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________________ प्रोम् प्रहम अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनयविलसिताना विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २२ । सर्वरी वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४९६, वि० सं० २०२६ किरण ६ सिद्ध स्तुति सुक्ष्मत्वादशिनोऽवधिदृशः पश्यन्ति नो यान परे यत्संविन्महिमस्थितं त्रिभुवनं स्वस्थं भमेकं यथा। सिद्धानामहमप्रमेय महसां तेषां लघुर्मानुषो मूढात्मा किमु वच्मि तत्र यदि वा भक्त्या महत्या वशः ॥१॥ निः शेषामरशेखराधितमणि घेण्यचिताघ्रिया। देवास्तेऽपि जिना यदन्नतपवप्राप्त्यै यतन्ते तराम। सर्वेषामुपरि प्रवृद्ध परमज्ञानादिभिः क्षायिकः। युक्ता न व्यभिचारिभिः प्रतिदिनं सिद्धान् नमामो वयम् ॥२॥ -पानन्दाचार्य पर्ष-सूक्ष्म होने से जिन सिद्धों को परमाणुदर्शी अवधिज्ञानी भी नहीं देख पाते हैं तथा जिनके ज्ञान में स्थित तीनों लोक भाकाश में स्थित एक नक्षत्र के समान स्पष्ट प्रतिभाषित होते हैं उन अपरिमित तेज के धारक सिखों का वर्णन क्या मुझ जैसा मूर्ख व हीन मनुष्य कर सकता है ?-नहीं कर सकता। फिर भी जो मैं उनका ...र्णन कर रहा है वह अतिशय भक्ति वश होकर ही कर रहा हूँ॥१॥ जिनके दोनों चरण समस्त देवों के मुकटों में लगे हुए मणियों की पंक्तियों से पूजित है-जिनके परणों में समस्त देव भी नमस्कार करते हैं, ऐसे वे तीर्थकर जिनदेव भी जिन सिद्धों के उन्नत पद को प्राप्त करने के लिए अधिक प्रयत्न करते हैं। जो सबों के ऊपर वृद्धिंगत होकर अन्य किसी में न पाये जाने वाले ऐसे पतिशय वृद्धिंगत केवलज्ञानादि स्वरूप क्षायिक भावों से संयुक्त हैं। उन सिद्धों को हम प्रतिदिन नमस्कार करते हैं।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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