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अनेकान्त पत्र का गौरव
पं० जयन्तीप्रसाद शास्त्री
भारत के शोध-खोज पूर्ण पत्रों में 'अनेकान्त' का स्थान इमको पुनः पुन. प्रकाशित करने में समाज के धनी-मानी सर्वोच्च रहा है। इस पत्र ने जैन माहित्य और सस्कृति और विद्वन् समाज का योगदान चाहा और चालू किया। की अभूत पूर्व सेवा की है; परन्तु इस बात में विद्वत्समाज इस पत्र के अव नक लगभग १६०० मोलह सौ उच्च.
कार नहीं कर सकता कि इस पत्र ने अनेक जैन-जैनतर कोटि के गोध-बोज पूर्ण लेखों का प्रकाशन किया है। . विद्वानों का मार्ग दर्शन किया है उनकी भ्रान्तियो को दूर मस्कृत-प्राकृत-अपभ्रश और हिन्दी के २०० दो सौ ग्रथो किया है उन्हे सन्मार्ग दिखाकर जैन साहित्य के गोरव का अनुसन्धान कर उनका परिचय प्रदान किया और पर्ण ग्रथ और ग्रन्थकारी की ओर उनका ध्यान प्राकृष्ट अनेक ग्रंथभण्डारों की अहनिय लगन के साथ देखभाल किया है। उन्हे इस सत्यता के लिए विवश किया है कि कर लुप्तप्राय सामग्री को जीवन प्रदान किया है । ऐनिजैन साहित्य के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। हामिक अनेक बातों का उद्घाटन कर उलझी गुत्थियों को उन्हे इस बात के लिए ललकारा है कि यदि तुमने जैन मुलझाया है। साहित्य के योगदान को भुलाकर लिखा तो एक दिन धवल, जयध दल और महाववल जैसे प्राचीन ग्रथो की जागरूक साहित्य जगत् तुम्हे क्षमा नही करेगा । तुम्हारे ताडपत्रीय प्रतियो के फाटी आदि लेकर जनसाधारण के द्वेष और मनोमालिन्य अथवा ज्ञान को अधूरा मानकर लिए उनके दर्शन को मूलभ बनाया है। तुम्हे धिक्कारेगा । मुझे मालूम है कि कई जनतर विद्वान
कई विवादस्थ ग्रथ और प्रथकारो की भ्रान्तियों को जैन साहित्य की जानकारी के लिए इस पत्र के सम्पादको दूर किया और सोलह प्रथो की खोजपूर्ण प्रस्तावनायो को के पास आये हैं और उन्होने अपनी-अपनी शोघ-खोज लिखा तथा कई ग्रन्थो का हिन्दी अनुवाद भी किया । पूर्ण रचनामो मे इसका यथास्थान उल्लेख किया है और इत्यादि अनेक महत्वपूर्ण कार्य अपने ध्येय के अनुरूप कई विद्वान ऐसे भी देखे है और उनकी रचनाओं को पढा ही बड़ी निष्ठा के साथ सम्पन्न किये और कर रहा है । है जिन्होंने इसके लेखो के आधार से अपनी उपाधिया स्व. पज्य जगलकिशोरजी म प्राप्त की है। परन्तु इसके नामोल्लेख न करने की भयकर स्तम्भ अथवा मानस्तम्भ आज भी श्री पंडित रत्न परमाभूल की है। फिर भी इस पत्र का और इसके सम्पादको का नन्द जी शास्त्री ग्रादि विद्वानो की पनी मूक्ष्म लेखनी से दृष्टिकोण सदा उदार ही रहा है।
ममाज और विद्वानों का मार्गदर्शन कर रहा है। यह ऐसे मार्ग दर्शक, निर्भीक पत्र को आज चालीस वर्ष बड़े ही गौरव का विषय है। समय समय पर अनेक हो चुके है परन्तु बीच-बीच मे अर्थाभाव के कारण कई विद्वानो के लेखो का सहयोग यह सिद्ध करता है कि श्री बार इसका प्रकाशन बन्द करना पडा । इसका अर्थ यह स्व. मुख्तार सा. आज भी जीवित हैं और इसके लेखक नही लगाया जा सकता कि इसकी लोकप्रियता कम है। विद्वान् श्रद्धा सहित इस कीर्तिस्तन्भ को सदा ही दैदीप्यबल्कि यह मानना पडेगा कि इस मे शुद्ध इतिहास, सिद्धान्त मान बनाने पर दृढ प्रतिज्ञ से मालूम होते है अथवा वे प्रादि लेख ही प्रकाशित होते है जिसके कारण इसके श्री मुख्तार सा. के प्रति अपनी कृतज्ञता भरी श्रद्धा इन पाठक और पारखी अत्यल्प है। समय-समय पर इसकी लेखों के मध्यम से प्रकट करते रहते हैं। भावश्यकता को ध्यान में रखकर ही स्व. मुख्तार सा. ने
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