल्हिग
(दोहा), लक्ष्मीचन्द क्खा, ल्हू कवि
अनतवयकहा, भ. गुणभद्र अमरसेन चरित, माणिक्यराज [सं. १५७५ ] आत्म-सबोध-काव्य, रघू [सं. १४४८ से १५३० ] आदित्यवार (रविवार) कथा, म. यशःकीर्ति आदिपुराण, रइधू [ अनुपलब्ध ] प्रायासपंचमी कहा, भ. गुणभद्र
प्राराहणासार, वीरकवि
करकण्डु चरिउ, रघू [प्रप्राप्त ] कहाकोसु, श्रीचन्द
कुसुमांजलिकहा, ब्रह्म साधारण कोइल पचमीकहा,
चंदण छट्ठी कहा, लाखू
चदण छट्ठी कहा, भ. गुणभन
चंदायणवय कहा,
चद्रप्रभचरिउ, यशःकीति
चदप्पह चरिउ, कवि दामोदर [नागौर मंडार [ चंदप्पह चरिउ, कवि श्रीधर [ अनुपलब्ध ] चुनडी, भ. विनय चन्द
"
छक्कम्मो एस, ( षट्कर्मोपदेश ) अमरकीति [ १२४७ ] जबू स्वामी चरित, वीर कवि [१०७६ ] जसहर चरिउ, कविवर रघू जिनदत्तचरित, कवि लाखू जिनरात्रि कथा भ. यशःकीर्ति जीवंधर चरिउ, कविवर रघू
तियाल चडवीसी कहा, ब्र. साधारण [१५०८ ]
दलक्खण कहा गुणभद्र
दुद्धारसि कथा, विनयचन्द्र
दुद्धारसिकहा, व्र. साधारण
दुद्धारसिकहा, भ. गुणभद्र धन्यकुमार चरिउ, कविवर रघू धर्मपरीक्षा, श्रुतकीर्ति
नरक उतारी दुद्धारसिकहा, मुनि बालचन्द णिदुह सत्तमीकहा, मुनि बालचग्द
भ. गुणभव
ब्र. साधारण
नागकुमार चरिउ, माणिक्यराज [सं. १५७९ ]
"
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अनेकान्त
नेमिनाथ चरित, कवि लक्ष्मण नेमिनाथ जिनचरित (हरिवंश पुराण), कविवर रइधू नेमिनाथ पुराण, भ. अमरकीर्ति [सं. १२४४] नेमिनाह चरिउ, कवि दामोदर [१२८७] निझर पंचमी कथा, . साधारण निर्भर पंचमी कथा, विनयचन्द्र निव्वाणभत्ति जयमाला, उदयकीर्ति पंचमी चरिउ, स्वयभू [अप्राप्य] पक्खवह कथा, भ. गुणभद्र पउमचरिउ, स्वयंभूदेव पउमचरिउ, कविवर रइधू परमेट्ठी पयाससार, भ. श्रुतकीर्ति पाण्डवपुराण, भ. यशःकीर्ति पासणाह चरिउ, कवि असवाल [१४८६] पासणाह चरिउ, कवि देवचन्द पास पुराण, विवृष श्रीधर [११६६] पास पुराण, पद्यकीर्ति [९] पासपुराण, कविवर रइधू पासपुराण, कवि तेजपाल पुण्णासवकहा कोसु, कविवर रइधू पुष्फंजलिकहा, भ. गुणभद्र पुरदर विधानकथा, भ. अमरकीति पचकल्लाणक, विनयचन्द पज्जुण्णचरिउ, कवि सिद्ध और सिंह बारह प्रणुवेक्खा रासो, योगदेव बाहुवली चरिउ, धनपाल [१४५४] भविसयतकहा, कवि श्रीधर मउउ सत्तमीकहा, ब. साधारण
" , भ. गुणभद्र मउड सत्तमीकहा, भगवती दास मयण पराजय, हरिदेव मयंक लेहाचरिउ, भगवतीदास मल्लिणाह चरिउ, हरिचन्द मुक्तावली कहा, [अज्ञात मेघमाला वयकहा, कवि ठकुरसी [१५७८] मेघेसर चरिउ, कविवर रइधू
रयणकरण्ड सावयायार श्रीचन्द रविवयकहा भ० यशःकीति रयणत्तयकहा, भ. गुणभद्र रविवयकहा, ब्र. साधारण [सं. १५०८] रविवयकहा, नेमचन्द रोहणी विहाणकहा, देवनंदि लब्धि विहाणकहा, भ. गुणभद्र वड्ढमाण कहा, कवि नरसेन वड्ढमाणचरिउ, हरिचंद [जयमित्तहल] वड्ढमाणचरित (पुगण) विबुध श्रीधर वरांग चरिउ, कवि तेजपाल वित्तसार, कविवर रइधू सयल विहीविहाणकहा, नयनन्दी [११००] सवणवारसि कहा, भ० गुणभद्र सम्मत्त क उमदी (सावयायार), कविवर रइधु सम्मत्त गुण निधान कविवर रइधृ [१४६२] संतिणाह चरिउ भ० शुभकीर्ति सतिणाह चरिउ कवि ठाकुर (६१५२) संभवणाह चरिउ कवि तेजपाल [१५००] सम्मद जिणचरिउ महाकवि रइधु सिद्धतत्थसार (सिद्धान्तार्थसार) रइधू सिरिपाल चरिउ कविवर रइधू सुकमाल चरिउ मुनि पूर्णभद्र सुकोसल चरिउ कवि रइधू [१४६६] सुयन्धदसमी कहा उदयचन्द सुयंध दसमी महा विमलकीति सुर्यधदसमीकहा भगवतीदास सुदंसण चरिउ कविवर नयनन्दी [११००] सुदसण चरिउ कवि रइधू (अप्राप्त) सुलोयणा चरिउ गणिदेवसेन सोलह कारणवय कहा भ० गुणभद्र सोरववई विहाण कहा विमलकीति हरिवस पुराण स्वयंभू, त्रिभुवन स्वयंभू हरिवंस पुराण भ० यशःकीति (१५००) हरिवंस पुराण श्रुतकीर्ति [१५५२] हरिषेणचरिउ मशात कवि
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बीरसेवामन्दिरका साहित्यिक शोधकार्य
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दि० जैन रासा साहित्य सूची
रास, सोलहकारण रास, भद्रबाहु रास, श्रुतस्कंध रास, अचल कीति-प्रठाईरास, रत्नत्रयरास, दशलक्षणव्रत- सम्यक्त्व रास, रात्रिभोजन वर्जन रास, मालिकथा रास, धर्मरास, (१७२३) आदित्यव्रत कथा (१७५७) रास, करकंडमुनि रास, जिनेन्द्रभक्ति रास, पुष्पांजलि ऊद्र कवि-जिनवररास, चैत्यरास, सनत्कुमाररास(१६६७) रास, जोवदयारास, जोगीरास, चन्दन षष्ठी रास, कपूरचन्द ब्रह्म-(मुनिगुणचन्द शिष्य) पार्श्वनाथ रासो मौनव्रत रास, वारिषेण रास, पंचपरमेष्ठी रास, सुगध१६६ प० (स. १६६७)
दशमी रास, ज्येष्ठजिनवर रास, मम्बिकादेवी रास, कलसी ब्रह्म-ध्यानामृतरास
घनपाल रास, अजितनाथ रास, अनंतवत रास, विष्णुकल्याणकीति-(भ० देवकीतिशिष्य)-श्रेणिकरास,
कुमारकथा रास, दानकथा रास, गुणपालश्रेष्ठिरास । होलीरास, चारुदत्तरास, (स० १६६२) प्रबन्धरास (स० जिनदास पांडे-जोगीरास, मालीरास, १६६२)
जिनसागर-प्रनतव्रतकथा रास (मराठी भाषा मे) कामतीचन्द पाण्डया-रेवतीरासो
जिनसेन-(भ० यश: कीतिशिष्य) नेमिनाथ रास (रच. किशन सिंह-णमोकाररास (स० १७६०)
___स० १५५८) कुमुदचन्द्र-(काष्ठासपी) नेमिनाथरास बाहबलीछन्द तुलसी कवि वनवासी-रोहिणीव्रतरास (सं० १६४८, (स० १४६७)
१६४ पद्य, पानीपत में बनाया) कृष्णदास-दानशीलतप भावनारास (रच० स० १६६६) जिनसेवक-श्रावकाचार रास (१६०३) गगादास-रविव्रतरास
जीवंधर ब्रह्म-(१५६०) खटोलारास, मुक्तावली रास गणकीति--(ब्रह्म जिनदास शिष्य)-रामसीतारास
(इनकी १५-१६ रचनायें उपलब्ध है) गुणकीति-(द्वितीय) शील रास (१७१३)
जानभूषण-(द्वितीय) पोषह रास, षटकर्मनों रास गणचन्द्र-दयाव्रतरास (१६६३) राजमतीरास
ज्ञानसागर ब्रह्म-रत्नत्रयरास, लब्धिविधान रास, हनुगुणराज-सकल कीतिरास, समकितरास प्रद्युम्न रास (
स मं त रास(१६६०) १६०६)
(ब्रह्म)दीप (चन्द)-मनकरहा रास गोपालदास-यदुरासो
देवदत्त-वादेवी चर्चरी रास (१०५० के लगभग) चन्द्रकीति-(भ. श्री भूषण शिष्य) जयकुमार सुलो- देवदास (ब्रह्म)-हनुमत रास (१६८१) चनारास (इन्होने पार्श्वनाथचरित १६५४ मे बनाया)
देवेन्द्र कवि-यशोधर रास (१५६ पद्य) चन्द्रसागर ब्रह्म-धर्मपरीक्षा रास (रचना स० १६२५) देवेन्द्र कीति-प्रद्यम्न प्रबन्ध रास (१७२६) जयकीति-अनतव्रतरास (इन्होंने सीता शील पताका दौलतराम पाटनी-व्रतविधान रास (स० १०६७) गुण वेलि स० १६८४ मे गलिया कोट मे बनाई थी। वक- प्रसार
धर्मपाल-श्रावकाचार रास चुल रास स० १६८५)
धर्मभूषण-अंजना रास जिनदास ब्रह्म-रामायणरास (१५०८) धर्मपरीक्षा
धर्मरुचि ब्रह्मचारी-(भ. अभयचन्द्र शिष्य) मुकमाल रास (१५२०) हरिवशरास, (१५२०) जीवधर
स्वामिनो रास (स० १६१६) (दूसरी रचना नेमीरास, कर्मविपाक रास, हनुवंत रास चारुदत्तश्रेष्ठि
श्वरभवांतर) रास, यशोधररास, पुरदर विधान रास, मडूकना नरेन्द्रकीति-(सकलभूषण शिष्य) अंजनारास (सं० रास, गुणस्थान-रास, नागपचमी रास, सुकमालस्वामी १६५०) खडल० म० उदयपुर रास, लब्धिविधान रास, रोहणीव्रत रास, सुदर्शन- नरेन्द्र कीति-सगरचक्रवर्तीनु रास (स०१६०५) द्रापश्रेष्ठिनो रास, आदिपुराण रास, श्रीपाल रास, निर्दोष- दिशीलगुणरास (१६०५) सप्तमी रास, होलीरास, जयकार रास, अठाईव्रत रास, नरेन्द्रकीति- (प्रतापकीर्ति शिप्य)-श्रावकाचाररास मुकुट सप्तमी रास, आकाश पंचमी रास, परमहंस- (सं० १५१४ मगशिर सुदि १०),
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अनेकान्त
नरेन्द्रकीर्ति-(बागठसंघीय प्रतापकीतिशिष्य)-श्रावक- भ० विश्वभूषण-(भट्टारक विशालकीतिशिष्य)-कालग्रम (सं० १५१४) मंबडनगर
लब्धि विधानरास, सोलहकारणरास, पाकाश पंचमीनेमचन्द-(जगत्कीर्ति शिष्य)-नेमीश्वर रास (१७६६)
रास, (१६४०) मौन इगारसीरास (१६४६) | नेविदत्त-मादित्यव्रत रास, दूसरी रचना
(१६३०) सुदर्शनरास (१६२६) हनुमंतरास (१६मानारोहण अनेक संस्कृत रचनाएँ।
१६) भविष्यदत्तरास (सं० १६३३) कवि पद्म-हवडजातीय श्रावक मेषकुमार रास, महावीर
हावार रूपचन्द पांडे-नेमिनाथरास, वणिजोरास चस्ति रास (१६०६) ध्यानरास,त्रेपन क्रियारास
वर्धमान कवि-वर्धमानरास (१६६५) पूनो-मेधकुमाररास
(ब्रह्म) वस्तुपाल-पार्श्वनाथ रास, पीतंकररास, रविपथ्वीमल्ल-श्रुतपंचमीरास (१६६२)
व्रतरास (१६६७) प्रतापचन्द्र मुनि-स्वप्नावलीरास (सं० १५०० पूर्ववर्ती) ति
विद्याभूषण-भविष्यदत्त रास (१६००) नेमिनाथरास भगवतीदास अग्रवाल-(भट्टारक महेन्द्र सेन शिष्य)
विनयचन्द्र--चुनडीरास, निर्भरपचमीकथा रास, इनकी संवत १६५१ से १७००तक की रचनाएँ उप
कल्याणकरास लब्ध हैं टंडाणारास, जोगीरास, खिचडीरास, चतूरवणिजारा विनयसागर (ब्रह्म) रामायणरास रास, प्रादित्यवतरास, पखवाड़ारास, दशलक्षणरास, विशालकीति-रोहिणीव्रतरास (१६०६)
मुनि वोरचन्द-सप्तव्यसनरास (१६०२) नेमिकुमार१६८४) मुक्तिरमणचुनड़ीरास (१६८०)
रास (लिपि संवत १६४८) बाहुबली वेलिरास भाऊकवि अग्रवाल नेमीश्वर रास
शान्तिदास-मौन एकादशीरास भ० भवन कीति-(सकलकीर्तिपट्रघर) सकल कीर्ति रास भ० शुभचन्द्र-पठाईरास, पल्यविधानरास, महावीरभुवनकीर्ति (द्वितीय)-रात्रि भोजनबर्जनरास, जंबू- रास, देवन्द्ररास(१६३६)
स्वामीरास (लिपि सवत १६२५) जीवपररास (१६०६) (ब्रह्म) श्रीपति-(इन्द्रभूषणशिष्य)-रत्नपालनोरास (स भोजराज पानीपत-श्रुतपघमीरास (१६६२) कवि मनरंग-कर्मविपाकरास (सवत १७२८)
भ० श्रीभूषण-(१६४६) देवेन्द्र कुमार रास, प्रद्युम्नरास महीचंद-रविव्रतरास
(भ०) सकलकीति-(१४४३-१४६६)-कर्मविपाकरास, मेघराज-चन्द्रप्रभरास
रत्नत्रयरास, सारशिखामणरास. सोलहकारणरास यश:कीर्ति-पादिपुराणरास, जीवधररास
भ० सकलभूषण-गजसुकमाल रास अठाईरास-हनुमतरास, नेमिनाथ राजुलनो रास
सांगा-सुकोशल रास (लिपि स०१६१६) से पूर्ववर्ती यश: कीति-पादिपुराणरास (सवत १८५७) पाण्डव
सांसु-सुकोगलराम(लिपि स. १६६४) जनमदिर नेनवा पुराणरास (१८५५)
समतिकीति-(भ० लक्ष्मीचन्द्र शिष्य) धर्मपरीक्षारास, (ब्रह्म) यशोधर-बलदेवरास (संवत १५८५)
(१६२५) लोकामतरास (भ०) रतनचन्द्र-शान्तिनाथ रास (१७८३) सुमतिसागर -त्रैलोक्यरास (१६२७) रत्नकीर्ति मुनि-नेमीश्वररास
सुरचन्द्र-रत्नपाल रासो (१७३२) रलभूषण भट्टारक-(भ० सुमतिकोतिशिष्य) (रुक्म- सुरेन्द्रकीर्ति-नरसिंहपुरा जातिरास (१६६७) गिरास) लिपि संवत १७१०
सोमकीर्ति-(भ० भीमसेन शिष्य) (१५२६-१५३६) रत्नवती-(प्रायिका) समकितरास
यशोधररास (ब्रह्म) रायमल-नेमीश्वररास (१६१५) प्रद्युम्नरास (ब्रह्म) हरषसागर-सम्यक्त्वमष्टमङ्गरास (१६१६) श्रीसालरास
हकमसिंह-किशनदास वधेरवालरास(१७४६)
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एक ऐतिहासिक एवं समीक्षात्मक अध्ययन :
स्वामी समन्तभद्र की जैनदर्शन को देन
डा० दरबारीलाल कोटिया एम. ए. पो-एच. डी.
स्वामी ममन्तभद्र जैन दर्शन के उन इने-गिने प्राचार्यो समन्तभद्र से पूर्व का यग में है जिन्होंने जैन वाङमय की अमाधारण प्रभावना की और जैन अनुश्रुति के अनुसार जैन धर्म के प्रवर्तक क्रमशः जनदर्शन को लोगो के अधिक निकट पहुँचाया है। प्रा० काल के अन्तराल को लिए चोवीस तीर्थकर हुए हैं। इनमें कुन्दकुन्द और गृद्ध पिच्छ के पश्चात् इन्होंने जैन दर्शन को तीर्थंकर ऋषभ देव, बाईसवे अरिष्ट नेमि, तेईसवें पाचसर्वाधिक प्रभावित किया एवं शासन-प्रभावक के रूप में नाथ पोर चौवीसवे वर्द्धमान-महावीरजी तो असामान्य यश प्राप्त किया। शिलालेखो तथा मुर्धन्य ग्रन्थ- पोर लोक प्रसिद्ध भी है। इन तीर्थंकरों के द्वारा जो कारो के ग्रन्यो में इनका पर्याप्त यशोगान किया गया है। उपदेश दिया गया वह जैन परम्परा मे "द्वादशाङ्ग" के सुप्रसिद्धताकिक भट्ट अकलंक देवने इन्हे स्यावाद -नीर्थका रूप में प्रसिद्ध है। जैसे बुद्ध का उपदेश "त्रिपटिक" के प्रभावक और स्याद्वाद मार्ग का परिपालक, समस्त दर्शनो रूप में विश्रुत है। वह "द्वादशाङ्ग" श्रुत दो वर्गों में के अन्तः प्रवेशी तीक्ष्ण बुद्धि विद्यानन्द ने स्याद्वाद माग्रिणी विभक्त है-१ अङ्ग प्रविष्ट और २ अङ्ग बाह्य । ये दो वादिराजने सर्वत्र का प्रदर्शक, मलयागिरि ने पाद्यस्तुतिकार भेद प्रवक्ता विशेष के कारण है। जो श्रत तीर्थंकरों तथा तथा शिलालेखो में वीरवामन की सहस्रगुणी वृद्धि करने उनके प्रधान एव साक्षात् शिष्यों (गणधरो) द्वारा निबद्ध वाला, श्रुत केवलि सन्तानोन्नायक, समस्त विद्यानिधि एवं है वह अङ्ग प्रविष्ट है तथा जो इसके प्राधार से उत्तरवर्ती कलिकाल गणधर कहकर उल्लेखित किया है। सम्भवतः
प्रवक्तायो द्वारा रचा गया वह अङ्गबाह्य श्रुत है। अङ्गइसी से शिलालेखो और साहित्य में इन्हें विशिष्ट सम्मान
प्रविष्ट और अङ्गबाह्य के भी क्रमशः बारह मोर चौदह के प्रदर्शक "स्वामी' पद से विभूपित प्रकट किया गया है।
भेद है । अङ्ग प्रविष्ट के बारह भेदों में एक दृष्टिवाद है
भद ह । अङ्ग प्रावष्ट क बारह भदा में एक दृा अथवा “स्वामी" उनका उपनाम या नाम-विशेषण रहा
जो बारहबॉ श्रुत है। इस बारहवें श्रुत में विभिन्नहो । समन्तभद्र को इतना महत्व एव गौरव मिलने का
वादियों की एकान्त दृष्टियो (मान्यतामों) के निरूपण कारण यह प्रतीत होता है कि जब भारतीय दर्शनी में
तथा उनकी समीक्षा के साथ उनका स्याद्वादन्याय से तत्व-निर्णय ऐकान्तिक हाने लगा और उसे उतना ही माना
समन्वय किया गया है। इस तथ्य को प्राचार्य समन्तभद्र जाने लगा तथा ग्रहंत परम्परा ऋषभादि तीर्थकरो द्वारा
ने "स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्तम्" (स्वयम्भू १४) जैसे प्रतिपादित तत्त्व व्यवस्थापक "स्याद्वाद" को भूलने लगी,
पद प्रयोगों द्वारा व्यक्त किया है और सभी तीर्थंकरों को
'स्याद्वादी' (स्याद्वाद प्रतिपादक) कहा है प्रकला देव' तो इन्हीने उसे प्रकाशित एव प्रभावित किया।
इन का विस्तृत परिचय, इतिहास और समयादिका १. "एषां दृष्टिशतानां त्रयाणा षष्ठपुत्तराणां प्ररुपणं निर्णय जैन साहित्य और इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान
निग्रहश्च क्रियते । -वीरसेन, पवला पु. १, पृ. १०८ स्व. पं. जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" ने अपने २. (क) धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनमः । "स्वामी समन्तभद्र" नामक इतिहास ग्रन्थ में
ऋषभादि महावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ॥ किया है। अतः प्रस्तुत में समन्तभद्र के परिचयादि सम्बन्ध
लाधीय०१-१
श्री मत्सरमगम्भीरस्यावादामोघलांछनम् । में विचार न कर केवल उनकी कतिपय उपलब्धियों पर
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ चिन्तन किया जायेगा।
-प्रमाण सं० १-१।
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१७८ वर्ष २२ कि० ३-४
अनेकान्त
ने भी उन्हें. स्याद्वाद का प्रवक्ता तथा उनके उपदेश को न उसमें तक का ही विशेष समावेश हो पाया था। "स्यावाद के प्रमोघ चिन्ह से चिन्हित', बतलाया है।
प्राचार्य गृद्धपिच्छ के तत्वार्थसूत्र मे कुन्दकुन्द द्वारा षटखण्डागम मादि मागमों में यद्यपि स्याद्वाद की प्रदर्शित दर्शन के रूप में कुछ वृद्धि मिलती है। एक तो स्वतंत्र चर्चा नहीं मिलती, फिर भी उनमें सिद्धान्त-प्रति- उन्होंने प्राकृत में सिद्धान्त प्रतिपादन की पुरातन पद्धति पादन "स्यात" (सिया अथवा सिय) शब्द को लेकर को युग के प्रकाश में सस्कृत गद्य सूत्रों में बदल दिया अवश्य प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ षट्खण्डागम में दूसरे, उपपत्ति पूर्वक सिद्धान्तों का निरूपण प्रारम्भ मनुष्यों को पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों बतलाते हुए किया। तीसरे, प्रागम प्रतिपादित ज्ञानमार्गणा गत कहा गया है कि "मणुस्सा.."सिया पज्जत्ता, सिया अप- मत्यादिज्ञानों को प्रमाण संज्ञा देकर उसके प्रत्यक्ष पौर ज्जत्ता अर्थात मनुष्य स्यात् पर्याप्तक है, स्यात् अपर्या- परोक्ष दो भेदों का कथन किया। चौथे दर्शनान्तरो मे प्तक । इसी प्रकार मागम के कुछ दूसरे विषयों का भी पृथक् प्रमाण रूप मे स्वीकृत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, अनुमान प्रतिपादन उपलब्ध होता है। इस तरह पागम ग्रन्थों मे इन्हें मतिज्ञान और शब्द को श्रुतज्ञान कहकर उनका 'स्यात्' शब्द को लिए हुए विधि और निषेध इन दो 'प्राद्यपरोक्षम्" (त०सू०१-...) सूत्र द्वारा परोक्ष प्रमाण वचन-प्रकारों से कथन मिलता है। प्रा० कुन्दकुन्द ने में समावेश किया। पाँचवे, प्रमाण की तरह नय को भी उक्त दो विधि और निषेध' वचन प्रकारों मे पाँच वचन अधिगम का साधन "प्रमाणनयरधिगम."-१-६) निरूप्रकार और मिलाकर सात वचन प्रकारों से वस्तु 'द्रव्य' पित करके उसके नंगमादि सात भेदो का भी सर्व प्रथम निरूपण का स्पष्ट उल्लेख किया है । यथा
निर्देश किया। इस तरह तत्त्वार्थसूत्रकार ने कितना ही सिय पत्थि णत्थि उहयं अवत्तव्वं पुणोय तत्तिदयं । नया चिन्तन प्रस्तुत किया। इसके अतिक्ति तर्क (युक्तिदव्यं खु सत्तभंग प्रादेसवसेण संभवदि ।।
अनुमान) से सिद्धान्तों के पोषण की दिशा भी प्रदर्शित की -पंचास्ति गा० १४। अवयवत्रय से मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन-सिद्धान्त का साधन' यहाँ 'स्यादस्ति द्रव्यं स्यान्नास्तिद्रव्यं स्यादुभयं स्याद- उनकी ही देन है। इतना होने पर भी दर्शन मे उन वक्तयं स्यादस्त्यवक्तव्यं स्यान्नास्त्यवक्तव्यं स्यादस्ति. एकान्तवादों, सघर्षों और विवादों का स्पष्ट तार्किक समानास्त्यवक्तव्यम्' इन सात भंगों का निर्देश करके उनके धान नहीं आपाया, जो उनके कुछ समय बाद की चर्चा माश्रय से द्रव्य (वस्तु) के कथन का उल्लेख किया गया के विषय हुए। है। ध्यातव्य है कि कुन्दकुन्द ने यहाँ द्रव्य को सप्तभङ्गाः समन्तभद्र के समय की संघर्षशील स्थिति त्मक मादेशवशात् 'नयविवक्षानुसार' प्रतिपादित किया है।
विक्रम की दूसरी से पांचवी शताब्दी का समय दार्शउन्होंने यह भी बताया है कि यदि सद्रूप ही द्रव्य हो
निक क्रान्ति का समय रहा है। इस काल में विभिन्न तो उसका विनाश नहीं हो सकता और यदि असद्रूप ही
दर्शनों में अनेक प्रभावशाली एवं क्रान्तिकारी विद्वान हो तो उसका उत्पाद सम्भव नहीं है और चूंकि यह देखा
हए है । वैदिक और श्रमण दोनों परम्परामों में कणाद, जाता है कि जीव द्रव्य मनुष्य पर्याय से नष्ट, देव पर्याय से उत्पन्न और जीव सामान्य से ध्रुव रहने से वह उत्पाद
गौतम, जैमिनी, अश्वघोष, नागार्जुन जैसे प्रतिद्वन्दी व्यय ध्रौव्य स्वरूप है।
प्रभावक मनीषियों का आविर्भाव हुआ और ये सभी अपने कुन्दकुन्द के इस प्रतिपादन से प्रतीत होता है कि
अपने मंडन तथा विरोधी के खण्डन में लग गए। शास्त्रार्थों उनके समय में जैन वाङ्मय में दर्शन का रूप तो भाने की धूम मच गयी। मुख्यतया सद्वाद-असद्वाद, शाश्वतवादलगा था, पर उसका अभी विकास नहीं हो सका था और
प्रशाश्वतवाद, अद्वैतवाद-द्वैतवाद और प्रवक्तव्यवाद
वक्तव्यवाद इन विरोधी युगलों को लेकर तत्त्व की चर्चा १ षट्खण्डागम १-१-८६। .२पंचास्तिकायगा०१५,१७।
३. त. सू. १०-५, ६, ७॥
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स्वामी समन्तभद्र को जैन दर्शन को देन
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की जाने लगी और चार कोटियो से उसका विचार होने २ तत्त्व वक्तव्य है। लगा तथा वादियों का उक्त युगलों में से किसी एक-एक ३ तत्त्व उभय (प्रवक्तव्य और वक्तव्य दोनों) है। कोटि (पक्ष) को ही मानने का प्राग्रह रहता था। इसका ४ तत्त्व अनुभय (दोनों नहीं) है। संकेत प्राचार्य समन्तभद्र ने स्वयम्भूस्तोत्र (श्लो० १०१) समन्तभद्रकी देन की निम्नकारिका से मिलता है
यद्यपि कुन्दकुन्द स्पष्ट निर्देश कर चुके थे कि तत्त्व सदेक-नित्य-वक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । निरुपण चार कोटियों से नहीं, अपितु सात वचन प्रकारों से मर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहते ॥१०१॥
होता है। पर उनका यह निर्देश तर्क का रूप न पा सकने
होता है। पर उनका यह नि: लगता है कि इस खीचतान के कारण अनिश्चयवादी से अधिक विश्रुत न हो सका। प्राचार्य समन्तभद्र ने उसे सजय के अनुयायी तत्त्व को अनिश्चित ही प्रतिपादन तर्क का भी रूप दिया और उस पर विस्तृत चिन्तन, करते थे, जिसकी एक झलक विद्यानन्द की अष्टसहस्त्री विवादोंका शमन, शमन की पद्धति और स्यावाद द्वारा सम(१० १२६) मे' प्राप्त होती है। उपर्युक्त युगलो में न्वय का मार्ग भी प्रशस्त किया और इसके लिए उन्होंने अनेक लगने वाली वादियों की वे चार कोटियाँ इस प्रकार
प्रबन्ध लिखे । इन प्रबन्धों द्वारा उन्होंने प्रतिपादन किया होती थी--
कि तत्त्व का पूर्ण कथन उपर्युक्त चार कोटियों से नहीं १ सदसद्वाद
होता, किन्तु सात' कोटियों द्वारा होता है। यथार्थ में तत्त्व' १ तत्त्व सत् है।
'वस्तु' भनेकान्त रूप है-एकान्त रूप नहीं और अनेकान्त २ तत्त्व असत् है।
विरोधी दो धर्मों (सत्-असत्, शाश्वत-प्रशाश्वत, एक३ तत्त्व उभय [सद्-असद् दोनों] है ।
अनेक आदि) के युगल के माश्रय से प्रकाश में आने वाले ४ तत्त्व अनुभय [दोनो नही] है।
वस्तुगत सात धर्मों का समुच्चय है और ऐसे-ऐसे अनन्त २ शाश्वत-प्रशाश्वतवाद
धर्म समुच्चय [अनेकान्त] विराट अनेकान्तात्मक तत्त्व१ तत्त्व शाश्वत [नित्य] है।
सागर में अनन्त लहरों की तरह लहरा रहे हैं । पौर २ तत्त्व प्रशाश्वत [क्षणिक] है ।
प्रत्येक धर्म समुच्चय सप्तक एक-एक सप्तभंगीनय से नेय३ तत्त्व उभय [शाश्वत-प्रशाश्वत दोनों] है ।
ज्ञातव्य अथवा वक्तव्य है। और इस तरह वस्तु में एक. ४ तत्त्व अनुभय [दोनो नही] है।
दो नहीं, अपितु अनन्त सात कोटियाँ [सप्तङ्गियाँ] ३ प्रत-वैतवाद
निहित है। ध्यातव्य है कि प्राचार्य समन्तभद्र ने "कहीं १ तत्व अद्वैत है।
की ईंट कहीं का रोड़ा" की भांति अनेकान्त स्वीकार नहीं २ तत्त्व द्वैत (अनेक) है।
किया, किन्तु प्रतिपक्षी दो धर्मों और उन दो धर्मों को ३ तत्त्व उभय (अद्वैत और द्वैत दोनो) है।
लेकर व्यक्त होने वाले सात धर्मों के समुच्चय को ही ४ तत्त्व अनुभय (दोनो नही) है।
अनेकान्त प्रतिपादन किया है और इस तरह वस्तु में ४ प्रवक्तव्य-वक्तव्यवाद
अनन्त अनेकान्त समाहित हैं । यही जैन दर्शन के अनेकान्त १ तत्त्व अवक्तव्य है।
और इतर दर्शनों के मनेकान्त में मौलिक अन्तर है। १. चतुष्कोटेविकल्पस्य सर्वान्तेषूक्त्ययोगतः ।
और इसी से उत्तर काल में जैन दर्शन के अनेकान्त में तत्त्वान्यत्वमवाच्यं चेत्तयोः सन्तानतद्वतोः ।। प्रा० ४५ विरोध वैयधिकरण्य प्रादि दोषों की समापत्ति की गई है। २. तीस्तीति न भणामि, नास्तीति च न भणामि, समन्तभद्र ने बतलाया कि वक्ता या ज्ञाता तत्त्व को
यदपि च भणामि तदपि न भणामीति दर्शनमस्त्विति १. सप्तभङ्गनयापेक्षो...। प्राप्तमी० १०४ कञ्चित्, सोपि पापीयान् ।'
२. तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपम्...। युक्त्य० ४६ मष्ठस० पृ० १२६, का० १४ ।
३. स्वयम्भू० १.१
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पत्रिकायें कैसे चलें ? डा० गोकुलचन्द्र जैन, प्राचार्य, एम. ए., पो-एच. डो.
स्वर्गीय पं० चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ के प्राग्रह पर कि इस प्रक में यह मामग्री देना है और उसके बाद उस जैन पत्रिकामों के विषय में मैंने एक मक्षिप्त टिप्पणी रूपरेखा के अनुमार मामग्री प्रयत्न पूर्वक जुटाता हो। लिखी थी जो जैन पत्रिकाओं के स्तर का प्रश्न' शीर्षक विशेषाको के लिए कुछ पत्रिकाए रूपरेखा बताती है । से वीरवाणी के १८ अक्तूबर १९६८ के अंक में प्रकाशित इसलिए उनमे मामग्री जुट जाती है। जो विशेषाकों के हुई थी। प० चैनसुखदास जी ने इसी पर अपना सम्पा- लिए भी रूपरेखा नही बनाते उनमे नही जुट पाती। दकीय वक्तव्य भी लिखा था। अनेकान्त ने इस विषय एक बड़ी बात यह है कि एक दो को छोडकर शायद पर एक पूरा विशेपाक ही निकालने की बात सोची है, ही कोर्ट जैन पत्र लेखक को पारिश्रमिक देताही पारिउन बातों को ताजा सन्दर्भ के लिए यहाँ प्रस्तुत करना । श्रमिक की बात को भी छोड दिया जाए तो कम-से-कम प्रावश्यक लगता है
लेग्वक इतनी अपेक्षा तो कर ही सकता है कि उसकी पचासी जैन पत्र-पत्रिकामो की जानकारी मुझे है। रचना के कुछ अनुमद्रण उसे प्राप्त हो । कोई भी जन पत्र हो सकता है कुछ और भी हों, जिनकी सूचना मुझे नहीं । अनुमद्रण नहीं देता। बाध्य करने पर पत्रिका के पन्ने है। ये पत्र-पत्रिकाएं साप्ताहिक से लेकर वाषिक तक है। इधर एक-दो पत्रो ने भेजे है। होता यहाँ तक भी है कि कुछेक इस समय बन्द भी हो गई है।
पत्र-पत्रिकाए माल भर मे एक बार भी नहीं पाती तो जैन पत्र-पत्रिकाओं के विषय मे मुख्य रूप से दो। भी अपेक्षा यह की जानी है कि उनके लिए महत्वपूर्ण लेख प्रश्न उठाए जाते रहते हैं-(१) स्तरीय सामग्री का प्राप्त हो। मेरे पास लेग्यादि के लिए पत्र पाते है तो मैं अभाव, (२) पत्रिकामो की प्रार्थिक स्थिति । ये दोनों ही प्रयत्न करके भरमक लेख भेज देता हूँ। मुझे आश्चर्य बाते तथ्यपूर्ण है। दो-चार पत्रिकाओं के अतिरिक्त प्रायः होता है कि जिन पत्र-पत्रिकाग्री का वार्षिक शुल्क पाँचसभी की सामग्री स्तरीय नही होती। इसी प्रकार शायद छह रुपये है वे भी नियमित पत्रिका तो नहीं भेजते पर ही एकाध पत्र हो जो अपनो ग्राहक संख्या तथा विज्ञापन पत्र लिखते है कि उन्हे महत्वपूर्ण अप्रकाशित लेख भेज प्रादि के माधार पर प्राथिक रूप से प्रात्मनिर्भर हो। दिया जाए। इन दोनों बातों से प्रायः सभी सहमत होगे। घटिया मेरी समझ से इस मनःस्थिति को सर्वथा बदलना मद्रण, प्रकाशन की अनियमितता आदि भी अधिकाश
होगा। प्रत्येक पत्र यह नियम कर ले कि वह हर अंक मे पत्रों के साथ सम्बद्ध है। ये सर्वविदित तथ्य हैं. इसलिए
कम-मे-कम एक विशिष्ट लेख अवश्य देगा; और प्रयत्न इनके विषय में और अधिक कहना या कटु शब्दो म करके उसे प्राप्त करे। यदि उसके लिए पारिश्रमिक देना पालोचना करना उचित नहीं है। न उससे स्थिति सुधर
पड़ता है तो अवश्य दे। पत्रिका के जो अन्य व्यय है,
र सकती है। इन पर विधायक ढंग से सोचा जाना चाहिए।
उन्ही में इसे भी शामिल करना चाहिए । कम-से-कम १५ स्तरीय सामग्री के प्रश्न के साथ कई बाते जुडी है । अनुमद्रण देने का भी नियम बना लेना चाहिए। इसका अधिकांश पत्रो के सम्पादक सम्पादन कला के विशेषज्ञ प्रासान तरीका यह है कि जितने अनुमुद्रण निकालने है नही हैं। सामग्री सकलन के लिए भी पर्याप्त प्रयत्न नही उतने फार्म एक मोर छाप लिए जाए। यह साधारण किये जाते । शायद ही कोई पत्र यह रूपरेखा बनाता हो विवेक की बात है कि जिस लेखक से हम लेखादि प्राप्त
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पत्रिकायें कैसे चले?
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करते है या प्राप्त करना चाहते है उसे नियमित पत्रिका पाम ही पहुँचेगा और न तो उसे पारिश्रमिक ही मिलेगा भेजते रहे। मेरी समझ मे यदि वर्ष में एक भी लेख और न ही अनुमद्रण, तो ऐसी स्थिति मे भला कौन उसने दे दिया तो उस पत्रिका का वार्षिक शल्क पूरा हो व्यक्ति होगा जो अपनी बहुत महत्व की सामग्री उस गया समझना चाहिए। इन बातो का ध्यान रखा गया पत्रिका के लिए भेजना चाह । होता यह भी है कि उन तो कोई कारण नही है कि पत्रिकामो को स्तरीय सामग्री लेखो का सही-सही मुद्रण भी नही हो पाता। न मिले । शुद्ध और सुन्दर मुद्रण का दायित्व पत्रिका के
बाते और भी बहुत सी हो सकती है किन्तु उन सम्पादक और मुद्र को का एक अनिवार्य कर्तव्य है।
सबकी चर्चा करने से अधिक महत्व की बात यह है कि शोध पत्रिकाएं और उनकी कठिनाइयाँ
उनके समाधान के विषय मे विचार किया जाए। अनेऊपर मैंने मामान्यत: मभी पत्रिकाप्रो के सम्बन्ध में कान्त की सचालन सस्था को मैने कुछ सुझाव दिये थे कहा है। शोध पत्रिकाग्री के विषय में कुछ बाते और भी जिसमे एक यह भी था कि इसम हिन्दी पोर अग्रेजी दोनो ध्यान देने की है। जो पत्रिकाए शोध के नाम पर निकल
भाषामो में लिखी गई सामग्री को प्रकाशित किया जाए, रही है उनमे खोजपूर्ण सामग्री कितनी रहती है, यह भी
इमसे निश्चय ही इसका क्षेत्र विस्तृत हो जाएगा और विचारणीय है । उनका मद्रण स्तर, सम्पादन पद्धति तथा सामग्री भी स्तरीय तथा पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होने भापा के आधार पर उनके क्षेत्र की व्यापकता बनती है। लगगा। यह अवश्य है कि ऐसा करने पर सम्पादकीय अभी जितनी भी जन पत्र-पत्रिकाए इस प्रकार की प्रका• तथा व्यवस्थापकीय दायित्व निश्चित रूप से कुछ अधिक शित होती है उनम सम्भवतया इनमे से वास्तविक अनु
बढ़ जाएगा। मेरा स्पष्ट अभिमत है कि शीध पत्रिकामों सन्धान से सम्बन्धित मामग्री कितनी है और पहन का। के न चल पाने का सबसे बड़ा कारण उसके प्रसार के अनमन्धित सामग्री का पुनराकलन कितना है यह दखना क्षेत्र की गकीणता ही है। भारत तथा विदेशो में जितने बहुत आवश्यक है। जो लेखक के साथ-साथ सम्पादक विश्वविद्यालय और शाध सस्थाए इस समय चल रही है का भी दायित्व है किन्तु मचाई यह है कि ये सारी पत्रि- उनम से दशाश से भी किसी भी जैन पत्रिकाम्रो ने काए सामग्री के लिए भी अतिशय दरिद्र रहती है इसलिए माधा हो । यदि उन सबस सम्पर्क किया जाए तो म के उन्हे जो जैसी सामग्री मिल जाती है उसे उसी रूप में
विश्वास है कि ग्राहक सख्या भी इतनी हो सकती है कि
पत्रिका का सचालन सम्भव हो सके। यह होने पर जव छाप देते है। सामग्री प्राप्त होने के कारण लगमग वही
लेखको को यह प्रतीति होगी कि अमुक पत्रिका में प्रकाहै जो पहले बनाये गये है। पत्रिकाओं पर बड़े-बड़े नाम
शित होने पर उसके शोध कार्य का पर्याप्त प्रसार मिलेगा घारी लोगो के नाम सम्पादक मण्डल या सम्पादको मे
तो लेखक भी प्रयत्न पूर्वक उस पत्रिका के लिए अपनी जाते है किन्तु वे अपना कितना योगदान उस पत्रिका
सर्वाधिक महत्व को सामग्री भेजना चाहेगे। वास्तविक को देते है इसके लिए वे स्वयं प्रमाण है।
अनुसन्धाना के लिए यह बात सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि हिन्दी मे कुछ पत्रिकाएं केवल सम्पादकीय लेखो के
उसकी शोध उपलब्धियाँ कम-से-कम उन लोगों तक लिए पढ़ी जाती रही हैं। क्या इह स्थिति शोध पत्रिकामो
पहुँच जाए जो उस विषय के विद्वान है या उस विषय में की नही हो सकती।
मचि रखते है। सम्पादन, मुद्रण तथा व्यवस्था सम्बन्धी पत्रिकामों के क्षेत्र की व्यापकता का प्रश्न बहुत ही दायित्व पत्रिका के संचालको का है। यदि इन बानो की महत्वपूर्ण है इसी पर अन्य कई बातें निर्भर करती है। और ध्यान दिया जाए तो निश्चय ही यह सोचने की कोई भी लेखक जो यह जानता है कि अमुक पत्रिका में प्रावश्यकता नहीं पड़ेगी कि पत्रिका चलाई जाए या बन्द उसका लेख प्रकाशित होने पर कुछ सीमित लोगो के कर दी जाए।
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अनेकान्त पत्र का गौरव
पं० जयन्तीप्रसाद शास्त्री
भारत के शोध-खोज पूर्ण पत्रों में 'अनेकान्त' का स्थान इमको पुनः पुन. प्रकाशित करने में समाज के धनी-मानी सर्वोच्च रहा है। इस पत्र ने जैन माहित्य और सस्कृति और विद्वन् समाज का योगदान चाहा और चालू किया। की अभूत पूर्व सेवा की है; परन्तु इस बात में विद्वत्समाज इस पत्र के अव नक लगभग १६०० मोलह सौ उच्च.
कार नहीं कर सकता कि इस पत्र ने अनेक जैन-जैनतर कोटि के गोध-बोज पूर्ण लेखों का प्रकाशन किया है। . विद्वानों का मार्ग दर्शन किया है उनकी भ्रान्तियो को दूर मस्कृत-प्राकृत-अपभ्रश और हिन्दी के २०० दो सौ ग्रथो किया है उन्हे सन्मार्ग दिखाकर जैन साहित्य के गोरव का अनुसन्धान कर उनका परिचय प्रदान किया और पर्ण ग्रथ और ग्रन्थकारी की ओर उनका ध्यान प्राकृष्ट अनेक ग्रंथभण्डारों की अहनिय लगन के साथ देखभाल किया है। उन्हे इस सत्यता के लिए विवश किया है कि कर लुप्तप्राय सामग्री को जीवन प्रदान किया है । ऐनिजैन साहित्य के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। हामिक अनेक बातों का उद्घाटन कर उलझी गुत्थियों को उन्हे इस बात के लिए ललकारा है कि यदि तुमने जैन मुलझाया है। साहित्य के योगदान को भुलाकर लिखा तो एक दिन धवल, जयध दल और महाववल जैसे प्राचीन ग्रथो की जागरूक साहित्य जगत् तुम्हे क्षमा नही करेगा । तुम्हारे ताडपत्रीय प्रतियो के फाटी आदि लेकर जनसाधारण के द्वेष और मनोमालिन्य अथवा ज्ञान को अधूरा मानकर लिए उनके दर्शन को मूलभ बनाया है। तुम्हे धिक्कारेगा । मुझे मालूम है कि कई जनतर विद्वान
कई विवादस्थ ग्रथ और प्रथकारो की भ्रान्तियों को जैन साहित्य की जानकारी के लिए इस पत्र के सम्पादको दूर किया और सोलह प्रथो की खोजपूर्ण प्रस्तावनायो को के पास आये हैं और उन्होने अपनी-अपनी शोघ-खोज लिखा तथा कई ग्रन्थो का हिन्दी अनुवाद भी किया । पूर्ण रचनामो मे इसका यथास्थान उल्लेख किया है और इत्यादि अनेक महत्वपूर्ण कार्य अपने ध्येय के अनुरूप कई विद्वान ऐसे भी देखे है और उनकी रचनाओं को पढा ही बड़ी निष्ठा के साथ सम्पन्न किये और कर रहा है । है जिन्होंने इसके लेखो के आधार से अपनी उपाधिया स्व. पज्य जगलकिशोरजी म प्राप्त की है। परन्तु इसके नामोल्लेख न करने की भयकर स्तम्भ अथवा मानस्तम्भ आज भी श्री पंडित रत्न परमाभूल की है। फिर भी इस पत्र का और इसके सम्पादको का नन्द जी शास्त्री ग्रादि विद्वानो की पनी मूक्ष्म लेखनी से दृष्टिकोण सदा उदार ही रहा है।
ममाज और विद्वानों का मार्गदर्शन कर रहा है। यह ऐसे मार्ग दर्शक, निर्भीक पत्र को आज चालीस वर्ष बड़े ही गौरव का विषय है। समय समय पर अनेक हो चुके है परन्तु बीच-बीच मे अर्थाभाव के कारण कई विद्वानो के लेखो का सहयोग यह सिद्ध करता है कि श्री बार इसका प्रकाशन बन्द करना पडा । इसका अर्थ यह स्व. मुख्तार सा. आज भी जीवित हैं और इसके लेखक नही लगाया जा सकता कि इसकी लोकप्रियता कम है। विद्वान् श्रद्धा सहित इस कीर्तिस्तन्भ को सदा ही दैदीप्यबल्कि यह मानना पडेगा कि इस मे शुद्ध इतिहास, सिद्धान्त मान बनाने पर दृढ प्रतिज्ञ से मालूम होते है अथवा वे प्रादि लेख ही प्रकाशित होते है जिसके कारण इसके श्री मुख्तार सा. के प्रति अपनी कृतज्ञता भरी श्रद्धा इन पाठक और पारखी अत्यल्प है। समय-समय पर इसकी लेखों के मध्यम से प्रकट करते रहते हैं। भावश्यकता को ध्यान में रखकर ही स्व. मुख्तार सा. ने
[शेष पृष्ठ १८६ पर]
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अनेकान्त और उसकी सेवाएँ
डा. दरबारीलाल कोठिया
प्राज से चालीस वर्ष पूर्व सन् १९२९ की २१ अप्रैल उस पत्र के द्वारा भाप अपने पाश्रम के उद्देश्यों को पूरा की बात है। स्वर्गीय पण्डित जुगलकिशोर जी मुख्तार कर सके और ऐसे सच्चे सेवक उत्पन्न करें जो वीर के 'युगवीर' ने इसी दिन महावीर-जयन्ती पर समाज और उपासक, वीर गुणविशिष्ट और लोक सेवार्थ दीक्षित हों साहित्य के उत्थान एवं लोकहित की साधना के लिए तथा महावीर स्वामी और जैन प्राचार्यों के सत् उपदेशों दिल्ली मे एक 'वीर सेवक सघ' स्थापित किया था। तीन का ज्ञान प्राप्त कर धर्म में दृढ़, सदाचारवान्, देशभक्त तीन महीने के बाद इस संघ ने अपनी प्रवृत्तियो को चरि- हो।" तार्थ करने के लिए २१ जुलाई १९२६ को "समन्तभद्रा- उपर्य क्त परिकल्पना को श्रद्धेय मुख्तार साहब ने श्रम" की स्थापना करके समाज और साहित्य सेवा का 'अनेकान्त' पत्र के द्वारा बहुत कुछ साकार मूतरूप दिया। सकल्प किया था। आश्रम की स्थापना का उद्देश्य और यह हमें उनके सम्पादन-काल की 'अनेकान्त' की फाइलो उसके द्वारा किए जाने वाले कार्यों का निर्देश 'अनेकान्त' से स्पष्ट ज्ञात होता है। उस प्रधेरे युग में, जब समाज म वर्ष १, किरण १, पृष्ट ५३ पर किया गया है। इन कार्यों न अपने धर्म के बारे में जानकारी थी, न तीर्थंकरो प्रार में "अनेकान्त" मासिक का प्रकाशन भी सम्मिलित है, प्राचार्यों के विषय मे विषय मे और न साहित्य के सबन्ध जिसके द्वारा समाज मे नवजागरण एव नवचेतना पैदा में. 'अनेकान्त' ने इन सबकी जानकारी दी। पोर तो करने के अतिरिक्त लुप्त प्राय जैन ग्रथो की खोज, जैना- क्या जैन दर्शन का प्रसिद्ध और व्यापक सिद्धान्त 'अनेचार्यों और जैन तीर्थकरों का परिचय एवं इतिहास, जैन कान्त' भी भल चुके थे। 'अनेकान्त' का प्रकाशन प्रारम्भ पुरातत्त्व और जैन कला का दिग्दर्शन, जैनधर्म तथा जैन करते हए मुख्तार साहब ने । सम्पादकीय मे इसका कुछ दर्शन के स्याद्वाद, अनेकान्त, अहिंसा प्रादि सिद्धान्तों का चित्र खीचते हए लिखा है कि 'खेद है, जैनियो ने अपने प्रचार-प्रसार जैसे महत्त्व के कार्यों के करने की परि- इस प्राराध्य देवता 'अनेकान्त' को बिल्कुल भुला दिया ह कल्पना की गयी थी। इस परिकल्पना का समाज के और वे अाज एकान्त के अनन्य उपासक बने हुए है। उसा नेतामों और विद्वानो ने तो स्वागत किया ही था। देश का परिणाम है उनका सर्वतोमुग्वी पतन, जिसन सा के अनेक नेताओं ने भी उसकी सराहना की थी। राष्ट्र- मारी विशेपतानों पर पानी फेर कर उन्हें ससार का दृष्टि नेता और काशी हिन्दू विश्व विद्यालय के संस्थापक महा- मे नगण्य बना दिया है । प्रस्तु, जंनियों को फिर स अनन् मना प० मदनमोहन मालवीय का हम यहाँ वह सदेश- कान्त की प्राण प्रतिष्ठा कराने और ससार को अनेकान्त पत्र 'अनेकान्त से उद्धत कर रहे है जिसमे उन्होने प्राश्रम की उपयोगिता बतलाने के लिए ही यह पत्र 'अनकान्त और मासिक पत्र निकालने के प्रति अपनी हार्दिक सहानु- नाम से निकाला जा रहा है।' भूति प्रकट की है :
___ वस्तुतः 'अनेकान्त' ने द्वादशांग श्रु त क्या हैं ? उसके "आपके आश्रम के उद्देश्य ऊँचे है और उनके साथ
कर्ता कौन हैं ? महावीर स्वामी कब हुए और उन्होंने
ही मेरी सहानुभूति है। आपका एक मासिक पत्र निकालने
क्या उपदेश दिया था? उनके बाद कितने केवली और का विचार भी सराहनीय है। मै हृदय से चाहता हूँ कि
श्रुतकेवली हुए और वे कौन से हैं ! गुणधर, घरसेन, १. वर्ष १, किरण १, पृ० ४२
कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पूज्यपाद, प्रकलक पात्रकेशरी, विद्या.
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१८६ वर्ष २२ कि० ३-४
अनेकान्त
नन्द, नेमिचन्द्र प्रादि प्राचार्यों का समय क्या है और जानता है कि श्रद्धेय मुख्तार साहब, मुझे और प. उन्होने कौन-कौन से ग्रंथ बनाए ? इन सभी बातों का परमानन्दजी शास्त्री को अनेकान्त की सामग्री को जुटाने सप्रमाण प्रकाशन किया । जिन ग्रथों का दूसरे प्राचार्यों में कितनी शक्ति और ममय लगाना पड़ता था। किसीके ग्रथों मे उल्लेख है पर उपलब्ध नही है उनकी खोज किसी अडु की तैयारी मे तो हम तीनो का पूग ही समय का प्रयास भी अनेकान्त ने किया है । जैन धर्म की अहिंसा लग जाता था, मन्दिर के अन्य कार्य गौण हो जाते थे। का स्वरूप क्या है ? अनेकान्त स्याद्वाद और सप्तभगी लेकिन यह सत्य है कि सारी सामग्री शोध और खोजपूर्ण मे पारस्परिक क्या सम्बन्ध है और वे क्या है ? जैसे होती थी। जनवरी १९४८ से फरवरी ५० तक लगभग सैद्धान्तिक विषयों पर भी अनेकान्त, मे प्रकाश डाला दो वर्ष अनेकान्त' का सहसम्पादन हमने भी किया था। गया है। कहने का तात्पर्य यह कि 'जन हितैषी' ने जिस अतः इस अनुभव के आधार से यह कह सकते है कि शोधखोज का श्रीगणेश किया था, अनेकान्त ने उसे 'अनेकान्त' विद्वत्प्रिय और विद्रोग्य पत्र रहा है। यह पूर्णरूप दिया नये-नये लेखकों और विचारको को जन्म प्रसन्नता की बात है कि वह ग्राज भी अपनी मयांदा को दिया।
बनाए हुए है। __ यद्यपि जिस प्रकान्त' मासिक का चालीस वर्ष
अन्त मे अनेकान्त के वर्तमान सचालकों मे हमारा पहले उदय हुआ उसे उत्थान और पतन की अनेक अव-
का अनक अव- अनुरोध है कि जिन कार्यों को 'अनेकान्त' ने अपने जन्म
जो
काल के समय करने का सकल्प किया था उनमे से निम्नहै और बौद्धिक सामग्री दे रहा है। यदि वह लगातार कार्य अवश्य किए जाना चाहिए :... चाल रहता तो उसकी चालीस वर्षों की चालीस फाइलें १. लुप्त-प्राय जनग्रोंकी खोज, २. पूर्ण जैन होती। किन्तु उसकी बाइम ही फाइले हो सकी है। ग्रंथावली का सकलन, ३. जैन मूर्तियो के लेख मग्रह तात्पर्य यह कि वह प्राज बाईसवे वर्ष मे चल रहा है। क्षेत्रों और भारतवर्ष के समन्त जैन मन्दिरो की मूर्तियों इस बीच मे उसे आथिक कठिनाइयों आदि के कारण बन्द के सम्पूर्ण जैन लेखो का संग्रह), ४. जन ताम्रपत्र, चित्र होना पडा । यहाँ तक कि वह अब द्वैमासिक के रूप मे और सिक्को का सग्रह, ५. जैन मन्दिरावली (मूर्ति सकई वर्ष से निकल रहा है। सन्तोष यही है कि वह स्थादि-सहित-अर्थात् सब जगह के जैन मन्दिरो की पूरी बाधामो से जूझता हुमा भी अपना अस्तित्व ही बनाए सूची, ६. त्रिपिटिक प्रादि प्राचीन बौद्ध ग्रथो पर से जैन हए नहीं है अपितु महत्त्वपूर्ण सामग्री भी प्रस्तुत कर रहा इतिवृत्त जैन सम्बन्धी अनुकूल या प्रतिकूल सभी वृतान्त)
का संग्रह, ७. प्राचीन हिन्दू ग्रन्थो पर से जैन इतिवृत्त का २४ अप्रैल १९४२ से ५ मार्च १९५० तक वीर सेवा सग्रह प्रादि वे सब कार्य, जो अनेकान्त वर्ष १, किरण ६, मन्दिर और अनेकान्त से मेरा खास सम्बन्ध रहा है। मैं ७, १० ४१५-४१६ पर दिए गए है। .
[पृष्ठ १८४ का शेषास] वीर-सेवा-मन्दिर एक प्रसिद्ध शोघ सस्था है। जिसने और देश की प्रगति की प्रतीक होती है। जैन संस्कृत के लिए बड़ा योगदान दिया है। उसके द्वारा दिगम्बर समाज का सौभाग्य है कि उसमे ऐसा प्रकाशित साहित्य महत्वपूर्ण और ठोस है।
खोजपूर्ण पत्र प्रकाशित होता है, समाज को और विद्वानों वीर सेवा मन्दिर द्वारा किये गये कार्यों की कुछ को इसे अपनाना चाहिये तथा उसको ग्राहक संख्या में झलक इस इतिहास साहित्य प्रक से लग जावेगी। मै वृद्धि होना चाहिए। समाजके धनीमानी व्यक्तियो को ऐसे सस्था के इस प्रतिष्ठित पत्र की हृदय से शुभ कामना महत्त्वपूर्ण पत्रको प्रार्थिक सहयोग प्रदान करना जन सस्कृति करता है कि यह पत्र सदा विद्वानों का सन्मार्ग दर्शक बना की सेवा करना है। प्राशा है समाज इसे अवश्य सहयोग रहे, क्योकि विद्वानो की सूक्ष्म दृष्टि पूर्ण लेखनी ही समाज प्रदान करेगी, जिससे वह मासिक रूपमे प्रकाशित हो सके।
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जैनविद्या का अध्ययन-अनुशीलन : प्रगति के पथ पर
एम. ए., शास्त्री
प्रो० प्रेम
सुमन
जैन
जैन विद्या का श्रव्ययन-अनुशीलन पिछने पचास वर्षों मे काफी धागे बढा है। प्राचीन परम्परा के जैन विद्वानो ने एक ओर जहाँ जैन विद्या के ग्रन्थों को प्रकाश में लाने, उनका मूल रूप मे अध्ययन करने-कराने तथा अन्य अनेक प्राचीन संस्कारों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया है, वहां उन्होंने जाने-अनजाने एक ऐसी पीढ़ी का भी निर्माण किया है, जिसने जैन विद्या के श्रध्ययन एवं पठन-पाठन को अनुमधानिक रूप प्रदान किया है। यह सन्तोष का विषय है कि अब जैन विद्या का अध्ययन परम्परागत एवं अधुनातन दोनो पद्धतियों से गतिशील हो रहा है। संगोष्ठी सेमिनार -शिविर
जैनविद्या के अध्ययन अनुसन्धान के क्षेत्र मे इधर कुछ समय से न केवल जैन अपितु जैनेतर विद्वान भी अध्ययन-रत हुए हैं। उनके इस रुझाण एवं लगन से स्पष्ट है कि भारतीय प्राचीन एवं सांस्कृतिक उपादानो के सम्पूर्ण अध्ययन के लिए जैन वाड्मय एव संस्कृति के अध्ययन की अनिवार्यता स्वीकार कर ली गई है । की जा रही है। इस सम्बन्ध मे व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनो प्रकार के अध्ययन प्रस्तुत किये गये है । यथा
मई १९६० मे विश्वविद्यालय अनुदान प्रायोग द्वारा शिवाजी विश्वविद्यालय कोल्हापुर मे एक त्रिदिवसीय 'प्राकृत- सेमिनार' का प्रायोजन हुआ। इसमें जैन विद्या के लगभग ४० अध्येता सम्मिलित हुए, जिन्होंने प्राकृत भाषा एवं साहित्य के अध्ययन-अनुसन्धान एवं प्रचार-प्रसार के कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए ।
अक्टूबर १६६८ में अ० भा० प्राच्य विद्या सम्मेलन के अवसर पर भारतीय ज्ञानपीठ के तत्वावधान मे वराणसी में 'जैन साहित्य संगोष्ठी का आयोजन किया गया। लगभग ५० विद्वान इसमे सम्मिलित हुए। जिन्होने जंन विद्या के अध्ययन अनुशीलन आदि से सम्बन्धित विविध
पक्षो पर सामूहिक रूप से विचार-विमर्श किया। अध्ययन में जुट जाने की शक्ति का सम्बर्द्धन किया ।
,
सगोष्ठी के उपरान्त सागर मे वर्णी स्नातक परिषद् के तत्वावधान मे १ जून तक 'स्नातक शिविर' का प्रायोजन किया गया। इसमें विभिन्न विश्वविद्यालयो तथा शिक्षा संस्थाप्रो से सम्बद्ध स्नातक शामिल हुए, जिनमें जैन साहित्य दर्शन, इतिहास, प्राचीन भारतीय संस्कृति, पुरातत्व, कला, भाषाविज्ञान एवं गणित के विशेषज्ञ तथा अनुसन्धित्सु थे। शिविर काल में शोध कार्य मे सलग्न स्नानको ने अपने कार्य को प्रागे बढाया एवं अग्रिम अध्ययन की योजना बनाई। उन्होंने भारत तथा विदेशों में मानविकी और विज्ञान से सम्बन्धित जैन विद्यार्थी के अध्ययन अनुसन्धान में सक्रिय रूप से इन विद्वानों, शोधा
एव गस्याओं में परस्परिक सम्पर्क, सहयोग एवं शोध प्रवृत्तियों को गति देने के उदय से 'जैनालाजीकल रिसर्च सोसाइटी' की स्थापना का भी निर्णय लिया ।
शिविर के तुरन्त बाद २३ जून से २७ जून ६९ तक पूना विश्वविद्यालय के संस्कृत प्रगति श्रध्ययन केन्द्र मे 'प्राकृत- सेमिनार' का आयोजन हुआ। इसमें लगभग ४० विद्वान सम्मिलित हुए प्राकृत भाषा और साहित्य विष यक ३० निबन्ध पाठ तथा दो विशिष्ट भाषण हुए। यह सेमिनार कोल्हापुर में प्रायोजित प्राकृत सेमिनार का अगला चरण था ।
इस प्रकार इन सेमिनार, सगोष्टी पोर शिविर के पायोजनो ने जनविद्याओं के अध्येताओं को एक ऐसा अवसर दिया कि वे एक साथ मिल-बैठकर जैनविद्या के अध्ययन-अनुशीलन की प्रगति के सम्बन्ध में सक्रिय हो सके। उनकी पारस्प रिक प्रदेशगत, भाषागत पादि अनेक दूरियाँ इन सम्मे लनो से दूर हो गयी। यह एकरूपता निश्चित ही जैनविद्या के प्रचार-प्रसार के लिए शुभ संकेत है।
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१५८ वर्ष २२ कि. ३-४
अनेकान्त
ज्ञानपीठ-पत्रिका
विद्या के अध्ययन-अनुसन्धान में जैनेतर विद्वान उत्साहजैनविद्या के अध्ययन-अनुशीलन की प्रगति में अने- पूर्वक कार्य करने लगे तो जैन विद्वानों का ध्यान भी इस कान्त, श्रमण आदि जैन पत्र-पत्रिकाओं का सहयोग भी ओर गया। वे भी अनुसन्धान कार्य में रुचि लेने लगे। काफी रखा है। इधर ज्ञानपीठ-पत्रिका के दो विशेषांकों विगत चार-पाच वर्षों से 'प्राकृत एव जैनिज्म' विभाग में ने इस क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है । ज्ञानपीठ-पत्रिका सम्मिलित होने वाले विद्वानों की संख्या बढ़ गयी। सम्मेका प्रथम विशेषांक प्र० भा० प्राच्य विद्या सम्मेलन लन के अलीगढ अधिवेशन मे इस विभाग मे लगभग २० वाराणसी अधिवेशन के अवसर पर गत वर्ष 'जैन-साहित्य विद्वान सम्मिलित हुए। बनारस अधिवेशन मे ३० निबन्ध संगोष्ठी स्मारिका' के रूप में प्रस्तुत किया गया था। पढे गए । और इस वर्ष यादवपुर विश्व विद्यालल कलइसमे जन विद्याभों के अध्ययन-अनुसन्धान आदि से सम्ब- कत्ता में प्रायोजित प्रधिवेशन मे इस विभाग के निमित्त धित महत्वपूर्ण एव दुर्लभ सामग्री दी गई है। द्वितीय लगभग पचास विद्वान उपस्थित हुए। जनविद्या के अध्यविशेषाक उक्त सम्मेलन के कलकत्ता अधिवेशन के अव- यन-अनुसन्धान के क्षेत्र में इस प्रकार का उत्साह निश्चित सर पर इस वर्ष प्रकाशित किया गया है। इसमे भारतीय ही हर्ष का विषय है। विद्या की उपेक्षित शाखाओं--विशेषकर जैन वाङमय सम्मिलित विद्वान :
और संस्कृति से सम्बन्धित शोध-कार्य की प्राधारभत अ०भा० प्राच्य विद्या सम्मेलन कलकत्ता मे प्रायोसामग्री प्रस्तुत की गई है। जैन वाङमय के अध्ययन
जित अधिवेशन में सम्मिलित विद्वानों मे कतिपय इस
प्रकार है :अध्यापन से लेकर प्राचीन साहित्य के प्राधुनिक प्रस्तुति
डा० प्रा० ने० उपाध्ये, कोल्हापुर, डा० एच० सी० करण तक की चर्चा इसके निबन्धों मे है। भारतीय विश्व
श्व भयाणी, अहमदाबाद, डा. उमाकान्त शाह, बडोदा, पं० विद्यालयों में जैनविद्या के अध्यापन की व्यवस्था के अब के. भुजबली शास्त्री, धारवाड़, ५० दलसुख मालवणिया, तक के स्वरूप को यह विशेषाक उजागर करता है। इस प्रसटाबाट रानमिनट टास्त्री प्राश टा. पी. m. प्रकार की बहुमूल्य सामग्री के संकलन एवं प्रकाशन के
उपाध्ये, बम्बई, डा० गुलाबचन्द्र चौधरी, नालन्दा, डा. लिए भारतीय ज्ञानपीठ के संचालक, श्री लक्ष्मीचन्द जैन
कृष्णचन्द्र प्राचार्य, भुवनेश्वर, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, कलडा. गोकुलचन्द जैन के प्रयत्न सराहनीय हैं। जैन विद्या
कत्ता, डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर, डा. हरीन्द्र के अध्ययन-अनुशीलन की प्रगति के लिए ज्ञानपीठ पत्रिका
भूषण जैन, उज्जैन, प्रो० वी० के० खडबडी, धारवाड, का प्रति वर्ष एक विशेषाक प्रस्तुत होता रहेगा, ऐसी
डा० रत्ना श्रीषन्, बैंगलोर, प्रो० एम० एस० रणदिवे, आशा है।
सतारा, श्रमती रणदिवे, सतारा, डा. राजाराम जैन, प्राकृत एवं जैनिज्म विभाग :
पारा, डा० नरेन्द्र भानावत, जयपुर, श्रीमती शान्ता जैन वाङमय और सस्कृति के अध्ययन-अनुसन्धान भानावत, डा० गोकुलचन्द्र जैन, बनारस, डा० देवेन्द्र कुमार को गति देने में अ. भा. प्राच्य विद्या सम्मेलन पूना ने जैन, इन्दौर, डा० के० प्रार० चन्द्रा, अहमदाबाद, डा. भी महत्वपूर्ण योगदान किया है। प्रारम्भ मे इस सम्मेलन भागचन्द्र जैन, नागपूर, श्रीमती पुप्पा जैन, नागपूर, प्रो. मे जैन विद्या का कोई विभाग नहीं था। श्री डा० प्रेमसुमन जैन, बीकानेर, प्रो. रामप्रकाश पोद्दार, वैशाली, प्रा० ने० उपाध्ये अकेले जैन विद्वान थे, जो इस सम्मेलन डा० परममित्र शास्त्री, राची, प्रो० बी० मोहरिल, नागके अधिवेशनो में सम्मिलित होते थे। उनके निरन्तर पुर, श्री चन्द्रभाल द्विवेदी, बनारस, डा० अजित सुखदेव प्रयन्नो के फलस्वरूप में इस सम्मेलन में 'प्राकृत एव बनारस, डा० दरवारी लाल कोठिया, वनारस, श्री ए. जैनिज्म' नामक विभाग को सम्मिलित किया गया। जे० शर्मा, श्रीकार्तिकचन्द्र शाह, श्री लालचन्द्र जैन, स्वतन्त्र विभाग बन जाने पर भी दो-चार विद्वान ही इसमे वाराणसी, श्री सन्मतकुमार जैन, वाराणसी, कु० एन० सम्मिलित हो पाते थे । किन्तु कुछ समय पहले जब जैन एन० हल्दीकर, बम्बई, कु० पी० एस० पोटनिस, बम्बई,
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जैनविद्या का अध्ययन-अनुशीलन : प्रगति के पथ पर
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श्री प्रकाशचन्द्र सिंघई, सागर, डा० पी० वी० वापट । १८ अ निगलेक्टेड फील्ड आफ इण्डियन साइकालाजी: अन्य विद्वान जो स्वीकृति के बाद भी प्रन्यान्य कारणो
जैन योग से अधिवेशन मे उपस्थित न हो सके
१६ धर्मपद और जैनधर्म : एक तुलनामूलक अध्ययन
२० जैन रहस्यवाद डा० नथमल टाटिया, वैशाली, डा. मोहनलाल मेहता, वाराणसी, डा०, हीरालाल जैन, जबलपुर, डा०
२१ जैनधर्म मे प्रात्मा का स्वरूप : एक विवेचन विमल प्रकाश जैन, जबलपुर, डा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री,
२२ जैन तर्कशास्त्र को समन्तभद्र की देन
२३ द बुद्धिष्ट एड जैन आईडिया प्राफ ए वतारमल रायपुर, डा. वीरेन्द्रकुमार जैन, गुना, प्रो० भागचन्द्र
कन्सेप्शन प्राफ लिविग वीइंग भागेन्दु, सीहोर, प्रो० लक्ष्मीचन्द्र जैन, सीहोर, प्रो०
२४ श्रीमद रायचन्द्र के दार्शनिक विचार सुमतिकुमार जैन, अलीगढ, प्रो० पूर्णचन्द्र, सागर, प.
संस्कृति : गोपीलाल अमर, सागर आदि।
२५ पाबजवेंशन पान सम सोर्सेज आफ द पुण्याश्रवकथा अधिवेशन में पठित निबन्ध !
कोश
२६ द एस्पेक्ट आफ लव एज रिभील्ड इन द अपभ्रश ___इस अधिवेशन में जैन विद्या से सम्बान्धत लगभग
बर्सेज कोटेड इन द प्राकृत ग्रामर प्राफ हेमचन्द्र ४० निबन्ध 'प्राकृत एवं जैनिज्म विभाग' तथा अन्य
२७ तीर्थङ्करत्व व बुद्धत्वप्राप्ति के निमित्तो का तुलनाविभागोके अन्तर्गत पढ़े गये। उनके विषय इस प्रकार है
त्मक अध्ययन साहित्य :
२८ जैन टेम्पल्स इन कर्नाटक १ द समराइच्चकहा एण्ड विलासवईकहा
२६ कुवलयमालाकहा में वर्णित ७२ कलाएँ २ अपभ्रश साहित्य की एक अप्रकाशित महत्वपूर्ण कृति।
३० जैनधर्म मे मूर्तिपूजा का विकास
पुण्णासवकहा ३ ब्रह्म जयसागर का सीताहरण
३१ कुवलयमालाकहा मे वर्णित चित्रकला : एक अध्ययन ४ कुवलयमालाकहा में वणित शास्त्र और शास्त्रकार
इतिहास :
३२ उद्योतन एण्ड हरिभद्रमूरि ५ द प्रमेयकण्ठिका : एन अनपब्लिश्ड संस्कृत वर्क प्रॉन
जैन लाजिक
३३ प्रानन्दपुर इन जैन केनातीकल लिटरेचर ६ द टाइटिल आफ उत्तराध्ययनमूत्र
३४ जैन साहित्य में वर्णित मगध ७ नायिकाज इन गाहासत्तसई
३५ जैन साहित्य एव सस्कृति का केन्द्र : राजस्थान ८ प्रज्ञापना और षट् खण्डागम
जैनालॉजीकल रिसर्च सोसायटी: ६ साहित्य-मीमासा : प्राकृत टेक्स्ट रिस्टोरड
अ. भा० प्राच्य विद्या सम्मेलन के इस कलकत्ता १० अपभ्रश का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ : सिरीपालचरिउ अधिवेशन में दिनाक ३० अक्तूबर ६६ को सायकाल भाषा-विज्ञान
V"जैनालॉजीकल रिसर्च सोसायटी' का श्रीमान् प० दल११ द अपभ्रश पेसेज फाम अभिनवगुप्ताज तन्त्रसार एण्ड
मुख मालवणिया के सारगर्भित अभिभाषण द्वारा उद्घाटन प्राविश्किावृत्ति
सम्पन्न हुा । डा० प्रा० ने० उपाध्ये, डा० गोकुलचन्द्र १२ प्राकृत फेमिनाइन फार्मस एन्डिग इन या
जैन एव प्रो० एम० वाई० बंद्या ने अपने भाषणो द्वारा १३ प्रोनोमेटो पोइटिक वर्डस् इन प्राकृत
इस सोसायटी के उद्देश्य एव कार्यों पर प्रकाश डाला। १४ प्राकृतिज्म इन वेदाज
जनविद्या के अध्ययन अनुशीलन को एक मुनिश्चित गति १५ मृच्छकटिक और चारूदत्त में प्राकृत का प्रयोग
प्रदान करने के लिए स्थापित इस "जैनानाजीकल रिसर्च धर्म-दर्शन: १६ द रोल ग्राफ मारेलिटी प्लेज एण्ड स्टोरीज फार द सामायटी" का सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
प्रोपेगेशन आफ रिलीजन उद्देश्य१७ द कन्सेप्ट आफ 'जीव' इन जैनिज्म
(क) भारत तथा विदेशो में मानविकी तथा विज्ञान से
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१९० वर्ष २२ कि. ३-४
अनेकान्त
सम्बन्धित जैन विद्यानों के अध्ययन-अनुसन्धान में सम्मिलित होने वाले विद्वानों से पहले सम्पर्क स्थापित सक्रिय रूप से रत और रुचि रखने वाले विद्वानों, करेगी ताकि प्राकृत एव जैनिज्म विभाग मे जाने वाले शोधाथियो और सस्थाओं में पारस्परिक सम्पर्क सह- निबन्धों के स्तर में सुधार एवं संख्या में वृद्धि हो सके। योग एव शोध प्रवृत्तियों को गति देना ।
सम्पर्क-सूत्र : (ख) जनविद्या से सम्बन्धित विभिन्न शोध-परियोजनाओं
जनालाजीकल रिसर्च सोसायटी' (J. R. S.) के को सम्पन्न करने-कराने का प्रयत्न करना।
कार्य-संचालन के लिए एक सहयोगी-समिति का भी गठन (ग) जैन विद्या से सम्बन्धित शोध-निबन्धी एवं स्वतन्त्र किया है, जो डा० गोकलचन्द्र जैन, वाराणसी एव प्रो. कृतियो के प्रकाशन आदि की समुचित व्यवस्था
लक्ष्मीचन्द्र जैन सीहोर को सहयोग प्रदान करेगी। सोसाकरना।
के सम्बन्ध में सभी प्रकार की सूचनाएं प्राप्त करने हेतु सदस्यता:
इस पते पर पत्र-व्यवहार किया जा सकता है। मानविकी तथा विज्ञान से सम्बन्धित जैन विद्यानों
डॉ. गोकुलचन्द्र जैन, के अध्ययन अनुसन्धान मे सक्रिय रूप से रत या रुचि
जनरल सेक्रेटरी जे. आर. एस. रखने वाले विद्वान, शोधार्थी, सस्थाएं एव अन्य व्यक्ति
कृष्णा निवास, गुरुबाग, इस सोसायटी के सदस्य हो सकेगे ।
वागणमी-१ (भारत) रिसर्च जनरल :
प्राच्य विद्या सम्मेलन का अग्रिम अधिवेशन : ___ 'जैनालाजिकल रिमर्च सोसायटी' विद्वानों के बीच अ०भा० प्राच्य विद्या मम्मेलन का अग्रिम अधिसम्पर्क-राहयोग स्थापित रखने के साथ-साथ हिन्दी-अंग्रेजी वेशन १६७१ अक्तबर में विक्रमविश्वविद्यालय के तत्वावमे एक शोध-पत्रिका भी प्रकाशित करेगी, जिसके प्रार- धान में उज्जैन में सम्पन्न होगा। इस अधिवेशन में प्राकृत म्भिक विशेषाक में इस प्रकार की सामग्री सकलित होगी : एव जैनिज्म विभाग के अध्यक्ष डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, (१) देश-विदेश में जैन विद्या सम्बन्धी अध्ययन अनुसन्धान प्रारा चने गये है। ऐसी प्राशा है, इस अधिवेशन में जन___ के कार्यों का विवरण ।
विद्या के प्रध्ययन-अनुशीलन में रत अनेक विद्वान सम्मि(२) जैन विद्या के अध्ययन-अनुसन्धान के लिए देश- लित होगे। शोध-निबन्धो की संख्या भी गत अधिवेशनो
विदेश में उपलब्ध सुविधा-माधनो का विवरण। से काफी बढेगी। उनका स्तर भी सुधरंगा । (३) जैन विद्या के अनुसन्धान एवं प्रकाशन मे सलग्न प्रशिक्षण की आवश्यकता : __ संस्थानो का परिचय ।
विगत ५-६ वर्षों से अ० भा० प्राच्य विद्या सम्मेलन (४) पी० एच० डी० एवं डी. लिट् उपाधि के निमित्त के अधिवेशनो में सम्मिलित होते रहने से एक बात यह स्वीकृत शोध-प्रबन्धों के सक्षिप्त-सार ।
स्पष्ट हुई है कि यद्यपि प्राकृत एव जैनिज्म विभाग में (५) जनविद्या की किसी भी भाषा मे प्रकाशित पुस्तको निवन्धो की संख्या में वृद्धि हुई है, किन्तु उनके स्तर में एव निबन्धों की समीक्षा ।
कोई वृद्धि दृष्टिगोचर नहीं हुई। अन्य विषयों के विद्वान (६) जैन विद्या के अध्ययन-अनुसन्धान के सम्बन्ध में तो समय-समय पर अन्य छोटे सम्मेलनो, सेमिनारो आदि अनेक दुर्लभ महत्वपूर्ण सूचनाएँ ।
मे सम्मिलित होते रहते है। निबन्ध पढ़ते रहते है। (७) जैन विद्या के अनुसन्धान कार्य के लिए कुछ चुने अतः उनका स्तर भी मुघर जाता है । किन्तु जैनविद्या के हुए महत्वपूर्ण विषय ।
अध्येतायो को ऐसे कम ही अवसर प्राप्त होते है। प्राचीन 'जनालाजीकल रिसर्च सोसायटी' का अगला अधि- परम्परा के विद्वानो को तो और भी कम । अत. यह वेशन प्र. भा. प्राच्य विद्या सम्मेलन के २६वे अधिवेशन बहत प्रावश्यक है कि निवन्ध लेखन मे पालोचनात्मक के अवसर पर उज्जैन मे होगा। सोसायटी अधिवेशन मे वकाल-विभाजन की दृष्टि को ध्यान में रखा जाय
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जनविद्या का अध्ययन अनुशीलन : प्रगति के पथ पर
'जैनालाजिकल रिसर्च सोसायटी' ने इस प्रकार के निर्देशन के कार्य को करने की घोषणा की है । व्यवहार में श्राने पर यह एक शुभकार्य होगा ।
दूसरे, जनविद्या से सम्बन्धित कोई न कोई प्र० भा० स्तर पर एक सेमिनार प्रतिवर्ष आयोजित होना चाहिए। उससे भी पर्याप्त जानकारी प्राप्त करने का अवसर मिलता है । इधर कुछ समय पूर्व तेरापन्थी महासभा ने दर्शन एवं सस्कृति परिषद के चायोजन द्वारा एक ऐसा क्रम प्रारम्भ किया था। किन्तु वह भी अवरुद्ध सा हो गया है । उसे पुनः चालू होना चाहिए। समाज के अन्य वर्गों से भी ऐसे प्रयत्न होना चाहिए। अब ऐसा समय आ गया है कि विद्वानों के निर्माण एव सरक्षण से समाज उदासीन नही रह सकता । अतः समाज का भी उत्तरदायित्व जनविद्या के प्रचार-प्रसार के कार्यों में बढ़ गया है ।
समाज का दायित्वबोध :
महानगरी कलकत्ता में श्रायोजित इस अधिवेशन मे सम्मिलित विद्वानो एव पठित निबन्धो का उक्त विवरण एक पोर जहाँ जनविद्या के अध्येताओं के उत्साहवर्द्धन मे सहायक होगा, वहाँ जैन समाज के जागरूक नागरिकों के दायित्वबोध का उत्प्रेरक भी। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण अधिवेशन मे सम्मिलित विद्वानो ने कलकत्ता जैन समाज द्वारा प्रायोजित विभिन्न स्वागत-सम्मान समारोहो में देखा । श्री जैन सभा ने अधिवेशन के पूर्ण से ही विद्वानो से सम्पर्क स्थापित किए उन्हें हर तरह की सुविधा प्रदान करने के लिए ग्रामन्त्रित किया। इसी का परिणाम था कि विश्वविद्यालय में निवास भोजनादि की व्यवस्था होते हुए भी अनेक विद्वानों ने जैन समाज के स्नेहपूर्ण घातिष्य को ही स्वीकार किया। यह एक ऐसा था जिसने जैनविद्या के अध्येताथी एवं समाज के नागरिकों को पारस्परिक सहयोग के लिए अवसर प्रदान किया।
२६ अक्तूबर ६ को श्री जैन सभा ने जैन भवन के भव्य प्रागण मे समस्त जैन विद्या के अध्येताओ के स्वागतार्थ प्रायोजन किया। विद्वानों के परिचय के बाद उन्हे माल्यार्पण एवं पुस्तकें प्रादि भेट देकर समाज ने अपना श्रादर व्यक्त किया। इस अवसर पर विद्वानों
१६१
की ओर से भाषण करते हुए डा० प्रा० ने० उपाध्ये ने कहा - " आपके इस स्वागत सम्मान से हमारी जिम्मेदारी और बढ़ गयी है। अब हमारा लेखन, मनन और चितन न केवल अनुसन्धान से ही सम्बन्धित रहेगा अपितु हमे समाज की समस्याओं के प्रति भी सचेत एवं सक्रिय होना पड़ेगा । आपके इस स्नेह से हम आश्वस्त हुए है कि हमारा अध्ययन अनुसन्धान साधनों के अभाव मे अब रुकेगा नही ।"
जैन सभा के अतिरिक्त दि० जैन महिला परिषद् स्थानकवासी समाज, जनश्वेताम्बर पंचायती मंदिर एवं जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी महासभा की ओर से भी समागत विद्वानों का स्वागत सम्मान किया गया । १ नवम्बर को प्रातः महासभा के स्वागत समारोह मे सम्मेलन के धनेक मनीषी विद्वान् भी सम्मिनित हुए सम्मान का आभार मानते हुए । इस सम्मेलन के अध्यक्ष डा० पी० एल० वैद्य ने कहा- "मुझे हर्ष है कि जैन धर्म के श्रावक अपनी समाज के विद्वानो को पुनः वह सम्मान और सहयोग प्रदान करने के लिए तत्पर हुए है, जिसके आधार पर सम्पूर्ण जैन वाडमय समृद्ध हुआ है । हम लोगो ने जैन वाडमय का अध्ययन इसलिए नही किया या कर रहे है कि इसके पीछे कोई धार्थिक लाभ है, अपितु हम यह महसूस करते है कि बिना जैन विद्या के अध्ययन के भारतीय वाङमय और मस्कृति का अध्ययन पूर्ण नहीं होता ।"
इसी दिन शाम को जंगभवन मे विद्वानो एवं प्रबुद्ध नागरिकों की उपस्थिति मे एक विचार गोष्ठी का भी आयोजन हुआ, जिसमे जैन विद्या के प्रचार-प्रसार से सम्बन्धित अनेक वक्ताओ के भाषण हुए। इन सब प्रायोजनो के मचालन एवं व्यवस्था मे श्री मिश्रीलाल जैन, श्री कमलकुमार जैन, श्री पवशीपर शास्त्री, श्री जुग मन्दिरदास जैन, एव श्री श्रीचन्द्ररामपुरिया, भवरलाल नाहटा यादि समाज के प्रमुख व्यक्तियो का सम्पूर्ण सहयोग रहा।
माना है, मागामी अधिवेशन मे भी विद्वान एवं समाज के व्यक्तियों का इसी प्रकार का सहयोग प्राप्त होता रहेगा, जिससे जैनविद्या का अध्ययन-अनुशीलन निरन्तर प्रगति के पथ पर बढ़ता रहेगा ।
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भगवान महावीर का २५सौवां निर्वाण दिवस
पं० परमानन्द शास्त्री
ससार के प्रसिद्ध महापुरुषों मे भगवान महावीर का हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता, सभी जीव अभ्युदय के स्थान सर्वोपरि है। उन्होंने जन कल्याण का जो महत्वपूर्ण पात्र है, सबको अपने प्रात्मीय कुटुम्ब की तरह मानना, कार्य किया वह उनकी महत्ता का स्पष्ट द्योतक है। उनसे प्रेम और समानता का व्यवहार करना सच्ची महावीर ने देश में फैले हुए सकुचित वातावरण को समु- मानवता है। न्नत बनाया, और विचारों में प्रौदार्य लाने के लिए अने
ऐसे महान उपकारी परमसन्त की निर्वाण शताब्दी कान्त जैसे सिद्धान्त का प्रचार व प्रसार किया, ऊँच-नीच
मनाना अत्यन्त आवश्यक है। जन साधारण में उनकी की भावना का निरसन किया, और जगत को अध्यात्म का
अहिंसा और उनके सदुपदेशो का प्रचार करना, उन्हे वह सन्देश दिया जिससे जनता अपनी भूल को जानने मे जीवन मे जताना प्रत्येक मानव का कर्तव्य है। समर्थ हो सकी। और आत्म-साधना का जो मार्ग कुठित सा
जैन समाज का कर्तव्य है कि भगवान महावीर की हो गया था उसमे नवजीवन का संचार किया। देश काल
२५ सौवी निर्वाण शताब्दी को संगठितरूप में प्रेम से की उस विपम परिस्थिति में जबकि जनता अधर्म को धर्म
मनाने के लिए दृढ प्रतिज्ञ रहे। श्रीमती इदिरा गान्धी का रूप मान रही थी, यज्ञादि क्रियाकाण्डो में जीव हिसा
प्रधानमत्री भारत सरकार की अध्यक्षता मे जो रूप-रेखा का प्रचार हो रहा था, पशुओ के आर्तनाद से भूमण्डल ।
१३ दिसम्बर को अहिंसा भवन शकर रोड में बनाई गई हिल रहा था। स्त्रियो और शूद्रों को धर्मसेवन का कोई
है उसे पल्लवित कर देश और विदेश के विद्वानो और अधिकार न था। विलविलाट करता हुआ पशुकुल 'हो
महापुरुपो को सम्मिलित कर उसे विशाल अन्तर्राष्ट्रीय कोई अवतार नया' की रट लगा रहा था। ऐसी विषम
रूप देना चाहिए। उसमे सभी का सहयोग वाछनीय है, परिस्थिति में महावीर ने भर जवानी मे राजकीय वैभव
साम्प्रदायिक व्यामोह से दूर रहकर जनता में महावीर के का परित्याग किया । और द्वादश वर्ष की कठोर तपश्चर्या
सिद्धान्तो को प्रचार करने का उपक्रम करना चाहिए। द्वारा प्रात्म-साधना की। और केवलज्ञान (पूर्णज्ञान) मनि श्री सुशील कुमार जी इस पुनीत कार्य में सलग्न प्राप्त कर ३० वर्ष तक विविध देशो और नगरो मे बिहार है। महावीर का असाम्प्रदायिक जीवन परिचय और उनके कर धर्मोपदेश द्वारा लोक का कल्याण किया । जनता सिद्धान्तो का सक्षिप्त मौलिक रूप को विविध भाषाओं में ने धर्म-अधर्म के मूल्य को पहिचाना और यज्ञादि हिसा प्रकाशित कर जनसाधारण में प्रसारित करना चाहिए। काण्ड का परित्याग किया। महावीर ने जन शाषण और जिससे जनसाधारण महावीर के वास्तविक स्वरूप से सामाजिक अन्याय अत्याचारके विरुद्ध आवाज बुलन्द की। परिचित हो सके। दिगम्बर समाज का खास कर्तव्य है समता, दया और अपरिग्रह के सिद्धान्त पर अधिक जोर कि वह निर्वाण शताब्दी की योजना मे भाग ले और उसे दिया। उन्होंने बताया कि पर पीड़ा से भय और वैर की सफल बनाने का प्रयत्न करे । साथ ही ऐसी कोई ठोस अभिवृद्धि होती है और मानसिक सन्तुलन बिगड़ता है। योजना संयोजित करे, जिससे महावीर के सिद्धान्तो का विद्वेष की परम्परा सुदृढ होती है। संसार मे सभी को प्रचार हो सके। प्राशा है दिद्वत् परिपद् इस सम्बन्ध में सुखपूर्वक जीने का अधिकार है, सभी को अपने प्राण प्यारे अपनी कोई ठोस योजना निर्धारित कर कार्य करेगी।
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मोम् अहम
अनकान्त
परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
दिसम्बर
वर्ष २२ किरण ५
। ।
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६६, वि० सं० २०२६
१६६६
.
