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________________ अनेकान्त निकटता में अग्नि दाह नहीं करती, इस कारण चन्द्र- शंका-किसी भी वस्तु में स्वरूप से जो सत्व है, कास्तमणि और दाह में यह विरोष माना जाता है। वही पररूप से असत्व है। इस प्रकार एक वस्तु में सत्व किन्तु अस्तित्व के समय नास्तित्व में कोई प्रतिबन्ध नहीं और असत्व का भेद नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक वस्तु हाता और नास्तित्व के समय अस्तित्व में कोई रुकावट को भाव-प्रभाव रूप कसे कहा जा सकता है ? नहीं पाती, अतएव उनमें प्रतिवन्ध्य-प्रतिबन्धक भाव समाधान :-सत्व और प्रसत्व दोनों एक नहीं है, विरोध भी नहीं कहा जा सकता। पदार्थ में जब स्वरूप क्योंकि उनके अपेक्षणीय है निमित्त अलग-अलग है। स्व से अस्तित्व होता है तभी पररूप से नास्तित्व भी रहता द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से प्रभाव प्रत्यय है यह बात प्रतीति से सिद्ध है। को उत्पन्न करता है। इस प्रकार भाव और प्रभाव में ____सत्व और प्रसत्व में वैयधिकरण्य दोष भी नही है, भेद है। क्योंकि ये दोनों एक ही अधिकरण में रहते हैं, यह बात जैसे एक ही वस्तु में अपनी अपेक्षा से एकत्व संख्या अनुभव सिद्ध है। रहती है और दूसरी वस्तु की अपेक्षा से द्वित्व सख्या रहती अनवस्था दोष के लिए भी गुंजाइश नहीं, क्योंकि जैन है। ये दोनों संख्याएं परस्पर भिन्न है, उसी प्रकार सत्व अनन्त धर्मात्मक वस्तु को प्रमाण से सिद्ध स्वीकार करते और असत्व को भी भिन्न ही समझना चाहिए। हैं। वहां प्रनवस्था दोष नही होता है जहां अप्रमाणिक पदार्थों शंका:-एक ही वस्तु में सत्व और असत्व की प्रतीति की कल्पना करते-करते बिधान्ति न हो वहां होता है। मिथ्या है। संकर और व्यतिकर दोषों को भी अनेकान्तवाद मे समाधान :-नहीं, उनकी प्रतीति में कोई बाधा नहीं कोई स्थान नही है, क्योंकि जो वस्तु प्रतीति से जैसे सिद्ध है । अतः उस प्रतीति को मिथ्या नही कह सकते । कदाहोती है, उसमें किसी भी प्रकार का दोष नहीं पा सकता। चित् कहो कि विरोध बाधक है तो यह कथन पर पराश्रय सशय मादि का परिहार पहले किया जा चुका है। दोष से दूषित है। विरोध हो तो वह प्रतीति मिथ्या सिद्ध दाष स द्वाषत ह । विराष हा ता वह प्रतएव पूर्वोक्त पाठ दोषों में से कोई भी दोष अनेकान्त में हो और जब प्रतीति मिथ्या सिद्ध हो जाय तब विरोध नहीं पाता है। की सिद्धि हो। कुछ शंका-समाधान : इसके अतिरिक्त विरोध दोष का परिहार अन्यत्र शंका:-पर रूप से प्रसत्व का अर्थ है-पररूपा किया जा चुका है। सत्व । घट यदि पराभाव रूप है तो यों कहना चाहिए अनेकान्त सर्वमान्य :घट है, पट नहीं है। वास्तव में अनेकान्त वाद को सभी वादियों ने स्वीसमाधान-घटादि में जो पट रूपा सत्व है वह कार किया है, क्योंकि सभी वादी वस्तु को एक रूप और प्रसत्व पटादि का धर्म है अथवा घट का धर्म है ? पटरूपा अनेक रूप मानते है। सत्व पट का धर्म तो हो नहीं सकता, अन्यथा पट में पट सांख्य-लोग सत्व, रज, और तम इन तीन गुणों स्वरूप का प्रभाव हो जाएगा। यदि घट का धर्म है तो की साम्य-प्रवस्था को प्रकृति मानते हैं। ये तीनों गुण हमारा कथन (कथंचित् घट नहीं है) उचित ही है। भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले हैं। ये तीन मिलकर एक प्रकृति घट भाव-प्रभाव रूप सिद्ध हो गया तो हमारा अभीष्ट हैं। इस प्रकार इनके मत में वस्तु एक-अनेक स्वरूप वाली सिद्ध हो गया। हम घट को कथंचित् प्रभावरूप सिद्ध सिद्ध होती है। समुदाय और समुदायि में प्रभेद होता है। करना चाहते हैं। प्रब रही शास्त्रों के प्रयोग की बात कि यहां समुदायी तीन हैं और उनका समुदाय एक है। इस कैसा बोलना चाहिए? सो यह तो परम्परा पर निर्भर है। प्रकार एक ही वस्तु में एकत्व और अनेकत्व सिद्ध है। जैसा पहले बाले शब्द प्रयोग करते पा रहे हैं, वैसा ही नैयायिक-द्रव्यत्व, गुणत्व मादि को सामान्य विशेष्य हम भी करते है इसमें प्रश्न के लिए अवकाश नहीं है। अर्थात् मपर सामान्य स्वीकार करते हैं, क्योंकि वह अनु.
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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