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________________ २७८ वर्ष २२ कि० ६ जाति, जो कि श्राज लगभग बिलकुल मिट चुकी है, एक जमाने में सिंहभूमि के स्वामी थे। उस समय उनकी बड़ी संख्या थी ओर वे समृद्ध थे। कहा जाता है कि वे सिकरा भूमि के निवासी थे । सरावकों के को आगे चलकर यहाँ से भगा दिया गया । अनेकान्त कर्नल डानरल ने लिखा है - 'यह सर्व स्वीकृत है कि सिंहभूमि का भाग उन सरावकों द्वारा स्वामित्व में था, जिनकी कलाकृतियाँ उनके गौरव की गाथा आज भी बतलाती है । वे निश्चयपूर्वक उन श्रादि श्राय्यं सन्तति के थे जो कि सिंहभूमि और निकटस्थ मानभूमि में आकर बस गए थे । ये श्रावक जैन थे। सरावकों ने तालाब बहुत बनवाए ।' भाज भी हजारों मील के इन सारे इलाकों मे ऐसे तालाबों की भरमार है जिन्हे सराक ताल कहते है । स्पष्ट है कि सरावकों द्वारा जन समुदाय की सुविधा के लिए तालाबों का निर्माण कराया गया था । प्राचीन मूर्तियो के प्राधार पर कोई पुरातत्ववेत्ता तो इन स्थानों की श्रमण संस्कृति को २००० वर्ष पूर्व तक ले जाते है यहाँ से प्राप्त बहुत सी पुरातत्व की सामग्रियाँ, पटना और उड़ीसा के म्युजियम की शोभा बढ़ा रही है। ई० सन् ११०० तक की प्राप्त मूर्तियों में प्रत्यन्त उच्चकोटि के शिल्प के दर्शन होते है । इसके उपरान्त एक ऐसा अन्तराल श्राता है जिससे यह लगता है कि श्रावक समुदाय इस स्थान से मिट सा गया। उनके घर द्वार, मन्दिर चैत्यों के विनाश की सम्भावना चोल नरेश राजेन्द्र चोल देव की सेना के द्वारा की जाती है। ई० १०२३ में राजेन्द्र चोलदेव जब बंगदेश के महिपाल को युद्ध मे हरा कर छोटानागपुर के मानभूमि प्रदेश से गुजर रहे थे तभी धर्मान्ध विजयी नरेश और उसकी सेना ने श्रमण संस्कृति को गहरी चोट पहुँचाई । पाण्डय वंशीय साम्राज्यवादी भी नही चूके। लिंगायत शैवों का छोटा नागपुर में उदय और धर्मपरिवर्तन के उनके अभियान ने १३०० ई० में कुछ ऐसे कट्टर श्रमण द्रोही शक्तियों के श्रागमन का अवसर दिया जिससे देखते-देखते श्रमणों का अधिकार छोटा नागपुर से समाप्त हो गया । जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों को भैरव की मूर्ति के रूप में, घरणे- पद्मावति की मूर्ति को हर-पार्वती के रूप में पूजा जाने लगा । तंत्रवादी महायान शैवों ने अपना आतंक फैलाया और इस प्रकार हर तरीके से श्रमण संस्कृति की अद्भुत कला कृतियों, उनके रीति-रिवाजों आदि के समूल विनाश को पूरा किया जाने लगा । पाकवीर की तीर्थकर प्रतिमाओ को हिन्दू देवता बनाकर उनके समक्ष पशुओं की बलि कुछ वर्ष पूर्व तक चलती रही थी । बाहुवल भगवान की एक मूर्ति को आज भी भैरव की मूर्ति के रूप मे पूजा जा रहा है । तेल और रोली से उन्हे रंग दिया गया है । उस काल मे पाकवीर, चन्दन क्यारी, बलरामपुर, सिंहगुड प्रादि ऐसे स्थान थे जो संभवत: धर्म और व्यापार के जैन केन्द्र कहे जा सकते है । प्राज भी जमीन मे गड़े मन्दिर दीखते है जिनके शिखर कहीं-कहीं निकले दीखते है । भग्न मन्दिर टूटीफूटी और जहाँ तहाँ बिखरी तीर्थंकरों की प्रतिष्ठित मूर्तियां दीखती है । नष्ट हुए श्रावक ताल और श्रावक बिरादरी को उवारने के लिए फिर सभवतः किसी काल आगामी तीर्थंकर को ही वहाँ जाना होगा या संभवतः कभी किसी खारवेल का उदय हो । प्राज के भारत में तो कोई ऐसा सामर्थ्यवान और श्रीमान वीर नहीं जो वर्धमान महावीर के श्री चरणों से पवित्र इस जैन भूमि या सिंह - भूमि के बचे खुचे सराकों और उनके प्राचीन गौरव के खण्डहरो की पुनः प्रतिष्ठित करा सके । ✰ सन् १६७९ की जनगणना के समय धर्म के ख़ाना नं. १० में जैन लिखा कर सही आँकड़े इकट्ठा करने में सरकार की मदद करें ॥
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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