श्री आदिनाथ स्तुति
(सवैया मात्रा ३२) ज्ञान जिहाज बैठि गनधर से, गुनपयोधि जिस नाहिं तरे हैं। अमर समूह प्रानि प्रवनीसौं, घसि धसि सोस प्रनाम करे हैं। किधों भाल-कुकरम की रेखा, दूर करन की बुद्धि घरे हैं। ऐसे प्रादिनाथ के प्रहनिस, हाथ जोरि हम पांय परे हैं ॥१॥ काउसग्ग मुद्रा घरि वनमैं, ठाडे रिषभ रिद्धि तजि दीनी। निहचल अंग मेरु है मानौं, दोउ भुजा छोर जिन दोनो। फंसे अनंत जंतु जग चहले, दुखो देखि करुना चित लीनी। काढ़न काज तिन्हें समरथ प्रभु, किधों बांह ये दीरघ कोनी ॥२॥ करनों न कछु करन ते कारज, तातै पानि प्रलंब करे हैं। रह्यो न कछु पायन ते पंवो, ताहोते पद नाहिं टरे हैं। निरख चुके नैनन सब यात, नैन नासिका अनो परे है। कहा सुन कानन यों कानन, जोगलोन जिनराज खरे हैं ॥३॥
-कविवर भूधरदास
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"अनेकान्त" में प्रकाशित रचनाएँ [१ ये रचनाएँ इस पत्र को अब तक को २१२ किरणों में प्रकाशित हैं, जिन्हें १० वर्गों में प्रकारादि क्रम से
रखा गया है। २ रचना और उनके लेखक के बाद लिखे गये अंकों में प्रथम अंक वर्ष का प्रौर द्वितीय अंक पृष्ठ का
सूचक है। ३ धारावाहिक रचनात्रों को प्राय: एक ही बार लिख कर उनके वर्ष और पृष्ठ के अंक अलग-अलग दिये
गये हैं। ४ इन रचनामों के आधार पर निकाले गये कुछ प्रांकड़े और नतीजे, इसी अंक में प्रकाशित मेरे लेख
"अनेकान्त" द्वैमासिक : एक दृष्टि में देखे जा सकते हैं। ५ इस सूची और (लेखक-सूची) को तैयार करने में मेरे प्रिय शिष्य सर्व श्री सत्यनारायण तिवारी, अरुण
सराफ, अरुण भट्ट तथा अरविन्द जन प्रादि ने बहुत श्रम किया है, जिसके लिए उन्हें हृदय से आशीर्वाद देता हूँ।]
१. सैद्धांतिक (धर्म, दर्शन, न्याय, व्याकरण)
गोपीलाल 'अमर'
१४१५६
अनेकान्त का नया वर्ष मम्पादकीय १११७० अज्ञान निवृत्ति, पं० माणिकचद न्यायाचार्य ६।२३३ अनेकान्त की मर्यादा, पं० चैनमुखदास ११२६ अतिचार-रहस्य, प० हीरालाल सि. शा० १४।२२१ अनेकान्त के इतिहास पर एक दृष्टि, बाबू कामताप्रसाद अतिथि संविभाग और दान, १० हीरालाल सि० शा०
११२५
अनेकान्त दृष्टि, प. देवकीनन्दन सि० शा० ११५६१ अदृष्टवाद और होनहार, श्री दौलतराम 'मित्र' ८।१६२ अनेकान्त पर लोकमत १११२४, १११८७, ११२५६, अदृष्ट शक्तियां और पुरुषार्थ, बा० सूरजभानजी २।३११ १ .३१५, ११४२२, ११५४६, ११६६६ अधर्म क्या है ?, श्री जैनेन्द्रकुमार जी २।१६३
अनेकान्त पर लोकमत २।१७७, २।२२५, २।२७४, २१३२५ अनेकान्त, महात्मा भगवानदीन ६।१४३
अनेकान्त के सर्वोदय तीर्थाक पर लोकमत ११११६७ अनेकान्त और पनाग्रह की मर्यादा, मुनि श्री गुलाबचन्द अनेकान्त माहात्म्य ११६५ १७.१२७
अनेकान्तवाद, मुनि श्री चौथमल २२२१ अनेकान्त और अहिंसा, पं० सुखलाल जैन ४।५४१ अनेकान्तवाद, सापेक्षवाद और ऊर्जाणुगामिकी अनेकान्त मौर प० प्रबादास शास्त्री, श्री क्षु० गणेशप्रसाद बा० दुलीचन्द जैन M.S.C. ११३१४३ वर्णी १०।१२२
भनेकान्त रसलहरी, जुगलकिशोर मुख्तार १०॥३ अनेकान्त पौर स्याद्वाद, पं० वशीघरजी व्याकरणाचार्य अनेकान्त की सहायता का सदुपयोग १११२४२ २।२७
अन्तरद्वीपज मनुष्य-सम्पादक २१३२६
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१. सैद्धान्तिक (धर्म, दर्शन, न्याय, व्याकरण)
१६५
अप्रावृत्त और प्रतिसंलीनता, मुनि श्री नथमल १८१६० प्राचार्य भावसेन के प्रमाण विषयक विशिष्ट मत, डा. अमूल्य तत्त्वविचार, श्रीमद्राजचंद्र ९।१४०
विद्याधर जोहरापुरकर १७१२३ अवतारवाद और महावीर बा० पद्मराज जैन ११३०४ पाज का मेस्मेरेजिम और जैनधर्म का रत्नत्रय, बा. अविरत सम्यग्दृष्टि जिनेश्वर का लघुनन्दन है,
केशवप्रसाद ६१५७ श्री क्षु० गणेशप्रसाद जी वर्णी १४१३३०
पाठ शकाग्रो का समाधान, क्षु. सिद्धसागर १२१२७२ अर्थ का अनर्थ, श्री पं० कैलाशचंद सि० शा० १०॥१२६ प्रात्म-दमन, मुनि श्री नथमल १८१४२ अर्थप्रकाशिका: प्रमेयरत्नमाला की द्वितीय टीका, प्रात्मविद्या की अटूटधारा, बाबू जयभगवान एडवोकेट पं. गोपीलाल अमर १८६८
११४२३५ प्रश्रमण प्रायोग्य-परिग्रह, क्ष० सिद्धसागर ११।२०७ प्रात्महित की बात, क्षु. सिद्धसागर १३।१६५ प्रसज्ञी जीवो की परम्परा, डा० हीरालाल जैन १३।१७५ प्रात्मशक्ति का माहात्म्य, श्री चन्दगीराम त्रिपाठी ६।२४६ अहिमक परम्परा, विश्वम्भरनाथ पाडे ११:३१
प्रात्मा-श्री १०५ पूज्य क्ष गणेशप्रसाद जी वर्णी १२१३३ अहिसा, बमतकुमार एम. एम. मी ३१३६०
प्रात्मा और पुद्गल का अनादिसम्बन्ध, श्री लोकपाल १०१५५ अहिंसा और अनेकान्त, प. बेचरदास ११४३
आत्मा, कर्म, सष्टि और मुक्ति, श्री लोकपपाल १०८७ अहिमा और अपरिग्रह, धी भरमिट उपाध्याय १४।१४० । प्राप्त की श्रद्धा का फल, क्ष गणेशप्रसादजी वर्णी १०॥३५ अहिसा और जैन मस्कृति का प्रसार, पं. अनतप्रसाद प्रात्मा के त्याज्य और ग्राह्य के दो रूप, जैन ग्रीवा से B. Sc Eng. ??1723
१४।२२० अहिमा और मासाहार, प्रिम्प. ए. चक्रवर्ती ८।१४८
अात्मा चेतना या जीवन, बा. अनन्तप्रसाद जी B. Sc. अहिंसा और सत्याग्रह, बा अनन्तप्रमाद जैन १०
___Eng. १२१८०, १२।१४३ अहिमा और हिमा, क्षु. सिद्धमागर १४।२३७
यात्मिक क्रानि, वा. ज्योतिप्रमाद जैन एम. ए. ३।२८१ हिसा और अतिवाद, दरवारीलाल गन्य भक्त ३।४३०
पामेर भण्डार का प्रशस्तिसग्रह, परमानन्द शा. ११४१६३ अहिमा का वैज्ञानिक प्रस्थान, काका कालेलकर १८१३६
अाधुनिक विज्ञान और जैन दर्शन, पदमचन्द जैन १९१७३ अहिमा की कुछ पहेलियाँ. किगोरीलाल मशरुवाला ३१६२
प्रार्जव, प. अजितकुमार जैन शास्त्री १२।१३० अहिंसा की समझ, श्री किशोरीलाल मारुवाना ३।५०४
आयं और म्लेच्छ, मपादक ३।१८१ हिसा की युगवाणी, डा वासुदेवशरण अग्रवाल १३१२८६
आलोचन युगवीर, ३।११६ अहिमा के कुछ पहल, श्री काका कालेलकर ३।४६१ अहिंसा तत्त्व, क्षु. गणेशप्रसाद वर्णी ह।२१६
इलायची-ला. जुगलकिशोर कागजी ११॥३५६ अहिसा तत्त्व, व्र. शीतलप्रसाद ४।६३ अहिंसा तत्त्व, प. परमानन्द शास्त्री ३१३१६
उच्चगोत्र का व्यवहार कहाँ ?-सम्पादक ३।१३१ अहिसा तत्त्व, पं. परमानन्द शास्त्री १३३९०
उत्तम क्षमा-पं. परमानन्द जैन शास्त्री १२।११६ अहिमा धर्म और निर्दयता, चन्द्रशेखर शास्त्री ३८६
उत्तम मार्दव-क्ष. गणेशप्रमाद वर्णी १२।१२३ अहिंमा सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण प्रश्नावलीविजयसिंह नाहर ३१६०५
उत्तम तप-परमानन्द शास्त्री १२।१३१ अहो रात्रिकाचार, क्षु. सिद्वमागर १३१८१
उमास्वामी का तत्वार्थमूत्र-प. सुखलाल १४४४१
उत्मपिणी और अवसपिणी-स्वामी कर्मानन्द ३१६५ प्राचिन्य धर्म, पं. परमानन्द शास्त्री १२॥१४० प्राचार और विचार, डा. प्रद्य म्नकुमार जैन ज्ञानपुर
. ऊंच नीच गोत्र विषयक चर्चा-बालमुकुन्द पाटौदी २।१६५, १८।१०३
२१७०७
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१९६ वर्ष २२ कि.५
अनेकान्त
गीता का धर्म-प्रो. देवेन्द्रकुमार जैन १११२७१ एकान्त मोर अनेकान्त (कविता)-पं. पन्नालाल जैन ४।७५ गोत्र कर्म पर शास्त्रीजी का उत्तर लेख-सम्पादक ३७७
गोत्र कर्म सम्बन्धी विचार-प्र. शीतलप्रसाद ३६२५६ कथित सोपज्ञ भाष्य-बा. ज्योतिप्रसाद एम. ए. ६२११ गोत्र कर्माश्रित ऊँचनीचता-बा. सूरजभान ६१३३ कर्म और उसका कार्य-पं. फूलचन्द सिद्धातशास्त्री ६।२५२ गोत्र विचार-जैन हितैषी से उद्धत ३।१८६ कर्म बन्ध और मोक्ष-प. परमानन्द जैन शास्त्री ४।१४१ गोत्र विचार-फूलचन्द सि. शा. ६।१८६, ६।३०६ कर्मो का रासायनिक सम्मिश्रण-बा. अनतप्रसाद जैन गोत्र विचार परिशिष्ट-प. फलचन्द ६।३२८ । B. Sc.-Eng. १२११२, १२१५८
गोत्र लक्षणो की सदोषता-पं. ताराचद जैन दर्शनशास्त्री केवलज्ञान की विषय मर्यादा-प. माणिकचन्द ६।३१७, ३।६८०
६।३६५ क्या असंज्ञी जीवोके मनका सद्भाव मानना आवश्यक है ? चतुर्मास योग-मिलापचंद कटारिया १६।११७ -पं. बशीधर व्याकरणाचार्य १३१२१७
चारित्र्य का प्राधार-श्री काका कालेलकर ८२६३ क्या जैन मतानुमार अहिंसा की साधना अव्यवहार्य है ?श्री दौलतराम 'मित्र' १११२००
जगत का संक्षिप्त परिचय-प. अजितकुमार शास्त्री क्या तत्वार्थ सूत्र-जैनागम-समन्वय में त. सू. के बीज हैं- १४.२३० चन्द्रशेखर शास्त्री ४।२४६
जगत रचना-श्री कर्मानन्द ७.६६ क्या तीर्थकर प्रकृति चौथे भव मे तीर्थंकर बनाती है ? जगत्गुरु अनेकान्त-संपादकीय ६।१२२ -७० रतनचन्द मुख्तार ८।१६६
जन्म-जाति-गर्वापहार-युगवीर १२।३०४ क्या यही विश्व धर्म है ?-बा. अनन्तप्रसाद जैन बी. एस. जयस्याद्वाद-प्रो. गो. खुशालचन्द जैन एम. ए. ६।१५४ सी. १११११०
जातिमद सम्यक्त्व का बाधक है-बा. सूरजभान २११८७ क्या वर्तमान का वह अर्थ गलत है ?-पं. दरबारीलाल जातिया किस प्रकार जीवित रहती है७।२१४
ला. हरदयाल एम. ए. ३१६० क्या व्यवहार धर्म निश्चय का साधक है ?
जिनकल्पी अथवा दिगम्बर साधु का ग्रीष्म-परीषह-जय जिनेन्द्र कुमार जैन १३१२२१
४।२४१ क्या सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तकाल मे स्त्रीवेदी हो सकता है ?- जिन प्रतिमा वन्दन-सम्पादकीय ४।१२६ बाबू रतनचन्द मुख्तार ६७३ ।।
जिन शासन (प्रवचन)-श्री कानजी स्वामी १२।२११ क्या सेवा साधना में बाधक है ?-रिषभदास रांका ११०२०२ जिनेन्द्र मुख और हृदय शुद्धि-सम्पादक ४।३०१ क्या सिद्धान्त प्रथो के अनुसार सब ही मनुष्य उच्चगोत्री जीव का अस्तित्वः जिज्ञासा और समाधान है?-कैलाशचन्द सि. शास्त्री ३.१५६
मुनि श्री नथमल १८१३२ क्या सुख दुख का अनुभव शरीर करता है-क्षु. सिद्धसागर जीव का स्वभाव-श्री जुगलकिशोर कागजी ६२५१
जीवद्राण सत्प्ररूपणा के सूत्र १३ मे मूडविद्रीकी ताड पत्रीय ग
प्रतियों मे सजद पाठ है-प्रो. हीरालाल ७।१५० गाधीजी का अनासक्तियोग-प्रो. देवेन्द्र कुमार जैन एम. ए. जीवन और धर्म-जमना लाल जैन विशारद ६।२७३ ११४१८३
जीवन और विश्व के परिवर्तनो का रहस्य-श्री अनतप्रसाद गांधीजी की जैनधर्म को देन-पं. सुखलाल सघवी ४।३६६ जैन B.Sc. Eng. १०.१६७ गरीब का धर्म-बा. अनन्तप्रसाद बी. एस. सी. ११११३६ जीवन में अनेकान्त-बा. अजितप्रसाद एडवोकेट ४।२४३
१३।१६७
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१. सैद्धान्तिक (धर्म, दर्शन, न्याय, व्याकरण)
१६७
जैन अध्यात्म-पं. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ।३३५ जैनधर्म परिचय गीता जैसा हो-श्री दौलतराम मित्र जैन और बौद्ध धर्म एक नही-प्रो. जगदीशचन्द एम. ए. ३१६५७ ३२२६१
जैन पूजाविधि के सम्बन्ध में जिज्ञासा-बा. माईदयाल जैन जैन तर्क मे हेत्वनुमान-डा. प्रद्युम्नकुमार २०११३०
बी. ए. बी. टी. ११३६६ जैन दर्शन और उसकी पृष्ठभूमि-प. कैलाशचन्द जैन जैनधर्म में हिसा-प. दरबारी लाल १२२७७ शास्त्री १७११८७
जैनधर्म में वर्ण व्यवस्था कर्म से ही है जन्म से नहीं जैन दर्शन और निःशस्त्रीकरण-साध्वी मजुला १६०२४० जैन बौद्ध दर्शन-प्रो. उदयचद जैन, १६।१५८ जैन दर्शन और पातङजल योगदर्शन-साध्वी सघमित्राजी जैन भूगोलवाद-प्रो. घासीराम ११३०२ १७.११४
जैन मत्रशास्त्र और ज्वालिनिमत्-जुगल किशोर ११४२७, जैन दर्शन और विश्व शान्ति-प्रो. महेन्द्र कुमार न्याया- ४५५ चार्य १४।१०७
जैन वाङमय का प्रथमानुयोग-ज्योतिप्रसाद जैन एम. ए. जैन दर्शन और वेदान्त-मुनि श्री नथमल १६।१६७
२।१६६ जैन दर्शन का नयवाद-प. दरबारी लाल कोठिया ४१३१३ जैन सस्कृति का सप्तत्तत्त्व और पद्रव्यव्यवस्था पर प्रकाश जैन दर्शन मे अर्थाधिगम चिन्तन-प. दरबारी लाल कोठिया प. वशीघर जैन व्याकरणाचार्य ८.१८० १८६१
जैन सस्कृति का हृदय-प सुखलाल सधवी ५॥३६० जैन दर्शन मे मुक्ति-साधना-अगरचद नाहटा ३।६४० जैन साधुग्रो के निष्क्रिय एकाकी साधना की छेडछाड़जैनदर्शनमे सप्तभगीवाद-उपा. मुनि श्रीअमरचद १७।२५३ दौलतराम मित्र ११॥ १५७ जैन दर्शन में सप्त भगीवाद-मुनि श्री प्रमरचद १८१२० जनागमो में समय गणना-प्रगर चन्द नाहटा ३६४ जैन दर्शन मे सर्वज्ञता की संभावनाएँ-प. दरबारीलाल १८१२ जनेन्द्र व्याकरण के विषय में २ भूले ----युधिष्ठिर जैन दृष्टि का स्थान तथा उसका प्राधार-महेन्द्रकुमार शा. मीमामक १०६२
जनी की हिमा-प. देवकीनदन ११२०५ जैन धर्म और अनेकान्त-प. दरबारी लाल सत्यभक्त जनो की प्रमाण मीमासा पद्धति का विकास-प. मुखलाल ३।३६३०
१२६३ जैनधर्म प्रौर अहिसा-बा. अजितप्रसाद एडवोकेट ४।६५ जोगिचर्या-पं० परमानद जैन शास्त्री ८।३६८ जैनधर्म और जैन दर्शन-श्री अम्बुजाक्ष सरकार एम. ए. जीवन और विश्व के परिवर्तनो का रहस्य-श्री अनतप्रसाद बी. एल. १२।३२२
प्रसाद जैन B.Sc-Eng. १०११६७ जैनधर्म और समाजवाद-प्रो. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य ११।२१
डा. अम्बेदकर और उनके दार्शनिक विचारजैनधर्म का अहिंसा तत्व-श्री मुनि विजय ११३५३
प. दरबारी लाल जैन कोठिया १०११६५ जैनधर्म की उदारता और जैनियो की सकीर्णता- डा. भायाणी एम. की भारी भूल-जुगलकिशोर १३।४
प. दरबारी लाल सत्यभक्त ११३६५ जैनधर्म की चार विशेषताएँ-पन्नालाल साहित्याचार्य ६।२२ णवकार मत्र माहात्म्य-प, हीरालाल सिद्धांत शास्त्री जैनधर्म की विशेषता-ब्रा. सूरजभान वकील २२२१
१४।१५६ जैन सघ के छह अग-डा. विद्याधर जोहरा पुरकर १७१२३१ त जैनधर्म तर्क सम्मत और वैज्ञानिक-मुनि श्री नगराज त्याग का वास्तविक FT-क्षुल्लक गणेशप्रसाद जी वर्णी १७१८२
६।२५०, ६।१२३
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१० वर्ष २२ कि० ५
तत्वार्थ सूत्र का महत्ववं वशीपर व्याकरणाचार्य १२। / ३५
तीर्थ और तीर्थकर पं. हीरालाल सिद्धांत शास्त्री १३४८ तत्वार्थ सूत्रका प्रत: परीक्षण- पं. फुलचंद शास्त्री ४।५८३ तत्वार्थ सूत्र का प्रत परीक्षण-पं. फूलचंद शास्त्री ५।५१ तत्वार्थ सूत्र के बीजों की खोज-प. परमानन्द शास्त्री ४।१७ तीर्थंकर क्षत्रिय ही क्यों ?-कर्मानन्द ६२९६
सीङ्करो के चिन्हों का रहस्य या. भोलानाथ मु. १।११६ ६३वें सूत्र में सजद पद का विरोध क्यों ? - न्या. पं. दरबारीलाल जैन कोटिया ८१२४७
द
दर्शन और ज्ञान के परिपेक्ष्य मे स्याद्वाद और सापेक्षवादमुनि श्री नगराज २९१६८
दर्शनका अर्थ "मिलना "श्री प. रतनलाल कटारिया १५५० दर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग एक तुलनात्मक अध्ययन
प. बालचन्द सि. शास्त्री २१।११६
दर्शनों की प्रास्तिकता और नास्तिकता का आधार - प. प. ताराचन्द जैन दर्शन शास्त्री ३।३५२ दर्शनो की स्थूल रूप रेखा - १. नाराचन्द जैन ३१।८१ दशधर्म और उनका मानव जीवन मे संबंध-प. वशीधर व्याकरणाचार्य ११।११५
अनेकान्त
दश साक्षणिक धर्म स्वरूप कविवर र १२१०० दान विचार शुलक श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी ६२६७ दिगम्बर जैन भागम- मा. बल्देव प्रसाद उपाध्याय M. A.
८।३५६
दिगम्बर दवेताम्बर परम्परा मे महाव्रत अणुव्रत समिति और भावना - मुनि श्री रूपचन्द १८ ।१११ दिगम्बर स्वेताम्बर मान्यता भेदश्री धगरचन्द नाहटा
३।५४३
दिव्यध्वनि -- (बा. नानकचन्द जी एडवोकेट) २/५६२ दुख का स्वरूप - प. पुरुषोत्तमदास साहित्यरत्न ६ । ५६ देव और पुरुषार्थ पुरुषोत्तमदास ६५६
-
दोहाणुप्रेक्षा- लक्ष्मीचन्द ( अपभ्रंश रचना) १२।३०२
द्वितीय जम्बूद्वीप - प. गोपीलाल अमर शास्त्री एम. ए. 문화교구 오리
द्रव्य मॅन - प. इन्द्रचन्द शास्त्री ३५०
घ
धर्म श्रौर नारी - बा. ज्योतिप्रसाद जैन एम. ए. ८।२६५ धर्म और वर्तमान परिस्थितिया-नेमिचन्दशास्त्री २४६७ धर्म मौर विज्ञान का सबध- पं. गोपीलाल अमर १६।११२ धर्म का रहस्य पं. फूलचन्द सिद्धांत शास्त्री १३०३ धर्म क्या ? श्री जैनेन्द्रकुमार २०४७ धर्म क्या है ? धर्म का रहस्य ध्यानारूढ़ आदि जिनेन्द्र
बंशीधर व्याकरणाचार्य ६४६
फूलचन्द सिद्धात शास्त्री १३ सपादक ७१५१
-
-
न
नयो का विश्लेषण- बंशीधर व्या६०३, ६।१२०, ६, ६।२४७ ६।२६६
नव पदार्थ निश्चय (वादीभसिंह) - श्री पं. दरबारीलाल कोठिया १०।१४७
नियतिवाद प्रो. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य एम. ए. १४१६५ निरतिवादी समता - सत्यभक्त १३।७४ निश्चय और व्यवहार-ब्र. छोटेलाल जैन ४।३६२ निश्चय नय और व्यवहारनय का यवार्थ निर्देश निश्चय और व्यवहार के कषोपल पर पट् प्राभृतः एक अध्ययन-मुनि श्री रूप१२१०२
प
पतित पावन जैनधर्म-शुल्लक गणेशप्रसाद जी वर्णी
१०१३४३
परीक्षामुख के सूत्रो और परिच्छेदो का विभाजन एक समस्या- प. गोपीलाल ग्रमर १८१५६ पाप का बाप जुगलकिशोर १५०५
पारस्परिक विभेद मे प्रभेद की रेखाएँ - साध्वी कनककुमारी २१।५३
पिट बुद्धि के अन्तर्गत दृष्टि प्रहार पर विचारप. बालचन्द सि. शा. २१:१५५ पुण्य पाप व्यवस्था सम्पादक ४३१७
पुरातन जैन साधुयों का आदर्श-पं. हीरालाल सि.पा. १३।१०
पूजा स्तोत्र जप ध्यान और लय पं. हीरालाल सिद्धान पात्री १४१६३
पृथ्वी गोल नही चपटी है एक अमेरीकन विद्वान १२।१७६
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१. सैद्धान्तिक (धर्म, दर्शन, न्याय, व्याकरण)
१६९
पेड पौधों के संबंध में जैन मान्यताओं की वैज्ञानिकता- भारतीय दर्शन शास्त्र-प. माधवाचार्य १४१६६ प. चैनसुखदास ६।१३६
भारतीय दर्शनों मे प्रमाण भेद की महत्वपूर्ण चर्चा
डा. दरबारीलाल कोठिया बुद्धघोष और स्याद्वाद-डा. भागचन्द जैन १६।२६२ बौद्ध तथा जैन ग्रन्थो में दीक्षा-प्रो. जगदीश चन्द एल. ए. ३।१४३
मनुप्यनी के सजद पद के सबध मे विचारणीय शेष प्रश्नबौद्ध तथा जैन धर्म पर एक सरसरी नजर-बी. एल. सरीफ डा. हीरालाल जैन एम. ए. ८।१६३ २।३०३
मनुष्योमे ऊचता नीचता क्यो?-प. बशीधर व्या. २१६००, ब्रह्मचर्य-महात्मा गांधी ३१५०३
३।६७१ ब्रह्म जिनदास-परमानन्द शा. ११।३३३
मनुष्यो मे ऊचता नीचता क्यो?--बशीधर व्याकरणाचार्य ब्रह्म जिनदास का एक अज्ञात रूपक काव्य-श्री अगरचन्द ३१५१६ नाहटा ११॥३१३
महात्मा गाँधी के २७ प्रश्नो का गमाधान-श्री मद्राजचन्द्र
३।५२६, ३१५४१ भक्ति योग रहस्य-सम्पादक ४१५५
मुक्ति और उसका उपाय-बा. भागीरथ जी वर्णी २१५३६ भगवान महावीर और उनका लोक कल्याणकारी सन्देश- मुनियो और धावको का शुद्धोपयोग-4. हीरालाल जैन डा. हीरालाल एम. ए. १०।२५६
सि. शा. १३१४४ भगवान महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ
मूल में भूल-बा. अनन्त प्रमाद जन BSC. १०।४२१ परमानन्द शास्त्री १११५५
मूलाचार की कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थो के साथ समताभगवत् शरण मे कारण-सम्पादक ८.६७
प. होरालाल सि.शा.१२।३३७ भगवान महावीर और उनका अहिंसा सिद्धात
मुलाचार की मौलिकता और उनके रचयिता-पं. हीरालाल न्या. प. दरबारीलाल कोठिया ५२५६
सि. शा. १२१३३७ भगवान महावीर के शासन मे गोत्र कर्म-कामताप्रसाद
मलाचार सग्रह ग्रन्थ न होकर प्राचारांग के रूप में मौलिक ३।२८
ग्रन्थ है-प. परमानन्द शा. १२१३५५ भगवान महावीर और उनके दिव्य उपदेश-. हीरालाल
मेडक के विषय में एक शंका-दौलतराम मित्र ३१७१८ सिद्धात शास्त्री १४१२५३
मेडक के विषय मे शका समाधान-दौलतराम भित्र ५।३२३ भगवान महावीर और बुद्ध परिनिर्वाण-मुनि श्री नगराज
मेडक के विषय में शका समाधान-सिघई नेमिचन्द्र ४।२६२ २०१८७, २०१२१६
मोक्ष तथा मोक्ष मार्ग-पं. बालचन्द काव्यतीर्थ ७।१४४ भगवान महावीर प्ररूपित अनेकान्त वास्तविक स्वरूप--- श्री कान जी स्वामी ७१६८
मोक्षमार्ग की दृष्टि से सम्यक ज्ञान का निरूपण
पं. मग्नाराम जैन बडौत १७१८२ भगवान महावीर की झाकी-बा. जयभगवान ५३१११ भगवान महावीर की शिक्षा-डा. कुतलकुमारी ११४५३
मोक्ष मुख-श्री मद्राजचन्द्र ३१४०७ भाग्य और पुरुषार्थ-बा. सूरजभान ३।३५६, ३।४०८ भारतीय दर्शन की तीन धाराएं-भगवानदास एम. ए. १७११६४
युक्त्यनुशासन की प्रस्तावना-पं. जुगलकिशोर मुस्तार भारतीय दर्शन में जन दर्शनका स्थान-हरिसत्य भट्टाचार्य ११।२६७ ३१४६७
योग मार्ग-बा. हेमचन्द मोदी ११५३६
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२०० वर्ष २२ कि० ५
अनेकान्त
श
लोक का अद्वित्तीय गुरु अनेकान्तवसुनंदि श्रावकाचार का संशोधन-पं. दीपचन्द पाण्डया प. दरबारीलाल न्यायाचार्य ११-७७
और रतनलाल जी कटारिया केकड़ी १२।२०१ वास्तविक महत्ता-श्रीमद्राजचन्द्र ३१२३६
शका समाधान-पं. दरबारीलाल न्यायाचार्य कोठिया बिनय से तत्त्व की सिद्धि है-श्री मद्राजचन्द्र ३१११८ विविध प्रश्न-श्रीमद्राजचन्द्र ३१३२, ३१७६३, ८१, ३१८६
९३४, ९।११३, ६।१४८ विवेक का अर्थ-श्रीमद्राजचन्द ३।१२०
शास्त्रमर्यादा-पं. सुखलाल श६३६ विरोध और सामंजस्य-डा. हीरालाल जैन १११२७३
शुभचद्र का प्राकृत लक्षण एक विश्लेषण
___ डा. नेमिचंद्र शास्त्री २१।१६४ विश्व एकता और शान्ति-अनन्तप्रसाद ११।२८४
शुभचद्र का प्राकृत व्याकरण-डा. ए. एन.उपाध्ये विश्व को अहिंसा संदेश-बा. प्रभुलाल जैन ६।१११
शौच धर्म -प. दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य १२।२६ वीतराग की पूजा क्यो ?-सम्पादक ४११३६
श्वे. तत्वार्थसूत्र और उसके भाष्य की जाँच-संपादक वीर का जीवन मार्ग-जयभगवान जैन वकील ३।१४१
२।१०७, ५२१६३ वीर तीर्थावतार-सम्पादक (युगवीर १११४
श्वे. सम्मत सात निह्नव-प. शोभाचद्र भारिल्ल ११६१३ वीर के दिव्य उपदेश की एक झलक
श्रावकोका प्राचार-विचार-क्षु. सिद्धसागर १३।१८६ जयभगवान जैन वकील ३९५ वीर प्रभृ के धर्म मे जातिभेद को स्थान नहीं है
श्री वीरका सर्वोदय तीर्थ, युगवीर (सम्पादक) ११७
श्रीश्रमण भगवान महावीर उनके सिद्धान्तबा. सूरजभान २१४६३ वीर भगवान का वैज्ञानिक धर्म-बा. सूरजभान ३।६२३,
मुनि प्रात्माराम ७१४१ २१६४१
श्रतज्ञान का आधार-इन्द्रचन्द शास्त्री २।३८७,२।४६४ वीरवाणी की विशेषताएँ और ससारको उनकी अलौकिक देन-डा. दशरथलाल जैन कौशल ८।१२२
षडावश्यक विचार-स. जुगलकिशोर मुख्तार ६।२१४ वीर शासन की विशेषता-अगरचद नाहटा ३।४१
षट्खण्डागम और शेष १८ अनुयोग द्वार-बालचद सि. वीर शासन मे स्त्रियो का स्थान-इन्दुकुमारी हिन्दी रत्न'
शा. १६४२७५ ३१४५
पटखण्डागम परिचय-बालचद सि. शा. १९२२० वीरों की अहिंसा का प्रयोग-महात्मा गाधी ३।६०७
पटदर्शनियो के १०२ भेद-अगरचद नाहटा १६:१६६ वैज्ञानिक युग और अहिंसा-श्री रतन जैन पहाड़ी ८३।२६ वैधता और उपादेयता-डा. प्रद्म म्न कुमार जैन २०१२५५ सकाम धर्म साधन-जुगलकिशोर मुख्तार १३१५७
सकाम धर्म साधन-जुगलकिशार मुर व्याप्ति अथवा प्रविनाभाव के मूलस्थान की खोज- सकाम धर्म साधना-सपादक २।२५६ पं.दरबारी लाल कोठिया २११५०
सत्य अनेकान्तात्मक है-जयभगवान वकील ३।१७
सत्य धर्म-श्री १०५ पूज्य क्षु. गणेशप्रसादजी वर्णी रत्नत्रय धर्म-पन्नालाल साहित्याचार्य ४।२७८, ४।३२६
१२।१२६ राग श्रीमद्राजचन्द्र ३११४६
सभी ज्ञान प्रत्यक्ष हैं-श्री इन्द्रचन्द्र शास्त्री २०१०७ रात्रि भोजन त्याग छटा अणुव्रत-प. रतनलाल कटारिया । समझ का फेर-पं. फूलचद सि. शा. १०१२५६ १५२१
समन्तभद्र की महद्भक्ति का रूप-संपादक ४।३५७
समतभद्र भारती देवागम-युगवीर १३, ३३, १३।६५, लघुद्रव्य सग्रह-संपादक १२।१४६
१३।१८, १३।१४७, १३।१६७, १३।१६१, १३।२१५
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समन्तभद्र प्रतिपादित कर्मयोग - जुगलकिशोर मु० ११।१७५ समन्तभद्र भारतीस्तोत्र - कवि नागराज ११०१६७ समन्तभद्र वचनामृत-युगवीर ११५, १११०३, ११।१३७, ११:१७१, ११।२२८, ११।२६०, ११०३०६, ११३२६, १२३६७
समन्वय भौर अद्भुत मार्ग प्रकार श्री अगरचंद नाहटा १४ । १६२
समय धौर साधना-साध्वी श्री राजमती १६।२७० समयसार की पन्द्रहवी गाथा और श्री कानजी स्वामी
सपादक १२।१७७, १२/१६५
समयसार की पन्द्रहवी गाथा और श्री कानजी स्वामी
जुगलकिशोर मुख्तार १३५
समयसार की महानता श्री कानजी स्वामी ६।३३ समवसरणमे शूद्रो का प्रवेश - जुगलकिशोर मुख्तार
६।१६६
१. सैद्धान्तिक (धर्म, दर्शन, न्याय, व्याकरण)
सम्यग्दर्शन - साध्वी श्री सघमित्रा १८११६६ सम्यग्दृष्टि और उसका व्यवहार-क्षु सिद्धसागर १३।११७ सर राधाकृष्णन के विचार-८।२३४ अर्थसिद्धि और तत्वार्थवार्तिक पर पट्खण्डागम का
प्रभाव - बालचंद सि. शा. १६।३०
सर्वोदय कैसे ही ? - बा. अनन्तप्रसाद B. Sc. ११।२५ सर्वोदयतीर्थ कैलाशचन्द शा० ११।१७ सर्वोदयतीर्थ के नाम पर - श्री जमनालाल १११३८ सर्वोदयतीर्थ और उसके प्रति कर्तव्या. उपसेन न M.A.LL.B. ११।४४
सर्वोदय या निवोदय प्रो० देवेन्द्रकुमार जैन M. A.
११।१६ सर्वोदय या सामाजिकता श्री ऋषभदास राका ११।२३ सल्लेखनामरण-श्री पूज्य १०५ शु. गणेशप्रसाद वर्णी
१२४६
-
संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। कालेजों, विश्वविद्यालयों और जंन स्वयं बनें और दूसरों को बनायें
२०१
सागार धर्मामृत पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव - पं. बाल चन्द सि. शा. २६।१५१
साधु कौन ? एक प्रवचन श्री १०५ पूज्य क्षु. गणेशप्रसाद वर्णी १२।१७३
साधुत्व मे नग्नता का स्थान - पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य १३।२४१
सासादन सम्यक्त्व के सम्बन्धमे शासन भेदडा. हीरालाल ६२६२, २०१७
सिद्ध हेमचंद्र शब्दानुशासन - श्री कालिकाप्रसाद शुक्ल
एम. ए., व्याकरणाचार्य १५ १४६, १५/२०६
सुख और दुख श्री जमनालाल जैन विशारद ७ १३५ सुख और समता - बा. उग्रसेन वकील ७।७४ संजद पद का बहिष्कार डा. हीरालाल जंन १००३४६,
१०/३६०
संजद पदके सम्बन्धमे अकलंक देव का महत्वपूर्ण श्रभिमत न्या. प दरबारीलाल जैन पा८३
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सजद शब्द का निष्कासन - प. परमानन्द शास्त्री १० ३५० "सजद" शब्द पर इतनी भापत्ति क्यो ? - नेमचन्द बालचद गाँधी वकील ६।३१४
सजय वेलट्ठिपुत्र और स्याद्वाद - पं. दरबारीलाल न्या. ६।५०
संयम धर्म -ला. राजकृष्ण जैन १२।१३६
सयमी का दिन और रात श्री "विद्यार्थी ४१८२ सवेग - मुनि श्री नथमल जी १७।१५७
स्थायी सुख धौर जाति का उपाय ठाकुरदास जैन
१६।१३६
-
स्याद्वादका व्यवहारिक जीवन मे उपयोग प. चैनसुखदास न्यायतीर्थ १६ | १६५
स्व-पर-वरी कौन ? सपादक ४१६
अनेकान्त के ग्राहक बनें
'अनेकान्त' पुराना क्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का प्रभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इस लिए ग्राहक हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों भूत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें।
I
oreस्थापक 'अनेकान्त'
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२. साहित्य
अपभ्रंश का एक शृगार वीर काव्यअकलक देव का चित्रकाव्य अथवा चतुर्विशति जिनस्तोत्र रामसिह तोमर एम. ए. ६।३६४ -सपादक ७।३६३
अपभ्रंश भाषा का जम्बस्वामी चरिउ और महाकवि वीर अकलंक देव के चित्रकाव्य का रहस्य और हारावली
--परमानन्द शास्त्री १३।१४६ चित्रस्तव-संपादक ११५२० ।
अपभ्रंश भाषा का जैन कथा साहित्यअकलक देव के चित्रकाव्य का रहस्य और हारावली पं. परमानन्द जैन शास्त्री ८।२७३ चित्रस्तव-संपादक ७।५८०
अपभ्रंश भाषा का नेमिनाथ चरित-परमानन्द शास्त्री अछता समृद्ध जैन साहित्य-रिषभदास रांका २१४१७४
११४१४ अजीमगढ भडार का रजताक्षरी कल्पसूत्र
अपभ्रंश भाषा का पार्श्वनाथ चरित्र-परमानन्द जैन भंवरलाल नाहटा १७११७८
१३१५ अजान हिन्दी कवि टेकचन्द्र व उनकी रचनाएँ- अपभ्रश भाषा का पास चरिउ और कविवर देवचन्द-- श्री अगरचंद्र नाहटा १५२६८
परमानन्द शास्त्री १११२२१ अतिप्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह-परमानन्द शास्त्री ३।२५६ अपभ्रंश भाषा का शातिनाथ चरित्रअतरिक्ष पार्श्वनाथ विनंति-नेमचंद्र धन्नूसा जैन ६०६१ परमानन्द शास्त्री ५२२५३ अध्यात्म तरंगिणी टीका-पं. परमानन्द जैन शास्त्री १०.३० अपभ्रश भाषा की दो लघुरासो रचनाएँअध्यात्म दोहावली-श्री रामसिंह, प. हीरालाल शास्त्री डा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री १८१८४ १४।२५२
अपभ्रंश भाषा के अप्राकाशित कुछ ग्रन्थअध्यात्म बत्तीसी-अगरचंद्र नाहटा २१७१७२
पं. परमानन्द जैन शास्त्री १२।२६३ अनेकान्त का छोटेलाल जैन विशेषांक-१८।२७५
अपभ्रंश भाषा के दो ग्रंथ-पं. दीपचद्र पांड्या ४१५१६ अनेकान्त के अद्वितीय विशेषांक की योजना-६२५
अपभ्रंशभाषा के प्रसिद्ध कवि पं. रइधूअनेकान्त के पन्द्रहवें वर्ष की सूची-१६१४२
पं. परमानन्द शास्त्री ५१४०१ अनेकान्त जैन समाज का गौरव है-विशेष प्रक ६१८
अपभ्रशभाषा के दो महाकाव्य और कवि नयनन्दीअनेकान्त प्रकाशन-श्री वंशीधर शास्त्री एम.ए. १२४७
4. परमानन्द शास्त्री १०.३१३ अनेकान्त बहिर्लापिका-पं. धरणीधर शास्त्री श२०६ अन्यत्र प्राप्त प्रजित प्रभु चरित्र-श्री प्रगरचंन्द्र नाहटा
अपराजतिसूरि भौर विजयोदया-प. परमानन्द जी २।४३७
अपराधक्षमास्तोत्र (रत्नाकर)-संपादक १०४१ १०१३३१
अभयचन्द्र सिद्धात चक्रवर्तीकृत सस्कृत कर्मप्रकृतिअपभ्रंश कवि पुष्पदन्त-प्रो. देवेन्द्रकुमार एम.ए. १४।२६२
डा. गोकुलचन्द्र जैन १९।३३५ अपभ्रश चरित काव्य-डा. देवेन्द्रकुमार १९८४ अपभ्रंश का एक प्रमुख कथा काव्य
अमृतचन्द्र सूरि का समय-पं. परमानन्द जैन शास्त्री डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री १७१२६३
८१७३ अपभ्रंश का एक प्रेमाख्यानक काव्य विलासवईकहा- मर्थप्रकाशिका मोर पं. सदासुखदास जीडा. देवेनकुमार शास्त्री १७११६९
परमानन्द शास्त्री ३१५१४
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२. साहित्य
२०३
महंन्नुतिमाला (माघनन्दी) -संपादक १०॥३५३ अलम्य ग्रन्थोंकी खोज-डा. कस्तूरचंद्र १६।२२,१६।१६८,
१६।२२५ प्रष्टसहस्त्री की एक प्रशस्ति-संपादक १०७३
उपाध्याय मेघविजय के मेघ महोदय में उल्लिखित कतिपय
मप्राप्त रचनाएँ-प्रगर चंद नाहटा २१॥३६
एक अनूठी जिन स्तुति-संपादक ४॥१८५
भाचार्य अनंतवीर्य और उनकी सिद्धिविनिश्चय टीका- ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन बम्बई के कुछ न्यायाचार्य पं. दरबारी लाल दा२
हस्तलिखित ग्रथो की सूची-संपादक ५१६७ माचार्य जिनसेन और उनका हरिवंशपं. नाथूराम प्रेमी ४।५८६
कतिपय प्रकाशित ग्रंथों की अप्रकाशित प्रशस्तियोआचार्य जिनसेन का काव्य सिद्धान्त-डॉ. नेमिचंद शास्त्री श्री अगरचंद्र नाहटा १०१३३१ १६।३
कथा कहानी-अयोध्याप्रसाद गोयलीय २।२४२, २१३०१, प्राचार्य माणिक्यनदी के समय पर अभिनव प्रकाश
२१३५७, २१४२२, २१४४३, २१४६१, २१५७३ न्या. पं. दरबारीलाल ८१३४६, ८।३७४
कथा कहानी-माईदयाल जैन बी. ए. बी. टी. २०६६ आचार्य सकलकीति और उनकी हिन्दी सेवा
कवि छीहल-परमानद शास्त्री २१।२२६ पं. कुन्दनलाल जैन १९१२४
कवि टेकचन्द रचित श्रेणिकचरित मोर पुण्याश्रव कथाप्राचार्य सोमकीति-कस्तूरचन्द्र कासलीवाल १६।६२
कोप-अगरचद्र नाहटा २१११३४ आचार्य हेमचन्द्र-श्री रतनलाल सघवी न्यायतीर्थ १२४४, कवि ठकुरसी और उनकी रचनाएँ-परमानन्द शास्त्री २।२६५, २०३३५
१४।१० प्राचार्य हेमचन्द्रके योगशास्त्रपर एक प्राचीन दिगम्बर टीका कवि पद्मसुन्दर और दि. श्रावक रायमल्ल-श्री जुगलकिशोर मुख्तार २०११०७
। श्री अगरचद्र नाहटा १०११६ आत्म सबोधक अध्यात्म पद-कविवर दौलतराम १२२३६१ कवि बनारसीदास-कुमार वीरेन्द्रप्रसाद १०।६६ प्रात्मानुशासन का एक सदिग्ध पद्य-श्री लक्ष्मीनारायण कवि बल्ह या बचिराज-परमानद जैन शास्त्री १६।२५३ जैन ८।२४
कविवर ठकुरसी कृत पचेन्द्रिय वेलि-डा० नरेन्द्र भानावत भादिकालीन चर्चरी रचनाओ की परम्परा का उद्भव १६२०३
और विकास-डॉ. हरीश १५५१४३, १५:१८० कविवर देवीदास का परमानंद विलास-डा. भागचन्द्र जैन आधुनिक भाषानी की व्युत्पत्ति के लिए जैन साहित्य का एम. ए. पी. एच. डी. २०१२८२ महत्व-बा. ज्योतिप्रसाद एम. ए. ८।२२५
कविवर दौलतरामजी-परमानन्द शा० ११४१५२ भाप्तपरीक्षा का प्राक्कथन-पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री १०१२१३ कविवर द्यानतराय-परमानन्द शा० ११११७३ प्राप्तमीमासा और रत्नकरण्ड का भिन्न कर्तृत्व- कविवरबुधजन और उनकी रचनाएं-परमानन्द शा. १९२२४३ डा. हीरालाल एम, ए. EE
कविवर पं. श्रीपाल का व्यक्तित्व एव कृतित्व
डा. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल २०४६ इज्जत बड़ी या रुपया-अयोध्याप्रसाद गोयलीय ६।७२ कविवर बनारसीदास और उनके ग्रंथों की हस्तलिखित
प्रतियाँ-मुनि कांतिसागर ८४४०२ उत्तरपुराण में पूर्वापर विरोध-प्रो. बनारसीदास ११३६० कविवर भगवतीदास-परमानंदे शास्त्री १४१२२७ उपाध्याय पद्मसुन्दर और उनके ग्रन्थ
कविवर भगवतीदास और उनकी रचनाएंअगरचन्द्र नाहटा ४१४७०
पं. परमानन्द शास्त्री ११३
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अनेकान्त
२०४, वर्ष २२ कि. ५
ग
कविवर भगवतीदास (अग्रवाल) और उनकी रचनाएँ- क्षत्रचूड़ामणि और उसकी सूक्तियां-पं. सुमेरचन्द्र दिवाकर परमनन्द शास्त्री ११।२०५
बी. ए., एल. एल. बी. ५।१४४ कविवर भाऊ की काव्य साधना-डा. कस्तूरचंद्र
क्या द्रव्य सग्रह के कर्ता व टीकाकार समकालीन नहीं हैं ? कासलीवाल १७॥१७२
-परमानन्द शास्त्री १६२६६ कविवर भूधरदास और उनकी विचारधारा-पं. परमानंद क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समतभद्र एक है ? शास्त्री १२।३०५
-न्या. पं. दरबारीलाल ६।३३ कविवर लक्ष्मण और जिनदत्त चरित्र-पं. परमानन्द जैन क्या व्याख्याप्रज्ञप्ति षट् खडागम का टीका ग्रथ था?शास्त्री ८१४००
श्री प. कैलाशचन्द्र जन १५॥६ कविवर रइधु द्वारा स्मृत विद्वान-परमानन्द जैन ११२१७ क्या रत्न. कर्ता स्वामी समंतभद्र ही है?कविवर रइधू रचित सावय चरिउ-श्री अगरचद्र नाहटा पं. नाथूराम प्रेमी ७।२६ १७.१०
क्या रत्नकरण्ड श्रावकाचार स्वामी समन्तभद्र की कृति कविराजमल्ल का पिंगल पीर भारमल्ल-संपादक ४।१३३, नहीं है ?-न्या. प. दरबारीलाल ६।३७६ ४२४५, ४।३०३
क्या रत्नकरण्ड श्रा. स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं है ?कर्णाटक जैन कवि-श्री नाथूराम प्रेमी ११८१, १३१६१, प. दरवारीलाल ७।१०५, ७।१८६
११३३३, ११४५६ कर्णाटक साहित्य मोर जैन कवि-प. के. भुजवली शास्त्री गदर से पूर्व की लिखी हुई ५३ वर्ष की जन्तरी खास११४७१
संपादक ८।१० कला का उद्देश्य-प्रो. गोकुलप्रसाद जैन एम. ए.१४॥२७१ गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ है-पं. परमानन्द शास्त्री कल्पसिद्धांत की सचित्र स्वर्णाक्षरी प्रशस्ति-कुन्दनलाल ३।२९७ जैन एम. ए. १८।१७५
गोम्मटसार और नेमिचद्र-संपादक ८।३०१ कल्पसूप की एक प्राचीन लेखक प्रशस्ति-डा. वासुदेवशरण
गो० कर्मकाण्ड की त्रुटि पूति-पं. परमानन्द शा. ३१५३७ अग्रवाल १०२२
गो० कर्मकाण्ड की त्रुटिपूर्ति के विचार पर पर प्रकाश कसाय पाहुड मौर गुणधराचार्य-परमानन्द शास्त्री १४८
-प. परमानन्द शास्त्री ३१७५७ कार्तिकेयानुप्रेक्षा एक अध्ययन-हा. ए. एन., उपाध्ये एम. गो० कर्मकाण्ड की त्रुटिपूर्ति पर विचार-प्रो. दीरालाल ए. डी. लिट् १५।२४
जैन ३१६३५ कुछ प्रशात जैन ग्रंथ-हीरालाल सि. शा. १९२३५१ गो० कर्मकाण्ड की त्रुटिपूर्ति लेख पर विद्वानोक विचार कुछ नई खोजें-परमान्द शास्त्री १११३७०
और विशेष सूचना-संपादक ३१६२७ कुछ अप्रकाशित कथा ग्रंथ-कुन्दनलाल जैन एम.ए. एल. गोम्मटसार जीवकांड का हिन्दी पद्यानुवादटी. १५॥३२
पं. परमानन्द शास्त्री १२।२५४ कुमुदचन्द्र भट्टारक-पं. के. भुजबली शास्त्री १११७८
गंधहस्ती-पं. सुखलाल श२१६ कुरल काव्य और जैन कर्तृत्व-विद्याभूषण पं.गोविन्दराय अन्य बोर अन्धकार (मुलाचार मौर कार्तिकेयानुप्रेक्षा)शाची १२१६१२००
संपादक ८।२२७ कुलपारमाणिक स्वा . विद्यापर बोहरापुरकर ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह पोर दि० जैन समाज२११३३
श्री प्रगरचन्द्र नाहटा ५४६ कुलपाक के माणिक स्वमी -पं.के. भुजबली शास्त्री प्रथों की खोज के लिये ६०.) के छह पुरस्कार२१११३१
जुगलकिशोर मुख्तार १३१५५
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जैन तंत्र साहित्य - डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल १८१३३
चतुर्थ वाग्भट्ट और उनकी कृतियाँ - पं. परमानन्द शास्त्री जैन मन्दिर सेठ के कूंचा देहली की ग्रंथसूची ४।४७२ जैन मुनियो के नामान्त पद-प्रगरचन्द नाहटा ४।१४५
६८७६
जैन लक्षणावली
चतुविशति तीर्थंकर जयमाला (स्तुति) -
श्री बाजीवर १५।१४७
चर्चरी का प्राचीनतम उल्लेख डा. दशरथ शर्मा एम. ए.
डी. लिट् १५२८६
चारुकीति गीत डा. विद्याधर जोहरापुरकर २०२०
२. साहित्य
-
चित्रदर्शन चित्र परिचय, २०६३, ११६७०
,
चुनडी ग्रंथ - पं. दीपचन्द्र पांड्या ५।२५७
१४वीं शताब्दी की एक हिन्दी रचना
प. कस्तूरचन्द कासलीवाल एम. ए. १२।२३ छ
छ कोष और शीन सरक्षणोपाय छप चुकेश्री मगरचन्द नाहटा १४।२०६
ज
जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला (सम्पादकीय नोट सहित ) - दीपचन्द्र पाया २६११ जगत्सुन्दरी प्रयोगमाना की पूर्णता संपादक २०६८५ जयपुर की संस्कृतसाहित्यको बेन श्रीपुण्डरीक विट्ठल ब्राह्मण, डा. श्री प्रभाकर शास्त्री १८१८७ जसहर चरिउ की एक कलात्मक सचित्र पाण्ट्रलिपी
डा. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल १६।५१ जीरापल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र. जुगलकिशोर मुख्तार
२४६
जैन अपभ्रंश का मध्यकालीन हिन्दी के भक्तिकाव्य पर प्रभाव - डा. प्रेमसागर जैन १५।५७, १५/१२३ जैन कथा साहित्य की विशेषताएँ- डा. नरेन्द्र भानावत १९।१३१
जैन काव्य में विरहानुभूति - गंगाराम गर्ग २२०३३ प्रशस्ति संग्रह २४१३३, २४६४ ९४२१४ १४१४७, १४२११, १४२४३, १४१२७४, १४३०७, १४१३५२
जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह पर मेरा अभिगत--- प. दरबारीलाल कोठिया १७३३
जैन चम्पू काव्यों का अध्ययन-अमरचन्द नाहटा १२२६७
२०५
—
- सपादक ३।१२६
जैन शास्त्र भडार सोनीपत में मेरे पांच दिन
माईदयाल जैन बी. ए. बी. टी. १६८
जैन साहित्य का अनुशीलन- डा. इन्द्रचन्द्र एम. ए. १५१३१ जैन साहित्य का दोषपूर्ण विहगावलोकन
प. परमानन्द जैन शास्त्री १२।२५६
जैन साहित्य के प्रचार की आवश्यकता - सुरेन्द्र ४५३ जैन साहित्य मे श्रार्य शब्द का व्यवहार-साध्वी श्री मजुला
१४।७४
जैन साहित्य मे प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री
श्री वासुदेवशरण प्रवाल क्यूरेटर ५३१३ जनसिद्धांत भवन मूडबिदी की ग्रंथसूची ४५६८ जैन संत भ. बीरचन्द्र की साहित्य सेवा- डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल एम. ए. पी. एच. डी. १५२० जिन स्तुति पर्चाविशतिका - महाचन्द्र १४ ३१५ जैनियो का अपना साहित्य मुनि कातिसागर ४४०१ जेसलमेर के महारो के प्राचीन ग्रंथों के फोटू
मुनि हिमाशुविजय १६०५
जैसलमेर के भंडारों मे प्राप्त कुछ नवीन ताडपत्रीय प्रतियां - श्री भगरचन्द नाहटा ८|४४ ज्ञानार्णव योगशास्त्र एक तुलनात्मक अध्ययनबालचन्द्र सि. शा. २०१७
ज्ञानसागर की स्फुट रचनाएँ - डा. विद्याधर जोहरापूरकर
२१।१७० z
डा. जेकोबी और वासी चन्दन कल्प - मुनि श्री महेन्द्रकुमार द्वितीय १८१२४७
ส
वार्थसूत्र का मंगलाचरण-क्या. पं. दरबारीलाल कोठिया ५।२२१, ४३६३
तवायंसूत्र के प्रणेता उमास्वामी पं. सुखलाल १३८५ तत्वार्थ सूत्र के व्याख्याकार और व्याख्याएँ
'
पं. सुखमा १५७९
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२०६२२०५
अनेकान्त
तत्त्वार्थाधिगम भाष्य और कलंक प्रो. जगदीशचन्द्र
३।३०४, ३।६२३
तत्त्वार्थाधिगम भाष्य धौर कलंक पर विचारणासंपादकीय ३।२०७
तत्वार्थाधिगम सूत्र की एक सटिप्पण प्रति-संपादक ३।१२१ तत्त्वोपदेश छहढाला एक समालोचना-
श्री पं. दीपचन्द्र पाण्ड्या १५६२
तमिल भाषा का जैन साहित्य-प्रो. ए. चवत २०४८७ ३.५६७ ३।७२१
तमिल भाषा का जैन साहित्य-प्रो. ए. चक्रवर्ती ४१०५०
४२२०४३३९ ४३६५४५५७, ४६१३ तामिल भाषा का जैन साहित्य-प्रो. ए. चक्रवर्ती ५५६ दिकरण (तमिलवेद) एक जैन रचना-मुनि श्री नगराज १६।२४६
तीन चित्र - जमनालाल 'साहित्यरत्न' ९| ३४१ तेरह काठियावा. ज्योतिप्रसाद जैन एम. ए. ८३९५ तेरह काठिया सबधी श्वे. साहित्य - श्री भगरचन्द नाहटा
८।४५७
तेरहवी चौदहवी शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्यडा. श्यामशकर दीक्षित १७।१०८
त्रिभुवनगिरि व उसके विनाश सम्बयोमे विशेष प्रकाश
अगरचंद नाहटा ८।४५६
- त्रिलोकप्रज्ञप्ति मे उपलब्ध ऋषभदेवचरित्र -- प. परमानन्द शास्त्री ४।३०७
त्रैलोक्य प्रकाश का रचना समय - अगरचंद नाहटा ७/६०
थ
रावली विषयक विशेष नोट- संपादक १३०३
द
दलपतराय और उनकी रचनाएँ- डा. प्रभाकर शास्त्री १७/१३५
दशर्वकालिक के चार शोध टिप्पण - मुनि श्री नथमल १७/२२२
दिगम्बर कवियों के रचित फागुकाव्य- श्री अगरचंद नाहटा १६।१८८ दिगम्बर कवियों के रचित वेनिसाहित्य श्री प्रगरचद नाहटा १७१३१
दिगम्बर जैन प्रन्थ सूची धगरचंद नाहटा ४१३३६ दिगम्बरपरम्परा में श्राचार्य सिद्धसेन --- प. कैलाशचंद्र सि. शास्त्री २१/८६
देवागम स्तोत्र और उसका हिन्दी अनुवादप. बालचंद्र सि. शास्त्री २१०७५
दौलतराम कृत जीवंपर चरित्र एक परिचयश्री अनुपचन्द्र व्यायतीचं १५४१
द्वासप्तति तीर्थकर जयमाल (ब्र. महेश ) - पं. दरबारीलाल कोठिया १०।१६४
द्रव्यसंग्रह के कर्त्ता और टीकाकार के समय पर विचारपरमानन्द शास्त्री १६।१४५
ध
धनपाल की भविष्यदत्त कथा के रचना काल पर विचारपरमानन्द शास्त्री २२२
धनपाल नाम के चार विद्वान - परमानन्द शास्त्री ७१८२ धनपाल विरचित भविसयत्तकहा और उसकी रचना तिथि -डा. देवेन्द्र कुमार जैन २०३३ धवलादि श्रुत परिचय - संपादक ३१३, ३।२०७ धवलादि सिद्धात ग्रंथों का उद्धार- सपादक विवेकाभ्युदय १२११०३
धर्म पंचविशतिका (ब्रह्मजिनदास) विरचित - जुगलकिशोर मुख्तार १३।२५६ धर्मरत्नाकर मौर जयसेन नाम के प्राचार्य - प. परमानन्द शास्त्री ८।२००
धर्मस्थानो में व्याप्त सोरठ की एक कहानीमहेन्द्र भनावत एम. ए. १५०२६४
धार्मिक साहित्य मे पश्लीलता - किशोरीलाल घनश्यामदास मशरूवाला ४।४८२
न
नया मन्दिर देहलीके कुछ हस्त लिखित ग्रंथों की सूचीसपादक ४।३४५
नया मन्दिर देहली के हस्त लिखित हिन्दी ग्रांथों की सूची - सम्पादक ४।४२१
नागार्जुन और समंतभद्र-प. दरबारीसाल ७।१०
नागकुमार चरित और कबि धर्मधरं परमानन्द १३।२२७ नागौर जयपुर, और थामेर के कुछ हस्तलिखित ग्रंथों की सूनी-संपादक ५३९९
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२. साहित्य
नागौर के भट्टारकीय भडार का अवलोकन
प. भागचन्द्र जी-परमानंद शास्त्री-१४।१४ ।। अगरचन्द नाहटा ११११२८
पं. शिरोमणिदास विरचित धर्मसार-डा. भागचद्र जैन नालदा का वाच्यार्थ-सुमेरचन्द्र दिवाकर एम. ए. एल. एल. बी. १४१३३१
प. सदासुखदास जी-प. परमानंद शास्त्री १०।२९७ नेमिनाह चरिउ-श्री अगरचन्द्र नाहटा १७।२२६ प्रतिष्ठातिलक के कर्ता नेमिचद का समय
प. मिलापचंद्र कटारिया २११२३ पउमचरिय और पा चरित्र-श्री नाथूराम प्रेमी ५।३८ प्रतिष्ठासार का रचनास्थल-के. भुजबली शास्त्री ८१३६३ पउमचरिय का अन्तःपरीक्षण-पं. परमानंद शास्त्री ५॥३३७ प्रद्युम्न चरित्र का रचनाकाल व रचयितापरमात्मराजस्तोत्र-स. जुगलकिशोर मुख्तार ६१६८ श्री अगरचद्र नाहटा १४।१७० परीक्षामुख सूत्र और उनका उदगम
प्रभाचंद्र का तत्त्वार्थमूत्र-मपादक ३।३६३, ३१४३३ न्या. प. दरबारीलाल कोठिया ५।११६
प्रमाणनयतत्वालोकालकार की आधारभूमिपाडे रूपचंद्र और उनका साहित्य-प. परमानन्द शास्त्री परमानन्द शास्त्री २१५८४ १०७५
प्रमेयरत्नमाला का पुरातन टिप्पण-१०१४२६ पुराने साहित्य की खोज-श्री जुगलकिशोर मुख्तार प्राकृतपचसग्रहका रचनाकाल-प्रो. हीरालाल जैन ३।४०६ १४१२५, १४१६३, १४११७३, १४।२०३
प्राक्कथन (समीचीन धर्मशास्त्र)-डा. वासुदेवशरण प. जयचन्द्र और उनकी साहित्य सेवा-परमानंद शास्त्री
अग्रवाल १३१२५० १३।१६६ पचाध्यायी के निर्माण में प्रेरक-प. जुगलकिशोर मुख्तार बनारसीदास के काव्य में भक्ति रस१४।११३
डा. प्रेमसागर जैन १६१०४ पचायती मन्दिर देहली की ग्रन्थ सूची-४।४६४, ४१५६१ बनारसी नाममाला पर विद्वानो की सम्मतिया ४१५९६ पचायतीमदिर सोनीपतके कुछ हस्तलिखित प्रथोंकी सूची बारडोली के जैन सत कुमुदचद्र-सपादक ५१२१५
डा. कस्तूरचद कासलीवाल १५२१० पण्डितप्रवर पाशाघर-प. नाथूराम प्रेमी ३।६६६, ३।६६७ बदेलखण्ड के कविवर देवीदास-परमानंद शास्त्री ११०२७५ पण्डितप्रवर टोडरमल जी और उनकी रचनाएं- बिहारी सतसई पर एक दृष्टि-बा. माणिकचद्र ६११३८ परमानंद जैन ६।२६३
ब्रह्म जीवघर और उनकी रचनाएँ-परमानन्द शास्त्री पं. दीपचन्द्र शाह और उनकी रचनाए
१७।१४० परमानंद शास्त्री १३।११३
ब्रह्म ज्ञानसागर और उनकी रचनायेपं. दीपचन्द्र शाह और उनकी रचनाए परिशिष्ट
प. कुन्दनलाल जैन एम. ए. १६०८६ परमानन्द शास्त्री-१३११८३
ब्रह्म नेमिदत्त और उनकी रचनायें-परमानन्द शास्त्री पं. दौलतरामजी और उनकी रचनाएं
१८१८२ प. परमानंद शास्त्री १018
प. पद्मसुन्दर के दो प्रथ-प. नाथूराम प्रेमी ७४६ भक्तामरस्तोत्र-पं. अजितकुमार शास्त्री २०६६ पं. भगवतीदास का ज्योतिषसार
भगवती पाराधना और उसकी टीकाये-प. नाथूराम प्रेमी डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर २११६५
१।१४५, १०२०६ पं. भगवतीदास कृत वंद्य विनोद
भगवती पाराधना और शिवकोटि-परमानन्द जैन शास्त्री डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर २०१६
२।३७१
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२० वर्ष २२ कि०५
भगवती माराधना की दूसरी प्राचीन टीका टिप्पनिया- महाकवि रइधू कृत सावय परिउ-हा. राजाराम जैन सम्पादक २१५७
१६४१०१ भगवतीदास नाम के चार विद्वान-पं. परमानंद शास्त्री महाकवि रइधू द्वारा उल्लिखित खेल्हा ब्रह्मचारी७१५४
प्रो. राजाराम जैन १५२१६ भट्टारक श्रुतकीर्ति और उनकी रचनाएँ-परमानंद शास्त्री महाकवि रत्न-पं. शांतिराज शास्त्री ०४ १३३२७६
महाकवि श्री हरिचंद्र का राजनीति वर्णनभद्रबाहु निमित्तशास्त्र-वंद्य जवाहर लाल १०१२३५,
4. कैलाशचद्र शास्त्री ११२३५ १०।२६१, १०१३३५, १०॥४१३
महाकवि समयसुन्दर और उनका दानशील तप भावना भ. विश्वभूषण की कतिपय अज्ञात रचनाएं
संवाद-सत्यनारायण स्वामी एम. ए. २०११४० श्री अगरचन्द्र नाहटा १८।१५८
महाकवि सिह मोर प्रद्युम्न चरित्रभव्यमार्गोपदेश उपासकाध्ययन-क्ष. सिद्धसागर १३।१७६
प. परमानंद जैन शास्त्री ८।३८६ भव्यानंद पंचासिका भक्तामर स्तोत्र का अनुवाद
महाकवि स्वयभू और त्रिभुवन स्वयभू-प. नाथूराम प्रेमी
५।२९७ मुनि श्री कांतिसागर १७१८३ भ. शुभकीर्ति और शान्तिनाथ चरित-परमानन्द शास्त्री
महाकवि हरीचद का समय-पं. कैलाशचद जैन शास्त्री
८१३७६ २११०
महाकवि स्वयम्भू और उसका तुलसीदासजी की रामायण भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा१९६६ का पुरस्कार घोषित
पर प्रभाव-परमानन्द शास्त्री १४।१०६ लक्ष्मीचन्द्र जैन २०६१ भाषा साहित्य का भाषा विज्ञान की दृष्टि से अध्ययन
महाधवल अथवा महाबध पर प्रकाश
प. सुमेरचंद दिवाकर B. A. शास्त्री ५४०५ श्री माईदयाल जैन बीए. बी. टी. १३।२१० भूधरदास का पार्श्वपुराण : एक महाकाव्य
महान् सन्त भ. विजयकीति-डा. कस्तुरचद कासलीवाल श्री सलेकचन्द्र जैन एम. ए. १८६११६
२०११३७ भूपाल चौबीसी की एक महत्वपूर्ण सचित्र प्रति
महापुराण कालिका और कवि ठाकुर-परमानन्द शास्त्री अगरचन्द्र नाहटा १८१५६
१३।१८६ महापुराण कलिका की प्रतिम प्रशस्ति-परमानंद
१३३२०२ मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में शांताभक्ति
महावीर का गृहत्याग-डा. कस्तूरचद कासलीवाल १७:१९ डा. प्रेमसागर जैन १८१६४
मानवता के पुजारी हिन्दी कवि-कन्हैयालाल प्रभाकर मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य में प्रेमभाव
६।११५ डा. प्रेमसागर जैन १५२२५१
माणिकचन्द : एक भक्त कवि-गंगाराम गर्ग एम. ए. मन्दालसा-स्तोत्र (शुभचद्र)-सम्पादक १०३८५
१७।२७८ मराठी जैन साहित्य-डा. विद्याधर जोहरापुरकर मुद्रित श्लोक वातिक की त्रुटि पूर्ति-प. परमानंद ६।३४३ १५२२५३
मुनिसुवत काव्य के कुछ मनोहर पद्यमरुदेवी स्वप्नावली-अनु. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य ५॥१७ प. सुमेरचंद दिवाकर ४११७० महाकवि पुष्पदन्त-पं. नाथूराम प्रेमी ४।४०५, ४१४५५ मूलाचार के कर्तृत्व पर नया प्रकाशमहाकवि रइधु-पं. परमानन्द शास्त्री १०॥३७७,
प. हीरालाल सि. शा. १३११८ १११२६५, ११।३१७
मूलाचार सग्रह ग्रंथ है-परमानन्द शास्त्री २।३१६
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साहित्य
मृगपक्षी-शास्त्र-उद्वत ४१५४३
वादिराज सूरि-पं. माथूराम प्रेमी ५११३६ मृत्यु महोत्सव-जमनालाल जैन ६।१४०
वादिचन्द्र रचित अम्बिका कथासार-श्री प्रगरचंद नाहटा मेरी भावना (कविता) अतिरिक्त पृष्ठपूर्व ६।१५३
१३।१०७ मेरी भावना का सस्कृत पद्यानुवाद
वादीसिंह मूरि की एक प्रधुरी अपूर्व कृतिप. धरणीधर शास्त्री ४।२३४
पं. दरबारीलाल कोठिया ६।२६१ मोक्षमार्गस्यनेत्तारं-या. प. महेन्द्रकुमार ५१२८१ विदर्भ के दो हिन्दी काव्य-डा. विद्याधर जोहरापुरकर मोह-दिवेक-युद्ध-परीक्षण-डा. रवीन्द्र जैन तिरुपति
१९९७ १८११०७
विदर्भ में गुजराती जैन लेखक-प्रो. विद्याधर जोहरापुरकर मौजमाबाद के जैन शास्त्र भण्डार में उल्लेखनीय ग्रंथ- १४।२०६ परमानन्द शास्त्री १३८०
विद्यानन्द का समय-पं. दरबारीलाल कोठिया ७६७ मंगलाचरण पर मेरा अभिमत-पं. सुमेरचन्द्र दिवाकर विद्यानन्द कृत सत्यशासन परीक्षा-4. महेन्द्रकुमार शा. ५।२६४
३१६६०
विश्ववाणी का जैन सस्कृति अंक-सम्पादक २४ योग सम्बन्धी जैन साहित्य-श्री अगरचद नाहटा १६।२३७ विश्व शद्धि पर्व पर्यषण-बाबू बालचन्द कोछल १११२३३ यशस्तिलक का संशोचन-पं. दीपचद पाड्या ५२७७
वीतगगस्तवन के रचयिता-अगरचंद नाहटा १२।११३ यशोधरचरित्र के कर्ता पद्मनाथ कायस्थ
वीर की लोकसेवा-माणिकचंद बी. ए. ७.३ प. परमानन्द शास्त्री १०.१५१
वीर के वैज्ञानिक विचार-पं. धर्मकुमार जैन एम. ए. यशोधरचरित्र सम्बन्धी जैन साहित्य-प्रगरचन्द नाहटा
७.१३६ १।१०८
बीरनन्दी और उनका चन्द्रप्रभचरित्र-अमृतलाल शास्त्री यापनीय साहित्य की खोज-पं नाथराम प्रेमी ३१५६
११४८ युक्तयनुशासन : एक अध्ययन-दराबारीलाल जैन कोठिया
वीर शासन के कुछ मूल सूत्र-युगवीर १११५६ २२१७३
वीरशासनाक पर सम्मतियां ३।२३५, ३।२९२, ३।२६६ योगीन्द्रदेव का एक और अपभ्र श ग्रंथ-ए. एन. उपाध्ये
वीरसेनाचार्य-अयोध्याप्रसाद गोयनीय २।३३५
व्यक्तित्व-प्रयोध्याप्रसाद गोयलीय ९।३५५, ६।३०६ योनिप्राभूत मौर जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला--सम्पादक २०४८५
र इधू कृत "सावय चरित्र" समत्तकउमई ही हैयोनिप्राभूत और प्रयोगमाला-पं नाथूराम प्रेमी १६६६
प्रो. राजाराम जैन एम.ए. १७४२५० वरदत्त की निर्वाण भूमि और वराग के निर्वाण पर विचार
रतनचंद और उनका काव्य-गाराम गर्ग एम. ए. पं. दीपचन्द जैन पाण्डया ॥६६
१७।१५०
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसा का एक कर्तृत्व अभी तक वरांगचरित्र दिगम्बर है या श्वेताम्बर ?-पं. परमानंद शास्त्री ४१६२३
सिद्ध नहीं-प्रो. हीरालाल जैन एम. ए. ८२६, वसुनन्दि के नाम से प्राकृत का एक संग्रह ग्रंथ : तत्वविचार
८८६, ८।१२५ प्रो. प्रेमसुमन जैन एम. ए. शास्त्री २२।३६ रलकरण्ड पौर प्राप्तमीमांसा का एक कर्तृत्व प्रमाण सिद्ध वाग्भट्ट के मंगलाचरण का रचयिता
है-न्या. पं. दरबारीलाल जैन ८.१५४, ८२८२, श्री क्षुल्लक सिद्धसागर १७५२४८
८।३२८, ८।४१५
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२१०, वर्ष २२ कि० ५
अनेकान्त
रत्नकरण्ड के कर्तृत्व विषय में मेरा विचार और निर्णय- श्वेतांबर न्याय साहित्यपर एक दृष्टि-पं. रतनलाल ३३१७७ ' 'जुगलकिशोर मुख्तार ६।५, ६।५६. ६।१००, ६।१२७ श्री प्रकलंक और विद्यानन्द की राजवातिकादि कृतियों रत्नकरण्ड के टीकाकार प्रभाचंद का समय
पर पं. सुखलालजी के गोषणापूर्ण विचार-संपादक न्या. पं. दरबारीलाल जैन ८४६६
५२७५ रत्नकर श्रा. और भाप्त मीमांसाका कर्तृत्व-प्रो. हीरालाल श्रवण बेल्गोल और इन्दौर के हस्तलिखित ग्रन्थों की सूचीजैन ७.५२, ७६२
संपादक श२६६ रत्नाकरवर्णी और उनका रत्नकराधीश्वर शतक- श्रावक प्रजप्ति का रचयिता कौन ?-श्री बालचन्द सि. पं. के. भुजबली शास्त्री १२५१
शास्त्री १८११० रद्दी में प्राप्त हस्तलिखित जैन अर्जन प्रथ-सम्पादक
श्री ग्रगानन्द नाहटा के लेख पर नोट८४४६
पं. परमानन्द शास्त्री १०.३५१ राजस्थान के जैन साहित्य भंडारों से उपलब्ध महत्वपूर्ण
श्री अमरनन्दमरि कृत एक अपर्व ग्रंथसाहित्य-कस्तूरचंद एम. ए. १३१४६
डा. ए. एन. उपाध्ये २० टाइटल २ राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों से हिन्दी के नये साहित्य । की खोज- कस्तूरचंद काशलीवाल एम. ए.
