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अनेकान्त
हेतु विद्यमान है तो परस्पर विरुद्ध धर्मों के साधक हेतु भी माता है। होने से संशय अवश्य उत्पन्न होगा।
समाधान :- भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से यदि अस्तित्व और नास्तित्व की विवक्षा की जाती है तो उनमे विरोध रहता ही नही है । जैसे एक ही देवदत्त को पिता की अपेक्षा पुत्र और पुत्र की अपेक्षा से पिता मानने मे कोई विरोध नही, उसी प्रकार घट मे स्वरूप से अस्तित्व और पररूप से नास्तित्व मानने में भी कोई विरोध नहीं है। अथवा जैसे एक हेतु मे पक्षसत्व और विपक्षत्व दोनों धर्म माने गए है, वैसे ही घटादि मे भी ये दोनो धर्म रहते है।
अनेकान्त में प्राठ दोष :
अनेकान्त मेाठ दोष आते है । वे इस प्रकार है१. एक ही वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व धर्म सम्भव नहीं, क्योंकि वे परस्पर विरोधी है जहाँ अस्तित्व है वहीं नास्तित्व का विरोध है, जहाँ नास्तित्व है वहीं अस्तित्व का "विशेष दोष" है ।
२. अस्तित्व का अधिकार (आधार) अलग और नास्तित्व का अधिकरण अलग होता है, अतएव यषि करणदोष" है।
३. जिस रूप से अस्तित्व है और जिस रूप से नास्तित्व है, वे रूप भी पस्तित्व नास्तित्व रूप है। उन्हें भी स्वरूप से सत् और पररूप से असत् मानना होगा । इस प्रकार स्वरूप और पररूप की कल्पना करते-करते कही विराम नही होगा, ग्रतः "अनवस्था दोष प्राता है ।
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४. जिस रूप से सत्ता है उस रूप से प्रसत्ता भी मानी जाएगी। जिस रूप से असता है उस रूप से सत्ता भी माननी पड़ेगी । यतः "संकर दोष" धाता है।
५. जिस रूप से सरल है उस रूप से असत्य ही होगा, सत्त्व नही और जिस रूप से ग्रसत्व है उस रूप से सत्व ही होगा, श्रसत्व नहीं होगा। इस प्रकार "व्यतिकर दोष" को प्राप्ति होगी।
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८. प्रप्रतिपत्ति के कारण सत्व-प्रसत्त्व रूप वस्तु का प्रभाव हो जाएगा, अतः "प्रभाव दोष" माता है । इन दोषों का परिहार इस प्रकार है :
विरोध की सिद्धि अनुपलम्भ से होती है, अर्थात् जो दो पदार्थ एक साथ न रह सकते हो उनमें विरोध माना जाता है। यहाँ विरोध नहीं है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ मे स्वरूप से सत्ता और पररूप से प्रसता प्रतीत होती है । प्रतीय मान वस्तु मे विरोध माना जाता।
अकेला सत्व ही वस्तु का स्वरूप नहीं है, ऐसा मानने पर पररूप से भी उसमे सत्त्व मानना पड़ेगा। तब प्रत्येक पदार्थ सर्वात्मक हो जाएगा। इसी प्रकार यदि एकान्त रूप से असत्व को पदार्थ का स्वरूप माना जाय तो सभी पदार्थ असत् हो जाएँगे। ऐसी स्थिति मे सर्व शून्यता का प्रसंग होगा अर्थात् किसी भी पदार्थ की सत्ता नही होगी । श्रतएव प्रत्येक पदार्थ को सत् - श्रसत् स्वरूप ही मानना पुक्ति संगत है। विरोध के तीन भेव :
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विरोध तीन प्रकार का होता है- ( १ ) बध्यघातक भाव, ( २ ) सहानवस्थान और (३) प्रतिबद्धघ- प्रतिबंधकभाव ।
(१) बध्यघातक भाव - विरोध सर्प और नकुले में तथा भाग और पानी में होता है। एक ही काल मे दोनों मौजूद हो और उनका सयोग हो तभी यह विरोध होता है। धापके मतानुसार सत्य और असत्व क्षण भर के लिए भी एक पदार्थ में नही रहते। फिर उनका विरोध है, यह कल्पना कैसे की जा सकती है ?
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(२) सहानवस्थान - विरोध भी सत्व श्रीर असत्व में नहीं कहा जा सकता। यह विरोध भिन्न-भिन्न काली में रहने वाले पदार्थों मे होता है जैसे ग्राम में हरि तता होती है तब पीतता नहीं होती, जब पीतता उत्पन्न होती है। तो हरितता को वह नष्ट कर देती है । अस्तित्व धौर नास्तित्व इस प्रकार पूर्वोत्तरकाल मावी नहीं है ।
६. वस्तु को सत्व और प्रसत्वरूप मानने से यह निश्चय नही हो सकता कि यह वस्तु ऐसे ही है । प्रतः स्याद्वाद में "संशय दोष" भी श्राता है ।
(३) प्रतिबद्धध- प्रतिबन्धकभाव-विरोध भी सत्व
७. संशय होने से अनिश्चय रूप " प्रप्रतिपत्ति दोष" श्रोर सत्य और असत्व में नहीं है । चन्द्रकान्तमणि की