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________________ द्वितीय जम्बूद्वीप २१ इसे जम्बूद्वीप कहते है। यह प्रथम और सर्वाधिक महत्त्व- क्योकि यह उल्लेख प्राप्त नहीं होता कि यह जम्बूद्वीप पूर्ण द्वीप है। जम्बूद्वीप के चारों ओर घेर कर एक महा- प्रथम जम्बद्वीप से जिसका निश्चित मान उल्लिखित है समुद्र विद्यमान है जो अपने खारे जल के कारण लवण और जिसके आधार शेष द्वीप-समुद्रों का मान निकाला और जिसके पाधार शेष टीपसमुद्र कहलाता है। इस समुद्र को चारों ओर से घेरे हुए जाता है, कितने द्वीप-समुद्रो के पश्चात् है । इसकी भाभ्यएक द्वीप है। उसका नाम धातकीखण्ड है । उसे भी काल न्तर और बाह्य परिधियाँ एक एक समुद्र द्वारा घिरी है। समुद्र घेर कर विद्यमान है। काल समुद्र को घेर कर बाह्य परिधि को घेरने वाले समुद्र का नाम नियमानुसार पुष्कर द्वीप है। वह स्वय इसी नाम के समुद्र से घिरा जम्ब समुद्र है। इनमे पाठवे, ग्यारहवे मोर तेरहवे द्वीपों हुमा है। इस प्रकार, उत्तरोत्तर प्रत्येक द्वीप एक समुद्र से के समान ही देवानुकूल रचना है पर यह रचना चित्रा और वह समुद्र एक द्वीप से घिरा हुआ है। समुद्र का पथ्वी के ऊपर न होकर वजा पृथ्वी के ऊपर चित्रा के नाम वही है जो उसके पूर्ववर्ती द्वीप का है। इनमे विशेष मध्य में है। रचना के प्रतर्गत साङ्गोपाङ नगरियाँ, रूप से उल्लेखनीय द्वीपो मे पाठवा" नन्दीश्वर, ग्यारहवा" जिनालय आदि उल्लेखनीय है। इनकी विशालता और कुण्डलकर, तेरवॉ" रुचक्रवर", सख्यातवाँ जम्बूद्वीप और विविधता अत्यन्त प्राकर्षण की वस्तु है। अन्य दीपा और प्रतिम" स्वयभरमण है। प्रथम ढाई द्वीपो में नदी, पर्वत समुद्रो की भांति इस द्वीप के भी दो अधिपति व्यन्तर देव और क्षेत्र-विभाजन आदि की मनुष्यानुकूल रचना है। है परन्तु उनके नामो का उल्लेख नहीं है क्योकि शेष द्वीप उनके पश्चात् जो भी द्वीप उल्लेखनीय है उनमे रचना तो समुद्रो के अधिपति देवी के नाम का उपदेश इस समय अवश्य है परन्तु वह मनुष्यानुकूल न होकर देवानुकूल है। नष्ट हो गया है।" उनमे भवनवासी वर्ग के देव और देवियाँ निवास करती नगरी-वर्णन :है । विभिन्न पर्वतो और कूटा पर विद्यमान अकृत्रिम __इस द्वीप की चारों दिशाओं में विजय प्रादि देवों की चंत्यालय इन द्वीपो की विशेषता है। दिव्य नगरियाँ स्थित है। ये नगरियाँ बारह हजार योजन द्वितीय जम्बूद्वीप : सामान्य लक्षण : विस्तृत जिन भवनो से विभूपित और उपवन-वैदियों से द्वितीय जम्बद्वीप सम्यात द्वीपो और समुद्रो को घेर सयुक्त है। इन सब नगरियों के प्राकार साढे सैनीस योजन कर एक चुड़ी के आकार में स्थित है। इसकी चौड़ाई ऊँचे तथा प्राधे योजन गहरे है" और उन पर रग विरगी और परिधि का निश्चित मान नही दिया जा सकता ध्वजारो के समह फहरा रहे है। उत्तम रत्नो से निमित इन सुवर्ण प्राकारो का भूविस्तार माढ़े बारह योजन पौर १२. क्योंकि इसके मध्य में जम्बू (जामुन) का एक मुखविस्तार सवा छह योजन है। अक्षय वृक्ष है। इन नगरियों की एक-एक दिशा मे सुवर्ण से निर्मित १३. चौथे से सातवें तक क्रमशः वारुणीवर, क्षीरवर, और मणिमय तोरणस्तम्भो से रमणीय पच्चीस गोपुर है। घृतवर, क्षौद्रवर। इन नगरियों के उत्तम भवनो की ऊँचाई बासठ योजन, १४. नौवाँ भरुणवर और दशवा अरुणाभास । विस्तार इकतीस योजन और गहराई दो कोश है। १५. बारहवाँ शखबर १६. चौदहवां भुजगवर, पन्द्रहवाँ कुशवर, सोलहवाँ प्रत्येक नगरी के मध्य में तरह-तरह के अनेक भवनो क्रौञ्चवर। १८. सेसाण दीवाण वारिणिहीण च अहिवई देवा । १७. अन्त से प्रारम्भ करने पर स्वयम्भूरमण से पूर्व जे केइ ताण णामस्सुवएसो सपहि पणट्ठो॥ क्रमशः महीन्द्रवर, देववर, यक्षवर, भूतवर, नागवर, -'ति०प०', ५, ४८ वैदूर्यवर, काञ्चन, रूप्यवर, हिंगुल, अञ्जनवर, १६. इस गहराई (अवगाह) का तात्पर्य चित्रा पृथ्वी में श्याम, सिन्दूर, हरिताल, मनःशिल । उसकी निचली सतह से हो सकता है।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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