श्री कुन्दकन्द और यतिवृषभ में पूर्ववर्ती कौन
सपादक २०१३ १४।२८६, १५३३३
श्री कन्दकन्द और समन्तभद्र का पूर्ववर्ती तुलनात्मक राजस्थानी जैन वेलि साहित्य : एक परिचयप्रो. नरेन्द्र भानावत एम. ए. १५।१८६
अध्ययन-बाल ब्र० विद्युल्लता बी. ए. १३।१६१
श्रीचन्द और प्रभाचन्द-पं. नाथराम प्रेमी ४१८२ राजस्थानी भाषा का प्रध्यात्म-गीत
श्रीचन्द नाम के तीन विद्वान-परमानन्द शास्त्री ७१०३ . १७४१४६ राजमाता विजया का वैराग्य-सुमेरचन्द्र दिवाकर शास्त्री
श्री चारुकीति भट्टा. भडार-मूडबिद्री के कुछ हस्तलिखित १४।१६३
___ ग्रन्थो की सूची-सपादक ५२०६ रामचरित्र का तुलनात्मक अध्ययन-मुनि श्री विद्यानद जी श्री छोटेलाल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ-कस्तूरचन्द कासलीवाल १६।३१५
१८।३७, १८७८ रुपक काव्य परम्परा-परमानद शास्त्री १४।२५६ श्री जिज्ञासा पर मेरा विचार-क्ष, सिद्धसागर १२
___टाइटिल ३ लोक विभाग का रचना स्थान-बा. कामता प्रसाद श२२१ श्री धवल का रचनाकाल-श्री प्रफूल्लकुमार मोदी ८।३७
श्री धवला का समय-बा. ज्योतिप्रासाद ७२०७ शब्द-साम्य और उक्ति-साम्य-मुनि श्री नगराज १७.१०० श्रीधर या बिबुध श्रीधर नाम के विद्वानशब्द चिन्तन, : शोध दिशाएँ-मुनि श्री नथमल १८८ प. परमानन्द जैन शास्त्री ८।४६२ शासन चतुस्त्रि शिका (मुनि मदन कीर्ति कृत)
श्रीपालचरित्र साहित्य-अगरचन्द नाहटा २६१५५ ___पं. दरबारीलाल कोठिया ६।४१०
श्रीपालचरित्र साहित्य के संबंध में शेष ज्ञातव्यशान्तिनाथ फागु कुन्दनलाल जैन एम. ए. १६।२८२
आगरचन्द नाहटा ३।४२७ शान्ति जिन-स्तवन (मुनि पद्मनन्दी)-संपादक १०।२४७ श्री पार्श्वनाथ स्तुति मौर महर्षि स्तुति-संपादक ११२२२७ शंभू : स्तोत्र मुनिरत्नकीति-सम्पादक १०॥३११
श्री पार्श्वनाथास्टक (राजसेन)-संपादक १०२ . शिवभूति शिवार्य और शिवकुमार-परमानन्द शा. ७.१७ श्री पूज्यपाद स्वामी और उनकी रचनाएँ-२।३६६ वितबिर कर्म साहित्य और दिगम्बर पंचसंग्रह
श्री वर्धमान स्तवन स्तोत्र प्रज्ञात कर्तृक ११३७५ परमानन्द शा. ३।३७८
श्री वीर स्तवन (भमरकीति)-संपादक १०१
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साहित्य
श्री वीर का सर्वोदय तीर्थ-संपादक १११७
सिद्धसेन दिवाकर-पं. रतनलाल संघवी २।४६२ श्री शिरपुर पार्श्वनाथ स्वामी विनति
सिद्धि सेन-दृष्टि प्रबोध-द्वात्रिशिका-श्रीसिद्धसेनाचार्य । नेमिचन्द बन्नूसा जैन १९३०१
कृत १०१२०० श्रीशभचन्द्राचार्य का समय और ज्ञानार्णव की एक प्राचीन सिंहभद्र को रोपदेश-बाबू कामताप्रसाद ६।३७ प्रति-प. नाथूराम प्रेमी ३।२७०
सीया चरिउ एक अध्ययन-परमानन्द शा. २१११३७ श्री संतराम बी. ए. की सुमागधा-मुनीन्द्र कुमार जैन सुजानमल की काव्य साधना-गंगाराम गर्ग १६१२० २४.१७
सुप्रभात स्तोत्र-नेमिचंद्र यति १४११५५ श्री सत्यभक्त जी के खास सन्देश ११३०१
सुलोचना चरित्र और देवसेन ·-परमानन्द शास्त्री ७।१५६ स
सूरदास पोर हिन्दी का जैन पद काव्य (एक तुलनात्मक सन्मति सूत्र और सिद्धसेन-जुगलकिशोर मुख्तार ६४१७ विश्लेषण)-डा. प्रेमसागर १९२३६ समन्तभद्र और दिग्नाग मे पूर्ववर्ती कौन
सोलहवी शताब्दी के दो अपभ्र श काव्य__ न्या. प. दरबारीलाल कोठिया ५॥३८३
प. परमानन्द शास्त्री १०.१६० समंतभद्र का एक और परिचय पद्य-सपादक २६ सगीत और मत्र द्वारा भाग्य परिवर्तन-डा. व्ही. गोरे डी. समंत भद्र की अर्हद्भक्ति-न्या. प दरबारीलाल ६।१२ एस. सी. अनु. प्रो. दुलीचन्द जैन एम. एस. सी. समन्तभद्र भाष्य-प. दरबारीलाल कोठिया ६।३३
१६।१६४ समयसार के टीकाकार विद्वदर रूपचन्द जी
संगीत का प्रभाव-श्री गोपाल वाकलीवाल एम. ए. अगरचन्द नाहटा १२१२२७
१६।१६७ समय सार नाटक-डा. प्रेमसागर १७४२०२
संगीत विचार-सग्रह-पं दौलतराम 'मित्र' ४।३३२ समीचीन धर्मशास्त्र-चम्पालाल सिंघई पुरदर एम. ए. मशोधन (महाकवि पुष्पदन्त) ४।४४७ २११२५१
मस्कृति कर्म प्रकृति - संपादक ८।४४१ समीचीन धर्मशास्त्र और हिन्दी भाप्य-सपादक ७६१, मस्कृत माहित्य क विकास में जैन विद्वानो का सहयोग७११५३
डा. मगलदेव शास्त्री एम. ए. पी. एच.डी. १२।२९७ सर्वार्थसिद्धि पर समंतभद्र का प्रभाव-सपादक ५।३४५ सम्कृत से अरुचि क्यों ?-पं. गोपीलाल अमर एम. ए. सरस्वती भवनों के लिए व्यावहारिक योजना
२११७१ एन. सी. वाकलीवाल १११३७४
स्वामी पात्र केशरी और विद्यानन्द-जुगल किशोर सरस्वती स्तवनम् स्तोत्र-संपादक १११३३७
मुख्तार ११६७ सरस्वती स्तवनम् (स्तोत्र)-मलयकीति ११३३६६ स्वामी पात्र केशरी और विद्यानन्द-संपादक २१५३७ सामयिक पाठ-साहित्याचार्य पं. पन्नालाल ५।१३४ स्वामी समतभद्र धर्मशास्त्री, ताकिक, योगी-संपादक साहित्य की महत्ता-पं. मूलचन्द वत्सल ६१५४
७१४२ साहित्य पुरस्कार भोर सरकार-सत्य भक्त १२१३७५ स्तर के नीचे (कहानी)-मनु ज्ञानार्थी साहित्यरत्न १२।२७३ हरिभद्र सूरि-पं. रतनलाल संघवी ४।२०५, ४।२५७ साहित्य संगोष्ठी विवरण २१६१४४ ।।
हरिषेणकृत अपभ्रश 'धर्मपरीक्षा'-प्रो. ए. एन. उपाध्ये सिख प्रामुत-पं. हीरालाल शास्त्री २१५४८
८४८, ८६० सिद्धसेन का सिडिश्रेय समुदय स्तोत्र-संपादक ११४६६ हर्षकीर्ति मूरि और उनके ग्रंथ-श्री अगरचन्द नाहटा सिद्धसेन के सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवातिक
१०॥४०७ परमानन्द शास्त्री ३१६२६
हारावली चित्रस्तव (सानुवाद)-सम्पादक ११५२२
ह
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११२ वर्ष २२ कि. ५
अनेकान्त
हिन्दी का प्रथम प्रारमचरित-पं. बनारसीदास ६.१६ हिन्दी जैन साहित्य में अहिंसा-कुमारी किरणबाला जैन हिन्दी के प्रसभ्य ग्रंथों की खोज-डा. कस्तूरचन्द
१२।२५६ कासलीवाल १६।२२५
हिन्दी जनमाहित्य मे तत्त्वज्ञान-कुमारी किरणबाला हिन्दी के जैन कवि-श्री जमनालाल जैन विशारद ६३२ १२।१६५, १२।२२३ हिन्दी के दो नवीन काव्य-मुनि कान्तिसागर है।३४३ हिन्दी भाषा के कछ ग्रंथों की नई खोज-परमानन्द जैन हिन्दी न कवि और काव्य-डा. प्रेमसागर जैन
१३।१०१ १९३४७
हिन्दा साहित्य सम्मेलन और जैन दर्शनहिन्दी जैन साहित्य और हमारा कर्तव्य-अगरचन्द नाहटा २।२५०
प सुमेर चन्द जैन न्या. ३१२८४ हिन्दी जनसाहित्यकी विशेषता-श्री कुमारी किरणवाला हेमगज गोदी का और प्रवचन सार का पद्यानुवादजैन १३।१५६
परमानन्द शा. ११४३४% हिन्दी जैन साहित्य के कुछ अज्ञात कवि
हेमराज नाम के दो विद्वान-परमानन्द शास्त्री बा. ज्योतिप्रसाद एम. ए. १०।३७३
१८।१३५
३. पुरातत्त्व (इतिहास, संस्कृति, स्थापत्य, कला)
अयोध्या एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर-परमानन्द शास्त्री अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान-परमानन्द जैन १७१७८
अनार्य देशो में तीर्थकरो ओर मुनियों का विहारशास्त्री १९।२७६, १६३२६ अमवालों का जैन संस्कृति में योगदान-पं. परमानद
मुनि श्रीनथमल १७११२२ शास्त्री २०१८, २०११७७, २०१२३३
महन्महानन्द तीर्थ-पं. परमानन्द जैन शास्त्री ४।४२५ अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान-परमानन्द शास्त्री
अलोप पार्श्वनाथ प्रसाद- मुनि श्री कान्ति सागर २०१५१
अहार का शान्तिनाथ संग्रहालय-श्री नीरज जैन १८१२२१ २११४६, २१९१, २१११८५ अचलपुर के राजा श्रीपाल ईल-नेमचन्द धन्नूसा जैन
प्रहार क्षेत्र के प्राचीन मूतिलेख१९४१०५
पं. गोविन्ददास जी कोठिया ६।३८३ अतिशय क्षेत्र प्रहार-श्री नीरज जैन १८।१७७
प्रहार क्षेत्र के प्राचीन मूर्ति लेख-पं. गोविंददास न्यातीर्थ अतिशय क्षेत्र-इलोरा की गुफाएँ
१०।२४, १०१६६, १०९७, १०।१५३ बा. कामताप्रसाद जैन ४६
प्रहार लड़वारी-श्री यशपाल जैन बी. ए. ४१२२६ अतिशय क्षेत्र कोनी-सि. हुकमचन्द साधलीय १६६४२ प्रातिशय क्षेत्र खजुराहो-परमानन्द शास्त्री १३।१६० मा. कुन्दकुन्द पूर्ववित् पौर श्रुत के साथ प्रतिष्ठापक हैमतिशय क्षेष चन्द्रवाड-परमानन्द शास्त्री ८.३४५ पं. हीरालाल सि. शा. १४१३१७ अतिशय क्षेत्र श्री कुण्डलपुर-श्री रूपचन्द बजाज ६।३२१ भागम और त्रिपटकों के सन्दर्भ में प्रजातसम्प्रषिक
तीत के पृष्ठों से (कविता)-भगवतस्वरूप २।२३७ मुनि श्रीनगराज २१०२५, २१३५६ अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ श्रीपुर तथा श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र- भागमों के पाठभेद और उनका मुख्य हेतुनेमचन्द धन्नूसा जैन १८६६
मुनि श्री नथमल १७४११०
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३. पुरातत्त्व (इतिहास, संस्कृति, स्थापत्य, कला)
ए
प्राचार्यकल्प पं. टोडरमल जी-प. परमानन्द शास्त्री ऊर्जयन्तगिरि के प्राचीन पूज्य स्थान-जगलकिशोर म० ६।२५
१४।२१६ प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती की बिम्ब योजना
डा. नेमिचन्द्र जैन एम. ए. पी एच. डी. १५५१६६ ऋषभदेव और महादेव-हीरालाल सि. शा. १४।११२ प्राचार्य विद्यानन्द का समय और स्वामी वीरसेन- ऋषभदेव और शिवजी-बा. कामताप्रसाद जैन १२।१८५
बा. ज्योतिप्रमाद जैन एम. ए. १०।२७४ आत्मविद्या क्षत्रियों की देन-मनि श्री नथमल २०११६२ एक ऐतिहासिक अन्त : साम्प्रदायिक निर्णयअानन्द सेठ-प. हीरालाल सि. शा. १४॥ २६६
लाला ज्योतिप्रसाद जैन ८।१६६ आमेर के प्राचीन जैन मन्दिर : उनके लेख
एक खोजपूर्ण विचारणा-श्री अगरचन्द नाहटा १६७६ पं. अनूपचन्द न्यायतीर्थ १६॥२०॥
एक जैन सम्राट् चन्द्रगुप्त - प. ईश्वरलाल जैन ४११०० प्राचार्य विद्यानन्द के समय पर नवीन प्रकाश
एक प्रतीकाकित द्वार- गोपीलाल अमर एम. ए. २२॥६० न्या.प. दरबारीलाल कोठिया' १०६१
एक प्राचीन ताम्र-शासन-सम्पादक ८।२८५ प्राचार्य श्री समन्तभद्र का पाटलिपुत्र
एरिचपुर के राजा ईल और राजा परिकेशरीडा. दशरथ शर्मा एम. ए. डी. लिट ११६४२
प. नेमचन्द्र धन्नूसा जैन १९।२१६ पार्य और द्रविड-संस्कृति के सम्मेलन का उपक्रम- एलिचपुर के राजा श्रीपाल उर्फ ईल-- बा. जयभगवान जैन एडवोकेट १२१३३५
पं. नेमचन्द धन्नूसा जन २०३५२ पार्यों से पहले की सस्कृति-श्री गुलाबचन्द्र चौधरी एम. ए १०।४०३
ऐतिहासिक अध्ययन-वा. माईवयाल जैन २१५९६ पाश्रम पट्टन ही केशोराय है-डा. दशरथ शर्मा १६७० ऐतिहासिक घटनाग्रो का एक संग्रह-सम्पादक ८.३६६
ऐतिहासिक भारत को प्राय मूर्तियाँइटावा जिले का सक्षिप्त इतिहास-श्री गिरोशचद्र त्रिपाठी
श्री बालचन्द जैन एम. ए. १०।११४ १०।२६५
ऐतिहामिक सामग्री पर विशेष प्रकाशइतिहास-प. नाथ राम प्रेमी ११५६६
अगरचन्द्र नाहटा ६१६५
गोलक-पद कल्पना (११वी प्रतिमा का इतिहास-) उच्चकुल और उच्चजाति महात्मा बुद्ध के उद्गार
श्री जुगलकिशोर मुस्तार १०५३८७ बी. एल. जैन ३७७
ऐहोल का शिलालेख-प. के. भुजबली शास्त्री १५८७ उच्जैन के निकट प्राचीन दि.जैन मूर्तियाँब्रा. छोटेलाल जैन १२।३२७
कविवर बनारमोदास की सास्कृतिक देनउत्तर कन्नड का मेरा प्रवास-पं. के. भुजबली जैन शा. डा. रवीन्द्रकुमार जैन १५॥१६३ १२१७६
कवि लक्ष्मण रचित मिणाह चरिउ का गोणंद नगर पौर उपनिषदों पर घमण संस्कृति का प्रभाव-मुनि श्री नथमल उसमें रचित व्याकरणग्रन्थ-डा. दशरथ शर्मा १६।२२८ १६।२६२
कावड़ : एक चलता-फिरता मन्दिर-महेन्द्र भानावत १७१७ उस विश्वबन्द्य विभूति का धुंधला चित्रण-देवेन्द्र जैन ३७७ कारी तलाई की जैन मूर्तियां-पं. गोपीलाल अमर एम. ए.
२०१२४२ ऊन पावागिरि के निर्माता राजा बल्लाल
कारजा के भट्टारक लक्ष्मीसेन-डा. विद्याधर जोहरापुरकर पं. नेमिचन्द्र धन्नूसा जैन २२।२७
१८।२२३
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२१४, वर्ष २२ कि०५
अनेकान्त
कालक कुमार-श्री हरजीवनलाल सुशील ११४८६ गजपन्थ क्षेत्र के पुराने उल्लेख-पं. नाथूराम प्रेमी ७।६४ कालिकाचार्य-श्री मनि विद्याविजय ११५१०
गांधीजी का पुण्यस्तम्भ-डा. वासुदेवशरण अग्रवाल IER काष्ठासंध की माथुरान्वयी परम्परा के नये उल्लेख- गिरिनगर की चंद्रगुफा-प्रो. हीरालाल जैन ५।६५ देवेन्द्र कुमार एम.ए. १६।१११
गुणचंद मुनि कौन हैं ?-प. दरबारीलाल १०।२५६ काष्ठासंघ लाट बागड़ गणकी गुर्वावली
गुर्वावली नन्दितट गच्छ-पं परमानन्द जैन शास्त्री पं. परमानन्द जैन शास्त्री १५।१३४
१५।२३५ काष्ठासंघ स्थित माथुरसंघ-गुर्वावली--
गोपाचल दुर्ग के एक मूर्ति लेख का अध्ययनपं. परमानन्द जैन शास्त्री १५१७६
डा. राजाराम जैन २२०२५ कुछ नई चीजें -40 परमानन्द जैन शास्त्री, १२१२८ गोम्मट-प्रो. ए. एन. उपाध्याय ४।२२६, ४२६३ कूर्चकों का सम्प्रदाय-प. नाथूराम प्रेमी ७७
गोम्मटेश्वर का दर्शन पौर श्र. के सस्मरण केशी गौतम सम्वाद-प. बालचन्द्र सि. शा. २०१२८८ प. सुमेरचद दिवाकर B. A. L. L. B. ५२४१ कोप्पल के शिलालेख-पं. बलभद्र जैन १४.२०
गोम्मटसार की जी प्र. टीका उसका कर्तृत्व और समयकोल्हापुर के पार्श्वनाथ मन्दिर का शिलालेख
प्रो. ए. एन. उपाध्याय ४।११३ परमानन्द जैन १३।२४०
गौतमस्वामी रचित सूत्र की प्राचीनता-क्षुल्लक सिद्धसागर कौन-सा कुण्डलगिरि सिद्ध क्षेत्र है ?
११११८४ न्या. प. दरबारीलाल जैन ८।११५, ८।१६८
गज-बासौदा के जैन मूर्ति व यंत्र लेखक्षपणासार के कर्ता माधवचन्द-श्री प. मिलापचद्र कटारिया
कुन्दनलाल जैन एम. ए. १८४२६१ १८१६७ क्या कुन्दकुन्द ही मूलाचार के कर्ता है ?
गंधावल और जैन मूर्तियां-एम. पी. गुप्ता और परमानन्द जंन शा. २।२२१
बी. एन. शर्मा १६१२६ क्या कुन्दकुन्दाचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवली के शिष्य नही है? ग्वालियर किले का इतिहास और जैन पुरातत्वप. हीरालाल सि. शा. १४।२६८
प. परमानन्द शास्त्री १०-१०१ क्या ग्रंथसूचियों प्रादि पर से जैन साहित्य के इतिहास
ग्वालियर के किले की जैन मूर्तिया-श्री कृष्णनन्द ४।४३४ निर्माण सम्भव है ? --परमानन्द शास्त्री १३।२८७
ग्वालियर के कुछ काप्ठा सधी भट्टारकक्या भट्टारक वर्धमान जैन धर्म के प्रवर्तक थे?
परमानन्द शास्त्री २२१६४
ग्वालियर के तोमर वंश का एक नया उल्लेखपरमानन्द शास्त्री १४१२२४
प्रो. विद्याधर जोहरापुरकर १४।२९६ क्या मथुरा जबूस्वामी का निर्वाण स्थान है ?प. परमानन्द शास्त्री ८८५
ग्वालियर के तोमर : राजवश के समय जैन धर्म
प. परमानन्द शास्त्री २०१२ खण्डगिरि उदयगिरि परिचय-बाबू छोटेलाल जैन १११६१ ग्वालियर के पुरातत्व संग्रहालय की जैन मूर्तियाँ - खुजराहो का मादिनाथ जिनालय-श्री नीरज जैन १७।३७५ श्री नीरज जैन १६।२१४ खजराहो का घण्टइ मदिर-गोपीलाल अमर १६२२६ ग्वालियर में जैन शासन-प्रभुलाल प्रेमी ६।१७ खजराहो का जैन संग्रहालय-श्री नीरज जैन १८।१८
ग्रन्थ एवं ग्रन्थकारों की भूमि राजस्थानखजराहो का पार्श्वनाथ जिनालय-नीरज जैन १६।१५०
डा. कस्तूरचंद कासलीवाल १५१७७
गजपन्य क्षेत्र का प्रति प्राचीन उल्ले-पं. दरबारीलाल
१४८
चक्रवर्ती खारवेल पौर हिमवन्त थेरावली
काशीप्रसाद जायसवाल ११३५२
Page #232
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चन्देल युग का एक नवीन प्रतिमा लेख
ज्योतिप्रसाद जैन एम ए. ३१६६०
३. पुरातत्व (इतिहास, संस्कृति, स्थापत्य कला )
चन्द्रगुप्त मौर्य और विशालाचार्य परमानन्द १३/२७६ चपानगर इयामलकिशोर झा ६४८१
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चपावती नगरी-नेमचंद घन्नुस जेन १६३३४ चाणक्य और उनका धर्म- मुनि श्री न्यायविजय २।१०५ चामुण्डराय और उनके समकालीन प्राचार्य -
प. नाथूराम प्रेमी
२६२
चित्तौड का कीर्तिस्तभ-प नेमचन्द धन्नूसा जैन २११०३ चिसो का दि० जैन कीर्तिस्तम्भ-परमानन्द शास्त्री २१।१७६
चित्तौड के जंनकीर्तिस्तम्भ का निर्मालिकाल
श्री नीरव जैन २१।१४६
चित्तौड के जनकीर्तिस्तं मे का निर्माणकाल एव निर्माताश्री अगरचन्द नाहटा ८१३६
चित्रमय जंगीनीति-सम्पादक ४२
ज
जगतराय की भक्ति - गंगाराम गंगं एम. ए. १७/१३३ जयसेन प्रतिष्ठापाठ की प्रतिष्ठा विधि का प्रशुद्ध प्रचारश्री पं. मदारिया १५३८ जातिभेद पर श्रमितगति आचार्य-जुगलकिशोर मुख्तार
१।११५
जैन अनुश्रुति का ऐतिहासिक महत्व - बा ज्योतिप्रसाद
७।१७६
जैन भागमों के कुछ विचारणीय शब्द
मुनि श्री नथमल २०/४०
जैन और वैदिक अनुभुतियो में ऋषभ तथा भरत हो भवावलि - डा. नरेन्द्र विद्यार्थी १६ । ३०६ जैनकला और उसका महत्व - बा० जयभगवान ५।३ जनकला के प्रतीक मोर प्रतीकवाद
डा. ए. के. भट्टाचार्य, डिप्टी कीपर राष्ट्रीय संग्रहा लय दिल्ली, धनु. जयभगवान उडवोकेट ९४।६८९ जैन कीर्तिस्तम्भ चित्तौड़ के अप्रकाशित शिलालेख - श्री रामवल्लभ सोमानी जयपुर २२/३६ जैन गुहा मन्दिर - श्री बालचन्द्र जैन एम. ए. १०।१२६ जैन ग्रंथ संग्रहालयों का महत्व
डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल १०।१९६
-
जैन ग्रंथों में राष्ट्रकूटों का इतिहास रामवल्लभ सोमाणी २१।११४ जिन जातियों के प्राचीन इतिहास की समस्या
श्री प्रगरचन्द्र नाहटा ५।३२१
जैन दृष्टिसे प्राचीन सिन्ध-मुनि श्रीविद्याविजय २।५०७ जैनधर्म और जातिवाद - श्री कमलेश सक्सेना M. A. मेरठ १८६३
जैनधर्म की देन प्रा. क्षितिमोहन सेन ४५५१ जैनधर्म में सम्प्रदायों का आविर्भाव - प. कैलाशचन्द शा० १४।३१६
जैनधर्म मे मूर्तिपूजा-डा. विद्याधर जोहरापुरकर
१७।१५५
जैन धातु मूर्तियों की प्राचीनता - श्री प्रगरचन्द नाहटा
१० २७१
जैन परम्परा का आदिकाल - डा, इन्द्रचन्द्र शास्त्री MA. १४१९६
जैन परिवारों के वैष्णव बनने सबधी श्री अगरचंद नाहटा १५।२८२
जैन पुरातस्य मे गंगा-यमुना-श्री नीरज जैन १६-४० जैन पुरातन अवशेष (विहगावलोकन) -मुनि कातिसागर ६।२२५, २६१ जनप्रतिमा लक्षण - बालचन्द्र जैन एम ए. १६ २०४ जैनमूदिकला का प्रारम्भिक स्वरूप- रमेशचंद शर्मा
२१५
'वृतान्त
१६।१४२
जैन सरस्वती वा ज्योतिप्रसाद जैन ८६१
-
जैसलमेर के भण्डार को छानवीन सम्पादक १०।४२५ जैन साधुनों की प्रतिमाएँ - श्री बालचन्द जैन एम. ए.
१६।२३६
जैन साहित्य में ग्वालियर मुनि कातिसागर २।५३६ जैन साहित्य में मथुरा डा. ज्योतिप्रसाद जैन १५०६५ जैन संस्कृति के प्राण जैनपर्व - प. बलभद्र जैन ७।१५ जैन स्थापत्य की कुछ भद्वितीय विशेषताएँबा. ज्योतिप्रसाद जैन M.A. ३४३ जैनादर्श (जैन गुण दर्पण संस्कृत 'युगवीर' ८३५४ जैनियो की दृष्टि मे विहार पं. के. भुजबली शा. ३०५२१ जैनियों पर घोर प्रत्याचार - प्रो. हेमुल्ट ग्लाजेनव ८८०
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२१६ वर्ष २२ कि०५
अनेकान्त
जोधपुर के इतिहास का एक प्रावरित पृष्ठ
दिल्ली शासको के समय पर नया प्रकाशअगरचन्द नाहटा ११।२४८
हीरालाल सि. शा. १६०२५६ जोन पुर में लिखित भगवतीमूत्र प्रशस्ति
दीवान अमरचन्द-परमानन्द जैन १३।१६८ श्री अगरचन्द भंवरलाल नाहटा १८।२३८
दीवान रामचन्द छावडा-परमानन्द शास्त्री १३१२५६ ज्ञातवंश-श्री प बेचरदासजी दोशी १५२८६
देवगढ़-श्री नाथूराम सिघई १९८ ज्ञातवंश का रूपांतर जाटवंश-मुनि कवीन्द्रसागर ३।२६७ देवगढ का ऐतिहासिक अनुशोलन-प्रो. भागचन्द जैम
___'भागेदु' एम. ए. १६:२३२ झालरापाटन का एक प्राचीन वैभव
देवगढ़ का शान्तिनाथ जिनालयडा. कैलाशचद जैन M.A., पी. एच. डी. १५२२७६ प्रो. भागचन्द जैन एम. ए. २०६२
देवगढ की जैन प्रतिमाएं-प्रो. कृष्णदत्त बाजपेयी, सागरटूड़े ग्राम का अज्ञात जैन पुरातत्व
वि. विश्वविद्यालय १५।२७ प्रो. भागचन्द 'भागेन्दु' २११६७
देवताओं का गढ़, देवगढ-श्री नीरज जी सतना
१७११६७ तलघर में प्राप्त १६० प्रतिमाएं-श्री अगरचन्द नाहटा देहली के जैन मन्दिर और जैन संस्थाएं१६१
ग. पन्नालाल जैन अग्रवाल ८।२१७ तिरुपटिकारम (जिनकाञ्ची)-श्री टी. एन. रामचन्द्रन टेटली पर्यो मानिa _ १५५१०१
___ बा. पन्नालाल जैन अग्रवाल ८।१३२ तीन विलक्षण जिनबिम्ब-श्री नीरज जैन १५-१२१
दो ताडपत्रीय प्रतियो की ऐतिहासिक प्रशस्तियांतीर्थकर सुपार्श्वनाथ की प्रस्तर प्रतिमा
श्री भवरलाल नाहटा १८८५ व्रजेन्द्रनाथ शर्मा M. A १८१५७
द्रोणगिरि-डा. विद्याधर जोहरापुरकर १७।१२३ तोलबदेशीय प्राचीन जैन मन्दिरपं. लोकनाथ शास्त्री १११०४, १२२
धवला प्रशस्ति के राष्ट्रकूट नरेश-बा. ज्योतिप्रसाद
जैन M. A. ८९७ दक्षिण के तीर्थस्थान-पं. नाथूराम प्रेमी २।३५१, २।३८१ धर्कट वन्श-नगरचन्द नाहटा ४।६१० दक्षिण भारत के राजवंशों मे जैनधर्म का प्रभाव- धर्मचक्र सम्बन्धी जैन परम्परा-डा. ज्योतिप्रसाद जैन बा. ज्योतिप्रसाद जैन M. A. ८.३५६
१६।१३६ दक्षिण भारत मे राज्याश्रय और उसका अभ्युदय- पारा और धारा के जैन विद्वान्-परमानन्द शास्त्री डा. टी. एन, रामचन्दन एम. ए. ११॥३७८
१३१२८१ दण्डनायक गंगराज-श्री प. के. भुजबली शास्त्री १५२२५ धारा और धारा के जैन विद्वान-परमानन्द शास्त्री दस्सा बीसा भेद का प्राचीनत्व-प्रगरचंद नाहटा ४१३३६ १४१६८ दिल्ली और उसके पाच नाम-पं. परमानन्द शास्त्री १३६१६ धुवेला संग्रहालय के जैन मूर्तिलेख-बालचन्द जैन एम. ए. दिल्ली पौर दिल्ली की राजाबली
१६।२४४ प. परमानन्द शास्त्री ८७१ दिल्ली और योगिनीपुर नामो की प्राचीनता--
नगर खेट-कर्वट-मटम्ब और पत्तन प्रादि की परिभाषाअगरचंद नाहटा १३i७२
___ डा. दशरथ शर्मा १५३११९ दिल्ली पट्ट के मूलसंघी भट्टारकों का प्रभाव
नंदि संघ बलात्कारगण पट्टावली-परमानन्द जैन शास्त्री डा. ज्योतिप्रसाद जैन १७१५४, १७:१५६
१७१३५
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३. पुरातत्त्व (इतिहास, संस्कृति, स्थापत्य, कला)
२१७
नंदिसध बलात्कारगण की शाखा-प्रशाखाएँ
पंजाब में उपलब्ध कुछ जैन लेख-डा. बनारसीदास ५७१ पं. पन्नालाल सोनी १४१३४३
प्रतिमालेख संग्रह और उसका महत्व-मुनि कातिमागर नया मन्दिर धर्मपुरा के जैन मूर्तिलेख
४१४२७, ४।५०१ सक. परमानन्द शास्त्री १५॥१००, १५२२३७ प्रतिहार साम्राज्य मे जैनधर्म-डा. दशरथ शर्मा एम. ए. मया मन्दिर के जैन मूर्तिलेख-परमानन्द शास्त्री
डी. लिट. १८११७ १६.५०, १६।१८, १६।१४५, १६।१६४, १६।२४२ ।। प्रभाचन्द्र का समय-प. महेन्द्र कुमार न्या. ४।१२४ नया मन्दिर धर्मपुरा दिल्ली के जैन मूति लेख
प्रभाचन्द्र के समय की सामग्री-महेन्द्र कुमार जैन एम. ए. परमानन्द जैन शास्त्री १७२
२०६१, २०२१५ नवागढ (एक महत्त्वपूर्ण मध्यकालीन जैनतीर्थ)- प्राकृत वैयाकरणो की पाश्चात्य शाखा का सिहावलोकनश्री नीरज जैन १५॥३३७
डा. सत्यरंजन बनर्जी १६।१७५ नाग सभ्यता की भारत को देन-बा. ज्योतिप्रसाद जैन प्राग्वाट जाति का निकास-- अगरचन्द नाहटा ४।३८६ ६।२४६, ६।२६८
प्राचीन जैन मन्दिगे के ध्वंस से निर्मित मस्जिदेंनिर्वाणकाण्ड के पूर्वाधार तथा उसके रूपान्तर
बा. ज्योतिप्रसाद जैन ८।२७६ डा. विद्याधर जोहगपुरकर २२७
प्राचीन जैन साहित्य और कला का प्राथमिक परिचयनिसीहिया नसियो-हीरालाल सि. शा. १३।४३
एन. मी. बाकलीवाल १८५ नपतुग का मत विचार-एम. गोविद पं ३१५७८, ३१६४५ प्राचीन पट अभिलेख -श्री गोपीलाल अमर एम. ए.
१५।२३१ पतियानदाई : एक गुप्तकालीन जैन मन्दिर
प्राचीन मथुरा के जैनो की सघ व्यवस्थागोपीलाल अमर १६॥३४०
डा. ज्योतिप्रसाद जैन १७१२१७ पतियानदाई (एक भूला-विसरा जैन मन्दिर)
फ श्री नीरज जैन १५११३७
फतेहपुर (शखावाटी) के जैन मूर्तिलेख-परमानन्द जैन पतियानदाई मन्दिर की मूर्तियाँ और चौबीस जिन
शास्त्री ११:४०३ शासन मूर्तियाँ-श्री नीरज जैन १६॥१०० परवार जाति के इतिहास पर कुछ प्रकाश
बजरगगढ़ का विशद जिनालय-श्री नीरज जैन १८१६५ प. नाथूराम प्रेमी ३।४४१
बानपुर का चतुर्मुख सहस्त्रकूट जिनालय-श्री नीरज जैन पराक्रमी जैन-गोयलीय ११४५
१६.५१ पारग्रह-परिमाण-व्रत के दासीदास गुलाम थे
बंकापुर-प. के भुजबली शास्त्री १३।३५३ प. नाथूराम प्रेमी ३१५२६
बागद्ध प्रान्त के दो दिगम्बर जैनमन्दिर-परमानन्द पल्लूग्राम की प्रतिमा व अन्य जैन सरस्वती प्रतिमाएं
१३।११२ श्री धीरेन्द्र जैन १७।५७
वादामी चालुक्य नरेश और जैनधर्म-दुर्गाप्रसाद दीक्षित पुरातन जैन शिल्पकला का सक्षिप्त परिचय
एम. ए. २०।१२६ श्री बालचन्द्र जैन M. A. १०।३१६
बादामी चालुक्य अभिलेखो में वणित जैन सम्प्रदाय तथा पुरानी बातो की खोज-पं. जुगलकिशोर १।१३०, १११६५, प्राचार्य-प्रो. दुर्गाप्रसाद एम. ए. २०१२४७ १२२६६, १२३२४
बुन्देलखड का प्राचीन वैभव, देवगढ़-श्री कृष्णानन्द गुप्त पोसहरास और भट्टारक ज्ञानभूषण-परमानन्द जैन
४।५१४ १३।११६
बूढ़ी चन्देरी और हमारा कर्तव्य-दीपचन्द्र वर्णी ११३१८
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२१८, वर्ष २२ कि. ५
अनेकान्त
बोध प्राभूत के सन्दर्भ में प्राचार्य कुन्दकुन्द
भगवान महावीर का जीवन चरित्र-ज्योतिप्रसाद जैन साध्वी श्री मंजुला १८।१२८
२१६४७ बौद्ध साहित्य मे जैनधर्म-प्रो. डॉ. भागचन्द जैन एम. ए. भगवान महावीर का जीवन चरित्र (महत्त्वपूर्ण पत्र)पी. एच. डी. १६२६२
प. बनारसीदास चतुर्वेदी १४२८ बौद्धाचार्य बुद्धघोष और महावीर कालीन जैन
भगवान महावीर के जीवन प्रसंग-मुनि श्री महेन्द्र कुमार बा. ज्योतिप्रसाद जैन एम. ए. ८।१०६
प्रथम १७।१७ बंगाल के कुछ प्राचीन जैन स्थल-बा. ज्योतिप्रसाद एम ए. भगवान महावीर के विषय मे बौद्ध मनोवृत्ति८।२६१
प. कैलाशचन्द्र शास्त्री ६।२८४
भ. बुद्ध और मासाहार-हीरालाल सि. शा. १४।२३८ भगवान ऋषभदेव-परमानन्द शास्त्री २२१७८ भट्टारकीय मनोवृत्ति का एक नमूना-सम्पादक ८।२८७ भगवान ऋषभदेव के अमर स्मारक
भट्टारक विजयकीति-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल १७।३० पं. हीरालाल सि. शा. १३३६७
भ. महावीर और महात्मा बुद्ध-फतेहचन्द वेलानी ७।१९३ भगवान कश्यप · ऋषभदेव-श्री बाबू जयभगवान भगवान महावीर के निर्वाण सम्वत् की समालोचनाएडवोकेट पानीपत १५३१७६
पं. ए. शातिराज शास्त्री ४१५५६ भगवान पार्श्वनाथ-परमानन्द शास्त्री १८।२६६ विनयचन्द्र के समय पर विचार-परमानन्द शास्त्री भगवान पार्श्वनाथ का किला-प. कैलाशचन्द शास्त्री
२०३० १११२७६
भारत के अजायबघरो और कला भवनो की सूचीभगवान महावीर-प. परमानन्द जैन शास्त्री ८।११७
बा. पन्नालाल अग्रवाल १२।१८ भगवान महावीर-परमानद शास्त्री १३३२३१
भारत के अहिंमक महात्मा सन्त श्री पूज्य गणेशप्रसाद जी भगवान महावीर-श्री विजयलाल जैन ॥३५३
वर्णी की वर्ष गाठ-परमानन्द जैन १११२३४ भगवान महावीर-सुमेरचन्द दिवाकर ७।१६०
भारत की हिसा सस्कृति-बा. जयभगवान एडवोकेट भगवान महावीर और उनका जीवन दर्शन
११११८५ डा. ए. एन. उपाध्ये, अनु० कुन्दनलाल एम. ए. भारतीय इतिहास का जैन युग-७.७७, ७।१२१ १५१०४
भारतीय इतिहास मे अहिंसा--देवेन्द्रकुमार ९।३७५ भगवान महावीर और उनका मिशन-वाड़ीलाल मोतीलाल भारतीय इतिहास में महावीर का स्थान-बा. जयभगवान शाह २।१२३
७२६७ भगवान महावीर और उनका लोक कल्याणकारी सदेश
भारतीय वास्तु शास्त्र में जैन प्रतिमा सम्बन्धी ज्ञातव्य____डा. हीरालाल M. A. १३।२५६
अगर चन्द नाहटा २०।२०७ भगवान महावीर और उनका समय ११२
भारतीय संस्कृति मे जैन सस्कृति का स्थानभगवान महावीर और उनका सन्देश-श्री कस्तूर साब जी बा. जयभगवान वकील ४१५७५ जैन बी. ए. बी. टी. ८.१७, ८।२३७
भारतीय सस्कृति मे बुद्ध और महावीर-मुनि श्री नथमल भगवान महावीर और नागवश-मुनि श्री नथमल जी १७११६५ १६।१६१
भेलसा का प्राचीन इतिहास-राजमल मडवैया १२।२७७ भगवान महावीर और बुद्ध की समसामयिकता
मनि श्री नगराज १६।११. १६:५४, १६॥११३, मथुरा के सेठ लक्ष्मीचन्द सम्वन्धी विशेष जानकारी१६।१६५
अगरचन्द नाहटा २१।२१०
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३. पुरातत्त्व (इतिहास, संस्कृति, स्थापत्य, कला)
२१९
मद्रास और मलियापुर का जैन पुरातत्व-छोटेलाल जैन मानव जातियो का देवीकरण-साध्वी सघमित्रा २१:१४ ०३१३५
मान व सहिता के इतिहास में महावीर की देनमगध पार जन संस्कृति-डा. गुलाबचन्द एम. ए.
पं. रतनलाल १०२५ १७२१२
मारोठ का इतिहास और जकडी-परमानन्द शास्त्री मथुरा संग्रहालय की तीर्थकर मूर्ति-प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी
१६१८६ १०।२६१
मुस्लिम युगीन मालवा का जैन पुरातत्त्व--तेजसिंह गौड़ मगध सम्राट् राजा बिम्बमार का जैनधर्म परिग्रहण
एम. ए. रिसर्च स्कालर २२।१४ परमानन्द शास्त्री २२८१
मति कला-श्री लोकपाल ६।३३३ मथुरा के जैन स्तूपादि यात्रा के महत्वपूर्ण उल्लेख
मलाचार के कत्ता-क्ष. सिद्धिसागर ११।३७२ अगरचन्द नाहटा १२।२८८
मेवाडोद्धारक भामाशाह-अयोध्या प्रसाद गोयलीय १।२४७ मथुरा सग्रहालय की महत्वपूर्ण जैन पुरातत्व सामग्री---
मेरी रणथंभोर यात्रा-श्री भवरलाल नाहटा ८।४४४ बालचन्द एम. ए. ६।३४५
मोहनजोदडो की कला और जैन सस्कृतिमध्यप्रदेश और बगर का जैन प्रगतत्व-कातिसागर । ५।१६०
श्री बा. जयभगवान एडवोकेट १०१४३३ मध्य प्रदेश का जैन पुरातत्त्व-परमानन्द शास्वी १६।५४ माह
मोहन जोदडो कालीन और प्राधुनिक जैन सस्कृतिमनुष्य जाति के महान उद्धारक-बी. एल. मर्गफ ३२३२५ बा. जयभगवान एडवोकेट १११४७, ११३ मन्दसोर में जैनधर्म-गोपीलाल अमर एम. ए. २०१४६ मयि साम्राज्य मन्दिरों का नगर मढ ई-श्री नीरज जैन मतना १७१११७ एम.ए. १०।३६१ महर्षि बाल्मीकि और श्रमणसस्कृति-मुनि विद्यानद
मंगलमय महावीर-श्री साधु टी. एल. वास्वानी ११३३७ १७४३
मेवाड के पुरग्रामकी एक प्रशस्ति-रामबल्लभ सोमानी महत्वपूर्ण दो लेख-नेमचन्द धन्नमा जन १८।१४४
१०१३०३ महाकोशल का जैन पुरातत्व-बालचन्द जैन एम. ए. १७११३१
यशस्तिलक का सारकृतिक अध्ययन-डा. गोकुलचन्द महामुनि सुकमाल-ला. जिनेश्वरदास ६१५८
एम.ए. २११२ महावीर उपदेशावतार--प. अजितकुमार शास्त्री ८।४१ यज्ञ और अहिमक परम्पराय-प्राचार्य श्री तुलसी महावीर और बुद्ध के पारिपाश्विक भिक्ष-भिक्षणियो
१७१२६६ मुनि श्री नगराज २०७५
यति ममाज-अगरचन्द नाहटा ३।४६८ महावीर और बुद्ध की समसामयिकता विषयक कुछ यशस्तिलक कालीन आर्थिक जीवन-डा. गोकुलचन्द जैन युक्तियो पर विचार-डा. दशरथ शर्मा १६।२५२
१८१५० महावीर के विवाह के सम्बन्ध में श्वे. की दो मान्यता- यगस्तिनक का सास्कृतिक अध्ययन-डा. गोकुलचन्द जैन परमानन्द शास्त्री १४११०६
प्राचार्य एम. ए. पी. एच. डी. २०१२७६ महाराज खारवेल-बाबू छोटेलाल कलकत्ता २६४ यशस्तिलक में चित-पाथम व्यवस्था सन्यस्त व्यक्तिमहाराज खारवेल एक महान निर्माता-बा. छोटेलाल जैन डा. गोकुलचन्द जैन १८।१४६ ११११५७
यशस्तिलक में वणित वर्ण व्यवस्था और समाज गठनमहराजा खारवेल सिरि के शिलालेख की १४वी पक्ति- डा. गोकुलचन्द जैन १८।२१३
मुनि श्री पुण्यविजय १४१४२ महारानी शान्ता-पं. के भुजबली शास्त्री २१५७६ रक्षाबन्धन का प्रारम्भ-पं.बालचन्द बी. ए. ८१४००
य
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२२०, वर्ष २२ कि० ५
अनेकान्त
रसिक अनन्यमाल में एक सरावगी जैनी का विवरण- वाचक वंश-मुनि दर्शन विजय ११५७६ श्री अगरचन्द नाहटा १५।२२६
वानर महाद्वीप (सपादकीय नोट सहित)राजगृह की यात्रा-न्या. पं दरबारीलाल जैन ८।१७५
प्रो. ज्वालाप्रसाद सिंहल ८।५४ राजघाट की जन प्रतिमार्य-नीरज जैन १९४६
वामनावतार और जैन मुनि विष्णुकुमारराजनापुर खिनखिनी की धातु प्रतिमाये-श्री बालचन्द
श्री अगर चन्द नाहटा १।२४७ जैन एम. ए. १५१८५
विक्रमी सवत की समस्या-प्रो. पुष्पमित्र जैन १४।२८७ राजपूत कालिक मालवा का जैन पुरातत्त्व
विजोलिया के शिलालेख-परमानन्द शा. १११३५८ तेजसिंह गौड़ एम. ए. वी. एड. २११३५
विदर्भ मे जैनधर्म की परम्परा-डा. विद्याधर जोहरापुरकर राजस्थान का जैन पुरातत्व-डा. कैलाशचन्द जैन
१८।१४६ १६।३१५
वीरशासन और उसका महत्त्व-न्या.पं. दरबारीलाल राजस्थान में दासी प्रथा-परमानन्द जैन १३१६६
कोठिया ५११८८ राजा खारवेल और हिमवन्त थेरावली-कामता प्रसाद
वीरशासनकी उत्पत्ति का समय और स्थान-संपादक ६७६ ५.६२१
वीरशासन जयती का इतिहास-जुगलकिशोर मुख्तार राजा एल-डा. विद्याधर जोहरापुरकर एम. ए. १६।२२६
१४।३३८ राजा खारवेल और उनका वंश -कामता प्रसाद ११२९७
वीरसेन स्वामी के स्वर्गारोहण समय पर एक दृष्टिराजा खारबेल और उनका वश-मुनि कल्लाण विजय
प. दरबारीलाल जैन कोठिया ८।१४४ ११२२६
वीर निर्वाण सवत् की समालोचना पर विचार-सपादक राजा खारवेल और हिमवन्त थेरावली-मूनिकल्याण विजय
४१५२६ ११३४२
वृषभदेव तथा शिब सम्बन्धी प्राचीन मान्यताएराजा श्रीपाल उर्फ ईल-पं. नेमिचद्र धन्नूसा जैन
डा. राजकुमार जैन १८।२३०, १८।२७६ १७.१२०
वृषभदेव तथा शिव सम्बन्धी प्राचीन मान्यतायेराजा श्रेणिक या विम्बसार का प्रायुष्यकाल-प. मिलाप
डा. राजकुमार जैन १६७४ चद्र कटारिया २०१८४
वैदिक वात्य और महावीर-कर्मानन्द ६।२३५ राजा हरसुखराय अयोध्याप्रसाद गोयलीय २१३३२
वैशाली (एक समस्या)-मुनि कान्तिसागर ६।२६७ राष्ट्रकूट काल में जैनधर्म-डा. अ. स. अल्तेकर १२१२८३
वैशाली की महत्ता-श्री पार. प्रार. दिवाकर राज्यपाल राष्टकट गोविन्द तृतीय का शासनकाल-श्री एम. गोविद 4.१०।२२२
विहार १११४१६ रावण पाश्वनाथ की अवस्थिति-अगरचद नाहटा ६।२२२ राष्टकट नरेश अमोघवर्ष की जैन दीक्षा-प्रो. हीरालाल शहडोल जिले में जैन संस्कृति का एक अज्ञात केन्द्रएम. ए ५।१२३
प्रो. भागचद जैन भागेन्दु २२१७१ रोपड की खदाई में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वस्तुओं की उप- शाति और सौम्यता का तीर्थ कुण्डलपुर-श्री नीरज जैन लब्धि-१३।१५६
१७१७३
शिलालेखोमे जैनधर्मकी उदारता-बा. कामताप्रसाद २८३ वघेरवाल जाति--डा. विद्याधर जोहरापुरकर १७१६३ शोषकण-(१ तीन विलक्षण जिन बिम्ब, २ पतियान दाई, वडली स्तंभ खण्ड लेख-श्री बालचन्द्र जैन एम. ए.
३ भगवान महावीर ज्ञातपुत्रथे या नागपुत्र? ) श्री बाबू १०।१५०
छोटेलाल जैन १५४२२४
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३. पुरातत्त्व (इतिहास, संस्कृति, स्थापत्य, कला)
२२१
शोधकण-बाबू छोटेलाल जैन १६।४३
श्रीपुर पार्श्वनाथ मन्दिर के मूति-यत्र लेख सग्रहशोधकण-परमानन्द शास्त्री १८१६०
पं. नेमचन्द धन्नूसा जैन १८१२५, १९८० शोध टिप्पण-नेमचन्द धन्नूसा जैन १७।१२०
श्रीपुर में राजा ईल से पूर्व का जैन मन्दिरशोध टिप्पण-मुनि श्री नथमल १७।११८, १७।१२२ नेमचन्द धन्नूसा जैन १७।१४५ शोध टिप्पण-प्रो. डा. विद्याधर जोहरापुरकर १६।१७५, श्री बाहुबली की प्राश्चर्यमयी प्रतिमा-पा० श्री विजयेन्द्र १६।२५६
सूरि १२।३११ शोध टिप्पण-परमानन्द शास्त्री १६:१३८
श्री भद्रबाहु स्वामी-मुनि श्री चतुर्विजय (अनुवादक धमणगिरि चले-जीबबन्धु टी. एस. अनुवादक
परमानन्द) १३१६७८ पी. वी. वास्तव दत्ता जैन न्यायतीर्थ एम.ए. १४।१२५ श्रीमोहनलालजी ज्ञानभडार मूरत की ताडपत्रीय प्रतियांश्रमण परम्परा और चाण्डाल-डा. ज्योतिप्रसाद जैन एम.ए.
श्री भवरलाल नाहटा १८।१७६
श्री राहल का सिह सेनापति-श्री माणिकचद ६।२५३ १४।२८५
श्रुतकीति और उनकी धर्मपरीक्षा-डा० हीरालाल जैन श्रमण बलिदान-श्री अग्विल १२॥३६६ श्रमण सस्कृति और भाषा-न्या. प. महेन्द्र कुमार ५११६३ ।
एम. ए. ११।१०५
शृगेरी की पार्श्वनाथ वस्ती का शिलालेखश्रमण सस्कृति का प्राचीनत्व-मुनि श्री विद्यानन्द
बाब कामता प्रसाद जैन ६।२२४ २०।१२७ श्रमण सस्कृति के उद्धारक-ऋपभदेव-परमानन्द शास्त्री
सप्नक्षेत्र रासका वर्ण्य विषय-श्रीनगरचन्द नाहटा १५।१६० १६।२७३
ममन्तभद्र का मुनि जीवन और आपत्कालश्रमण मस्कृति में नारी-परमानन्द जैन १३१८४
मम्पादक ४।४१, ४।१५३ श्रावकव्रतविधान का अनुष्ठाना मानन्द श्रमणोपासक
समन्तभद्र का समय निर्णय-जुगलकिशोर मुख्तार १४१३ बालचन्द सि. शा. १९४७६
समन्तभद्र का समय-डा. ज्योतिप्रसाद जैन एम. ए. धावणकृष्ण प्रतिपदा की स्मरणीय तिथि-परमानद शा. एल. बी. १४१३२४ २१४७३
सम्राट अशोक के शिलालेखों की प्रमरवाणीश्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ पोली मन्दिर शिरपुर
श्री निर्द्वन्द १०१३०८ नेमचन्द धन्नूसा जैन २०११
साहित्य में अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ श्रीपुरश्री अन्तरिक्ष पाश्वनाथ वस्ती मन्दिर तथा मूल नायक
१. नेमचन्द घन्नूमा जैन १८१२२४, १८।२६५ मूति शिरपुर-नेमचन्द धन्नूसा जैन २०११६६ सिनन्नवासल-गुलाबचन्द अभयचन्द ६।३६३ श्री क्षेत्र वडवानी-प्रो. विद्याधर जोहरापुरकर १५८७
सिरि ग्वारवेलके शिला की १४वी पक्ति-बा. कामताप्रसाद
१२३० श्री खारवेल प्रशस्ति और जैनधर्म की प्राचीनता
सीरा पहाड के प्राचीन जैन गुफा मन्दिरकाशीप्रसाद जायसवाल ०२४१
श्री नीरज जैन १२२२२ श्रीधर स्वामी की निर्वाण भूमि कुण्डलपुर
मुत्रधार मडन विरचित रुपमडन मे जैन मूर्ति लक्षणजगमोहनलाल शास्त्री २०११९१
अगरचन्द नाहटा १६।२६४ श्रीपुर क्षेत्र के निर्माता राजा श्रीपाल ईल
सेनगण की भट्टारक परम्परा-श्री प. नेमचन्द धन्नूसा नेमचन्द धन्नूसा जैन २१३१६२
१८११५३ श्रीपुर निर्वाण भक्ति और कुन्दकुन्द
मोनागिरि की वर्तमान भट्टारक गद्दी का इतिहामडा. विद्याधर जोहरापुरकर १८।१४
श्री बालचन्द जैन एम. ए. १०।३६१
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२२२, वर्ष २२ कि० ५
अनेकान्त
सोनागिर सिद्ध क्षेत्र और तत्सम्बन्धी साहित्य
हमारा प्राचीन विस्मृत वैभव___ डा. नेमिचन्द शास्त्री २१११८
पं. दरबारी लालजी न्यायाचार्य १४।३० सोलहवीं शताब्दीकी दो प्रशस्तियाँ-परमानन्द शा. १८१६ हमारी तीर्थयात्रा के सस्मरण-प. परमानन्द शास्त्री संगीत का जीवन में स्थान-बा. छोटेलाल जैन ११११२५
१२।२४, १२।३६, १२।८६, १२।१६३, १२।१८८, संगीतपुर के सालुवेन्द्र नरेश और जैनधर्म
१२।२३५, १२।२७६, १२।३१६ बा. कामताप्रसाद ९१८७
हरिभद्र द्वारा उल्लिखित नगरडा. नेमिचन्द जैन १५१५१ संत श्री गुणचन्द-परमानन्द शास्त्री १७११८६ सस्कृत के जन प्रबन्ध काव्यो मे प्रतिपादित शिक्षा पद्धति
हस्तिनापुर का बड़ा जैन मन्दिर-परमानन्द जैन १३।२०४ नेमिचन्द शास्त्री १९।१०६
हूबड या हूमड वंश तथा उसके महत्वपूर्ण कार्य
परमानद जैन शास्त्री १३।१२३ हड़प्पा और जैनधर्म-टी. एन. रामचन्द्रन-अनुवादक होयसल नरेश विष्णुवर्धन और जैनधर्मबा. जयभगवान जी एडवोकेट १४११५७
पं. के. भुजबली १७।२४२
४. समीक्षा
साहित्य परिचय और समालोचन-सम्पादक ३९८
३।२००, ३१३७४, कि. ६ टा,३ साहित्य परिचय और समालोचन-पं. परमानद शास्त्री
४१३७, ४।३००, ४।३३४, ४१५२६, ४१६२८ साहित्य परिचय और समालोचन-परमानंद शा. ७।२८,
७।१६६ साहित्य परिचय और समालोचन-दरबारीलाल कोठिया
८.१०४ साहित्य परिचय और समालोचन-परमानन्द ८।२१३ साहित्य परिचय और समालोचन-बा. ज्योतिप्रसाद ___ ८२६५, ८।४२६, ८।४५८ साहित्य परिचय और समालोचन--4. परमानद शास्त्री ___६।१६५, ६।३६० साहित्य परिचय और समालोचन
पं. दरबारी लाल कोठिया ६।४३, ६६०, ६।१२४ साहित्य परिचय और समालोचन--परमानन्न शा.
१०१३८, १०८०, १०।१२० साहित्य परिचय और समालोचन-वालचन्द एम. ए.
१०११६३
साहित्य परिचय और समालोचन-दरबारीलाल जैन
४।३५८, १०।२३२, १०।३१० साहित्य परिचय और समालोचन-परमानंद शा०
११।७४, १११३३४, १११२२४ साहित्य परिचय और समालोचन-प. परमानद जैन
शास्त्री १२।४०, १२।१७१, १२।२३८, १२।२७०,
१२।३८५ साहित्य परिचय और समालोचन-परमानद जैन
१३॥६४, १३१६६, १३।१३२, १३।२६६ साहित्य परिचय और समालोचन-परमानंद जैन
१४ कि. ६ टा. १४,२१० साहित्य समीक्षा-डा. प्रेमसागर जैन १५७६, १५/६६,
१५।१४४, १५।१६२, १५।२३६, १५।२८८ साहित्य समीक्षा-डा. प्रेमसागर जैन १६।४४, १६।८७,
१६।१६०, १६।२४०, १६।२८६ साहित्य समीक्षा-डा. प्रेमसागर १७:४८, १७.६६,
१७११६२ साहित्य समीक्षा-परमानद शास्त्री १७९६, १७१४४,
१७।२८५
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कहानियां
२२३
साहित्य समीक्षा-डा. प्रेमसागर १८।२३६
साहित्य समीक्षा-डा. प्रेमसागर २०१३३६ साहित्य समीक्षा-परमानद शास्त्री १८१४५, १८९५, साहित्य समीक्षा-परमानंद शास्त्री २११४७, २११६५ १८१६२ १८।२६३
साहित्य समीक्षा--परमानद शास्त्री २१५१६० साहित्य समीक्षा-परमानंद शास्त्री १६।२०१, १६।२८६, और बालचन्द शास्त्री ११६०
१६३३७ साहित्य समीक्षा-डा. प्रेमसागर १६२८३
साहित्य समीक्षा-परमानद शास्त्री २२१४७ साहित्य समीक्षा-परमानंद शास्त्री २०१६३, २०११४३. साहित्य समीक्षा-परमानद शास्त्री २२०६३ २०१२३६
बालचद शास्त्री २२।६३
५. कहानियां
गही पे गृह में न रचे ज्यों-पं. कुन्दनलाल जैन एम. ए.
१७।१२४
अछूत की प्रतिज्ञा-श्री भगवत जैन ८।१२६ अपराध-श्री भगवत जन ८।३५६ अयोध्या का राजा-श्री भगवत जैन ४।२६५ अहिसा परमोधर्म-श्री भगवत जन २१५११
चरवाहा-श्री भगवत जैन ६।२५ चादनी के चार दिन-श्री भगवत जैन ६।३५४
प्रा
आत्म बोध-श्री भगवत जैन ४१५७ प्रात्मा का बोध-यशपाल बी. ए. २०१३ अात्मसर्मपण-श्री भगवत जैन ॥३३
जल्लाद-श्री भगवत जैन ४१५४७ जबकट-श्री भगवत जैन ४।३४२ जीवन नैया-श्री आर. के. आनन्द प्रसाद ४१४०१ जीवन है सग्राम-श्री भगवत जैन ८१२८८ ज्ञान किरण-श्री भगवत जैन २२३६२
उपासना-भगवनस्वरूप भगवत् १११६ उस दिन-श्री भगवत जन ३१२१७
तपोभूमि-श्री भगवत जैन ४।४४६ तुकारी-पं. जयन्ती प्रसाद शास्त्री १४।१०३
एक पत्नीव्रत-श्री भगवत जन ४१६०५
करनी का फल (कथा कहानी)-अयोध्याप्रसाद गोयलीय
६७२ कार्तिकेय-श्री सत्याथयभारती १५।१६७, १५।२१६ कुत्ते (कथा कहानी)-अयोध्या प्रसाद गोयलीय ६।१८२
नया मुसाफिर-श्री भगवत जैन ६।२७८ नर्स-बालचद जैन एम. ए. ६।३६१ नारीत्व-भगवतस्वरूप जैन भगवत २१३४५
रा
परख-स्व. श्री भगवत जैन ८।४३६ परिवर्तन-श्री भगवतस्वरूप जैन IEE पवित्र पतितात्मा-श्री सत्याश्रय भारती १५॥११५ पश्चात्ताप-प. जयन्तीप्रसाद शास्त्री १४१६१
गरीब का दिल-श्री भगवत जैन ४।३६४ गुरुदक्षिणा-बालचंद जैन विशारद ६:३३६
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२२४, वर्ष २२ कि०५
अनेकान्त
क
फल-बा. राजकुमार जैन ८३।३२३
रानी मृगावती-श्री सत्याश्रय भारती १५७१ रत्नराशि-श्री मनु ज्ञानार्थी "साहित्यरत्न" १३१२४ रानी-श्री भगवत जैन ४१४६२
भाई का प्रेम-नरेन्द्र प्रसाद जैन बी. ए. २।५५८ भ्रातृत्व-श्री भगवत जैन ४।२२१
शिकारी-श्री यशपाल २।२४८ शिकारी-श्री भगवत जन ३।२६६ शिक्षा-श्री यशपाल २१४४२
मातृत्व-श्री भगवत जन ३।७२ माधव मोहन-प्राचार्य प. जगदीशचन्द्र ६१६१ मै तो बिक चुका-श्रीमती जयन्ती देवी २१६३३
संदेह-श्री जयन्तीप्रसाद शास्त्री १४।३०२ सिदूर वाला-रवीन्द्रनाथ १६६८ सेवाधर्म-डा. भैयालाल जैन पी. एच. डी. २१११८ स्वाधीनता की दिव्य ज्योति-श्री भगवत जन ६।४६
युवराज-श्री भगवतजन ४।३२१
६. कविताएँ
अपना घर-श्री भगवत् जन ४।३३८ अपना वैभव-श्री भगवत् जैन ४१६०६ अपनी आलोचना और भावना-युगवीर १२।टाइटिल अपनी दशा-भगवत स्वरूप जन २।२७६ अभ्यर्थना-काशीराम शर्मा ६।५३८ अमर प्यार-श्री भगवत स्वरूप भगवत् २१४४२ अहिंसा-प. विजयकुमार जी ११११४२ अहिंसा की विजय-कल्याणकुमार शशि ७।१८९
अच्छेदन-श्री भगवत् जैन ४१५२८ अजसम्बोधन (सचित्र कविता)-'युगवीर' १११६४ मज संबोधन-श्री युगवीर ३३९० अज्ञातवास-श्री 'यात्री' ४१३७२ प्रतीत गीत-श्री भगवन्त गणपति गोयलीय १२९५ प्रतीत स्मृति-भगवतस्वरूप भगवत् २।३३७ अन्तर-मुनि अमृतचन्द 'सुधा' ६८ प्रतर्ध्वनि-श्री कर्मानद जैन २१२४६ अंतर्ध्वनि-भगवत स्वरूप भगवत् २०५६१ अद्भुत बधन-प अनूपचन्द न्यायतीर्थ ६।७१ अधिकार-भगवतस्वरूप जैन भगवत् २।२६५ अधूरा हार-श्री जगन्नाथ मिश्र गोड़ 'कमल' १११६८ अध्यात्म गीत-युगवीर १४१६२ अनित्यता-शोभाचन्द्र भारिल न्यायतीर्थ २१४८ अनुरोष-श्री भगवन्त गणपति गोयलीय ११६६ अनुरोष-माहिर कि० ३, टाइटिल ४ भनेकान्त-श्री कल्याणकुमार श.श ११२७
अाग्रह-प्रेमसागर पचरत्न ३।६४४ प्रात्मगीत-थी भगवत जैन ४।३४१ आत्म-दर्शन-पं. काशीराम शर्मा ४।२१६ प्रादा-रघुवीरशरण एम. ए. ३३६५६ पाशा गीत-भगवत जन ५॥३६१ प्रासू से-पं. बालचन्द जैन ६।२६२
इतिहास-देशदूत से २।४२१
उद्बोधन-कल्याणकुमार शशि ११३६७
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६. कविताएँ
२२५
उद्बोधन-श्री चन्द्रभान कमलेश १११४६
जिनेन्द्र मुद्रा का प्रादर्श-पं.दीचन्द्र ४।४७८
जीवन इसका नाम नही है-श्री भगवत् जन ८।२०३ एक बार-भगवत स्वरूप जैन भगवत् ५, कि. ७, टा. ३ जीवन नया-श्री कुसुम न ४१३१२ एक मुनिभक्त-श्री भगवत् जैन ५०२
जीवन यात्रा- ज्ञक्ष्मीचन्द जैन 'सरोज' १४॥३२६
जीवन है सग्राम-श्री भगबत् जैन ८।२२८ कविताकुज-युगवीर ११११३३
जीवन साध-प. भवानी शर्मा ३।२८५ कामना-युगवीर ४।३२७
जैन गुण दर्पण-जुगलकिशोर मुख्तार ८।३७५ किमकी जीत-नेमिचन्द्र जैन 'विनम्र १३।१०६ जैन तपस्वी-कवि भूधरदास ६।१२५ क्यों तरसत है ?-बाबू जयभगवान एडवोकेट १४१७६ जनी कौन ?-युगवीर १११४६
जनी नीति-श्री प. पन्नालाल साहित्याचार्य ४।१२२ खजुगहो के मन्दिरो से-श्री इकबाल बहादुर ८१६६ ज्ञानी का विचार-कविवर पानतरांय १२११०७
जैन संबोधन-युगवीर ११५५४ गद्य गीत-'शशि' ६।२३६ गाधी अभिनदन-रविचन्द्र जैन ४८५
तब-केदारनाथ मिश्र प्रभाव बी. ए. विद्यालंकार १११५२ गाध गीत-कमलकिशोर वियोगी ६१२३८
तरुण गीत-राजेन्द्र कुमार जैन २।३७० गाधी को याद-फजलुल रहमान जमालो ६८२ तरूण गीत - राजेन्द्रकुमार जैन कि०६, टाइटिल ३ गुलामी (खंडकाव्य)-स्व० भगवत् जैन ७।१३१ तुम टाल रहे जीवन क्षण-क्षण-मोमप्रकाश शर्मा ६१९१
तेराकण-भगवन्त गणपति गोयलीय छद्मवेषी खद्दर धारियो से-काशीराम शर्मा ७७३ तृष्णा-काशीराम जैन ६३५१ छलना-श्री भगवन्त गणपति गोयलीय ११३४१
दर्शन और बंधन-कल्याणकुमार जैन 'शशि' २२२५५ चचल मन-प. काशीराम शर्मा ४१३०६
दीपक के प्रति- रामकुमार स्नातक ३१५७२ चतविशति जिन स्तोत्र-परमानन्द शास्त्री ११११६५
दीपावली का एक दीप-भानदूत २२२६ चहक-श्री भगवत् जैन २१४० चितामणि पार्श्वनाथ स्तवन-सोमसेन १२१३२९ धर्म स्थिति निवेदन-श्री नाथूराम प्रेमी ११४२६
धार्मिक सबोधन-युगवीर १२२८ जग चिडिया रैन बसेरा है-हरीन्द्र भूषण ४।६७ जयकुमार (सं. कविता)-के. भुजबली शास्त्री ११६७ नाथ अब तो शरण गहूँ-मनु ज्ञानार्थी 'साहित्य रत्न' जय जय जुगलकिशोर-बुद्धिलाल श्रावक ६।१६१
१३६ जयवीर-श्री भगवत् जैन २१५०५
नीच पोर अछूत-भगवन्त गणपति गोयलीय १।२४ जागो जागो हे युगप्रधान-पन्नालाल साहित्याचार्य ६१०२ नीतिवाद-श्री भगवत् जैन २१५६६ जाग्रति गीत-कल्याणकुमार जैन २।२६५
नरकंकाल-श्री भगवत् जन ३२४७ जापति गीत-राजेन्द्र कुमार जैन 'कुमरेश' २१४६२
प जिन दर्शन स्तोत्र-प. हीरालाल पांडे ४१४८ पंछी (गद्यगीत)-भगवतस्वरूप जैन २१४५२ जिन्दगी और मौत-श्री मानमल जी १६।१७१ पछी नीड किधर है तेरा ?-विजयकुमार चौधरी १०१२६० जिन धुन महिमा-प. भागचन्द १११४१६
पथिक-नरेन्द्रप्रसाद बी. ए. २१३७७
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२२६, वर्ष २२ कि. ५
अनेकान्त
पथिक-श्री दद्दूलाल जैन ५।२६७
भाग्यगीत-श्री भगवत जैन ८.१०. पथिक से-ज्ञानचन्द भारिल्ल ७.१२०
भामा शाह-श्री भगवत जैन ८७४ प्यारी बांतुन-युगबीर १३३०७
भोवना-युगवीर २१६० परम उपास्य-युगीर १११६३ कि.१ टाइटिल ३ भीतर और बाहर-भूधरदास १७४१६४ परमाणु-पं. वैमसुखदास ३।४४० पर्युषण पर्व के प्रति-4. राजकुमार जैन ४।३७१
मंगलगीत-श्री भगवतस्वरूप भगवत् २१४२ पराधीनता जीवन ऐसा-श्री भगवत जैन ५१३७
मंगलशासन में (संस्कृत)-पन्नालाल जैन ६।१९८ परोपकार-गिरधर शर्मा २१३३४
मदीया द्रव्य पूजा-युगवीर ६३६५ पाव जिन जयमाला निंदा स्तुति
मन को उज्ज्वल धवल बना-बा. जयभगवान एडवोकेट स्व. पं. ऋषभदास चिलकाना निवासी १३१२८२
१४॥६१ पुण्य पाप-श्री भगवत्त जैन १४
मनो वेदना-श्री भगवत जैन २१२७२ पूजा राग समाज तातें जैमिम योग किम--
महापुरुष-प. दरबारीलाल न्यायतीर्थ ११६३ स्व. पं. ऋषभदास १३११८५
महावीर गीत-शान्तिस्वरूप कुसुम ३३८६ पंथी से-श्री कुसुम जैन १५८
महावीर सन्देश-युगवीर १११८ प्रकाश रेखा-स्व. भगवत जैन ७.१८०
महावीर स्तवन-प. नाथूराम प्रेमी ११।१०२ प्रणाम-पं. चैनसुखदास ॥१३५
महावीर स्वामी से भक्त की प्रार्थना-प. नाथूगम प्रेमी प्रतीक्षा-कल्याणकुमार 'शशि' २।१६५
१११३८ प्रश्न-श्री रत्नेश विशारद ३१४५०
महावीर है-प. मुन्नालाल विशारद ११५४८ प्रार्थना-नाथूराम प्रेमी १३३२१
महा शक्ति-"शशि" ८/१७२ प्रार्थना-चौधरी वसन्तलाल ॥५९६
मानवधर्म-युगवीर ३१३०३
मानव समान-पं. नाथराम डोगरीय २१३६६ फूल से-घासीराम जैन कि.-६ टाइटिल १०
मीठे बोल-श्री कुसुस जैन १३७०
मोन सवाद-युगवीर ३।४०, ११।१०८ बंदी-पं. काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' श२५
मुक्तिगान-श्री मनु ज्ञानार्थी "साहित्यरत्न" १३।१२० बासी फूल-श्री भगवत जैन ११३८
मुझे न कही सहारा-राजेन्द्रकुमार ६०१८ बुझता दीपक-कल्याणकुमार 'शशि' ४१५४
मेरा धौशव भी ऐसा था-श्रीविजयकुमार "चौधरी" बुढापा-कवि भूधरदास ६।२१३
१०१३५२ बुरी भावना-गिरधर शर्मा (नवरल) ११०६
मेरी भभिलाषा-रघुवीरशरण अग्रवाल वर्ष २ कि.७ टा. ३
मेरी द्रव्य पूजा-जुगलकिशोर मुख्तार ३३५ भक्तिभाव भर दे-प. मुन्नालाल मणि ११५६५ मेरी भावना अपने इतिहास और भनुवादों के साथभगवान महावीर-मानन्द जैन दर्शनशास्त्री २१३४२
युगवीर ११३१३४ भगवान महावीर-वसन्तकुमार जैन १७१७२ भगवान महावीर से-पं. नाथराम डोंगरीय ७।६० यदि तुम्हारा प्यार होता-भगवत जैन ६।२५६ भगवान महावीर से धर्मस्थिति निवेदन-प. नाथूराम प्रेमी यह सब ही खोना है-भगवत जैन ४१२४७ १११११२
युग के चरण मलख चिर चंचल-तन्मय बुखारिया भविष्यवाणी-श्री काशीराम शर्मा ८।१०५
६।२४३
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________________
६. कविताएं
२२७
युगगीत-काशीराम शर्मा ८११६२ युग परिवर्तन-मनु ज्ञानार्थी साहित्यरत्न १२१३४२ युगान्तर हमारा लक्ष्य-भगवत जैन २१६३८ युवकों से-कल्याणकुमार शशि ११३०३
रामगिरि पार्श्वनाथ स्तोत्र-जुगलकिशोर १११७३
वर्णी बापू-सौ० चमेली देवी १०१११६ वासनायो के प्रति-श्री भगवत जैन ५।२६२ विधि का विधान-युगवीर किरण ६ का टा• पृ. १ विनय स्वीकारो-प. सूरजचन्द ७।१५८ वोर निर्वाण-कल्याणकुमार शशि २२ वीर वन्दना-युगकीर १०।१२१ वीर वन्दना-युगवीर ११११ वीरवाणी-युगवीर १०२ वीर वाणी-भगवन्त गणपति गोयलीय ११६६ वीर वाणी-कल्याणकुमार 'शशि' २२२२६ वीर प्रभु की वाणी-युगवीर वर्ष ३ कि० १ टा. ३ वीर शासन-प. हरिप्रसाद शर्मा २।१५४ वीर शासन जयन्ती-श्री सोमप्रकाश शर्मा ४।३६४ वीरशासनपर्व का स्वागत गान-वैद्य प्रोमप्रकाश ७।२०६ वे प्रार्य-प. रतन चन्द्र २१६५७
सखि पर्वराज पर्यषण पाये-'मनु' ज्ञानार्थी १३१६१ सच्चा कर्म योगी-श्री माधव शुक्ल ८।४७ सच्ची खोज-प. दरबारीलाल कोठिया १७७ सत्कर्म सन्देश-पं. नाथूराम प्रेमी १२६२ सत्मग अज्ञात- २१३३४ सना का अहकार-चैनसुखदास ६।११ मत्य वचन माहात्म्य-मुन्नालाल मणि १३।७२ सन्देश-पुष्पेन्दु ७१३ सन्देश-सन्देश-भगवन्त गणपति गोयलीय १।१६४ सफल जन्म-भगवत जैन ३१४८ समन्तभद्र स्तोत्र-युगवीर १४१२ समय रहते सावधान-कवि भूधरदास ॥१८६ समर्पण-बाबू जयभगवान १७१४७ समस्या पूति-पं. दरबारीलाल १२२५२ समाज सम्बोधन-युगवीर ११४४६ सम्यग्दृष्टि-कवि बनारसीदास ६।१६७ सलाह-श्री शरदकुमार मिश्र ६।२४८ समार की सपत्ति कैसी-बनारसीदास ॥३१० संमार वैचित्र्य-श्री ऋषिकुमार ४३६६ साधु-विवेक-प. दलीपसिंह कागजी वर्ष ६ कि० ५
टाइटिल १ साधु विवेक-दलीपसिंह कायजी १२४२६ सिकन्दर प्राजम का अन्त समय- ४३१६ सुख का उपाय-युगवीर टाइटिल कि०६, १ सुख का सच्चा उपाय-युगवीर १।१२६ स्वपर-गुण पहिचान रे-कविवर बेबीदास १११३०२ स्वभाव तेरा धर्म है-वसंतकुमार बन १६६२५८ स्वार्थ-श्री चित्र २२१५ स्वागत गान-ताराबन्द्र प्रेमी ११३८ स्वागत गान-कल्याणकुमार 'शशि' २२
शरद सुहाई है-प. मुन्नालाल 'मणि' ११६५४ शान्ति-श्री नूतन ११५०४ शिक्षा-ब. प्रेमसागर 'पचरत्न' ३१६५६ श्रद्धांजलि-अनूपचन्द जैन न्यायतीर्थ श्रद्धांजलि-श्री व्रजलाल जैन ६।२३२ श्री जंबू जिनाष्टक-पं. दरबारीलाल कोठिया VIE श्री जिनाष्टक पदी-पं. घरणीघर शास्त्री ४.३०२ श्री वीर की प्रमली जयन्ती-पं. मर्जुनलाल सेठी १५३६४ श्री वीर जिन पूजाष्टक-जुगलकिशोर मुख्तार १३६१२२ श्री वीर पंचक-पं. हरनाथ द्विवेदी ५७४
हम प्राजादी के द्वार खड़े हैं-पं. काशीराम शर्मा ८.१५३ हम तुमको विभु कब पाएंगे-श्री हीरक ६।२४५ हमारा जैनधर्म-प. सूरजचन्द जी डांगी २।३९८ हल्दी धारी-श्री भगवत जैन १६४
संकट का समय-श्री भगवत बैन ।१३३ संत विचार-पं. भागचन्द जी १४२०
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२२८, वर्ष २२ कि०५
भनेकान्त
हार जीत-श्री भगवत जैन ६।२७२
होली होली है-युगवीर ३१३५१ हिन्दी गौरव-पं. हरिप्रसाद शर्मा 'पविकसित' है।६३ होली होली है-युगवीर 88 हिंसक और हिंसक-मुन्नालाल 'मणि'
हृदय की तान-प. दरबारीलाल श६२० है मोती सा नीर अरे मेरे जीवन का-मुनि श्री मानमल हृदयोद्गार-प. दरबारीलाल ११६२० वीदासर १६२८५
हृदय है बना हुमा फुटयाल-युगवीर ८।६८ होली-श्री युगवीर ३१३५६
हृदयोद्बोधन-पं. दरबारीलाल ११५१६
७. व्यक्तिगत (परिचय, अभिनन्दन आदि)
ए
अनासक्त कर्मयोगी-पं. कैलाशचन्द १६१०
ऐसे उपकारी व्यक्ति को श्रद्धा सहित प्रणाम (कविता)अनुसंधान के पालोक स्तंभ-प्रो. प्रेममुमन जैन २१।२११ कल्याणकुमार 'शशि' १९३६ अनेकान्त प्रौर बीरसेवामन्दिर के प्रेमी बा. छोटेलाल- ऐसे थे हमारे बाब जी
ऐसे थे हमारे बाबू जी-विजयकुमार चौधरी एम. ए. ____ जुगलकिशोर मुख्तार १९:१८१ ।
२११२४६ अन्तिम तीन इच्छाएं-डा. प्रेमसागर १६०२३ अभिनंदन पत्र १६१६५, १६३१६६
उदारमना स्व. बाबू छोटेलाल जी-प. बंशीधर शास्त्री अमरकृतियों के स्रष्टा ६।१७६
१६२ अमरमानव-संत राम बी. ए. ३१५३३
उनकी अपूर्व सेवाएं-पन्नालाल अग्रवाल १९४८ अमर साहित्य सेवी-पं. कैलाकचन्द्र सि. शा. २११२०६
उनके मानवीय गुण-अक्षयकुमार जैन १६।१८ अहिंसा के पुजारी अलबर्ट स्वाइट्जर-प. बनारसीदास
उस मृत्युंजय का महाप्रयाण-डा. ज्योतिप्रसाद जैन चतुतेदी एम. पी. १५४४
एम. ए. पी. एच. डी. २११२२३ प्रा प्राचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार-डा. कस्तूरचन्द जी
एक अकेला आदमी-मुनि कन्तिसागर १६:३४ कासलीवाल २११२७३
एक अपूरणीय क्षति-पन्नालाल साहित्याचार्य २११२५४ प्राचार्य श्री मुख्तार जी-पं. मोहन शर्मा ६.१७६
एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व-भंवरलाल नाह १९९७ प्रादर्श अनुसन्धाता-डा. ए. एन. उपाध्ये ६।१७६
एक झांकी-पं. रविचन्द्र ६।१८३ मादर्श पुरुष-पं. अजितकुमार शास्त्री ६१८०
एक निष्ठावान् साधक-जैनेन्द्र कुमार जैन ११७ आधुनिक जैन युग के 'वीर-श्री मती विमला जैन २१।२५६
एक महान् साहित्यसेवी का वियोग-सम्पादव ।२६५
एक सरस कवि-पं. मूलचन्द्र वत्सल ६२५७ इतिहास का एक युग समाप्त हो गया-डा. गोकुलचन्द्र
एक संस्मरण-डा. ज्योतिप्रसाद जैन १९१६० जैन एम. ए. २११२७० इतिहास के एक अध्याय का लोप-डा. भागचन्द्र जैन भागेन्दु २११२७५
कठोर साधक-पं. लालबहादुर शास्त्री ६।१८३
कतिपय श्रद्धांजलियां-विविध विद्वानों और प्रतिष्ठित ईसरी के संत-जुगलकिशोर ४, चित्र
व्यक्तियों द्वारा २१४१६४-२०७
ए
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७. व्यक्तिगत (परिचय, अभिनन्दन प्रावि)
२२६
कल्याण मित्र-डा. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये १६८ किशोरीलाल घनश्याम मशरूवाला-बा. माईदयाल जैन
बी. ए. बी. टी. ११॥३०० कृपण, स्वार्थी, हठग्राही-श्री कौशलप्रसाद जैन ६।२१५
नाम बड़े दर्शन सुखकारी-अमरचंद जैन १९९७ निर्वाण काण्ड को निम्न गाथा पर विचार-पं. दीपचन्द
पाण्डया १६।२६१
जीवन के अनुभव-अयोध्या प्रसाद गोयलीय
पं. चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ का स्वर्गवास-डा. कस्तूरजीवन चरित्र-बा. माईदयाल ६।१३३
चन्द कासलीवाल २१४२८४ जीवन सगिनी की समाधि पर सकल्प के सुमन
पुरानी यादे-डा. गोकुलचन्द जैन, १९३२ स्व. बाबू जी को डायरी का एक पृष्ठ १६।३६
पुराने साहित्यिक-प्रो. शिवपूजन सहाय ६।१८०. जैन जागरण के अग्रदूत-बा. मूरजभान वकील का पत्र
पं. गोपालदास जी बरैया-अयोध्याप्रसाद गोयलीय ६।१८४ .
१०५ जन जागरण के दादा भाई-ब. सूरजभान कन्हैयालाल
प. जवाहरलाल नेहरू क्या थे? -१७१५० मिश्र प्रभाकर ६८८
पडित जी से मेरा परिचय-एम. गोविन्दप ६।२१२ जैन जाति का सूर्य अस्त-जुगलकिशोर मुख्तार ७।२२५ पंडिता चन्दाबाई-प. कन्हैयालाल प्रभाकर ६१४६ जैनसमाज के भीष्म पितामह-डा. दवेन्द्र कुमार २१५२१३ पं. शिवचन्द्र देहलीवाले-बा. पन्नालाल अग्रवाल जैन साहित्यकार का महाप्रयाण-पं. सरमनलाल जैन ६।३०२ दिवाकर २११२६२
प्रो. जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा-सम्पादक जैन साहित्य के अनन्य अनुरागी-डा. वासुदेव शरण ३१६६६, ३७२६
अग्रवाल, डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल १९२५२ जो कार्य उन्होंने अकेले किया वह बहुतो द्वारा सम्भव बड़े अच्छे है पडित जी-कुमारी शारदा ६।२२२
नहीं-डा. दरबारीलाल कोठिया २१४२६३ बाबा भगीरथजी वर्णी का स्वर्गवास-पं. परमानंद शास्त्री ज्ञान तपस्वी गुणी जनानुरागी-रतनलाल कटारिया १६।२१ ५।३१
बाब छोटेलाल जी जैन रईस कलकत्ताके विशुद्ध हृदयोदगार तपस्वी, श्री जमनादास व्यास बी. ए. ६।१८१
-सम्पादक तीन दिन का आतिथ्य-डा. नेमिचन्द्र शास्त्री १६४५ बाहर कड़वे भीतर मधुर-बा. पन्नालाल ६।२२८
बी. एल. सराफ एडवोकेट की श्रद्धाञ्जलि-२।६२२ दिगम्बर परम्परा के महान् सेवक-पं. राजेन्द्र कुमार ब्र. शीतल प्रसाद जी का वियोग-बा. जयमगवान ५२४ न्यायतीर्थ ६।१८५
भ देश और समाज के गौरव-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल भविष्य के निर्माता-प्राचार्य ब्रहस्पति ६।१८० १९२
भावभीनी सुमनाजलि-बा. कपूरचन्द बरैया एम. ए. दो श्रद्धांजलिया-प्रेमचंद्र जेन २१२८३
२१२२७७ दो संस्मरण-स्वतंत्र जैन १९१६९
भावी पीढी के पथ-प्रदर्शक-बा. कामताप्रसाद ६।१७८
व
घन्य जीवन-श्री जुगलकिशोर मामराज हर्षित ६।१६० महान साहित्य सेवी श्री मोतीलाल जैन-विजय एम. ए., धर्म और संस्कृति के अनन्न प्रेमी-पं. के भुजबली शास्त्री बी. एड. २१०२५६ धर्मप्रेमी बाबू छोटेलाल जी-विशनचंद्र जैन १६१६७ मुख्तार जी की विचारधारा-पुरुषोत्तमदास ६१८७
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२३०, वर्ष २२ कि० ५
अनेकान्त
मुख्तार महोदय और उनका सर्वस्व दान ६।१६३ मुख्तार सा० के परिचय मे-बा. ज्योतिप्रसाद ६२२१ मुख्तार सा० का जीवन चरित्र- ६।१६७ मुख्तार साहब का व्यक्तित्व और कृतित्व-परमानन्द
शास्त्री २११२१५ मुख्तार साहब की बहुमुखी प्रतिभा-पं. बालचन्द सि. शा.
