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________________ स्वामी समन्तभद्र को जैन दर्शन को देन १७५ की जाने लगी और चार कोटियो से उसका विचार होने २ तत्त्व वक्तव्य है। लगा तथा वादियों का उक्त युगलों में से किसी एक-एक ३ तत्त्व उभय (प्रवक्तव्य और वक्तव्य दोनों) है। कोटि (पक्ष) को ही मानने का प्राग्रह रहता था। इसका ४ तत्त्व अनुभय (दोनों नहीं) है। संकेत प्राचार्य समन्तभद्र ने स्वयम्भूस्तोत्र (श्लो० १०१) समन्तभद्रकी देन की निम्नकारिका से मिलता है यद्यपि कुन्दकुन्द स्पष्ट निर्देश कर चुके थे कि तत्त्व सदेक-नित्य-वक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । निरुपण चार कोटियों से नहीं, अपितु सात वचन प्रकारों से मर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहते ॥१०१॥ होता है। पर उनका यह निर्देश तर्क का रूप न पा सकने होता है। पर उनका यह नि: लगता है कि इस खीचतान के कारण अनिश्चयवादी से अधिक विश्रुत न हो सका। प्राचार्य समन्तभद्र ने उसे सजय के अनुयायी तत्त्व को अनिश्चित ही प्रतिपादन तर्क का भी रूप दिया और उस पर विस्तृत चिन्तन, करते थे, जिसकी एक झलक विद्यानन्द की अष्टसहस्त्री विवादोंका शमन, शमन की पद्धति और स्यावाद द्वारा सम(१० १२६) मे' प्राप्त होती है। उपर्युक्त युगलो में न्वय का मार्ग भी प्रशस्त किया और इसके लिए उन्होंने अनेक लगने वाली वादियों की वे चार कोटियाँ इस प्रकार प्रबन्ध लिखे । इन प्रबन्धों द्वारा उन्होंने प्रतिपादन किया होती थी-- कि तत्त्व का पूर्ण कथन उपर्युक्त चार कोटियों से नहीं १ सदसद्वाद होता, किन्तु सात' कोटियों द्वारा होता है। यथार्थ में तत्त्व' १ तत्त्व सत् है। 'वस्तु' भनेकान्त रूप है-एकान्त रूप नहीं और अनेकान्त २ तत्त्व असत् है। विरोधी दो धर्मों (सत्-असत्, शाश्वत-प्रशाश्वत, एक३ तत्त्व उभय [सद्-असद् दोनों] है । अनेक आदि) के युगल के माश्रय से प्रकाश में आने वाले ४ तत्त्व अनुभय [दोनो नही] है। वस्तुगत सात धर्मों का समुच्चय है और ऐसे-ऐसे अनन्त २ शाश्वत-प्रशाश्वतवाद धर्म समुच्चय [अनेकान्त] विराट अनेकान्तात्मक तत्त्व१ तत्त्व शाश्वत [नित्य] है। सागर में अनन्त लहरों की तरह लहरा रहे हैं । पौर २ तत्त्व प्रशाश्वत [क्षणिक] है । प्रत्येक धर्म समुच्चय सप्तक एक-एक सप्तभंगीनय से नेय३ तत्त्व उभय [शाश्वत-प्रशाश्वत दोनों] है । ज्ञातव्य अथवा वक्तव्य है। और इस तरह वस्तु में एक. ४ तत्त्व अनुभय [दोनो नही] है। दो नहीं, अपितु अनन्त सात कोटियाँ [सप्तङ्गियाँ] ३ प्रत-वैतवाद निहित है। ध्यातव्य है कि प्राचार्य समन्तभद्र ने "कहीं १ तत्व अद्वैत है। की ईंट कहीं का रोड़ा" की भांति अनेकान्त स्वीकार नहीं २ तत्त्व द्वैत (अनेक) है। किया, किन्तु प्रतिपक्षी दो धर्मों और उन दो धर्मों को ३ तत्त्व उभय (अद्वैत और द्वैत दोनो) है। लेकर व्यक्त होने वाले सात धर्मों के समुच्चय को ही ४ तत्त्व अनुभय (दोनो नही) है। अनेकान्त प्रतिपादन किया है और इस तरह वस्तु में ४ प्रवक्तव्य-वक्तव्यवाद अनन्त अनेकान्त समाहित हैं । यही जैन दर्शन के अनेकान्त १ तत्त्व अवक्तव्य है। और इतर दर्शनों के मनेकान्त में मौलिक अन्तर है। १. चतुष्कोटेविकल्पस्य सर्वान्तेषूक्त्ययोगतः । और इसी से उत्तर काल में जैन दर्शन के अनेकान्त में तत्त्वान्यत्वमवाच्यं चेत्तयोः सन्तानतद्वतोः ।। प्रा० ४५ विरोध वैयधिकरण्य प्रादि दोषों की समापत्ति की गई है। २. तीस्तीति न भणामि, नास्तीति च न भणामि, समन्तभद्र ने बतलाया कि वक्ता या ज्ञाता तत्त्व को यदपि च भणामि तदपि न भणामीति दर्शनमस्त्विति १. सप्तभङ्गनयापेक्षो...। प्राप्तमी० १०४ कञ्चित्, सोपि पापीयान् ।' २. तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपम्...। युक्त्य० ४६ मष्ठस० पृ० १२६, का० १४ । ३. स्वयम्भू० १.१
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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