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________________ पत्रिकायें कैसे चलें ? डा० गोकुलचन्द्र जैन, प्राचार्य, एम. ए., पो-एच. डो. स्वर्गीय पं० चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ के प्राग्रह पर कि इस प्रक में यह मामग्री देना है और उसके बाद उस जैन पत्रिकामों के विषय में मैंने एक मक्षिप्त टिप्पणी रूपरेखा के अनुमार मामग्री प्रयत्न पूर्वक जुटाता हो। लिखी थी जो जैन पत्रिकाओं के स्तर का प्रश्न' शीर्षक विशेषाको के लिए कुछ पत्रिकाए रूपरेखा बताती है । से वीरवाणी के १८ अक्तूबर १९६८ के अंक में प्रकाशित इसलिए उनमे मामग्री जुट जाती है। जो विशेषाकों के हुई थी। प० चैनसुखदास जी ने इसी पर अपना सम्पा- लिए भी रूपरेखा नही बनाते उनमे नही जुट पाती। दकीय वक्तव्य भी लिखा था। अनेकान्त ने इस विषय एक बड़ी बात यह है कि एक दो को छोडकर शायद पर एक पूरा विशेपाक ही निकालने की बात सोची है, ही कोर्ट जैन पत्र लेखक को पारिश्रमिक देताही पारिउन बातों को ताजा सन्दर्भ के लिए यहाँ प्रस्तुत करना । श्रमिक की बात को भी छोड दिया जाए तो कम-से-कम प्रावश्यक लगता है लेग्वक इतनी अपेक्षा तो कर ही सकता है कि उसकी पचासी जैन पत्र-पत्रिकामो की जानकारी मुझे है। रचना के कुछ अनुमद्रण उसे प्राप्त हो । कोई भी जन पत्र हो सकता है कुछ और भी हों, जिनकी सूचना मुझे नहीं । अनुमद्रण नहीं देता। बाध्य करने पर पत्रिका के पन्ने है। ये पत्र-पत्रिकाएं साप्ताहिक से लेकर वाषिक तक है। इधर एक-दो पत्रो ने भेजे है। होता यहाँ तक भी है कि कुछेक इस समय बन्द भी हो गई है। पत्र-पत्रिकाए माल भर मे एक बार भी नहीं पाती तो जैन पत्र-पत्रिकाओं के विषय मे मुख्य रूप से दो। भी अपेक्षा यह की जानी है कि उनके लिए महत्वपूर्ण लेख प्रश्न उठाए जाते रहते हैं-(१) स्तरीय सामग्री का प्राप्त हो। मेरे पास लेग्यादि के लिए पत्र पाते है तो मैं अभाव, (२) पत्रिकामो की प्रार्थिक स्थिति । ये दोनों ही प्रयत्न करके भरमक लेख भेज देता हूँ। मुझे आश्चर्य बाते तथ्यपूर्ण है। दो-चार पत्रिकाओं के अतिरिक्त प्रायः होता है कि जिन पत्र-पत्रिकाग्री का वार्षिक शुल्क पाँचसभी की सामग्री स्तरीय नही होती। इसी प्रकार शायद छह रुपये है वे भी नियमित पत्रिका तो नहीं भेजते पर ही एकाध पत्र हो जो अपनो ग्राहक संख्या तथा विज्ञापन पत्र लिखते है कि उन्हे महत्वपूर्ण अप्रकाशित लेख भेज प्रादि के माधार पर प्राथिक रूप से प्रात्मनिर्भर हो। दिया जाए। इन दोनों बातों से प्रायः सभी सहमत होगे। घटिया मेरी समझ से इस मनःस्थिति को सर्वथा बदलना मद्रण, प्रकाशन की अनियमितता आदि भी अधिकाश होगा। प्रत्येक पत्र यह नियम कर ले कि वह हर अंक मे पत्रों के साथ सम्बद्ध है। ये सर्वविदित तथ्य हैं. इसलिए कम-मे-कम एक विशिष्ट लेख अवश्य देगा; और प्रयत्न इनके विषय में और अधिक कहना या कटु शब्दो म करके उसे प्राप्त करे। यदि उसके लिए पारिश्रमिक देना पालोचना करना उचित नहीं है। न उससे स्थिति सुधर पड़ता है तो अवश्य दे। पत्रिका के जो अन्य व्यय है, र सकती है। इन पर विधायक ढंग से सोचा जाना चाहिए। उन्ही में इसे भी शामिल करना चाहिए । कम-से-कम १५ स्तरीय सामग्री के प्रश्न के साथ कई बाते जुडी है । अनुमद्रण देने का भी नियम बना लेना चाहिए। इसका अधिकांश पत्रो के सम्पादक सम्पादन कला के विशेषज्ञ प्रासान तरीका यह है कि जितने अनुमुद्रण निकालने है नही हैं। सामग्री सकलन के लिए भी पर्याप्त प्रयत्न नही उतने फार्म एक मोर छाप लिए जाए। यह साधारण किये जाते । शायद ही कोई पत्र यह रूपरेखा बनाता हो विवेक की बात है कि जिस लेखक से हम लेखादि प्राप्त
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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