२११२२७ मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी का ट्रस्टनामा १११६५ मूक जन सेवक बाबू जी-प्रभुदयाल 'प्रेमी' १६।३१ मुक सेवक-प्रो. भागचन्द्र जैन १९१६ मेरा अभिनंदन-न्या. पं. माणिकचन्द्र ६११६६ मेरा अभिनदन-प. धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री ६।१८६ मेरे जैनधर्म प्रेम की कथा-बी. एस. सराफ एडवोकेट मेहमान के रूप में-ला. ऋषभसैन जैन ६।२२२
वह देवता नहीं, मनुष्य था?-दौलतराम 'मित्र'५१५२ वह मनुष्य नही देवता था-अजितकुमार ५२१६८ वह युगस्रष्टा संत-मनु ज्ञानार्थी २११२३२ वाह रे मनुष्य-बा. महावीर प्रसाद बी. ए. ६१६ विचारवान सहृदय व्यक्ति (एक सस्मरण)
__ पन्नालाल साहित्याचार्य १९१८८ विनम्र श्रद्धांजलि-कपूरचंद वरया १६१६४ विपत्ति का बरदान-बा. महावीरप्रसाद २२२२० विमलभाई-अयोध्या प्रसाद गोयलीय ॥६१ विरोध मे भी निविरोध-श्री रवीन्द्रनाथ-जैन ६।२१२ बे एक प्रकाशक के रूप में काशीराम शर्मा ६२०६ वे क्या नहीं थे-नीरज जैन १९१२ वे महान थे-प्रकाश हितैषी १६२०० व्यक्तित्व के धनी-यशपाल जैन १६॥२६
युगपरिवर्तक पीढी की प्रतिम कड़ी थे युगवीर
श्री नीरज जैन २११२६७ युगपुरुष की भागशालिता-काका साहिब कालेलकर
१७.५१ युग-युग तक युग गायेगा युगवीर कहानी (कविता)
पं. जयन्तीप्रसाद शास्त्री २११२७६ युगवीर का राष्ट्रीय दृष्टिकोण
जीवनलाल जैन बी. ए. बी. एड. २११२३३ युगवीर के जीवन का भव्य प्रत
डा. श्रीचन्द जैन 'सगल' २११२४३ युग संस्थापक-प्रो. हीरालाल एम. ए. ६।१८०
श्रद्धाजलि-वर्ष १६। कि० १ टाइटल ३ श्रद्धाजलि-१७। कि० २ टाइटल १ श्रद्धाजलि (परिशिष्ट)-दौलतराम मित्र २२२७८ श्रद्धांजलि (परिशिष्ट)-डा. दरबारीलाल कोठिया
२११२७७ श्रद्धांजलि-नेमचंद जैन १९१९८ श्री गुरुवर्य गोपालदास बरया-प.माणिकचन्द न्यायाचार्य
२०१४२ श्री जुगलकिशोर जी 'युगवीर' (कविता)
रामकुमार एम. ए. २११२६६ श्री दादी जी-जुगलकिशोर मुख्तार ५॥२३७ श्री नाथूराम प्रेमी-जैनेन्द्र कुमार २१३५३ श्री बाबू छोटेलाल जैन का संक्षिप्त परिचय
डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल १९७७ श्री बाबा लालमनदास जी और उनकी तपश्चर्या का
माहात्म्य-परमानंद जैन १४४७ श्री मुख्तार साहब अजमेर में फतहबन्द सेठी २११२८२ श्री लालबहादुर शास्त्री-यशपाल जैन १८१२३०
राजा हरसुखराय-पं. परमानन्द जैन शास्त्री १५११ रायचंद जैन के कुछ संस्मरण-महात्मा गाँधी २१४५३
लाला जिनेश्वरदास संघवी-संपादक श२४०
बयाना जैन समाज को बाबूजी का योगदान
कपूरचंद नरपत्येला १६।३७ वर्गी जी का प्रात्म-पालोचन और समाधि-संकल्प
श्री नीरज जैन १८।१२५
सच्चा जैन-डॉ. दशरथ शर्मा १६२. सच्चे अर्थों में दानवीर-जगबकिशोर मुख्तार
.
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८. सामयिक
२३१
सत्यान्वेषी श्री युगवीर-कस्तूरचंद एम. ए. बी. एड. सेठ सुगनचंद-प्रयोध्याप्रसाद गोयलीय २।४१५ २११२३७
सस्मरण (परिशिष्ट) १३-दौलतराम मित्र २११२७० समाज के वो गण्यमान सज्जनों का वियोग-५:१६७ सस्मरण-पं. हीरालाल सि. शास्त्री १९१९२ समाज के प्रमुख पुरुषों की शुभ कामनाएं-६।२०१ स्व. छोटेलाल जी का वश वृक्ष-श्री नीरज जैन १९३५ सरस्वती पुत्र मुख्तार सा.
स्व. दीनानाथ जी सरावगी कलकत्तापं. मिलापचन्द रतनलाल कटारिया २११२३६
सम्पादक (जुगलकिशोर मु) ११।२५५ सरसावा का संत-श्री मगलदेव ६२१३
स्व. नरेन्द्रसिंह सिंधी का सक्षिप्त परिचय-२०१२३७ सहयोगी सत्य प्रकाश की विचित्र सूझ
स्व. मोहनलाल दलीचंद देसाई-भवरलाल नाहटा ६।२१ सम्पादक ६।१४५
स्व. बाबू सूरजभान जी वकील-थी दौलतराम मित्र सात विशेषताएं-दौलतराम 'मित्र' ६१७७
८२५ साहित्य गगन का एक नक्षत्र अस्त-पं. बलभद्र जैन स्वय अपने प्रति-एक अनन्य भक्त ६।२०१ २१२२६८
स्वर्गीय पं. जुगलकिशोर जीसाहित्य जगत के कीर्तिमान नक्षत्र तुम्हे शतशः प्रणाम डा. प्रा. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् २११२५८
(कविता)-अनूपचद न्यायतीर्थ २११२४८ साहित्य तपस्वी-कल्याण कुमार जैन ६।१६०
हमारे गर्व- श्री दुलारेलाल भार्गव ६।१८६ साहित्य तपस्वी को बंदन-पं. परमेष्ठीदास ६.१८१
हमारे पत्रकारो की शुभ कामनाए. ६।२०४ साहित्य तपस्वी स्व. मुख्तार सा...-प्रगरचद नाहटा हमारे माननीय अतिथि-६।१७३ २११२३५
हमारे विद्वानों की शुभ कामनाएं-६।२०३ साहित्य देवता-पं. माणिकचंद ६।१८२
हमारे सभापति एक अध्ययन-१. कन्हैयालाल ६।१६१ साहित्य प्रेमी श्री अगरचंद जी नाहटा
हमारे सहयोगी-६।१६६ श्री हजारीमल बांठिया ८३६
हवि रश्मि नाम-डा. व
८. सामयिक
अपराध और बुद्धि का पारस्परिक सम्बन्धप्रत्यावश्यक वर्णी सन्देश-शिखरचन्द जैन १२॥३८१
साध्वी श्री मजुला १८।१६२ अनुकरणीय-व्यवस्थापक, किरण २ वर्ष ४, कि० ५ वर्ष ४ अपहरण की आग में झुलसी नारियाँ-प्रयोध्याप्रसाद अनुपम क्षमा-श्री मद्राजचन्द्र ३११७६
गोयलीय ६।३१६ भनेकान्त का द्वितीय वार्षिक हिसाब-१२।३८७
अभिनदन और प्रोत्साहन-११५८ अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और शांति किस प्रकार प्राप्त हो
अभिनंदन-काशीराम शर्मा ६.१८६ सकती है ?-शांतिलाल वनमाली सेठ २२००५
अभिनंदन पत्र ६।१७२ अपने ही लोगों द्वारा बली किये गए महापुरुष-६।१५७ प्रभिनंदन पत्र-बीर सेवक संघ देहली ५।२३६ अपमान के बाद में माशीर्वाद-श्री स्वतंत्र १२२० अभिनदनादि के उत्तर में पं. जुगलकिशोर मुख्तार का अपमान या प्रत्याचार-संपादक ७५६५
भाषण ६१६५
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२३२, वर्ष २२ कि. ५
अनेकान्त
प्रा
अस्पश्यता विधेयक और जैन समाज-श्री कोमलचन्द जैन कलकत्ता में वीरशासन का सफल महोत्सव-संपादक ७१३० एडवोकेट १३३२१२
कला प्रदर्शनी की उपयोगिता-श्री अगरचन्द नाहटा ६।३०६ अडतीसवे (३८) ईसाई तथा सातवे बौद्ध विश्वसम्मेलन कल्पसूत्र : एक सुझाव-कुमार चन्दसिंह दुघोरिया १७४२३०
की श्री जैन संघ को प्रेरणा-कनकविजय १७२८१ कायरता घोर पाप है-श्री अयोध्याप्रसाद ८।२५५ १८७०, १८।१४०
कार्यकर्तामों और सस्थाओं के उद्गार ६।२०७
किसके विषय मे मै क्या जानता हूँ ?-ला. जुगलकिशोर आकस्मिक वियोग-१७१४५
__कागजी १०१२० पाखिर यह सब झगड़ा क्यों ? बाबू अनन्तप्रसाद जैन केकड़ी जैन समाज का स्तुत्यकार्य- १४१६६
केकडी जैन समाज B. Sc. Eng. १०।१४१
कैवल्य दिवस एक सुझाव-मुनि श्री मगराज २०७४ प्राचार्यद्वय का सन्यास और उनका स्मारक-पं हीरालाल क्या गृहस्थ के लिए यज्ञोपवीत मावश्यक है ? . सि. शा. १४१७७
प. रवीन्द्रनाथ ६।६० : प्राचार्य मानतंग-डा. नेमिचन्द शास्त्री एम. ए. १८।२४२ क्या पर्दा प्रथा सनातन है ?-ललिताकुमारी ४१३८७ पात्मविश्वास ही सफलता का मूल है-श्री अखिलानन्द क्या मास मनुष्य का स्वाभाविक आहार है ?रूपराम शास्त्री ८।१३८ ।
प. हीरालाल सि. शा. १४॥२३५ आदमी, जानवर, या बेकार?-श्री भगवत जैन ५१२४८ पाबू पादोलन-बा. जयभगवान वकील श२०१
खानपानादि का प्रभाव-हीरालाल सि. शा. १४।१६८ पावश्यक निवेदन-श्री दौलतराम 'मित्र' ६।२६२
ग आश्रम का स्थान परिवर्तन (समन्तभद्राश्रम) ११६५३ गरीबी क्यों ? - स्वामी सत्यभक्त १२॥३१४
गलती और गलत फहमी-सपादक ६।३६६ ईसाई मत के प्रचार से शिक्षा-पं. ताराचन्द जैन ४१६८१ गोशवारा हिसाब ग्रामद खर्च-वीरसेवकसंघ समन्त
भद्रायम ११४१७ उन्मत्त ससार के काले कारनामे-पं. नाथराम डोगरीय
चारसौ पच्चीस (४२५) रु० के दो नये पुरस्कार
जुगलकिशोर मुख्तार १२१४७ उपासना का अभिनय -प. चैनसुखदास न्यायतीर्थ ३१४२६
चिट्ठा हिसाब अनेकान्त के १३वे वर्ष का-१३।३१७
चिट्ठा हिसाब अनेकान्त 'दशम वर्ष' १०१४३१ एक प्राक्षेप-संपादक ११४१६
चिट्ठा हिसाब अनेकान्त १४वें वर्ष का १४॥३५३ एक आदर्श महिला का वियोग-संपादक ४।११
चौदहवीं (१४वीं) शताब्दी की एक हिन्दी रचना-- एक विद्वान के हृदयोद्गार-संपादक १२६७
पं. कस्तूरचन्द कासलीवाल एम. ए. १२।२३ एक विलक्षण आरोप-सपादक ११६५५ एक साहित्यसेवी पर घोर संकट-जुगलकिशोर मुख्तार
छोटे राज्यों की युद्ध नीति-श्री काका कालेलकर ३।४६५
२॥३४८
५२१६६
कर्तव्य पालन का प्रश्न-श्री राजेन्द्रकुमार ३१२१० कलकत्ता के जैनोपवन में वृक्षारोपण-समारोह
तुलसीराम जैन १०.४२८। कलकत्ता में महावीर जयंती-संपादक १७६२
जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती हैं-श्री लाला हर
दयाल एम. ए. ३१३६० जीवन की विशा-विद्यानन्द छपरोली ६।१५८ जैन कला प्रदर्शनी मौर सेमिनार-हीरालाल शास्त्री
१४११४५
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८. सामयिक
२३
६१०४
जैन कालोनी और मेरा विचार-जुगलकिशोर मुख्तार १३
दही बडो की डांट-श्री दौलतराम मित्र' ५११६१ जैनधर्म आजादी का प्रतीक है--डा. प्रेमसागर १६२ दीवाली और कवि-पं. काशीरामशर्मा 'प्रफुल्लित' ५।२९ जैनधर्म का प्रसार कैसे होगा?-श्री नाथूराम प्रेमी दुनिया की नजरो में वीर सेवा मन्दिर के कुछ प्रकाशन१६११०
सम्गदकीय ११४२१७ जैनधर्म की झलक-प. सुमेरचन्द दिवाकर ६६२, दुमह भ्रातृ वियोग--जुगलकिशोर मुख्तार १२ टा. पे०२
दसरे जीवों के साथ अच्छा व्यवहार कीजिएजैनधर्म पर अजैन विद्वान- ६।११७
शिवनारायण सक्सेना एम. ए. १७१६६ जैनधर्म पर अर्जन विद्वान-शिवव्रतलाल वर्मन ६।१३२ ।।
देहली मे वीरशासनजयती का अपूर्व समारोहजैनधर्म बनाम समाजवाद-पं. नेमिचन्द ज्योतिषाचार्य
प परमानन्द शास्त्री वर्ष १० कि० १ टा. पृ० ३ १८९
देहली मे वीरसेवामन्दिर ट्रस्ट की मीटिंग १११३०४ जैन समाज किघर को-बा. माईदयाल २०५६८ जैन सत्य प्रकाश की विरोधी भावना-सपादक ६।३२१ जैन समाज की कुछ उपजातियाँ-परमानन्द शास्त्री २२।५० घना
धवलादि ग्रन्थों के फोटो और हमारा कर्तव्य
राजकृष्ण जन १२॥३६६ जैन समाज की सामाजिक परिस्थिति-डा. क्रोझे पी. एच.
धर्म और वर्तमान परिस्थितियाँ-पं. नेमिचन्द जैन डी. (जर्मन महिला सुभद्रा देवी) ११४६३
ज्योतिषाचार्य ४६७ जैन समाज के अनुकरणीय प्रादर्श-अगरचन्द नाहटा
धर्म और राजनीति का समन्वय-पं.कैलाशचन्द ११६०० ३।२६३ जैन समाज के समक्ष ज्वलंत प्रश्न-कुमार चन्द्रसिंह
धर्म और राष्ट्रीयकरण (एक प्रवचन)-प्राचार्य तुलसी दुधौरिया १७।१८६
१२॥३४८ जैन समाज के सामने एक प्रस्ताव-दौलतराम 'मित्र'
धर्म का मूल दुख में छिपा है-बा. जयभगवान वकील १३।२८४
३।४८२ जैन समाज क्यो मिट रहा है ?-अयोध्याप्रसाद गोयलीय
धर्म बहुत दुर्लभ है-बा. जयभगवान वकील ३१५४५ २०७३, २।१६६, २२११
धर्म ही मगलमय है-अशोककुमार जैन १-११०७ जैन साहित्य के विद्वानों की दृष्टि में ६।२०६
धर्माचरण में सुधार-बा. सूरजभान वकील ३१३८५ जैन संस्कृति संशोधन मंडल पर अभिप्राय-पं. दग्वारी- धामि
धार्मिक वार्तालाप-सूरजभान वकील २२२६६ ___ लाल जैन ८७६ जैनागम मौर यज्ञोपवीत-पं. मुमेरचन्द ६।३०२
नवयुवकों को स्वामी विवेकानन्द के उपदेशजैनियों का अत्याचार-जुगलकिशोर ११४३३
डा. बी. एल. जैन ३१५६६ जैनी कौन हो सकता है ?-जुगलकिशोर ११२८८ नियमावली वीर संघ और समन्तभद्राश्रम की ११४१३
नूतन भवन के शिलान्यास का महोत्सव-परमानन्द जैन
१३।२७ तमिल प्रदेशों में जैन धर्मावलम्बी-श्री प्रो. एम. एस. न्या. पं. माणिकचन्द जी का पत्र १११६० रामस्वामी प्रायंगर एम. ए. १२।२१६
प तृतीय विश्व धर्म सम्मेलन-डा. बूलचन्द जैन १७४२३६ पत्र का एक अंश (अध्यापक अभिविषयक) १३६३ तृष्णा की विचित्रता-श्रीमद्राजचन्द्र २१६३७ पत्रकार के कर्तव्य की मालोचना-संपादक ७१४६
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२३४, वर्ष २२ कि० ५
अनेकान्त
परिषद के लखनऊ अधिवेशन का निरीक्षण -
भारतीय जनता की स्थापना-श्री विजकुमार चौधरी कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ६।३१४
१०।२८६ पंडित गुण-सपादक ५।३६२
भाषण श्रीमती रमारानी ६।३१२ पडित जी के दो पत्र-६।११७ पंडित बेचरदास जी का अनोखा पत्र-सपादक ६.३२१ मक्खनवाले का विज्ञापन ४।२३५ पाच सौ ६० के पाच पुरस्कार-जुगनकिशोर मुनार मजदुगे से राजनीतिज्ञ-बा. माईदयाल जैन ३००० ११०२१३
महात्मा गांधी के धर्म सम्बन्धी विचार-डा. भैयालाल पर्युषण पर्व और हमारा कर्तव्य --बा. माणिक चन्द ६।३०
४।११२ पापभार बहन की मर्यादा-सपादक ८,१८५
महात्मा गाँधी के निधन पर शोक प्रस्ताव-९८१ पीड़ितो का पथ-मुमंगलाप्रसाद शास्त्री ११३७८ महात्मा जी और जनस्व-प. दरबारीलाल ११३७६ पूज्य वर्णी जी का पत्र -पं. परमानन्द १०॥३४८ महावीर कल्याणकेन्द्र-चिमनलाल चिकुभाई शाह २१३१८३ पुज्य वर्णी गणेशप्रसाद जी के हृदयोद्गार
महावीर जयती और डा० राधाकृष्णदास १६।३६
माता के आंसुओ की नदी ११६१० बच्चों की दर्दनाक दशा और प्राकृतिक चिकित्मा- मारवाड का एक विचित्र मत और दीक्षित जी का स्पष्टीप. श्रेयास कुमार जैन शास्त्री ८।१३५
करण-सपादक ११४३६ बगीय विद्वानों की जैन साहित्य में प्रगति
मिथ्याधारणा-सपादक ११६०८ ___ अगरचन्द नाहटा ३।१४६
मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी का ६०वां जन्म जयती उत्सव बलात्कार के समय क्या करें-महात्मा गाधी ५७५
-परमानन्द शास्त्री २०१३३३ बहनों के प्रति-चन्दगीराम विद्यार्थी ६।२४८
मुख्तार सा० की वसीयत और वीर सेवामन्दिर ट्रस्ट की बुद्धिवाद विषयक कुछ विचार-दौलतगम मित्र ५।२६८
योजना-परमानन्द जैन ५।२७ बेजोड विवाह-श्री ललिताकुमारी पाटनी ४।२१
मुजफ्फरनगर परिपद अधिवेशन-बा. माईदयाल जैन ब्रह्मचर्य (प्रवचन)-क्षु. गणेशप्रसाद वर्णी १०।२२०
. बी. ए. ६।२०४ ब्रह्मचर्य ही जीवन है-चन्दगीराम विद्यार्थी ६:१४३
मुनि जिन विजय जी का पत्र ११३५१ ब्रह्म श्रुतसागर का समय और साहित्य-परमानन्द जैन
मुरार मे वीरशासन जयती का महत्वपूर्ण उत्सव९।४७४
पं. दरवारीलाल कोठिया ६।२०५
मेरे मन का उद्गार-बाबा भगीरथ जी वर्णी १६७० भगवान महावीर की २५००वी निर्वाण जयती
मेरे मनुष्य जन्मका फल-ला. जुगलकिशोर कागजी १.१६४ __ मुनि श्री नगराज १६।१४६ भगवान महावीर जैनधर्म और भारत-श्रीलोकपाल १०।२६
मै क्या हूँ ?-प. दरबारीलाल 'सत्यभक्त' १०४५ भारत की राजधानी में जयधवल महाधवल प्रथराजो का
मैं आँख फोड़कर चलू या पाप बोतल न रक्खेंअपूर्व स्वागत - परमानन्द जैन १३३१५८
श्री कन्हैयालाल प्रभाकर १११४१८ भारत देश योगियों का देश है-बा. जयभगवान जैन
मैं और वीरसेवामन्दिर-बा. जयभवान वकील श२३ एडवोकेट १२१६६, १२।६३
मौजमावाद के जैन समाज के ध्यान देने योग्यभारत मे देहात और उनके सुधार की भावश्यकता
परमानन्द शास्त्री १३३२१४ बा. माईदयाल जैन बी. ए. ११५६७
मन्दिरों के उद्देश्य की हानि-पं. कमलकुमार जैन भारतीय जनता का विशाल विधान-विश्वम्भर सहाय प्रेमी १०१३०३
यदि यूरोप में ऐसा पत्र प्रकाशित होता-१२६५१
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८. सामयिक
२३५
यांत्रिक चारित्र-पं. नाथूराम प्रेमी ११५२६
राजगिरि में वीरशासन जयन्ती महोत्सव-जुगलकिशोर
मुख्तार ६, कि० १०-११ राजधानी में वीरशासन जयती और वीरसेवामन्दिर
ननन-भवन के शिलान्यास का महोत्सव १३१२७ राजस्थान विधानसभा मे दि. जैन धर्म विरोधी विधेयक
बा. छोटेलाल जैन १३।६४ राष्ट्रपति और प्रधानमत्री का महावीर जयती के अवसर
पर भाषण १३१२६३ राष्ट्रीय सुरक्षा कोष मे जनसमाज का योगदान १५२३४ राष्ट्रोत्थान में ग्रामों का महत्व-प्रभुलाल प्रेमी ६।२६८
बनस्पति-महात्मा गाँधी ८।२४६ वर्तमान संकट का कारण-बाब उग्रमेन बी. ए. ६।११० वर्णी जी और उनकी जयन्ती-पं. दरबारीलाल कोठिया
१०।११७ विवाह और हमारा समाज-श्री. ललिताकुमारी ४।६८ विवाह कब किया जाये-श्री. ललिताकुमारी ४।१६५ विवाह का उद्देश्य-श्री एस. के. प्रोसवाल ४१७६ विवाह सस्कृति का प्रतीक तोरण
महेन्द्र भानावत एम. ए. उदयपुर १६।८३ विश्व की प्रशान्ति को दूर करने के उपाय
परमानन्द जैन १३।७६ विविध विषय-महावीर जयन्ती अादि १२.३६० विश्वमंत्री-इन्द्रचन्द्र जी जैन १७४१०३ विश्व शाति का सुगम उपाय प्रात्मीयता का विस्तार
श्री अगरचद नाहटा १४।२३२ विश्व शाति के अमोघ उपाय-श्री अगर चन्द नाहटा
१४११६६ विश्व शान्ति के उपायों के कुछ सकेत
पं. चैनमुखदास जी जयपुर १४.१३२ विश्व शान्ति के साधन-पं. राजकुमार जैन माहित्याचार्य
१४।१४२ विश्व संस्कृति मे जैनधर्म का स्थान-डा. कालीदास नाग
४।४३१ वीतराग प्रतिमाओं की अजीब प्रतिष्ठा विधि
(बा.) सूरजभान वकील ३।१०५
वीर जयन्ती पर मूनि कृष्णचन्द्र का अभिमत-६।३७५ वीर जयन्ती पर भाषण-वैजनाथ बाजोगिया २१४२७ वीर जयन्ती पर भाषण-लोकनायक २।४२३ वीर जयन्ती पर भाषण-सेठ गोविन्ददास २१४२५ वीर पूज्य का प्रादर्श-श्री महेन्द्र जी ६१७६ वीर शासन अभिनन्दन-सम्पादक ७।१ वीर शासन को पुण्यवेला-सुमेरचन्द्र जी दिवाकर ३।४८ वीर शासन जयन्ती-जुगलकिशोर मुख्तार २१४७६ वीर शामन जयन्ती-ला. जिनेश्वरप्रसाद जैन १०१३४ वीर शामन जयन्ती उत्सव-अधिष्ठाता ४।३४४ वीर शासन जयन्ती उत्सव-परमानद शास्त्री
वर्ष ३ मि.८-६ वीरशासन जयन्ती अर्यात श्रावक कृष्ण-प्रतिपदा की पुण्य
तिथि-जुगलकिशोर ६, कि०६, टा० २ वीर शासन जयन्ती और हमारा कर्तव्य--- र
मत्री वीरसेवा मदिर १४१३४० वीर शासन जयन्ती और हमारा कर्तव्य-सम्पादक ४१२४८ वीर शासन जयन्ती का पावन पर्व-4. दरबारीलाल
६।२२३ वीर शासन जयन्ती का इतिहास-जुगलकिशोर मुख्तार
१४१३२८ वीर शासन दिवस और हमारा साहित्य-दशरथ लाल जैन
३६१ वीर शासनाभिन्दन-सम्पादक ३१२ वीर शासनाभिनन्दन-समन्तभद्रादि १११३ वीरसेवामन्दिर का अर्घद्वय सहस्राब्दि महोत्सव-अधिष्ठाता
वीरसेवामन्दिर ६ कि० ४, टा०२ वीर सेवामदिर का प्रचार कार्य-१४।२७३ वीर सेवामदिर के अब तक के कार्यों का परिचय
वि. अंक ६.१४ वीर सेवामदिर का सक्षिप्त परिचय-जुगलकिशोर मुख्तार
१११३६१ वीर सेवामदिर के नैमित्तिक अधिवेशन के सभापति
श्री मिश्रीलाल जी काला का भाषण १११४१२ वीर सेवामदिर को सहायता ४।२३८ वीर सेवामदिर को प्राप्त सहायता-१३१५६ वीर सेवामदिर को प्राप्त सहायता-११॥३३२ वीर सेवामंदिर को स्वीकृत सहायता-१३।६३
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२३६, वर्ष २२ कि०५
अनेकान्त
वीर सेवामंदिर ट्रस्ट की दो मीटिंग-१३।२५४ वीर सेवामंदिर में कानजी स्वामी-१४॥किरण : शाह हीरानन्द तीर्थ यात्रा विवरण और सम्मेदशिखर चैत्यटाइटिल पेज २
परिपाटी-श्री अगरचन्द ना. १४१३०० वीरसेवामन्दिर में वीरशासन जयन्ती का उत्सव- शान्ति की खोज-प्रो. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य १४।२६८ दरबारीलाल कोठिया ७२२३ ।
शिक्षा का उद्देश्य- प्राचार्य तुलसी १६३०७ वीरसेवामन्दिर में वीरशासनजयन्ती का उत्सव- शिक्षा का महत्व-पं. परमानन्द शास्त्री २।३४० पं. दरबारीलाल जैन कोठिया ८।४२८
शिक्षित महिलामो का अपव्यय-ललिता कुमारी ३६८५ वीरसेवामन्दिर की सहायता (अधिष्ठाता)
शिमला का पयूषण पर्व-प. दरबारीलाल कोठिया ६।३२४ व० ४ कि० ६ कि. ६ व. ४ कि. १२ ब. २
शिरपुर जनमन्दिर दिगम्बरजैनियों का ही है-२०१२२७
शुभ सन्देश-प. मदन मोहन मालवीय ११४२ वीरसेवामन्दिर उसका काम और भविष्य-बा माईदयाल
शुभ सन्देश-महात्मा भगवानदीन ११२५ २१५८७
शंतान को गुफा में साधु-अनु० डा. भैयालाल जैन वीरसेवामन्दिर के प्रति मेरी श्रद्धांजलि-अजित प्रसाद
४११७८ जैन एडवोकेट २१५६०
शौच धर्म (प्रवचन)- श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी १००८३ वीरसेवामन्दिर के विशेष सहायक-जुगलकिशार
श्रद्धाजली-पं. प्रभुदयाल प्रेमी ६।१६० वर्ष ४, पृ. ५०६ वीरसेवामन्दिर ग्रंथमाला को सहायता-अधिष्ठाता
श्रद्धाजलि बा. माईदयाल जैन बी. ए. ६।२०० कि. १ टा. ३
श्रमण का उत्तर लेख न छापना-१२।३२८ वीरसेवामन्दिर में वीरशासनजयन्ती-प. दरबारीलाल
श्री दादीजी का वियोग-जुगलकिशोर मुख्तार ७१०१ ___ कोठिया ५२६६
श्री धवल ग्रन्थराजो के दर्शनो का अपूर्व प्रायोजनवीरसेवामन्दिर मे वीरशासनजयन्ती उत्सव
परमानन्द जैन १३॥१३५ पं. परमानन्द जैन शास्त्री ४१३६१
श्री नेमिनाथाष्टक स्तोत्र-१३१४१ वीरसेवामन्दिर दिल्ली की पैसाफण्ड गोलक
श्री पं. मुख्तार ला. से नम्र निवेदन-श्री हीराचन्द बोहरा जुगलकिशोर मुख्तार १४११७७
बी. ए. १३३१४३ वीरसेवामदिर मे श्री जुगलकिशोर मु. सा. के निधन
श्री बाहुबली जैन पूजा का अभिनन्दन-१२ टा० पेज ३ पर शोक सभा-२११२८०
श्री महावीरजी मे वीरशासनजयन्ती-राजकृष्ण जन वीरसेवामन्दिर विज्ञप्ति-मधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर
१२।७४ ३७५५
श्री सम्मेद शिखर तीर्थ रक्षा-प्रेमचन्द जैन १८१४८ वीरसेवामन्दिर सोसाइटी की मीटिंग-१३।३१४ वीरसेवा संघ के वार्षिक अधिवेशन का विवरण- सच्ची भावना का फल (प्रवचन)-श्री क्षु. गणेशप्रसाद बा. भोलानाथ मुख्तार ११४०६
वर्णी १०।२५४ वीरसेवा सदेश की उपेक्षा-प्रभुदयाल जैन प्रेमी ८१६३ सत साहित्य के प्रचारार्थ सुन्दर उपहारों की योजनावैवाहिक कठिनाइयां-श्री ललिता कुमारी ४।२७३
मैनेजर वीरसेवामन्दिर १२२
सफलता की कुजी-बा. उग्रसैन जैन एम. ए. ६३५ लश्कर में मेरे पांच दिन -परमानन्द शास्त्री २२६१
सभापति का अभिभाषण-श्री राजेन्द्रकुमार ६।१९३ लाला महावीरप्रसाद जी ठेकेकार का स्वर्गवास-१४१३४२ समन्त भद्राश्रम विज्ञप्ति नं०४ वृहत् पारितोषक योजनालेखकों को माह्वान-व्यवस्थापक भनेकान्त १०६१
११२५३
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८. सामयिक
समय और हम-श्री जैनेन्द्र १५२१५५
सग्रह की वृत्ति पोर त्यागधर्म-चैनसुखदास न्यायतीर्थ समय का मूल्य-मुनि श्री विद्यानन्द १६।३५६
१२।१२३ समाज सुधार का मूल स्रोत-पं. श्रेयाशकुमार ४188 सम्मान समारोह का विवरण एक पत्रकार-६६१६४ सरकार द्वारा मांस भक्षण का प्रचार-प. हीरालाल सि. स्त्री शिक्षा-हेमलता जैन १४६ शा. १४१२२५
स्त्री शिक्षा पद्धित-भवानीदत्त शर्या २१६२० सरल योगाभ्यास-हेमचन्द मोदी ३३३४३
स्मृति रखने योग्य महाकाव्य-श्रीमद्राजचन्द ३।२७ सर्वोदय का अर्थ-प्राचार्य विनोबा भावे १७।३२ स्वतन्त्रता देवी का सदेश-(नीति विज्ञानसे) २१४९२ सागार धर्मामृत मोर सावयपन्नत्ती-प. बालचन्द शा' स्वागत भाषण- लाला प्रद्युम्नकुमार ६१६६ ____ सोलापुर १६३१५५
स्वावलंबन और स्वतन्त्रता-जमनालाल जैन ७।११७ सामायिक विचार-श्रीमद्राजचन्द्र ब.३ ५८, कि. ४ टा. ३ । स्वास्थ रक्षाके मूलमन्त्र -राजवंद्य शीतलप्रसाद सार्वजनिक भावना और सार्वजनिक सेवा
११५१.७६ बा. माईदयाल जैन बी. ए. ४१२६३
ह साहित्य सम्मेलन की परीक्षामों में जैनदर्शन
हम और हमारा ससार-बा. सूरजभान वकील ३१५५६ रतनलाल सघवी ३१५६, ३।४११
हमारी यह दुर्दशा क्यों ? -सम्पादक ८.१ साम्पदायिक दंगे और अहिंसा-बा. राजकुमार जन हमारी शिक्षा-बा. माईदयाल बी. ए. ११८७ ८।२३५
हमारी शिक्षा समस्या-प्रभुदयाल जैन प्रेमी ७।२१६ मिद्धांत शा. पं. देवकीनन्दन जी का पत्र-१५१६६
हरिजन मन्दिर प्रवेश के सम्बन्ध में मेरा स्पष्टीकरणसीतल सेवा मन्दिर देहली के लिए अपील-५।१६४
क्षु. गणेशप्रसाद वर्णी १०१३५५ सूतक पातक विचार-बा. रतनचन्द जैन मुल्लार
हरी साग सब्जी का त्याग-बा. सूरजभान २०५३०, ११।३७६
५७५ सेठ भागचन्द जी सोनी के भाषण के कुछ प्रश ५।२०७ सेवाधर्म दिग्दर्शन–सम्पादक २।२३८
हिन्दु कोड बिल-बा. माईदयाल जैन बी. ए. १०१२६४
हिमाब का सशोधन (टाइटिल) -१३।३ सौ. सौ के तीन पुरष्कार कि. ६ टा. पे. ३ संयम (प्रवचन) क्षु. गणेशप्रसाद वर्णी-१०।१५७
हृदय की कठोरता- मुनि कन्हैयालाल २२१८०
हृदय द्रावक दो चित्र -बा. महावीर प्रसाद जैन ॥२५४ संसार में सुख की वृद्धि कैसे हो-दौलतराम मित्र ३२९२
हेम चन्द्राचार्य और ज्ञान मन्दिर-सम्पादक २१४३२ संस्कारों का प्रभाव-पं. हीरालाल सि. शा. १४०२०८, १४१२७४
होली का त्यौहार-सम्पादक ३।३५०
६. विविध
प्रतीत स्मृति (एकाके च)-पं. कन्हैयालाल ६।४७ अनुसंधान का स्वरूप-प्रो. गोकुलप्रसाद जैन एम. ए.
अनेकान्त के मुख पृष्ठ पर चित्र-संपादक ८१३३३ अनेकान्त के प्रेमी पाठकों से-वर्ष १४कि. टा. २ अनेकान्त के प्रेमियो से निवेदन-सपादक ४१३९ अनेकान्त के सहायक- [वर्ष ४ कि. ४ टा०३ भनेकान्त पर प्रभिमत- १५१४६
भनेकान्त का वार्षिक हिसाब और घाटा (अधिष्ठाता
समन्तभद्राश्रम) १०६६
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२३८, वर्ष २२ कि०५
अनेकान्त
ज्ञान पर लीबिनिज-बा. नारायण प्रसाद जैन २१४२६ ज्वर की ज्वाला मे जलते हुए भी-प्रेमलता ६।२२०
अनेकान्त पर लोक मत- ४११३८, ४।२३७, ८।२८९,
५।३५६ अनेकान्त रस लहरी-संपादक ६४३, ६।४३, ६।१२३ अपनत्व-मुनि कन्हैयालाल २१:१०६ अपनी दशा-भगवत स्वरूप जैन भगवत २।२७६
डा० कालीदास नाग का देहली में भाषण
प्रादीश्वरलाल जैन एम. ए. १०।२२४
प्रा
त
प्राचार्य चन्द्रशेखर शास्त्री का मन्देश- ४१३६६ प्राचार्य जिनविजय का भाषण-हजारीमल ४।२५२ प्रात्म-निरीक्षण-परमानन्द शास्त्री २०१३३२
तुम.....-श्री राधेश्याम वरनवाल १४.६७ तुम मानव महान हो-तन्मय बुखारिया ७।६ तृष्णा की विचित्रता-श्री मद्राजचन्द्र २०११५०
ईश विनय - ११५५३
उठती है उर में एक लहर-नं. काशीराम शर्मा ४१६८
दलित कलिका-पं. मूलचन्द वत्सल ११५७५ दिग्विजय-पानन्द प्रसाद जैन १७।२५ दिग्विजय-आनन्दप्रसाद जैन जंबूप्रसाद जैन १५।२६७ दिग्विजय-पानन्दप्रसाद जैन जबूप्रसाद जैन १६।२७,
१६।६६, १६।१२३, १६६१७७, १६:२१७, १६।२६६ दुनिया का मेला-पं. काशीराम शर्मा ४।१४४ दीनो के भगवान श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर २।१।४
एक प्रश्न-श्री भगवत जैन ४।३६०
और प्रांसू ढुलक पड़े-डा. नरेन्द्र मानावत १७।१७५
क
काक पिक परीक्षा-पं. हीरालाल सि. शा. १३१७८ क्रोध पर क्रोध-परमानन्द जैन १९१००
नर नरके प्राणोंका प्यासा-प. काशीराम शर्मा ४१५२८ नित्य की प्रात्म-प्रार्थना-सपादक ४।५२७
खंड विचार-११४६५
ग गुलामी (खंड-काव्य)-स्व. भगवत जैन ७।१३१
चेकोस्लाविया-बा. माईदयाल जैन बी. ए.१०१३०२
पथ चिन्ह-प. कन्हैयालाल प्रभाकर ६।१४२ पराधीन का जीवन कैसा-प. काशीराम शर्मा ४ ०४ पाकिस्तानी पत्र-गोयलीय २०७, २८६ पिंजरे की चिडिया-जान गॉर्ल्स वर्दी इगलैण्ड ४ ३ । पीड़ित पशुप्रो की सभा-श्रीमती जयन्ती देवी १ २०७ प्रकृति का संदेश (नीति विज्ञान से) २१३६१ प्रणाम-अखिलेश ध्रुव ६।१८६ प्रवृत्ति पथ-प्रज्ञेय २।४७५ प्रश्नोत्तरी-बा. जयभगवान वकील ५।२०४ प्रो. जगदीशचन्द्र के उत्तरलेख पर सयुक्तिक सर ति
पं. रामप्रसाद शास्त्री ४१८६
जग किमकी मुद्रा से प्रकित है-सपादक ४।२४२ जीवनधारा- ४१३८६ जीवन की पहेली-वा. जयभगवान वकील ४।१८७,
४१३७३ जीवन में ज्योति जगाना है-पं. पन्नालाल जैन ४।२७२ जैनधर्म भूषण ब. शीतलपसाद जी के पत्र-गोयलीय
६।३५२, ६।४०६ जैन मित्र की भूल- १५ १७६ जो देता है वही पाता है-प्राचार्य तुलसी १७४५३
बाबली घास-हरिशंकर शर्मा ३१५१० बाबा मन की माँखे खोल-श्री भगवत जैन ४।११ बारह बर्ष वाद- ६२१६
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६. विविध
२३६
बुद्धि हत्या का कारखाना-गृहस्थ से उद्धन ३।१९४।
मनुष्य कर्तव्य -प. मुन्नालाल विशारद १.१५३ महत्व की प्रश्नोत्तरी--सपादक ५१२६ महावीर का मार्ग-मोहनी सिंघवो २११८५
यह सितमगर कब !-कु० पुष्पलता २१६५१ यशपाल जैन का अध्यक्षीय भाषण २०।२२२
रिक्सा गाड़ी-हरिप्रसाद शर्मा 'अविकसित' ५:३०
लहरो मे लहराता जीवन-श्री 'कुसुम' जैन ८।२७७ लोकमगल कामना-सपादक ४।४७८
श शाश्वत क्षणो मे-अजित मुनि निर्मल १६:२४३ शुद्धि प्रयोग की पृष्ठ भूमि-मुनि श्री नेमचन्द १६४६ शाति भावना-प. काशीराम शर्मा प्रफुल्लित ५।१८१ श्री वीर जिन स्मरण- सपादक ७।८६ शान्ति का -सपादक ११५४४ श्रद्धार्घ-बा. छोटेलाल जैन ६।१८६ श्रद्धा के फल-श्री भगवत जैन ६१६० श्री भद्रबाहु जी का अभिमत १३।२४६
सम्पादकीय-गोयलीय ६८३,६११६, ६।१६४, ६२०८,
हा२४१, ६।२८० सम्पादकीय -- १६।२६ १३.६८ सम्पादकीय (नव वर्षारम्भ)-जुगलकिशोर मुख्तार १२१२६ सम्पादकीय-८।३१५, ८१४६६ सम्पादकीय -११५६, ११३२२ सम्पादकीय-७।२०, ७।१६४ सम्पादकीय-- ६।१४५, ६।३२१ सम्पादकीय-(प महेन्द्र कुमार जी का लेख) ५।३२६ सम्पादकीय (अनेकान्त) की वर्ष समाप्ति ५१४२३ सम्पादकीय (अगले वर्ष की योजना) ५।४२४ सम्पादकीय (शाह जवाहरलाल जी और जैन ज्योतिषी)
५।२५५ सम्पादकीय टिप्पणियाँ-३१७६५ सम्पादकीय नोट-परमानन्द जैन १४१२० सम्पादकीय नोट-जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादकीय नोट-परमानन्द जैन १३१२२६ सम्पादकीय वक्तव्य (भारत की स्वतत्रता उसका झडा और
कतंव्य) ८।३६३ सम्पादकीय विचारणा-६।३०४ समर्थन-प. परमानन्द जैन शारत्री ॥३४४ सयुक्तिक सम्मति पर लिखे गये उत्तर लेख की निःसारता
प. रामप्रसाद शास्त्री ४।३६४, ४१४३०, ४१५६७,
४१६१७ सिद्ध स्मरण-सपादक ७२१ सिंह म्वान-ममीक्षा-प. हीगलाल सि. मा १३१५१ सुख का स्थान-परमानन्द शास्त्री २१॥ सुख दुख-श्री लज्जावती जैन २।३६६ सुख शान्ति चाहता है मानव-श्री भगवत जैन १५१२ स्वरूप भावना-मम्पादक ६।१२६ स्वागत-प्रो. गयाप्रसाद शुक्ल ६३१८१
सतसाधु वंदन-संपादक ४।१ संतुलन अपना व्यवहार-मुनि श्री कन्हैयालाल १६०५० सम्बोधन और सूचना-प. सुग्वलाल वेचरदास ११२२० सन्मति विद्या विनोद-जुगलकिशोर १४१३२७ सम्पादक की ओर से-६२२३ सम्पादकीय-१६।६२ सम्पादकीय सपादक १०॥४०, १०।२२५, १०४५७ सम्पादकीय-१४१४१ सम्पादकीय-१४१३५४
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१०.संकलन
जिनसेन स्मरण-३।६७७
तिरुवल्लुवर सूक्तियाँ-तिरुवल्लुवर २।२५२ तीर्थकर त्रय स्तवनम्-प्रा. यतिवृषभ २२।१
अकलंक स्मरण-सम्पादक ३३१४१ अधिकार='कल्याण से" २०१२० अमृतचन्द्र स्मरण-सम्पादक ७६१ परहंत स्तवनम् (धवला से) १८९७ अहंद भक्ति (स्तवन) १५९६ महत्परमेष्ठी स्तवन-मुनि पद्मनन्दि १७६७ अर्हत्परमेष्ठी स्तवन-मुनि श्री पद्मनन्दि २२।४६ अर्हत् स्तवन-मुनि पद्मनन्दि १८१२४१
देविनन्दि पूज्यपाद स्मरण-सम्पादक ३१५५७
नमिजिनस्तवन-स्वामी समन्तभद्र १६१ निष्ठुर कवि और विधाता की भल (कविता) कवि
भूघरदास ९२४५
प्राचार्य परमेष्ठी (घवला से) १८१६३ प्रात्म-संबोधन-परमानन्द शास्त्री २२१७३ आदिनाथ स्तवन पद्मनंद्याचार्य १६३९७ प्राध्यात्मिक पद-कविवर द्यानतराय ८।१३२
पद-कवि जगतराम १२८४ पद-जगजीवन १४१२३ पद्मप्रभजिनस्तुति-समन्तभद्राचार्य २०११६३ परमात्म वन्दन सम्पादक ८१ परमात्मस्तवन-पप्रनंद्याचार्य १६।२४१ प्रभाचन्द्र स्मरण-सम्पादक ३१३१७ पात्र केसरी स्मरण-सम्पादक ३१४८१
उमा स्वामी स्मरण%D३३३९७
ऋषभ जिन स्तोत्रम् मुनि श्री पद्मनन्दि २०१४६ ऋषभ स्तोत्रम् मुनि पद्मनन्दि १६४२४३
कवित्त-श्री रूपचन्द्र १५:११८ क्या कभी किसी का गर्व स्थिर रहा है ?-२१११३
भगवान मादीश्वर की ध्यानमुद्रा (कविता) कविवर
दौलतराम १३१२६७ भावना पद्धति (भ० प्रभाचन्द शिष्य पपनन्दि ११२२५६
गुणों की इज्जत-२१२२६
महाविकल संसारी (कविता)-बनारसीदास १३१२३६ महावीर वाणी-कवि दौलतराम २१३१३६
चतुर्विशति तीर्थकर स्तुति:१४।४३ चिदात्म वन्दना-मुनि पअनन्वि २११४६
जन्म जाति गर्वापहार-"युगवीर" १२१३०४ जिनवति स्तवन-श्री शुभचन्द्र योगी १४१७५ जिनवरस्तवनम् पद्मनन्द्याचार्य १६४६ जिनवर स्तवनम् मुनि पअनन्दि १९४२०३
विचार कण-१४१३२३ विचार पुष्पोद्यान=४।५२, ४१९७, ४।१०५, ४।१६३,
४।१७७, ४।२८८, ४१५३५ विद्यानन्द स्मरण-सम्पादक ३२२६६ वीर जिन स्तवन-पं. जुगलकिशोर मुख्तार २१११६३ वीतराग स्तोत्र (कल्याणकीतिकृत) सम्पादक बा२३३
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१०. संकलन
२४१
वीतराग स्तोत्र (पचनन्दिकृत) =सम्पादक ८१२३३ समन्तभद्र प्रवचन-संपादक २।३५७ वीरसेन स्मरण-सम्पादक ३१६२१
समन्तभद्र प्रणयन-संपादक २१३७६ बैराग्य कामना, राग और वैराग्य का अन्तर-स्व. कवि समन्तभद्र भारती के कुछ नमूने-संपादक ११, ५४१०५, भूधरदास ७.१५२
५।१६४, ५।२१७, ५॥३२६, २३०१
समन्तभद्र भारती के कुछ नमूने-६।६.६।४१, ६०१, गवण पार्श्वनाथ स्तोत्र-संपादक ८।४३७
६।१२१, ६।२२६, ६।२६१, ६२९५, ६३२५ रूपक पद (कविता)-कवि घासीराम २०१२७
समन्तभद्र भारती के कुछ नमूने (युक्त्यनुशासन)-संपादक
८।१४५, ८।२२१, ८।२६७, ८।३३५, ८१४३३, शान्तिनाथजनस्तवन-पद्मनन्द्याचार्य १६।४६
समन्तभद्र भारती के कुछ नमूने (युक्त्यनुशासन)-जुगलशान्तिनाथ स्तुति-श्रुतसागर सूरि १२।२५१
किशोर मुख्तार ६१, ६।४५, ६६०, ६२१५, शान्तिनाथ स्तोत्रम्-पभनन्द्याचार्य १७६१
६।२४७, ९२८७, ३२६, ९।३६६ श्री परजिन स्तवन- १५१२४३
समन्तभद्र माहात्म्य-सपादक २१५६१ श्री कुन्दकुन्द स्मरण-सपादक ३१४२५
समन्तभद्र वचनामृत-'युगवीर' १२॥३, १२।१५१ श्री नेमिजिन स्तुति-पं. शालि १४।१८७
समन्तभद्र वन्दन-सपादक २।१७६ श्री पपप्रभ जिनस्तवन-समन्तभद्राचार्य १७१६३
समन्तभद्र वाणी-संपादक २१४३५ श्री सुपार्वजिनस्तवन-समन्तभद्राचार्य १७४२४१ समन्तभद्र विचारमाला (१, २, ३)-संपावक १५ श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र-धर्मघोष सूरि १४११२४
समन्तभद्र विनिवेदन-संपादक १६६३ श्री पार्श्वनाथ स्तोत्रम्-श्रुतसागर सूरि १२।२३६
सम पाराम विहारी (कविता)-पं. मागचन्द १२१४१ श्री महावीर जिन स्तवन-प्रज्ञात कर्तृक १४।२८३
समन्तभद्र शासन-संपादक २१५३५ श्री वर्धमानजिन स्तुति-१४०१
समन्तभद्र स्तवन-संपादक २११२६ श्री वीतराग स्तवनम्-अमर कवि १२१७५
समन्तभद्र स्मरण-संपादक २१ श्री वर्धमान जिन स्तोत्र-१४११२३
समन्तभद्र हृदिस्थापन-संपादक २१६४० श्री वीर जिनशासन स्तवन-१५१७५
सम्यग्दृष्टि का विवेक-१७१५६ श्री वीर जिनस्तवन-युगवीर १४१२५१
सम्यक दृष्टि का स्तवन-बनारसीदास १९१ श्री शम्भव जिन स्तुति-समन्तभद्राचार्य १७.१४५
सरस्वती स्तवनम्-मुनि श्री पचनन्दि १९३३३६ श्री शान्तिनाथ स्तवन-वादीभसिंह २०११
साधु महिमा-स्व० कवि धानतराय १०८१ श्री शारदा स्तवनम्-भ. पचनन्दि शिष्य भ० शुभचन्द्र
साधु स्तुति (कविता)-कविवर बनारसीदास १२।२८५ १२।३०३
सिद्धसेन स्मरण-सम्पादक ३२०५ श्री सिद्धस्तवनम्-(धवला से) १८११४५
सिद्धसेन स्मरण-९।४०९ श्रुत देवता स्तुति-मुनि श्री पद्मनन्दि १६।१४४
सिद्धसेन स्वयम्भू स्तुति-६।४१५ श्रेयो जिन स्तुति-समन्तभद्राचार्य २०१२४१ . सिद्ध स्तुति-मुनि पमनन्दि १९२९१ स
सुधारसंसूचन-संपादक ३१२१६ समन्तभद्र मभिनन्दन-संपादक २।२७५
सुपाय जिन स्तुति-समन्तभद्राचार्य २०१७ समन्तभद्र भारती-संपादक २।४८२
सुपारवनाथ जिन स्तुति-समन्तभद्राचार्य १४६ समन्तभद्र कीर्तन-संपादक २।२३७
सुपार्श्वनाथ जिन स्तुति-समन्तभद्राचार्य १८।१४५ समन्तभद्र जयघोष-संपादक २१६३६
सुभाषित-३१७६, कि० १, टा.४, कि. ४ टा०४
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२४२, वर्ष २२ कि०५
अनेकान्त
सुभाषित कविताएँ-संपादक २।३००, २१३५४, २१४४२,
२२४५२, २।४७२ सुभाषित गद्य-२।२५२, २०३८६, २१५५७, २१५६१,
२१५६३, २१६५४, २१६२५ सुभाषित मणियां-२।१२१ सुभाषित मणियाँ-सम्पादक ११४६, १११०७, १११५७,
१२२३२, १।३१२, १३३३०, ११४६६, ११५६६
सुमति जिन स्तवन-समन्तभद्र १८१ सूक्त मुक्तावली (कविता)-बनारसीदास २।३१० स्वयम्भू स्तुति--पद्मनन्दि १६:१६६ स्वयभू स्तुति-पद्मनन्द्याचार्य २१११६७, २११४५ स्व स्वरूप में रम-१९२३३
'अनेकान्त' के लेखक
गोपीलाल 'प्रमर'
१. इन लेखकों की रचनाएँ मूल, अनूदित या उद्धृत रूप में, इस पत्र की अब तक की ३१२ किरणों
में प्रकाशित हुई हैं। २. लेखक के बाद लिखे गये अंकों में प्रथम अंक वर्ष का और द्वितीय अंक पृष्ठ का सूचक है।
कुछ लेखकों का नाम या नामांश भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकाशित हुअा है, उदाहरण के लिए श्री जुगलकिशोर को कभी सिर्फ 'यूगवीर' लिखा गया है ऐसी स्थिति में यथासभव समीकरण करके
एक ही नाम को सूचीबद्ध किया गया है। ४. अकारादि क्रम में मूलनाम को मुख्य माना गया है। नामों के आदि में लगे 'श्री', 'पं.', 'डा०',
'प्रो.' प्रादि को इसीलिए कोष्टक में रखा गया है। ५. अंग्रेजी वर्णों को हिन्दी उच्चारण के आधार पर ही अकारादि क्रम में रखा गया है, उदाहरण के
लिए 'बी. एल. सराफ' को 'ब' के अन्तर्गत रखा गया है, न कि उनके पूरे नाम 'भैयालाल सराफ' के अनुसार 'भ' के अन्तर्गत ।
१२।२८८, १२।२४७, १२।११३, १२।२२७, अक्षयकुमार जन-१६।१८
११११२८, १२२४८, १०१३३१, १०॥३२७, (श्री) मखिल- १२॥३६६
१०।१६, १०१२७१, १०४०७, १०८, ६।२२२, पखिलानन्द रूपराम शास्त्री-८११३८
८।१३६, ८।४४. ८।४५७, ८।४५६, ७६०, ६६५, मखलेश ध्रुव- ६११८६
६।३०६, १४६, ५१३२१, ४१४७०, ४१४५, ४१ प्रगरचन्द नाहटा-२१११७२, २१॥३९,२१११३४, २१।११०
५४५, ४१३३६, ४१६१०,४१३८६, ३।६४०, ३।४६४, २१३१६८, २०२३५, २०१२०७, १९४३६७, १९८१
३।२६३, ३१४६८, ३११४६, २५४३, २०१५५ १९।२९४, १८॥२३८, १८।१५८, १८५६, १७४१०,
२।२५० १४६१, १७२२६, १५७६, १६१३६, १६.१८८, १६।२३७, १६२८१, १५२६८, १५२२५२,१२२२९, (प.) मजितकुमार शास्त्री-१४।२३०, १२।१३०, ८१४१, १५॥१५०, ११२०६ १११७०, १४१२३२, ६६१८०, ५१६८, २१६६ १४॥१९९, ११३००, १४११६२, १३३७२, १३।१०७ मजितप्रसाद जैन एडवोकेट-४।२४३, ४१६५, २१५६.
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'अनेकान्त' के लेखक
२४३
अनूपचन्द्र न्यायतीर्थ-२११२४८, १६।४४, १७४६७, १६। (प.) इन्द्रचन्द्र शास्त्री-६५१०७. ३।२५०, २।३८७, २०६, १५१४१, ६।७१
२१४६६ (बाबू) अनन्तप्रसाद B Sc Eng.-१२।२३३, १२१८०, इन्द्रजीत जैन 'वैद्य'-८।२०५
१२।१४३, १२।१२, १२।५८, १०।१४१, १०।१६७, १०।४२१
ईश्वरलाल जैन न्यायतीर्थ-४।१०१ (मुनि श्री) अमरचन्द्र-१८१२०, १७१२५३, ६१८,२१२१० अमरचन्द्र जैन-१६।१७,
(बा.) उग्रसैन जैन वकील-७७४, ६।११०, ६।३५ अमृतलाल चंचल-३।५७३
(प्रो.) उदयचन्द्र जैन-१९१५८ अमृतलाल शास्त्री-१६।१४८ (श्री) अम्बुजाक्ष सरकार एम. ए. बी. एल. १२॥३२२ (स्व. पं.) ऋषभदास-१३।१६५, १३।१८२ अयोध्याप्रसाद गोयलीय-६।३१६,६।१४१,६७२, ६ ऋषभसन-६।२२२
१८२, ६।३५२, ६।४०६, ६।१४५, ६।१०५, ६।२०७ ऋषिकुमार-४१२६८ ६।२८६, ६।११५, ६।६१, ६।३५५, ६।३०६, ९८३ ६।११६, १६४, ६२०८, ४२४१, ४२८०, ए. के. भट्टाचार्य डिप्टीकीपर-१४।१८६ ९।१६१, ६२५७, २१२४२, २१३०१, २०३५७, (प्रि.) ए. चक्रवर्ती एम. ए.-८।१४८, ५१५६, ४।१०६, २।४२२, २१४४३, २१४९१, २१५७३, २।२७३, ४१२२०, ४।३३६, ४।३६५, ४१५५७, ४१६१३, २।४७८, २०५१८, २०७३. २११६६, २०२११, २०३३२ ३१४८७, ३।५६७, ३१७२१ २।२३५, २१४१८, ११२४७
एन. सी. वाकलीवाल-१११३७४, १२१८५ (पं.) अर्जुनलाल सेठी- ११३६४
एम. एस. रामस्वामी प्रायगर एम. ए.-१२।२१६ अशोककुमार जैन-१७४१०७
(श्री) एम. गोविन्दपै-१०।२२२, ३१५७८, ३१६४५ मा
(पं.) ए. शांतिराज शास्त्री-४१५५६ (मुनि) प्रात्माराम-७।१४१
एस. के. प्रोसवाल-४१७६ मादिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये-२१२२५८, २०१४ टा. २,
एस पी. गुप्ता और बी. एन. शर्मा-१९।१२६ १६८, १५०२४४,१५१२०४,८४८,८11०६।१७६ वस. सी. वीरन-६।३५२
४१२२६, ४१२९३, ४।११३, ११५४४ मादीश्वरलाल जैन एम. ए.-१०१२२४
विद्य) सोमप्रकाश-७१२०६, ६२४८, ६११६१,५२६१ पानन्द जैन दर्शन शास्त्री-२॥३४२ मानन्द प्रकाश जैन-१६।२७,१६१६६, १६१२३,१६ (साध्वी) कानकुमारी-२११५३ १७७, १६।२१७, १६॥२६६, १५२२६७, १७१२५
कनकविजय जी-१८७०, १८११४०, १७.२८१ मार. के मानन्द प्रसाद जैन 'विकल'-४।४०१
(मुनि) कन्हैयालाल-२१३१०६, २०१२४६, १९५०, भार. भार. दिवाकर राज्यपाल विहार-१११४१६
७.४३
कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर-६८८, ६।१४६, ६६१४३, इकबाल बहादुर श्रीवास्तव-८६६
६।३१४, ६।११५, ६।१६१ इन्दु जैन-११४५
कपूरचन्द जैन इन्दु-६६८, ६१९२ इन्दुकुमारी जैन 'हिन्दीरल'-३।४५
कपूरचन्द्र नरपत्येला-१९६३७ (गॅ.) इन्द्रचन्द्र जैन-१७१०३, १५॥३१, १४११६६ (बा.) कपूरचन्द्र बरैया एम. ए.-२१.२७७, १९१६४
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२१४, वर्ष २२ कि०५
भनेकान्त
(पं.) कमलकुमार जैन शास्त्री-२१६५६
४१२४४, ४१३०६, ४।१४४, ४१५२८, ४१६०४, कमलकिशोर वियोगी-३१३३८
४१३६४ (डा.) कमलचन्द सोगाणी-१७१३
किरणवाला जैन-१२।२५६, १२।१६५, १२।२२३, कमलेश सक्सेना एम. ए.-१८६३
१२।१६५, (मुनि) कवीन्द्र सागर-३।२३७
किशोरीलाल घनश्यामदास मशरूवाला-४।४८२,३११६२, कर्मानन्द-७।६६, ६।२६६, ६।२३५, २।२४६, २०६५ २५०४ कल्याणकुमार 'शशि'-१९।३६, ७।१८६, ६।१६०, ४।५४ (डा.) कुन्तलकुमारी-११४५३
२।२६५, २।२५५, २।१६५, २।२, २।२, ११२७, (प.) कुन्दनलाल जैन एम. ए.-१६।१२४, १९।२८२,
११३६७, ११३०३, ११२२६, ८-१७२, ६।२२६ १८।१७५, १८।२६१, १७.१२४, १६८६, १५॥२४४, । (मुनि) कल्याण विजय-१२२२६, १२३४२
१४॥३२, १५॥१०४ कस्तूरचन्द्र एम. ए. बी. एड.-२१॥२३७,
कुसुम जैन-१५८, ४१३१२, ४।३७०, ४१२७७ (डा.) कस्तूरचन्द जी कासलीवाल-२११२७३, २११२८४ (प्रो.) कृष्णदत्त वाजपेयी-१२२७, १०१२६१
२०१४६, २०११६६, २०११३७, १९:५१, १६०२५२, कृष्णानन्द गुप्त-४४३४, ४१५१४ १६।४२, १८१३३, १८।३७, १८७६, १८७७, १७। केदारनाथ मिश्र प्रभात बी. ए. विद्यालंकार-१४१५२ १७२, १७४२३३, १७१६०, १७११६, १६।६२, १६। (पं.) के. भुजबली शास्त्री-२१११३१, १६।४८, १७४२४२, २२, १६१६१, १६।२२५, १५१७७, १८, १५।२१० १५८७, १५।२२५, १२॥३५३, १२१७६, ८।३६३, १४॥२८६, १४।३३३, १३।४६
५।२५१, ३।५२१, २।५७६, ११४७१, १११६७ कस्तूर सावजी बी. ए. बी. टी.-८।१७, ८।२३७ (डा) कैलाशचन्द्र जैन-१६।१५३, १५१२७६ (श्री) काकाकालेलकर-१८।३६, १७१५१, ८।२६३,
(4) कैलाशचन्द्र सि. शास्त्री..-२११२०९, २११९६, ३४६१, ३।४६५
१९१०, १८।१४७, १५॥६, १४१३१९, १०११२६, (श्री) कानजी स्वामी-१४॥२६८, १२।२११, ६।३३,
१०।२१३, ८१३७६, ६।२८४, २११६५, ११६००, ७।१६८
११२३५ (मुनि) कान्तिसागर-२०१५१, १९३४, १७।८३, ९२२५, (बा.) कौशलप्रसाद-६५७, ६२१५,
६।२६१, ६।३११, ६२६६, ६।२८४, ९३२५, क्षितिमोहन सेन-४।५५१ १।३६३, ६३४३, ८।१२१, ८।४०२, ५।१६०, (डा.) क्रौझे पी एच. डी. (जर्मन महिला सुभद्रा देवी)४१५३६, ४१५८१, ४।४२७, ४।५०१
११४६३ (वा.) कामताप्रसाद जैन-१२।१८५, ६।२२४, ६।१८७,
६१.८, ६।३७, ४।६३. ३।२८, २०६३, ११२५, (प्रो.) खुशालचन्द्र जैन एम. ए.-८१५४
१२२६७, ११६२१, ११२२१ (श्री) कालिकाप्रसाद जी शुक्ल एम. ए.-१५॥१४६, (श्री क्षु.) गणेशप्रसाद जी वर्णी-१४१३३०, १३,१५५, १५॥२०६
१२॥३३, १२।१२३, १२११२६, १२३४६, १२।१७३, (डा.) कालीदास नाग-४१४३२
१०११२२, १०॥३५, १०॥३४३, १०॥२२०, १०८३, काशीप्रसाद जायसवाल-११३५२, ११२४१
१०।२५४, १०११५७, १०॥३५५, ६।२१६, ६२६६, काशीराम शर्मा प्रफुल्लित-१८५, ८।१०८, ८१३६२, ६।१८३, ६।२७७
८।१५३, ७७३, ६।१८६, ६।३५८, ६३३६, ६।२०६, गयाप्रसाद शुक्ल-६।१८६ ६।२६५, ५२२५, ५४१८१, ४१४३६, ४१२१६, ८, गिरधर शर्मा (नवरत्न)-२॥३३४, १४१०६
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'अनेकान्त' के लेखक
RY
(श्री) गिरीशचन्द्र त्रिपाठी-१०१२६५ (मुनि श्री गुलाबचन्द्र-१७:१२७
(बाबू) छोटेलाल जैन-१६०२३४, १६४३, १४२२४, गुलाबचन्द्र अभयचन्द्र जैन भिलसा-६।३६३
१३।३५, १२१३२७, १२।१६, १२३४२, १२ (डा.) गुलाबचन्द्र एम. ए.-१७।२१२, १०४०३ ११।८१. ११४१५७, ११।१२५, १४, १८६, (डा. गोकुलचन्द्र जैन प्राचार्य एम. ए. पी-एच. डी.
