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________________ अनेकान्त दिल्ली अध्यक्ष होकर सरसावा पाये, साथ में अयोध्या- चरण महा कवि सिंह और प्रद्युम्नचरित, धर्मरत्नाकर प्रसाद जी गोयलीय भी थे। अनेकान्त के प्रकाशन की और जयसेन नाम के प्राचार्य, अमृतचन्द्र सूरि का समय चर्चा होने पर उन्होंने उसके घाटे की स्वीकृति प्रदान की जैन सरस्वती। हरिषेणकृत अपभ्रंश धर्मपरीक्षा आदि पौर अयोध्याप्रसाद जी गोयलीय उसके प्रकाशक रहे। महत्वपूर्ण लेखों का संकलन किया गया है। सात वर्ष दूसरे और तीसरे वर्ष के दोनो प्रथमाक विशेषाक के के प्रकाशन मे बडी कठिनाइयों का सामना करना पडा रूप में प्रकाशित हुए। जिनमें अनेक लेख पठनीय और कागज की प्राप्ति में न्यूजप्रिन्ट लगाना पडा। मोर संग्रहणीय प्रकाशित हुए है। इन दोनों वर्षों की फाइले उससे प्रकाशन में भी विलम्ब हमा, और पेजो मे भी व फुटकर अक सभी अप्राप्य है। पर जिन्होने उनको पढ़ा कटौती करनी पड़ी। इन सबके होने पर भी पत्र को है वे उसकी महत्ता से कभी इकार नही कर सकते । विशे- बराबर जीवित रखने का उपक्रम मुख्तार सा० ने षांकों में जो पठनीय सामग्री सकलित की गई है वह किया है। आर्थिक सकोच तो अनेकान्त पत्र के जीवन मे स्थायी और महत्व की है। जिन पाठको ने उनका रसा- प्रारम्भ से ही रहा है। और प्रयत्न करने पर समाज से स्वादन किया है, वे उनकी गरिमा से परिचित है। उसके घाटे की कुछ पूर्ति भी हुई है । सन् १९४१ में अनेकान्त का प्रकाशन वीर सेवामन्दिर हवे वर्ष मे अनेकान्त का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ सरसावा से ही निश्चित हया। सम्पादक मुख्तार साहब काशी की ओर से हमा। और उसके सम्पादक मण्डल में और प्रकाशक मुझे बनाया गया। इस वर्ष का प्रथमाक मुख्तार साहब के अतिरिक्त मुनि कान्तिसागर जी, पं. विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ, जिसके मुख पृष्ठ पर दरबारीलाल जी कोठिया और अयोध्याप्रसाद जी गोयचित्रमय जैनी नीति को प्रकट किया गया। इस अंक मे लीय का नाम शामिल किया गया। अन्य वर्षों की 'तत्त्वार्थसूत्र के बीजों की खोज' नाम का मेरा लेख भी भाति इस वर्ष मे भी अनेक लेख महत्त्व के प्रकाशित हुए। प्रकाशित हुपा है जो बडे परिश्रम से मैने डेढ महीने में इस वर्ष के अन्तिम प्रक मे जो 'सिद्धसेनांक' नाम से प्रकातय्यार किया था। और जिसे विद्वानो ने खूब पसन्द किया शित हया है, उसमें स्व. मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी ने था। गोम्मटसार की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका और तमिल __ 'सम्मतिसूत्र और सिद्धसेन' के बारे मे जो खोजपूर्ण अनेक भाषा का जैन साहित्य' नामक लेख भी इसी प्रक मे दिये म दिय महत्त्व के तथ्य प्रकाशित किये है, वे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गये हैं, जो महत्त्वपूर्ण है । इस वर्ष के अंकों में राजमल्लका है। और ऐतिहासिक विद्वानों के द्वारा विचारणीय है। पिंगल और राजाभारमल लेख प्रकाशित हुमा। अनेकान्त । उनका उत्तर आज तक भी विद्वानो के द्वारा नही हुआ पत्र को आर्थिक सकट के कारण प्रकाशन मे बड़ी अडचने है। उसी प्रक में 'ब्रह्म श्रुतसागर का समय' शीर्षक लेख प्राई, कागज का मिलना भी दुर्लभ हो गया, किन्तु जैसे-तैसे भी छपा है जिसमे ब्रह्मश्रुतसागर का समय निश्चित किया उसका प्रकाशन होता ही रहा । गया है। इसी वर्ष की दूसरी किरण मे 'चतुर्थ वाग्भट उक्त वर्षों की भांति ५, ६, ७ और आठवें वर्ष के और उनकी कृतिया' नाम का एक खोजपूर्ण लेख छपा है। अनेकान्त के अंकों मे पठनीय और सग्रहणीय सामग्री का और भी अनेक लेख महत्त्व की ज्ञातव्य सामग्री को प्रदान प्रकाशन हुआ है । पउमरिय का अन्तः परीक्षण, सर्वार्थ- करते है। सिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव, पडित प्रवर टोडरमल १०वे वर्ष में अनेकान्त का प्रकाशन वीर सेवामन्दिर जी और उनकी रचनाएं, क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और से ही हमा। स्व० मुख्तार सा० के साथ १० दरबारीलाल स्वामी समन्यभद्र एक हैं ? नाग सभ्यता की भारत को जी सहायक सम्पादक का कार्य करते थे। इस वर्ष मे भी देन, जयपुर में एक महीना, शिवभूति, शिवार्य और अनेक महत्त्व के लेख प्रकाशित हुए। इसी वर्ष के अंकों मे शिवकुमार, श्रीचन्द नामके तीन विद्वान । शित्तन्ना वासल हिन्दी भाषा के कवियों का परिचय भी दिया जाने लगा। केवलज्ञानकी विषय मर्यादा, तत्त्वार्थसूत्र का मंगला- पं.दौलतराम मौर उनकी रचनाएँ, शीर्षक लेख में जयपुर
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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