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अनेकान्त पत्र का इतिहास
पं. परमानन्द जैन शास्त्री
किसी भी सम्पन्न देश या समाज को, जो अपना में रखते हुए समाज के प्रसिद्ध ऐतिहासिक वयोवृद्ध विद्वान उत्कर्ष एव अभ्युदय चाहता है, उसे अपनी संस्कृति, स्व. पं. जुगल किशोरजी मुख्तार ने चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सभ्यता और प्राचार-विचारो की परम्परा को सदृढ बनाने, सं० १९८६ ता० २१ अप्रैल सन् १९२६ को करौलबाग, एव उनका प्रचार प्रसार करने एव ठोस साहित्य को प्रकट दिल्ली में 'समन्तभद्राश्रम' नामक संस्था की स्थापना करने के लिए साहित्यिक तथा ऐतिहासिक तथ्यो को की। और इसी सस्था से उक्त सवत् के मार्गशिर महीने गवेषणा के साथ लोक में प्रकट करने वाले पत्रो की पाव- में 'अनेकान्त' नाम के मासिक पत्र का प्रथम अंक श्यकता होती है । जिस देश और समाज के अच्छे उच्च- प्रकाशित किया। अनेकान्त पत्र का यह प्रक सचित्र, स्तर के पत्र होगे, वही देश अपनी संस्कृति का द्रुतगति से सुन्दर और महत्वपूर्ण शोध-खोज के लेखो की साज-सज्जा प्रचार करने में समर्थ हो सकते है । टोस पत्रकारिता तथा से विभषित है। इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं । प्रथम साहित्य प्रकाशन और प्राचीन शिलालेख, सिक्के, ताम्रपत्र, वर्ष के सभी प्रक भाषा-भाव, महत्वपूर्ण लेख, कहानी और प्रशस्तियाँ एवं पुरातात्त्विक अवशेष और पुरातन कलात्मक
सुभाषितो आदि की दृष्टि से उच्चकोटि के है । मुख्तार वस्तुप्रो का प्रदर्शन आदि उसकी प्राचीनता एव महत्ता के
सा० के सम्पादकीय लेख बड़े ही महत्वपूर्ण और खोजपूर्ण द्योतक है । इनसे ही देश-विदेशों में उसकी सस्कृति का
है। इससे उनकी लेखनी का सहज ही आभास मिल जाता प्रचार प्रसार एव महत्व ख्यापित हो सकता है। इन साधनो
है। प्रथम वर्ष की यह फाइल अप्राप्य है और जन साधाके अतिरिक्त अन्य कौन ऐसे सुलभ साधन है जो सस्कृति
रण के लिए अत्यन्त उपयोगी है, पाठको को उसका मनन को ऊँचा उठा सके । उसके अभ्युदय को लोक में प्रतिष्ठित
करना चाहिए। कर सके। प्राचार विचारो को ऊँचा उठाये बिना कोई भी देश या समाज अपनी उन्नति करने में समर्थ नही हो
__ खेद है कि अनेकान्त के प्रथम वर्ष की अन्तिम किरण सकता।
प्रकाशित होने के साथ ही स्थान की कमी और मर्थ जैन समाज को संगठित करने, एक सत्र में बांधने, सकोच के कारण पत्र को बन्द करना पड़ा। और पाकिस और श्रमण मस्कति की महता को लोक में पका को को सरसावा ले जाना पड़ा। सरसावा मे स्व. मुख्तार लिए बहुत दिनों से एक अच्छे साहित्यिक मासिक पत्र को सा० ने जमीन खरीद कर उस पर वीर सेवामन्दिर नाम निकालने की आवश्यकता प्रतीत हो रही थी। यद्यपि का भवन बनवाया। सन् १९३६ मे उसका उदघाटन श्रद्धेय पं. नाथूरामजी प्रेमी बम्बई ने जैन हितैषी नामक ब्रह्मचारी शीतल प्रसादजी के द्वारा हा और उसी में मासिक पत्र निकाला था उससे साहिशिकनिहासिक उक्त सस्था का कार्यालय स्थापित किया गया। शोध-खोज समीक्षात्मक लेख प्रकट होने लगे थे। किन्तु कुछ वर्षों के
र का कार्य भी वहीं सम्पन्न होने लगा। पुरातन जैन वाक्य
का बाद वह बन्द हो गया। उसके बन्द हो जाने पर समाज सूचा भार
म सूची और लक्षणावली के लिए लक्ष्य शब्द एवं उनके में साहित्यिक और ऐतिहासिक पत्र की बड़ी प्रावस्यकता लक्षणों के संग्रह का का कार्य भी होने लगा। इस तरह महसूस होने लगी, साथ में अनेक सैद्धान्तिक गुत्थियों को सरसावा साहित्यिक क्षेत्र बनने लगा। प्रामाणिकता के साथ सुलझाने की समस्या भी अपना उग्र- सन् १९३६ में वीर शासन जयन्ती के अवसर पर रूप धारण कर रही थी। इन्हीं दोनों समस्यामों को ध्यान ला० तनसुखराय जी-संचालक तिलक बीमा कम्पनी