११२८४ २११२७०, २११२, २०१२७३, १६०३२, १६३३५, (.) छोटेलाल जैन-४।३६२
१८१५० (प्रो.) गोकुलप्रसाद जैन एम. ए.-१४।४६, १४।२७१ (प्रो.) जगदीशचन्द्र एम. ए.-६।६१, ३।२६१, ३०४, (श्री) गोपाल वाकलीवाल एम. ए.-१६।१६७
३१६२३, ३।१४३, २०५२६, २१५५१ (डा.) गोपीचन्द्र भार्गव-१०॥३४७
जगन्नाथ मिश्र गौड़ 'कमल'-१३१६८, १।१६८ (पं.) गोपीलाल अमर-२११७१, २०१२४२, २०११४६,
(प) जगन्मोहनलाल शास्त्री-२०।१६४ १९०२२६, १९।१२२, १६॥३४०, ११५६, १७१६८,
जमनादास व्यास बी. ए.-६।१८१ १५।२३१
जमनालाल साहित्यरत्न-६६३४१, ७१३५ . (सेठ) गोविन्ददास-२१४२५
जयन्तीप्रसाद जैन विशारद-४१३६२
(प.) जयन्तीप्रसाद शास्त्री-२१२७६, १४१४०३, १४१६१ (पं.) गोविन्ददास न्यायतीर्थ-१०।२४, १०६६, १०६७,
१४१३०२ १०।१५३, ६।३८३
(स्व. बाबू) जयभगवान-१७१४७, १५१७६, १४१७६, गगाराम गर्ग एम. ए.-१६।१२०, १७६१३३, १७।२७८,
१४।१८६, १४।६१, १४११५७, १२॥३३५, १२६६३, १७११८०
१२।६६, ११११८५, १११४७, ११।११३, १०१४३३,
७।१६७, ५।२०१, ५१३, ५।२०४, ५।२४ ॥१११, (कवि) घासीराम-२००२७, ६।३५१ कि. -६, टा. १
५।२३. ४१८७, ४१३७३, ४१५७५, ३१४८२, (प्रो.) घासीराम एम. एस. सी.-११३०८
३१.४५, ३१४१४, ३९५, ३३१७
(श्रीमती) जयवन्ती देवी-१४१२०६, २१६३३ (मुनि श्री) तुरविजय-२०६७८
(बैद्य) जवाहरलाल-१०१२३५, १०२६१, १०१३३५, (कुमार) चन्दसिंह दुधौरिया-१४२३०, १७॥१०६
१०४१३ (विद्यार्थी) चन्दगीराम-६२४६, ६१३४६, ६९४३, जॉन गॉल्संवर्दी इंगलैंड-४७३
(मुनि श्री) जिन विजय-११३५३ चन्द्रमान जब कमलेश-११४४६
जिनेन्द्रकुमार जैन-१३।२२१ पंद्रशेखर शास्त्री वाचार्य-४११४६, २५
(ला.) जिनेश्वरप्रसाद जैन-११४, १५८ चम्पालाल सिंचई पुरन्दर एम. ए.-२१।२५१
जीवबन्धु टी. एस. श्रीपाल-१५१२५ (सी.) चमेली देवी-१०।१२६
जीवनलाल जैन श्री. ए.बी.एस.-२११२३३ (श्री) चित्र-१९२१५
(लामा) बुगलकिशोर कागजी-१२०, ११३२३, चिमनलाल मकुमाई शाह-२०१८२
१०१६४, ९।२५१, १०३५६ (पं.) चैनसुखदास जैन-१९१६५, १४॥१३८, १११३३, जुगलकिशोर मुख्तार-५११९३, २०११०७, १९४१८१, ६।१३६, ६३१३५, ६।११, ३१२६,
१४॥९१९, ११३, १४९५, १४१६५, १४१५३, (मुनि श्री) चौथमल-२२२१
१४११०३, १४१२.१, १४३३५, ४१७७, १४१३,
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२४६, वर्ष २२ कि०५
अनेकान्त
१४१९२,१४१३२७,१४१२५१, १४१२, १३३५५, १३४ ३।३९३, ३।४२५, ३१४३३, ३४८१, ३१५५०, १३।२५६, १३३१२२, १३३१३७, १३६१६२, १३६१८७ ३।३६३, ३४३३, ३।४८१, ३१५५७, ३।६२१, ३। १६१९३, १३,२६६, १६५७, १३३६५, १३३६७, ६२७, ३१६६६, ३६७७, ३१७२८, ३१७५५, ३।१० २३॥१४७, १३।१६७, १३॥१९१, १३१२१५, १३३५, ३।११६, ३३१२१ ३ व.१ टा. ३, ३१३०३. ३४० १२१४७, १२।३०४, १२।३०२, ११११, ११०२, ११॥३ ३।१४७, ३१३५६ ३१३५१, २१, २१३, २।२२६, ११॥४, १११५, १६, ११॥३८१, ११।३३२, २।३६६, २०२७५, २॥३७, २१६३९, २१३७६, २।३२७ ११।२१३, ११।२१७, १११५६, १११२२७, ११७, २।४८३, २१४६१, २।१७६, २१४३५, २१६६३. १११३३७,१११३३८, ११३३३६ १११३८१, १११६४
२१५३५, २।१२६, २०६४०, श६१७, २०११, १११६५, ११।९३, १११६५, ११।१३३, ११३६३, २०१३१, २०२७७, २१४८५, २४८३, २१५३७, ११३८, ११।१०८, ११११३४, ११११३७, ११।१६६, २२५६१, २।२४८, २१४४२, २१६०, २०४७६, ११३७३ ११११७१, १११२२७, १११२२६, १११२५६, ११॥ ११५२०, १२६५, १२२६७, १९६५५, ११४२६, २६०.११२२६६, १११३०६, ११॥३३७. ११३३६, २४३३, ११२८६, १२३०३, १४१३, १४१३०, १११३६३, ११॥३६७, १११४२१, १०॥२, १.७३, १।१९५, ११४३६, ११६०८, ११६३२, १३६५२, १। १०॥३, १०३८७, ११३८५, १०॥४५७, १०।१२१, ५४३, १२२५३, ११५३, ११३२२, ११४६६ १॥ २६, ६।३२७, ३६५, ९३६६, ६, २४६, १५२२, १२६७, १२४६, १२१०७, १३१५७,
।१३, १६८, ६१६६, ६।३२८, ६३२६, ९५, ११२३२, ११३१२, १॥३३०, ११४९६, १२५६६, ६।५६, १००, ४२१४, ६।१६७, ९४१७, २११५, १२४२७, २०५५५, ११५५४, ११४३३, ६१, ६।४५, , २१५, ६।२४७, ६।२८७, १।२८, १०५०५, १११३०, १३१६५ १।२६६, ६।२२६, ३३६, ४१६६, ८।३४६, ८।३७५, ११३२४, १३३०७, १२, ११४२६, १३१६६, १६७ ११३५, ८३६६, ८३८३, ८।४३३, ८।४३७, जैनेन्द्रकुमार जैन-१९१८७, २।१९३, २०४७, ११३७, ८.३५४,६७, ८६८,७४२, ७.२१, ७.३७ ७६१ ११७८, १२२०२, ७।६१, ७१६२, ७।१५१, ७।१५३, ७।१६४, ७।२२५ जंबूप्रसाद जैन-१७४२५, १६।२७, १६।६६, १६।१२३, ६।१, ६।३, ६।४१, ६।४३, ६७६, ६।८१, ६।१२१, १६३१७७, १६।२१७, १६।२६६, १५२६७ ६।१२३, ६।१४५, ६।२२६, २।२६१, ६।२६३, ज्ञानचन्द्र भारिल्ल-७३१२७ ६।३२१, ६।३२५, ६६३७५, ६३७७, ३.१०५, ज्ञानचन्द्र स्वतत्र जैन-१९१६९ ५॥१०७, ५॥१६६, २१७३, ५२२०९, ५२२११, (डा.) ज्योतिप्रसाद एम. ए. पी-एच. डी.-२११२२३, ५।२६६, ५२२७३, ५१३२६, ५॥३३३, १३४५, १६१६०, १६।१३६, १७१५४, १७४१५६, १७१२१७, ५१३१, ५॥३९८, ४२३, ५११६६, ५॥२०५, १५॥६५, १४१२८५, १४१३२४, १०।२७४, १०४३७२ ५।२३७, ५॥३१, ११, १२, १३, १११, ४४१, ६।२११, ६।२०६, ८।२२५, १६६, ८।३४३, ४१५५, ११२१, १२३, ४११५३, ४१८५, ८।३६५, ८।३५६, पा२६५, ८।२६१, ८।१०६, १२४२, ४१२४८, ४१०१, ३,३, ४१३१७, ८.१६६, ८।६१, ६७, ७.१७६, ७७७, ७७१२१, ४१३४५, ४१३५७, ४२१, ४७७, ७६, ७।२०७, ६।२४६, ६।२२१, ३३२८१, २०६४७, ४४९४, ४१५२५, ४१५२७, ४१५२६, ४१५६१, १३३९८ ४१५७५, ५६७, २१, २२, २३, ३३६ ३३५८, ज्वालाप्रसाद सिंहल-८५४
१२१, १२६, २११३६, ३३१४१, ३२००, श२०७, २६६, ३१३०७, ३१३१२, ३।३७७, टी. एन. रामचन्द्रन-१४११५७, १५२१०१,१११३७८
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२७
(पं.) दीपचन्द्र पाण्डया-१६२६१, १५।६२, १२।२०१, ठाकुरदास जैन-१९।१३६
५२६६, ५२२५७, ५७७, ४१५२०, ४।४७८,
२१६११ डी.ए.के दीक्षित बड़ौत १५।१०१
(पं.) दीपचन्द्र वर्णी-१३१८
दुलारेलाल भार्गव ६१८६ तन्मय बुखारिया ९।२४४, ७१६
(प्रो. दुलीचन्द जैन एम. ए. एस. सी.-१६।१६४ ताराचन्द्र जैन दर्शन शास्त्री ४१६२१, ३१३५२, ३८२,
देवकीनन्दन सिद्धांत शास्त्री ११५६१, १।२०५ २०६८०
(डा.) देवेन्द्र कुमार जैन शास्त्री-२१॥२१३, २०१३३, तिरूवल्लूर-२।२५२, (प्राचार्य) तुलसी-१७१५३, १७४२५६, १२॥३४८
१९८४, १८।१८४, १७४२६३, १७।१६९
देवेन्द्र जैन-३७७ तेजसिंह गौड एम. ए. बी. एड. २१।३५
(कवि) दौलतराम-२१११३६, १३१२६७ दद्दूलाल जैन -२२६७
(पं.) दौलतराम 'मित्र'-२११२७८, २११२७६, १२३१२२ (पं.) दरबारीलाल न्यायतीर्थ-१।३६५, १।१६३, १।२७७
८।१६२, ८१२५, ६।२९२, ६.१७७, ५११६१, ५॥३२० ११३७६, १।१७७, १।२५२, १।२६१
श२६८, २३२३, ४१८२, ४१५१३ ४११, (4) दरबारीलाल कोठिया-२११५०, २१:२६३ २११२७७
४॥३३२, ३३६५७, ३२६९०, ३१७१८, ३।३९२ १८१६१, १८२, १७।३३, १४१३०, १२११२६, (स्व. कवि) द्यानतराय-८।१३२ १०।९१, १०।२५६, १०।१६५,१०।१६४, १०११४७, घ १०।११७, ६।१७, ६।२७५, ६।२६१, ६।२२३, (पं.) धन्यकुमार जैन एम. ए.-७१३९ ६।३४, ६।११३, ६।१४८, ६।३२४, ६।३३, ६।५०, धर्मघोष सूरि-१४११२४ ६।४३, ६०, ६।३५८, ८२, ८।३४८, (प.) धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री ६।१८६
धरणीधर शास्त्री ।२०६, ४१२३४, ४१३०२ ८।३७४, ८।११५, ८।१६२, ८।२४७, ८।१५४,
(श्री धीरेन्द्र जैन-१७।५७ ८।२८२, ८।३२८, ८।४१५, ८।४६६, ८।१७५, ।' ८।१४४, ८।४२८, ८८३, ७।१०५, ७१८१, ७२१४, ७१४८, ७।१०, ७।६८,७४२२३, ६।३३० (मुनि श्री नगराज-२१०२५, २११५६, २१ , २०७४ ६।३७६, ६।१२, ५२२२१, ५।३६३, ५।११६, ५।५६ ।। २०१८७, २०१२१६, २०७५, १६।२४६, १७४९२, ५।१८८, ५।२६१. ५॥३८३, ४।३१३
१७।१००,१६११, १६३५४, १६११३, १६६१९५, दरबारीलाल सत्यभक्त-१०।४५, ३।४३०, २१३६७,
१६।१४६ (मुनि श्री) दर्शन विजय-११५७६
नजीर-१९६ दलीपसिंह कागजी-कि. टा. १, ११४२६
(मुनि श्री) नथमल-२०११६२, २०४०, १९४२६२, दशरथ कौशल-८।१२२
१९।१६७, १८।१६०, १७-१६०,१८१४२, १८।१३२ दशरथलाल जैन-३६१
१८८, १७२२१, १७४१६५, १७५११८, १७४१२२, (ग.) दशरथ शर्मा-१९७०, १९२०, १८:१७, १६३ १४१५७, १६१६१ . २५२, १६।२२८, १२२२८, १५२११६, ११।४२ नरेन्द्र प्रसाद जैन बी.ए.-२॥३७७, २०५५८ (प्रो.) देवेन्द्रकुमार एम. ए.-१६१११, १४१२९२, (डा.) नरेन्द्र भानावत १९६१३१, १७११७५, २६२०३, ३७५
१५१८६
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३.४ वर्ष २२ कि० ५
(डा.) वरेन्द्र विद्यार्थी १६३०६
(पं. नाथूराम डोंगरीय - २३४८, ६०, ७१२८
२।३४८, २३६६
(पं.) नाथूराम प्रेमी - ११ ११२, ११:३४, ११ १०२, ७ ७ ७२६ ७ ६४, ७/४६, ५/२६२, ५३८, ५२६७, ४५६६, ४/४०५, ४,४५५, ४८२, ३५२६, ३/४४१, ३६६६, ३६६७, ३५६, ३१२७० २/३५१, २/३८१, २/६६६, १३२६, ११५६६, १८१, ११६१, ११३२६, १/३३३, १३४५६, ११११० १/४२५, ११३२१, १११४५, १/२०६, ११५२६, १।२६२
नाथूराम सिंघई - १२९८
(बाबू) ज्ञानन्द एडवोकेट २४५६२
(बाबू) नारायणप्रसाद - २४२१
(श्री) निर्द्वन्द १०1३०५
(श्री प्रजित मुनि) निर्मल-- २६/६३ (श्री) नीरज जैन - २१/१४६, २१३२६७, १६/४६, १६।१२, १६३५, १८/१७७, १८।२२१, १८१८, १८/१२५, १७/२७५. १६/१५० १६०२१४, १६१४० १६।२७६, १६ १००, १६ ५९, १५३१२१, १५१२७७ १५/१७७, १५।२२१
नेक
(श्री) नूतन - ११५०४
(मुनि श्री ) नेमचन्द - १६/४६
(पं.) नेमचन्द्र धन्नूसा जैन - २११५३, २१।१६२, २०
३४२, २०११६६ २०११- १६ १०५, १६०२१६, १६।३३४, १६३०१, १८६६ १८१४४, १८/२५, १०,१८२२४, १८/२६५, १८१५३, १५/१२० १७/२४५
(संघ) नेमिचन्द्र - ४१२९२
मिन्द्र जैन 'जिन'-१३३१०६
सिद्ध बालचन्द्र गांधी, वकील - ६।३१४ मिति - १४ । १५५
(डा.) नेमिचन्द्र शास्त्री - २१८, १६/४५ १६ १०६ २१।१६४, १८।२४२, १६/३, १५/१६६, १५१५१, ६।१६६, ६।४६७
(मुनि श्री ) न्यायविजय – २११०५
प
पदमचन्द जैद - १६ । १७३
( मुनि) पद्मनन्दि - २११४६, २०१४६, १६/२०३, १६।२४३, १६३३६, १८/२६१ १६ २४१, ९७६७ १६।६७, १६ । १४५, १०११६३
पद्मनन्द्याचार्य – २११६७, २१।१४५, १७१४६, १७११, १६।२४१, १६/४६
पन्नालाल अग्रवाल - १६१४८, ११३०२, ८।२१७, ८।१३३ पन्नालाल साहित्याचाय- २१।२५४, १६६१८८, ६।१०६,
६।१६८, ५।१३४, ४/२७८, ४।२७९, ४१२२, ४।७५, ४१३५८, ४/४६६, ४/५०७, ४/२७८, ४।३२६
(पं.) पन्नालाल सोनी — १४१३४३
( प. ) परमानन्द शास्त्री - २११४३, २१।१२६, २१६१, २१।१८५, २१।१७६, २१।६०, २१२१५, २१३७, २१।६५, २१।१६०, २१।१३७, २०६८, २०११७७, २०१२३६, २०/२६६, २०१२, २०/३०, २०६३, २०।१४३, २०२३६, २०/२३२, १६/२७६, १६।३२६ १६२६६ १६ १००, १६/१४५, १६/५४, १६/३३३ १६।२७३, १६ २०१ १६ २८६, १६३३७, १६८२ १८२६६, १८६०, १८४५, १८६५, १८१६२, १८२४०, १८।२६, १८१३५, १७/७८, १७२, १७/३५, १७ १४०, १७/१६६, १७११५९, १७६६, १७ १४४, १७२८५, १६।२५४, १६।५०, १६६८, १६।१४५, १६ । १९४, १६।२४२, १६६६ १६ ९२, १६।१३८, १५/७६ १५।१३४, १५/२३५, १५/२३७ १५०११, १४:१०, १४।२२७, १४८, १४।१०६, १४ । २३४
१४।१७२, १४।६८, १४१४, १४:२४२, १४५६, १४।१०६ १४२५६, १४ कि. १० टा. पे. २, १४१४० १४।२०, १४० कि. ६ दा. ३, १३०२६६, १३०२५७, १३।१४६, १३।२१४, १३६०, १३१८२, १३।२४०, १३/२०५१३१६८, १३२५६, १३१८६, १२३२७ १३।१६६. १३।२०२, १३।१३२, १३।१२३, १३/१३५, १३/२७६, १३१६०, १३ १५४ १३।२१५ १३००, १३/२१४, १३४२७, १९६६ १३०७३,
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२१
'अनेकान्त
लेखक
१३३९४, १३८१, १३।१३५, १३ कि. ११.१२ टा. २, (कु.) पुष्पलता-२०६५१ १३३२२७, १३३२६४, १३३९६, १३२२२१, १३।१३२ पुष्पेन्दु-७१३ १३३२६६, १२२०५, १३३१६८, १३।२०२, १२३० पुष्पमित्र जैन-१४॥२८७ १२।२९३, १२॥१४०, १२।११६, १२॥१३१, १२॥३०५ प्रकाशहितैषी शास्त्री-१९।२०० १२।२८, १२।२५४, १२।२५६, १२॥३५५. १२॥४०, (डा.) प्रद्युम्नकुमार जैन-२०११३०,२०१२५५, १८०३१
६.१६६ १२॥३१६ १२११७१, १२।२३८, १२।२७६,
प्रफुल्ल मोदी-८१३७
- १२॥३८५, १२॥३६, १२।२३६, १२।३०, १२८६,
(डा.) प्रभाकर शास्त्री एम. ए.-१८८७, १७५१३५ १२।१६३, १२॥१८८, १२।२३५, १२।२७६,
प्रभुलाल प्रेमी-१९।३१, ८।१९३, ७।२१९, ६।१७, १२।३७७,१२।२५६, १२।२३८, १२।२७०, १२॥३१६
६२६८, ६।१११, ६।१६. १२।३०५, १११२११, ११४४१४, ११।१५२,
प्रेमचन्द्र जैन-२११२८३, १९१६८, १८१४८ ११।१९३, ११॥२४३, ११।२०५, १११३७०,
प्रेमलता-६।२२० १११२७३, १११३४८, ११२४०२, ११॥३५६, १२॥
(डा.) प्रेमसागर-२०१२३६, १२३, १९३८३, ३५६, ११३७४, १२२२४, ११॥३३४, ११।२६५,
१६।३४७, १८१९४, १८२३६, १७२०२, ११॥३१६, १११२३४, ११।२५१, ११३१६२
१७।१९१, १६०२, १६।१०४, १९४४, ११११६३, १९३३४८, ११॥३३३, ११॥३३४, ११॥
१६३१६०, १६:२४०, ११५७, १५१२३, ३३६, १०॥३१३, १०, ११३८, १०कि.१ टा. ३, १०१२८६, १०७५, १०८०, १०१०१, १०॥१२०
१।२५६, १५९६, १५१४, १५४१९२, १५५२३६
१५।२८८ १०॥३४८, १०॥३७७, १०११५१, १०॥३५१, १०।१६०
(डा.) प्रेमसागर पंचरत्न-३१६४४, ३१६५६, ३४३८३ १०॥३५०, ६।२५, ९७७, ९८४७४, १६५, ।३६०, ८१३४५, ८।२७३, ८।१७३, ८।४००,
(प्रो.) प्रेमसुमन जैन-२११२११ ८।६५, ८।३९८,८७१, बा२००, ८।११७, ८.३८६
फजलुलरहमान जमाली- २ ८४६२, ७८२, ७.५४, ७१७, ७।१०३, ७२८, ७।१६६, ७१५६, ६२६३, ६३४३, ६॥३७२,
फतेहचन्द्र वेलानी-७१६३ ६।३७६, ५२२५३, ५२४०१, ५।१३, ५।३३७,५१३१,
फतेहचन्द्र सेठी २११२८२ ५।२७, ५२३४४, ५९५, ५११०, श२६६, ५॥४१७
(प.) फुलचन्द्र सि. शास्त्री-१०४०, १०१२२८, ६२५२ ४१४२५, ४११४१, ४१७, ४१३०७,
६३०३, ६।२८६, ६।३०६, ६।३२८, ६.५१, ४१५८३
१४८३, ४१६२३, ४१३६१, ४१३००, ४१३३४, ४१६२८, ४१५२६, ३२२५६, ३३५१४, ३२३१९,
बनारसीदास-१९४१,१५१४४, १५०२८,६१६७, ६११९,
२९७, २५३७, ३१७५७, ३कि. ८-९ टा. पे. ३, ३३३७८,
६७१, २०३१०, २१३१०, २०३१०, ११३६०
(प्राचार्य) बलदेव-८४५३ ३॥६२६, ३२६७८, २१४३७, २२२२१, २०५८४,
(4.) बलभद्र जैन-२१२२६८, १४.२०, ७१५, २॥३७१, २।३१९, २१३४०, २१४७३ (पं.) परमेष्ठीदास-६।१८१
बसन्तकुमार जैन-१६।२५८
बालचन्द्र काव्यतीर्थ-७।१४४, ६।२६२, ६।३३६ पी. वी. वासवदत्ता जैन न्यायतीर्थ-१४११२५
बालचन्द्र जैन एम. ए.-१९२०६, १९२४, १७.१३१, (मुनि श्री) पुण्यविजय-१।१४२
१६।२३६, १२८५, १०।११४, १०।१२९, १०॥३१६ पुरुषोत्तमदास साहित्यरल-६०५६, ५२५६, ६।१८७ १०.३६१, १०।१५०, १०॥३६१, ६।३६१, ६।३४५. पुष्पदन्द-४४७
८.४०८
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२५०, बर्व २२ कि. ५
अनेकान्त
बालचन्द कोछल-११२३३
(श्री) भरतसिंह उपाध्याय-१४।१४० (पं.) बालचन्द्र सि. शास्त्री-२११११६, २११७५, २१॥ (पं.) भागचन्द्र जैन-१४१२०, १२।४१, ७.१५२
१५५, २११२२७, २१६१६०, २०२८८, २०१७, (डा.) भागचन्द्र जैन एम. ए. पी-एच. डी.-२०१२८२,
२०२५१, १९।४७६, १९४२२०, १९।२७५, १६॥ १६।२६२, १९९० : ३२०, १८:१०, १६.१५५
(प्रो.) भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु'-२११२७५, २११६७, २०॥ बालमुकुन्द पाटौदी-३।१६५, ३१७०७
- ६२, १९।१६, १६:२३२ बी. एल. जैन-कि. १० टा. ३, ३।५९६
(बाबा) भागीरथ जी वर्णी-२॥५३६, ११६७० बी. एल. सराफ-३।३२५, २।३०३, २।४८०
(श्री) भीमजी हरजीवन सुशील-११४८६ बुद्धिलाल श्रावक--६।१६१
(पं. के.) भुजबली शास्त्री-१३।१७८, १२१७६, १२॥३५३ (डा.) बूलचन्द्र जैन-१७४२३६
(स्व.) भूघरदास-१७५१६४, ६।१२५, ६।२४५, ६।२१३ (पं.) बेचरदास जी दोशी-१२२८६, ११४३ बैजनाथ बाजोरिया-२१४२७
(डा.) भैयालाल जैन-६।२६३, ४१११२, ४११७८ (पं.) बंशीधर शास्त्री-१९२
(बाबू) भोलानाथ मुख्तार-१११२१, ११४०६ (श्र) ब्रह्मजीबंधर-१५॥१४७
भंवरलाल नाहटा-१६।२७, १८।२३८, १८।८५, १८।
१७६, १७११७८, ६।२१, ८।४४, ८१४४४ (स्व.) भगवत जैन-८।४३६, ७।१३१, ७।५६, ७१८०, म
६।४६, ६३५४, १३२५, ६।२९८, ६।२४६, ६।१६० मदनमोहन मालवीय-११४२ ६।४६, ६।२७२, ५११२६, ५१३५६, ५१३३, ५२२४८ महाचन्द्र-१४॥३१५ ५।३६१, ५२०२, ५२०३, ५२२८८, ५॥३७, ५११३८ महावीरप्रसाद-६।३०१, ६।१६, ५१५४, २।२२०
२९२, ५३१३३, ४१५२८, ४१३३८, ४१६०६, (श्री) महेन्द्र जी-६।१७६ ४१२६५, ४१३४१, ४१५७, ४१६०५, ४॥३६०, ४१३७८ (मुनि श्री) महेन्द्र कुमार (प्रथम)-१७।१७ ४१५०६, ४१३६४, ४१५४७, ४१३४२, ४१४४६, (मनिश्री) महेन्द्रकुमार (द्वितीय)-१८।२४७ ४११४, ४११५१, ४।११०,४१७४, ४२११, ४११८६ (प्रो.) महेन्द्रकुमार-न्यायाचार्य एम. ए.-१४।१०७, ४१२४७, ४१३२१, ४।४६२, ४१५१८, ४११६४, १४:५५, १४।२६८, ९।३३५, ५।२८१, ५।१६३, ३१२१७, ३४७, ३७२, ३२७७, ३.४८, २०६५८, ४१२१. ३१३३, ३१६६०, २१३१, २०२१५ २२५११, २।४०, २१५०५, २।३६२, २।५५६, २०३३७ महेन्द्र भानावत एम. ए-१७१७, १७।२६४, १६३८३, २११६५, २।५६१, २।२७६, २।४४२, २०१६२, १५२६४ २, कि.७ टा. ३, २०१७३, २॥३४३, २०२६१, (बाबू) माईदयाल जैन बी. ए.-१०१३७२, १०।२६३, २१४५२, २०५६६, १२२७६, २०२४१, २०६३८, २०४, ६।१३३, ६२००, ५।१६८, ४२६३, ३८० २, कि. ३ टा. २
' २१५६६, २१६६६, २।५६८, २।५८७, १३५६७, (श्री) भगवन्त गणपति गोयलीय-१६५, ११६६, १२३४१ ११२४३, ११८७ । १२३११, १।२४, ११६६, १११६४
(श्री) माणकचन्द पान्डपा-६२५३, भगवानदास विज एम. म.-१७११६४
(बाब)माणिकचन्द बी. ए.-७।३, ६।३०, ६।१३८ ६।१८२ (महात्मा) भगवानदीन-१४३, ११२५
(६०) माणिकचन्द्र जी न्यायाचार्य-२०१४२, ६।२३३, भग्नदूत-२१३२, २।२९ ।
६।३१७, ६।३६५, ६।१६६, भवानीदत्त शर्मा-२२८५२१६२०
माधव शुक्ल-८।४७
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'अनेकान्त
लेखक
(पं.) माषवाचार्य-११६६
(प.) रवीन्द्रनाथ-६६०, ६१२१२, २०१४ मामराज हर्षित-६८६, २।१६०
रवीन्द्रनाथ मैत्र-११३६८ माहिर अकबरावादी-कि. ३, टा. पे. ४
(डा.) राजकुमार जैन-१६।७४, १८।२३०, १८२७६, मनुज्ञानार्थी साहित्यरत्न-१३९
१४१४२ (पं.) मिलापचन्द्र कटारिया-२१२२३, २१॥२३६, २० (बा.) राजकुमार जैन-८।३२३, ८२३५, ४१३७१ ८४, १९।११७, १८।६७, १॥३४
(श्रीमद्) राजचन्द्र २०११५०, १४०, ३११७६, ३४.७ (मुनि श्री) मानमल जी-१६१०१, १६।२८५
३।१४६, ३।२३६, ३।११८, ३६३२, ३८१, ३७६,' मुनीन्द्रकुमार जैन-१४।१७
३२८६, ३३१२०, ३ कि. ४ टा. ३, ३०२७, ३१६३७,' मुन्नालाल विशारद-१।१५३,११५४८
३१५२६ (प.) मुन्नालाल 'मणि'-११५६५, ११६५४
राजमल मड़वंया-१११२७७ (पं.) मूलचन्द्र वत्सल-६।२५७, ६।५४, ३।३३६, (साध्वी श्री) राजमती-१६।२७० ११५७५
(डा.) राजाराम जैन-१९१०१, १७।२५०, ११६ मैथिलीशरण गुप्त-३।२०६
राजकृष्ण जैन-१२।३६६, १२।७४, १२।१३६ मोतीलाल शाह-२।१२३
राजेन्द्रकुमार-६।२१०, ६।१८५, ६।१८, ६।१९३, मोहनदास करमचन्द गांधी-८२४६, ६७, ३१६०७, ६१००,४, कि.६ टा. ३ २१५०३, २१४५३,
राजेन्द्र कुमार जैन 'कुमरेश'-२१४६२ मोहनलाल शर्मा-६।१७६
(डा.) राधाकृष्णन्-१६॥३६ मोहिनी सिंघवी-२११८५
राधेश्याम बरनवाल-१४१६७ (साबी) मन्जुला-१९।२४०, १८११६२, १८।१२८, (मा.) रामकुमार एम. ए.-२१२२६६ १७७४
रामकुमार स्नातक-३१५७२
रामप्रसाद शास्त्री-४८६, ४१३९४, ४४३७, ४१५६७, यशपाल जैन-१९।२६, १८।२३७, ४१२२६, २०१३
४॥६१ (श्री) यात्री-४१३७२, ४१३८६
रामवल्लभ सोमाणी-२११११४, १९।३०३, २०११४,
२२।३६ रघुवीरशरण एम. ए.-३१६६५, ३१४०८,२,कि.७ टा. ३ रामसिंह तोमर एम. ए.-१।३६४ (पं.) रतनचन्द्र जैन-२१६५७
(एम) गोविन्द पै-६।२१२ (वाबू) रतनचन्द्र मुख्तार-१९७३, ८.१९६
रिषभदास रांका-२१११७४ रतन जैन 'पहाड़ी'-८।३२६
(मुनि श्री) रूपचन्द-१८।१११, १८११८८ (4.) रतनलाल कटारिया-१६।२१, १५३५०, १५॥१३१ १५२२१, ७.३५
लक्ष्मीचन्द जैन-२०११, १४॥३२९ रतनलाल संघवी-४।२०५, ४।२५७, ३१५६, ३।४११, लक्ष्मीनारायण जैन-८१२४ २१४४, २०३३५, २।४६३
लज्जावती जैन-२१३९६ रत्नेश 'विशारद'-३१४५०
ललिताकुमारी-४॥३८७, ४१२०१, ४६८, ४१६५, रमेशचन्द्र शर्मा-१६१४२
४।२७३, ३३५६६, ३६८५ (पं.) रविचन्द्र जैन-६।१८३, ४८५
(पं.) लालबहादुर शास्त्री-६१८३ (डा.) रवीन्द्रकुमार जैन तिरूपति-१८११०७, १३१६३ लोकनाथ शास्त्री-११०४,११२२२
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२५२; वर्ष २२ कि०५
भनेकान्त
लोकनायक मणे एम. एल. ए.-२२४२३
(पं.) शांतिराज शास्त्री-११४४ (श्री) लोकपाल-१०१५५, १०८७, १०२६, ६३६८, शांतिस्वरूप 'कुसुम'-३।३८६ ६।३३३
(कु.) शारदा-६।२२२ मोकमणी जैन-८१०२
(प.) शाली-१४।१८७
शिवनारायण सक्सेना एम. ए.-१७१६६ वसन्तकुमार जैन-१७१७२, ३२३९०
शिवपूजन सहाय-६।१८० (चो.) वसन्तलाल-१३५६६
शिवव्रतलाल वर्मन-६११३२ वसन्तीलाल न्यायतीर्थ-वर्ष ३, कि. ६ टा. १
(ब.) शीतलप्रसाद-४।६३, २।२५६ वादीभसिंह-२०११
(राजवंद्य) शीतलप्रसाद-११५१, ११७६ (डा.) वासुदेव शरण अग्रवाल-१६।२५२, १३।२५०, शुभचन्द्र योगी-१४।७५ ।
१०१२२, १०८, ६६१, ६।१७८, ६३३६३ शोभाचन्द्र भारिल्ल-२१४८, ११६१३ विजय सिंह नाहर-३१६०५
श्यामलकिशोर झा-६।४८१ (डा.) विद्याधर जोहरापुरकर २११३३, २११३३, २१॥ (डा.) श्यामशंकर दीक्षित एम. ए.-१७।१०८
१७०, २०६५, २०१२८, २०१६०, १९१३३१, (श्री डा.) श्रीचन्द्र जैन सगल २११२४३ १६।२५६, १६१२२६, १५४२५३, १४८७,१४१२६६ श्रेयांसकुमार जैन शास्त्री ८.१३५, ४१६
१४१२०१ • (कु.) विद्या देवी-२०४८२
सत्यनारायण स्वामी एम. ए.-२०११४० (मुनि) विद्यानन्द-२०११२७, १६।३१५, १६।३५६,
(डा.) सत्यरंजन वनर्जी-१९१७५ १८।४३
(श्री) सत्याश्रय भारती-१५॥१६७, १५२२१६, १५॥११५ विद्यानन्द छछरोली-६।१८८
१५७१ (मुनि श्री) विद्याविजय ११५१०
संतराम बी. ए.-३।५३३, ३१३३५ (प्राचार्य) विनोवा भावे-१७१३२
समन्तभद्राचार्य-२०१२४१, २०१९७, १८१४६, १८११, (श्रीमती) विमला जैन-२१२२६६
१७।१४५, १७११६३, १७।२४१, १६३१ विशनचन्द्र जैन-१६।१६७
(प.) सरनाराम जैन बड़ौत-१७११८२, १७११३८ विश्वम्भर सहाय प्रेमी-१०१३०३
(पं.) सरमनलाल जैन दिवाकर-२०२६२ वी. एन. शर्मा-१९१२६
सलेकचन्द्र जैन एम. ए.-१८।११६ (कुमार) वीरेन्द्रप्रसाद-१०१६६
(श्री) साधु टी. एल. वास्वानी-११३३७ (प्राचार्य) वृहस्पति-६४१८०
(श्री) सिद्धसेनाचार्य-१०१२०० (पं.) वंशीधर व्याकरणाचार्य-१३।२४१, १२।१३५,
(श्री क्षु.) सिद्धसागर-१७।२४८, १४॥२३७, १३१६५, १२।११५, ८.१८०, ६६, ६१८३, ६।१२८, ६२३७
१३।८६, १३।१६७, १३।१२८, १३।१७६, १३।१८६ ६।२६६, ३१५१, २२७, २।६००, १६७१
१३।११७ (श्री) वंशीधर शास्त्री एम. ए.-११४७
सुखलाल बेचरदास-११२०० (डा.) वी. गोरे डी. एस. सी. १६१६४
(प.) सुखलाल संघवी-६।३६६, ६६३१०, ४१५४१,
१।२६, १११४१, ११२१६, ११२६३, ११३८५, १३५७६ (बी शरदकुमार मिश्र-६।२४८
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'पनेकान्स' के लेखक
सुमेरचन्द्र दिवाकर-१४॥३३१, १४११६३, ७१९०, (मुनि श्री हिमाशु विजय-१६०५
६.६२, ६।१०४, ६।३०२, २२४१, ५२४०५, ५।२६४ (श्री) हीरक-६।२४५ ४।१७०,३१४८
हीराचन्द बोहरा बी. ए.-१३।१४२ सुमंगला प्रसाद शास्त्री-११३७८
(डा.) हीरालाल जैन एम. ए.-१३।१७५, १३३२५६, सुरेन्द्र-४।५३
११३१०५, १०१३४६, १०॥३६०, It, ८।१६३, (प.) सूरजचन्द्र-७१५८, २१३२८
८।२६, ८८६, ८।१२५, ७।१५०, ७.३०, ७५२, (बाब) सूरजभान वकील-३।२२१, ३।३८५, ३।३६९,
७.६२, ६।१८०, ६।६५, १५॥१८३, ३१६३५, ३।१०५, ३१५५६. २।३११, २।३३, २।१८७, २।२६६
३१४०६ २०१३७, २।३५६, २।४०८, २।४६३, २१६२३, हीरालाल पाडे-४।४४८ २०६४१, २१५२०, २१५७५
(पं.) हीरालाल शास्त्री-१६२५६, १९१९२, १४।२२१, (साध्वी) सघमित्रा–२१११४, १८:१६६, १७१११४ १४१५६, १४।२५२, १४१७७, १४।३१७, १४।२६६, (श्री) स्वतत्र-६।२२०
१४।११२, १४१२३५, १४११६८, १११४५, १४॥
१५६, १४॥१६३, १४१२३८, १४१२५३, १४०२०८, हजारीमल बांठिया-८३६
१४।२७४, १४१२२५, १३७८, १३.४०, १३।४३ हरदयाल एम. ए.-३१३६०
१३।१०, १३।६७, १३।२०४, १३।१८, १३।५१, हरिप्रसाद शर्मा 'अविकसित'-६।६३, ५।३०, २।१४५ १२।३६२, १२।३३०, ११॥३५१, ६१६६, ६/६७, हरिशंकर शर्मा-३१५१०
४।२५२, २०५४८ हरिसत्य भट्टाचार्य-३।४६७
हेमचन्द्र मोदी-३।२४३, ११५३६ हरीन्द्र भूषण-४।६७
हेमलता जैन-२२३८ (डा.) हरीश-१२१४३, १५॥१८०
(प्रो.) हेमुल्ट ग्लाजेनाय-८।८०
र
'अनेकान्त' 8 मासिक : एक दृष्टि में
गोपीलाल 'प्रमर'
अनेकान्त का रहस्य
हारिक तत्वों को हमारी संस्कृति से रुखसत करने में 'मनेभारतीय संस्कृति का प्रमर सदेश देने वाली पत्रि. कान्त'ने सख्ती से काम लिया है; तकंसगत मोर प्रत्यक्षसिद्ध कामों में 'अनेकान्त' का स्थान उल्लेखनीय है। प्राज जब बातों को, किसी भी परम्परा के विरुद्ध पड़ने पर भी सस्कृति के क्षेत्र में युगान्तरकारी परिवर्तन हो रहे है तब साहस के साथ मजूर किया है। फलस्वरूप, 'भनेकान्त' भारतीयता के शाश्वत मूल्यों की सुरक्षा और संपोषण एक को जितनी प्रसिद्धि संस्कृति के संरक्षक और व्याख्याकार चुनौती बन गया है । इस चुनौती का मुकाबला 'पनेकान्त' के रूप मे मिली उससे भी अधिक प्रसिद्धि संशोधक पौर जैसी पत्रिकाएं बखूबी करती पायी हैं। खास बात ये है समालोचना के रूप में मिली। और यही 'अनेकान्त' की कि इस पत्रिका ने हमारी सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा भनेकान्तता का रहस्य है। पौर संपोषण के साथ उसका परिष्कार भी किया है। 'अनेकान्त' की मापबीतीपरिस्थितियों के बदौलत मा धुसे मवैज्ञानिक और अव्याव- मंगजिन साइज की ॥ पृष्ठीय मासिकी भौर ४८
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२५४, पर्व २२ कि.५
अनेकान्त
पृष्ठीय वैमासिकी 'भनेकान्त' का ४० वर्ष का जीवन , (२) उसके २१२ अंक (किरणें) प्रकाशित हुए, १६८ दरअसल जैन समाज के पुननिर्माण की एक षटनापूर्ण मासिक मोर ४४ वैमासिक । कहानी है जिसका लिखा जाना माज भी बहुत बाकी है। (३) इनमें महात्मा गांधी, श्रीमद् रायचन्द्र, स्वनामधन्य पुननिर्माण के दौरान प्रतिक्रियावादी मोर उदासीनतावादी गणेशप्रसाद वर्णी, सर्वश्री काका कालेलकर, जैनेन्द्रजी मादि तत्वों ने जिन चीजों पर कुठाराघात किया उनमें एक २७ लेखकों ने २१५ रचनाएं प्रस्तुत की। 'भनेकान्त' भी हैं। यही कारण है कि ४० वर्षों के जीवन (४) विषयक्रम से रचनामों की संख्या है : में यह पत्रिका २१ वर्ष चार माह ही सक्रिय रह सकी। (१) सिद्धान्त (धर्म, दर्शन, न्याय, व्याकरण): ३६२ २४५६ वी० सं० (१९२६ ई.) में समन्तभद्राश्रम (वीर
(२) साहित्य : ५०३ सेवा मन्दिर), दिल्ली से स्व. जुगलकिशोर मुख्तार के
(३) पुरातत्व (इतिहास, संस्कृति, स्थापत्य, कला): नेतृत्व में प्रथम बार प्रकाशित 'भनेकान्त' एक वर्ष तक
४६१, प्रतिमाह माया और मार्थिक संकट में उलझकर, सरसावा
(४) समीक्षा : ७६, (उ.प्र.) में स्थानान्तर के बावजूद पाठ वर्ष तक
(५) कहानी : ५०, निष्क्रिय पड़ा रहा । स्व० बाबू छोटे लालजी स्व. लाला
(६) कविता : १२७, तमसुखराय जैन प्रादि के पार्थिक संपोषण से १-११
(७) व्यक्तिगत (परिचय, अभिनन्दन, श्रद्धांजलि १९३८ को फिर चल पड़े, 'भनेकान्त' को सात वर्ष बाद
मादि) : १६१, फिर लड़खड़ाता देख भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ने एक
() सामयिक : ३०४, वर्ष संचालित किया। पांच माह में कुछ शक्ति संचय करके
(६) विविध : १३५, बह जुलाई' ४८ से चला ही था कि पुन: दिल्ली लाये
(१०) संकलन : १६३, जाने के बावजूद उसे पार्थिक संकट ने लगभग दो वर्ष
(५) वर्षक्रम से रचनात्रों की संख्या है : १:१५१% को रोक दिया । मौर, इसी तरह रुकता-चलता 'भनेकांत'
२:१७६; ३:१५३; ४:१६५; ५: १०३; ६ : जुलाई, ५७ तक, जीवन के २८ वर्ष में सिर्फ १४ वर्ष
१७१; ७ : ६६; ८ : १०६ : १०६; १०:६५; सक्रिय रहकर लगभग पांच वर्ष को निष्क्रिय हो गया।
११ : १२६; १२:१४, १३ : १०८; १४ : १०६% अप्रैल' ६२ से, समन्तभद्राश्रम (वीरसेवा मन्दिर), दिल्ली
१५:७३१६ : ५७; १७ : ६५; १८ : ७३; १६: से ही यह पत्रिका द्वैमासिकी के रूप मे पुनः प्रकाशित
११०; २०:५४, २१:८५; २२ : (दो प्रक): २८ होती मा रही है।
(६) कुछ लेखकों की रचना संख्या उल्लेखनीय है : कुछ पाकरे, कुछ नतीजे
पं० परमानन्द शास्त्री : २२५, प्रा. जुगलकिशोर मुस्तार : प्रस्तुत पंक 'अनेकान्त' का विशेष रूप से संग्रहणीय
१०४, श्री भगवत् स्वरूप भगवत् : ७७, श्री भगरचन्द्र मक होगा। कुछ दिन पहले, 'अनेकान्त' के प्राणाधार पं. परमानन्द शास्त्री को मैंने सुझाव दिया था कि वे
नाहटा : ६७, डॉ. दरबारीलाल कोठिया : ६१, श्री
अयोध्या प्रसाद गोयलीय : ३६, डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन : पत्रिका में अब तक प्रकाशित रचनामों की भोर उनके लेखकों की वर्गीकृत सूचियां प्रकाशित करें, जिसे अपनी
३४, पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री : ३३, पं० नाथूराम
प्रेमी: ३२। समिति से मंजूर कराकर उन्होंने उसका उत्तरदायित्व
(७) कुल २२६० में से सिद्धांत, साहित्य और पुरातत्व मुझे ही सौंप दिया। दोनों 'सूचियों के माधार पर कुछ पर ३०० रचनाएं है। शेष 880 में सभी रचनाएँ माकड़े और नतीजे प्रस्तुत हैं।
लघुकाय हैं। इससे सिद्ध होता है कि 'भनेकान्त' में दो (१) लगभग ४० वर्ष के जीवन में 'भनेकान्त' २१ वर्ष तिहाई से अधिक सामग्री सिद्धान्त, साहित्य पोर पुरातत्व. र माह सक्रिय रहा। '
पर प्रकाशित होती है।
।
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'पाल्मा कारोहप्रमाणत्व'
२५५
ra) एक निष्कर्ष यह भी है कि 'अनेकान्त' के जीवन में नाजुक है। पहले उसे पैसे का ही टोटा रहता था, अब * परमानन्द शास्त्री का योगदान अत्यन्त व्यापक भोर रचनामों का भी टोटा रहने लगा है। इसके कई कारण अनियादी है। २२५ खोजपूर्ण तथा बृहदाकार लेखों के हैं जिनपर रोशनी डालना यहां शायद बेमोके होगा।
साधारण उपहारकर्ता श्री शास्त्री कभी व्यवस्थापक, प्राशा है. इस लेख तथा इसी ग्रंक में प्रकाशित दोनों किभी प्रकाशक और कमी सम्पादक के रूप में 'भनेकान्त' सूचियों से विद्वज्जगत् लाभान्वित होगा और 'पनेकान्त'
को आगे बढ़ाते हैं । उन्हें 'भनेकान्त' का दूसरा मुख्तार' का महत्व स्पष्टतर होगा। विद्वानों को अनेकान्त के लिए कहना उपयुक्त होगा।
अपनी बहुमूल्य रचनाएं भेजनी चाहिए। पौर समाजको १६) इधर के कुछ अंक देखने से पता लगता है कि उसके अधिक से अधिक सदस्य बनकर भनेकान्त की प्रगति ''भनेकान्त' को हालत पहले की अपेक्षा माज अधिक में सहयोग देना प्रावश्यक है। *
आत्मा का देह-प्रमाणत्व
___ डा० प्रद्युम्नकुमार जैन
जैन दर्शन भारतीय दर्शन के इतिहास में अपनी की विशद व्याख्या तो करना सम्भव नहीं है, किन्तु तत्स दार्शनिक मान्यताओं की विलक्षणता के लिए विख्यात है। म्बन्ध में जिस बिन्दु पर बाल चितकों को सर्वाधिक विसंजैन दर्शन का प्रत्येक मुद्दा अनेकानेक ऐतिहासिक एवं गति का प्राभास होता है उसी का विशदीकरण यहां मभिताकिक-गुत्थियों का समुच्चय है, जिसे तनिक भी जल्द- प्रेत है । प्रात्मा के स्वरूप को सूत्रबद्ध करते हुए जैन बाजी मे समझने की कोशिश अनेक गलतफहमियां पैदा दार्शनिकों ने उसे निम्न प्रकार प्रकट किया है :करने का कारण हो सकती है। प्रात्मा एक ऐसा ही मुद्दा ।
(१) जीवो उपयोगममो प्रमुत्ति कत्ता सवेह परिमाणो। है जिसके सम्बन्ध में जैनदर्शन का वैलक्षण्य सर्वविदित
भोत्ता ससारत्थो सिद्धो सो विस्ससोडूढगई।' है। इस वैक्षणण्य पर जब जल्दबाजी में एकांगी दूरष्टिकोण से विचारने का प्रयास किया जाता है, तभी तत्स
अर्थात्-(मात्मा अथवा) जीव उपयोगमयी, प्रमूर्त, म्बन्धी भ्रांतियों का जन्म होता है। जैनों की प्रात्म
(कर्मों का) कर्ता, देहप्रमाण रहने वाला । (कर्मफल का) सम्बन्धी संबोधना वस्तुतः ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ताकिक
भोक्ता तथा सिद्ध है तथा स्वभाव से ऊध्वंगति वाला है। समीचीनता की उदभावना है। अनेकान्तवादी जैन दूरष्टि (२) प्रणेगुरु देहप्रमाणो उपसहारप्यसप्पदो घेदा। तत्कालीन सभी दूरष्टियों की एक ऊहात्मक समष्टि है।
असमुहदो ववहारा णिच्चयणयदो पसंख देसो वा ।।' प्रात्मा को सम्बोधना उसी ऊहात्मक समष्टि का एक अर्थात् व्यवहारनय से चिदात्मा संकोच विस्तार गुण प्रमुख घटक है, जो अपनी समष्टि की ही प्रकृत्यानुरूप के कारण, समुद्घात के सिवाय अन्य सब अवस्थामों में स्वय भी सार्वभौमिक एवं बहमुखी है। अतः जैन दर्शन प्राप्त हुए छोटे या बड़े शरीर के प्रमाण ही रहता है। की मात्म-सबषी व्याख्या ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य मे ही पौर निश्चयनय से (लोक के बराबर) असंख्य प्रदेशी है। समझी जा सकती है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही उसकी उहा की बहुमुखी प्रकृति पांकी भी जा सकती है। १. द्रव्य संग्रह, २
प्रस्तुत निबन्ध में स्थानाभाव के कारण भात्म-तत्त्व २. वही, १०
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२५६ वर्ष २२ कि.५
भनेकान्त
(३) विज्जदि केवलणाणं केवलसोख्यं च केवलं विरियं । किया है। चार्वाक तो स्पष्ट ही चैतन्य को देह-प्रमाण 'केवल दिठि प्रमुत्त पत्थित्त सप्पदेशत्तं ॥' मानते हैं। इन सारे उद्धरणों के प्रकाश में यह समझना
पति-(निर्वाणावस्था में) प्रात्मा केवल ज्ञान, तो अब मासान है कि जैनों द्वारा मान्य मात्मा का केवल सुख, केवल वीर्य, केवल दर्शन में विद्यमान होता प्राकारवाद कोई उनकी ही विभावना नहीं है । जैनों ने । है। तथा वह अमूर्त, पस्तित्ववान एवं सप्रदेशी होता है। मई तकालीन प्रचलित मातामों को kि
उपर्युक्त वणिति मात्मा सम्बन्धी अनेक घमो में सब संहति में निविष्ट करने का प्रयत्न किया है। से अधिक विवादास्पद एवं विलक्षण धर्म प्रात्मा का सप्र.
प्रात्मा के प्राकार को स्वीकारने के पीछे से पहली देशी अथवा देह-प्रमाण होना है। सामान्यतः यह सभी मानते
ताकिक पृष्ठ-भूमि द्रव्य की परिभाषा है । द्रव्य हैं। कि पात्मा भौतिक पदार्थों से भिन्न प्रमूतं मार के लक्षण में सत् का नामोल्लेख किया गया ।" चंतन्य स्वरूप है, किन्तु भौतिक शरीर के तुल्य प्राकार इस परिभाषा से यह फलित हमा, कि 'जो द्रव्य वान कैसे हो सकती है, जनसामान्य को समझाने में कठि
है वह सत् है।' फिर सत् की ताकिक और व्यावहारिक नाई होती है । परिणाम स्वरूप कोई-कोई जन जैन सम्मत
स्थिति क्या है ? यह भी स्वतः फलित होता है कि सत् भात्मा को चार्वाक सम्मत भौतिक पदार्थ के समान ही
वह है जो ज्ञान का साक्षात् विषय हो सके। यथार्थ ज्ञान मान लेते है। यद्यपि पह जैनों का पात्मा सम्बंधी प्राकार
का विषय तभी हो सकता है जब कि वह देश और काल बाद कोई उन्ही की मनः प्रसूत कल्पना नहीं है, बल्कि
में अवस्थित हो, क्योंकि बिना देश और काल में अवस्थित महावीर कालीन अन्य मतों में भी उसकी विभावना है।
हुए कोई विषय चितनीय नहीं हो सकता । देश-काल में कोषीतकी उपनिषद् में कहा है कि जैसे तलवार अपनी
अवस्थित का तात्पर्य है कि विषय का कोई न कोई म्यान में पोर अग्नि अपने कंड में व्याप्त है, उसी प्रकार
पाकार होना । साकारता दार्शनिक याथार्थ्य की अनिवार्य मात्मा अपने शरीर में नख से लेकर शिखा तक व्याप्त है। तैत्तिरीय उपनिषद में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय,
मनुमिति है।
अब समस्या यह है, कि जब द्रव्य के लिए सत्, सत् । विज्ञानमय, प्रानन्दमय, सभी पात्मानों को शरीर में
के लिए देश-काल सापेक्षता और देश-काल सापेक्षता प्रमाण बताया गया है। 'बृहदारण्यक' में पात्मा जो या
के लिए साकारता अनिवार्य है, तो प्रात्मा के सम्बन्ध में चावल के दाने के परिमाण की है। 'कठोपनिषद्' में
दो ही विकल्प संभव हैं । या तो मात्मा को स्वतन्त्र द्रव्य मात्मा को चंगुष्ठ मात्र घोषित किया गया है।''छांदोग्य'
माना जाये या न माना जाये। यदि माना जाता है तो में उसे बालिस्त प्रमाण माना गया है। फिर जब इन
उसकी अनिवार्य अनुमिति अथवा उसका साकार होना सभी विभावनामों में ऋषियों को कुछ असंगति दूरष्टि
मानना पावश्यक है । जब उसे साकार माना जाता है तो गोचर हुई तो फिर विभिन्न उपनिषदों में प्रात्मा को
उसे प्राकाश की अपेक्षा कितना प्रदेशो माना जाए। यह मण से भी अणु और महान से भी महान् मानकर संतोष
प्रश्न सहज ही उठता है, जिसे उत्तरित करने के लिए किया गया। बौद्धों ने भी पुद्गल को देह-प्रमाण स्वीकार
कभी प्रात्मा को शरीर प्रमाण, कभी अंगुष्ठमात्र, कभी ३. नियमसार, १८१
बालिस्त प्रमाण भौर कभी अणु प्रमाण माना गया । जैनों ४. कौषीतकी०, ४-२०
का कहना है कि जब प्रात्मा का प्राकार मानना मावश्यक ५. तैत्तरीय०१-३ ब्रह्मनन्दन बल्ली ५ अनु० पर्यन्त । सानो उसे शरीराकार तल्य एक क्षेत्रावगाही मानना ६. बृहदा०, ५-६-१
न्याय संगत हैं, क्योंकि यदि हमने प्रात्मा को शरीराकार ७. कठो०, २-१-१२ ६. देखिये दलसुख मालवणिया कत भात्म मीमांसा पृ. ४५
के प्रदेशों से अधिक मान्य किया तो उसके उन अतिरिक्त ६.कठो. १-२-२०, छान्दो० ३-१४-३, श्वेता,
प्रदेशों में उनका शारीरिक पाधार क्या माना जाएगा? ३-२०, मैत्री०६-३८
१०. तस्वार्थ सूत्र, ५-२६
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मात्मा का देह-प्रमाणत्व
यदि कहा जाए कि इन अतिरिक्त प्रदेशों मे उसे धारीरिक माधार की प्रावश्यकता ही नहीं, तो प्रश्न है कि उसे शरीर के माधार की कुछ प्रदेशों में ही भावश्यकता क्यों ? जब मात्मा को शरीर की उपाधि के साथ ही संलग्न रखना है तो उससे अधिक प्रदेशों में फैलने की कल्पना करना ही उसके लिए क्यो श्रावश्यक है ? दूसरे, आत्मा शरीर प्रदेशों से प्रतिरिक्त प्रदेशों में फैले होने का कोई नैयायिक आधार भी नहीं है । यदि उसे शरीर प्रमाण से कम यथा ऋगुष्ठ या बालिस्त या प्रणु प्रमाण माना जाता है, तो प्रश्न उठता है, कि ऐसा निर्णय किस आधार पर किया गया? क्या किसी सांवेदनिक अनुभूति के आधार पर ? परन्तु संवेदना शारीरिक इंद्रियों की क्रिया है । तो क्या जो विषय इद्रिय प्रदेशों से अभिन्न नहीं है, उसकी संवेदना की जा सकती है ? निश्चित ही इंद्रिय संवेदना के प्रभाव में वह सम्भव नहीं। यदि यह माना जाए कि मात्मा अपना परिमाण इंद्रिय-निरपेक्ष होकर स्वतः प्रमाण से निर्णीत करती है, तो फिर इंद्रिय निरपेक्षता में उसे बंगुष्ठ, बालिस्त भादि इन्द्रियों की ही सापेक्षता में प्रकट करना क्या स्वतो व्याघाती बचन नहीं है ? और फिर उसे शरीर से कम माकार का स्वीकारनं मे तार्किक उपलब्धि क्या है ? यदि श्रात्मा शरीर प्रदेशो के साथ एकक्षेणावगाही नहीं है, तो वह शारीरिक क्रियाओ का सचालन किस प्रकार करती है ? मात्मा फिर शारीरिक घाचरण की उत्तरदायी भी किस प्रकार है ? इसी लिए जंन मात्म- चैतन्य को शरीराकार से निबद्ध मानते हैं । एकक्षेत्रावगाही होकर शरीर और चैतन्य एक नई सृष्टि को जन्म देते हैं जिसे ही प्राधुनिक पदावली मे प्रोटोप्लाज्म मोर बौद्धों मोर चार्वाकों की केवल यही विसंगति है कि वे इस निबद्ध चैतन्य को शरीर की हो उपज मान लेते हैं जब कि चैतन्य की तात्विक सत्ता शरीर से सर्वथा भिन्न है जिस प्रकार दूध और पानी मिलकर एकक्षेत्रावगाही हो जाते हैं और उनका प्राकार एक दूसरे के तुल्य हो जाता है, फिर भी दूध और पानी दोनों की तात्विक सत्ता सर्वथा प्रथक ही रहती है। ठीक वही हाल चैतन्य और शरीर का है। दोनोंके स्वरूपमें भेद केवल इतना है कि चैतन्य अमूर्त होता है और शरीर मूर्त ।
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यहां अमूर्त का तात्पर्य प्राकार रहित होना नहीं है बल्कि पुद्गल की स्थूलरूप की शून्यता है। वास्प यह कि शरीर स्थूलाकार होता है मोर भात्मा शून्याकार । माकार दोनों का ही विशेष्य है जो समान प्रदेशी होकर ही न्याय संगत बनता है। ।
यह तो स्थिति हुई उन मतों की, जो शरीर मौर चैतन्य को तत्वतः पृथक मानते हैं । द्वैत वेदान्त प्रादि शरीर और चैतन्य की तत्वतः दो सत्ताएं नहीं मानते । देहात्म उनकी निगाह में उपहित चैतन्य है। खर वेदान्त की कुछ भी दार्शनिक स्थिति हो, लेकिन उनकी कहा के द्वारा ही व्यवहार दृष्टि में जो शरीर नामांकित किया जाता है और उसके माध्यम से जिस चैतन्य का सकेत होता है वे दोनों वस्तुतः एक ही सत्य के दो पहलू बनते है और दोनों पहलू वस्तुतः एक ही प्राकार में निबद्ध कहे जा सकते है । इस प्रकार चाहे प्रकारान्तर से ही सही, चैतन्य को देह प्रमाण मानना वेदान्त को भी अभिप्रेत है अब मुक्तावस्था मे इस चैतन्य के देहका क्या होता है, यह भागे चर्चित करेंगे, परन्तु संसारी अवस्था में चैतन्य को देह प्रमाण के अतिरिक्त किसी रूप में मानना तर्कसंगत नहीं होता ।
।
चार्वाक प्रादि जो मत श्रात्मा को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते, उनके उक्त मत में चाहे अन्य कठिनाइयाँ भले ही हो, किन्तु चैतन्य का देह प्रमाण मानना उनके लिए भी सुकर है । क्योकि चैतन्य को जब शरीर की उपज माना जाता है, तो वह उपज या तो शरीर के किसी एक भाग की होगी या सम्पूर्ण शरीर की ? चैतन्य की उपज हो जाने से ही शरीर के अवयव जीवंत कहे जाते हैं। तो यदि वह उपज शरीर के किसी एक भाग की कही जाएगी, तो निश्चित ही शरीर के अन्य धग जीवंत नहीं हो सकते जो कि प्रत्यक्ष विरुद्ध है। यदि चैतन्य की उपज सम्पूर्ण शरीर से मानी जाए और वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो, तो स्पष्ट ही चैतन्याकार शरीराकार के तुल्य हुमा यदि उसे सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त नहीं माना जायगा, सम्पूर्ण शरीर उसके प्रभाव में मृत हो जायगा । यदि यहां पर यह कहा जाए कि सम्पूर्ण अथवा कुछ शरीर से उत्पन्न हो कर चैतन्य शरीर में किसी एक बिंदु पर अपने को
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२५८, वर्ष २२ कि०५
अनेकान्त
केन्द्रीयभूत कर लेता है और वहीं से सम्पूर्ण शरीर का को शरीर का रूप कहा जाता है, जबकि अन्य विवक्षा संचालन करता है, तो फिर प्रश्न उठता है, कि उत्पन्न से यदि कोई बनाई जाए, शरीर को प्रात्माकार रूप भी हो कर चैतन्य क्या अपने मूल शारीरिक अवयव से सर्वथा कहा जा सकता है। इस प्रकार शरीर और प्रात्मा के पृथक हो जाता है ? यदि यह प्रयक हो जाता है और प्राकार एक दूसरे से पैदा नहीं होते, मपितु विवक्षित होते अपना स्वतन्त्र अस्तित्व धारण कर लेता है, तो क्या स्व. हैं। पैदा तो वे अनादिकालीन पारस्परिकता से स्वय होते तन्त्र अस्तित्व द्रव्य के प्रतिरिक्त भी किसी का हो सकता हैं और स्वतः ही अनेकाकार रूप परिणमित होते जाते हैं । है ? निश्चित ही नहीं, गुण, जैसा कि प्रात्मा की चार्वाक प्रब प्रश्न माता है निर्वाणावस्था में प्रात्मा के जैसे विचारक मानते हैं अपने द्रव्य से पृथक अस्तित्व नहीं आकार का। इस प्रश्न का सुलझाव तभी ठीक प्रकार हो रख सकता । मत: न्यायतः मात्मा अपने उत्पन्नकती अंग सकता है जबकि हम अब तक की कुछ ताकिक प्रस्थासे पृथक हो कर कहीं का अन्यत्र केन्द्र भूत नहीं हो पनामों को कस कर पकड़े रहें, अन्यथा अर्थातर हो जाने सकता। उसे अपने जनक प्रगों के साथ पूर्ण प्रदेशी रूप में की पूरी सम्भावना है। अतः आइये उन स्थापनामों को व्याप्त रहना मावश्यक है । इस प्रकार चार्वाकों के अपने एक बार पुनः स्पष्ट करले और स्वीकार करलें। न्याय के अनुसार ही प्रात्मा स्वदेह प्रमाण है। देहेतर स्थापना सं० १-द्रव्य सत् है, सत् द्रव्य है । प्रमाण न्याय सगत नहीं ।
२-जो सत् है वह असत् नहीं हो सकता और सीधी सी बात है, कि जब आत्मा भाकार उसके
ऐसा ही विलोम । अथवा सत् तत्वतः विनष्ट सदस्वरूप होने की दूरष्ट्रया मानना आवश्यक है, साथ ही
नहीं होता। उसके शरीर के साथ पारस्परिकता भी अभिप्रेत है, तो
३-सत् देश-काल सापेक्ष है, अत:उसके प्राकार-प्रदेशों और शरीर के प्राकार-प्रदेशों को एक
(क) वह साकार है, ही मानने में झिझक क्यों? दोनों ही वस्तु-सत्य एक
(ख) वह चिन्तनीय है, विधेय है। क्षेत्रावगाही होकर एक प्राकार का सृजन करते है, जिसके
४-द्रव्य की तात्विक सत्ता है, अतः द्रव्य तत्व मात्मगत स्तर पर अमूर्त या शून्याकार और शरीर गत
रूप से स्वागत है मौर पर निरपेक्ष भी। स्तर पर मूर्त या स्थूलाकार की संज्ञा प्रमाणित होती है। अब इन स्थापनामों के दार्शनिक औचित्व की ऊहापोह व्यवहार दृष्टि मे उक्त प्रात्म-दैहिक आकार एक ही है, में तो यहां नहीं जाना है, अपितु यह मान कर चलना है जबकि तत्व-दृष्टि मे वे दो हैं। कर्म-ग्रंथियों का प्रणयन कि जैन दर्शन इनके प्रौचित्य को स्वीकार करके चलता इन्हीं दोनों माकारों की पारस्परिकता का परिणाम है। है। इनके दार्शनिक प्रौचित्य की ऊहापोह का एक अलग मात्म-प्रदेश अनादि काल से शरीर-प्रदेशों से ही अनुस्यूत विषय ही है । इन स्थापनामों की दृष्ट्या प्रात्मा की निर्वाया परिमाणित होते पाये हैं। इसका यह तात्पर्य नहीं, णावस्था के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न उठते हैं। उसमें शरीर कि प्रात्म-प्रदेश पोद्गालिक शरीर प्रदेशों से तत्वतः पैदा
का अत्यन्त क्षय हो जाता है, फिर आत्मा के प्रकार की होते पाए हैं। पैदा तो तत्वतः कोई किसी से पैदा नहीं
क्या स्थिति रहती है ? जैनों के लिए इसका अन्तर कोई होता लेकिन प्रदेश की परिभाषा पुद्गलाणु की अपेक्षा से
अधिक पेचीदा नहीं। पहले ही कहा जा चुका है, कि संसारी ही की जाती है । यानी एक प्रदेश भाकाश का वह घेरा
अवस्था में दो माकारों को एकाकारिता होती है । मात्मा है जोकि एक पुद्गल परमाणु से माच्छादित हो जाता
का शून्याकार एक भोर तो शरीर का स्थूलकार दूसरी है"। इस प्रकार प्रदेश की सम्बोधनों का पुद्गल-सापेक्ष
पोर । निर्वाण में जब शरीर का स्थूलकार क्षय हुमा, तो होने के कारण मात्मा के माकार का निर्धारण शरीरकार
प्रात्म-द्रव्य का शुन्याकार शेष रह गया । द्रव्य होने के
कारण उसका तो विघटन नहीं माना जा सकता । प्रतः .११.वही ५-१४
सिद्ध केवल शून्याकार रूप होता है। मब प्रश्न उठता है
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मात्मा का देह-प्रमाणत्व
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कि उक्त शून्याकार कितने प्रदेश प्रमाण माना जाए? हेतु का तो अत्यन्त प्रभाव हो गया, फिर बिना हेतु स्थलकार तो अब निःशेष हो चुकता है, जिसकी अपेक्षा के प्राकारान्तरण कैसा ? स्थापना स. दो के प्राचार लेकर अब तक शून्याकार के प्रवेश निर्दिष्ट किए जाते रहे, पर उसके प्राकार का प्रत्यन्त विनाश स्वीकारा नहीं तो फिर क्या उक्त विवक्षा के प्रभावमें मात्माकार को जा सकता। बिना हेतु के प्राकारान्तरण मानना न्याय अप्रदेशी पथवा सम्पूर्ण लोकाकाश प्रदेशी कह दिया जाए? युक्त नहीं, अत: फिर यही विकल्प शेष रहता है कि प्रप्रदेशी कहने में कठिनाई यह है, कि अभी तक उसकी सिद्धावस्था में वही माकार नित्य हो जाता है जो संसारासप्रदेशता सत् कही गई थी भोर वह सप्रदेशता सत् के वस्था के अन्तिम क्षण पर विद्यमान था। सिद्धाकार के लिए प्रोवश्यक भी मानी गयी थी (स्थापना सं. ३), प्रदेश निर्धारण में इस प्रकार एक और पूर्व शरीर की फिर उक्त सत् की सप्रदेशता सहसा असत् कह देने से विवक्षा ली जाती है और दूसरी पोर लोकाकाश की क्या स्थापना सं०१व २ वाद नही हो जाता? और फिर प्रदेश संख्या की विवक्षा सिद्धात्मा को विश्व-व्यापक कहने बैसाकि पूर्व में स्पष्ट भी किया, प्रात्माकार की सत्रदेशता में यह विवक्षा काम करती है कि चूंकि ज्ञानावरणीय कर्म शरीर की उपज नहीं है। वह तो केवल शरीराकार द्वारा का क्षय हो जाने से अखिल वस्तु-सत्य समवेत रूप से विवक्षित मात्र थी। सप्रदेशता तो "सद्रव्य लक्षणम्" प्रात्म-ज्ञान का विषय हो जाता है और उस प्रकार उसका की अनुमति है। शरीर की तो नहीं। उसी प्रकार जैसे ज्ञान विश्व व्यापक हो जाता है। इस विवक्षा से ज्ञानकि प्रखंड माकाश को अंगुल, बालिस्त प्रादि की विवक्षा रूप में प्रात्माकार विश्व रूप से मान्य होता है, जबकि से प्रांका और कहा जाता है, पैदा तो नहीं किया जाता, प्रकाश प्रदेशों की गणना की अपेक्षा से वह पूर्व शरीराउसी प्रकार भात्माकार को शरीरकार से प्रांका और कहा कार रूप ही होता है । प्रात्मा के इस सप्रदेशी विशेष को जाता है। वस्तुतः भात्माकार शरीराकार के अनुसार तत्वार्थसूत्रमें क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येक ढलता नहीं, अपितु अपने भाव-कर्मोदय के निमित्त से बुद्ध-बोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और प्रल्पवह स्वयं प्राकार परिवर्तन करता हमा पुदगल-परमाणों बहुत्व" इन बारह अनुयोगों की विवक्षा से समझने की को तदुनसार संगठित होने का निमित्त देता है । इस प्रेरणा की है। इस प्रात्म-स्वरूप को समझने के लिए प्रकार उभयाकार एकाकार हो जाते हैं। इससे न्यायतः अनेकानेक विवक्षानों की मर्यादा बराबर ध्यान में रखने यह तय होता है कि निर्वाणावस्था में सिद्धात्मा प्रप्रदेशी की आवश्यकता है, जिसमें तनिक सी भी चूक हो जाने नहीं हो जाती।
पर गहन से गहन भ्रांति हो जाने की सम्भावना रहती है। चूकि प्रात्मा का प्रप्रदेशी होना न्याय-विरुद्ध है, तो
प्रात्मा की इस सप्रदेशता में एक बात और पाड़े इसके प्रप्रदेशीपन का परिणाम कितना माना जाए?
पाती है जो जन सामान्य को भ्रमित करती है, कि कुछ के अनुसार उसका शून्याकार विश्व रूप मान लेना
एक ही प्राकाश-प्रदेश में अनेक प्रात्मानों और शरीरों का उचित है । कुन्दकुन्द मादि अनेक जैनाचार्यों ने भी नि
अवगाहन किस प्रकार हो जाता है ? जबकि हम साफ श्चय नय से उसे लोकाकाश के प्रदेश-संख्या के तुल्य व्या
देखते हैं कि एक जगह जहां एक मनुष्य खड़ा है दूसरा पक माना है । परन्तु यह विकल्प एकान्त रूप से सब के
खड़ा नहीं हो सकता, फिर भली सारी प्रात्माएं सिद्धगले नहीं उतरता। इसका न्याय यह है कि अब तक प्रात्म
लोक में एक साथ कैसे रह लेती हैं और किस प्रकार द्रव्य के प्राकार का मन्तरण उससे सम्बद्ध नाम और मायु
अपनी वैयक्तिकता बनाए रखती हैं ? जहां तक एक ही कर्म के निमित्त से होता था। चूंकि निर्वाण प्राप्ति
प्रदेश में अनेक प्रात्माएं रहने का प्रश्न है, वह कोई प्रसके प्रथम क्षण पर उक्त कर्मों का प्रत्यन्त विनाश हो गया।
म्भव बात नहीं। जब भौतिक विज्ञानवादी जैसा स्थल तो उस क्षण मात्मा का जो प्राकार-चारण था उससे अन्य माकार में मन्तरण का हेतु क्या कहा जाए? वस्तुतः १२. वही १०-९
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२६०, वर्ष २२ कि. ५
अनेकान्त
सिद्धान्त ईथर, गुरुत्वाकर्षण, परमाणु, प्रकाश प्रादि सारे 'क्या' का कोई स्थान नहीं है। उपनिषदों में भी पात्मा पदार्थों को एक ही प्राकाश-प्रदेश में अवस्थित मान कर को
अणोरणीयान् महतो महीयानात्मा किसी प्रकार के विरोधाभास की आशंका नहीं करता, तो
गुहायाम् निहितोऽस्य जन्तोः।" फिर प्ररूपी प्रात्मानों का ही एक क्षेत्र में रहना शक्य किस
(प्रति-यह अणु से भी अणु और महान से भी प्रकार हो सकता है ? इसके साथ ही साथ एक-क्षेत्राव
महान प्रात्मा इस जीव के अन्तःकरण में स्थित है) गाहन प्रदेश-विवक्षा सहा कहा जाता है। तत्वनववक्षा स के रूप में अनंत संकोच-विस्तार गुण युक्त कल्पित किया नहीं। तत्व-विवक्षा से उनकी वैयक्तिकता की अक्षुण्णता
ही है । अब कोई पूछे, कि आत्मा ऐसा सूक्ष्म पोर महान भी अशक्य है (स्थापना संख्या ४ के द्वारा)। बहुत से क्यों है तो यह प्रश्न ही गलत है। प्रात्मा सूक्ष्म से भी दीपकों का प्रकाश एक ही कमरे में व्याप्त होकर प्रदेश- सक्षम और महान से भी महान प्राकार वाली होती हैदूरष्टि से एक ही प्रकाशाकार की सज्ञा से अभिहित होता यह एक तथ्यात्मक वचन है, जिसे जसा का तैसा स्वीकाहै, किन्तु दीपकों की तत्व-दूरष्टि से प्रत्येक दीपक के रना ही न्याय-संगत है। जैनों ने इसलिए संकोच-विस्तार प्रकाश की वैयक्तिकता अक्षुण्ण है, जो कभी दीपक बुझा लक्षण वाला अगुरुलघुत्व गुण नित्य आत्म-द्रव्य के साथ ही या हटा कर अलग की जा सकती है। अतः अरूपी प्रात्मा सन्निविष्ट कर दिया, जिसमे वस्तुतः शका करने की कोई के क्षेत्र में अन्य द्रव्यों का प्रवगाहन न तो न्याय-विरुद्ध है गुजायश नहीं रहती। ऐसा करना वैदिक मान्यता के भी और न प्रत्यक्ष-विरुद्ध ।
अति निकट पड़ता है। अब एक शंका अगुरु-लघुत्व गुण के बारे मे उठाई
इस प्रकार प्रात्मा सम्बन्धी जैन दूरष्टि पूर्णतः वस्तुजाती है, जिस गुण के आधार पर प्रात्मा के प्रदेशाकार मे
परक है। उसे अनेक विवक्षाओं से समझकर एक ऊहात्मक संकोच-विस्तार की क्रिया सम्पन्न होती है। यह संकोच
समष्टि मे गूथना जैन दर्शन को समझने का सम्यक प्रयास विस्तार क्यों और कैसे होता है ?-जैन इसे तथ्य रूप में
कहा जा सकता है।
कहा जा सक स्वीकार करते हैं । तथ्य तत्व-रूप है, जिसके स्वीकार में १३. श्वेता० ३-२०, कठो० १-२-२०
ज्ञानपीठ साहित्य-पुरस्कार इस वर्ष वरिष्ठ कवि :
श्री सुमित्रानन्दन पंत को समर्पित
विज्ञान भवन, नई दिल्ली के सभागार में प्राज संघ्या तीन वर्षों में तीन पुरस्कार समर्पण समारोह सम्पन्न समय साढ़े पाच बजे भारत का सर्वोक्च साहित्य पुरस्कार हो चुके हैं। पहला पुरस्कार १९६६ मे श्री गोविन्द शंकर राष्ट्रपति श्रीवैकटगिरि वराहगिरि द्वारा हिन्दिी के वरिष्ठ कुरूप को उनके मलयालम काव्यसग्रह "मोडक्कुषल', पर कवि श्री सुमित्रानन्दन पंत को भेंट किया गया। भार- भेंट किया गया, दूसरा १६६७ में श्री ताराशंकर तीय भाषामों की सर्वश्रेष्ठ कृति के लिए प्रति वर्ष उप- वन्द्योपाध्याय को उनके बांग्ला उपन्यास "गणदेवता" पर, लब्ध, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रवर्तित यह पुरस्कार इस और तीसरा पिछले वर्ष डा. कु. वे. पुट्टप्पा मोर डा. उमा वर्ष कवि श्री पंत को उनके काव्य संग्रह "चिदम्बरा" पर शंकर जोशी को उनकी कृतियों, कन्नड़ महाकाव्य "श्री समर्पित किया गया।
रामायण-दर्शनम्" और गुजराती काव्य-संग्रह "निशीथ" यह चौथा पुरस्कार समर्पण समारोह था। पिछले पर सह-समर्पित किया गया।
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ज्ञानपीठ साहित्य पुरस्कार इस वर्ष वरि कवि श्री सुमित्रानन्दन पंत को समर्पित
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पीछे एक सार्वभौम व्यक्तित्वका प्रकाशमण्डल चिपका दिया गया हो। अपने नये विकासक्रम में मानव चेतना पिछले देश कालगत प्रादर्शों के सम्मोहन से मुक्त होकर एक नवीन मानवीय विश्व व्यक्तित्व के सौष्ठव से मण्डित होने जा रही है धौर विगत युगों के धर्म-नीति स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य, इहलोक - परलोक की धारणानों को प्रतिक्रम कर, जीवन-मूल्यों को नई दिशा देकर अपने सम्पूर्ण रचनात्मक ऐश्वर्य में अवतरित हो रही है। श्री पंत के अनुसार कवि का सत्य दर्शन तभी माना है जब यह समकालीन जीवन तथ्यों पर आधारित हो । उन्होंने कहा समस्त सत्य घरा केन्द्रिक प्रथच मानव केन्द्रिक है । इसलिए हमें विज्ञान और अध्यात्म दोनों ही परातलों के दृष्टि वैभव को नवीन मानव के निर्माण तथा विकास के लिए प्रयुक्त करना चाहिए कि वह भविष्य में इन देशों-राष्ट्रों की सीमाओं से उभरी हुई परती पर एक नवीन सांस्कृतिक एकता का अनुभव अपने भीतर कर सकें-सांस्कृतिक एकता जो उसकी ईश्वरीय अथवा आध्यात्मिक एकता की भी प्रतिनिधि बन सके । कला में रूप और चेतना का संयोजनदर्शन में गुण और राशि का सयोजन रचनाकर्म में विज्ञान और अध्यात्म का सयोजन - ये तीनों प्राज के युग की व्यापक आवश्यकता के प्रमुख तत्व है । कविकर्म के लिए सृजनात्मक तथा कलात्मक ही न रहकर नई चेतना की दिशा मे चिन्तनात्मक तथा निर्माणात्मक भी रहा। कवि-दृष्टि मानव जीवन को सौन्दर्य तथा रस कीं सम्पद् से संजोनें एवं सम्पन्न करने के लिए प्रकाश तथा अन्धकार दोनों ही शक्तियों के सत्यों का महत्व समझती
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है ।
महामहिम राष्ट्रपतिजी ने कवि श्रीपंत को साहित्यिक उपलब्धियों की सराहना करते हुए कहा माज की सी नैति कता सकट की स्थिति में केवल लेखक और साहित्यकार ही निरपेक्ष दृष्टि से समस्याओं और स्थितियों को परख सकते है और अभीष्ट मार्ग दिखा सकते है जैसा कवि श्रीपत ने किया है। हम माज चरित्र के सकटका धारणाके संकट का सामना कर रहे हैं । यह सरस्वती पुत्रों का कर्त्तव्य है कि वे नये मूल्यों और सिद्धातों की स्थापना करें। हम भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति के महान् प्रयास में लगे हुए है, साथ-साथ हमारे लिए यह भी आवश्यक है कि हम अपने पारस्परिक व्यवहार के मानदंडों को भी ऊंचा रखें। लेखकों का यह कर्तव्य है कि साहित्य की साधना के द्वारा वे जीवन को ऊंचा उठायें। मुझे पूरा विश्वास है कि हमारे लेखक इस आवश्यकता की पूर्ति में कोई कसर नहीं रखेगे और उस चुनौती का डटकर सामना करेगे ।
श्री गिरि ने भारतीय ज्ञानपीठ को इस पुरस्कार का प्रचलन करने के लिए बधाई दी जो भारत की एकता का प्रतीक बन गया है। सभी भारतीय भाषों में से एक उत्कृष्ट पुस्तक का चयन करना कोई आसान कार्य नहीं है, परन्तु ज्ञानपीठ ने पिछले चार वर्षों से इस कार्य को बड़ी सफलता के साथ सम्पन्न किया है। राष्ट्रपति जी ने कहा साहित्यकार ही राष्ट्रीय चेतना के आधार है। वर्तमान परिस्थिति में जबकि चारों ओर साम्प्रदायिक वैमनस्य की भावना और धनुशासन हीनता का बोल बाला है, यह आवश्यक है कि साहित्यिक कृतियों के प्रणेता राष्ट्रीय एकता के ध्येय को अपने समक्ष रखें और अनुशासन, समर्पण और सत्य को अनवरत खोज का वाता वरण पैदा करें। उन्हें प्रजातन्त्र की शक्तियों को बल देना है और एक ऐसे बायुमंडल की सृष्टि करनी है जो राष्ट्रीय विकास में सहायक हो ।
पुरस्कार विजेता कवि श्रीसुमित्रानन्दन पंत ने एक कवि की सत्यनिष्ठा और द्रष्टा की दूरगामी भावदृष्टिसे अनुप्राणित स्वरों में मानवता के समक्ष उपस्थित दिभ्रान्ति की घोर सकेत करते हुए कहा हम पिछले नाम रूपों में परिणत जिस सत्य से परिचित है वह कितना ही महान् हो, भविष्य के नाम का सत्य नहीं हो सकता, भले ही उसके
ज्ञानपीठ प्रवर परिषद के अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल डा० बे० गोपाल रेड्डी तथा प्रवर परिषद के सदस्य दिल्ली के उपराज्यपाल डा० प्रा० ना० झा ने भी भारतीय साहित्य को श्री समृद्ध करने के लिए कवि पंत का अभिनन्दन किया। डा० रेड्डी के शब्दों में विभिन्न भावनाओं, अनुभूतियों, उद्गारों, प्रादेशों और अपेक्षाओं की मोहक संजूषा 'चिदम्बरा' में मानवतावाद का स्वर सबंध मुखर होता है। मानव-मगल उसका इष्ट है और भाव दर्शन उसका प्रसाधन बदलने के लिए सबंब तत्पर
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२६२, २२ कि० ५
हैं, किन्तु इष्ट में परिवर्तन उसे मान्य नहीं । कवि के काव्य के विषय मे जो सत्य है, जो तथ्य है, वर्ण्य है, उल्लेख है वह सब प्रचुर मात्रा में 'चिदम्बरा' में सर्वत्र बिखरा हुआ है। भाव और कर्म मे साम्य स्थापित करने का कवि प्रयास इसमे पूर्णतः परिलक्षित होता है । भारतीय ज्ञानपीठ की अध्यक्षा, श्रीमती रमा जैन ने मान्य अतिथियों का स्वागत करते हुए ज्ञानपीठ द्वारा ''चिदम्बरा' के 'अंग्रेजी, कन्नड, गुजराती, तेलुगु, बंगला, मलयाली और मराठी अनुवादों के प्रकाशन की घोषणा की । भारतीय साहित्य के मंगल में ऐसे प्रयासों की उपा देयता की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा : भारतीय साहित्य हमारी सामूहिक पूंजी है। वह बाटने से ही अधिक बढ़ती है । उसका प्रादान-प्रदान हमारे व्यक्तित्व को परिपूर्ण, हमारी सामाजिक चेतना को उदार भोर राष्ट्रीय भावना को सुदृढ़ करता है ।
भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक - न्यासधारी श्री शान्तिप्रसाद जैन ने सभी अभ्यागतों के प्रति प्राभार व्यक्त किया।
धनेकान्त
पुरस्कार - समर्पण समारोह के कार्यक्रम का एक विशेष कर्षण - अंग था । 'चिदम्बरा' की रचनाओं पर श्राधारित एक नृत्य प्रतिबिम्ब जिसे उदयशंकर इंडिया कल्चर सेण्टर के कलाकारों ने श्रीमती अमला शकर के निर्देशन मे प्रस्तुत किया । 'चिदम्बरा' की रचनाओंों के विचार
(१) भागम और त्रिपिटक -- एक अनुशीलन खण्ड १ इतिहास और परम्परा लेखक- मुनि श्री नागराज जी डी० लिट् । प्रकाशक जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी महासभा, ३ पोर्चुगीज, चर्चस्ट्रीट कलकत्ता-१, पृष्ठ संख्या ७६८ मूल्य २५) रुपया |
भावनागत तथ्य के प्राधार पर शैली एवं भाव मुद्राद्यों के वैविध्य से सम्पन्न नृत्य प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करना श्रीमती अमला शंकर की सूक्ष्म कला काव्य दृष्टि का परिचायक है ।
मंच पर डा० कर्णसिंह, डा० नीहार रंजन रे, श्री गो० शंकर कुरुप प्रादि प्रवर-परिषद् के सदस्य और भारतीय ज्ञानपीठ ट्रस्ट तथा संचालक समिति के सदस्यगण भी उपस्थित थे ।
साहित्य-समोक्षा
प्रस्तुत ग्रंथ एक ऐतिहासिक अनुसन्धान परम्परा का सूचक है। ग्रंथ में मुनि जी ने बौद्ध पिटकों और जैन भागम-ग्रन्थों की जो तुलनात्मक रूप प्रस्तुत किया है,
पुरस्कार समर्पण समारोह का एक रोचक अंग थी विज्ञान भवन की दीर्घा मे प्रायोजित पुस्तक प्रदर्शनी, जिसमें भारतीय ज्ञानपीठ के लगभग चार सौ प्रकाशन प्रदर्शित थे। इनमें प्राच्यविद्या विषयक विभिन्न शोधग्रन्थभी थे और विभिन्न साहित्यिक विधाओं के साहित्यिक प्रकाशन भी । इस प्रकार भारतीय ज्ञानपीठ की सभी ग्रंथमालाओं - मूर्तिदेवी ग्रंथमाला, माणिकचन्द्र ग्रंथमाला, कन्नड ग्रंथमाला और लोकोदय ग्रंथमाला जिसके प्रतर्गत राष्ट्रभारती ग्रन्थमाला भी भाती है-की एक भरी-पूरी छवि वहाँ प्रस्तुत थी ।
पिछले तीन पुरस्कार समर्पण समारोहों का चित्रदर्शन वहाँ का एक अतिरिक्त श्राकर्षण था । श्री सुमित्रा नन्द पंथ की पुरस्कृत काव्यकृति 'चिदम्बरा' के अंग्रेजी, बांग्ला, कन्नड़, गुजराती, मराठी, मलयाली भौर तेलुगु भाषात्रों में काव्यानुवाद भी वहां विशेष रूप से प्रदर्शित किये गये थे ।
उससे कितने ही नवीन तथ्य प्रकाश में प्राये हैं। उनसे भलीभाँति निश्चित हो जाता है कि महावीर का जीवन परिचय लिखते समय बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन होना प्रावश्यक है । यद्यपि बोद्ध ग्रंथों में महावीर के जीवन संबंधी कोई मौलिक घटना का उल्लेख नहीं है, जो कुछ लिखा गया है वह सब महावीर के महत्व पर पर्दा डालने या उसे हीन बतलाने का उपक्रम किया गया है। महावीर क्या थे और उन्होंने जीवन में क्या प्रादर्श उपस्थित किये,
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साहित्य-समीक्षा
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महा
यह सब अनुसन्धान का विषय है। फिर भी विरोधी और उससे जो विभक्त हमा उसे हो अर्वाचीन कहा जा सकता बाद में प्रविष्ट उन घटना-क्रमों का तालमेल बैठाने का है। दूसरे महावीर के बहुत समय बाद सम्प्रदाय बनें। सहयोग मिल सकता है।
क्योंकि महावीरके बाद तीन केवली मोर पांच श्रुत केवली महावीर और बुद्ध के परिनिर्वाण काल पर अच्छा हुए, अन्तिम श्रत केवली के समय दुभिक्ष पड़ने के बाद विचार किया है और महावीर का निर्वाण काल ५२७ मतभेद होने के बाद सम्प्रदाय बने होंगे। ऐसी स्थिति में ईस्वी पूर्व और बुद्ध का निर्वाण समय ५०२ ईस्वी पूर्व उक्त कथन की प्रामाणिकता नहीं रहती। ये पट्टावलियां निर्धारित किया है। जो संगत जान पड़ता है। अब से कब बनीं इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख देखने में नहीं 'बहुत वर्ष पहले मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी ने भी सन् प्राता । जो सामग्री उपलब्ध नहीं उसके सम्बन्ध में केवल १९२६ में अनेकान्त के प्रथम वर्ष की प्रथम किरण में अनुमान किया जा सकता है। प्राचीन प्रमाणों के अनुसंमहावीर और उनका समय-सम्बन्धी लेख में यही समय घान करने मे पट्टावलियां भी उपयोगी हो सकती है। अनेक प्रमाणो के आधार पर निश्चित किया था। इससे ऐतिहासिक क्षेत्र में उनकी महत्ता है ही। इस तरह सब प्रचलित वोर निर्वाण संवत सही जान पड़ता है। सामग्री के संकलित हो जाने से जैन इतिहास के निर्माण
ग्रन्थ में दोनों तीर्थकर्तामों के अतिरिक्त तात्कालिक में सरलता हो सकती है। इस प्रयास के लिए सम्पादक अन्य तीर्थकरों के सम्बन्ध में भी प्रकाश डाला है और प्रकाशक धन्यवाद के पात्र है। तत्कालीन राजामों का भी परिचय दिया है, इस तरह
(३) प्राचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भंडार ग्रन्थ-सची मुनि जी ने यह ग्रन्थ गवेषणा पूर्वक लिखा है। मुनि जी -(भाग १) सम्पादक डॉ. नरेन्द्र भानावत, प्रकाशक, अच्छे लेखक, विद्वान और वक्ता है । अथ के परिशिष्ट में श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, लाल भवन चौड़ा रास्ता, पालि ग्रन्थों के वे मूल अवतरण भी दिये है उनसे ग्रथ की जयपुर-३ मूल्य सजिल्द प्रति का २५) रुपया । प्रामाणिकता बढ़ गई है। प्राशा है, मुनि जी अन्य दो इस ग्रंथ में स्थानकवासी सम्प्रदाय के ३७०० के लगभागों को भी पूरा करने का प्रयत्न करेगे। प्राचार्य तुलसी भग ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की गई है । शेष ग्रथों की सूची गणी और उनके शिष्यों की गतिविधियां तथा कार्य करने बाद में प्रकाशित होगी। सूची के अवलोकन करने से की क्षमता प्रशसनीय है। इसके लिए मुनि श्री नगराज स्थानकवासी सम्प्रदाय की ज्ञान सामग्री का यथेष्ट अनुजी धन्य वादाहं हैं । ग्रंथ समयानुकूल उपयोगी है। इसके भव हो जाता है। स्थानकवासी सम्प्रदाय के पास अनेक अन्वेषक विद्वानों और लायबेरियों को मंगा कर अवश्य । शास्त्र भण्डार हैं, हो सकता है उनमें कोई महत्व का पढ़ना चाहिए।
प्राचीन ग्रंथ मिल जाय । पर यह सब ग्रंथ सूची के व्यव(२) पट्टावली प्रबन्ध संग्रह-संकलयिता व संशोधक स्थित होने पर ही हो सकता है। डा. नरेन्द्र भानावत प्राचार्य श्री हस्थिमल, सम्पादक डॉ० नरेन्द्रभानावत, जी ने इसके सम्पादन में पर्याप्त श्रम किया है। माशा है प्रकाशक जैन इतिहास निर्माणसमिति, जयपुर । मूल्य समाज इसे अपनाएगी और प्रथ भण्डारो को व्यवस्थित १०) रुपया।
करने की इससे अधिक प्रेरणा मिलेगी। ऐसे सुन्दर संस्कप्रस्तुत ग्रन्थ में लोंकागच्छ परम्परा और स्थानक. करण के लिए डा० साहब धन्यवाद के पात्र हैं। वासी परम्परा, इन दोनों परम्परामों की १७ पट्टावलियों (४) युक्त्यनुशासनम् ( उत्तरार्ष ) हिन्दी विवेचन का संकलन किया गया है। पदावलियां यदि प्रामाणिक सहित-सम्पादक मुल्लक शीतलप्रसाद जी, विवेचक हों तो उन पर से महावीर से अब तक की परम्परा का पं० मूलचन्द्र जी शास्त्री, प्रकाशक दि. जैन पुस्तकालय, इतिवृत्त संकलित किया जा सकता है। इनमें दिगम्बर सांगानेर (जयपुर), पृष्ठ संख्या २१४, मूल्य पोष्टेज सहित सम्प्रदाय की उत्पत्ति का जो कथन दिया हमा है बह १) रुपया। संगत नहीं जान पड़ता, कारण कि महावीर दिगम्बर थे, प्रस्तुत ग्रन्थकर्ता प्राचार्य समन्तभद्र की अनुपम कृति
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२६४, वर्ष २२ कि०५
अनेकान्त
युक्त्यनुशासन है. जो दार्शनिक विषय का एक मौलिक लगभग इसी प्रकार के अभिप्राय को प्रगट करते हुए स्तवन है। उनकी सभी कृतियाँ मौलिक और महत्वपूर्ण प्रात्मानुशासन (२३६-४०) में यह कहा गया है कि शुभहैं। दार्शनिक क्षेत्र में उनकी महत्ता का स्पष्ट निदर्शन अशुभ, पुण्य-पाप और सुख-दुख; इन छह में से प्रादि के है। प्रस्तावना लेखक प्रो. डा० दरबारीलाल जी कोठिया तीन-शुभ, पुण्य और सुख-हितकर होने से अनुष्ठेय हैं म्यायाचार्य एम० ए० पी० एच० डी० हैं। डा० साहब तथा शेष तीन-अशुभ, पाप और दुख-अहितकर होने ने प्रस्तावना में युक्त्यनुशासन पर अच्छा विचार किया से परित्यज्य हैं। उनमें भी वस्तुतः प्रथम (अशुभ) ही है। उसकी कितनी ही कारिकामों के हार्द्र को भी स्पष्ट परित्याज्य है-उसका परित्याग हो जाने पर शेष दो किया है और समन्तभन्द्र से पूर्ववर्ती युग में अनेकान्त को (पाप और दुख) स्वयमेव विलीन हो जाने वाले है, सप्तभंगी का भी उल्लेख करते हुए सदद्वाद, शाश्वत- क्योंकि उनका जनक वह अशुभ ही है। अन्त में शुद्ध प्रशाश्वत प्रादि वादों का भी विचार किया है। उनकी स्वरूप के प्राप्त हो जाने पर शुभ को भी छोड़कर परम सभी कृतियों का संक्षिप्त परिचय भी दिया है।
पद की प्राप्ति होने वाली है। विवेचक पं० मूलचन्द जी ने प्राचार्य विद्यानन्द की प्रस्तुत ग्रंथ पर यद्यपि प्राचार्यप्रमृतचन्द्र की प्रात्मटीका का प्राश्रय लेकर हिन्दी में उसका अच्छा विवेचन ख्याति और जयसेनाचार्य की तात्पर्य वृत्ति ये दो संस्कृत किया है। जिससे स्वाध्यायी जनों को उसके अध्ययन में टीकाएं तथा पं० जयचन्द्र जी और राजमल जी पांडे सरलता हो गई है। ग्रन्थ के दोनों भाग मंगाकर पढ़ना की हिन्दी टीकाएं भी उपलब्ध है, फिर भी सर्वसाधाचाहिए । क्षुल्लक की का प्रयास स्तुत्य है ।
रण जो उक्त टीकानों से ग्रंथ के मर्म को हृदयंगम नहीं -परमानन्द शास्त्री कर सकते हैं ऐसे प्रात्म-हितैषीजनों को लक्ष्य में रखकर
पूज्य पं० गणेशप्रसाद जी वर्णी ने प्रकृत प्रवचन को लिखा (५) समयसार ( प्रवचन सहित)-प्रवचनकार है। समयसार यह वर्णी जी का अतिशय रुचिकर ग्रंथ प्राध्यात्मिक सन्त गणेशप्रसाद जी वर्णी, सम्पादक पं० रहा है व उसका उन्होंने खूब मनन किया है। इस प्रवपन्नालाल जी साहित्याचार्य, प्रकाशक ग० वर्णी जैन चन में उन्होंने दोनों संस्कृत टीकात्रों का परिशीलन कर ग्रंथमाला वाराणसी, बड़ा प्राकार, पृष्ठ ४६४४०६, उनके प्राधार से तथा अपने अनुभव के बल पर भी विषय :न्य १२ रुपया।
का सरल भाषा में अच्छा स्पष्टीकरण किया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द विरचित समय प्राभूत (समयसार) ग्रन्थ का सम्पादन अनेक ग्रन्थों के सम्पादक व अनुएक सुप्रसिद्ध अध्यात्म ग्रंथ है। इसमे निश्चयनय की वादक श्री प० पन्नालाल जी साहित्याचार्य के द्वारा हमा प्रधानता से नौ अधिकारों के द्वारा जीव-जीव, कर्त- है। उन्होंने अपनी प्रस्तावना में ग्रंथ के अन्तर्गत विषय कर्मता, पुण्य-पाप, पासव, सवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष का अधिकार क्रम से परिचय भी करा दिया है। इससे
और सर्वविशुद्ध ज्ञान का विवेचन किया गया है। यहाँ ग्रंथ में और भी विशेषता प्रा गई है। कहा गया है कि मात्मा न प्रमत्त है और न अप्रमत्त है, वर्णी ग्रंथमाला ने ऐसे उत्तम ग्रन्थ को प्रकाशित कर वह तो एक मात्र ज्ञाता है। उसके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्तुत्य कार्य किया है। इस प्रथमाला के सुयोग्य मन्त्री हैं, यह भी व्यवहाराश्रित कथन है। यह वस्तुस्थिति ही डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया उसकी प्रार्थिक कठिनाई है: फिर भी जो अधिकांश प्राणी व्यवहार मार्ग का अनु- को हल करने के लिए पर्याप्त परिश्रम कर रहे हैं। इसका सरण करते हुए देखे जाते हैं वे इस व्यवहार का अनुसरण ही यह परिणाम है जो उसके द्वारा अभी हाल में २-३ करते हुए भी उक्त वस्तुस्थिति को लक्ष्य में रक्खें, उसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित किये जा चुके है। अंथ का भूलें न; इस प्रकार के विवेक को उत्पन्न करना, यह मुद्रण मादि भी अच्छा हुमा है। प्रस्तुत ग्रंप का प्रयोजन रहा है।
-बालचन्द सिमान
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बाबू यशपाल जी की माता का स्वर्गवास
बाबू यशपाल जी एक साहित्यिक व्यक्ति है, वे साहित्य मनीपी होकर निरंतर साहित्य सृष्टि में तन्मय रहते (भी सामाजिक और धार्मिक कार्यो मे बराबर रस लेते रहते है। अनेकान्त के सम्पादक मण्डल में भी है और -सेवामन्दिर की कार्य समिति के माननीय सदस्य है। आपकी माता जी बडी धार्मिक थी। वे सन् १९५३ में सेवामन्दिर की तीर्थ यात्रा बस मे श्रवणवेल्गोल के मस्तकाभिषेक के समय यात्रा को गई थीं, और उन्होंने "यः दक्षिण के सभी तीर्थ क्षेत्रो की सानन्द वन्दना की थी। जहाँ वे धर्मनिष्ठा थी वहाँ वे विवेकशीला भी थी। उनके
वास से बाबू यशपाल जी और उनके परिवार को जो कष्ट पहुँचा है, उसके लिए हम सम्वेदना प्रकट करते हैं र दिवगत आत्मा को परलोक मे सुख-शान्ति की कामना करते है।
वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता | १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ट्रस्ट,
१५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता श्री साहू शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता
१५०) ,, कस्तूरचन्द जी प्रानन्दीलाल जी कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड संस, कलकत्ता | १५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५००) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता
१५०) , पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता .००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता
१५०) , मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता २०) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता
१५०) , प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकत्ता ५१) श्री शिखरचन्द जी झांझरी, कलकत्ता
१५०) , भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता २५१) श्री रा० बा० हरखचन्द जी जैन, रांची
१५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता २५१ श्री अमरचन्द जी जैन (पहाड्या), कलकत्ता
१५०), सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता २५१) श्री स० सि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी
१०१) , मारवाड़ी दि. जैन समाज, व्यावर २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन,
१०१) , दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०१) , सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं. २ २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन
१०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज दिल्ली स्वस्तिक मेटल वर्क्स, जगाधरी
