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________________ भारत में वर्णन कपा-साहित्य विकृत संलगता ही कहना उचित नहीं है। इस सबकी पुरुष जितनी ही प्रकृतियां हैं और अनेक विशिष्ट बातें मान्तरिक समानता, प्रार्य [वैदिक और ब्राह्मण] धर्म से जैनों और सांस्यों को समान मान्य है। तीनों ही सम्प्रइनकी अनिवार्य असमानता को सामने रखते हुए और दायों में सृष्टिकर्ता या ऐसे प्रतिमानव को कि जो दण्ड उन दरारों का विचार करते हुए कि जो वैदिक और या पुरस्कार वितरण किया करे कोई भी स्थान प्राप्त नहीं उपनिषदिक विचारधारामो के अपक्षपाती प्रध्ययन से है। इन सभी समान मान्यताओं की, वैदिक धर्म की स्वा. पाई जाएं, यही बताती है कि यहाँ ऐसी स्वदेशी विचार- भाविक विकास के साथ उस समय तक कोई भी संबति धारा जिसे हम सुविधा के लिए 'मागध धर्म' कह सकते नही बैठती है जब तक कि उपनिषद-युग का मध्य-कास है, पहले से विद्यमान थी ही कि जो सांसारिक दृष्टिकोण नहीं मा जाता है। सांख्य ने, कि जिसे उसकी मनोमोहक मे एकदम दुखवादी, प्राध्यात्मिकता में बहुदेववादी नही परिभाषावली के कारण सनातन स्वीकार कर लिया गया तो देतवादी, प्राचार में विरागी, पुनर्जन्म भोर कर्म के है हालांकि वेद-मान्य सनातन से उसमें प्रकट विसंगतियाँ सिद्धान्त मे नि.सन्देह विश्वास करने वाली, नैतिक दृष्टि भी हैं. कतिपय उपनिषदों को विशेष रूप से प्रभावित कोण मे प्रतिमानवी और सर्वजीव-तत्ववादी, वेदो और किया है. और फिर प्रास्तिकवादी योग का बल पाकर वैदिक अनुष्ठानो मे श्रद्धा जरा भी नही रखनेवाली, और मां निसन्टेड ही सनातन बन गया है। जैन, सांस्य निःसकोच रूप से सृष्टिकर्ता का स्वीकार नहीं करनेवाली और बौद्धों की इन समान बातों को, उनके ऐसे ही थी। जैन और बौद्ध इस मागध धर्म के अच्छे प्रादर्शभूत र बाद्ध इस मागध धम के प्रच्छ पादशभूत आर्य-वैदिक अनुष्ठानों के समान मत-भेदों को, पौर प्रतिनिधि है कि जिसकी पृष्ठ-भूमि की रूपरेखा मैंने अन्यत्र प्राजीवक, पूरण काश्यप आदि सम्प्रदायों से मिलते-जुलते इन शब्दो मे दी है, 'जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्तों का जैनों के कुछ विशेष सिद्धान्तों को दृष्टि में रखते हुए, अन्य भारतीय धर्म-सम्प्रदायो के सिद्धान्तों के साथ यहाँ मैं एक ऐसे महान् मागध-धर्म का, प्रमुख अनुभावों मे वहाँ साम्य और वैषम्य बताते हए जो संक्षिप्त सर्वेक्षण मैं स्वदेशी, अस्तित्व स्वीकरण के पक्ष में हूँ कि जो मध्यने किया है, उससे मुझे भारतीय दार्शनिक विचारधारा देश में मार्यों के आगमन के पूर्व ही पूर्वी भारत में गंगा के विकास मे जैन-धर्म की स्थिति पर अनिर्णायक रूप से के तटों पर फल-फूल रहा था। बहुत सम्भव है कि इन प्रकाश डालने का प्रलोभन होता है। जैन-धर्म को वेद की अधीनता का अस्वीकार, बौद्धो के पूर्ण और साख्यों के दोनों धारामों का ब्राह्मण-युग के अन्त समय में संमिश्रण हुमा हो और उसके परिणाम स्वरूप एक ओर तो उससे आशिक, कदाचित् यह बताता है कि ये तीनो एक ही उपनिषदों का उद्भव हुमा जिनमें याज्ञवल्क्य प्रादि विचारधारा के है । पुनर्जन्म का सिद्धान्त ही नहीं अपितु ऋषि पात्म-विद्या का प्रचार पहले पहल कर रहे है एवम् उससे उद्भूत जीवन-दुःखवाद और कर्म सिद्धान्त कि जो वैदिक साहित्य के उपनिषदों मे ही सर्वप्रथम निश्चित रूप दूसरी पोर जनता द्वारा प्राचरित वैदिकानुष्ठान रूपी धर्म के विपक्षी रूप में जैन और बौद्ध धर्म प्रचार पाए से दिखलाई पड़ता है, इन तीनों को समान रूप से मान्य है । दया और नीति का दृष्टिकोण एवम् हिंसा की घोर कि जो मागध-धर्म के महान् वारसे के सुदृढ़ प्रतिनिधि के निन्दा, फिर चाहे वह यज्ञ के अर्थ अथवा व्यक्तिक इच्छा रूप में शीर्ष स्थानी हुए। के लिए की जाए, भी तीनो को समान रूप से मान्य है। विण्टरनिट्ज के अनुसार, प्राचीन भारत में सभी बौद्धों भोर साख्यों के सिद्धान्त बहुत से समान है, यह बौद्धिक प्रवृत्तिया केवल ब्राह्मणों में ही परिसीमित नहीं भारतीय-विद्याविदो के लिए कोई नई बात या सचना थीं। ब्राह्मण शास्त्रों के साथ-साथ परिव्राजक, श्रमण, नहीं है। तात्विक द्वैतवाद, प्रात्मा-बहुवाद, द्रव्य द्वारा अथवा वैरागी साहित्य भी तब था। प्राचीन भारत के मात्मा का विभ्रमण, साख्य का यह आदिम विश्वास कि बौद्धिक और प्राध्यात्मिक जीवन के इन दो प्रतिनिधियों ४. प्रवचनसार, बम्बई १९३५, भूमिका पृ. १२-१३ ५. वही, इन्ट्रोडक्सन, पृ. ६४-६५
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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