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पत्रिकायें कैसे चले?
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करते है या प्राप्त करना चाहते है उसे नियमित पत्रिका पाम ही पहुँचेगा और न तो उसे पारिश्रमिक ही मिलेगा भेजते रहे। मेरी समझ मे यदि वर्ष में एक भी लेख और न ही अनुमद्रण, तो ऐसी स्थिति मे भला कौन उसने दे दिया तो उस पत्रिका का वार्षिक शल्क पूरा हो व्यक्ति होगा जो अपनी बहुत महत्व की सामग्री उस गया समझना चाहिए। इन बातो का ध्यान रखा गया पत्रिका के लिए भेजना चाह । होता यह भी है कि उन तो कोई कारण नही है कि पत्रिकामो को स्तरीय सामग्री लेखो का सही-सही मुद्रण भी नही हो पाता। न मिले । शुद्ध और सुन्दर मुद्रण का दायित्व पत्रिका के
बाते और भी बहुत सी हो सकती है किन्तु उन सम्पादक और मुद्र को का एक अनिवार्य कर्तव्य है।
सबकी चर्चा करने से अधिक महत्व की बात यह है कि शोध पत्रिकाएं और उनकी कठिनाइयाँ
उनके समाधान के विषय मे विचार किया जाए। अनेऊपर मैंने मामान्यत: मभी पत्रिकाप्रो के सम्बन्ध में कान्त की सचालन सस्था को मैने कुछ सुझाव दिये थे कहा है। शोध पत्रिकाग्री के विषय में कुछ बाते और भी जिसमे एक यह भी था कि इसम हिन्दी पोर अग्रेजी दोनो ध्यान देने की है। जो पत्रिकाए शोध के नाम पर निकल
भाषामो में लिखी गई सामग्री को प्रकाशित किया जाए, रही है उनमे खोजपूर्ण सामग्री कितनी रहती है, यह भी
इमसे निश्चय ही इसका क्षेत्र विस्तृत हो जाएगा और विचारणीय है । उनका मद्रण स्तर, सम्पादन पद्धति तथा सामग्री भी स्तरीय तथा पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होने भापा के आधार पर उनके क्षेत्र की व्यापकता बनती है। लगगा। यह अवश्य है कि ऐसा करने पर सम्पादकीय अभी जितनी भी जन पत्र-पत्रिकाए इस प्रकार की प्रका• तथा व्यवस्थापकीय दायित्व निश्चित रूप से कुछ अधिक शित होती है उनम सम्भवतया इनमे से वास्तविक अनु
बढ़ जाएगा। मेरा स्पष्ट अभिमत है कि शीध पत्रिकामों सन्धान से सम्बन्धित मामग्री कितनी है और पहन का। के न चल पाने का सबसे बड़ा कारण उसके प्रसार के अनमन्धित सामग्री का पुनराकलन कितना है यह दखना क्षेत्र की गकीणता ही है। भारत तथा विदेशो में जितने बहुत आवश्यक है। जो लेखक के साथ-साथ सम्पादक विश्वविद्यालय और शाध सस्थाए इस समय चल रही है का भी दायित्व है किन्तु मचाई यह है कि ये सारी पत्रि- उनम से दशाश से भी किसी भी जैन पत्रिकाम्रो ने काए सामग्री के लिए भी अतिशय दरिद्र रहती है इसलिए माधा हो । यदि उन सबस सम्पर्क किया जाए तो म के उन्हे जो जैसी सामग्री मिल जाती है उसे उसी रूप में
विश्वास है कि ग्राहक सख्या भी इतनी हो सकती है कि
पत्रिका का सचालन सम्भव हो सके। यह होने पर जव छाप देते है। सामग्री प्राप्त होने के कारण लगमग वही
लेखको को यह प्रतीति होगी कि अमुक पत्रिका में प्रकाहै जो पहले बनाये गये है। पत्रिकाओं पर बड़े-बड़े नाम
शित होने पर उसके शोध कार्य का पर्याप्त प्रसार मिलेगा घारी लोगो के नाम सम्पादक मण्डल या सम्पादको मे
तो लेखक भी प्रयत्न पूर्वक उस पत्रिका के लिए अपनी जाते है किन्तु वे अपना कितना योगदान उस पत्रिका
सर्वाधिक महत्व को सामग्री भेजना चाहेगे। वास्तविक को देते है इसके लिए वे स्वयं प्रमाण है।
अनुसन्धाना के लिए यह बात सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि हिन्दी मे कुछ पत्रिकाएं केवल सम्पादकीय लेखो के
उसकी शोध उपलब्धियाँ कम-से-कम उन लोगों तक लिए पढ़ी जाती रही हैं। क्या इह स्थिति शोध पत्रिकामो
पहुँच जाए जो उस विषय के विद्वान है या उस विषय में की नही हो सकती।
मचि रखते है। सम्पादन, मुद्रण तथा व्यवस्था सम्बन्धी पत्रिकामों के क्षेत्र की व्यापकता का प्रश्न बहुत ही दायित्व पत्रिका के संचालको का है। यदि इन बानो की महत्वपूर्ण है इसी पर अन्य कई बातें निर्भर करती है। और ध्यान दिया जाए तो निश्चय ही यह सोचने की कोई भी लेखक जो यह जानता है कि अमुक पत्रिका में प्रावश्यकता नहीं पड़ेगी कि पत्रिका चलाई जाए या बन्द उसका लेख प्रकाशित होने पर कुछ सीमित लोगो के कर दी जाए।