१०१) , सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल २५०) श्री मोतीलाल हीराचन्द गांधी, उस्मानाबाद १०१) , शान्तिप्रसाद जी जैन, जैन बुक एजेन्सी, २५०) श्री बन्शीधर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता १०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्ड्या अमरीतलया २५०) श्री जुगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता
१०१) , सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी
१०१) , बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) , सेठ दानमल हीरालाल जी, निवाई (राज.) २५०) श्री बी० पार० सी० जन, कलकत्ता
१००), बद्रीप्रसाद जी मारमाराम जी, पटना २०) थी रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १००) , रूपचन्द जी जैन, कलकत्ता .) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकमार जी, कलकत्ता | १००) , जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या इन्दोर
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62 (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थो से
उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका
(Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानोंके लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५... (२) प्राप्त परीक्षा--श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक
सुन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।
२-०० (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगल
किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अल कृत सुन्दर जिल्द-सहित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हना था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । ... १२५ (७) श्रीपुरपाश्र्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ (८) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ (६) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्याचार-विषयक अत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द।
३.०२ (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा०१ सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द सत्रो की इतिहास-विषयक साहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलंकृत, सजिल्द । (११) समाधितन्त्र और दृष्टोपदेश-अध्यात्म कृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित
४-०० (१२) अनित्यभावना-प्रा० पद्मनन्दीकी महत्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ (१३) तत्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ । (१५) महावीर का सर्वोदय तीर्थ १९ पैसे, १६ समन्तभद्र विचार-दीपिका १९ पैसे, (१७) महावीर पूजा १६ (१८) अध्यात्म रहस्य-पं० प्राशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित ।
१.०० (१६) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह । पचपन
ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टो सहित। स. पं० परमान्द शास्त्री। सजिल्द १२.०० (२०) न्याय-दीपिका-प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु० ७.०० (२१) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ सख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-सघ प्रकाशन ५.०', (२२) कसायपाहुड सुत्त-मूलग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक
पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । (२३) Reality मा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में मनुवाद बड़े भाकार के ३०० प. पक्की जिल्द ६.००
४.००
प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित ।
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द्वैमासिक
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अनेकान्त
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जन तीर्थंकर की महत्त्वपूर्ण प्राचीन मृण्मूति (लेखक के सौजन्य से )
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फरवरी, १६७०
समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा - मन्दिर) का मुख पत्र
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विषय-सूची
सूचना विषय
पृष्ठ
अनेकान्त के जिन ग्राहको ने वर्ष समाप्ति तक अपना १ सिद्ध स्तुति-पद्मनन्द्याचार्य
२६५
वार्षिक चन्दा नही भेजा है, उनसे सानुरोध निवेदन है कि २ भारत मे वर्णनात्मक कथा साहित्य
वे अपना पिछला वार्षिक मूल्य :) रुपया मनीमार्डर से डा०ए०एन० उपाध्ये
भिजवा कर अनुगृहीत करे। ३ भगवान महावीर और छोटा नागपुर
व्यवस्थापक 'अनेकान्त श्री सुबोधकुमार जैन २७५
वीर सेवामन्दिर २१. दरियागंज ४ जैन तीर्थकर की कुछ महत्वपूर्ण मृणमूर्तियाँ
दिल्ली। श्री संकटाप्रसाद शुक्ल एम०ए० २७६ ५ प्राधुनिकता-अाधुनिक और पुरानी
डा० प्रद्युम्न कुमार जैन २८० ६ राजस्थान के जैन सन्त मुनि पद्मनन्दी
निवेदन परमानन्द शास्त्री २८३ ७ नरेन्द्रसेन-५० के० भुजबली शास्त्री
जैन समाज के प्रतिष्ठित श्रीमानो, विद्वानो और २८७
जिनवाणी के प्रेमियो से निवेदन है कि वे वीर सेवा संदिर ८ रामपुरा के मंत्री पाथूशाह
___ डा० विद्याधर जोहरापुरकर २८८ लायब्ररी को अपने-अपने प्रकाशित ग्रथ भेट कर धर्म और ६ अमरकीति नाम के आठ विद्वान
यश का लाभ ले । तथा विवाह-शादियो, पूजा-प्रतिष्ठा के परमानन्द शास्त्री
उत्सवो और माननीय त्योहारो पर निकाले हए दान मे १० संस्कृत सुभाषितो मे सज्जन-दुर्जन
से अनेकान्त के लिए भी आर्थिक सहयोग प्रदान करे। ___ लक्ष्मीचन्द सरोज २६०
क्योकि अनेकान्त जैन समाज का प्रतिष्ठित एव ख्याति११ अनेक स्थान नामभित भ० पार्श्वनाथ के स्तवन् -
प्राप्त पत्र है। उसको आर्थिक सहयोग करना जैन सस्कृति भवरलाल नाहटा २६४
की महती सेवा है। १२ पद्मावती-सिंघई प्रकाशचन्द्र एम०ए०बी०टी० २६७
व्यवस्थापक १३ काचन का निवेदन-मुनि कन्हैयालाल ३०१
वीरसेवामन्दिर २१ दरियागंज १४ शीलवती सुदर्शन (कहानी)-परमानन्द शास्त्री ३०२
दिल्ली १५ भाग्यशाली लकड़हारा-परमानन्द शास्त्री १६ चेतन यह घर नाहीं तेरी (गीत)-मन राम ३०७ १७ भगवान् महावीर का सन्देश
ग्राहकों से डा० भागचन्द जंन मागेन्दु एम.ए.पी.एच.डी. ३०८ अनेकान्त की इस किरण के साथ २२ वे वर्ष के १८ अनेकान्त की वार्षिक-विषय-सूची
३११ ग्राहकों का वार्षिक मूल्य समाप्त हो जाता है। मंगला
अक २३ वें वर्ष का प्रथमाक होगा। प्रत: ग्राहक महासम्पादक-मण्डल
नुभावों से निवेदन है कि वे २३ वें वर्ष का वार्षिक शल्क डा० प्रा० ने० उपाध्ये
मनीआर्डर से भिजवा कर अनुगृहीत करें। डा०प्रेमसागर जैन
व्यवस्थापक 'अनेकान्त' . श्री यशपाल जैन
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज परमानन्द शास्त्री
* दिल्ली। अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक अनेकन्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया मलाल उसरदायी नहीं हैं। -व्यवस्थापक अनेकान्त। एक किरण का मल्य १रुपया २५ पंसा
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प्रोम् प्रहम
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनयविलसिताना विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २२
।
सर्वरी
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४९६, वि० सं० २०२६
किरण ६
सिद्ध स्तुति
सुक्ष्मत्वादशिनोऽवधिदृशः पश्यन्ति नो यान परे यत्संविन्महिमस्थितं त्रिभुवनं स्वस्थं भमेकं यथा। सिद्धानामहमप्रमेय महसां तेषां लघुर्मानुषो मूढात्मा किमु वच्मि तत्र यदि वा भक्त्या महत्या वशः ॥१॥ निः शेषामरशेखराधितमणि घेण्यचिताघ्रिया। देवास्तेऽपि जिना यदन्नतपवप्राप्त्यै यतन्ते तराम। सर्वेषामुपरि प्रवृद्ध परमज्ञानादिभिः क्षायिकः। युक्ता न व्यभिचारिभिः प्रतिदिनं सिद्धान् नमामो वयम् ॥२॥
-पानन्दाचार्य पर्ष-सूक्ष्म होने से जिन सिद्धों को परमाणुदर्शी अवधिज्ञानी भी नहीं देख पाते हैं तथा जिनके ज्ञान में स्थित तीनों लोक भाकाश में स्थित एक नक्षत्र के समान स्पष्ट प्रतिभाषित होते हैं उन अपरिमित तेज के धारक सिखों का वर्णन क्या मुझ जैसा मूर्ख व हीन मनुष्य कर सकता है ?-नहीं कर सकता। फिर भी जो मैं उनका ...र्णन कर रहा है वह अतिशय भक्ति वश होकर ही कर रहा हूँ॥१॥
जिनके दोनों चरण समस्त देवों के मुकटों में लगे हुए मणियों की पंक्तियों से पूजित है-जिनके परणों में समस्त देव भी नमस्कार करते हैं, ऐसे वे तीर्थकर जिनदेव भी जिन सिद्धों के उन्नत पद को प्राप्त करने के लिए अधिक प्रयत्न करते हैं। जो सबों के ऊपर वृद्धिंगत होकर अन्य किसी में न पाये जाने वाले ऐसे पतिशय वृद्धिंगत केवलज्ञानादि स्वरूप क्षायिक भावों से संयुक्त हैं। उन सिद्धों को हम प्रतिदिन नमस्कार करते हैं।
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
ए एन. उपाध्ये
[ प्रस्तुत लेख प्राकृत संस्कृत भाषा के प्रन्थों के विशिष्ट सम्पादक डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट प्रो० राजाराम कालेज कोल्हापुर द्वारा सन् १९४३ में हरिषेणाचार्य के वृहत्कथाकोश की विस्तृत लिखी गई महत्वपूर्ण प्रस्तावना के निम्न स्थलों (1) Narrative Tale in India, (2) Compilations of Katnankas: A survey, (3) Orientaliats on the Jain Narrative Literature का हिन्दी अनुवाद है । यह अनुवाद श्री कस्तूरचन्द जी वांठिया कलकत्ता ने सन् १६५८ में किया था, तब से यह प्रकाशन की वाट जोह रहा था । श्री प्रगरचन्द जी नाहटा की प्रेरणा से हमें प्राप्त हुआ है और वह अनेकान्त में क्रमश. सधन्यवाद दिया जा रहा है | सम्पादक के निम्न स्थलों का :- संपादक ]
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१. वैदिक और सम्बद्ध साहित्य :
भारत का बौद्धिक जीवन, जैसा कि वह प्राचीन एवम् मध्यकालिक साहित्य में चित्रित है, धार्मिक विचारों से एकदम सराबोर है । भारत धर्मों का भूलना है, यह न तो थोथे अभिमान की ही बात है और न व्यंग ही । यह एक ऐसा तथ्य है कि जो साहित्यिक कृतियो में प्राप्त होने वाली प्रभूत साक्षियों से भली प्रकार प्रमाणित किया जा सकता है । आर्यों का प्राचीनतम शास्त्र, विशेषतः ऋगवेद, जो कि भारतीय भूमि में सुरक्षित है और जो ब्राह्मण परम्परा में वारमे के रूप में चले आते रहे हैं, प्रकृति के मूर्ति-मान विग्रह के भक्ति गीतों से भरा हुआ है । कालान्तर में ये गीत ही ऐसे जटिल श्राचारों के विषय बन गये कि जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से प्रतीकात्मक या स्पष्ट रूप से सम्बन्धित माने जाते थे। धर्म की पवित्रता या उसके अधिकार उस देवत्व द्वारा ही प्राप्त होते है कि जो धर्म देव, शास्त्र और गुरु को स्वयं प्रदान किये थे । और ये ही समय पाकर धार्मिक सिद्धान्तों का महान् उत्कर्ष और संस्कार करने में सहायता करते है । प्रत्येक विकसित धर्म को इन तीनों को अधीनता किसी न किसी रूप में मान्य है । श्रनुष्ठान और पूजा ही नहीं, भक्ति एवं ध्यान, एवं सभी मूलतः देव से सम्बद्ध हैं और शनैः शनैः वे सब शास्त्रांगीभूत हो गये है । सिद्धान्त, शिक्षा और उपदेश विशेष हीं तो शास्त्र हैं और ये देव को दिव्य, और
गुरु को महिमान्वित करते है । देव का प्रतिनिधित्व गुरु करता है या उससे प्रेरणा प्राप्त करता है । शास्त्र का ज्ञान उसे या तो उत्तराधिकार में या निजी प्रयत्न से प्राप्त होता है। धार्मिक क्रियानुष्ठानों का सफल पालक होने के कारण उसकी चर्या दूसरों के लिए आदर्श होती है । ये तीनों अन्योन्याश्रयी है और मिलकर शनैः शनैः धर्म और धार्मिक साहित्य का सविशेष विकास सम्पन्न करते है । भारतीय साहित्य की वृद्धि इस सामान्य प्रणाली का भली प्रकार समर्थन करती है ।
सैद्धान्तिक र निगूढ़ तत्वों के बावजूद, धर्म ने, जहां तक कि इस भारत भूमि मे उसकी वृद्धि हुई है, समाज के अंग के रूप में मानव सदाचार के सुनिश्चित नैतिक माध्यों के विकास और प्रचार करने का प्रयत्न सदा ही किया है। इस प्रकार धर्म ने सदाचार के प्रादर्श का काम भी किया है कि जिसके निर्देश के लिए कुछ यथार्थ मानदण्ड आवश्यक थे। ये मानदण्ड विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किए गये है जैसे कि सदा सर्वदा से चले आते देवों के वे प्रदेश ही हो; प्राचीन शास्त्रों द्वारा वे प्रज्ञापित हों; और प्राचीन गुरुनों के उपदेश और क्रियादर्श हों । इस अन्तिम प्रवृत्ति ही में हमें भारत के महाकाव्यों, वीर-गाथा और प्रौपदेशिक कहानियों- कथानों के उद्गम का पता भी लग जाता है कि जो सामान्य रूप मे प्रारम्भ होकर कालान्तर मे वृहद्काय हो गये हैं ।
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ऋगवेद के गान किसी दृष्टि से लोक-काव्य नहीं कहे सम्बन्ध नही है। उनमें यज्ञ ने एक चमत्कारी मंत्र को जा सकते है। उनका उद्भव, अधिकाशतः, ब्राह्मण वर्ग रूप ले लिया है कि जिसके द्वारा देवगण यज्ञकर्ता की में ही हया था। माहवानित देवतामो के कृपापात्र एवं सांसारिक पाकाक्षाएं पूर्ण करते हैं, और इसीलिए उसके जटिल यज्ञ-याज्ञो परम्परा के रक्षक के रूप में ये ब्राह्मण रिपुत्रों को दुःख और कष्ट भोगना पड़ता है। किसी सदा ही, जन साधारण में रहते हुए भी. उनसे ऊपर यज्ञविधि को और उसकी प्रभावकता को स्पष्ट करने, उठने का प्रयत्न करते रहे हैं । इसलिए न तो वे लोक देवो की महानता और उनकी वदान्यता का यशोदान परम्पराओं के प्रभाव से ही बिल्कुल अछूते रहे है और करने, प्राचीन वीरो के कोर्तिगान करने और ब्राह्मणों का न जन साधारण के प्राश्रय-विहीन ही। वैदिक काव्य मे महत्व लोक मानस पर जमाने के लिए प्राचीन ग्राख्यान, वर्णन योग्य अनेक मनोरजक कथाए सुरक्षित है । उदाह- पुरावृत्त, और सिद्ध पुरुषों की जीवनियाँ यहाँ वहाँ उनमें रणार्थ हमें जहां यह बताया गया है कि युद्धप्रिय इन्द्र वृत्र वर्णित हैं । ब्राह्मणों के स्वार्थ और यज्ञधर्म से स्पष्ट समान राक्षसों का संहार और अंधकार एव अवर्षा का सम्बन्धित होते हुए भी इन कहानियों में से कुछ में लोकनिवारण कैसे करता है। फिर देवों की सहायता करने परक तत्व भी है। पुरुरवस और उर्वशी का पुरावृत्त वाले अश्विनी कुमारो की अनेक पौराणिक आख्यायिकाएं हरिश्चन्द और यज्ञ के शिकार शुन्शेप की कहानी, प्रजाभी वहा गई है। जिसे यज्ञानुष्ठान का विशुद्ध ज्ञान है पति को जीवनी वर्णनात्मक दृष्टि से निःसन्देह मनोरंजक ऐसे प्राचार्यों के वशीभूत ये सब देव होते है इस प्रकार ये है। प्राधारभूत कथा का केन्द्रबिन्दु किसी यज्ञानुष्ठान ब्राह्मण जन-साधारण की समृद्धि की पुरस्कर्ता अनेक की प्रशसा और पौचित्य प्रादि की स्थापना के लिए दिव्यात्माओं की श्लाघा-प्रशंसा करते हुए, न केवल अपनी वणित विवरण-प्रचुर कथा में से खोज निकालना निःसं. ही शक्ति बढाते है अपितु यश-धर्म को भी फैलाते है। देह कठिन है। अनेक दृष्टियों वाले महाकाव्यों की प्रादि तथाकथित पाख्यान-ऋचाएं ऐसे प्राचीन पौराणिक गीत का वस्तुतः, ब्राह्मणों के इस वर्णनात्मक स्तर से भी पूर्व ही हैं कि जिनमें वर्णनात्मक और नाटकीय तत्व भी है। की है। इन्ही में हमें पुरुरवस और उर्वशी का संवाद, यम और जब हम उपनिषद काल मे प्रवेश करते है तो वहाँ यमी का तीव्र वाद-विवाद मिलता है । पहला प्रसग तो हमे एक भिन्न संसार ही का परिलक्षण होता है। उपउत्तरकालीन भारतीय साहित्य में अनेक जटिल रचनाओं निषदों की बौद्धिकता के काल में, ब्राह्मण प्राचार्य पीछे द्वाग प्रमर ही कर दिया गया है । इसकी दान स्तुतियों पडता जाता है और क्षितिज एक दम नया दिखाई पड़ता में ब्राह्मणों को उदार चित्त से दान देने वाले दातागो की है। धर्मशास्त्र में ऐक्य की ध्वनि, जड यज्ञों की निरर्थकता अतिशय प्रशंसाएं सुरक्षित है। और यह बहुत ही सम्भव और ब्राह्मण-प्राचार्यों का सर्वज्ञान एकाधिकार, प्रचलित है कि यज्ञो के इन संरक्षकों में से कुछ ऐतिहासिक व्यक्ति सामाजिक अयोग्यताओं को निवारण कर उच्चतम ज्ञान भी हों। परन्तु यह दुर्भाग्य की बात ही है कि नाम के प्रति- -प्राप्ति की जनाकुलता , देवों के कोप या प्रसाद से रिक्त उनके विषय में हमे और कुछ भी ज्ञात नही है। नही अपितु स्व-कर्म और जन्मानुमार सांसारिक विषमता
जब हम ब्राह्मणों को, जिनमें कि ईश्वरवाद और के व्याख्याकरण का प्रयत्न, उच्चतर ज्ञान एवं वैराग्ययज्ञवाद के सम्बन्ध में ब्राह्मणों में होने वाले वृथा वाद- साधनानुसरण द्वारा शनैः शनैः यज्ञ एवं दान का उच्छेद, विवाद का शुष्क वर्णन ही है, देखते है तो मानव उप- समाज के एक सदस्य रूप मानवाचरण के लिए बारम्बार उपयोग की प्रधान बात उनमें यही हमे मिलती है कि नैतिक-धामिक उपदेशों का प्रयोग, ये ही उपनिषदों की उनमे अनेक पुरावृत्त और सिद्ध. पुरुषों की जीवनियां दी प्रमुख धाराओं में से कुछ धाराएं हैं जो उपनिषदों को हुई है । उनमे धर्म और अनुष्ठान की भी अनेक बातें ब्राह्मणों से पृथक् कर देती है । विचारधारा में इस नवीकही हुई हैं कि जिनमें नैतिकता या सदाचार से कुछ भी नता की प्रादि की व्याख्या करते हुए, विण्टरनिट्ज कहते
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अनेकान्त
हैं। जब कि ब्राह्मण लोग अपने कसर यज्ञीय विज्ञान का रोमानी और काल्पनिक तत्त्वों के होते हुए भी, बहुत अनुसरण कर रहे थे, अन्य वर्ग उन उत्कृष्टतम प्रश्नों के सम्भव है कि, महाकाव्य का गौरव और विशालता निराकरण में पहले से ही लग गये थे कि जिनका अवशेष ही प्राप्त हो गई होगी। दोनों महाकाव्यो की यह वृद्धि में ही उपनिषदों में इतना शुण्ठ विचार किया गया है। अपने में ही एक समस्या है और इनके सूक्ष्मदर्शी शोधक इन वर्गों में से कि जिनका ब्राह्मणों से मूलतः कोई भी बड़े अच्छे परिणामों पर पहुँच चुके है। सम्बन्ध नहीं था, ऐसे वनवासी और भ्रमणशील तप- कुरु शाखा के सिद्धों की वीर कथा ही महाभारत स्वियों का उदभव हुमा कि जिनने न केवल समार और का मूल बीज है और इसमें कौरव महायुद्ध का विशेष उसकी मासक्ति का ही त्याग कर दिया था, अपितु रूप से वर्णन किया गया है। परन्तु इस सांसारिक घटना ब्राह्मणों द्वारा किये जानेवाले यज्ञों और अनुष्ठानों से भी पर विश्वकोशीय साहित्य की ऐसी महान् उपरि-संरचना वे एकदम पृथक रहते थे। ब्राह्मणवाद के विरोधी अनेक
चढा दी गई है कि जिसमे विभिन्न प्रादर्शों और युगों के सम्प्रदाय इन्हीं वर्गों में से बन गये थे और इन्ही सम्प्रदायो स्पष्ट दर्शन दीख पड़ते है। इस अपार सामग्री में ईशमें का एक बौद्ध-सम्प्रदाय इतनी बडी ख्याति को पहुँच ब्रह्माण्ड विषयक धार्मिक कथाए है, तो स्वतंत्र कहानियाँ गया था। उपनिषद स्तर के साहित्य, विशेषतया । भी, जैसाकि कर्ण की जन्म कथा, ब्राह्मणों को दान देकर प्राचीनतम, में हमें कुछ बड़े ही मनोरंजक वर्णन जैसे कि युधिष्ठिर-पाप-मोचन की कथा, और यादव-वश-नाश की गार्गी और याज्ञवल्य का वाद-विवाद, सत्यकाम जाबाल कथा । इसमे धार्मिक-दार्शनिक और नैतिक विभाग भी की कथा और प्रवाहण एवम् अश्वपति जैसे क्षत्रियो की है जिसमे राजतत्र और सामाजिक व्यवहार के अनेक घटना, मिलते हैं। इनमें से कुछ तो प्राचीन भारत के सारसत्य है । इसमे रूपकथाएं, दृष्टान्तकथाएँ और प्रोपबौद्धिक काल के रूप में स्मरण रखने योग्य हैं।
देशिक वर्णक भी है। अवशेष इसमे वैरागी कविता भी वेदोत्तर कालीन भारतीय साहित्य के वर्णको की बहुत कुछ है। सारा का सारा ग्रंथ, क्या अंशो में और तीन महान सरितानों ने सूक्ष्मदर्शी विद्वानो का ध्यान क्या समस्त रूप मे ही, अब तक अनेक सम्पादकों के हाथ अच्छी तरह से प्राकर्षित कर लिया है । वे सरिताएं है :- से निकला हुअा है; और इसलिए, विसंगत एवम् परस्पर बृहत्कथा, महाभारत पोर रामायण। इनमें से पहली विरोधी होने के उपरांत भी, उसके मूल पाठ में सभी पेशाची प्राकृत में है और पीछे की दोनों संस्कृत मे। प्रकार के विषय प्रविष्ट है। महाभारत का पाठ, जैसा गुणाढ्य की बृहत्कथा माज मूल रूप में न तो प्राप्य है कि आज मिलता है, समर्थ विद्वानो के मतानुसार, अत्यन्त और न उसके कभी मिलने की ही कोई माशा है । संस्कृत सुदृढ और असंदिग्ध भार्गव प्रभाव में वर्तमान रूप पाया भाषा में भी उसके संक्षेप तीन ही मिले है। पक्षान्तर मे हा है। इसके पहले और पीछे भी इसके पाठ पर इसी महाभारत पोर रामायण के मूल बीज का जो कि उनके । प्रकार के अनेक साम्प्रदायिक प्रयत्न होते रहे होंगे। मूल लेखकों ने मूलतः प्रस्तुतः किया था, पता लगाना मी कथानक से विशेष सम्बन्ध नही होते हुए भी इसमे अनेक लगभग असम्भव है, हालांकि सूक्ष्मदर्शी विद्वानो द्वारा छोटे और बड़े पाख्यान बस जोड़ दिए गए हैं। जो भी ऐसे प्रयत्न निरन्तर किए जा रहे है, क्योंकि इनके प्राप्य हो, महाभारत सभी प्रकार के वर्णकों का एक महान पाठ, भारत के विभिन्न भागों में सदियों से लगातार संग्रह है और इसने उत्तरकालीन लेखकों को अपने विषयअपने-अपने दृष्टिकोण से कार्यरत चतुर मतविस्तारक- निर्वाचन मे बहुत ही प्रभवित किया है। सम्पादकों द्वारा किए गए प्रक्षेपों से, बहुत ही विस्तार
पापक्षान्तर मे महाभारत जितने विविध विषय रामायण गए हैं। इन्हें महाकाव्य तो न जाने कब से कहा - -
२. वी. एस. सुखठकर दी भृगुज एण्ड दी भारत, जाने लगा है । मोर बृहत्कथा को भी, उसमे र
मनाल्स प्राफ दी विहार उडीसा रिसर्च सोसाइटी १. ए हिस्ट्री माफ इडियन लिटरेचर भा. १ पृ. २३१ पत्रिका भा. १८ खण्ड १ पृ. १-७६ ।
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में नहीं है हालांकि इसका पाठ भी उन व्यवसायी कथकों वर्णन ही रहा था । परन्तु मन्य काव्यो मे, प्रतिपाद्य विषय के हाथों कि जो लोकरुची की मांग की पूर्ति करना कवि को अपनी व्याकरण-ज्ञान पटुता, भाव-व्यंजन सुकचाहते थे, वृद्धि को अवश्य ही प्राप्त हुआ है। राम रता, शैली-चातुर्य, वर्णन और भाव दोनों से सम्बन्धित की कथा को महाभारत में भी स्थान मिल गया है और काव्यालंकारिता का सुदक्ष प्रयोग, और काव्यशास्त्र के दशरथ जातक के कथानक से उसका निकट सादृश्य है। जटिल और रवाजी सिद्धान्तो के पूर्ण ज्ञान के प्रदर्शन का, रामायण का पहला और अन्तिम काण्ड जिन्हें सूक्ष्मदर्शियों एक निर्बल प्राधार है। जो कभी गुण थे वे ही दोष हो ने पीछे से जोडा हा घोषित किया है, उस विष्णु को गए, क्योंकि उत्तरकालीन कवियों ने अपने ज्ञान के पांडि
त्यपूर्ण प्रदर्शन की चिन्ता में विभिन्न मूल्यो को बल देने तार लिया था, सम्पादकीय प्रयत्न का स्पष्ट ही उद्घोष के अनुपात और सन्तुलन का सब ज्ञान ही भुला दिया है। है। इस प्रकार विशुद्ध लोक-कथा पर भी साम्प्रदायिकता जैसा कि मेक्डोन्येल ने कहा है, प्रतिपाद्य विषय जटिल ने अपना हाथ साफ किया है। रामायण में विकसित कुछ अभिमान के प्रदर्शन का साधन अधिकतम मान लिया गया पात्र अवश्य ही मनोरंजक है । भारतीय स्त्री के आदरणीय है यहाँ तक कि अन्त मे सिवा शाब्दिक कलाबाजी और प्रादर्श रूप मे सीता का वहाँ चित्रण है, और भारतीय दीर्घ पद-विन्यास के और कुछ वह रह नही गया है। गावों के लोकप्रिय देवता के रूप में श्री हनुमान का। कालीदास से प्रारम्भ होकर और सस्कृत के जीवटपूर्ण सीता-जन्म की काल्पनिक कथा हमे उस ऋग्वेदीय काल की समाप्ति तक, महाभारत मोर रामायण ही अनेक लाल-पद्धति का स्मरण करा देती है कि जिसका वहाँ लेखकों के लिए सदा-प्रवाही विषय-स्रोत रहे थे और जिसे व्यक्तिकरण कर देवी रूप से प्राह्वान किया गया है। उनने गीतिक, शृगारिक मोर प्रोपदेशिक रसो द्वारा खूब रामायण निरा महाकाव्य ही नहीं है, अपितु उसका बहुँ- अच्छी प्रकार सजाने में कोई कसर ही नहीं रखी है। ताश ऐसी अलंकार-बहुल काव्य प्रवृत्ति भी प्रदर्शित करता काव्यों में रघुवश, भट्टिकाव्य, रावणवहो, जानकीहरण है कि जहाँ कथा की शैली, उसके विषय जितनी ही आदि का विषय राम कथा ही है और किरातार्जुनीय, महत्वपूर्ण है। उसके सातवे काण्ड में विशेष रूप से, हमे शिशुपालवध, नैषधीय प्रादि का विषय निर्वाचन महाभारत अनेक पौराणिक कथाएँ और जीवनियां प्राप्त होती है का प्राभारी है। नाटको में से अधिकांश का प्रसग दोनों जैसा कि ययाति एवं नहुष की जीवनी, वशिष्ठ और महाकाव्यो और बृहत्कथा से लिया गया है। मुद्राराक्षस अगस्त्य की जन्म-कथा प्रादि-आदि कि जो पीछे से उसमे और मालतीमाधव जैसे नाटक इने-गिने ही है कि जिनने प्रविष्ट कर दी गई है।
महाकाव्य बाह्य पात्रों को अपने नाटक का विषय अब पुराणों का विचार करें। जगदुत्पत्तिक पौर
बनाया है। बाद के कवियो ने, चाहे गद्य हो या पद, उनमें देवों, सन्तों, वीरो, अवतारो और राजवशों का
कथा-वर्णक का ध्यान इतना नही रखा है जितना कि अपने वर्णन किया गया है। उनकी प्रोपदेशिक ध्वनि और
पाडित्य-प्रदर्शन का। दशकुमारचरित, वासवदत्ता, कादसाम्प्रदायिक उद्देश्य सर्वत्र बिलकुल स्पष्ट है । महाभारत
म्बरी प्रादि गद्य रमन्यासो के लिए तो यह बिलकुल ही पौर रामायण के उत्तरकालीन क्षेपको से उनका सन्निकट सत्य है । इनके लेखक दोनों महाकव्यो से गहन परिचित सम्बन्ध परिपूर्ण परिलक्षित होता है।
प्रतीत होते है, परन्तु उनके कथानक का विषय न तो रामायण में अलकार-बहुल शैली का प्रदर्शन कहीं-कहीं उनसे लिखा ही गया है और न वह उनका है ही। उनकी ही होता है। परन्तु जब हम सस्कृत-साहित्य के काव्य- शला भा एसा है कि उन्ह परम-बुद्धि-प्रामम
शैली भी ऐसी है कि उन्हे परम-बुद्धि-अभिमानी भी कोई. स्तर की मोर देखते है तो महाकाव्य-स्तर से उसकी विशे
कोई ही पढ़ सकता है। उपमानो की छठा, अनुप्रासो का षता स्पष्ट परिलक्षित हो जाती है। महाकाव्यकार का
बाहुल्य, समास भरी जटिल शैली ही इन गधों के सामान्य मुख्य लक्ष्य अपना प्रतिपाद्य विषय और उसका सजीव ३. ए हिस्ट्री माफ सस्कृत लिटरेचर, पृ. ३२६
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लक्षण है। इनके साहित्यिक गोष्टव के रसास्वादन और काव्य-विचारणा के ग्रहण करने के लिए व्याकरण और अलंकार शास्त्र के कठोर अध्ययन की दीर्घकालीन शिशि क्षुता प्रत्यन्त ही प्रावश्यक है। इन लेखकों की इच्छा न होते हुए भी, उनकी पृष्ठभूमि धार्मिक है और सारे ही राज्य में धार्मिक प्रौपदेशिक अनुरोध विखरे पड़े है भर्तृ हरि जैसे लेखकों की रचनाओंों में भोपदेशिक तत्व प्रधान हो जाते है। भ्रमरू जैसे कवियों की कृतियों में विशुद्ध । श्रृङ्गार परिलक्षित होता है, परन्तु जयदेव जैसे कवि द्वारा ये ही भाव धार्मिक पृष्ठभूमि मे पथ्चीकरण कर दिये गए है मोर प्राध्यात्मिक सुतान द्वारा उनकी अभिव्यंजना हुई है । इन प्रलंकार - बहुल रचनाओ में वर्णनात्मक कहानी का कोई अवकाश या क्षेत्र रह नही गया है ।
जब हम पंचतन्त्र और उस जैसे ही प्रत्थो की प्रौप देशिक नीति-कथाओंों का, माव-व्यंजक कथायो का जिनका नमूना बृहत्कथा में होना प्रतीत होता है और जिनको वेतालपंचविशतिका आदि कथाए प्राज प्रतीक है और धार्मिक एवं नैतिक कथाओं का कि जिनके नमूने महाकाव्यों में मिलते है और जिनका विभिन्न धर्म के अनुयायी अपने-अपने ढंग से परिपोषण करते है, व्यापकता का विचार करते है तो ऐसा मालूम होता है कि मनोरंजन का लक्ष्य उपेक्षित न करते हुए भी, पाठक को उपदेश देने की इच्छा ही लेखक के मन में सर्वोपरि है। मनुष्य भूल करने वाला एक पशु है जो अन्तर और बाह्य दोनों ही शक्तियों के प्रभाव से प्रभावित होकर अनेक रूप मे काम करता है। इसलिए उसे सम्यज्ञान मौर सम्बम्चारिण याने प्राचरण की शिक्षा देना परम आवश्यक है । बहुताश मैं यह ऐसे दृष्टान्तो द्वारा सम्पन्न किया जा सकता है कि जिनमें पशु-पक्षी पात्र रूप से प्रस्तुत किये जाते हों, जिनमे काल्पनिक व्यक्ति भी भाग लेते बताए जाते है या जिनमें देव और अर्ध ऐतिहासिक व्यक्ति तक अभिनेता हों। २. श्रमण भावना : वैरागी काव्य
भारत की वर्णनात्मक कथा के स्थूल रूपरेखा का सर्वेक्षण अब तक जिस साहित्य से किया गया था, वह सब उन लोगों का था जो कि वेदों को सर्वोत्तम धार्मिक साहित्य मानते है और जो वैदिक धर्म या उसके प्रत्यक्ष
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अप्रत्यक्ष उत्तराधिकारी धर्मो के ही अनुयायी है। वेद काल से लेकर महाकाव्य एवं स्मृति काल तक के भारतीय साहित्य के सूक्ष्म ऐतिहासिक अध्ययन ने भारतीय विद्या विदों को साहित्य की इस व्यापकता मे निहित धार्मिक विचारधारा के दार्शनिक विकास मे एक दरार का पता लगा लेने में सहायता मिली है। उपनिषद्-युग तक पहुँचने के पश्चात हमें ऐसे विचित्र विचारों से वास्ता पड़ता है जिसे कि पुनर्जन्म सिद्धान्त, वैराग्य और दुसवाद की प्रोर जीवन का झुकाव और यज्ञ धर्म से आत्मविद्या की महानता । अब ज्ञान का एकाधिकारी ब्राह्मण ही नही माना जाता है। प्रमुख क्षत्रियगण उपर्युक्त सिद्धान्तो में से कुछ की व्याख्या और विवेचना करते देखे जाते हैं कि जिनका यथार्थवादी समीक्षक को वेद या ब्राह्मण में कोई भी आधार नहीं मिलता है। प्रायों के भारत में पदार्पण के पूर्व हमारा यह सोचना उचित ही है कि, गंगा-यमुना के के उर्वर तटों के सहारे सहारे बसी अत्यन्त सुसंस्कृत समाज पहले से ही विद्यमान थी और उसके अपने धार्मिक प्राचार्य व उपदेष्टा भी थे । वैदिक शास्त्र सदा से ही मगध देश को जहां कि जैन एवं बौद्ध धर्म पूर्ण तेज के साथ चमक रहा था, कुछ-कुछ घृणा से देखते रहे है, क्योंकि ये धर्म वेदों का भाविपत्य स्वीकार ही नहीं करते थे। ब्राह्मण काल की समाप्ति पर दार्शनिक विचारधारा में दीखने वाली इस दरार ने एक ऐसी स्वदेशी धार्मिक विचारधारा के अस्तित्व का स्वीकरण आवश्यक कर दिया है। कि जो प्रार्थ विचारधारा को प्रभावित करते हुए स्वयम् भी उससे पूर्ण प्रभावित हुई होगी । भिन्न-भिन्न पण्डितो ने पूर्वी भारत के इस स्वदेशी धर्म का भिन्न-भिन्न रीति से वर्णन किया है। याकोनी ने उसे लोक-धर्म कहा; तो लायमेन ने यह कि उसके तोता परिव्राजक थे । गारबे ने उनका सम्बन्ध क्षत्रियों से बताया तो ह्रिस डेविड्स ने उसे सुसंगठित शक्तिशाली यायावरी का प्रभाव माना विण्टरनिट्ज ने सहज रूप से इन विचारों को 'वैरागी काव्य' का नाम दिया और मैं इसको 'मगध धर्म कहता हूँ। जैसा कि मैंने अन्यत्र कहा है हमे सांस्य, जैन, बीड, मोर भाजीवक सिद्धान्तो को भार्य विचारधारा के उपनिर्वादिक भूमि से मनुक्रमे संग्रहीत स्फुट विचारों की
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भारत में वर्णन
कपा-साहित्य
विकृत संलगता ही कहना उचित नहीं है। इस सबकी पुरुष जितनी ही प्रकृतियां हैं और अनेक विशिष्ट बातें मान्तरिक समानता, प्रार्य [वैदिक और ब्राह्मण] धर्म से जैनों और सांस्यों को समान मान्य है। तीनों ही सम्प्रइनकी अनिवार्य असमानता को सामने रखते हुए और दायों में सृष्टिकर्ता या ऐसे प्रतिमानव को कि जो दण्ड उन दरारों का विचार करते हुए कि जो वैदिक और या पुरस्कार वितरण किया करे कोई भी स्थान प्राप्त नहीं उपनिषदिक विचारधारामो के अपक्षपाती प्रध्ययन से है। इन सभी समान मान्यताओं की, वैदिक धर्म की स्वा. पाई जाएं, यही बताती है कि यहाँ ऐसी स्वदेशी विचार- भाविक विकास के साथ उस समय तक कोई भी संबति धारा जिसे हम सुविधा के लिए 'मागध धर्म' कह सकते नही बैठती है जब तक कि उपनिषद-युग का मध्य-कास है, पहले से विद्यमान थी ही कि जो सांसारिक दृष्टिकोण नहीं मा जाता है। सांख्य ने, कि जिसे उसकी मनोमोहक मे एकदम दुखवादी, प्राध्यात्मिकता में बहुदेववादी नही परिभाषावली के कारण सनातन स्वीकार कर लिया गया तो देतवादी, प्राचार में विरागी, पुनर्जन्म भोर कर्म के है हालांकि वेद-मान्य सनातन से उसमें प्रकट विसंगतियाँ सिद्धान्त मे नि.सन्देह विश्वास करने वाली, नैतिक दृष्टि भी हैं. कतिपय उपनिषदों को विशेष रूप से प्रभावित कोण मे प्रतिमानवी और सर्वजीव-तत्ववादी, वेदो और किया है. और फिर प्रास्तिकवादी योग का बल पाकर वैदिक अनुष्ठानो मे श्रद्धा जरा भी नही रखनेवाली, और मां निसन्टेड ही सनातन बन गया है। जैन, सांस्य निःसकोच रूप से सृष्टिकर्ता का स्वीकार नहीं करनेवाली
और बौद्धों की इन समान बातों को, उनके ऐसे ही थी। जैन और बौद्ध इस मागध धर्म के अच्छे प्रादर्शभूत
र बाद्ध इस मागध धम के प्रच्छ पादशभूत आर्य-वैदिक अनुष्ठानों के समान मत-भेदों को, पौर प्रतिनिधि है कि जिसकी पृष्ठ-भूमि की रूपरेखा मैंने अन्यत्र
प्राजीवक, पूरण काश्यप आदि सम्प्रदायों से मिलते-जुलते इन शब्दो मे दी है, 'जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्तों का
जैनों के कुछ विशेष सिद्धान्तों को दृष्टि में रखते हुए, अन्य भारतीय धर्म-सम्प्रदायो के सिद्धान्तों के साथ यहाँ
मैं एक ऐसे महान् मागध-धर्म का, प्रमुख अनुभावों मे वहाँ साम्य और वैषम्य बताते हए जो संक्षिप्त सर्वेक्षण मैं
स्वदेशी, अस्तित्व स्वीकरण के पक्ष में हूँ कि जो मध्यने किया है, उससे मुझे भारतीय दार्शनिक विचारधारा
देश में मार्यों के आगमन के पूर्व ही पूर्वी भारत में गंगा के विकास मे जैन-धर्म की स्थिति पर अनिर्णायक रूप से
के तटों पर फल-फूल रहा था। बहुत सम्भव है कि इन प्रकाश डालने का प्रलोभन होता है। जैन-धर्म को वेद की अधीनता का अस्वीकार, बौद्धो के पूर्ण और साख्यों के
दोनों धारामों का ब्राह्मण-युग के अन्त समय में संमिश्रण
हुमा हो और उसके परिणाम स्वरूप एक ओर तो उससे आशिक, कदाचित् यह बताता है कि ये तीनो एक ही
उपनिषदों का उद्भव हुमा जिनमें याज्ञवल्क्य प्रादि विचारधारा के है । पुनर्जन्म का सिद्धान्त ही नहीं अपितु
ऋषि पात्म-विद्या का प्रचार पहले पहल कर रहे है एवम् उससे उद्भूत जीवन-दुःखवाद और कर्म सिद्धान्त कि जो वैदिक साहित्य के उपनिषदों मे ही सर्वप्रथम निश्चित रूप
दूसरी पोर जनता द्वारा प्राचरित वैदिकानुष्ठान रूपी
धर्म के विपक्षी रूप में जैन और बौद्ध धर्म प्रचार पाए से दिखलाई पड़ता है, इन तीनों को समान रूप से मान्य है । दया और नीति का दृष्टिकोण एवम् हिंसा की घोर
कि जो मागध-धर्म के महान् वारसे के सुदृढ़ प्रतिनिधि के निन्दा, फिर चाहे वह यज्ञ के अर्थ अथवा व्यक्तिक इच्छा
रूप में शीर्ष स्थानी हुए। के लिए की जाए, भी तीनो को समान रूप से मान्य है। विण्टरनिट्ज के अनुसार, प्राचीन भारत में सभी बौद्धों भोर साख्यों के सिद्धान्त बहुत से समान है, यह
बौद्धिक प्रवृत्तिया केवल ब्राह्मणों में ही परिसीमित नहीं भारतीय-विद्याविदो के लिए कोई नई बात या सचना थीं। ब्राह्मण शास्त्रों के साथ-साथ परिव्राजक, श्रमण, नहीं है। तात्विक द्वैतवाद, प्रात्मा-बहुवाद, द्रव्य द्वारा अथवा वैरागी साहित्य भी तब था। प्राचीन भारत के मात्मा का विभ्रमण, साख्य का यह आदिम विश्वास कि बौद्धिक और प्राध्यात्मिक जीवन के इन दो प्रतिनिधियों ४. प्रवचनसार, बम्बई १९३५, भूमिका पृ. १२-१३ ५. वही, इन्ट्रोडक्सन, पृ. ६४-६५
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२७२, बर्ष २२ कि०६
को, बौद्ध ग्रन्थों में 'श्रमण और ब्राह्मण', अशोक के हैं कि जहाँ इसका ज्ञान क्षत्रियों राजा द्वारा एक ब्राह्मण शिलालेखों में 'समणबंभण', और मैगस्थनीज द्वारा 'बकम- को दिया जा रहा है। वैरागी काव्य में जो संवाद स्पष्ट नाह मोर सरमनाई कह कर भली प्रकार मान्य किया है उस दुःखवाद का निर्देश तों एक दम उत्तरकालीन उपगया है । अपनी पृथक-पृथक जीवन कथानों, नैतिक मूल्यों निषदों ही में दिखलाई पड़ता है। और धार्मिक दृष्टिकोणों से ये दोनों ही भली प्रकार पह- इस वैरागी काव्य का स्पष्ट प्रभाव महाभारत और चाने जा सकते हैं। ब्राह्मण सिख पुरुषों की जीवनियां जैन एवम् बौद्ध शास्त्रों में ही दीख पड़ता है जैसा कि बैदिक परम्परा और कथानों से प्रारम्भ होती है। हम महाभारत के पिता-पुत्र संवाद में पाते हैं। इसका ही महान् ऋषि, वैदिक मंत्रद्रष्टा और स्मृतिकार प्रायः देवो प्रतिरूप बौद्धजातक और जैन उत्तराध्ययन सूत्र में भी के समकक्ष ही स्थान पा गए और ब्राह्मणों को उसी हमें दीख पड़ता है। इस प्रकार के वैरागी ग्रंश महाभारत प्रकार भेंटें दी जाने लगी, मानों वे पूर्ण क्षमता प्राप्त देव में अनेक है। उदाहरण स्वरूप निम्न अंश गिनाए जा प्रतिनिधि ही हों। परन्तु श्रमण सिद्ध-पुरुषों की जीव- सकते हैं :-विदुरनीतिवाक्य [५, ३२-४०], घृतराष्ट्र नियाँ संसार त्याग करने वाले संतों और घोर तप करने शोकापनोदन [स्त्री-पर्व २-७] 'कुएँ में लटक रहे मनुष्य' वाले तपस्वियों की है। ब्राह्मण नीति और धर्म विश्वास का दृष्टान्त, जो कि जैन एवम् बौद्ध शास्त्रों में भी पाया जातिवाद में खूब ही भीजे हुए है। वहाँ संसार-त्याग जाता है. कर्मव्याध का उपदेश [वनपर्व, २०७-१६, स्वीकार तो किया गया है, परन्तु जीवन में प्रमुख भाग तुलाधार-जाजली सम्वाद । शांतिपर्व, २६१-६४ ।, यज्ञ उसे वहां प्राप्त नहीं है। वेद का ज्ञान, यज्ञ और ब्राह्मण निन्दा प्रकरण [१२, २७२ प्रादि], गो कपिलीय प्रकरण की पूजा-प्रतिष्ठा ही को उसमे प्रमुखता दी गई है। बिही. २६९-७१], जनक की अनासक्ति [वही, १७८], नतिक मूल्यों का वहाँ महत्व लौकिक व्यवहारानुगत है। जो जैन और बौद्ध शास्त्रों में भी है, व्याघ और कबूतर दान का अर्थ वहाँ है ब्राह्मणों के प्रति ही उदारवृत्ति। की कथा [शांति, १४३-४६], मुद्गल की कथा [३, और प्रात्म-बलि का अर्थ है ब्राह्मणों की प्राज्ञानुवर्तिता। २६० प्रादि], आदि आदि । इन अंशों में प्रतिपादित राजा का स्वर्ग गमन भी ब्राह्मण गुरू की एक-निष्ठ
मा ब्राह्मण गुरू का एक-निष्ठ कुछ सिद्धान्त और नैतिक मूल्यों की ब्राह्मण धर्म से जैसा भक्ति पर ही निर्भर करता है। परन्तु वैरागी काव्यों के कि अन्यत्र उसका प्रतिपादन किया गया है, बिलकुल नैतिक लक्ष्य इससे बिलकुल ही भिन्न हैं। नैतिक अनु- संगति नही है। शासन और संसार-त्याग यहाँ मोक्ष या निर्वाण प्राप्ति के इस पुरातन भारतीय वैरागी काव्य की ऐतिहासिक साधन रूप किया जाता है। संत न तो किसी से स्वयम् स्थिति का जब हम विचार करते है तो कहना पड़ता है भयाक्रान्त रहता है और न वह स्वयम् किसी को भया- कि इसका उद्भव स्थान महाभारत तो नहीं ही है क्योकि कान्त करता है। प्रात्म-त्याग और प्रात्म-निरोध का वह इस प्रकार के अंश उसके नवीनतम स्तरों में ही मिलते प्रत्युच्च अवतार ही है। सभी श्रेणियों के ज्ञानी इन हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि महाभारत में सम्मिध्येयो का पाचरण करते हैं, और अहिंसा एवम् मैत्री ही लित किए जाने के पूर्व ही ये सम्वाद स्वतंत्र रूप से धामिक जीवन के प्रत्युच्च सिद्धान्त है।
अस्तित्व मे होंगे। अन्त में विण्टरनिटज कहते हैं कि विरागियों की नैतिकता या धर्म का प्राधार पुन- -मैं ऐसा सोचने को प्रेरित होता हूँ कि वैरागी काव्य जन्म और कर्म में विश्वास है। सर्वत्र संसार की प्रकृति और उसमें परिलक्षित जीवन का विशिष्ट दृष्टिकोण, सर्व की घोर शिकायत ही शिकायत है । मोक्ष के शाश्वत सुख प्रथम उस योग के पुरातन रूप में उद्भवित हुआ कि जो पर खूब ही बल दिया गया है। ये विचार वेद में कहीं एक प्राचारपद्धति और पाप-निष्कृति का व्यवहारिक भी नहीं मिलते हैं । छान्दोग्य मोर वृहदारण्यक उपनि- सिद्धान्त मात्र ही था और जो सांख्य विचारधारा से षदों में कर्म-सिद्धांत के कुछ प्राकस्मिक लक्षण मिल जाते उतनी ही सरलता से मिलाया जा सकता था जितना कि
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भारत में बर्मनाक कथा-कोष
जैन और जैन और बौद्ध उपदेशों के साथ । साख्य और पर अत्यधिक प्रभाव डालता है। बुद्ध ऐसे बंध यावन्तरी योग दोनों ही यद्यपि प्रब सनातन ब्राह्मण-धर्म के पेटे में है कि जो मानव के दुःखों की चिकित्सा अपने ही धार्मिक समाविष्ट हो गए है, परन्तु मूलत: वे ब्राह्मण-धर्म नही सिद्धांत रूपी प्रौषधियों को देकर करने के इच्छुक हैं। थे। वे वेद से स्वतंत्र थे। उसने यह स्थिति स्वीकार कर वे एक सफल उपदेशक थे और इसलिए वे लोगों के ली है कि वैरागी काव्य के सिद्धों के कुछ जीवनवृत्य और शरीर और मन दोनों पर ही शीघ्र अधिकार जमा लेते उक्तियाँ जो कि महाभारत में मिलती है, निःसन्देह जैन थे। फलत: हम पढ़ते हैं कि वे अनेक प्राल्हादक भौर और बौद्ध शास्त्रों से लिए गए है। जो जीवन वृत्य और मनोरंजक कथाएं जो कि शिक्षाप्रद और सुश्राव्य दोनों ही उक्तियों सब में समान रूप से है, उनके सम्बन्ध मे दो होती थीं, कहते और उन्हें सुनकर मब प्राणी इह भव सम्भावनाएं हो सकती है-'पहली तो यह कि मूलतः वे और पर भव दोनों में ही सुखी होते थे । भारतीय विचार बौद्ध या जैन ही हो, या फिर यह कि ये सब अनुरूप पद्धति में दृष्टा ने महत्व का काम किया है और अनुमान प्रश किसी एक ही श्रोत याने इससे भी प्राचीनतर वैरागी । वाक्य (सिलोनिज्म) में दृष्टात तो होते ही है। यही साहित्य के हो कि जो सम्भवतया योग अथवा साख्य
कारण था कि बुद्धदेव सभी प्रकार के जीवनों से अपने को योग की शिक्षा के सम्बन्ध मे उ भूत हुअा हो।'
पूर्ण अवगत रखते थे। इसलिए उदाहरण या दृष्टांत वे यद्यपि यह अभिगमन कुछ भिन्न है, फिर भी वैरागी
प्रस्तुत करते थे, श्रोतामों को उनकी बुद्धिमत्ता एवम् साहित्य जिसका कि विवेचन ऊपर किया गया है, और उनके उपदेश की प्रामाणिकता मे सहज ही विश्वास हो मागध-धर्म जिसकी की रूपरेखा मैने यहाँ दी है, दोनों में जाता था। यह भी बहुत सम्भव है कि बुद्ध अपने उपदेशों बहुत समानता है । मगध के भौगोलिक पक्षपात के सिवा, में लोक-कथा का भी समावेश करते थे। पाली साहित्य दोनो ही वाक्य-विशेष प्रायः एक ही प्रकार के भावों को मे इस बात के प्रचुर प्रमाण हैं कि बौद्ध साधुनों पौर प्रकाश करते हैं। यह एक दुर्भाग्य की ही बात है कि उपदेशकों ने अपनी धर्म-देशनामों को श्रद्धा, धर्म के लिए मंखली गोशाल, पूरण काश्यप, आदि मादि ज्ञानियों की तपस्या, या दुःख सहन, सफल प्रायश्चित और महंत-पद कृतियाँ अाज हमें कोई प्राप्त नहीं हैं। परन्तु जो प्राचीन प्राप्ति सम्बन्धी कथानों के अनेक दृष्टान्तों द्वारा खूब ही भारतीय साहित्य वारसे में हमें प्राप्त हुआ है, उससे सजाते थे। कभी-कभी वे धर्मप्राण जीवनियों की कल्पना विण्टरनिटज की कही सिद्धों की जीवनियों की प्रकृति भी कर लेते थे। परन्तु अधिकांशतया वे पशुओं की पौर नैतिक-धार्मिक दृष्टियो को मद्दे नजर रखते हुए
नीति कथानों, रूप कथानों और लोक कथामों के सम्पन्न यह नि. सकोच कहा जा सकता है कि जैन और बौद्ध
भण्डार से या मनाध्यात्मिक साहित्य मे से ही चुनी हुई साहित्य उस वैरागी काव्य के प्रधान रक्षक हैं और जैन
कथामों को ही थोड़ा सा हेर-फेर कर अपने धार्मिक धर्म एवं प्रार्य बौद्ध धर्म ही उस मगध धर्म के प्रति
सिद्धांतों के प्रचार के उपयुक्त और अनुरूप बना लेते थे। उत्कृष्ट प्रतिनिधि है।
लोक या प्राध्यात्मिक साहित्यिक किसी भी ज्यानक को ३ भादि बौद्ध साहित्य :
बौद्ध रूप देने में बोधिसत्व का सिद्धांत, पुनर्जन्म और सारे ही बौद्ध साहित्य में जिसका कि अध्ययन जैन कर्म-सिद्धांत की दृष्टि से, एक उत्कृष्ट साधन था। साहित्य की अपेक्षा अधिक पूर्णता और सूक्ष्मता से किया उपमानों और दृष्टांतों का जनता पर बड़ा ही प्रभाव जा रहा है, बुद्ध का व्यक्तित्व प्रायः प्रत्येक संदर्भ में पाठक पड़ता है और उनसे श्रोता विशुद्ध तों की प्र धर्म ६. विन्टरनिटज के ग्रन्थ सम प्रावलम्स आफ इंडियन
का ममं बहुत शीघ्र समझ जाते हैं । प्रमुख उपदेष्टापों ने लिटरेचर कलकत्ता १९२५ में उत्कृष्ट लेख एसेटिक इसीलिए मा
इसीलिए अपनी देशनाओं को मनोरंजक और कर्णप्रिय लिटरेचर इन इन्सेन्ट इंडिया का सार संक्षेप में ७. इन्साइक्लोपीरिया माफ एपिक्स एण्ड रिसीवनामा. दिया है।
७, पृ.४११।
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२७४, वर्ष २२ कि. ६
अनेकान्त
बनाने के लिए सदा ही इनका उपयोग किया है। पाकांक्षी थे। ये सब वैरागी वीर ही थे और इनकी हम विनयपिटक को ही लें। उसके खन्दकों मे नियमों
उक्तियों द्वारा दिव्य-प्रकाश और उदाहरणों द्वारा प्रेरणा पौर उपनियमों का प्रवेश दृष्टांतों द्वारा किया गया है
उन सब लोगों को मिलती है जो कि आध्यात्मिक लक्ष्य की और उनमें उसी समय का चित्रण है जब कि बद्ध द्वारा साधना करना चाहते है। इन व्यक्तियों में कुछ तो ऐतिउनकी घोषणा की गई थी। चूल्लवग्ग में भी हम अनेक हासिक ही प्रतीत होते हैं । उनके वचनों में यद्यपि उनके उपदेशप्रद कथानक देखते है। उनमे से कुछ तो धर्म- जीवन की घटनाओं का विवरण कुछ भी नहीं मिलता है, परिवर्तन कथानक हैं तो कुछ ऐसे के जो बुद्ध के या बूद्ध फिर भी तदनुसारी अपदान कथाओं और धर्मपाल की के भिक्षों के जीवन के साथ गुंथे हुए है। सौरिपुत्त, ट
रिपत. टीका में इन भिक्षु और भिक्षुणियों के विषय में बहुत सा मोगल्लान, महाप्रजापति, उपाली, जीवक आदि के कथा- विवरण या व्यौरा दिया हुआ है। अधिकांश कथाएँ नकों का सामाजिक और मनोवैज्ञानिक सार्वकालिक विलकुल यांत्रिक सी निरस लगती हैं। फिर भी धार्मिक उपयोग है। सुतपिटक के दीघनिकाय और मज्झिम- और नैतिक उपदेश की कहानियां होने के कारण उनका निकाय में भी हमे बुद्ध जीवन की कुछ घटनाएँ मिलती एक विशेष शहत्व है। नामों में उनका कोई मूल्य नहीं हैं । पयासीसूत्त जैसे संवाद भी उनमें है और ऐसी पौरा- है, परन्तु त्याग की भावना, कर्म-सिद्धांत की क्रिया, धार्मिक णिक कथाएँ और सिद्ध-पुरुषों की जीवनियां भी कि जो और नैतिक मूल्यों की सत्यता और धर्म-परायण जीवन किसी सिद्धांत का प्रदर्शन करती है या कोई धर्माचार की आवश्यकता की छाप इन कथानकों द्वारा प्रास्तिकों बताती है । छन्न, प्रास्सलायन प्रादि की कथाएँ किसी पर पडती ही है। जब विभिन्न सांसारिक स्थिति के घटना के वास्तविक होने जैसी प्रतीत होती है। डाक स्त्री पुरुषों की कथानों पर जिन्होने धार्मिक दृष्टियों से अंगुलिमाल का कथानक. कि जो भिक्ख होकर अहत के प्रेरणा प्राप्त कर भिक्खु जीवन स्वीकार कर लिया था, पद तक पहुँच गया था, राजा मखदेव की जीवनी कि हम दृष्टिपात करते है तो सहज ही समझ जाते है कि जिसने श्वेत केश के देखते ही प्रव्रज्या ले ली थी और वैराग्य के मूल्यों का इन कथा-लेखकों के दृष्टिकोण का रत्थपाल का संसार-त्याग और सांसारिक सुखों की प्रभाव बहुत ही बडा पडा था। इन कथानकों में से कुछ .असारता पर फिर भारी तिरस्कार, ये त्याग के प्रादर्श को नि.सदेह यथार्थ उपदेशी कथा और जीवन को वास्तविक गौरवान्वित करने वाले गेय कथानकों के कुछ उत्तमोत्तम चित्रों का मनोरंजक नमूना ही है । उदाहरण हैं । विमानवत्थू और पेटवत्थू दोनों ही ग्रथों मे फिर दो बौद्ध वर्णात्मक साहित्य के व्यापक प्राचीन एक आदर्श पर ही बनी ऐसी कहानियाँ दी हैई है कि ग्रन्थ है कि जो कि कथा द्वारा धार्मिक और बेरागी लक्ष्यों जिनमें परभव में सुखी या दुखी जीवन विताने और अमूक का-सिद्धान्तों का उपदेश देते हैं। इनमें से पहला ग्रन्थ प्रमुक सुख दुःख पाने के कारणों का चित्रण है। इन सब है जातक और दूसरा है अपदान । बौद्ध परिभाषा के कहानियों का लक्ष्य कर्म सिद्धांत की सार्वभौमिकता और अनुसार 'जातक' उस कथा को कहा जाता है कि जिसमें परम प्रभाविकता सिद्ध करना ही हैं। सम्बन्धित व्यक्ति बुद्ध अपने किसी पूर्व जन्म में कुछ न कुछ भाग भजते ही जब अपने दुर्भाग्य और सौभाग्य के कारणों का विवेचन है और वह भाग मुख्य नायक का हो या किसी अन्य का करता है तो इस प्रकार के वर्णकों का निश्चय ही श्रद्धा- भी हो सकता है यहाँ तक कि एक सामान्य साक्षी तक शील श्रोताचों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। उस कथानक का भी । कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्तों के साथ मिल में जो भी कमी रह गई हो, टीकाकार उसकी खानापूरी बोधिसत्व का सिद्धान्त, किसी भी कहानी को जातक का कर देते हैं । थेर और थेरी गाथाएँ उन प्रवजित मनुष्यों
८. वही, जातक पर लेख ; बी. सी. लाः ए हिस्ट्री प्राफ और स्त्रियों की प्रात्मा की आध्यात्मिक स्खलनाम्रो की
पाली लिटरेचर कलकत्ता १६३० भा०१ पृ. २७१ स्वीकृतियों का संग्रह है कि जो शांति प्राप्ति के उत्कट मादि।
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भारत में वर्णनात्मक कथा-कोष
२७५ रूप दे सकता है। इन जातकों ने न केवल बुद्ध के बुद्ध के पूर्व भवों की ही बात कही जाती है, वहाँ अपदान व्यक्तित्व की महत्ता को और भी महान बना दिया है मे सामान्य रूप से परन्तु सदा ही नही किसी भी प्रर्हत् अपितु कर्म और पुनर्जन्म की भावनाप्रो को भी चुपचाप के पूर्व भव की बातें कही जाती है । अपदान मे भी कितने प्रसारित कर दिया है एवम् समाज की सामूहिक भलाई ही सतो की अच्छी जीवनियाँ है। कुछ तो थेर, और के नैतिक मानक भी स्थापन कर दिये है। जातक रूप मे थेरी-गाथा के सुप्रसिद्ध भिक्षु और भिक्षुणियों जैसे ही है। प्रस्तुत की जाने वाली कुछ कहानियाँ तो सूत्रों से पहले से ये कहानियाँ सामान्यतः प्रथम पुरुष मे ही कही गई है। ही साधारण कहानियो के रूप मे मिलती है। यदि उनमे इनमें कितने ही नाम तो ऐतिहासिक है। इनमें कितने ही से बोधिसत्व का व्यक्तित्व, और विशिष्ट बौद्ध दृष्टिकोण नाम तो ऐतिहासिक ही है और सारिपुत्र, मानन्द, राहुल, एवम् परिभाषा निकाल दी जाए तो हम सहज ही में देख खेमा, किसा-गोतमी, जैसे कुछ व्यक्ति तो बौद्ध परम्परा सकेगे कि उनमे रूप कथाएं, पौराणिक गल्पे, पाख्यान, मे दूसरे प्राधारों से भी सुप्रतिष्ठित और सुख्यात है। साहसी और रोमानी कहानियाँ, नीति की कथाएं और परन्तु अधिकांश कहानियो का ढाँचा और विषय बिलकुल उक्तियों और सिद्ध-पुरुषो की जीवनियाँ सभी समाविष्ट वैचित्र्यहीन है। ऐमा लगता है कि उनकी रचना पारहै । ये सब भारतीय लोक-कथाओ के उस सामान्य भण्डार माथिक या और किसी कार्य को गौरवान्वित करने के से ही ली गयी है जिनका कि भिन्न भिन्न धार्मिक सम्प्रदायों लिए ही विशिष्ट रूप से की गई है। टीकाकार बुद्धघोष ने अपनी दृष्टि में अपने लिए उपयोग किया है।
और धर्मपाल दोनो ही ने जातक और अपदान दोनों इन जातक कथाओं से दूसरे ही प्रकार की प्रपदान प्रकार का मन
प्रकार की अनेक कथाए अपनी अनेक टीकामो में उद्धत कथाएं है जिसमें नायक के पूर्वभवो की कथा इस दष्टि से की है और ये सब मिला कर बोद्ध वर्णनात्मक कथानों दी गई है कि अच्छे और बुरे कर्मों पर और आगामी भव का एक महत्व का समूह या सग्रह है। इन सभी कथामों मे उनसे प्राप्त होने वाले परिणामों पर पर्याप्त जोर दिया में धार्मिक प्र
. में धार्मिक और वैरागिक भावनामो की रक्षा करने की जा सके। ये साहसी कर्मों की कहानियां है, याने नर प्रवृत्ति बिलकुल ही स्पष्ट है।
(क्रमशः) और नारियो के पुण्य और धार्मिक कार्यों की। 'जातक ६. उदाहरणार्थ देखो, हारवर्ड प्रो सिरीज भा० २८-३०, की तरह ही अपादान मे' पूर्व भव की कथा और 'वर्तमान केम्ब्रिज मसे. १९२१ मे वरलिंगम का लेख बुद्धिष्ट भव की कथा' तो होती है, परन्तु जातक में जहाँ सदा लीजेण्ड्स ।
भगवान महावीर और छोटा नागपुर
__ श्री सुबोधकुमार जैन
मगध से उत्कल प्रदेश (उड़ीसा) जाते हुए तीर्थकर खण्डगिरी और उदयगिरी की यात्रा की, तभी इन सभी महावीर, विहार के छोटा नागपूर प्रदेश से गुजरे । मान- क्षेत्रों के महत्व पर दृष्टि अनायास गई। मानभूमि और भूमि और सिंहभूमि का यह इलाका उन सभी यात्रियो सिंहभूमि उडीसा से सटे हुए स्थल है। वर्धमान महावीर को पार करना ही पड़ता था जिन्हे बग देश या मगध से की वाणी ने उड़ीसा के जनमानस पर प्रपार प्रभाव डाला उत्कल जाना हो।
था । जिस प्रकार मगध के ख्यातिप्राप्त जैन सम्राट चन्द्रतीर्थंकर महावीर के उपदेशो से इस प्रदेश की जनता गुप्त, सम्प्रति प्रादि हुए उसी प्रकार यहाँ के सम्राट खारअत्यन्त प्रभावित हुई और देखते-देखते जैन धर्म यहाँ वेल भी अपने काल के महान जैन राजनेता और वीर प्रथित और पल्लवित हुआ। दो वर्ष पूर्व जब मैं उड़ीसा ऐतिहासिक नरपुंगव हुए थे। आज भी उड़ीसा वाले इस के भुवनेश्वर नगर पहुंचा और वहां के मशहूर जैन तीर्थ जैन सम्राट् खारवेल का नाम गौरव पूर्वक लेते हैं।
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२७६ बर्ष २२ कि.
सम्राट खारवेल के काल में मानभूमि और सिहभूमि भी कर रहा है। मैंने इस विषय में बंगाल के मण्य मंत्री श्री उत्कल नरेश के सहयोग से समृद्धि के शिखर पर पहुँच प्रजय मुखर्जी से पत्र व्यवहार के द्वारा 'वर्धमान का नाम चके गांव-गांव में जैन चैत्यों, मन्दिरों और स्तूपो की पुनः स्थापित करने की स्वीकृति ले ली है। अब भारत शोभा अनोखी थी। श्रावकों की हजारों बस्तियां थी। सरकार से पत्र व्यवहार चल रहा है। माज भी इन सभी स्थानों के भग्न अवशेष मानभूमि
इस प्रकार निश्चय पूर्वक ऐतिहासिक बल पर कहा पौर सिंहममि में विखरे पड़े है। सड़कों के किनारों पर जा सकता है कि भारत जैन मतियां जहां तहां पड़ी मिलती है। पिछले १०० मे श्रमण सस्कृति का केन्द्र रहा है। यही कारण है कि वर्षों की लिखित सूचनाओं के माधार पर निश्चयपूर्वक भारत के
भारत के प्राचीन हिन्दू शास्त्रों में इस प्रदेश को अपवित्र कहा जा सकता है कि इनमें से हजारों बहुमूल्य ऐतिहा- एवं दूषित स्थान घोषित किया है। कही पर तो जैनियों सिक मूर्तियां प्रब लापता हो चुकी हैं। प्राचीन श्रावक को 'दानव' तक कह डाला है। वैसे तो दानव कहने की परिवारों के सुसंस्कृत एवं सभ्य नागरिक लुप्त हो चुके है, प्रथा ही ऐसी थी कि विरोधियो को दानव कह देना सहज जो कछ प्राज भी बचे है वे पिछड़े वर्ग के कहे जाते हैं था। प्राचीन कथानो मे मनुष्यों को दानव बना डालने एवं उन्हें हम श्रावक नहीं 'सराक' कहते है। यानी वह के उदाहरण भरे पड़े है। हम श्रावकों से भिन्न 'सराक' जाति के लोग माने
मानभूमि और सिहभूमि की जैन संस्कृति भी उसी जाते है।
धार्मिक वैमनस्य की शिकार हुई। अन्य धर्मावलम्बियों यह सारे दुर्भाग्य की कहानी जो कि अाज है, ई० के उत्पीडन के द्वारा बौद्धधर्म तो बिल्कुल ही इस प्रदेश सं० १३०. के लगभग तक वह ही हमारे गौरव का इति- ही क्या भारत से ही उखड़ गया। जैनधर्म उखड़ा तो हास था। इसे हम भूल चुके हैं।
नहीं, विखर अवश्य गया। ईसा के ६०० वर्ष पूर्व महावीर के पावन चरण से
भारत के प्रथम सम्राट चन्द्रगुप्त से लेकर सम्राट पवित्र ये भूमियाँ और श्रावकों से भरपूर इनके नगर और
सम्प्रति तक जैनधर्म को राज्याश्रय अखण्ड रूप से मिला। गाँव भाखिर केसे विखर गये?
परन्तु इन्ही मौर्य सम्राटों की शृखला में अन्तिम मौर्य ___ सम्राट अशोक और उनके पौत्र सम्राट् सम्प्रति के
राजा वृहद्रथ को उनके सेनापति पुप्यमित्र ने मार डाला काल तक इन स्थलों को हजारों जैन नगरियों और गाँव, और स्वयं मगध का शासक बन बैठा। मौर्य सम्राटों द्वारा जैन यति, मुनियों और श्रावक श्राविकानों द्वारा ससार दण्ड-समता और व्यवहार समता के ऐसे कड़े नियम बनाये के सारे वैभवों से भरपूर थे। जैनधर्म की पताका मगघ गए थे जिसके द्वारा ब्राह्मणों के लिए विशेष सरक्षण के से उत्कल प्रदेश एवं बंग देश तक फहराती थी। एक कानून दूर हो चुके थे। अन्दर ही अन्दर उनमे आग कथनानुसार महावीर स्वामी ने अपने तीर्थकाल का प्रथम सुलग रही थी परन्तु बलशाली सम्राटों के आगे उनकी चौमासा वर्षमान नगरी में बिताया था। यह प्राचीन कुछ चलती न थी। अवसर खोजने की क्रियाएं तो चल वर्षमान नगरी ही बंगाल का माधुनिक 'वर्दवान' है। रही थी, जिसे पुष्यमित्र ने पूरा कर दिया। तदुपरान्त इसके पूर्व प्राचीनतम काल में इस स्थान को प्रस्थिग्राम मौर्यो के सर्वधर्म समन्वय और सरक्षण के सिद्धान्तो की के नाम से जाना जाता था। वर्षमान महावीर के प्रथम बलि दी गई और पुष्यमित्र ने मगध से ही क्या, मानचौमासे का स्थल होने के कारण ही यह वर्धमान नगरी भूमि और सिंहभूमि से भी श्रमणों को मिटा देने में राज्य के नाम से मशहूर हो गया।
की सारी शक्ति लगा दी। ब्राह्मण अपनी विजय पर विषयान्तर तो हो रहा है, परन्तु इसी सदर्भ में यह दीवाने हो गये थे और पुष्यमित्र ने अत्याचार एवं दानसूचना भी कर दू.कि पिछले ३-४ मास से इस 'बर्दवान' वीय बृत्तियों द्वारा भीषण सहार किया। कहा जाता है का नाम फिर से 'वर्षमान' स्थापित करने का मैं प्रयास कि उसने पजाब के जलन्धर तक के जैनियो और बौद्धों
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भगवान महावीर और छोटा नागपुर
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के प्रसंख्य मठों और मन्दिरों को मिट्टी में मिला दिया। प्रकार श्रमण संस्कृति भारत से विनाश होने से बच गई।
उसी समय जब इस संसार की सूचना उत्कल सम्राट भारत के इतिहास में खारवेल अमर हो गया। वापसी खारवेल को मिली तो वह अत्यन्त दुःखी और क्रोधित काल मे उसने भग्न जैन चैत्यो और मन्दिरों का पुननिर्माण हना। उसने घोषणा की कि 'यद्यपि वह अहिंसा सिद्धान्त कराया। श्रावकों की वस्तियो को फिर से बसाने और का पोषक है फिर भी सत्य की रक्षा के लिए उसे युद्ध समृद्ध करने में अपार धन लगा दिया। मानमि और करना ही होगा।' 'हाथी-गुम्फा' के पत्थर पर उत्कीण सिंहभूमि श्री सम्पन्न हो गई। इतिहास में स्पष्ट हो जाता है कि खारवेल ने मगध पर ई० स० ७०० के निकट श्रावको द्वारा छोटा नागपर चढाई कर दी। वह मानभूमि के उसी श्रमण प्रदेश से के इलाको से व्यापार देश विदेशो मे बहत चलता था। होता हा मगध की ओर बढ़ा, जिस जैन भूमि का उत्कल (उड़ीसा) और बंगाल के समुद्र तटों से विदेश पूष्यमित्र ने संहार किया था। ज्यो-ज्यों वह पुष्यमित्र के व्यापार होता था। धीरे धीरे श्रावको नेताम्बे की खानों अत्याचार को देखता हैया मगध की ओर बढ़ा, उसका का इस प्रदेश में पता लगाया और सम्भवतः भारत में ये क्रोध बढ़ता ही गया।
पहले लोग थे जिन्होंने अपने हाथो से ताम्बे का उत्पादन सम्राट खारवेल की वीरता भारत क्या, विदेशो में किया और अत्यन्त उच्चकोटि तक अपनी कार्यक्षमता को भी प्रख्यात थी। गया के गोरठ-गिरी के पास ज्यों ही ले गए। उसकी सेना पहुँची सारे मगध राज्य में खलबली मच गई बगाल गजेटियर (Voj. xx) सिंहभूमि (१९०६) और मारे डर के पूष्यमित्र मगध छोड़ कर मथुरा की में अग्रज प्रा. मेल ने लिखा है जिससे स्पष्ट है कि सराक पोर भाग खड़ा हया। उस समय मथुरा का शासक ग्रीस नाम के पिछड़े वर्गों द्वारा (Copper) ताम्बा निकालने देश का डेमेट्रिपोस था। महान् सिकन्दर द्वारा मनोनीत
मनोनीत का ढग देखकर अत्यन्त पाश्चर्य उसे हुआ था बिना काममा खारवेल, पुष्य- मशीन के वे अपने हाथो से ही उवचकोटि का ताम्बा मित्र को खदेड़ता हुया मथुरा पा पहुँचेगा, सिकन्दर का उत्पादित करते थे। गवर्नर डेमेट्रिनोस भी मथुरा छोड कर भागा।
प्रो. मले के ५० वर्ष पूर्व डा० स्टोहर ने जो कि सम्राट खारवेल के शासन का यह १२वा साल था। स्वयं उच्चकोटि के इन्जीनियर थे लिखा है-ये लोग वह इस युद्ध मे उत्कल से इतने मारे हाथी लाया था कि जमीन की बहुत तह में जाकर काम नही करते; परन्त अपनी सारी सेना को उसने हाथी पर ही गंगा पार ताम्बा उत्पादन की क्षमता सराको की उत्तम है क्योंकि कराया था। 'हाथी-गम्फा' के लेख में यह भी बताया वे बिना किसी कल-पुर्ज के ही अपना कार्य सिद्धहस्त गया है कि मगध के सेनापति वहसतिमित्र को उसके होकर करते है। इनसे पूछने से मालूम होता कि सैकड़ों चरणो मे सर नवा कर क्षमा मांगनी पड़ी। उसने सम्राट् वर्षों से इनके घर यह धन्धा चला आ रहा था। खारवेल के चरणों पर अपार सुवर्ण एव जवाहरातो को सन् १८६८ में डा० बिल ने लिखा है- 'सराक नाम रखकर उसे प्रसन्न किया। उसी समय जैन सम्राट् खार- की एक जाति जो कि एक जमाने में इस प्रदेश के प्रधिवेल ने वर्षों पूर्व मगध के राजा नन्द के द्वारा अपहरण की पति थे, ताम्बा निकालने में अपूर्व क्षमता रखते होगे। हुई उत्कल राजघराने की भगवान प्रादिनाथ की श्री उन्होने इस प्रदेश के उन सभी स्थलों की खोज प्रत्यन्त सम्पन्न मूर्ति मगध राज्य से वापस ली। मगध से उत्कल बारीकी से की होगी जहाँ भी ताम्बा की खाने हैं क्योंकि तक मति के साथ की गई उसकी शोभा यात्रा कैसी अद्भुत ऐसे सारे स्थलो पर ताम्बा निकाले जाने के माघार हुई होगी उसका अनुमान सहज लगाया जा सकता है। मिलते है । प्राज भी उन्ही सराक जाति के प्रशिक्षित वर्ग
सम्राट खारवेल ने मगध की गद्दी पर लोभ नही द्वारा कही-कही ताम्बा निकाला जाता है।' किया। दुश्मन को उसने क्षमा अवश्य कर दिया। इस मेजर टिकेल ने १८४० ई० मे लिखा है-सरावक
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२७८ वर्ष २२ कि० ६
जाति, जो कि श्राज लगभग बिलकुल मिट चुकी है, एक जमाने में सिंहभूमि के स्वामी थे। उस समय उनकी बड़ी संख्या थी ओर वे समृद्ध थे। कहा जाता है कि वे सिकरा भूमि के निवासी थे । सरावकों के को आगे चलकर यहाँ से भगा दिया गया ।
अनेकान्त
कर्नल डानरल ने लिखा है - 'यह सर्व स्वीकृत है कि सिंहभूमि का भाग उन सरावकों द्वारा स्वामित्व में था, जिनकी कलाकृतियाँ उनके गौरव की गाथा आज भी बतलाती है । वे निश्चयपूर्वक उन श्रादि श्राय्यं सन्तति के थे जो कि सिंहभूमि और निकटस्थ मानभूमि में आकर बस गए थे । ये श्रावक जैन थे। सरावकों ने तालाब बहुत बनवाए ।'
भाज भी हजारों मील के इन सारे इलाकों मे ऐसे तालाबों की भरमार है जिन्हे सराक ताल कहते है । स्पष्ट है कि सरावकों द्वारा जन समुदाय की सुविधा के लिए तालाबों का निर्माण कराया गया था ।
प्राचीन मूर्तियो के प्राधार पर कोई पुरातत्ववेत्ता तो इन स्थानों की श्रमण संस्कृति को २००० वर्ष पूर्व तक ले जाते है यहाँ से प्राप्त बहुत सी पुरातत्व की सामग्रियाँ, पटना और उड़ीसा के म्युजियम की शोभा बढ़ा रही है। ई० सन् ११०० तक की प्राप्त मूर्तियों में प्रत्यन्त उच्चकोटि के शिल्प के दर्शन होते है । इसके उपरान्त एक ऐसा अन्तराल श्राता है जिससे यह लगता है कि श्रावक समुदाय इस स्थान से मिट सा गया। उनके घर द्वार, मन्दिर चैत्यों के विनाश की सम्भावना चोल नरेश राजेन्द्र चोल देव की सेना के द्वारा की जाती है। ई० १०२३ में राजेन्द्र चोलदेव जब बंगदेश के महिपाल को युद्ध मे हरा कर छोटानागपुर के मानभूमि प्रदेश से गुजर रहे थे तभी धर्मान्ध विजयी नरेश और उसकी सेना ने श्रमण संस्कृति को गहरी चोट पहुँचाई । पाण्डय वंशीय साम्राज्यवादी भी
नही चूके। लिंगायत शैवों का छोटा नागपुर में उदय और धर्मपरिवर्तन के उनके अभियान ने १३०० ई० में कुछ ऐसे कट्टर श्रमण द्रोही शक्तियों के श्रागमन का अवसर दिया जिससे देखते-देखते श्रमणों का अधिकार छोटा नागपुर से समाप्त हो गया ।
जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों को भैरव की मूर्ति के रूप में, घरणे- पद्मावति की मूर्ति को हर-पार्वती के रूप में पूजा जाने लगा । तंत्रवादी महायान शैवों ने अपना आतंक फैलाया और इस प्रकार हर तरीके से श्रमण संस्कृति की अद्भुत कला कृतियों, उनके रीति-रिवाजों आदि के समूल विनाश को पूरा किया जाने लगा ।
पाकवीर की तीर्थकर प्रतिमाओ को हिन्दू देवता बनाकर उनके समक्ष पशुओं की बलि कुछ वर्ष पूर्व तक चलती रही थी । बाहुवल भगवान की एक मूर्ति को आज भी भैरव की मूर्ति के रूप मे पूजा जा रहा है । तेल और रोली से उन्हे रंग दिया गया है ।
उस काल मे पाकवीर, चन्दन क्यारी, बलरामपुर, सिंहगुड प्रादि ऐसे स्थान थे जो संभवत: धर्म और व्यापार के जैन केन्द्र कहे जा सकते है ।
प्राज भी जमीन मे गड़े मन्दिर दीखते है जिनके शिखर कहीं-कहीं निकले दीखते है । भग्न मन्दिर टूटीफूटी और जहाँ तहाँ बिखरी तीर्थंकरों की प्रतिष्ठित मूर्तियां दीखती है । नष्ट हुए श्रावक ताल और श्रावक बिरादरी को उवारने के लिए फिर सभवतः किसी काल
आगामी तीर्थंकर को ही वहाँ जाना होगा या संभवतः कभी किसी खारवेल का उदय हो । प्राज के भारत में तो कोई ऐसा सामर्थ्यवान और श्रीमान वीर नहीं जो वर्धमान महावीर के श्री चरणों से पवित्र इस जैन भूमि या सिंह - भूमि के बचे खुचे सराकों और उनके प्राचीन गौरव के खण्डहरो की पुनः प्रतिष्ठित करा सके । ✰
सन् १६७९ की जनगणना के समय धर्म के ख़ाना नं. १० में जैन लिखा कर सही आँकड़े इकट्ठा करने में सरकार की मदद करें ॥
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जैन तीथकर की कुछ महत्वपूर्ण मृण्मूर्तियाँ
संकटाप्रसाद शुक्ल एम. ए. राज्य-संग्रहालय, लखनऊ मे जैन तीर्थंकर की दो माप "X" है। इसमें सिर भजाएँ एवं प्रधो-शरीर महत्वपूर्ण मृण्मूर्तियां संग्रहीत हैं। इनसे जैन कला एवं खण्डित है। तीर्थकर की इस मूर्ति मे श्रीवत्स चिन्ह भी मूतिविद्या (iconography) पर विशेष प्रकाश पडता है। है। यह मृण्मूर्ति मूलतः ध्यान मुद्रा मे रही होगी, क्योंकि इन मृणमूर्तियों का विवरण निम्न है :
भुजाएँ वक्ष से सटी न होकर वक्ष से अलग दिखलायी (अ) संग्रहालय की एक मृण्मृति अभिलिखित है जो गई हैं। शैली के प्राधार पर यह मुमति गुप्तकालीन खीरी जिले (उ० प्र०) के मोहम्दी नामक स्थान से उप- प्रतीत होती है । (चित्र २) लब्ध हुई है। इस पर तीन अक्षरों का अभिलेख है उपर्य क्त दो मण्मतियों के अतिरिक्त तीर्थकर की जिसमे 'सुपार्श्वः' शब्द उत्कीर्ण है। अभिलेख की लिपि एक और भी मण्मृति प्राप्त हुई है। यह तीसरी मृण्मूर्ति प्रारम्भिक गुप्तकालीन ब्राह्मी है। अतः अभिलेख के मिदनापुर (बंगाल) के तिल्दा नामक स्थान पर मिली आधार पर मृण्मूर्ति की पहिचान जैन तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ थी जो अब प्राशतोष संग्रहालय, कलकत्ता के संग्रह में से की जा सकती है (चित्र १)'। इस मृण्मूर्ति में है। इसमें तीर्थंकर का कायोत्सर्ग-मुद्रा में अंकन हुमा है। तीर्थकर की आकृति चतुर्भुजाकार फलक पर उभरी हुई प्राचीन भारतीय कला में जैन मण्मूर्तियों का प्रभाव है । वह ध्यान-मुद्रा मे बैठे है। मृण्मूर्ति में अंकित उनकी
है। अब तक उपरोक्त तीन मृण्मूर्तियां ही उपलब्ध हैं। प्राकृति एक युवक जैसी लगती है। उनका केश-विन्यास जैन मण्मतियों की कमी का उपयुक्त उत्तर पा सकना सीमन्त से लहरदार (तरंग युक्त) दिखलाया गया है। कठिन है। वैसे जैन तीर्थंकर की मण्मतियों के निर्माण यह विशेषोल्लेखनीय है कि जैन तीर्थंकर की मूर्तियों मे एवं पूजन के सम्बन्ध में कोई धार्मिक प्रतिबन्ध नहीं था। उन्हें प्राय: मुण्डित शिर दिखलाया जाता है । इस मृण्मूति जैन बहत्कथा कोष' के ज्ञानाचरण कथानकम् में अहिच्छत्रा में केश-विन्यास दिखलाया जाना सचमुच महत्व का ।
। सचमुच महत्व का के राजा वस्तुपाल द्वारा एक जैन मन्दिर (जिनायतन) है । उनके कानों में कुण्डल है। जैन तीर्थंकर सुपाश्वनाथ निर्मित कराने का उल्लेख मिलता है जो उस मन्दिर में का सिर सर्प फणों से आच्छादित दिखलाया जाता है। तीर्थकर पाश्र्वनाथ की मृणमूर्ति स्थापित कराना चाहता इस मन्मति में सिर के चारों ओर जो प्रभामण्डल है था। कारीगर उक्त मूर्ति बनाने में असफल रहे। अन्ततः उसकी प्राकृति एक फण के सदृश है। अतः संभव है कि
एक जैन उपासक मृणमूर्ति बनाने में सफल हुमा था। कलाकार का उद्देश्य प्रभामण्डल न दिखलाकर सर्प-फण
मण्मूर्ति-कला प्रायः लोक-जीवन की कला मानी जाती है। दिखलाना ही अभीष्ट रहा हो। उसके साथ ही इस मूर्ति
क्या जैनधर्म की मणमूर्तियों का प्रभाव इस धर्म के प्रति में वक्ष पर श्रीवत्स चिन्ह नहीं है।
लोगों की उदासीनता का सकेत है ? (ब) संग्रहालय की दूसरी जैन तीथंकर की मृण्मुर्ति
२. राज्य-संग्रहालय, स०६७.७ : के प्राप्ति-स्थान के विषय में जानकारी नहीं है। यह
३. इन्डियन मार्केप्रोलोजी १९६०-६१ ए रिन्यू, पृ०७० खण्डित मृण्मूर्ति है जो कबन्ध मात्र है। इस कबन्ध की
PI. LXXXG. १. राज्य-संग्रहालय, सं०, ५३-६६ (प्राकार ५॥"x ४. बृहत्कथाकोष, (सं०) डा० ए. एन. उपाध्ये, बम्बई, २॥")।
१६४४, कथानक सं० २०, पृ० ३५ ।
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आधुनिकता-आधुनिक और पुरानी
डा० प्रद्युम्नकुमार जैन यह सच है कि प्राधुनिकता स्वयं में कोई मूल्य नही बोध है । दृष्टि-बाध एक प्रकार से प्रात्म-बोध का परि. है, अपितु मूल्यों का अधिकरण है। वह मूल्यों की वन- चायिक है । अस्तु पात्म-बोध ही धर्म का केन्द्रविंदु है । स्थली है जो कालक्रम के साथ कभी मुरझाती, कभी प्रात्म-बोध का तात्पर्य है अपने ही अस्तित्व का बोध खिलती हई अस्तित्ववान है। या यं कहिए प्राधुनिकता अथवा सहानुभूति । स्वातिरिक्त किसी अन्य तत्व का, मूल्यों के चुनाव का एक इतिहास और चने हए मल्यों को चाहे वह कितना ही ऊंचा क्यों न हो, अस्तित्व-बोध उपाविभिन्न आयामों में देखने का एक दृष्टि-क्रम है । कुबेर देय नहीं है । उपादेयता का प्रतिफलन स्वानुभूति से ही नाथ राय के शब्दों में, "वास्तविकता फैशन से कहीं सम्भव है । स्वानुभूति अस्ति का स्वीकार है, अस्ति का गहरी और सूक्ष्म चीज है। यह एक दष्टि-क्रम है, एक स्वीकार ही उपादेय है और जो उपादेय है वही वस्तुतः बोध-प्रक्रिया एक संस्कार-प्रवाह है......एक खास तरह।
मानन्दकारी है । इस प्रकार स्वानुभूति अस्तित्व स्वीकृति का स्वभाव है......" यह संस्कार-प्रवाह काल-तत्व पर के रूप मे सत्य, उपादेय रूप मे शिव तथा प्रानन्द रूप मे तिरता हुमा भी काल-गत सीमानों से मुक्त अविछिन्न सुन्दर है। स्वानुभूतिपरक धर्म इस प्रकार सत्यं, शिव है। हां, इस प्रवाह के स्फति केन्द्र अवश्य यत्र-तत्र बिखरे सुन्दरम् का प्रतीक है। हैं जो इतिहास क्रम के मील-पढ़ से दष्टिगत होते है। मोक्ष जीवन का चरम मूल्य उद्घाटित हुप्रा । मुल्य ईसा से छ: सौ वर्ष पूर्व का काल उसी प्राधनिक भाव- के सामान्य अर्थ-बोध में जीवन की वह स्थिति प्राती है बोध का काल कहा जा सकता है जो प्राज अपनी पूरी- जो सत्य, शिव पोर सुन्दर की दृष्ट्या काम्य है । मोक्ष स्फूर्ति के साथ उभर कर ऊपर पाया है। भगवान महा- की सम्बोधना है, परन्तु उस चरम काम्यता का तात्पर्य
यहां केवल परोपजीवी तुष्टि-स्पृहा से ही नही है, अपितु निबन्ध मे उसी महावीर-कालीन एवं वर्तमान-कालीन वह कामना अथवा काम्यता से भी अत्यन्त निवृत्ति और माधुनिकता का एक तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करने का निर्वाध, अहेतुक अस्तित्व-बोध की चरम उपलब्धि । उप. प्रस्ताव है।
लब्धि और निवृत्ति के योगस्वरूप ही मोक्ष की स्थापना ईसा पूर्व की छटवी शताब्दी नवीन दृष्टि खोज की हुई । उपलब्धि स्वतत्व की अस्ति-सूचक भाव-भूमि का एक महत्वपूर्ण कड़ी है। धर्म तत्कालीन मनीषियों के लिए स्वीकार है, तथा निवृत्ति स्व में स्त्र के नास्तित्व प्रथवा एक दृष्टि-बोध है । वह कुछ पिटेपिटाये क्रिया-कलापों की पर के अस्तित्व का इन्कार है। अतः मान्य हुआ, कि नुमायश भर नही है। इसी धर्म-रूपी नवीन दृष्टि की स्वोपलब्धि के रूप में जीव या प्रात्मा का अस्तित्व है खोज मे पुराण कश्यप, अजित केशकम्बलि, पकुछ कच्छा- तथा निवृत्ति के रूप मे जीव या प्रात्मा का अस्तित्व है यन, संजय बेल ट्रिपुत्त, मक्खलि गोशाल प्रादि अनेक यथा- तथा निवृत्ति के रूप मे अजीव या अनात्मा का नास्तित्व कथित तीर्थंकरों ने प्राधुनिकता की पयस्विनी के स्रोत पर है। अब व्यावहारिक रूप में उपलब्धि की उत्क्रान्ति परिश्रम किया। सभी के प्रयासों में एक बात जो सामान्य निवृत्ति की प्राचारिक भूमिका पर निर्भर करती है, रूप से मुखर थी, वह थी-पुरातन के प्रति विद्रोह अथवा क्योंकि निवृत्ति नास्तित्व के निषेध की एक प्रक्रिया है। पुराने मूल्यों के प्रति सम्पूर्णतः मोह-भंग । नात्तपुत्त महा- चूंकि स्वोपलब्धि के लिए स्वेतर सब कुछ अनुपादेय है, वीर ने उक्त तीर्थकरों के अपूर्ण अभियान अथवा छट. और अनुपादेय का त्याग ही निवृत्ति है। अस्तु निवृत्तिपटाती पात्माभिव्यक्ति को एक निश्चितता प्रदान की। रूपा स्वोपलब्धि अत्यन्त त्याग की एक स्थिति है। त्याग महावीर ने एक महत्वपूर्ण घोषणा की, कि धर्म एक दृष्टि- इसीलिए महावीर से दृष्टि-बोधीय दर्शन में चरम मूल्य के
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माधुनिकता-माधुनिक और पुरानी
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अर्जन की एक मात्र भूमिका है।
प्रक्रिया का प्राधान्य है। इस परम्परा-मुक्ति मान्दोलन त्याग, यदि वास्तविक रूप में देखा जाए, प्रात्मान्वे- के पीछे स्व की मौलिकता की छटपटाहट है। निश्चय षण की तीव्र यन्त्रणा का अहसास भर है। कोई वस्तु
ह। काइ वस्तु जीवन की यह छटपटाहट व्यवहार के अनेक प्रतिमानों,
हो हमसे भौतिकतः कितनी दूर है-त्याग के लिए इसका .
