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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
ए एन. उपाध्ये
[ प्रस्तुत लेख प्राकृत संस्कृत भाषा के प्रन्थों के विशिष्ट सम्पादक डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट प्रो० राजाराम कालेज कोल्हापुर द्वारा सन् १९४३ में हरिषेणाचार्य के वृहत्कथाकोश की विस्तृत लिखी गई महत्वपूर्ण प्रस्तावना के निम्न स्थलों (1) Narrative Tale in India, (2) Compilations of Katnankas: A survey, (3) Orientaliats on the Jain Narrative Literature का हिन्दी अनुवाद है । यह अनुवाद श्री कस्तूरचन्द जी वांठिया कलकत्ता ने सन् १६५८ में किया था, तब से यह प्रकाशन की वाट जोह रहा था । श्री प्रगरचन्द जी नाहटा की प्रेरणा से हमें प्राप्त हुआ है और वह अनेकान्त में क्रमश. सधन्यवाद दिया जा रहा है | सम्पादक के निम्न स्थलों का :- संपादक ]
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१. वैदिक और सम्बद्ध साहित्य :
भारत का बौद्धिक जीवन, जैसा कि वह प्राचीन एवम् मध्यकालिक साहित्य में चित्रित है, धार्मिक विचारों से एकदम सराबोर है । भारत धर्मों का भूलना है, यह न तो थोथे अभिमान की ही बात है और न व्यंग ही । यह एक ऐसा तथ्य है कि जो साहित्यिक कृतियो में प्राप्त होने वाली प्रभूत साक्षियों से भली प्रकार प्रमाणित किया जा सकता है । आर्यों का प्राचीनतम शास्त्र, विशेषतः ऋगवेद, जो कि भारतीय भूमि में सुरक्षित है और जो ब्राह्मण परम्परा में वारमे के रूप में चले आते रहे हैं, प्रकृति के मूर्ति-मान विग्रह के भक्ति गीतों से भरा हुआ है । कालान्तर में ये गीत ही ऐसे जटिल श्राचारों के विषय बन गये कि जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से प्रतीकात्मक या स्पष्ट रूप से सम्बन्धित माने जाते थे। धर्म की पवित्रता या उसके अधिकार उस देवत्व द्वारा ही प्राप्त होते है कि जो धर्म देव, शास्त्र और गुरु को स्वयं प्रदान किये थे । और ये ही समय पाकर धार्मिक सिद्धान्तों का महान् उत्कर्ष और संस्कार करने में सहायता करते है । प्रत्येक विकसित धर्म को इन तीनों को अधीनता किसी न किसी रूप में मान्य है । श्रनुष्ठान और पूजा ही नहीं, भक्ति एवं ध्यान, एवं सभी मूलतः देव से सम्बद्ध हैं और शनैः शनैः वे सब शास्त्रांगीभूत हो गये है । सिद्धान्त, शिक्षा और उपदेश विशेष हीं तो शास्त्र हैं और ये देव को दिव्य, और
गुरु को महिमान्वित करते है । देव का प्रतिनिधित्व गुरु करता है या उससे प्रेरणा प्राप्त करता है । शास्त्र का ज्ञान उसे या तो उत्तराधिकार में या निजी प्रयत्न से प्राप्त होता है। धार्मिक क्रियानुष्ठानों का सफल पालक होने के कारण उसकी चर्या दूसरों के लिए आदर्श होती है । ये तीनों अन्योन्याश्रयी है और मिलकर शनैः शनैः धर्म और धार्मिक साहित्य का सविशेष विकास सम्पन्न करते है । भारतीय साहित्य की वृद्धि इस सामान्य प्रणाली का भली प्रकार समर्थन करती है ।
सैद्धान्तिक र निगूढ़ तत्वों के बावजूद, धर्म ने, जहां तक कि इस भारत भूमि मे उसकी वृद्धि हुई है, समाज के अंग के रूप में मानव सदाचार के सुनिश्चित नैतिक माध्यों के विकास और प्रचार करने का प्रयत्न सदा ही किया है। इस प्रकार धर्म ने सदाचार के प्रादर्श का काम भी किया है कि जिसके निर्देश के लिए कुछ यथार्थ मानदण्ड आवश्यक थे। ये मानदण्ड विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किए गये है जैसे कि सदा सर्वदा से चले आते देवों के वे प्रदेश ही हो; प्राचीन शास्त्रों द्वारा वे प्रज्ञापित हों; और प्राचीन गुरुनों के उपदेश और क्रियादर्श हों । इस अन्तिम प्रवृत्ति ही में हमें भारत के महाकाव्यों, वीर-गाथा और प्रौपदेशिक कहानियों- कथानों के उद्गम का पता भी लग जाता है कि जो सामान्य रूप मे प्रारम्भ होकर कालान्तर मे वृहद्काय हो गये हैं ।
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