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________________ युक्त्यनुशासन : एक अध्ययन डा० दरबारीलाल जैन कोठिया युक्त्यनुशासन के उल्लेख और मान्यता : मर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते।" इस वाक्य का प्रभाव युक्त्यनुशासन समन्तभद्र की एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक लक्षित होता है। इसके अतिरिक्त त० वा. १-१२ (पृ. कृति है। यों तो उनकी प्रायः सभी कृतियाँ अर्थ गम्भीर ५७) मे 'प्रत्यक्ष बुद्धिः क्रमने न यत्र" (युक्त्य. का. और दुरूह है । पर युक्त्यनुशासन उनमें भी अत्यन्त जटिल २२) इत्यादि पूरी कारिका भी उद्धत पाई जाती है और एव गम्भीर है। इसका एक-एक वाक्य सूत्रात्मक है और उसे “उक्तंच" के साथ प्रस्तुत करके उन्हें उससे अपने बहु-प्रर्थ का बोधक है। साधारण बुद्धि और पायाम से प्रतिवादन को प्रमाणित किया है। इसकी गहराई एवं अन्तस्तल में नहीं पहुंचा जा सकता है। प्रकलङ्कदेव से लगभग दो शताब्दी पहले प्राचार्य इसे समझने के लिए दार्शनिक प्रतिभा, असाधारण मेधा' पूज्यपाद-(ई. ५वीं शती) ने भी युक्त्यनुशासन का एकाग्र साधना और विशिष्ट परिश्रम की आवश्यकता है। उपयोग किया जान पड़ता है । युक्त्यनुशासन मे दो स्थलों युक्त्यनुशासन की इन्ही विशेषताओं के कारण हरिवश (का० ३६, ३७) में शीर्षोपहार, दीक्षा प्रादि से देवों की पुराणकार ने समन्तभद्र-वाणी को वीर-वाणी की तरह पाराधना कर सिद्ध बनने वालो की मीमांसा की गई है, प्रभावशालिनी बतलाया है। विद्यानन्द ने तो उससे प्रभा. जो सुख की तीव्र लालसा रखते हैं, पर अपने दोषों (रागवित होकर उस पर व्याख्या लिखी है और अपने ग्रन्थ मे द्वेष-मोहादि) की निवृत्ति नहीं करते । यथाउसके वाक्यों को प्रमाण रूप में प्रस्तुत करके अपने कथन शीर्षोपहारादिभिरात्मदुःखदेवान् किलाराध्य सुखाभिगवाः। की सम्पुष्टि की है। प्राप्तपरीक्षा (पृ० ११८) मे वैशे- सियन्ति दोषापचयानपेक्षा युक्त च तेषां त्वमपिन येषाम् । षिक दर्शन की समीक्षा के सन्दर्भ में युक्त्यनुशासन + + + (का० ७) के एक प्रमाण-वाक्य "संसर्गहानेः सकलार्थ स्वच्छन्दवृत्तेजगतः स्वभावादुच्चरनाचारपयेष्वदोषम् । हानिः' का विस्तृत अर्थोद्घाटन किया है। उसे भाष्य निघुष्य दीक्षासम-मुक्तिमानास्त्वदृष्टिबाह्यावत कहा जाय तो आश्चर्य नहीं है। वस्तुतः विद्यानन्द के इस विभ्रमन्ति ॥३७॥ अर्थोद्घाटन से उक्त वाक्य की गम्भीरता और दुरूहता पूज्यपाद ने भी लगभग इन्हीं शब्दों में अपनी सर्वार्थ की कुछ झोंकी मिल जाती है । यही बात समग्र युक्त्यनु सिद्धि (६-२, पृ० ४१०) में संवर के गुप्त्यादि साधनों शासन की है। के विवेचन सन्दर्भ में यही कहा हैविद्यानन्द से दो शती पूर्व भट्ट प्रकलङ्कदेव (ईसा की 'तेन तीर्थाभिषेक-दीक्षा-शीर्षोपहार-वतारापनादयो ७वीं शती) ने भी युक्त्यनुशासन के वाक्यो और कारि- निवतिता भवन्तिः राग-रेष-मोहोपात्तस्य कर्मणोऽन्यथा कानों को उद्धत किया है। तत्त्वार्थवात्तिक (पृ० ३५) में निवस्यभावात् ।' मागत अनेकान्त लक्षण-"एकत्र सप्रतिपक्षानेकधर्मस्वरूप. इन दोनों स्थलों की तुलना से प्रतीत होता है कि निरूपणो युक्त्यागमाम्यामविरुद्धाः सम्यगनेकान्तः"-पर पूज्यपाद युक्त्यनुशासन से परिचित एवं प्रभावित थे और युक्त्यनुशासन (का. ४८) के "युक्त्यागमाम्यामविरुद्ध उसकी उक्त कारिका का उनके उक्त वाक्यों पर प्रभाव १. वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजुम्भते । है। युक्त्यनुशासन के "शीर्षोपहारादिभिः" और "दीक्षा. -जिनसेन (द्वितीय), हरिवंश पुराण १-३० । सममुक्तिमानाः" तथा सर्वार्थसिद्धि के "...दीक्षा-शीर्षों
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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