प्रतीकों और रेखाचित्रों में व्यक्त है। और इस प्रकार कोई अधिक मूल्य नहीं, बल्कि हमारे अन्दर किसी वस्तु के
यह जीवन के सम्पूर्णत्वादि को जी लेने का एक जीवंत कितने दूर होने का अहसास है और उस अहसास मे
उपक्रम है। महावीर ने भी इसीलिए किसी भी धर्म-ग्रन्थ कितनी दृढता है-यह है त्याग का वास्तविक मापदण्ड ।
अथवा ईश्वरादिव्य अस्तित्व को अपने धर्म-प्रवर्तन का त्याग हमारे अस्तित्व के प्रसंसारीकरण की प्रक्रिया है ।
प्राश्रय-दाता नहीं माना। स्वतन्त्र और मौलिक मात्मऔर मोक्ष त्याग की प्रात्यन्तिक अवस्था है। मोक्ष की
प्रक्रिया को अनात्म के सम्पूर्ण त्याग के द्वारा ही सम्भव स्थिति इस प्रकार परिपूर्ण अससार की स्थिति है । व्यावहारिक रूप से मोक्ष स्व के निषेध (अनात्मा) के निषेध
स्वीकारा। यही से आधुनिक भाव-बोध का इतिहास
प्रारम्भ हो जाता है। की प्रात्यन्तिक स्थिति है। व्यवहार-धर्म इसी निवृत्ति
प्राधुनिक भाव-बोध का परम वैशिष्ट्य उसका प्रधान त्याग और तपस्या का धर्म होता है। मोक्ष रूपी
यथार्थवादी दृष्टि-बोध है। यथार्थवादी दृष्टि-बोध का चरम मूल्य के अर्जन हेतु व्यवहार-धर्म के लिए इसके अलावा कोई दूसरा विकल्प सम्भव ही नहीं।
सीधा-सा तात्पर्य है ज्ञान के विभिन्न मायामों का उचित परमार्थ अथवा, जैनो के पदानुसार, निश्चय धर्म समादर । ज्ञान के यदि मोटे से दो मायाम यथा, ऐन्द्रिक स्वोपलब्धि की सम्यक् व्यवस्था है। परन्तु वह स्वोपलब्थि एव अतीन्द्रिक मान ले तो स्पष्ट होता है, दोनों ही व्यवहार धर्म की निवृत्ति से कोई स्वतन्त्र अवस्था नहीं। प्रायामों की सापेक्षा मूल्यवानता है। कोई भी पायाम निवत्ति अथवा त्याग, जैसा कि कहा प्रात्मान्यषण की ऐकान्तिक रूप से न तो सत्य है और न ही प्रसत्य । नीव्र यत्रणा का अहसास है, तो निश्चय स्वोपलब्धि उक्त प्रत्येक की वैधता जो एक ताकिक प्रक्रिया मात्र है प्रपनीअहसाम का एक अहेतुक अहसास भर है। यहाँ तक कि अपनी भूमिका पर निर्भर करती है। भूमिका से तात्पर्य मोक्षावस्था मे जब एक ओर परिपूर्ण असंसार का प्रह- उसकी ताकिक आधार-भूमि से है जिससे कोई वैध कहा सास है तो उसी में दूसरी ओर उक्त अहसास का एक जाने वाला वचन नि.सत होता है और प्रामाणिक मान्य अहेतुक अहसास भी मंलग्न है। ऐसी अवस्था में प्रसंसार होता है। इस प्रकार यथार्थ-बोध किसी भी सत्य का रूपी ज्ञान को क्षायिक ज्ञान और अहसास के अहेतुक सापेक्ष मूल्याकन मात्र है। इस मूल्याकन में सत्य की अहमास रूपी ज्ञान को केवल-ज्ञान की संज्ञा दी गई। तात्विकता का हानि-लाभ नहीं, अपितु उसका निरंतर व्यवहार और निश्चय धर्म इस प्रकार एक-दूसरे के परि- आयामी-करण होता है। वस्तु-सत्य एक पायाम से एक पूरक है, क्योंकि व्यवहार धर्म में ही असमार का अहसास और गहरे अथवा व्यापक पायाम मे अतर्भूत होता जाता है और निश्चय धर्म उसी अहसास का एक अहेतुक ग्रह है। महावीर ने प्रात्म-ज्ञान के पांच मायामो का निर्देशन सास है । बिना अहसास के अहेतुक अहसास सम्भव नहीं किया-मति, श्रुत, अवधि, मन.पर्यय एव केवल । पांचों और बिना अहेतुक अहसास के प्रससार का अहसास कोई प्रायाम उत्तरोत्तर गहरे और व्यापक हैं, जिनमे प्रत्येक मानी नहीं रखता। इसीलिए परिपूर्ण जीवनप्रणाली पूर्ववर्ती पायास का अपने उत्तरवर्ती मायाम मे समाहार निश्चय और व्यवहार-धर्म का समन्वय ही कही जाएगी। है। मति में प्रात्मानुभूति की जो उपलब्धि होती है
प्रआधुनिकता की प्र-अनुभूति वस्तुतः निश्चय जीवन- श्रुतादि में वह निराकृति नही हो जाती है, अपितु उनके प्रणाली की एप्रोच है। इसमें स्वेतर सम्पूर्ण मान्यताओं, व्यापक प्रायामों का एक अभिन्न अंग बन जाती है। मर्यादाओं मौर परम्पराओं का निषेध अथवा निवृत्ति भाव छोटा सा उदाहरण है, कि हमने अपने मति-ज्ञान से सामने निहित है। मोह-भग के रूप मे वहां प्रसंसारीकरण- पड़े हुए वस्तु-सत्य को समाचार-पत्र मान्य किया। यह
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२८२ वर्ष २२ कि. ६
अनेकान्त
समाचार-पत्र का होना श्रुत से केवल-ज्ञान पर्यत वैसा ही अहिंसा के सर्वोच्च अवतार हैं पर के अनुराग से अम्न बंध है जैसा कि मति-ज्ञान मे था। हा, यह हो सकता है हैं ? वस्तुत: अहिंसा-तत्व को अनुराग और करूणा से कि अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान रूपी प्रतीन्द्रिय संयोजित करना ही भूल है। अहिंसा निस्संगता की ही ज्ञान में वही वस्तु-सत्य समाचार-पत्र के साथ-साथ कुछ पर्याय है। क्योंकि हिंसा, यदि वस्तुतः देखा जाये, राग मौर भी दिखाई पड़ने लगे। उसकी अनेकानेक गुण द्रव्य का परिणाम है। बस राग-वृत्ति का निषेधी-करण ही गत पर्यायें समवेत रूप से विषयगत हो जाये, परन्तु उस वीतगगता है। और वीतरागता अहिंसा है। न मारना सम्पूर्ण जटिल एवं व्यापक दृष्टि-बोध मे मति-ज्ञान के तो उक्त वीतरागता का प्रतिफलन है । वीतरागता प्रात्मएक लघु कण का अनस्तित्व नही हो सकता । इस प्रकार दष्टि मात्र है। अहिंसा उसी प्रात्म-दृष्टि की प्रक्रिया है । वस्तु-सत्य के प्रत्येक प्रायाम मे दूसरे पायाम का तात्विक अहिंसक के लिए किसी का मरना या जीना दोनों बराबर समादर यथार्थ दृष्टि-बोध की जान है। जनो ने इस हैं। अहिंसक के पास तो एक साफ दष्टि है, जिससे वह स्याद्वाद तथा अनेकान्तवाद और आज के भी अनेकानेक वस्तू सत्य के स्वतः होने वाले परिणमन का यथा रूप मनीषियों ने विभिन्न नामो से प्राधूनिक भाव-बोध के अवलोकन करता है। वह किसी परिणमित क्षण का कता अन्तर्गत मान्य किया है।
नही, दृष्टा होता है। संसार के प्रत्येक परिणमित क्षण का इसी यथार्थवाद के परिणामस्वरूप वस्तु-सत्य की
वैसा ही निदर्शन कर देना और उसे किसी गहरे तात्विक प्रत्येक पर्याय का प्रत्येक क्षण यथार्थतः भोग्य हो गया।
निषेध से संयोजित कर देना प्राधनिक भाव-बोध का तकइस प्रकार चिन्तक अथवा साहित्यकार के लिए प्रत्येक
* नीक है, जो महावीरके अहिंसा-बोधका ही दूसरा नाम है । क्षण एक विशेष महत्व को लिए प्रकट हुअा। वस्तु सत्य अहिंसा-बोध में वस्तू-सत्य का सम्यक समादर है। अपनी सम्पूर्ण तात्विकता के साथ शृखला-बद्ध क्षणों की
वस्तु-सत्य वही है जो अस्तिमय है । अतः अस्तित्व अथवा, सारिणी में प्रकट हुमा देखा जाने लगा। क्षण की उपा
जैन पदावली मे, सत्ता की प्रत्येक पर्याय समादरणीय है । देयता अथवा अनुपादेयता अलग चीज है, लेकिन प्रत्येक
देश, काल, भाव. द्रव्य प्रादि अनेक अपेक्षामो से पर्यायो क्षण है...यह मान लेना महत्वपूर्ण हो गया। महावीर ने
की विविधता अनन्तरूपा बनती है। ये अनन्तरूप सत्ताणुएं कहा-धर्म के लिए मान लेना पहले आवश्यक है कि
अपने कार्मिक क्षयोपशम की शक्ति से उत्थित और विलुप्त पाप भी है, प्रात्मा भी है और अनात्मा भी है, ससार भी
होती हुई अहिंसा के शुद्ध ज्ञान का विषय बनती है। है और मोक्ष भी है, आदि-ऐसे वैपरित्य युगल के
अहिसक अपने पूर्ण निस्सग भाव से इन सत्ताणुप्रो का अस्तित्व को स्वीकार कर ही पाप का, आत्म-बोध का,
स्वभाव मात्र अवलोकित कर निज स्वभाव की उपलब्धि मोक्ष का प्रगीकार और विरोधी का निषेध किया जा
में संलग्न रहता है। इस निज स्वभाव की उपलब्थि का सकता है । जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं, उसका निषेध
व्यावहारिक परिणमन है अतर्जीवीकरण, जो लेखक के भी कैसा। महावीर ने इसीलिए तत्कालीन सभी सम
दृष्टि-कोण मे राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय, मानवीयकरण के भी स्यानों का यथार्थ दर्शन कर उन्हें उपादेयोन्मुखी किया।
बाद का सोपान है। प्राज जबकि हम केवल इन प्रारदास-प्रथा, आर्थिक असमानता, यौन सम्बन्ध, शोषण
म्भिक सोपानों में ही भटक रहे है, महावीरकालीन माधुमादि सभी समस्याओं पर उनका निश्चित दृष्टिकोण है।
निकता इन सबको लांघ चुकी थी, लेकिन कालान्तर में प्राधुनिकता के इस प्रथम दौर मे एक महत्वपूर्ण वही पतनग्रस्त होकर केवल सम्प्रदायीकरण के सोपान मुद्दा और है-अहिंसा । अहिंसा का साधारणतः अर्थ है पर आ बैठी। अब हमारे पास भविष्य में यह माशा 'न मारना'। 'न मारने' मे पर के निमित्त अनुराग और करने का यथेष्ट प्राधार उपलब्ध है, कि प्रात्म-बोध की करुणा की प्रतीक होती है। क्या करुणा मोह-भंग दर्शन इस प्राधनिक प्रक्रिया का विकास जीवन के प्रत्येक पहलू की निस्संमिता से कोई मेल खाती है ? क्या तीर्थकर जो में उत्तरोत्तर होता ही चला जाएगा।
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राजस्थान के जैन सन्त मुनि पद्मनन्दी
परमानन्द जैन
राजस्थान भारतीय जैन संस्कृति का प्राचीन समय थे। विशुद्ध सिद्धान्त रत्नाकर और प्रतिभा द्वारा प्रतिष्ठा मे केन्द्र रहा है। राजस्थान मे निमित अनेक गगनचुम्बी को प्राप्त हुए थे। उनके शुद्ध हृदय में अभेदभाव से विशाल एवं कलापूर्ण जिन मन्दिर उसकी शोभा को प्रालिङ्गन करती हुई ज्ञान रूपी हंसी प्रानन्दपूर्वक क्रीड़ा दुगणित कर रहे है। यहां से सहस्रो जिन मूर्तियो का करती है । स्यावाद सिन्धुरूप प्रमत के वर्धक थे। जिन्होंने निर्माण और उनका प्रतिष्ठादि कार्य सम्पन्न हुआ है। जिनदीक्षा धारण कर जिनवाणी और पृथ्वी को पवित्र अनेक महापुरुषो ने यहाँ जन्म लेकर राजस्थान की कीर्ति किया था। महाव्रती पुरन्दर तथा शान्ति से रागांकुर को दिगन्त व्यापी बनाने का यत्न किया है। यहाँ अनेक दग्ध करने वाले वे परमहस, निर्ग्रन्थ पुरुषार्थशाली, अशेषमुनि पुगव प्राचार्य, भट्टारक और विद्वान हुए है । जिन्होने शास्त्रज्ञ सर्वहित परायण मुनिश्रेष्ठ पपनन्दी जयबन्त रहे ।' जैन धर्म की पताका को उन्नत मे पूरा सहयोग प्रदान इन विशेषणो से पानन्दी की महत्ता का सहज ही बोष किया है। राजस्थान मे अनेक महानुभाव दीवान जैसे हो जाता है। इनकी जाति ब्राह्मण थी। एक बार प्रतिष्ठा राज्यकीय उच्चपदों पर प्रतिष्ठित रहे है। और राज्य- महोत्सव के समय व्यवस्थापक गृहस्थ की अविद्यमानता मे श्रेष्ठी तथा कोषाध्यक्ष भी रहे है। जिनमे से कुछ ने प्रभाचन्द्र ने उस उत्सव को पट्टाभिषेक का रूप देकर प्रात्म-साधना के साथ जनसाधारण की भलाई करने मे
पद्मनन्दि को अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित किया था। इनके अपने जीवन का उत्सर्ग कर दिया है। अनेक सन्तो और पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का समय पट्टावली में सं० १३८५ विद्वानो के उपदेश से जनसाधारण में प्रात्म-हित की पौष शुक्ला सप्तमो बतलाया गया है। वे उस पट्ट पर भावना प्रकट हुई है। जन सन्तो ने विविध प्रकार के स० १४७३ तक तो पासीन रहे ही हैं, इसके अतिरिक्त साहित्य की सष्टि कर जैन सस्कृति का विस्तार किया है। और कितने समय तक रहे यह कुछ ज्ञात नही हुमा, भोर और साहित्य का सकलन तथा उसकी सुरक्षा का भी कार्य न यह ही ज्ञात हो सका कि उनका स्वर्गवास कहाँ और किया है। जैन विद्वानो ने बिना किसी स्वार्थ के सत्
१. श्रीमत्प्रभाचन्द्रमुनीन्द्रपट्टे साहित्य की सृष्टि कर तथा सस्कृत-प्राकृत के प्रथों का
शश्वत प्रतिष्ठा प्रतिभागरिष्टः । हिन्दी गद्य-पद्य में अनुवादित कर जन मानस में जैन धर्म
विशुद्धसिद्धान्तरहस्यरत्न रत्नाकरा नदतु पयनन्दी ॥ के अहिंसा तत्त्व का प्रचार व प्रसार किया है। दूसरी
-शुभन्द्र पट्टावली प्रोर अनेक जैन वीरो ने राज्य की सुरक्षा के हित प्रात्म- हंसो ज्ञान मरालिका सम समाश्लेष प्रभूतामृता । बलिदान किया है, और उसकी समृद्धि बढ़ाने में अपने नन्द क्रीडति मानसेति विशदे यस्या निशं सर्वतः । कर्तव्य का पालन किया है । प्राज इस छोटे से लेख द्वारा
स्याद्वादामृत सिन्धु वर्धन विधी श्रीमत्प्रभेन्दु प्रभाः । राजस्थान के एक जनसेवी सन्त का संक्षिप्त परिचय दे
पट्टे सूरि मतल्लिका सजयतात् श्री पद्मनन्दी मुनिः । रहा है जिसने अपने जीवन का समग्र बहुभाग जैन संस्कृति
महावत पुरन्दरः प्रशमदग्घरोगांकरः। के साथ लोक में शिक्षा का प्रादर्श उपस्थित किया है और
स्फुरत्परम पौरुषः स्थितिरशेष शास्त्रार्थ वित् । अपने विशुद्ध निर्मल पाचार द्वारा जनता में नैतिक बल
यशोभर मदोहरी कृत समस्त विश्वम्भरः । का संचार किया है।
परोपकृति तत्परो जयति पद्मनन्दीश्वरः। जैन सन्त पद्मनन्दो भट्रारक प्रभाचन्द के पट्टधर शिष्य
-शुभचन्द्र पट्टावली।
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२८४, वर्ष २२ कि०६
अनेकान्त
कबहमा है? कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि शिष्य थे ही, किन्तु प्रापके अन्य तीन शिष्यों से भट्टारक पद्मनन्दी भट्टारक पद पर १४६५ तक रहे हैं । इस सम्बध पट्टों की तीन परम्पराएं प्रारम्भ हुई थी, जिनका प्रागे में उन्होंने कोई पुष्ट प्रमाण तो नही दिया, किन्तु उनका शाखा प्रशाखा रूप में विस्तार हुआ है । भट्टारक शुभचन्द्र केवल वैसा अनुमान मात्र है। प्रतएव इस कयास मे कोई दिल्ली परम्परा के विद्वान थे। इनके द्वारा 'सिद्धचक्र' की प्रामाणिकता नही है। क्योंकि संवत् १४७३ की पद्मकीर्ति कथा रची गई है। जिसे उन्होंने सम्यग्दष्टि जालान के पार्श्वनाथ चरित की लिपि प्रशस्ति से स्पष्ट जाना जाता लिए बनाई थी। भ. सकलकीति से ईडर की गद्दी की है कि पपनन्दि उस समय तक पट्ट पर विराजमान थे। स्थापना हुई थी। चूकि पद्मनन्दी मूलसघ के विद्वान थे, जैसा कि उक्त प्रशस्ति के निम्न वाक्य से प्रकट है :- अत: इनकी परम्परा में मूलसंघ की परम्परा का विस्तार ___"कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री रत्नकीर्तिदेवास्तेषा । हुआ। पद्मनन्दि अपने समय के अच्छे विद्वान, विचारक पट्टे भट्टारक श्री प्रभाचन्द्रदेवा तत्पट्ट भट्टारक श्री पद्म- और प्रभावशाली भट्रारक थे। भ० सकलकीर्ति ने इनके नन्दिदेवास्तेषां पट्ट प्रवर्तमाने।"
पास आठ वर्ष रहकर छन्द, काव्य, व्याकरण, कोष, धर्म (मुद्रित पार्श्वनाथ चरित्र प्रशस्ति) दर्शन, साहित्य और कला आदि का ज्ञान प्राप्त किया था इससे यह भी ज्ञात होता है कि वे दीर्घ जीवी थे। और कविता में निपुणता प्राप्त की थी। भट्टारक सकलपट्टावली में उनकी प्राय निन्यानवे वर्ष अट्राईस दिन की कीर्ति ने अपनी रचनायो में उनका सम्मानपूर्वक उल्लेख बतलाई गई है। और पटकाल ६५ बर्ष पाठ दिन किया है। पद्मनन्दि केवल गद्दीधारी भट्टारक ही नही थे, बतलाया है।
अपितु जैन सस्कृति के प्रचार एव प्रसार मे सदा तन्मय यहाँ इतना और प्रकट कर देना उचित जान पडता रहते थे। है कि वि० सं० १४७६ में प्रसवाल कवि द्वारा रचित पद्मनन्दि प्रतिष्ठचार्य भी थे। इनके द्वारा विभिन्न 'पासणाह चरिउ' में पचनन्दि के पद पर प्रतिष्ठित होने स्थानों पर अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा की गई थी। जहा वाले शुभचन्द्र का उल्लेख निम्न शब्दों में किया गया है- वे मत्र-तंत्रवादी थे वहा वे प्रत्यत विवेकशील और चतुर 'ततो पट्टवर ससिणामें, सुहससिमुणिपय पंकम चंदहो।' थे। आपके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तिया विभिन्न स्थानो के चंकि सं० १४७४ में पचनन्दि द्वारा प्रतिष्ठित मतिलेख मन्दिरों में पाई जाती है। पाठकों की जानकारी के लिए उपलब्ध है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि पद्मनन्दि ने दो मूर्तिलेख नीचे दिए जाते हैं:सं० १४७४ के बाद और सं० १४७६ से पूर्व किसी आदिनाथ-प्रों संवत १४५० वैसाख सुदी १२ समय शुभचन्द्र को अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित किया था। गूरी श्री चाहुवाण वंश कुशेशय मार्तण्ड सारवै विक्रमन्य ___ कवि मसवाल ने कुशात देश के करहल नगर मे श्रीमत सरूप भूपान्वय कुडदेवात्मजस्य भूषज शक्तस्य श्री सं० १४७१ में कवि हल्ल या जयमित्र हल्ल द्वारा रचित
सुवसृपथैः राज्ये प्रयर्तमाने श्री मलसंघे भ. श्रीप्रभाचन्द्र
सुवसृपथः राज्य प्रयतमान श्रा मूलसघ 'मल्लिणाह' काव्य की प्रशंसा का भी उल्लेख किया है। देव तत्प? श्री पद्मनन्दि देव तदुपदेशे गोला राडान्वये ..। उक्त ग्रंथ भ. पद्मनन्दि के पट्ट पर प्रतिष्ठित रहते हुए
(भट्टारक सम्प्रदाय पृ० ६२) उनके शिष्य द्वारा रचा गया था । कवि हरिचन्द ने
२ अरहंत-हरितवर्ण कृष्णमूर्ति-सं० १४६३ वर्षे अपना वर्षमान काव्य भी लगभग उसी समय रचा था। माघ सुदि १३ शुके श्री भूलसंघे पट्टाचार्य श्री पद्मनन्दि इसी से उसमें कवि ने उनका खुला यशोगान किया है- देवा गोलाराडान्वये साधु नागदेव सुत......। (इटावा के 'पद्मणंदि मुणिणाह गणिदह, चरण सरणु गुरु कइ हरिइंदहु।' ३ श्री पचनन्दी मुनिराज पट्टे शुभोपदेशी शुभचन्द्र देवः ।
(वर्षमान काव्य) श्रीसिद्धचक्रस्य कथाऽवतारं चकार भव्यांबुज । मापके अनेक शिष्य थे, जिन्हें पद्मनन्दि ने स्वयं शिक्षा
भानुमाली ॥ देकर विद्वान बनाया था। भ० शुभचन्द्र तो उनके पट्टधर
-(जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० भा०१पृ०८८)
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राजस्थान के जैन सन्त मुनि पद्मनन्दी
जैन मूर्ति लेख ) प्राचीन जैन लेख संग्रह पृ० ३८ । ऐतिहासिक घटना
भ० पद्मनन्दि के सान्निध्य में दिल्ली का एक संच गिरनार जी की यात्रा को गया था। उस समय श्वेताम्बर सम्प्रदाय का भी एक सघ उक्त तीर्थ की यात्रार्थ वहाँ आया हुआ था। उस समय दोनो संघो मे यह विवाद छिड़ गया कि पहले कौन वन्दना करे। जब विवाद ने तूल पकड़ लिया और कुछ भी निर्णय न हो सका तब उसके शमनार्थं यह युक्ति सोची गई कि जो संघ पाषाण की सरस्वती से अपने को 'आद्य' कहला देगा वही सघ पहले यात्रा कर सकेगा । अतः भट्टारक पद्मनन्दि ने पापाण की सरस्वती देवी के मुख से 'प्राय दिगम्बर' कहला दिया, इसमे विवाद के सुलझने में उस समय सहायता मिली। चूंकि इस विवाद का निर्णय मुनि पचन के द्वारा हु था । पद्मनन्दि ने पापाण की सरस्वती देवीक मुख से आय दिगम्बर' शब्द कहला कर दिगम्बर पहने है अतः वे पहले ऊर्जयन्त गिरि की यात्रा करें। ऐसा निश्चित होने पर दिगम्बरों ने पहले तीर्थ यात्रा की अगरान नेमिनाथ की भक्ति पूजा की । उसके बाद श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने । उसी समय से बलात्कार गण की प्रसिद्धि मानी जाती है। बे पद्य इस प्रकार है:
पद्मगुरु
बलात्कारगणाग्रणी पायाणघटिता येन वादिना श्री सरस्वती ॥ ऊर्जयत गिरौ तेन गच्छः मरस्वतौऽभवत् ।
अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नम श्रीपद्यनन्दिन ॥ यह घटना ऐतिहासिक है जो पद्मनन्दि के साथ घटित हुई है । पद्मनन्दि नाम साम्य के कारण कुछ विद्वानो ने कुन्दकुन्दाचार्य से इस घटना का सम्बन्ध जोड दिया था। वह गलत है । यह घटना प्रस्तुत पद्मनन्दि के समय घटी है । इससे भ० पद्मनन्दि के मत्र-तत्रवादी होने की पुष्टि होती है।
रचनाएं
भ० पद्मनन्दि की अनेक रचनाएं होगी, जिनमें देवशास्त्र, गुरुपूजन संस्कृत, सिद्धपूजा संस्कृत धौर दो तीन रचनाएँ इन्ही पद्मनन्द की हैं या अन्य पद्मनन्दि की, यह विचारणीय है। इन रचनाओं में पद्मनन्दि के अतिरिक्त
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प्रभाचन्द्र का कोई उल्लेख नही है। जब कि अन्य रचनाओं मे प्रभाचन्द्र का भी उल्लेख उपलब्ध होता है । ऐसी रचनाएं श्रावकाचारसारोद्धार, वर्धमान काव्य, जीरापन्ति पार्श्वनाथ स्तोत्र मोर भावना चतुविशति ।
श्रावकाचार सारोद्वार संस्कृत भाषा का पद्यबद्ध ग्रंथ है उसमे तीन परिच्छेद है जिनमे धावकधर्म का विवेचन किया गया है। इस ग्रंथ के निर्माण मे प्रेरक लंब कचुक कुलान्वयी (लमेच वंशज) साहू वासाघर' है । उनके पितामह का भी नामोल्लेख हुआ है । जिन्होने
'सूपकारसार' नामक ग्रंथ की रचना की थी। यह ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है, विद्वानो को उसका अन्वेषण करना चाहिए। इस ग्रंथ की अन्तिम प्रशस्ति मे साहू वासाघर के परिवार का अच्छा परिचय कराया गया है। और बतलाया गया है कि गोकर्ण के पुत्र सोमदेव जो राजा अभयचन्द श्रोर जयचन्द के समय प्रधानमन्त्री थे । सोमदेव की पत्नी का नाम प्रेमसिरि था उससे सात पुत्र उत्पन्न हुए थे । वासाघर, हरिराज, प्रहलाद, महराज, भवराज, रतनारव्य, और सतनारव्य । इनमे ज्येष्ठ पुत्र वासाघर सबसे अधिक बुद्धिमान, धर्मात्मा और कर्तव्यपरायण था इसकी प्रेरणा और प्राग्रह से ही मुनि पद्मनन्द ने उक्त श्रावकाचार की रचना की थी। वासाधर ने चन्द्रवाड में एक जिन मन्दिर बनवाया था और उसकी प्रतिष्ठा विधि भी सम्पन्न की थी। कवि धनपाल के शब्दों में वासाघर सम्यकत्वी, जिन चरणों का भक्त जैन धर्म के पालन में तत्पर, दयालु, बहुलोक मित्र, मिध्यात्व रहित तथा विशुद्ध वित्त वाता था। भ० १ श्रीग्यकेनुकुल पद्य विकासभानुः, सोमात्मजो दूरितदारुचयकृशानुः धर्मसाधन परो भुविभव्य वन्धुवासावरो विजयते गुणग्रन सिन्धुः
बाहुबली पारित सचि ४ २. जिणणाह चरण भत्तो जिणधम्मपरो दयालोए । सिरि सोमदेव तणो णंद बामणिच ।। सम्मत्त जुतो जिणपाय भत्ता दयालु रतो बहुतोय भिसो मिच्छत्तचतो सुविसुद्ध वितो वासाधरो मंद पुण्णवित्तो ॥ बाहवली चरित सं० ३
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२६६, वर्ष २२ कि०६
अनेकान्त
प्रभाचन्द्र के शिष्य धनपाल ने भी सं० १४५६ मे चन्द्र- विशति इन दोनों स्तवनों के कर्ता भी उक्त पद्मनन्दी वाडनगर में उक्त वासाधर की प्रेरणा से अपभ्रंश भाषा ही है। शेष रचनाए अन्वेषणीय है। मे 'बाहुवली चरित' की रचना की थी।
पद्मनन्दि ने अनेक देशों, ग्रामों, नगरों आदि मे दूसरी कृति वर्षमान काव्य या जिन गत्रि कथा है। विहार कर जनकल्याण का कार्य किया है, लोकोपयोगी जिसके प्रथम सर्गमें ३५६ और दूसरे सग मे २०५ पद्य पाये साहित्य का निर्माण तथा उपदेशों द्वारा सन्मार्ग दिखलाया जाते हैं। जिनमें पन्तिम तीर्थंकर महावीरका चरित अकित है। इनके शिष्य-प्रशिप्यो से जैनधर्म की महती सेवा हुई किया गया है। किन्तु ग्रन्थ रचनाकाल नहो दिया, जिससे है। वर्षों तक साहित्य का निर्माण, शास्त्र भंडारों का उसका निश्चित समय बतलाना कठिन है। इस ग्रन्थ की सकलन और प्रतिष्ठादि कार्यों द्वारा जैनधर्म और जैन एक प्रति जयपुर के पार्श्वनाथ दि. जैन मन्दिर मे अव- सस्कृति के प्रचार में बल मिला है। इसी तरह के अन्य स्थित है जिसका लिपि काल सं० १५१८ है । और दूसरी अनेक सत है जिनका परिचय भी जन साधारण तक नही प्रति स० १५२२ की लिखी हुई गोपीपुरा सूरत के शास्त्र पहुंचा है। इसी दृष्टिकोण को सामने रखकर पद्मनन्दि भडार में सुरक्षित है । इनके अतिरिक्त 'प्रनत व्रत कथा' का परिचय दिया गया है। चुकि पद्मनन्दि मूलसंघ के भी भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य पद्मनन्दि की बनाई हुई उप- विद्वान थे, वे दिगम्बर रहते थे और अपने को मुनि कहते लब्ध है, जिसमे ८५ श्लोक है।
थे। और यथाविधि तथा यथाशक्य माचार विधि का जीरापल्लि पार्श्वनाथ स्तवन और भावना चतु- पालन कर जीवन यापन करत थे।
पता
'अनेकान्त' के स्वामित्व तथा अन्य व्योरे के विषय में प्रकाशक का स्थान
वीर सेवा मन्दिर भवन, २१ दरियागज दिल्ली प्रकाशन की अवधि
द्विमासिक मुद्रक का नाम
प्रेमचन्द राष्ट्रीयता
भारतीय पता
२१, दरियागज, दिल्ली प्रकाशक का नाम
प्रेमचन्द, मन्त्री वीर सेवा मन्दिर राष्ट्रीयता
भारतीय
२१, दरियागज, दिल्ली सम्पादक का नाम
डा० मा. ने. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट्, कोल्हापुर डा० प्रेम सागर, बडौत यशपाल जैन, दिल्ली
परमानन्द जैन शास्त्री, दिल्ली राष्ट्रीयता
भारतीय पता
मार्फत वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागज, दिल्ली। स्वामिनी संस्था
वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली मै प्रेमचन्द घोषित करता है कि उपरोक्त विवरण मेरी जानकारी और विश्वास के अनुसार सही हैं। १७-२-७०
ह.प्रेमचन्द (प्रेमचन्द)
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नरेन्द्र सेन के० भुजबलो शास्त्री विद्याभूषण
श्रीमान प०दरबारीलालजी कोठिया द्वारा सम्पादित सम्बन्ध में शिवमोग्गा जिलान्तर्गत नगर तालका केहोंतज 'माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थ माला के ४७वे ग्रन्थ के ३५वे शिलालेख मे "राजमल्ल-देवगे गुरुगले निसिद के रूप में प्रकाशित 'प्रमाण प्रमेयकलिका' नामक संस्कृत कनकसेन भट्टारकर वरशिष्यर शब्दानुशासनक्के प्रक्रियेयेन्द्र न्यायग्रन्थ प्राचार्य नरेन्द्रसेन के द्वारा रचित है। इस ग्रन्थ रूपसिद्धिय माडि दयापालदेवरू" यह उल्लेख मिलता है। की प्रस्तावना में कोठिया जी ने ७ नरेन्द्रसेनो का उल्लेख इस शिलालेख का काल ई० सन् १०५० है । इसमे प्रतिकिया है। इनमें से प्रथम और द्वितीय नरेन्द्रसेन एक पादित दयापाल और न्यायविनिश्चयविवरण की प्रशस्ति व्यक्ति, तृतीय नरेन्द्रसेन एक व्यक्ति, चतुर्थ पचम षष्ट में प्रतिपादित दयापाल एक ही व्यक्ति ज्ञात होते है । ऐसी नरेन्द्रसेन एक व्यक्ति और सप्तम नरेद्रसेन एक व्यक्ति परिस्थिति मे दयापाल वादिराज और नरेन्द्रसेन ये तीनों कहे गये है। इस प्रकार चार नरेन्द्रसेनो का नामोल्ने ख समकालीन मालम होते है। करके इनमे से अन्तिम अर्थात् सप्तम नरेन्द्रमन को प्रमाण
अब नरेन्द्रसेन से सम्बन्ध रखने वाले शिलालेख को प्रमेय कलिका का रचयिता मानकर इनका समय शक स० देवे । धारवाड जिलान्तर्गत गदग तालुक, मुलगंद के ई० १६७३ वि.सं.१८०८ बतलाते हए इन्ही को कोठियाजी ने सन् १०५३ का शिलालेख नरेन्द्रसेन के शिष्य नयसेन के उपयुक्त न्यायग्रन्थ का प्रणेता निर्धारित किया है। सम्मुख लिखवाया गया दानशासन है। इसमें नरेन्द्रसेन
कोठियाजी ने प्रथम नरेन्द्रसेन के सबध में अपनी को वैयाकरणी बतलाया है । वह पद्य इस प्रकार है : प्रस्तावना मे लिखा है कि वादिराजसूरि रचित 'न्याय
चाद्र कातत्र जनंद्र शब्दानुशासन पाणिनी म । विनिश्चय विवरणातर्गत अन्तिम प्रशस्ति के विद्यानन्द- जैन्द्र नरेन्द्रसेनमुनीन्द्रगेकाक्षर पेरगिवु भोग्गे।। मनतवीर्यसुखदम्' इस द्वितीय पद्य मे बादिराज ने विद्यानंद, इस शिलालेख में गुरु नरेन्द्रसेन के साथ शिष्य नयरोन अनंतवीर्य, पूज्यपाद, दयापाल, सन्मतिसागर (मतिसागर) की बड़ी प्रशसा है। शिलालेख मे नयसेन को "समस्तकनकसेन और स्वामी समंतभद्र-सदृश समर्थ प्राचार्यों की शब्दशास्त्रपारावारपारंगत" बतलाया है। इसमे चालुक्य पक्ति मे नरेन्द्रसेन का नाम उल्लेख करके उनकी निर्दोष राजा लोक्यमल्ल प्रथम रामेश्वर के सधिविग्रही एवं नीति को भक्ति से स्मरण किया है। साथ ही साथ इस नयसेन के शिष्य बेल्देव के प्रार्थनानुसार शिंद कंचरस के सम्बन्ध मे दूसरा कोई साधन प्राप्त न होने के कारण द्वारा मुलगुद जिनालय को प्रदत्तदान का विस्तृत वर्णन कोठियाजी ने वादिराज द्वारा ही रचित पाश्र्वनाथचरिता- है। पूर्वोक्त नयसेन ने कन्नड मे २४ प्राश्वासो से युक्त र्गत प्रशस्ति मे प्रतिपादित शक वर्ष ६४७ (ई. सन् 'धर्मामत' नामक एक कथा प्रथ की रचना की है। बल्कि १०२५) को उधत करते हुए न्यायविनिश्चयविवरण की यह ग्रन्थ हिन्दी में अनुवादित होकर पारा से प्रकाशित भी प्रशस्ति में उल्लिखित नरेन्द्रसेन को वादिराजसूरि से पूर्व- हो चुका है । नपसेन भी गुरु नरेन्द्रसेन की तरह वैयाकरणि वर्ती बतलाया है। पर वादिराज की प्रशस्ति मे प्रतिपादित थे। पर उनका व्याकरण अभी तक उपलब्ध नही हुमा है। सभी विद्वानों को वादिराज से पूर्ववर्ती मानना युक्तिसगत तो भी सस्कृत में 'भाषाभूषण' नामक कन्नड व्याकरण को नहीं होगा । क्योंकि उनमे से कम से कम कतिपय विद्वान रचने वाले द्वितीय नागवर्म (ई० सन् लगभग १२४५) ने अवश्य उनके समकालीन भी रहे होंगे।
अपने इस व्याकरण ग्रन्थ के ७४वे सूत्र में 'दी|क्तिनंय. वादिराज के गुरु, कनकसेन के शिष्य दयापाल के सेनस्य' इस रूप मे नयसेन का उल्लेख अवश्य किया है ।
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२८८, वर्ष २२ कि.६
भनेकान्त
नयसेन के द्वारा धर्मामत का समाप्तिकाल नदन मव. पूजित गुणचन्द्र पंडितदेव के द्वारा मुनि नरेन्द्रसेन को त्सर युक्त 'गिरिशिखिवायुमार्गशशिसख्या' शक वर्ष बत- सवात्सल्य त्रविद्यचक्रवर्ती की उपाधि दी जाने का उल्लेख लाया गया है । इस हिसाब से धर्मामृत का समाप्निकाल करते हुए नयसेन ने अपने धर्मामृत मे इन नरेन्द्रसेन को शकवर्व १०३७ सिद्ध होता है । पर इसमे एक बाधा 'महावागीश' बतलाया है। हमे नयसेन का नाम सर्वप्रथम यह है कि नंदन संवत्सर शकवर्ष १०३७ म न पाकर ई. सन् १०५३ के मुलगद के शिलालेख में ही मिलता शकवर्ष १०३४ में पाता है। शकवर्ष १०३४ का ई० सन् है। मुलगुद शिलालेख के इस १०५३ के समय में २५ १११२ होता हैं । अस्तु नयसेन ने अपने धर्मामृत मे स्वगुरु कम कर देने मे ई० सन् १०२८ होता है। ऐसी स्थिति नरेन्द्रसेन के तप और श्रुत की प्रशसा करते हुए अपने को मे मुलगुंदे का यह शिलालेख ही नरेन्द्र सेन को वादिगज समग्र तर्कशास्त्र की शिक्षा प्रदान करनेवाले बतलाया है। का समकालीन सिद्ध करता है। पूर्वोक्त सभी बातो को साथ ही साथ नयसेन ने गुरु नरेन्द्रसेन को सिद्धात मे ध्यान में रखकर बिचार करने पर 'प्रमाणप्रमेयकलिका' प्राचार्य जिनसेन से शास्त्र पाण्डित्य में पूज्यपाद से और के रचयिता यही नरेन्द्रसेन मालम होते है। प्राशा है कि षट् तर्क में समन्तभद्र से बढकर बतलाया है।
मित्रवर डा० दरबारीलालजो कोठिया इस विषय पर फिर चालुक्यचक्रवर्ती भुवन कमल्ल द्वितीय सोमेश्वर से अवश्य विचार करेंगे।
रामपुरा के मंत्री पाथूशाह
डा० विद्याधर जोहरापुरकर
मध्यप्रदेश के मन्दमौर जिले मे रामपुरा एक पुरातन दुर्गराज और चन्द्रराज की सेवा में मुख्य मंत्री के पद पर शहर है । यहाँ पाथूशाह की बावड़ी नाम का एक कुमा नियुक्त हुए थे। लेख मे दुर्गराज की विस्तृत प्रशसा है। इसकी दीवाल में लगी हुई गिला पर तथा समीप मिलती है। इन्होने कई युद्धों में विजय पाई थी, दुर्ग के स्तंभ पर दो संस्कृत शिलालेख है। भारत सरकार के सरस् तालाब खुदवाया था तथा पिगलिका नदी पर बांध पुरातत्त्व विभाग द्वारा प्रकाशित ग्रन्थमाला एपिग्राफिया बनवाया था। चन्द्रराज की वीरता की भी लेख में प्रशंसा इण्डिका के भाग ३६ में पृ० १२१ से १३० तक ये लेख मिलती है। लेख का उद्देश पाथूशाह द्वारा उपर्युक्त कुएं छपे है । इन्हीं का सक्षिप्त परिचय यहाँ दे रहे हैं। के (जिसे लेख में दीपिका कहा है) निर्माण का वर्णन
करना है। यह लेख संवत १६६३ मे लिखा गया था। रामपुरा (जिसे लेख मे दूषणारिपुर भी कहा है) मे
कुएं का निर्माण सूलधार रामा की देखरेख में हुआ था। बघेरवाल जाति के ५२ गोत्रो मे एक सेठिया गोत्र के
लेख मे पाथशाह के अन्य धर्मकार्यों का भी वर्णन है। संघई नाथू रहते थे । इनके पुत्र स० जोगा थे (इन्हे लेख उन्होंने पूजा, प्रतिष्ठा रथ यात्रा आदि का प्रायोजन में योग भी कहा है)। रामपुरा के चन्द्रावत वशीय राजा किया था तथा इसी लिए राजा ने उनका अभिनन्दन भी अचलदास ने इन्हे अपनी मेवा में नियुक्त किया था। किया था। प्रस्तुत लेख का पूर्ण पाठ जैन शिलालेख सग्रह इन्होंने एक जिन मन्दिर बनवाया था। इनके पुत्र सं० भा० ५ मे भी संगृहीत किया है जो शीघ्र ही भारतीय जीवा और जीवा के पुत्र स० पाथ हए । (लेख मे पाथ ज्ञानपीठ की भोर से माणिकचन्द दि. जैन ग्रन्थमाला में का संस्कृत रूप पदार्थ लिखा है)। ये अचलदास के वशज प्रकाशित होने जा रहा है।
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अमरकीर्ति नाम के आठ विद्वान
परमानन्द जैन शास्त्री
जैन वाङमय का पालोडन करने से यह सुनिश्चित है। इनके समय का समर्थन संवत् १३०७ के एक शिलाजान पडना है कि एक नाम के अनेक विद्वान होते रहे है। लेख से भी होता है । उदाहरण के लिए अकलक, प्रभाचन्द और पद्मनन्दि तीसरे अमरकीति वे है जिनके शिष्य माघनन्दी प्रती प्रति के नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन नामो के अनेक पौर शिष्य भोगराज सौदागर थे। भोगराज ने शक विद्वान विभिन्न समयो मे हा है। इसी तरह अमरकीति सं० १२७७ (वि० स० १४१२) मे शान्तिनाथ की प्रतिमा नाम के भी कई विद्वान दृष्टिगोचर होते है।
प्रतिष्ठित कराई थी। एक अमरकीति पट् कर्मोपदेश के कर्ता है जो भट्टारक चौथे अमरकीति-व है जो कलिकाल सर्वज्ञ धमचन्दकीति के शिष्य थे। अमरकीति ने महीयद देश के भूपण के शिष्य थे और जिनका उल्लेख शक स. १२६५ 'गोध्रा' नगर के चालुक्य वशीय कृष्ण (कण्ह) के राज्य का में लिखे गये श्रवण बेल्गोल के शिलालेख नं० १११ उल्लेख किया है। इसका कारण व गुजगतके निवामी जान (२७४) में पाया है। पडते है। यह माथुर सघ के विद्वान अमितगति द्वितीय की
पाचवे प्रमरकीर्ति वादी विद्यानन्द के शिष्य थे। परम्परा मे हुए है । यह अपभ्रंश भाषा के प्रौढ विद्वान थे।
जिनका उल्लेख शिलालेख न०४६ मे हमा है। इनका इनकी अपभ्रश भाषा की दो कृतियाँ उपलब्ध है। इन्होने
चा हा एक यमकाष्टक स्तोत्र अनेकान्त वर्ष १० कि० अपना नेमिनाथ पुराण स० १२४४ मे बना कर समाप्त
१ मे प्रकागित हुआ है। इस स्तोत्र के अन्त में कवि ने किया था। उसके तीन वर्ष बाद स० १२४७ मे षट्कर्मो
'देवागमाल कृति' नाम की रचना का भी उल्लेख किया पदेश की रचना हुई है। इसमे गृहस्थ के पट्कर्मो का
है। इस कृति की कोई उपलब्धि नहीं हुई जिससे उसके सुन्दर विवेचन दिया हुआ है। १४ सघी और २१५ कड़
सम्बन्ध में कुछ लिखा जा सके । मुख्तार श्री जुगलकिशोर वक है जिनकी श्लोक सख्या २०५० प्रमाण है। दशवी
जी ने इनका समय विक्रम की १६वीं शताब्दी बतलाया है। सधि में जिन पूजा पुरंदर विधि कथा दी हुई है। पुरदर विधान कथा, अलग रूप में भी उपलब्ध होती है। इनकी
छठवे अमरकोति भ० मल्लिभूषण के शिष्य थे। निम्न रचनाएँ-महावीर चरिउ, जसहर चरिउ, धर्म- मल्लिभूषण मालवा के पट्ट पर आसीन थे। इन्ही के समचरित टिप्पण, सुभाषित रत्ननिधि, धर्मोपदेश घूडामणि, कालीन विद्यानन्द पार श्रुतसागर थ । इन अमरकोति की झाण पईव नाम की रचनाएँ अनुपलब्ध है।
एक कृति जिन सहस्रनाम की सस्कृत टीका है, जो भट्टारक
विश्वसेन के द्वारा अनुमोदित है। चूकि मल्लिभूषण और दूसरे अमरकीति 'वर्धमान' के प्रगुरु थे। इनकी गुरु परम्परा देवेन्द्र, विशालकीति, शुभकीर्ति, धर्मभूषण, १ अध्येप्टाऽऽगम मध्यगोप्ट परम शब्द च युक्ति विदां । अमरकीर्ति, .... घर्मभूषण और वर्धमान । वर्धमान ने चक्रं यः परशील-वदि-मदभिद्दे वागालंकृतिम् ।। शक स० १२६५ बैशाख सुदी ३ बुधवार को धर्मभूषण
-अनेकान्त वर्ष १० कि० १, पृ. ३ की निषद्या बनवाई थी थी। इस शिलालेख के अनुसार २ मल्लिभूषण शिष्येण भारत्यानन्दनेन च । अमरकीति का समय शक सं० १२५० के पास-पास का सहस्रनामटीकेयं रचिताऽमरकीतिना ।। जान पड़ता है। इनका समय ईसा की १४वी शताब्दी
-जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० १, पृ. १४६
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२६० वर्ष २२ कि०६
अनेकान्त
प्रतसागर का समय विक्रम की १६वी शताब्दी है, अतः इन का भाष्य भारतीय ज्ञारपीठ से प्रकाशित हो चुका है। प्रमरकीति का समय भी १६वीं शताब्दी होना चाहिए। उस ग्रन्थ की पुष्पिका में उन्हें विद्य महा पण्डित और शब्द
सातवे अमरकीति वे है, जिनका उल्लेख दशभक्त्यादि वेधसी बतलाया है। भाष्य को देखने से वे विवध ग्रन्थों महाशास्त्र के रचयिता वर्षमान ने किया है। जो विद्या- के अभ्यासी ज्ञात होने है। मन्द के पुत्र विशालकीति के सधर्मा अमरकीति थे। जिन्हे 'इति महापण्डित श्रीमदमरकीतिना विद्येन श्री सेन्द्र शात्र कोविद विमलाशय, कामजेता, निर्मल गुण और धर्म वंशोत्पन्नेन शब्दवेधसा कृताया धनजय नाम मालायां के प्राश्रय तथा जिनमत के प्रकाशक बतलाया है। जैसा प्रथमकाण्ड व्याख्यातम् ।' कि ग्रन्थ के निम्न उद्धरण से स्पष्ट है
प्रस्तुत कोष ग्रन्थ का भाष्य लिखते हए अमरकीति ने जीयावमरकोाखभद्रारक शिरोमणिः ।
परम भट्टारक यशःकीति अमरसिंह, हलायुध, इन्द्रनन्दी, विशालकोति योगीन्द्र सधर्मा शास्त्र कोविदः॥
सोमदेव, सोमप्रभ, हेमचन्द्र और प्राशाधर आदि के नामों अमरकीति मुनि विमलाशयः कुसुमन्यायमदाचलवभत्। का उल्लेख करते हुए, महापुराण, सूक्तमुक्तावली, हमीजिनमतापहतारितमाश्च यो जयति निर्मल धर्म गुणाश्रयः॥ नाममाला यशस्तिलक. इन्द्रनन्दि का नीतिसार और पाशा
विशालकीर्ति के पिता विद्यानन्द का स्वर्गवास शक घर के महाभिषेक पाठ का नामोल्लेख किया है। इनमें सं० १४०५ सन् १४८१ मे हुआ था।
सोमप्रभ १२वीं, हेमचन्द्र १२-१३वी और पाशाधर ने पाठवें अमरकीति ऐन्द्र वंश के प्रसिद्ध विद्वान थे जो सं० १३०० मे अनगार धर्मामृत की टीका पूर्ण की है। 'विद्य' कहलाते थे। यह अपने समय के अच्छे विद्वान इससे भाष्यकार अमरकीति स. १३०० के बाद विद्वान जान पड़ते है। इनका बनाया हुआ धनंजय की नाममाला ठहरते है।
संस्कृत सुभाषितों में सज्जन-दुर्जन
लक्ष्मीचन्द्र जैन 'सरोज' एम. ए. साहित्यरत्न चूकि दुनिया दूरगी है, अतएव उसमे जहाँ दिन के सत्संग का और दुर्जनों से दूर रहने का भी भाव रहा। साथ रात है और फल के साथ शूल है, वहां वादी के साथ सज्जन-दुर्जन के वर्णन की भांति सुभाषितों का भी प्रयोग प्रतिवादी और पक्षी के साथ प्रतिपक्षी भी है। जहाँ काफी मात्रा में संस्कृत और हिन्दी के ग्रन्थो मे पाया मिलन के साथ विरह है और सुख के साथ दुःख है, वहाँ जाता है। पर सस्कृत ग्रन्थों के मुभाषित जितने सक्षिप्त शिष्ट के साथ प्रशिष्ट है और सज्जन के साथ दुर्जन भी सरल सहज ग्राह्य और भाव व्यजक तथा लोकप्रिय हुए है। यों दुनिया का नाम सार्थक है। कारण, उसमे पग- है, उतने हिन्दी ग्रन्थों के नहीं। वैसे कबीर की साखियाँ, पग पर दो नीति वाली वृत्ति लक्षित होती है।
तुलसी-रहीम-वन्द प्रादि के नीति मूलक दोहे भी जनता इतिहास, अर्थ और महत्व :
की जबान ने काफी कंठस्थ किये है। संस्कृत और हिन्दी के कतिपय महाकाव्यों में सज्जन- संस्कृत के सुभाषित शिष्ट-संयत-मुरुचिपूर्ण हैं। इस दुर्जन का वर्णन कुछ कवियो मे किया और उसमे लोक- लिए मि० वेकटाचलम् के शल्दों में 'पडित मडली' मे ऐसे संग्रह की भावमा जहाँ रही, वहाँ प्रकारान्तर से सज्जनों के असल्यास अज्ञात कवियों की सैकड़ों-हजारों फुटकर रच.
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संस्कृत सुभाषितो में सज्जन-दुर्जन
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नाये 'सुभाषित' के नाम से जनश्रुति-प्रवाह मे बहती पाई प्रथम वयसि पीत तोयमल्पं स्मरन्तः, है। सुभाषित शब्द का अर्थ है 'सुष्ठु भाषितम्' अर्थात् शिरसि निहित भारा नारिकेला नराणाम् । सुन्दर ढग से कहा हुमा। अतएव सुभाषित शब्द से उन उदकममृतकल्प दद्युराजीवितान्तम्, समस्त रचनायो का निर्देश होता है, जहाँ एक फुटकर न हि कृतमपकारं साधवो विस्मरन्ति ।। पद्य में किसी विषय का सरस प्रतिपादन किया जाता है।
सज्जन पुरुष ही सज्जनो की आपत्ति को दूर करने इनमे से अधिकाश नीति के बोधक होते है । मुभाषितों के में समर्थ है। कीचड में फंसे हुए हाथियों को निकालने मे भी ममह मिलते है। सुभापितों को स्मरण किये बिना तो
श्रेष्ठ हाथी ही समर्थ है, अन्य नही। इस हृदयस्थ भाव मस्कृत भाषा-माहित्य का अध्ययन-अध्यापन अपूर्ण ही
को एक कवि ने यो व्यक्त किया है। रहता है। सच तो यह है कि मुभापितो में जीवनदायी
सन्त एव सतां नित्यमापदुद्धरण क्षमाः । अनुभूतियो के तत्व विखरे है।
गजानां पंकमग्नानां गजा एव घुरन्धराः॥ इसलिए संस्कृत भाषा और सुभापितो के सम्बन्ध में
मज्जनी की सगति का प्रभाव अमोघ होता है। वह एक मुकवि ने जो बात कही है, वह शत प्रतिशत सही है।
पूरुषो के लिए क्या नहीं करती? सभी कुछ यथासंभव भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाण भारती।
करती है। सत्सगति, बुद्धि की जडता दूर करती है, वाणी तस्माद्धि काव्यं मधुर तस्मादपि सुभाषितम् ॥
मे सत्य वा सचार करतो है। सम्मान और उन्नति को भाषामो मे मुख्य और मधुर देव-वाणी (संस्कृत
देती है, पाप को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न करती है भाषा) है और उसमे भी काव्य मधुर है तथा उससे भी
और दशो दिशामो में कीति का विस्तार करती है। यह सुभाषित मधुर सुखद है।
बात एक कवि के शब्दो मे यो स्मरण कीजियेगासज्जन
जाड धियो हरति, सिञ्चति वाचि सत्यम् । सज्जनो में पाये जाने वाले गुणो का समावेश प्रस्तुत ।
मानोन्नति दिशति, पापमपाकरोति ।। श्लोक मे हुया है। विपदि घर्यमथाभ्युदये क्षमा,
चेत: प्रसादयति, दिक्षु तनोति कीतिम् । सदसि वाक्यटुता यधि विक्रमः।
सत्सगतिः कथय कि न करोति पुंसाम् ॥ यशसि चाभिरतियसनं श्रतो,
सच तो यह है कि सज्जन पुरुष पुण्य और पीयूष से प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ।।
परिपूर्ण होते है । वे तीनो लोको का उपकार कर प्रसन्न सज्जन पुरुष विपत्ति में धंयवान् और सर्वतोमुखी होते है । दूसरो के परमाणु जैसे गुणो को पहाडो के रूप अभिवद्धि में क्षमाशील होते है। वे सभा में उच्चकोटि के मे देखने का स्वभाव होता है अतएय अपने मन ही मन में देवता होते हैं और युद्ध क्षेत्र में अद्वितीय साहसी । यश के प्रतीव स्वस्थ और सन्तुष्ट रहने वाले राज्जन पुरुष कैसे लिए उनकी लालमा होती है और शास्त्र-श्रवण, तत्वचर्चा होते है ? यह कह सकना अब सम्भव ही नही रह गया मे सुरुचि । यह मज्जनों का जन्मसिद्ध अधिकार है। है। यह बात एक कवि ने यों कही है___ मज्जनों का स्वभाव नारियल के समकक्ष होता है। मनसि वचसि काये पुण्यपीयष पूर्णाः, जैसे प्रारम्भिक अवस्था में पिलाये गये पानी को जटामों त्रिभुवन उपकारणिभिः प्रोणयन्तः । का बोझ धारण करने वाला नारियल नहीं भुला पाता है।
परगुण परमाणून पर्वतीकृत्य नित्यम्, और बदले में जीवन भर अमृत तुल्य पानी देता है, वैसे
निजहृदि विकसन्तस्सन्ति सन्त. कियन्तः॥ ही सज्जन पुरुष भी कभी किसी के उपकार को भूलते नहीं हैं। यह बात सस्कृत के एक सुकवि ने इस प्रकार
दुर्जन कही है
सज्जन के विरोधी दुर्जन मे कौन-कौन से गूण पाये
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२६२, वर्ष २२ कि०६
अनेकान्त
जाते है। यह जानने के लिए आप संस्कृत के सुकवि का बोषितोऽपि वह मुक्ति विस्तरः, निम्नलिखित श्लोक पढिये
कि खलो जगति सज्जनो भवेत । प्रकरुणत्वमकारणविग्रहः,
स्नापितो बहुशो नदी जलः, परधने परयोषिति च स्पृहा ।
गर्वभ. किम हयो भवेत् ॥ सुजन बन्धु जनेष्वसहिष्णुता,
बहुत सी मुन्दर सूक्तियो द्वारा समझाये जाने पर प्रकृतिसिद्धमिदं हि दुरात्मनाम्॥
क्या दुष्ट व्यक्ति ससार मे सज्जन हो सकता है ? नहीं, अर्थात् निर्दय होना, बिना कारण लडाई-झगडा करना,
कद पि नही । गघे को कितनी नदियों के जलसे स्नान क्यों दूसरे का धन चाहना, दूसरे की स्त्री की इच्छा करना,
न कराया जाय पर वह घोडा बनने वाला नहीं । गधा तो सज्जन बन्धुप्रो के प्रति असहनशील होना, यह तो दुर्जनो
गधा ही रहेगा। का जन्म सिद्ध अधिकार है । ___ यदि आप दुर्जनों को पहिचानना चाहे तो नीचे
और तो और दर्जन से प्रेरित व्यक्ति सज्जनो का लिखा श्लोक पढे
वैसे ही विश्वास नही करते है, जैसे दूध का जला बालक मुख पदलाकारं वाचा चन्दनशीतला ।
दही या छाछ को भी फक-फक कर पीता है। यह बात हृदयं क्रोध संयुक्तं त्रिविधं धूतलक्षणम् ॥
एक कवि ने श्लोक मे यो प्रथित की है।
दुर्जन दूषित मनसा पुंसा, सुजनेऽपि नास्ति विश्वास । कमल के पत्ते जैसा मुख, चन्दन जैसी शीतल वाणी
बालः वायस दग्धो दध्यपि फुत्कृत्य भक्षयति ॥ और क्रोधयुक्त हृदय, इत तीन लक्षणों से किसी भी धूर्त या दुर्जन को पहिचाना जा सकता है ।
सज्जन-दुर्जन दुर्जन व्यक्ति अपने नही दूसरों के ही दोष देखता है। सज्जनों और दुर्जना के कार्य को बतलाने के लिए यह बात सस्कृत भाषा के एक सस्कृत कवि ने इस प्रकार एक मुन्दर श्लोक हैकही है।
अन कुरुतः खल सुजनावग्रिम पाश्चात्य भागयोः सच्याः । खलः सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति ।
विदधाति रन्ध्रमेको गणवान्यस्त विदधाति ।। प्रात्मनो विल्व मात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ।।
अर्थात् सुई के अगल-पिछले भागो के समान दुर्जन दुष्ट व्यक्ति दूसरो के तो सरसों के दाने जैसे भी
और सज्जन काम करते है। सूई का अगला भाग दुर्जन दोष देख लेता है पर अपने बेल जैसे भी बड़े दोष देखता जमा करता है और पिटला भाग सज्जन जैसा उस हुप्रा भी नही देखता है।
___ छेद को बन्द करता है। इसलिए उसकी प्रकृति को बदलना असम्भव है।
दूसरे शब्दों मे 'दुर्जन पुरुष वह मिट्टी का घडा है जैसे नीम का पेड़ घी-दूध से बार-बार सीचे जाने पर भी ।
जिसे तोडना जितना सरल है जोडना उतना ही जटिल है अपनी कटुता को नहीं छोड़ता है, वैसे दुर्जन व्यक्ति भी
और सज्जन पुरुष वह सोने का घडा है, जिसे तोड़ना बहुत बार सेवा किये जाने पर भी, सज्जनो के सम्पर्क मे
+ सम्पक म कठिन है पर जोड़ना अतीव सरल है। यह बात प्राप प्राने पर भी अपनी दुर्जनता को नहीं छोडता है। यह बात एक कवि के शब्दों मे यो हृदयंगम कीजियेआप एक कवि के शब्दो में यो स्मरण रखिए
मृदुघटवत् सुखभेद्यो दुःसन्धानश्च दुर्जनो भवति । न दुर्जनः सज्जनतामुपैति, बहुप्रकारैरपि सेव्यमानः -
सुजनस्तु कनक घटवत् दुर्भधश्चाश सन्धयः॥ भूयोऽपि सिक्तः पयसा घृतेन, न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति ॥
सज्जनों और दर्जनो को मित्रता के सम्बन्ध मे एक दुर्जन को बदलना असम्भव ही है। यह बात एक बड़ा ही सुन्दर श्लोक संस्कृत वाङ्मय में मिलता है और दूसरे कवि ने और भी अच्छे ढंग से यों कही है
वह यह है
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संस्कृत सुभाषितों में सज्जन-दुर्जन
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प्रारम्भ गुरू यिणी क्रमेण,
बीतता है पर मूखों का समय बुरी आदतो, लड़ाई-झगडों लघ्वी पुरा वृद्धिमुपैति पश्चात् ।
और निद्रा में बीतता है'।' चौथे ने अपनी अनुभूति की दिनस्य पूर्षि पराध भिन्ना,
अभिव्यक्ति करते हुए कहा-'फल वाले वृक्ष झुकते है। छायेव मंत्री खल सज्जनानाम् ।।
गुणवान व्यक्ति नम्र होते है परन्तु सूखे वृक्ष और मूर्ख दुर्जनों की मित्रता प्रातःकालीन छाया सी है, जो
कभी भी नही भुकते है। सज्जनों और दुर्जनो के सम्बन्ध प्रारम्भ में बहुत बड़ी होती है पर कुछ काल बाद बारह
मे जो आकाश और पाताल जैसा अन्तर है, उसे निष्कर्ष
स्वरूप पाँचवे कवि के शब्दों में सक्षेप मे यो कहा जा बजते ही समाप्त हो जाती है और सज्जनो की मित्रता अपरान्ह कालीन छाया सी होती है, जो प्रारम्भ में बहुत
सकेगा-'महापुरुषो के (सज्जनों के) मन-वचन और
कार्य में एक रूपता पाई जाती है पर दुराचारियों के कम होती है और छह-सात बजे तक बराबर बढती ही
(दुर्जनों के) मन-वचन और कार्य में विविधता की ही विशेजाती है।
षता पाई जाती है।' सज्जनो और दर्जनो के स्वभाव मे जो विरोध पाया
सज्जनों और दर्जनों के प्रादि स्रोत जैसे साधनो को जाता है तथा उनका प्रत्येक बात को तौलने का, सोचने
हिन्दू धर्मग्रन्थों के अादिदेव भगवान् शंकर ने भी धारण समझने का जो दृष्टिकोण रहता है, उसे सस्कृत के सु
कर रखा है, उनके जीवन दृष्टिकोण से भी हम और प्राप कवियो ने अच्छी तरह समझाने का प्रयत्न किया है ।
शिक्षा ले तथा सज्जन-दुर्जन को यथोचित स्थान दे और जदाहरण के लिए एक ने कहा है-'दर्जन व्यक्ति की
स्वय शकर जो जैसे ही निर्विकार निलिप्त होकर रहेविद्या विवाद के लिए होती है और धन घमड करने के
जैसे सज्जनता के प्रतीक चन्द्रमा को शकर जी ने शीर्षस्थ लिए तथा शक्ति दूसरो को पीडित करने के लिए परन्तु सज्जन की विद्या ज्ञान के लिए होती है और धन परोप
स्थान दिया और दुर्जनता के प्रतीक विष को कण्ठ मे कार के लिए तथा शक्ति दूसरो की रक्षा के लिए। स्थान दिया (उसे न जबान पर रखा और न पेट मे ही
सनतासा कि दर्जन व्यक्ति शरदकालीन वाटल स्थान दिया क्योकि इससे विकृति की सम्भावना थी) वैसे के समान है, जो गरजता है पर बरसता नही है, वह कहता ही ममाज के लोग सज्जन-दुर्जन को स्थान दे। तो है पर करता नही है पर सज्जन व्यक्ति वर्षाकालीन गुण दोषौ बुधो गृहणन्निन्दुक्ष्वेडाविवेश्वरः। बादल के समान है, जो बिना आवाज किये ही बरस जाता शिरसा इलाघते पूर्व परं कण्ठे नियच्छति ॥ है, वह मुख से कहता नहीं है पर कर अवश्य देता है।'
आज इतना ही मुझे पाप से निवेदन करना है। तीसरे ने अपने अनुभव को व्यक्त करते हुए कहा है--
३ काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम् । 'बुद्धिमानों का समय काव्य-शास्त्र पर्दा और विनोद में
व्यसनेन तु मूर्खाणाम् निद्रया कलहेन वा। १ विद्याविवादाय घन मदाय, शक्ति. परेपॉ परिपीडनाय। ४ नमन्ति फलिनो वृक्षाः नमन्ति गुणिनी जनाः ।
खलस्य साधोविपरीतमेतज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय । शुष्क वृक्षाश्च मूखश्चि न नमन्ति कदाचन ।। २ शरदि न वर्षति गर्जति, वर्षति वर्षासु नि. स्वनो मेघः। ५ मनस्येक वचस्येक कर्मण्येक महात्मनाम् । नीचो वदति न कुरुते, न वदति सुजनः करोत्येव । मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनामू ।।
सुभाषितम्-विषयनि सेवत दुख भले, सुख न तुम्हारे जानु ।
अस्थि चवत निज रुधिर ते, ज्यों सुख मान स्वानु ।। जिनही विषयनि दुखु दियो, तिनही लागत धाय । माता मारिउ बाल जिम, उठि पुनि पग लपटाय ॥
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अनेक स्थान नाम गर्भित भ० पार्श्वनाथ के स्तवन
भंवरलाल नाहटा
वर्तमान चौवीसी मे पुरिसादानीय भगवान पार्श्वनाथ ४ गौडी पार्श्वनाथ स्तवन, शान्तिकुशल की प्रसिद्धि सर्वाधिक है। उनके जितने तीर्थ, मन्दिर और
इनमे से दो मे तो १०८ स्थानों की नामावली है प्रतिमाए भारत में विद्यमान है, अन्य किसी भी तीर्थकर ,
तथा अन्य दो मे इनसे भी न्यूनाधिक नाम दिये हुए है । के नही। प्राचीन मान्यता के अनुसार भ० पाश्वनाथ के हमारे संग्रह मे ऐसी कई अप्रकाशित रचनाए है जो १५वी जन्म से पूर्व ही उनके तीर्थ व प्रतिमाए पूज्यमान थी। से १८वी शताब्दी के बीच की है। इनमे पार्श्वनाथ के भगवान अरिष्टनेमि के समय में सखेश्वर तीर्थ यादवपति
त स्थानों के नाम बहुत से तो एक समान है पर कुछ भिन्नश्रीकष्ण की सेना की मूर्छा जो जरासन्ध को जरा से हुई भिन्न भी है। इनसे जिसे जो नाम याद थे उनसे वे अपनी थी-इन्ही सखेश्वर पाश्र्वनाथ के प्रभाव से दूर हुई थी। रचना में मम्मिलित कर लिए, सिद्ध होता है। इन स्थानो भ० पार्श्वनाथ के अधिष्ठाता शासन देव-देवी पार्श्व यक्ष
में अब पार्श्वनाथ के मन्दिर कहां-कहां है एवं कहा-कहा धरणेन्द्र पद्मावती विशेष जागरूक होने से एव मन्त्र-यन्त्रो ,
रहे इसकी खोज की जानी चाहिए। कुछ स्थान तो मे उनसे सम्बन्धित सामग्रीप्राचयं के कारण भ० पाव
तीर्थ रूप में प्रसिद्ध है, पर कई स्थानो का पता लगाना नाथ की पूजा-अर्चा भी बहुलता से होती आई है । बीस भी
भी कठिन हो गया है। कई स्थान पाकिस्तान में चले गये तीर्थकरो की निर्वाणभूमि सम्मेदशिखर महातीर्थ जैनेतर
एव कइयो की प्रतिमाएँ अन्यत्र चली गयी एव नष्ट भी समाज मे 'पारसनाथ पहाड़' के नाम से ही प्रसिद्ध है।
हो गये । पार्श्वनाथ के कई तीर्थो के सम्बन्ध मे स्वतन्त्र बगाल मे तो अन्य तीर्थकरो को कम ही जानते है। पर
ग्रन्थ निकल चुके है, एव उन तीर्थों के सम्बन्ध में कई कलकत्ते में भारत प्रसिद्ध कातिक महोत्सव की रथयात्रा
चमत्कारिक बाते-प्रवाद रूप से प्रसिद्ध है। ३७ वर्ष पूर्व धर्मनाथ स्वामी की हात हुए भा पाश्वनाथ की कहलाती
जैनसस्ती वाचनमाला से "श्री प्रगट प्रभावी पार्श्वनाथ है एव रायबद्रीदास कारित शीतलनाथ जिनालय भा
तथा जैन तीर्थमाल" ग्रंथ प्रकाशित हया था जिसमे १११ 'पार्श्वनाथ' के नाम से प्रसिद्ध है। जितने विविध प्रकार
पार्श्वनाथ सम्बन्धी चमत्कारिक कथाएँ संगृहीत है। यो सख्याधिक स्तुति स्तोत्रादि पाश्वनाथ भगवान के उपलब्ध
इस ग्रन्थ में १८४ स्थानो का विवरण दिया है। पार्श्वनाथ है उतने अन्य तीर्थकरो के नही। प्राकृत, सस्कृत अपभ्रश, के स्थानों सम्बन्धी एक ही ग्रथ में इतनी सामग्री अन्यत्र हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती में रचित स्तोत्र-स्तवनादि नही मिलती। जनसस्ती वाचनमाला से सखेश्वर पार्श्वनाथ, को सख्या हजारो पर है इनमे से कई स्तोत्रों मे १०८ या स्तभन पार्श्वनाथ सम्बन्धी तीन ग्रंथ स्वतन्त्र भी निकल नोभी अधिक स्थान नामभित स्तवन प्राप्त होते है। चके हैं। विविध तीर्थकल्प, उपदेश सप्ततिका प्रादि ग्रथों श्री विजय धर्मसूरिजी समादित प्राचीन तीर्थमाला सग्रह में भ० पार्श्वनाथ के कई कल्प हैं हीं। स्तभन पार्श्वनाथ भाग १ मे ४४ वर्ष पूर्व पार्श्वनाथ संबन्धी ऐसी चार सम्बन्धी छोटे-छोटे कल्पों का संग्रह भी सस्कृत मे पन्द्रहवी रचनाए प्रकाशित हुई थी
शताब्दी का प्राप्त होता है । १ पार्श्वनाथ चैत्यपरिपाटी, कल्याणमागर
कई स्तोत्र ऐसे भी हैं जिनमे भ० पार्श्वनाथ के गुण२ पार्श्वनाथ नाममाला, मेघविज्य
गभित १०८ नामों का संग्रह है। संभव है १००८ नाम३ पार्श्वनाथ सख्याभितस्तव, रत्नकुशल गभित स्तोत्र भी रचा गया हो। यहां जो रचनाएं प्रका
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अनेक स्थान नाम गभित भ. पाश्वनाथ के स्तवन
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शित की जा रही है उनमें एक अपूर्ण है, उसकी पूरी प्रति प्रादि सम्बन्धी महत्वपूर्ण सामग्री प्रकाशित हुई है। कहीं मिलने पर ही रचयिता एवं रचनाकाल का पता लग कई वर्ष पूर्व मुनि श्री ताराचन्दजी संपादित 'पाश्र्वासकता है । अधिकांश रचनाए खरतरगच्छोय विद्वाना का दर्श' नामक ग्रथ प्रकाशित हुआ था जिसमे श्री पाश्र्वनाथ हैं एवं हमारे संग्रह में विद्यमान हैं। ऐसे स्थान नामगर्भित मी
सम्बन्धी स्तुति स्तोत्र स्तवनादि का बड़ा संग्रह है।
म्नति स्तोत्र तनादि । जितनी भी रचनाए मिलती हों उन सबको सगृहीत कर सखेश्वर पार्श्वनाथादि एक-एक तीर्थ के स्तवनों का भी प्रकाशित कर देना चाहिए, यह प्रेरणा देने के लिए ही
सग्रह स्वतत्र रूप से निकले है । वर्षों से हमारे संग्रहीत रचनाओं को यहां प्रकाशित किया जाता है । मुनि राजश्री अभयसागरजी भ० पार्श्वनाथ के (श्री जिनभद्र सूरि विरचित) नामों की विस्तृत तालिका बना रहे है, उसके लिए भी अष्टोत्तर शत पाश्र्वनाथ स्तवनम् यह प्रयास उपयोगी सिद्ध होगा।
पणमवि पण परमिट्टि पाय पउमावय देवीय, १ अप्टोत्तर शत पार्श्वनाथ स्तवन
वयरुट्टा धरणिव पास जय विजया सेवी; गा. १५ जिनभद्रमूरि (१५वी) १६
ठाण ठाणट्टिय पासनाह हं जणमण मोहण, २ अट्टोत्तर पार्श्वनाथ स्तोत्र
समरिस समरिसु सामि माल अइसह मण रोहण ॥१ गा. ८ सुमतिसिन्धुर १७०३ ५८
सिरि वाणारसि नयर राजगृह नयर पचार, ३ अष्टोत्तर शत पार्श्व सूचक स्तवन
थाल नयर सिरि सिद्धखंत्र पर सिरि गिरिनारह; गा. १६ सुमतिसुन्दर १६६१ ८८
जीरावल फलवद्धि नागदह महिमा पूरीय, ४ अप्टोत्तर शत पाश्र्व स्थान स्तवन
करहेड़ई कलिकुंड पास सवि कलि मल परिय ॥२ गा. ६ सहजकीति (१७वी) ८११
प्रणहिलवाड नयरि सामि वसरुपई दीसह, ५ अट्ठोत्तरसय पार्श्वनाथ स्तवन गा.१६ समय राजोपाध्याय ,
थंभणपुर वर पंचरूप पह पास सलीजह; ६१३
मंगलपुरि मंगल निवास नव पल्लव नामिई, ६ ११७ नाम गभित पार्श्वनाथ स्तवन
चित्तह चोरण चित्रकोटि, चितामणि सामि ॥३ __ गा.१७ रत्नवर्द्धन
१७ ७ पार्श्वनाथ लघु स्तवन
॥वस्तु॥ ___गा. ६ रत्ननिधान , २० पास जिणवर पास जिणवर देवगिरि नयरि। ८ श्री पार्श्वनाथ स्तवन
सिरि सिरि पुरि पंच पुरि नगरकोटि नागरि गिरिपुरि। गा. १५ हरिकलस सूरि , २१ प्रज्जाहर राणपुरि अजयमेरि जावाल पुरवरि । ६ अष्टोत्तर शत पार्श्व स्तवन
जेसलमेरि हमीरपुरि हाल्हणपुरि चिहुरूप । गा. १३ क्षेमराज (१६वी) २५ कंभलमेरिह मंडपह पणमीजइ चिहरूप ॥४
॥ भास । गा. २१॥ अपूर्ण
संखेसर समेगिरि सिरि प्रससेण मल्हार । ११ पार्श्वनाथ भनेक तीर्थनाम स्तवन
पारासणि रावण सरण करिसु जिणेसर सार । गा.४ समय सुन्दर (१७वी) ३१ ।।
पालीताणइ पाप हर घोघापुर नवखंड । अभी-अभी श्री चापस्मा जैन संघ प्रकाशित "श्री सेरोसइ सोभागनिधि सामी पास प्रचार॥५ भटेवा पार्श्वनाथ जिनालय अर्घ शताब्दी स्मारक ग्रथ” चतुर्मुखि खरतर जिण भुषण परबुद गिरिवर गि। प्रकाशित हुमा है उसमें भ० पायर्वनाथ नामो, स्थानों, तिह भूमिट्ठिय पूजोयह नवफण सामी रंगि।
"
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२६६, वर्ष २२ कि०६
अनेकान्त
जूनइ गढि जोहारि जिण जनम सफल करि प्राज। ऊनय नयरि निहालणीय नयणे तीरथ राज ॥६
॥ वस्तु॥ कुक्कड़ेसर कुक्कड़ेसर पुरहि अहिछत्त । छग्वटणि दीवपुरि सींहदीव देवकइ पाटणि । वरकाणइ कइंदवणि कहरवाडि कारि सुवासणि । मज्जाउद जाउर जवणउर वीजापुर जोइ । उज्जेणी जोगिणपुर जिण जगि जीव न होइ॥७
॥ भास। सिरि सिणोरइ पुरइ पण चेलण पुरइ । साहपुरि खारपुरि पास पचासरे । राजपुरि राजए नयरि पंथाहड़े। कुशल करि सामि कंकोलपुर प्राहरे॥११ कत कतोपुरी दिपुरी चेलणं, गरुय गुण गह गउड़ीपुरी मंडण, वड नर वड़ नयणि नाह निरखिज्जए । पारकरि पास पय कमल फल लिज्जए ॥१२
॥ ढाल॥
षवलकए पास कलिकुंड घृतकल्लोल मेलगपुरह । सामलउ ए अहमदावाद प्रासाउलि सलखणपुरह । बहथली ए बसम देव वेलाउल वडली नार । पासीयउ ए प्रासलकोटि गोपाचलगिरि जोधपुरि ॥ महरह ए मगसीय गाम मम्मणवाहण मन रलीए । तलाजज्ञ ए मरम दारंभि मसूयवाड़इ बीजलीए। वडपतइ ए थयराउद्रि नाडउहि पहाड़पुरि। हडाई ए हियडलइ हेव पास वहिसुहं हरस भरे ।।
|| भास ॥ जसु समरणि नासइ सर्व रोग। जसु समरणि लाभइ समय जोग । जसु समरणि सवि प्रापद टलंति । जसु समणि सवि संपदि मिलति ।।१३ कड पूर्याण सायणि भय पेय । मरि हरि करि व्यंतर दुट्ठ जेय । तुह चरण मरण जे करइ नाह। तिह ते नव पहुवइ पास नाह ॥१४ इय सय अट्रोनर ठाण सठिय पास जिणवर मानिया। मह सुद्ध चित्तइ गरूप भत्तइ रासबंधहि गंथिया । जे कंठ कदल करइ निरमज्ञ भाव भविषण ते सया। जिणभद्द सासय सुह समाणय अट्ठ सिद्धिहि संपया ॥१५
इति श्री अट्टोत्तर सत पाश्वनाथ स्तवनम् ।। [अभय जैन ग्रन्थालय गुटका न० ३४ पत्र १३१ से
३४; १७वी शती लिखित]
॥वस्तु । मोरवाड़इ मोरवाड़इ मयण मय हरण । टोमाणह माणीयइ ए मूलथाण मानिय विभूषण | घंधूकइ धरमपुर बाधणउरि पुरि रह्यउ दूषण । पाटउपइ सिद्धा सुयए अणि अंथइ भोहर । चोरवाड़ वीसल नयरि जसु सेवइ कोहड ॥१०
अनेकान्त के ग्राहक बनें।
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व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
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पद्मावतो प्रकाशचन्द्र सिंघई एम. ए., बो. टो.
