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________________ अनेकान्त पहर-देवताराधनादयो" इन शब्दों के अतिरिक्त युक्त्य- 'युक्त्यनुशासन' दिया है और उन्हें उसका कर्ता कहा है। नुशासन के "सिद्धयन्ति दोषापचयानपेक्षा" और सर्वार्थ- आश्चर्य नही, उनकी वह 'युक्त्यनुशासन' नाम से उल्लिसिद्धि के "राग-द्वेष-मोहोपात्तस्य कर्मणोऽन्यथा निवृत्त्य- खित कृति प्रस्तुत कृति ही हो। भावात्" पद विशेष ध्यातव्य हैं जो स्पष्टतः युक्त्यनु- यहाँ प्रश्न हो सकता है कि उक्त नाम स्वयं समन्तशासन का सर्वार्थसिद्धि पर प्रभाव सूचित करते हैं । भद्र के लिए भी इष्ट है या नहीं? यदि इष्ट है तो उन्होंने ग्रंथ के अादि अथवा अन्त में वह नाम निर्दिष्ट क्यों नहीं संस्कृत टीकाकार प्रा०विद्यानन्द ने टीका का प्रारम्भ किया ? इसका उत्तर यह है कि उपर्युक्त नाम स्वयं मध्य प्रौर पन्त में 'युक्त्यनुशासन' नाम से उल्लेख किया समन्तभद्रोक्त है । यद्यपि उन्होंने वह नाम ग्रंथ के प्रारम्भ है। आदिवाक्य', जो मंगलाचरण या जयकार पद्य के रूप में या अन्त में नहीं दिया, तथापि उसके मध्य में वह नाम में है, समन्तभद्र के इस स्तोत्र का जयकार करते हुए उपलब्ध है। कारिका ४८ में समन्तभद्र ने युक्त्यनुशासन' उन्होंने इसका नाम स्पष्ठतया 'युक्त्यनुशासन' प्रकट किया पद का प्रयोग करके उसकी सार्थकता भी प्रदर्शित की है। हैं। कारिका ३६ की टीका समाप्ति पर, जहाँ प्रथम उन्होंने बतलाया है कि 'युक्त्यनुशासन' वह शास्त्र है, जो प्रस्ताव पूर्ण हुमा है और जो प्रायः ग्रंथ का मध्य भाग है, प्रत्यक्ष और मागम से अविरुद्ध अर्थ का प्ररूपक है। एक पद्य' तथा पुष्पिका वाक्य में भी विद्यानन्द ने प्रस्तुत अर्थात् युक्ति (हेत), जो प्रत्यक्ष और पागम के विरुद्ध स्तोत्र का नाम 'युक्त्यनुशासन' बतलाया है। इसके नही है, पूर्वक तत्व (वस्तु स्वरूप) की व्यवस्था करने अतिरिक्त टीका के अन्त में दिये गये दो समाप्ति पद्यों वाले शास्त्र का नाम युक्त्यनुशासन है। जो अर्थ प्ररूपण में से दूसरे पद्य में और टीका समाप्ति पुष्पिकावाक्य में प्रत्यक्ष विरुद्ध अथवा पागम विरुद्ध है वह युक्त्यनुशासन स्वामी समन्तभद्र की कृति के रूप मे इसका 'युक्त्यनु- नहीं है । युक्त्यनुशासन की यह परिभाषा प्रस्तुत ग्रथ में शासन' नाम स्पष्टतः निर्दिष्ट है। पूर्णतया पाई जाती है। अपनी इस परिभाषा के समर्थन हरिवंश पुराण के कर्ता जिनसेन' (वि० सं०८४०) मे समन्तभद ने इसी कारिका (४८) मे एक उदाहरण ने भी अपने इसी पुराण के प्रारम्भ में पूर्ववतीं प्राचार्यों भी उपस्थित किया है। वह इस प्रकार है-'अर्थरूप के गुण वर्णन सन्दर्भ में समन्तभद्र की एक कृति का नाम (वस्तूस्वरूप) स्थिति, उत्पत्ति और विनाश इन तीनों को १. जीयात्समन्तभद्रस्य स्तोत्रं युक्त्यनुशासनम् । प्रति समय लिए हुए ही तत्त्वतः व्यवस्थित होता है, क्योंकि -युक्त्य० टी० पृ० १, माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थ वह सत् है' इस उदाहरण में जिस प्रकार वस्तु का स्वरूप माला, बम्बई। सत्पादादित्रयात्मक (युक्ति हेतु) पुरस्सर सिद्ध किया गया २. स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपतेर्वीरस्य निःशेषतः । है और वह प्रत्यक्ष अथवा पागम से विरुद्ध नहीं है उसी -वही पृ०.६। प्रकार वीर-शासन में समग्र अर्थसमूह प्रत्यक्ष और प्रागमा३. इति युक्त्यनुशासनं परमेष्ठिस्तोत्रे प्रथमः प्रस्तावः । विरोधी युक्तियों से सिद्ध है। तात्पर्य यह कि प्रत्यक्ष और -वही पृ० ८६। पागम से अबाधित तथा प्रमाण और नय से निर्णीत अर्थ ४. प्रोक्तं युक्त्यनुशासनु विजयिभिः स्याद्वादमार्गानुगः। प्ररूपण वीर-शासन में ही उपलब्ध होता है और उसी -युक्त्य०टी० पृ० १८२ । प्रकार मर्थ प्ररूपण समन्तभद्र ने युक्त्यनुशासन ग्रन्थ में ५. इति श्रीमद्विद्यानन्द्याचार्यकृतो युक्त्यनुशासनालङ्कारः किया है । किया है। अतः प्रत्यक्ष और पागमाविरुद्ध अर्थ (तत्त्व) समाप्तः। का प्ररूपक होने से वीर-शासन युक्त्यनुशासन है और -वही पृ०१२। वीर-शासन का ही इस ग्रन्थ में प्ररूपण होने से इमें युक्त्य६. जीवसिद्धिविधायीह कृत युक्त्यनुशासनम् । नुशासन' नाम दिया जाना सर्वथा उपयुक्त है। और वह -हरि: पु०१-३०॥ ७. दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते ।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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