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________________ अनेकान्त मुनि श्री उदयचन्द जो म० सिद्धान्तशास्त्री अनेकान्त में भी अनेकान्त : जाता है, उसी को असत् भी कहा जाता है अतएव भनेअनेकान्त में विविध और निषेध रूप सप्तभंगी की कान्त बाद छलमात्र है। प्रवृत्ति होती है या नहीं? अगर प्रवृत्ति होती है तो अनेकात समाधान :-नहीं, अनेकान्त में छल का लक्षण का निषेध करने पर एकान्त की प्राप्ति होगी और एकान्त घटित नहीं होता। किसी दूसरे अभिप्राय से बोले हुए में कहे हुए समस्त दोष पाजाएंगे। यदि अनेकान्त में शब्द का दूसरा ही कोई अभिप्राय कल्पित करके उस सप्तभगी की प्रवृत्ति नहीं होती तो आपके सिद्धान्त मे कथन का खडन करना छल कहलाता है। जैसे देवदत्त के बाधा पाएगी। पास नया कम्बल देख कर किसी ने कहा-देवदत्त नब प्रमाण और नय की अपेक्षा से अनेक न्त मे भी सप्त कम्बलवान है। दूसरे ने "नव" शब्द का "नौ" अर्थ मान भगी की प्रवृत्ति होती है। एकान्त दो प्रकार का है कर कहा-बेचारे दरिद्र देवदत्त के पास नो कबल कहाँ सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त । इसी प्रकार अनेकान्त के भी दो भेद है। ___इस प्रकार अर्थान्तर की कल्पना करने पर छल होता प्रमाण से अनेक धर्म वाली वस्तु में से एक धर्म को है । अनेकान्तवाद में इस तरह अर्थान्तर की कल्पना नहीं ग्रहण करने वाला किन्तु दूसरे धर्मों का निषेध न करने की जाती, इस कारण अनेकान्त वाद छल नही है। वाला सम्यक् एकान्त कहलाता है। एक धर्म को ग्रहण दूसरे धर्म का निषेध करने वाला मिथ्या-एकान्त कह- अनेकान्त संशय का कारण नहीं : लाता है। शंका-एक वस्तु मे परस्पर विरोधी अस्तित्व तथा एक वस्तु में अस्तित्व-नास्तित्व प्रादि अनेक धर्मों को नास्तित्व आदि धर्मों का होना सभव नही, अतः अनेकान्तजो स्वीकार करे और प्रत्यक्ष अनुमान प्रादि प्रमाणों से वाद संशय का कारण है। एक ही वस्तु में परस्पर अविरुद्ध, वह सम्यग-अनेकान्त है। जो प्रत्यक्षादि प्रमाणो विरोधी अनेक धर्मों का ज्ञान होना सशय है। एक ही घट से विरुद्ध अनेकान्त धर्मों को एक वस्तु में स्वीकार करता में परस्पर विरुद्ध धर्मों का अनेकान्तवाद ज्ञान कराता है, है, वह मिथ्या अनेकान्त है। प्रतएव वह सशय का कारण है ? नय सम्यक एकान्त है, नयाभास मिथ्या एकान्त है। समाधान :-जब सामान्य का प्रत्यक्ष हो, विशेष प्रमाण अनेकान्त है और प्रमाणभास मिथ्या-अनेकान्त है। का प्रत्यक्ष न हो किन्तु विशेष का स्मरण हो, सशय उत्पन्न इस प्रकार हम सम्यकएकान्त और सम्यक्अनेकान्त होता है। अनेकान्त वाद मे तो विशेष का ज्ञान होता है, को स्वीकार करते हैं, अत: इसमें भी सप्तभंगी की प्रवृत्ति अतएव वह संशय का कारण नहीं है। वस्तु में स्वरूप से होती है। यथा (१) स्यात् एकान्त, (२) स्यात्-प्रनेकान्त सत्ता है, पर रूप से प्रसत्ता है। इस प्रकार के विशेष की (३) स्यात्-एकान्तानेकान्त, (४) स्यात्-प्रवक्तव्य, (५) उपलब्धि होने के कारण अनेकान्तवाद को संशय का स्पात्-एकान्तवक्तव्य, (६) स्यात्-अनेकान्त वक्तव्य और कारण कहना उचित नहीं है। (७) स्यात्-एकान्तानेकान्त प्रवक्तव्य । शंका :-घटादि में अस्तित्व मादि धर्मों के साथ हेतु अनेकान्त छल नहीं है-- विद्यमान है अथवा नहीं ? अगर विद्यमान नहीं है तो शंका:-अनेकान्त वाक्य में जिस वस्तु को सत् कहा उन धर्मों का प्रतिपादन नहीं करना चाहिए। यदि सापक
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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