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अनेकान्त
वर्ती होने से उक्त दोनों टीकाएँ उन्हें देखने को नहीं मिली, ग्वालियर के गोलापूर्व प्राम्नाय के शाह धनराज द्वारा अतएव वे बसी टीका नहीं बना सके । किन्तु उस लेख से सं. १६९४ से पूर्व का 'भक्तामरस्तोत्र' हिन्दी का पद्यानुवाद निश्चित है कि सिद्धसेन गणी की इस टीका में सर्वार्थ अनेकान्त में प्रकाशित हुपा है, उसकी सचित्र जीणंप्रति सिद्धि और राजवार्तिक की पंक्तियोंकी पंक्तियां उड़त है। मुनि कान्तिसागर जी के पास विद्यमान है। तब दूर देश होनेके कारण वे टीकाएं देखनेको नहीं मिली, प्रचलित गोम्मटसार-कर्मकाण्ड का प्रकृति समुत्कीर्तन मान्यता प्रामाणिक ठहरती है, उन टीकाओं के रहते अधिकार त्रुटिपूर्ण है। उसमें प्राकृत के कुछ गद्यसूत्र छुटे हुए भी सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्थवार्तिक जैसी टीका नही हुए हैं । जो कि मूडबिद्री की ताडपत्रीय प्रति में पाये जाते बनने में योग्यता भेद ही कारण है।
हैं। उन सूत्रों को मिलाकर उसके टित अश को पूरा अनंगपाल तृतीय के राज्यकाल में प्रामात्य अग्रवाल किया गया है। साहू नट्टल द्वारा आदिनाथ के मन्दिर का निर्माण और भविष्यदत्त कथा के शोध प्रबन्ध पर, जिसपर पी. एच. प्रतिष्ठा तथा पार्श्वनाथचरित्र का निर्माण, ये खोज महत्व- डी. की उपाधि मिली है, उसके निर्माण काल पर विचार-लेख पूर्ण है।
द्वारा उसके निर्माण काल पर विचार किया गया है। सं०
१३६३ को रचनाकाल बतलाया गया था वह उसका ___ गहरे अनुसन्धान द्वारा यह प्रमाणित किया गया कि
प्रतिलिपि काल है, निर्माण काल नहीं। सन्मति सिद्धसेन के कर्ता दिगवर थे । तथा सन्मति सूत्र, न्यायावतार और द्वात्रिन्शिकागो के कर्ता एक सिद्धसेन
तात्विक अनुसन्धान द्वारा तत्व विषयक सैकड़ों बातों नही किन्तु तीन या तीन से अधिक है।
पर नया प्रकाश डाला गया है । इसमे दर्शन, ज्ञान और कल्याणमन्दिर स्तोत्र के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर नहीं, चरित्र सम्बन्धि बातो का समावेश है। पौर न वह श्वेतांबरकृति है।
अनुसन्धान द्वारा अनेक प्राचार्यों, विद्वानों, और भट्टारत्नकरण्डश्रावकाचार देवागमादि ग्रथों के कर्ता रकों आदि के समय पर नया प्रकाश डाला गया है। और स्वामी समन्तभद्र की कृति है, ऐसा अनसधान पुष्ट उनके समयादि के सम्बन्ध मे प्रामाणिक विचार किया है। प्रमाणों के आधार पर किया गया है।
अनेक अप्रकाशित अलभ्य ग्रन्थों की शोध खोज 'अलोप पार्श्वनाथ प्रसाद' नामक लेख द्वारा शिला- की और दूसरों को प्रेरित करके कराने का उपक्रम किया लेखीय प्रमाणों के प्राधार पर मुनिकान्तिसागर जी ने है। अनक अप्रकाशित ग्रथा को ग्रथ भण्डारों मे से लाकर उसे नागदा का पार्श्वनाथ दिगबर जैन मन्दिर बतलाया
उनका परिचय अनेकान्तादि पत्रों में दिया है। है। यह लेख मुनि जी ने मेरी प्रेरणा पर तटस्थ भाव से वीरसेवामन्दिर द्वारा अन्वेषित ग्रन्थ और ग्रन्थकार लिखा है।
अक्षयनिधिव्रत कथा, भ० सकलकीति चित्तौड का जैन कीर्तिस्तम्भ-जिसे श्वेताबर सम्प्रदाय के अक्षयनिधिव्रत कथा, ब्र० श्रुतसागर विद्वान साम्प्रदायिक व्यामोहवश श्वेताबर बतलाते थे, वह अर्घकाण्ड. दुर्गदेव दिगंबर जैन कीर्तिस्तभ वघेरवालवशी शाह जीजा द्वारा बन- अजितपुराण, अरुणमणि वाया गया है, और उसकी प्रतिष्ठा उनके सुपुत्र शाह अध्यात्म तरंगिणी टीका, गणधर कीर्ति पूरनसिंह द्वारा सम्पन्न हुई है। उसके सम्बन्ध में दो अनंत जिन पूजा, भ० गुणचन्द्र (१६३३) शिलालेख भी उदयपुर राज्य के प्रकाशित किए है। अनन्त व्रत कथा, पद्मनन्दि
सिरिपुर पार्श्वनाथ का इतिहास और पार्श्वनाथ की अनन्त व्रत कथा, ब्र० श्रुतसागर मूर्ति के प्रतिष्ठापक राजा श्रीपाल ईल, का प्रामाणिक अम्बिकाकल्प, भ. शुभचन्द्र परिचय भी नेमचन्द धन्नूसा जैन द्वारा अनेकान्त में प्रका- अशोक रोहिणी कथा, ब्र० श्रुतसागर शित हुमा है।
माकाशपचमी कथा, ब्रह्म श्रुतसागर