प्रत्येक धर्म में देवी-देवतामों की उपासना की जाती उल्लेख है।' जांगुली के सिर पर पंच फर्णी छत्र , बायें है और उन देवियों का महत्वपूर्ण स्थान रहता है। कुछ हाथ मे सर्प पकड़े हुए, दायें हाथ मे वज और कुंडली देवियां जैन, शंव, हिन्दू और बौद्ध धर्म में एक-सी समानता मारे सर्प पर प्रासीन है।' रखती है। उनमे पदमावती एक देवी है जिसका विवरण अमोघ सिद्धि, जो चौथी तथा नेपाली बौद्धों के चारों धर्मों में एक सा मिलता है। इन देवी-देवताओं के अनुसार पांचवी ध्यानी बुद्ध है, का वाहन गरुण है। कुछ विशिष्ट चिह्न होते है और चिह्नों के आधार पर पुराणो के अनुसार गरुड और सर्प एक दूसरे के शत्रु होते उन देवियों को जान सकते हैं जैसे लक्ष्मी का चिह्न कमल है। इससे साधनमाला मे सप्त फणी सर्प के समान छत्र है जिसे घन देवी कहा गया है ।।
को धारण किये-बताया गया है। जैन धर्म में पद्मावती को सर्प की देवी कहा गया है हिन्दू धर्म में सर्प को धारण किये बलराम जी की और सर्प की देवी बौद्ध, शव तथा हिन्दू धर्म मे भी मिलती मूर्ति मिलती है। बिष्णु को तो शेष शय्या पर दिखाया है। पद्म पुराण में पद्मावती को हर की पुत्री कहा गया गया है तथा विष्णु के मिर पर पच फणी सर्प छत्र है। भष्म पुराण मे "देवी पद्म महेशम् समघर वदनं
दिखाया जाता है। ...." पद्मावती स्तोत्र मे महा भैरवी कहा गया है ।
सर्पो (नागों) के विषय में जान लेना भी प्रावश्यक शैव सप्रदाय में 'भैरव' शिव को कहा गया है । 'हर' प्रतीत होता है। प्रमुख नाग पाठ प्रकार अद्भुत पद्मावती (महादेव) सर्प डाले हुए दिखाये जाते है, इसमे 'हर' की कल्प' रघुनदन तिथि तत्व तथा मल्लिषेण के भैरव पुत्री पद्मावती की समानता, पार्श्वनाथ की यक्षिणी
३ तारात्वं सुगमागमे, भगवती गोरीति शैवागमे । पद्मावती जिसके सिर पर सप्त फणी सर्पो का छत्र है,
वजा कौलिकशासने जिनमते पद्मावती विश्रुता ॥ से की जाती है।
गायत्री श्रुतिशालिनी प्रकृति रित्युक्लासि साख्यागमे । जांगुली जो प्रक्षोभ्या से दूसरी ध्यानी बुद्ध है, सर्प मातभरति ! कि प्रभूत भाषिर्तव्याप्त समस्त स्वया। देवी मानी गई है। साधन माला की सगीति के अनुसार
श्लोक २०॥ यह बुद्ध से भी पहले की है क्योकि बुद्ध ने अपने शिष्य
पद्मावती स्तोत्र, भैरव पद्मावती कल्प परिशिष्ट ५ पृ. मानंद को इसकी पूजन का मत्र बताया था और यही ४ पिक्चर गैलरी: बड़ोदा स्टेट म्यूजियम, बड़ौदा। साधनामाला मे 'तारा' के नाम से जानी जाती है।' भय ५ बी. भट्टाचार्य : इन्डियन बुद्धिस्ट प्राइकोनोग्राफी पाठ प्रकार के माने गये हैं। सर्प भय भी एक है पर पृ. ५, फनक ८ (सी)। 'तारा' का नाम लेते ही सब भय दूर हो जाते हैं । इसी ६ वदोह ग्वालियर में बलराम की मूर्ति फलक xviii, ए प्रकार जैन धर्म में पद्वती देवी है जिसका नाम लेते ही गाइड टू दी मार्कालाजीकल म्युजियम, ग्वालियर । सब भय दूर हो जाते हैं जैसा कि पद्मावती स्तोत्र में
__७ अनंत, वासुकी, तक्षक, कारवीटक, पद्म, महापद्म, १ पद्मपुराण, पृ. २
शंख पाल कुलिक । अद्भुत पद्मावती कल्प चतुर्थ ४६% २ बी. भट्टाचार्य : इन्डियन बुद्धिस्ट माइकोनोग्राफी, इन्डियन बुद्धिस्ट माइकोनोग्राफी; पृ. ५६ ।। पृ. १८५
८ तिथित्तत्व पृ. १७ संपादित मधुरानाथ शर्मा।
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२९८, वर्ष २२ कि०६
अनेकान्त
पदमावती कल्प' में है। इसी प्रकार भैरव पद्मावती गये है । लक्ष्मी का जन्म समुद्र से हुग्रा जो निधि तथा कल्प मे इन नागों की उत्पत्ति तथा वर्ण का उल्लेख सर्पो.का वास है इससे घन देवी लक्ष्मी को सर्प देवी मिलता है-वासुकी और शख, क्षत्रिय, अनन्त और पद्मा के रूप में माना जाना स्वाभाविक लगता है। कुलिक-ब्राह्मण, तक्षक और महापद्म-वैश्य तथा कारबोटक इस प्रकार हिन्दू, शैव, बौद्ध, और जैनधर्म में सर्प
और पद्म शूद्र वर्ण के । वर्ण के अनुसार रंग भी चित्रित देवी के उल्लेख मिलते है, पर उसके नाम । किया गया है - क्षत्रिय वर्ण के सर्प लाल रंग के, ब्राह्मण- है। जैनधर्म में पद्मावती सर्प देवी की कथा इस प्रकार मयक, वैश्य-पीले तथा शूद्र वर्ण के सर्प काने रंग के है। होते हैं।"
“पूर्व जन्म पद्मावती तथा धरणेद्र नाग, नागिन थे। अमिताभ के सेवक के रूप मे पाठो प्रकार के नामो ये दोनों एक लकड़ी में थे, उस लकड़ी को एक साधु ने का उल्लेख किया गया है। इन ध्यानी बुद्ध, शुक्ला, भाग मे लगा दिया था। उसी समय भगवान पार्श्वनाथ कुरुकूल्ला का निरूपण पदमावती के रूप में कर सकते है वहां पहुंच गये और दोनों नाग नागिन की रक्षा की, पर ऐसा ब्राह्मण और जैन दर्शन में है।
वे झलुस गये थे । मरते समय पाश्र्वनाथ ने दोनों को ___इसी प्रकार तीसरी सदी का अभिलेख, जो भरहुत णमोकार मत्र सुनाया जिसके प्रभाव से मरकर भवनवासी स्तूप के द्वार से प्राप्त हमा-में नाग राजाप्रो की राज- देव (युगल) के रूप में उत्पन्न हुए।" जब भगवान घानी पद्मावती का उल्लेख है। इस नगर का उल्लेख पाश्वनाथ तप कर रहे थे तब पार्श्वनाथ के शत्रु कमठ ने विष्णु पुराण तथा भवभूति के 'मालती माधव' मे भी
इनका तप भंग करने के लिए उपसर्ग किया तब दोनों ने किया गया है।
मणी मयी फण तान कर भगवान पार्श्वनाथ की पाहन कुमार स्वामी ने नागों को जल चिह्न भी माना है। वर्षा से रक्षा की।" ये दोनो पार्श्वनाथ के भक्त थे। पदमा को धन तथा समृद्धि की देवी कहा गया है तथा पद्मावती का स्वरूप : इसे 'श्री' से जाना जाता है। इसी प्राधार पर नव प्रकार पद्मावती देवी के चार हाथ जिनमें दायी मोर का की निधि-पद्म, महापद्म, मकर कच्छप, मुकुद, नीम, का एक हाथ वरद मुद्रा मे रहता है और दूसरे हाथ में वर्छ, नंद और शख के रूप मे मानी गयी है । इन अंकुश । वायी मोर के एक हाथ मे दिव्य फल और दूसरे निधियों का संबध सर्पो से इसलिए है क्योंकि प्रत्येक सर्प में पाश रहता है ।" अकुश और पाश से लपटें निकलती फण में एक विशेष प्रकार की मणी रहती है। उस मणी रहती है। इसके तीन नेत्र होते है। तीसरा नेत्र कोष को जल में से ही प्राप्त करते हैं। इसीलिए समुद्र को के समय ही खुलता है तथा उसमे से विकराल क्रोधाग्नि रत्नाकर कहा गया है।"
निकलने लगती है।" इसके सिर पर पंच फणी सर्प छत्र नव प्रकार की निधि और आठ प्रकार के सर्प माने रहता है।" देवी का वाहन कुर्कुट है जिसकी एक बंद ९ भैरव पद्मावती कल्प प. १० श्लोक १४ ।
१४ भावदेव सूरि : पार्श्वदेव चरित्र ६,५०-६८ । १. वही, १५-१६।
१५ गुणभद्र : उत्तर पुराण ७३. ४३६-४० । ११ पद्मपुराण, पृ.२, भैष्य पुराण, भैरव पद्मावती, १६ भैरव पद्मावती कल्प २,१२।। कल्प १०-१४ ।
१७ "व्याघ्रो रोल्का सहस्र ज्वलदलल शिखालोलपाशां१२ दी साइट प्राफ पद्मावती-वाई. एम. वी. गद्रे,
___ कुशाढये।" पद्मावमी स्तोत्र, श्लोक १; भैरव • मार्कालाजीकल सर्वे प्राफ इंडिया वार्षिक रिपोर्ट
पद्मावती कल्प, पृ. ७८ । ' १९१५-१६, पृ. १०४-१०५।
१८ वही २,१२, २,२। १३ बनर्जी जे. एन : डब्लपमेंट माफ हिन्दू प्राइकोनो- १६ हेमचन्द्राचार्य : अभिधान चिंतामणी, पृ. ४३ । ग्राफी, पृ. ११६, पाठ टिप्पणी १ ।
२० पाशाङ्कुशी पद्म वरे रक्तवर्णा चतुर्भुजा ।
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पपावती
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में समूचे विश्व को समाप्त करने की शक्ति है।" नालंदा उत्खनन में एक चतुर्भुजी यक्षी की मूर्ति पद्मावती के दो रूप-सौम्य रौद्र । रौद्र रूप से प्रत्या- प्राप्त हुई है, जो पद्मावती की है । यह उत्तरी भारत में चारियों का नाश होता है और सौम्य से विश्व कल्याण । अपनी समता नहीं रखती।" नालंदा के एक जैन मदिर सौम्य रूप में होने पर देवी के शरीर से उषा काल के में प्रवेश करते ही दांयी पोर के एक पाले में एक सप्त सूर्य की भाभा-सी फूटने लगती और चेहरा प्रसन्न हो मणी करीवन डेढ़ फुट की पार्श्वनाथ " प्रतिमा है, उभय जाता है तथा हाथ पैरों से कमल की सी सुगन्ध निकलने पार्श्व में चमरधारी पार्षद खड़े हैं तथा निम्न माग लगती है।
में चतुर्भुजी देवी पद्मावती हैं। उक्त विवरण ज्ञात करने के बाद पद्मावती देवी के पूना के प्रादीश्वर मन्दिर में एक पद्वती मूर्ति है जो विषय मे पुरातात्विक तथा साहित्यिक साक्ष्यों को दृष्टि फलो और वस्त्रो से सुसज्जित है सुसज्जित है।" वर्षा गत कर लेना आवश्यक है।
जिले के सिंधी ग्राम के मन्दिर मे एकसुन्दर भूरे पाषण पुरातात्त्विक :
की खड्गासन पदमावती मूर्ति है"। इसी प्रकार नागपुर साहित्य में पद्मावती और अम्बिका को एक ही के मन्दिर में भी काले पाषाण की देवी की मूर्ति है । माना गया है पर पुरातत्त्व मे इन दोनो की भिन्न-भिन्न साहित्यक: मूर्तिया है। अम्बिका" को प्राचीन काल की तथा देवी पदमावती का तीसरी सदी के निर्वाण कलिका" पद्मावती की मध्यकाल की अनेक मूर्तिया प्राप्त होती है। तथा वि. स. छठवी सदी के तिलोय पण्णत्ति" में उल्लेख
खड गिरि की गुफा में चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियाँ मिलता है। इसके बाद मूनि कुमारसेन के विद्यानुहैं उनके नीचे चौबीस जिन शासन देवी हैं इनमे चार :
२७ प्रार्कालाजीकल सर्वे प्राफ इडिया वार्षिक रिपोर्ट हाथ वाली यक्षिणी पद्मावती भी है।" अक्कनवस्ति
१९२५-२६, पृ. १२५, फलक lvi-lvii, रिपोर्ट नाम का मन्दिर, जो श्रवण बेलगोल में है, का निर्माण
१६३०-३४ पृ. १६५, फज्ञक cxxxvii व Ixviii; शक स० ११०३ है । उस मन्दिर के गर्भ गृह में पार्श्वनाथ
रिपोर्ट १६३५-३६ फलक xvii; गाइड टू राजगिरहै तथा गर्भ गृह के दरवाजे के दोनो ओर धरणेद्र और
कुरेशया और घोष। पद्मावती की करीबन तीन फुट ऊची मूर्तियाँ है ।
२८ मौलो फणि फणा: सप्त नय श्री भिः कराइव । चन्द्रगिरि पर्वत (मैसूर) पर कत्तलेवस्ति नामक मदिर के
धृताः शांत रसास्वादे यस्य पार्श्वः स पातु वः ॥१२६ बरामदे मे पद्मावती की मूर्ति है।"
अमरचद सूरि कृत पद्मानंद महाकाव्य । पदमा कुक्कुटस्था ख्याता पद्मावतीति चा। ३७। २६ मुनि कांतिसागर : खोज की पगडडियां, पृ. १६६ । अपराजिता पृच्छा २२१ ।
३० जैन एन्टीक्वेरी, जि. १६, क्र. १ जून ५० पृ. २० । २१ भावदेव सूरि : पार्श्वनाथ स्तोत्र ८,७२८ । ३१ मुनि कातिसागर : खंडहरों का वैभव, पृ. ४०, पाद २२ मल्लिषेण सूरि : भैरव पदमावती कल्प परिशिष्ट ५, टिप्पणी १। श्लोक २.८, पृ. २६-२७ ।
३२ जैन सिद्धांत भास्कर : भाग २० कि. २, दिसं. २३ हरिद्वर्णा सिंह सस्था द्वि भुजा च फलं वरं ।
५३, पृ. ५१। पुत्रेणोपास्य माना च सुनोत्संगा तथाऽम्बिका ॥३६।।
३३ पादलिप्त सूरि : निर्वाणकलिका पृ. ३४, फतेह पंद अपराजिता पृच्छा मू. २२१ ।
वेलानी जैन ग्रंथ प्रौर ग्रंथकार, जैन सस्कृति मंडल २४ बनर्जी जे. एन. : जैन पाइकोनोग्राफी, क्लासीकलएज पृ. ४१४ विद्याभवन बंबई।
वाराणसी, पृ. २ २५ जैन शिलालेख सग्रह प्रथम भाग, शिलालेख क, ३
र ३४ यतिवृषभः तिलोयपण्णति; ; प्र. भा. (४,६३६) पं. १२४, ३२७, पृ.४३, ४४ ।
जुगलकिशोर मुख्तार : पुरातन जैनवाक्य सूची २६ वही पृ. ५.६ ।
सरसावा; भूमिका पृ. ३४।
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अनेकान्त
-३००,२२०६
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शासन ग्रंथ जो लगभग वि० सं० की प्राठवीं सदी का है, मे घरणेन्द्र पद्मावती को मंत्र के अधिष्ठातृ देवता के रूप में माना है" वि० [सं० वीं सदी में भगवज्जिनसेनाचार्य ने 'पाय' का निर्माण किया जिसमें पर पद्मा वती का वर्णन है। वादिराज सूरि ने वि० सं० १०५२ में पादवनाथ चरित्र की रचना की। इसमें कमठ उपसर्ग का वर्णन है तथा धरणेद्र पद्मावती का उल्लेख है । श्वेताम्बर प्राचार्य भावदेव सूरि ने भी पार्श्वनाथ चरित्र की रचना की जिसमें धरणेंद्र पद्मावती का जीवन परिचय दिया" । मल्लिषेण सूरि ने भैरव पद्मावती कल्प की रचना की जिसमें देवी पद्मावती का वर्णन किया। जिनप्रभ सूरि ने विविध तीर्थ कल्प की रचना की, जिसके पदमावती कल्प में देवी के चमत्कारों की कथा का वर्णन है"। साथ ही पद्मावती चतुष्पदी प्राकृत काव्य की रचना की जिसमे ४६ गाथाएँ है"।
'मुनि वंशाभ्युदय' कन्नडी भाषा के काव्य ग्रंथ की पांचवीं संधि में देवी का उल्लेख है। इसके अलावा माणिक्यचन्द्र, सकल कीर्ति, पद्मसुन्दर मौर उदयवीर गणि द्वारा रचित पार्श्वनाथ चरित्रों में कमठ कथा मौर देवी की भक्ति का उल्लेख मिलता है। महत्व :
जैनधर्म में २४ तीर्थकरों की निर्धारित शासन देवियों है"। इन सब में अधिक महत्त्व तेइसवे तीर्थकर पादवनाथ की शासन देवी पद्मावती को दिया गया है ।
भगवान् पार्श्वनाथ के समय में जैनधर्म को अधिक
विधानुशासन प्रथम कल्प
३५ मूनि सुकुमार जैन
'भैरव पद्मावती कल्प
३६ यह ग्रंथ हरगोविंद दास और बेचरदास द्वारा संपादित तथा प्रकाशित सन् १९१२ ।
३७ मलिषेण सूरि भैरव पद्मावती कल्प प्रध्या० ३। ३८ जिनप्रभ सूरि विविध तीर्थ कल्प सिंधी जैन प्रथ
माला वि. सं. १६६० पृ. ६८-६६ ।
३६ बेलनकर : जैन रत्नकोष, जि. १, भंडारकर रिसर्च
इन्स्टीट्यूट पूना, १२४४, पृ. २३५ ।
४० बनर्जी जे. एन. जैन माइकोनोग्राफी पु. ४२५, एक ग्राफ इम्पीरियल यूनिटी, विद्या भवन बंबई ।
उन्नत करने में पद्मावती का योग रहा है तथा इनके पति परमेद ने कमठ उपसर्ग से पार्श्वनाथ की रक्षा की, इससे गुणों के संग्रह मे 'दक्ष' और जिन शासन की रक्षा में निपुण होने के कारण 'यक्ष' की संज्ञा दी गई" ।
प्र० नेमिदत्त कृत धारावना कथाकोष और देव चन्द्र कृत 'राजा बलि कथे' मे उल्लेख है कि भट्टाकलंक का विवाद बौद्धों के साथ वि० स० सातवी सदी में हुआ था तब देवी के द्वारा बताये गये उपाय से ही तारा, जो बौद्धों की देवी है को हराया था। 'राजा बलि कथे' कन्नडी ग्रंथ है जिसका फग्रेजी अनुवाद रायस महोदय ने किया है।
आराधना कथाकोष से ज्ञात होता है कि प्राचार्य पात्र केसरी की शंका का समाधान पद्मावती ने किया था जिसका समर्थन श्री वादिराजसूरि के न्यायविनिश्वया लंकार से होता है। इस घटना का उल्लेख श्रवण वेलगोला के शिलालेख न० ५४ से होता है - "देवी पद्मावती सीमधर स्वामी के समवशरण में गयी और गणधर के प्रसाद से एक ऐसा श्लोक लायी जो विलक्षण के कदर्थन का मूलाधार बना" ।
भटुबाह स्वामी ने 'उबसम्मगहर स्तोत्र' का प्रारम्भ भगवान पार्श्वनाथ और पार्श्वयक्ष स्तुति से किया है इस स्तोत्र से यह स्पष्ट है कि मुनि भद्रबाहु स्वामी के सम की रक्षा घरणेंद्र पद्मावती ने एक व्यतर के उपसगं से की थी । इसी कारण यह स्तोत्र घरणेद्र पद्मावती की भक्ति से परिपूर्ण है । भगवती सूत्र में भी देवी का उल्लेख है" । ४१ तस्याः पतिरतु गुणसंग्रहृदक्षता यक्षो व भूव जिन
शासन रक्षणज्ञः । राजसूरि पार्श्वनाथ चरित्र १२, ४२ पृ. ४१५ ।
४२ महिमास पात्रकेसरिगुरो; परं भवति यस्य भक्त्यासीत् पद्मावती सहाया त्रिलक्षणं कदनं कर्तुम् । न्यायविनिश्चयालंकार ।
४३ जैन शिलालेख संग्रह प्रथम भाग पू. १०१ । ४४ भद्रबाहु स्वामी उवसम्गहर स्तोत्र' जैन स्तोत्र संदोह भा. २१-१३ डा. जे.सी. जैन लाइफ इन एन्सीयण्ट इंडिया एज टिपेक्टेड इन अन केनन्स पृ. २२६ ।
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पद्मावती
प० जिनदास ने होली रेणुका चरित्र की रचना की जिन का नवमा श्लोक और पार्श्व जिन स्तवन का पद्रहवां जिससे ज्ञात होता है कि उसके पूर्वज हरपति को देवी का श्लोक पद्मावती की भक्ति के लिए ही रचे गये है"। वर प्राप्त था"।
इस प्रकार पद्मावती का महत्त्व प्राचीनकाल से रहा "भैरव पद्मावती कल्प' मे पद्मावती की १००८ है और इस कारण प्रत्येक जैन क्षेत्र पर पद्मावती देवी नाभों से स्तुति की गई है। इसी प्रकार उसमें पदमावती की मूर्ति की स्थापना की जाने लगी है। श्री महावीर जी कवच, स्तोत्र, स्तुति आदि दी गई है।
मे नव निर्मित शाति नगर मे चौबीसी के बाद पद्मावती श्रीमती काउझे ने 'एन्शियण्ट जन हिम्म' मे पार्श्वनाथ देवी की मूर्ति प्रतिष्ठापित है। स्तवन संकलित किया । इस स्तवन के श्लोक श्री नय पद्मावती सम्बन्धित साहित्यिक तथा पुरातात्विक विमल सूरि के है। इसके नवमे और दसवे इलोक मे साक्ष्य अधिक प्राचीन प्राप्त होते है। इससे यह कहा जा पदमावती की स्तुति की गई है। दशवे श्लोक की पालो- सकता है कि जैन वाङ्गमय में पद्मावती देवी की परिचना करते हुए श्रीमती काउझे ने कहा "दशवा श्लोक देवी कल्पना सबसे पहले की गई। उसके बाद बौद्धों ने उसी को पदमावती के मत्र की महत्ता को बताता है यह पार्श्वनाथ तारा तथा अन्य ध्यानी बुद्ध के रूप में साहित्य मे लाये को शासन देवी है। इसकी अत्यधिक पूजा अर्चना की गई और बाद मे हिन्दू तथा शैव मे भी। इस प्रकार पदमावती है" । इसी प्रकार जैन स्तोत्र समुच्चय मे घोघामंडन पार्श्व सर्प देवी को ही भन्य रूपों में प्रदर्शित किया होगा। वही
परम्परागत चली आ रही है। ४५ भगवती सूत्र पृ. २२१ ।
प्राज पुन: इस देवी की महत्ता बढ़ी मोर उसे तीर्थ ४६ पूर्व हरिपति म्नलिव्ध पद्मावती वरः। होली
स्थानों पर तथा पाश्र्वनाथ मन्दिरो में स्थापित की जाने रेणुका चरित्र प्रशस्ति, अग्रभाग जैन प्रशस्ति संग्रह
लगी है। वीर सेवा मंदिर दिल्ली, पृ. ६४, श्लो. २६ । ४७ भैरव पद्मावती कल्प पृ. ६६-१२७ ।।
४६ जैन स्तोत्र समुच्चय पू. ४७, श्लो. ९ और पु. ५७, ४८ का उजे : 'एन्सियण्ट जैन हिम्स' पृ. ४६ ।
श्लो. १५।
कांचन का निवेदन अपनी मानसिक व्यथा सुनाते हुए कांचन ने स्वर्णकार से कहा-इस समय आपके अतिरिक्त मेरा कोई भी स्वामी नहीं है। मैं आपके अधिकार में हूँ। स्वामिन् ! मेरा जन्म स्थान पृथ्वी का निम्नतम स्थान था। मिट्टी मिश्रित होने से मैं हत-प्रभ-सा हो रहा था। मुझे अब यह विश्वास तक नहीं था कि मैं आपकी शरण में आकर भी अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर सकूगा । मैं बहुत ही सौभाग्यशाली है कि ऐसे समय में भी मुझे आपके दर्शनों का सुअवसर प्राप्त हुआ । अापके उपकार से मैं कभी भी उऋण नहीं हो सकता । अापके अन्ग्रह से ही संसार में मेरा अत्यधिक महत्व बढ़ा है।
मेरा एक विनम्र निवेदन है कि आप मेरा उपयोग जो चाहें, करें। अनल की प्रचंडतम ज्वाला में मुझे झोंक सकते हैं। विभिन्न तोक्षणतम अस्त्र-शस्त्रों से मेरा छेदन-भेदन कर सकते हैं। लोहे के कठोर हथौड़ों से मुझे ताडित भी कर सकते हैं। आपका मेरे पर पूर्ण अधिकार है। किन्तु स्वामिन् ! भूल-चूक कर भी आप मुझे कभी तुच्छ गुंजा के साथ मत तोलना । उस अनमोली के साथ मुझे बैठाकर अपनी कृति का अपमान न कराएँ। उसमें सहनशीलता का नाम तक नही है। इसलिए कष्टों के भय से उसका मुख काला हो गया है और शेष भाग दूसरों के गुणों को देखकर जलने के कारण लाल हो गया है । ऐसे निम्न व्यक्तियों की संगति मेरे लिए कभी सुखावह नहीं हो सकती। एक बार पुनः प्रार्थना है कि मुझे अब कभी इस अधमा से मत तोलना ।
-मुनि कन्हैयालाल
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शीलवती सुदर्शन
परमानन्द जैन
भारत के पूर्वी अंचल मे अंग देश की राजधानी चम्पा थी । वहा राजा घाड़ी वाहन राज्य करता था । उसकी रानी का नाम अभया था उसी नगर मे सुदर्शन नाम का अत्यन्त रूपवान और दयालु एक नगरसेठ रहता था । वह धर्मात्मा, सच्चरित्र और प्रौदार्य आदि सद्गुणो सेभूषित था। उसका आचार-विचार अत्यन्त सीधासादा था, वह दीन-दुखियो के दुख को दूर करना अपना कर्तव्य मानता था उसका शरीर तेजपुज से आलोकित था। उसके विचारो मे स्थिरता और करुणा की झलक मिलती थी । श्रावक व्रतों का अनुष्ठाता, गंभीर, वाणी मे मधुरता, सत्यता एव स्नेह श्रौर क्षमा का भडार था । उसकी मनोरमा नाम की धर्मपत्नी प्रत्यन्त रूपवान, सुशीला. विदुषी तथा कर्तव्यपरायणा थी । वह अपने पति के समान ही उच्च विचारो और सद्गुणों से भूषित थी। उसके चार पुत्र थे जो सुन्दर, गुणग्राही आज्ञाकारी और अपने माता पिता के समान ही मार्मिक समुदार एवं परोपकारी थे। येष्ठ पुत्र सुकान्त बड़ा ही धर्मात्मा र कर्तव्यपरायण था । सेठ सुदर्शन का घर उस समय स्वर्गतुल्य बना हुआ था ।
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सुदर्शन का मित्र कपिल नाम का एक प्रोहित था । एक दिन वह प्रयोजनवया कपिल के घर गया। कपिल ने उसका सादर सत्कार किया, और कुशल बात होने के पश्चात् दोनों मित्र सौहार्द वश किसी विषय मे विचारविनिमय करने लगे। उसी समय प्रोहितजी की धर्मपत्नी कपिला ने कमरे में प्रवेश किया, कमरे में प्रविष्ट होते ही उसकी नजर सुदर्शन पर पड़ी। वह सुदर्शन की रूप-राशि को देखकर उनके रूप पर मुग्ध हो गई। थोड़ी देर में सुदर्शन अपने घर वापिस चला गया। कपिला सुदर्शन की चाह में व्याकुल एवं वेद-सिन्न होने लगी, उसे खाना-पीना आदि सभी कार्य विरस हो गये, उसका जी अब किसी
कार्य मे नही लगता था। क्योकि उसका अन्तर्मानस कामकी दाहक अग्नि से प्रज्वलित जो हो रहा था । शरीर प्रशान्त और ताप ज्वर से विकल हो रहा था । काम ज्वर ने उसे उस जो लिया था, वह विवेकशून्य हो गई। रात्रि में प्रयत्न करने पर भी उसे नीद नही आती थी । उसका मन वासना से अधिकृत हो गया था। वह निरन्तर इसी सोचविचार में निमग्न रहती थी कि किसी तरह उसकी भेट सुदर्शन से हो जाय, परन्तु ऐसा अवसर मिलना कठिन ही था ।
कुछ दिनो बाद कपिल ब्राह्मण कार्यवश ग्रामान्तर चला गया । कपिला ने सोचा आज का दिन शुभ है, मेरी अभिलाषा उपायान्तर से फलवती हो सकती है। कोई त्रिया चरित्र बेलना चाहिए, जिससे सुदर्शन को अपनी चंगुल मे फसाया जा सके। ऐसा विचार कर एक चतुर दासी सुदर्शन के पास भेजी, उसने जाकर सुदर्शन से कहा कि आपके मित्र कपिल प्रोहित मस्त बीमार है, जब कभी होश में प्राते है तब सुदर्शन की रट लगाते है । अतः प्राप तत्काल चले और उन्हे सान्त्वना दें, जिससे उनकी अभिलाषा कम हो । सुदर्शन ने जब अपने मित्र की बीमारी का हाल सुना तो वह उससे मिलने के लिए उत्सुक हो उठा और तुरन्त ही उठकर पुरोहित के मकान की श्रोर चल दिया पर पहुंचते ही दासी ने एक कमरे की ओर संकेत किया, वह वहां चले गए। वहा सेठ ने दूर से ही सफेद चादर ओढ़े हुए मित्र को पलंग पर सोते हुए देखा, अन्दर मे सिसकियाँ भरने की आवाज आ रही थी, सुदर्शन ने उसके समीप पहुँच कर चादर को जरा हटाया तो वहा मित्र की बजाय मित्रपत्नी के सोनेका प्रभास मिला। सुदर्शन तत्काल समझ गया कि यह कोई मायाजाल रचा गया है। वह तत्काल वहां से मुड़ा तो देखा कि बाहर से किवाड़ बन्द हैं, पीछे की ओर झांका तो मनोहर वेष-भूषा में सामने कपिला खड़ी है। सुदर्शन ने डांट कर कहा मुझे
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शीलवती सुदर्शन
यहां क्यों बुला रखा है ? उसने कहा पाप इन्द्र के समान जिनके सामने कुछ भी नहीं है। मानों तीन लोक का सुन्दर प्रोजस्वी हैं, इतने दिनों से मैं आपकी चाह मे थी। सौंदर्य इनमें भरा है। रानी ने तत्काल कपिला से उनके बडी कठिनता से प्राज यह योग मिला है । सुदर्शन ने उसे सम्बन्ध में पूछा। कपिला ने कहा-दुनिया बड़ी रंगबिरगी अनेक प्रकार से समझाया तो भी उसके मदन का नशा न है, बाहर से कुछ लगती है और अन्दर से कुछ होती है। उतरा, प्रत्युत वह कहने लगी कि या तो आप मेरा कहना देखने में तो यह पुरुष कितना सुन्दर मौर मनमोहक है । माने अन्यथा मै होहल्ला मचा कर आपको बदनाम कर इसका नाम सुदर्शन है, यह नगर का धनीमानी सेठ है। दूंगी। धर्मनिष्ठ सुदर्शन दोनों ओर सकट में फस तो गया, इसके चार पुत्र है, यह सुन्दरी इसकी पत्नी है, पर वास्तब किन्तु ऐसे विषम अवसर पर भी उसने विवेक और धीरता मे यह हिजडा है। से काम लिया। वह घबडाया नही, प्रत्युत् दृढता के साथ रानी बोली! कपिला तू किस सनक मे बह गई, जो असत्य का प्राश्रय लेकर बोला-तू तो पगली हो रही है। तू बहकी हुई मप्रिय बाते कर रही है। ऐसा होना संभव मै पुरुष नहीं हैं, सन्तान भी मेरी नहीं है, और न मेरे मे नही। कपिला बोली ! रानी जी मैने जो कुछ कहा है वह पुरुषत्व है। बात भरोसा करने लायक जैसी तो नही थी, सब यथार्थ है । रानी! इतना सुन्दर कामदेव-सा रूपकिन्तु सेठ सुदर्शन ने अपने वाक चातुर्य से उसे भरोसा वाला तेजस्वी पुरुष और हिजड़ा यह सभव नही जचता। करा दिया। वह खिन्न होकर ज्यों की त्यो खड़ी रह गई, यह इतना सुन्दर मोर मोहक है, मन को अपनी मोर सुदर्शन ने कहा, जो भी हा मेरी इस गुप्त बात को प्रकट खीचनेवाला ऐसा पुरुष तो मैंने पाजतक देखा ही नहीं, मत करना। कपिला बोली, पाप भी मेरी इस बात को यह तो कही स्वर्ग के देवों से भी बढ़कर है। मागे न बढाना। बस किर क्या था, यह सन्वि दोनो को कपिला ! यही तो बात है जो मन को पाश्चर्य में स्वीकृत हो गई । कपिला का संकेत पाकर बाहर से दासी डाल देती है। ने दरवाजा खोल दिया। सेठ सुदर्शन वहां से इस तरह रानी ! आश्चर्य तो इस बात का है कि तुझे इस निकला जैसे बन्धन में पड़ा हुआ कोई वन्दी अप्रत्याशित मौका पाकर निकल जाता है। घर पहुँचकर उसने सदा के कपिला ! बस, यह मत पूछो। लिए यह नियम कर लिया कि मैं किसी स्त्री के प्रामत्रण रानी को यह बात लग गई, नरमी-गरमी से उसे पर कही नही जाऊगा।
पटाया और सारी बात उससे पूछ ली। घटना सुनते ही
रानी जोरों से हंस पड़ी और कहने लगी, तेरी जैसी मूरख वसन्त ऋतु की मोहक छटा उपवन में भर गई औरत दुनिया में कोई नही है। और उसके जैसा चतुर थी, मान-मजरी पर कोयलों की कुहुक उठ रही थी। पुरुष नहीं है। एक पुरुष से ठगी जाकर तूने नारी जाति उद्यानों में पुष्पों की बहार पा रही थी। उद्यान कोही नीचा कर दिया। नारी की बद्धि तो बडी पनी पुष्पों की पावन सुरभि से सुवासित हो रहे थे। वसन्ता होती है, पर प्राश्चर्य है उस समय तेरी बुद्धि कहां चली त्सव के दिन राजा और रक सभी वन-क्रीड़ा में रत हो गई।
से। सेठ सदर्शन भी अपनी धर्मपत्नी मनोरमा मोर कपिला! ताना मार कर लज्जित हो गई और उत्तर अपने पूत्रों के साथ वन-क्रीडा के लिए भाया था। उसी उप- में ताना कस भी डाला। अच्छा मैं तो मुर्ख ही रही, पर वन में एक भोर रानी प्रभया और पुरोहित पत्नी कपिला प्राप तो चतुर है कुछ कर दिखाएंगी, तभी मैं प्रोगका भी बैठी हुई वसन्त की चर्चा कर रही थी। रानी प्रभया लोहा मानूंगी। व्यर्थ की बातों मे क्या घरावर ने सुदर्शन और उसके परिवार को देखा, वह विस्मय में पुरुष हो भी, तो उसे कोई पथभ्रष्ट नहीं कर सकता। गोते खाने लगी। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि मेरे नगर में वह पर स्त्री के विषय में कामविजेता वीतरागी है, वासना इतने सन्दर लोग भी रहते हैं। हम राजा मोर रानी भी मोर प्रलोभन उसे अपने पद से जरा भी विलित नहीं
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कर सकते वह इंद्रियजयी भोजस्वी नर है।
रानी सुदर्शन के रूप पर तो मोहित थी ही, प्रौर उस पर यह ताना तीर का काम कर गया। वह चट बोल पड़ी, अच्छा कभी देख लेना मेरा चातुर्य ।
रानी ! राजमहल में जाकर उपाय खोजने लगी। महलों पर रात और दिन कड़ा पहरा रहता था, उस पर राजा का भय खाये जा रहा था, प्रतिष्ठा भी उसे रह रह कर रोकती थी। वह अनजान पुरुष मेरे पास कैसे पहुँचे, दिनरात इसी उधेड़ घुन मे लगी रहती थी । कामवासना ने उसे अन्धा जो बना दिया था। वासना कितनी बुरी चीज है, यह सब नहीं जानते, वासना का संस्कार मानव को पतन की ओर ले जाता है, कामी लोक, लज्जा, कुल एव प्रतिष्ठा सभी को तिलाजलि दे देता है। जिस तरह मदाघ पुरुष को मार्ग नही दिखलाई देता, उसी तरह कामांध को भी सत्पथ नहीं सूझता ।
रानी का हृदय वासना का शिकार बन चुका था, सुदर्शन कब मिले ? इसी चिन्ता में उसका समय बीतता था । एक दिन उसने विश्वासपात्र अपनी पडता नामक धाय को एकान्त में अपने पास बुलाया, और अपने मन की सारी व्यथा उससे कही। पंडिता पाय बहुत चतुर थी, उसने पहले तो रानी को बहुत समझाया, और कहा कि ऐसा जघन्य कार्य करना तुझे उचित नही है। पर इसका रानी पर रत्ती भर असर नही हुआ ।
रानी बोली तू क्यों भय खाती है, मैं तुझे मुहमांगा इनाम दूँगी, तू किसी तरह भी उस पुरुष को यहां ला दे । यह कार्य तेरे बिना धन्य किसी के द्वारा संभव नहीं है। रानी ने बाप को बहुत समझाया डराया धमकाया और लालच भी दिया। पंडिताघाव लालच मे भा गई, और उसने उसे गुरुतर कार्य करने की स्वीकृति प्रदान कर दी । यह तथ्य है कि सभ्य भौर दुष्ट स्त्रियों कौन सा बुरा काम नहीं कर सकतीं। रानी ने कहा जा मेरा तेरे पर पूर्ण विश्वास है ।
पड़िता ने विचार किया कि राजमहल के भागे एक एक करके सात चौकियां हैं। प्रत्येक पर एक एक सिपाही पहरेदार है । पहले माने जाने का रास्ता खोलना चाहिए। एक दिन वह किसी शिल्पी के पास गई और मनुष्य
अनेकान
प्राकार की उसने अनेक मूर्तियां बनवाई।
विशाल विभूति का स्वामी होने पर भी सुदर्शन एक धर्मात्मा श्रावक था । वह घर में भी वैरागी था, विभूति पर उसे ममता नहीं थी, वह उसे अपनी नहीं मानता था। संसार मे रहता हुआ भी उससे सदा उदासीन रहता था, वह संसार से छुटकारा पाने के प्रयत्न में सदा लगा रहता था । अष्टमी चतुर्दशी को उपवास करता था और कर्मनिर्जरा करने के लिए रात्रि में श्मशान भूमि में अष्टमी चतुर्दशी के दिन ध्यान लगाता था। इस गति-विवि को पडिता जानत थी । उसने सुदर्शन को राजमहल में ले जाने का षडयंत्र
रचा ।
पडिला विशालकाय पौर हृष्टपुष्ट थी। शारीरिक बल मे भी वह कम नहीं थी। किसी प्रोसतन प्रादमी को वह कंधो पर बिठा कर आसानी से ले जा सकती थी । उसने मनुष्याकार की एक मूर्ति को कपड़े से ढककर तथा उसे सिर पर रख कर राजमहल की घोर आई पहली चौकी के चौकीदार ने उसे रोका और कहा, मैं किसी चीज को बिना देखे बन्दर नहीं ले जाने दूंगा ।
धाय ने कहा- किसी को दिखलाने की रानीजी ने सख्त मनाही कर दी है।
।
सिपाही बोला- मेरा जो नियम है उसे निभाना ही पड़ेगा । यह कह कर वह उस मूर्ति का कपड़ा हटा कर उसे देखने का प्रयत्न करने लगा, पडिता बलपूर्वक मागे बढ़ने लगी। इसी बाद-विवाद में पडिता ने वह मूर्ति नीचे गिरा दी और चिल्ला चिल्ला कर उच्च स्वर से कहने लगी - सिपाही तेरी मौत ही घो गई, तूने रानीजी की देवपूजा मे भयंकर विघ्न उपस्थित कर दिया है, मैं तुम्हारी शिकायत महारानी जी से करूमी वे तुम्हारी दुष्टता का फल मृत्युदण्ड दिलावेगी । इसमे तनिक भी सन्देह नहीं है।
उसे सुन सिपाही पदरा गया और पंडिता के पैरों में पड कर गिडगिडाने लगा, रानी से मत कहना। मैं भव तुझे कभी भी नहीं रोकूंगा। कुछ भी लेते जाना। पडिता ने । चलते-चलते धीरे से उसके कान मे कुछ कहा, भाई ! रानी जी पुत्र कामना से कंदर्प पूजा में लगी हैं। यह बात किसी से कहने-सुनने की थोड़े ही होती है। तुमने तो उस पुतले
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सेठ सुदर्शन
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को तुड़वा दिया। अब वे अपना व्रत कसे पूरा करेंगी। राजा ने बिना कुछ विचार किये ही सेवकों को माज्ञा दी विना पूजा के वे भोजन भी नही करती हैं । अच्छा तो यही कि श्मशान में ले जाकर इसे सूली पर चढ़ा दो। है, कि अब तुम मुझे कभी नहीं रोकना, चाहे मैं कुछ ले सेवक सुदर्शन को श्मशान भूमि में ले गए। सेवकों जाऊं। इसी तरह उसने क्रम से प्रन्य छह पहरेदारों को भी ने सदर्शन पर तलवार के कई वार किये, किन्तु वे सब वश में कर लिया।
प्रहार पुष्पहार में परिणत हो गए। किसी कवि ने ठीक सुदर्शन अष्टमी का उपवास कर सर्यास्त हो जानेपर ही कहा है कि पुण्यवानों का दुःख भी सुख में परिणत हो रात्रि के समय श्मशान भूमि मे प्रतिमायोग से स्थित था। जाता है। सुदर्शन अपनी सच्चरित्रता मोर प्रखड शीलव्रत उसी समय रात्रि में वह पंडिता वहाँ गई और उससे के प्रभाव स सराक्षत हा गय बोली, तुम धन्य हो जो तुम पर रानी अभया अनुरक्त हई जब यह समाचार राजा को ज्ञात हुमा तो वह भी है। तुम चलकर उसके साथ दिव्य भोगों का अनुभव दौडा चला पाया। राजा ने देखा कि सुदर्शन दिव्य सिंहाकरो। इस तरह पडिता ने अनेक मधुर वचनों द्वारा सन मे विराजमान है, और देवगण उसकी पूजा कर रहे माकृष्ट करने का प्रयत्न किया; किन्तु सदर्शन अपनी है। और प्रजा सुदर्शन की जय के नारे लगा रही है। समाधि में निश्चल रहा। लाचार हो उसने उसे अपने राजा को वस्तुस्थिति का ज्ञान करते देर न लगी। राजा कन्धे पर रख लिया और महल मे लाकर अभया के शयना ने अपने अपराध की क्षमा मागी, और सुदर्शन से कहा गार में रख दिया। तब प्रभयमती ने उसके समक्ष अनेक कि पाप नगर मे चलिए और भाषा राज्य लीजिए। प्रकार की स्त्रीसुलभ कामोद्दीपक चेष्टाये की, किन्तु वह किन्तु सुदर्शन ने कहा, श्मशान भूमि से जाते समय उसके चित्त को विचलित करने में समर्थ न हो सकी। ही मैंने यह विचार किया था कि यदि इस उपसर्ग से मेरी अन्त में निराशा और उद्विग्न होकर उसने पंडिता से
रक्षा हो जायगी तो मैं पाणिपात्र मे पाहार करूंगा-दिगकहा, इसे वही ल जाकर छोड़ पायो ।
म्बर मुनि हो जाऊंगा। उसने सुकान्त को विधिवत पडिता ने बाहर निकल कर देखा तो प्रात.काल हो सपत्ति का स्वामित्व प्रदान कर विमलवाहन मुनि के चुका था, तब उसने कहा कि अब तो सबेरा हो चुका है। समीप दीक्षा ले ली। जब यह समाचार प्रभया को भात उसे ले जाना सभव नही है। अब क्या किया जाय। हमा तो उसने भी वृक्ष से लटक कर प्रात्महत्या कर ली। __ यह देखकर अभयमती कि कर्तव्यविमूह हो गई । अन्त दासी पडिता वहा से भाग गई। मे उसने उसे शयनागार मे कायोत्सर्ग से रखकर अपने मनि सदर्शन कठोर तपस्वी थे, उन्होने प्रात्म-साधना शरीर को अपने ही नखो से नोंच डाला और रोती हुई द्वारा स्वात्मोलब्धि को प्राप्त करने का प्रयत्न किया। चिल्ला कर कहने लगी, हाय, हाय, इस दुष्ट ने मुझ शील- उन्होंने समताभाव का प्राश्रय लिया और अनेक उपसर्ग वती के शरीर को क्षत-विक्षत कर डाला है। दोड़ो, लोगो परीषह पाने पर भी उनका मनसुमेर जरा भो न डिगा दौडो, मेरी इससे रक्षा करो। इतने में किसी ने जाकर और कर्मबन्धन का विनाश कर वे अविनाशी पद को राजा में कह दिया कि सुदर्शन ने ऐसा कार्य किया है। प्राप्त हुए।
एकता हम सबको अपने हाथ को पांचों अंगुलियों की तरह रहना चाहिए। हाथ की अंगुलियां सब एक सी नहीं होती, कोई छोटी, कोई बड़ी; किन्तु जब हम हाथ से किसी वस्तु को उठाते हैं तब हमें पांचों ही अगुलियां इकट्ठी होकर सहयोग देती हैं। हैं पांच, किन्तु काम हजारों का करती हैं, उनमें एकता जो है।
-विनोवा
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भाग्यशाली लकड़हारा
परमानन्द जैन शास्त्री
कम्पिल नगर में राजा रिपुवर्द्धन राज्य कर था। अकिंचन ने कुछ सोच-विचार कर कहा । महाराज ! वह राजनीति में अत्यन्त निपुण था और सदैव प्रजा का मै इस समय तो एक ही नियम कर सकता हूँ। मेरा पुत्रवत् पालन करता था । उसी राज्य मे अकिंचन नाम का लकडी काटने का ही काम है। पर आज से मैं हरे वृक्ष एक लकड़हारा भी रहता था, दीनता के कारण वह अपने को नही कार्टगा। सूखी लकड़ी जहां से मिलेगी लाऊंगा साथियों के साथ जंगल में लकड़ियां काट कर लाता मोर और अपनी प्राजीविका चलाऊंगा। उन्हें बेचकर अपना निर्वाह करता था। एक दिन उसे
साधु ने कहा, वत्स ! जामो, और नियम का दृढ़ता जंगल में सौम्य मुद्रा के घारक साधु मिले । उसने हाथ ।
से पालन करना। जोड़ कर साधु को प्रणाम किया। साधु ने उसे मानव जीवन की महत्ता बतलाई और उसे सत्संग मे रहने की वह प्रतिदिन अपने साथी लकड़हारों के साथ जगल प्रेरणा दी । लकडहारा बोला महाराज उपदेश सुनने और जाता और नियमपूर्वक लकड़ियां लाता, और उन्हें बेच सत्संग में रहने को जी तो बहुत चाहा करता है। परन्तु कर अपना जीवर निर्वाह करता। यह ध्यान अवश्य निर्घनतावश इस पापी पेट को भरने के लिए सुबह से रखता कि मेरे नियम पालन में प्रसावधानी न हो जाय । शाम तक प्रयत्न करना पड़ता है। इससे सत्सग का लाभ इस तरह ग्रीष्म ऋतु पूरी हो गई और वर्षा ऋतु प्रा उठाया नहीं जा सकता । सोचता तो जरूर हूँ पर उसके गई । सूखा हुमा जगल हरा-भरा हो गया। सभी वृक्षों कारण धर्म-कर्म की कोई बात नही सूझती परन्तु दरिद्रता मे नई कोपले फूट पाई। जगल मे सर्वत्र हरियाली ही का अभिशाप खाएँ जा रहा है । पाप जैसे सन्त पुरुष ही हरियाली दिखाई देने लगी। सूखी लकड़ी मिलना कठिन उससे मुक्ति दिला सकते हैं ?
हो गया । बहुत दूर और बहुत परिश्रम करने पर सूखी साधु ने कहा, मानव जीवन की महानता सदगुणों के लकड़ी मिल पातीं। साथी लकड़हारे इससे परेशान थे। विकास से होती है। उसके लिए उसे धर्मानुष्ठान और एक दिन प्रयत्न करने पर भी उसे सूखी लकडिया न व्रताचरण करना आवश्यक होता है। धर्म का साधन न मिली। अतः उसके साथियों ने उसे वहीं छोड़ दिया। केवल धर्म स्थानो में ही नहीं होता, किन्तु घर मे उद्यानों भाद्रों, पाश्विन मास की कड़ी धूप और जंगल ऊबड़-खाबड और जंगलों में भी हो सकता है। धर्म त्याग और तपा- का बीहड़ रास्त, भूखापेट, सूखी लकड़िया न मिलने की नुष्ठान में है। जीवन का प्रत्येक कार्य धर्म के साथ जुड़ा परेशानी होते हुए भी अकिंचन ने हिम्मत न हारी। वह हुपा है । जहाँ मानवता, उदारता, परोपकार वृत्ति और अपने कदम आगे बढ़ाता गया। मानो वह अपनी मजिल की क्षमा प्रादि सद्गुण पल्लवित होते है, वहाँ धर्म रहता है। प्रोर ही वढ रहा हो। बहुत दूर चले जाने के बाद कही धर्म का परिणाम अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति है। उसे सूखी लड़कियों का एक ढेर दिखाई दिया, वह उसका सम्बन्ध अन्दर की निर्मल भावना से है । यह ठीक खुशी से छलांगें भरने लगा। और यह सोचने लगा कि है कि तुझे समय कम मिलता है, पर यह भी ठीक है कि अब मुझे कई दिन तक सूखी लकड़ियां नही ढूढने पड़ेंगी। कुछ समय व्यर्थ मी गवां दिया जाता है । रात-दिन पेट की सीधा ही यहाँ चला माऊँगा, अपना गट्ठा बांध कर सीधा ही चिन्ता रहती है फिर भी जीवन की कुछ न कुछ व्रत- चला जाया करूंगा। उस दिन उसे गट्ठा लेकर पहुँचतेनियम तो कर ही सकता है ।
पहुँचते सूर्य अस्त हो चुका था। उसने सोच क,ल ही
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भाग्यशाली लकड़हारा
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बाजार जाऊंगा। और सौदा बेचंगा, बह झट-पट अपना मागन्तुक व्यक्ति ने कहा-यह तो बावना चन्दन है, खाना पकाने बैठ गया।
लाखों रुपये में भी इसका मिलना दुर्लभ है। धनदत्त सेठ ने अपने मित्रों को इसीदिन नगर के किचन ने हंसते हुए कहा-लाखों रुपये की मेरी बाहर के एक उद्यान में दावत दी। सभी मित्र बड़े पनि
मित्र बड़ सम्पत्ति क्या माप एक ही रुपये में खरीद रहे थे? उत्साह से पधारे। एक मित्र को पाने में कुछ विलम्ब हो गया। जब वह उस उद्यान की भोर जा रहा था,
अकिंचन ने प्रागन्तुक सज्जन को लकड़ी का एक भकिचन का घर भी बीच में प्रा गया। उसे सुरभि की
टुकड़ा बिना कुछ दिए ही प्रदान किया। मौर कहा
दुक मस्त गप ने अपनी मोर प्राकर्षित कर लिया, वह उससे
मापने तो मुझे इसके गुण बतलाकर बहुत उपकृत किया खिंचकर अकिंचन के घर मा गया। वहां उसने लक
है। अन्यथा यह मेरी बहुमूल्य सम्पदा यों ही चली जाती। ड़ियों का एक गदर देखा जिसकी गंध से उसे बड़ा प्रात: होते ही अकिंचन एक लकड़ी लेकर बाजार में पाश्चर्य हुमा था। उसने पाते ही एक रुपया अकिंचन की गया । साथियों ने उसका मजाक उड़ाया मोर व्यंग कसते पोर फेंका और कहा-इसकी एक लकड़ी मुझे दे दो। हुए कहा-हां, यह एक लकड़ी तेरा पेट अवश्य ही भर लकड़हारा बड़ा चतुर था, उसके मन में विचार पाया देगी ? अकिंचन ने किसी की एक न सुनी, वह एक बड़े कि जब एक लकडी का एक रुपया सहज ही मिल रहा सेठ की दुकान पर पहुंचा और उसने उसे बेच कर सवा है, तो अवश्य ही इस लकड़ी में कोई न कोई चमत्कार लाख रुपया ले लिये । अकिंचन के घर में अब किसी है, वह तुरन्त बोल पडा-मुझे नही वेचना है, आगन्तुक वस्तु की कमी नही थी, सांसारिक सुख के सारे प्रसाधन व्यक्ति, क्यों नहीं बेच रहा है, क्या तेरे मन में कुछ लोभ हो गए उमका विवाह भी हो गया। वह अच्छे से अच्छा समा गया है ?
व्यवसाय करने लगा, दिन पर दिन धन की वृद्धि होने लकडहारा-नकड़ियां मेरी अपनी है। मैं ही अपनी लगी। उसे अपने नियम की महत्ता का मूल्य प्रतिभासित इच्छा का स्वामी हूँ, मुझे आप बेचने के लिए बाध्य नही हुआ, उसे लगा कि नियम के बिना जीवन भारस्वरूप है। कर सकते । आप यदि एक रुपया के बजाय अपना सारा वह अब सत्समागम में प्रतिदिन जाने लगा, जब उसे किसी धन ही मुझे सौप दें, तो भी मैं देने के लिए तैयार नही महापुरुष का समागम मिल जाता तो वह उसका उपदेश हूँ। यदि आपकी मेहरबानी हो तो आप इस लकड़ी के गुण सुनता और अपने जीवन की सफलता की कामना करता। अवश्य बतलाएं। आपकी बात से इतना तो मुझे स्पष्ट इस तरह उसने धर्म के अनुष्ठान में अपना सारा जीवन हो गया है कि लकड़ी बहुमूल्य है।
अर्पित कर दिया।
चेतन यह घर नाहीं तेरौ । घट-पटावि नैननिगोचर जो, नाटक पुदगल केरोटेका तात मात कामनि सुत बंध, करमवष को घेरौ। करि है गौन मान गति को जब, कोई नहीं प्रावत नेरौ॥१ भमत भ्रमत संसार गहन वन, कीयो पानि वसेरो। मिथ्या मोह उर्व से समझो इह सदन है मेरौ ॥२ सरगुरु वचन जोइ घट बीपक, मिट प्रलोक अंधेरौ। असंख्यात परवेश ग्यानमय, जो जानउ निज डेरौ ॥३ ताल विव्य लय त्यागि मापको, पाप प्रापहि हेरौ । मो 'मनराम' प्रचेतन परसों, सहजे होय निवेरो॥४
मनराम
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भगवान् महावीर का सन्देश डा० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु', एम. ए., पो-एच. डी., शास्त्री
विश्व के इतिहास मे ईसा पूर्व छठवी शती सांस्कृतिक किया। साधना और ज्ञानोपलब्धि के पश्चात् उन्होंने क्रान्ति का युग माना जाता है। इस युग मे सम्पूर्ण ससार सम्पूर्ण विश्व को बिना किसी भेद भाव के कल्याण के में अनेक प्रकार की उथल-पुथल हुई है। परिणाम स्वरूप प्रशस्त मार्ग का निर्देश किया। "मित्ती मे सव्व भएम' अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन सामने पाये। धर्म और दर्शन (सब प्राणियो से मेरी मित्रता है) यह था भगवान महाके क्षेत्र भी इससे अछूते नहीं रहे। इस क्रान्ति में भारत वीर का आदर्श । वे हिसा के मूर्तमान प्रतीक थे। उनका और विशेष रूप से बिहार प्रान्त (तत्कालीन मगध) की । जीवन त्याग और तपस्या से प्रोत-प्रोत था। उन्हे रचमात्र गौरवान्वित वसुन्धरा भला कैसे पीछे रह सकती थी। भी परिग्रह और ममता नही थी। सत्य का जिज्ञासु और महामहिम महावीर और गौतमबुद्ध जैसे महापुरुषो का अन्वेषक प्रत्येक मानव उनके सघ के नियमो को स्वीकार प्रादुर्भाव उसी समय का सुपरिणाम है।
कर सकता था या संच में सम्मिलित हो सकता था। वैशाली (वर्तमान बसाढ़, जिला मुजफ्फरपुर) की आगम ग्रन्थों में इस प्रकार के उदाहरण प्रचुरता से मिलते गणतन्त्र परम्परा के उन्नायक, ज्ञातृवंशीय राजा सिद्धार्थ है । जिनके अनुसार कोई भी प्राणी किसी भी कुल या
जाति मे क्यों न उत्पन्न हुप्रा हो, यदि उसके कर्म उच्च मौर महारानी त्रिशला से ईसापूर्व ५६६ में चैत्र शुक्ला । १३ को जनमे बालक वर्द्धमान को शाही शान-शौकत और
प्रकार के है तो वह उच्च कुल या उच्च वर्ण का बन चमक-दमक तनिक भी प्रभावित नहीं कर सकी। उस
सकता था और यदि उसके कार्य निम्न कोटि के या निन्द
सकता समय हिसा, पशुबलि और जातिपाति के भेदभाव चरम
नीय है, भले ही उसका जन्म उक्चकुल में हुआ है, तो वह सीमा का स्पर्श कर चुके थे। वर्द्धमान बहुत साहसी,
निम्नतर वर्ण में पहुँच जाता था। इस प्रकार की सार्व
जनिक प्रवृत्तियों ने सामाजिक सश्लिष्टता और सर्वोदय निर्भीक और विवेक सम्पन्न थे। उनके साहस, धैर्य और
की भावनाओं को बल तो दिया ही, आत्म-विकास एव पराक्रम की बहुत सी कथाएँ प्रसिद्ध है । वह परम्परा और
प्रभ्युदय के लिए सभी प्रकार के सीमा बन्धनों का और परिस्थिति के अनुसार नही चला, बल्कि उसने परि- "
अभाव भी कर दिया। स्थितियों को अपने अनुरूप बनाया। उसने क्रमशः परिस्थितियो पर ऐसा नियन्त्रण किया कि थोड़े ही समय में
भगवान महावीर ने अपनी दिव्य देशना के द्वारा 'महावीर' कहलाने लगा। उसकी विभिन्न गतिविधियों
प्राणिमात्र को सबोधित किया। पशु-पक्षी तथा विविध के कारण उसे सन्मति, महति, वीर, महावीर, अन्त्यका
योनियों के प्राणी भी उनके उपदेश सुन सकते थे । उपदेश श्यप, नाथान्वय आदि नामों से भी सम्बोधित किया जाता
का माध्यम था-जन सामान्य की भाषा अर्द्धमागधी है। उसने अपने व्यक्तित्व का कैसा विकास किया जिससे
प्राकृत । उन्होने कहा कि-सुख और दुःख की अनुभूति कि वह सामान्य मानव न रहकर 'महामानव', 'महापुरुष'
सभी को एक जैसी होती है। अतः कोई ऐसा कार्य मत
कीजिए जो पापको और दूसरों को अप्रिय हो। इसी और 'महात्मा' की कोटि मे अधिष्ठित हो गया।
सन्दर्भ में उनका सन्देश है :अपने विकास के मार्ग में महावीर ने आत्मसाधना के
समया सवभूएसु सत्तु मिसेसु वा जगे। अतिरिक्त चिन्तन, मनन, प्राणि-मात्र की हितैषिता एवं
पाणाइवाय विरई, जावज्जीवाए दुक्करा ॥ सर्वप्राणि-समभाव की उदात्त प्रवृत्तियों को भी प्रात्मसात्
-उत्तराध्ययन सूत्र १६-२५
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भगवान महावीर का सन्देश
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'सभी प्राणियों पर समभाव रखें, चाहे वह प्रापका वे बाह्याडम्बर और प्रदर्शन को अनावश्यक तथा हेय शत्रु हो अथवा मित्र । सभी को अपने समान समझे। मानते थे। उन्होने कहायही अहिसा (प्राणातिपात-विरति) है'।
न वि मंडिएण समणो, न मोंकारेण बंभणो। उन्होने दया को धर्म का मूल बताया है :
न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावतो।।
उत्तरा २५.२६ 'इष्ट ययात्मनो देह , सर्वेषां प्राणिनां तथा । एवं ज्ञात्वा सदा कार्या, दया सर्वा-सुधारिणाम ॥'
शिर मुडा लेने से ही कोई 'श्रमण' नही बन जाता। -पद्मपुराण, १४.१८६ केवल 'प्रोकार' का जप कर लेने से कोई 'ब्राह्मण' नहीं
हो जाता । केवल जगलवास करने से ही कोई 'मुनि' नही भगवान् महावीर ने कहा कि सृष्टि में जितने प्राणी
बन जाता और न वल्कल वस्त्र पहनने मात्र से कोई है सभी को जीने का हक है। अतः जानते हुए अथवा
तपस्वी ही हो जाता है। बल्कि-.नही जानते हुए उनकी हिसा न तो स्वय करे और न
समयाए समणो होइ, बभचेरेण बभणो । दूसरों से ही करवायें।
नाणेण य मुणो होइ, तवेणं होइ तावसो ॥ सम्वे प्राणा पियाउया,
उत्तराध्ययन, २५-३० सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा ।
समता पालने से 'श्रमण', ब्रह्मचर्य का पालन करने पियजीविणो जोविउकामा, सम्वेसि जीवियं पियं ॥
से 'ब्राह्मण' चिन्तन, मनन और ज्ञान के कारण 'मुनि' -प्राचाराग सूत्र १-२-३ तथा तपर
तथा तपस्या करने के कारण 'तपस्वी' होता है। सभी प्रणियो को अपने-अपने प्राण प्रिय है, सब सुख
महावीर स्वामी ने क्रोध, मान, माया, और लोभ
जैसे विकारी भावो को अपना अहित और अपयश कराने चाहते है, दुःख पसन्द नही करते । हिसा नहीं चाहते। जीने की इच्छा सभी में है। अत: सबकी रक्षा करना
वाल बताकर उन्हें सभी अनर्थों के जड़ के रूप में निरूपित मानव का कर्तव्य है।
किया है। उन्होंने कहा- क्रोध को शान्ति से जीतो। प्रमाद सभी प्रकार के अनर्थों की जड़ है उससे व्यक्ति
क्रोध से मनुष्य नीचे गिरता है, अभिमान से अधम गति का भविष्य अन्धकार के गर्त मे पडता है । भगवान् महा
को पाता है। माया से सद्गति का नाश होता है और वीर ने समाज से आग्रह किया है कि वह प्रताद को छोड
लोभ से इस लोक तथा परलोक-उभयत्र भय एव निन्दा कर अपने कर्तव्यों का निर्वहण करे।
होती है।
भ० महावीर समाज में राष्ट्रीय जागृति लाना चाहते रिबप्पं न सक्केइ विवेगमेउ'
थे। इसके लिए उन्होने 'विवेक' को जागत करना तम्हा समुठ्ठाय पहाय कामे।
प्रावश्यक बताया। विवेक होने पर ही उपदेश की समिच्च लोय समया महेसी,
सार्थकता है। अप्पाण-रक्खी-रक्खो चरमप्पमत्तो ।।
उद्दमो पासगस्स स्थि, उत्तगध्ययन सूत्र-४-१०
बाले पुण णिहे कामसमणणे । विवेक की उपलब्धि जल्दी नही हो जाती। उसके असिम दुक्खे दुक्खी, लिए महती साधना आवश्यक है। साधक का यह कर्तव्य
दुक्खाणमेव प्रावह प्रणपरियद्दइ । है कि वह काम-मोगो का परित्याग कर समता भाव से
प्राचाराग सूत्र । ससार को यथार्थ स्थिति का अनुभव करे, प्रात्मा को उपदेश की आवश्यकता सामान्य व्यक्ति को होती हैं, पाप से बचावे और पूरी तरह से प्रमाद को छोड़ कर विवेकी के लिए कदापि नही। अज्ञानी राग-द्वेष से ग्रस्त विचरण करे।
और कषायों से पीड़ित तथा विषय-भोगों को कल्याणकारी
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२१०, वर्ष २२ कि.६
मानकर उसमें मासक्त रहने वाला मनुष्य, उनसे उत्पन्न ष्टता, श्रेष्ठ तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, संयम और होने वाले दुखों को शान्त नहीं कर पाता है। प्रतः शारी- विनय के लिए ब्रह्मचचर्य को अपनाना पावश्यक बताया है। रिक मोर मानसिक दुखों से पीड़ित वह दुख चक्र में ही
महावीर स्वामी ने संसार के प्राणियों की मनोदशा भटकता रहता है।
का अवलोकन कर कहा 'मैं और मेरा' इस मन्त्र ने सम्पूर्ण जो लोगस्सेसणं चरे। प्राचारांग सूत्र ।
विश्व को अन्धा बना दिया है, जब कि यह मन्त्र स्वयं मानव विवेकी बने । देखा-देखी नहीं करे।
बहुत कष्टदायी पौर प्रशान्ति का कारण है । अनासक्त उन्होंने कहा
भाव रखने से प्रत्येक स्थिति में सुख मिलता है। 'अप्पाणमेव प्रप्पाण, जइत्ता सुहमेह ए।'
म. महावीर ने धर्म का सार्वभौम रूप विश्व के (उत्तराध्ययन सूत्र ६.३५)
समक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने समझाया कि-धर्म वह है स्वयं ही स्वयं को जीतने से सच्चे सुख की उपलब्धि
जिससे अपना और सबका कल्याण हो, विकास हो, उत्पा हो सकती है। अतएव प्रात्मनिग्रह के लिए प्रयत्न करना
हो । मानव अपनी इच्छाप्रो को वश में रखे । उससे स्वय चाहिए।
सुखी होवे और दूसरो को भी सुखी होने का अबसर 'बहुयं मा य मालपेत् ।'
प्रदान करे। उन्होंने बताया कि भोगों का उपभोग करना पावश्यकता से अधिक नहीं बोलें । क्योंकि बहुत से दूरा नही है. बरा है उनमें प्रासक्त हो जाना। मिठाई विवाद, कलह प्रादि ज्यादा और अनावश्यक बोलने से
खाने से मुह अवश्य मीठा होता है किन्तु मात्रा से अधिक ही होते हैं। यदि, इस सदर्भ में भ. महावीर के इस
खाने से अजीर्ण के साथ साथ कीडे भी पड़ने लगते है।
खाने से सन्देश पर विचार करें तो सहज ही वर-भाव, विद्वेष और भोगों पर नियंत्रण रखने से जीवन, सुखी, स्वस्थ और कलह पादि के कारणों का विनाश हो सकता है।
समृद्ध हो सकता है। उनके सन्देश में विश्व-कल्याण की मपुच्छिम्रो न भासेज्जा, भासभाणस्स अन्तरा। सामर्थ्य है। उनका जीवन, उनकी वाणी और सन्देश चिट्ठिमंस न खाएज्जा, मायामोस विज्जए।।
युग-युगों तक जनता का कल्याण करते रहेंगे। -दशवेकालिक ८-४६ ।
भगवान महावीर ने अपने सन्देश मैं अहिंसा, सत्य, विना पूंछे उत्तर न दे। दूसरों के बीच में नहीं बोले। अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर बहुत बल दिया। पीठ पीछे किसी की निन्दा न करे। और बात करते समय
त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार छल कपट भरे भोर झूठे शब्दों का प्रयोग नही करना
उनके प्रवचनों का सार है। आज का संत्रस्त विश्व धन्य चाहिए।
हो जावे यदि वह भगवान महावीर इस छोटे-से सन्बेश भदत्तादान (चोरी की वस्तु) अनेक प्रकार के कष्टों को अपना ले, जिसके अनुसार संसार के छोटे-बड़े सभी की जड़ है । निन्दनीय है। मरण, भय, अपयश मादि का प्राणी हमारे ही समान है। कारण तो है ही । मतः मालिक की प्राज्ञा के बिना किसी
उहरे व पाणे बुढ़े व पाणे । दूसरे की वस्तुएं ग्रहण न करें। उन्होंने सामाजिक सलि
ते मान्यो पास सब्बलोए॥
संतोषी सुखी है अनन्त माशालताओं से बाग सरसन्न हो रहा है। प्रसीमित इच्छाएँ मा-मा कर अपनी-अपनी कामनामों का ढेर लगा रही हैं। बेचारा पथिक उनकी पूर्ति में जीवन की बाजी लगा रहा है। पर, इच्छा पूर्ति न होने से दुखी है। जो सन्तोषी है वह सुखी है, जो पाशामों के वास हैं वे संसार के दास हैं।
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अखिल भारतीय जैन जनगणना समिति
मान्यवर,
भाग्न में जैनो की सम्या एक करोड़ से अधिक है, किन्तु पिछली जनगणना के अनुसार मात्र बीस लाख बनाई गई है, क्योकि धर्म के कालम मे हम में से अधिकाश ने जन न लिखाकर गोत्र या बिरादरी प्रादि लिखा दिया।
जनसम्या की गणना मही सही हो, इसके लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने को जैन लिखाये ।
अागामी जनगणना फरवरी १६७१ मे होगी। पाप से अनुरोध है कि आप अपने नगर तथा पास पास को सम्पूर्ण जैन समाज के प्रत्येक व्यक्ति को यह अवगत करा दे कि जनगणना के अवसर पर धर्म (Religion) के दसर्व खाने (कालम) में अपने को मात्र जैन ही लिखाये ।।
___ इसके लिए उचित यह होगा कि एक स्थानीय जैन जनगणना ममिति बना ले, जिसके कार्यकर्ता अपने नगर तथा ग्राम पाम के क्षेत्र में इस बात को प्रचारित-प्रमारित करे तथा जनगणना के समय मुचना बनानेवाले अधि. कारियो के माथ जाकर सही सही गणना करा दे। जैन धर्म और जैन मस्कृति के लिए यह महत्वपूर्ण कार्य होगा :
भवदीयसेठ शीतल प्रसाद जैन, अध्यक्ष सकुमारचन्द जैन, मन्त्री म. भा० जन जनगणना समिति
भगवान महावीर जयन्ती समारोह के शुभावसर पर जैन समाज से अपील
भारत में भगवान महावीर का जन्म दिवस व्यापक प मे मनाया जाता है। इस अवसर पर हमारी जैन समाज के प्राचार्य महाराजो, मुनिगणो, न्यागी वर्ग तथा विद्वानो मे सविनय निवेदन है कि वे इस शुभ अवसर पर अपने
भ सन्देशो, विचारों द्वारा जैन समाज को यह मन्देश पहुँचाएं कि परकार द्वारा होने पाली जनगणना, जो फरवरी सन् १९७१ में होने जा रही है उसमे अपनी सम्प्रदाय, जानि गोत्र आदि न लिखा कर केवल जैन ही लिखाएँ। यह जानकारी गाँव-गाँव, स्त्री पुरुष एवं बच्चो तक पहुँचनी प्रावश्यक है। यह एक महान कार्य है। इसन सफलता प्राप्त करने हेतु जैन समाज के प्रत्येक शुभ चिन्तक को जुट कर कार्य करने की प्रार्थना है।।
महावीर जयन्ती पर होने वाले प्रायोजनो के कार्यकर्तायो एक सयोजको में भी यह निवेदन है कि इस अवसर पर अपने पोस्टरो, हैण्डबिलो, निमन्त्रण-पत्रो व सभाओं के माध्यम से जन-गणना में जन लिग्वाने का व्यापक प्रचार करें।
निवेदक भगतराम जैन
मन्त्री प्र. भा० जन जनगणना समिति
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62 (१) पुरातन-जैनवाक्य-मूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थो मे
उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यो की सूची। सपादक मुख्तार श्री जगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी.लिट की भमिका
(Introduction) मे भूपित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बडा साइज, सजिल्द १५.०० (२) प्राप्त परीक्षा--श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपन मटीक अपूर्व कृति प्राप्तो को परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक
मुन्दर, विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य प दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद मे युक्त, सजिल्द । ८.०० (३) स्वयम्भूस्तोत्र-ममन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना में सुशोभित ।।
२.०० (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोग्वी कृति, पापा के जीतने की कला, मीक, मानवाद और श्री जुगल
किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि में अलकृत गन्दर जिल्द-गहित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड----पचाध्यायीकार कवि गजमल की सुन्दर प्राध्यामिकर चना, हिन्दी-अनुवाद-महित १.५० (६) युक्त्यनुगामन-तत्वज्ञान मे परिपूर्ण ममन्तभद्र की असाधारण कृति, जिमका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनााद में अनकृत, सजिल्द । ... १२५ (७) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र---प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि महित। ७५ (८) शासनचतुस्विशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वो शतानी की रचना, हिन्दी-अनुवाद महित ७५ (६) समीचीन धर्मशास्त्र--स्वामी समन्तभद्र का गृहस्याचार-विषयक अन्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना में युक, जिल्द । .. ३.०० (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा० १ मस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण
महित अपूर्व सग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो और प० परमानन्द शास्त्रों की इतिहास-विषयक माहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना में अलकृत, जिल्द । (११) समाधितन्त्र और दृष्टोपदेश-अध्यात्मकृति परमानन्द शासकी दादीका महित
४-०० (१२) अनित्यभावना---प्रा० पद्मनन्दीकी महत्वकी रचना, मुस्तार श्री के हिदी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ 1) तत्वार्थसूत्र--(प्रभाचन्द्रीय)--मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा स्या मे पृक्त । . २५ (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ ।
दावीर का मर्वोदय तीर्थ १६ पैमे, १६ समन्तभद्र विचार-दीपिका १६ पैसे, (१७) महावीर पूजा १६ १) अध्यात्म रहस्य-१० आशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । (88) जैनग्रन्थ-प्रशस्त मग्रह भा० २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण सग्रह । पचपन
ग्रन्थकारो के ऐतिहासिक ग्रथ-परिचय और परिशिष्टो सहित । स. ५० घरमान्द शास्त्री । सजिल्द १२.०० (२०) न्याय-दीपिका-या अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु० ७-०० (२१) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पष्ठ मख्या ७४० सजिल्द (वार शासन-मघ प्रकाशन ५.०० (२२) कसायपाहुड सुत्त-मूल ग्रन्थ की रचना अाज मे दो हजार वर्ष पूर्व श्री गृणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण णिसूत्र लिखे। सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी पारे शिष्टो और हिन्दो अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पाठो में। पृष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
... ... २०.०० (२३) Reality मा. पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अग्रेजी में अनुवाद बड़े प्राकार के ३०० प. पक्की जिल्द ६.००
प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए. रूपवाणी प्रिटिग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित ।
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