SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारह प्रकार के संभोग पारस्परिक व्यवहार मुनि श्री नथमल जी संभोग बारह प्रकार का है तप-इन उत्तरगुणों के सम्बन्ध में 'संभोग' और 'विसंभोग' १. उपधि ७. अभ्युत्थान की व्यवस्था निष्पन्न हुई थी। निशीथ चूर्णिकार ने एक २. श्रुत ८. कृतिकर्मकरण (वन्दना) प्रश्न उपस्थित किया है कि "विसंभोग' उत्तरगुण में होता ३. भक्त-पान ६. वैयावृत्यकरण (सहयोग- है या मूल गुण में ? इसके उत्तर में प्राचार्य ने कहादान) "वह उत्तर गुण में होता है।" मूलगुण का भेद होने पर ४. अंजलिप्रग्रह (प्रणाम)१०. समवसरण (सम्मिलन) साधु ही नहीं रहता, फिर संभोगिक पौर विसंभोगिक का ५. दान ११. सनिषद्या (मासन-विशेष) प्रश्न ही क्या ? ६. निकाचन (निमंत्रण) १२. कथा-प्रबन्ध । सभोग और विसंभोग की व्यवस्था का प्रारम्भ कर संभोग का अर्थ है पारस्परिक व्यवहार से हमा, सहज ही यह जिज्ञासा उभरती है। निशीथ ___इस शब्द में श्रमण परम्परा में होने वाले अनेक परि. के चूणिकार ने इस जिज्ञासा पर विमर्श किया वर्तनों का इतिहास है। भोजन, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और है। उनके अनुसार पहले भद-भरत (उत्तर भारत) में सब सविग्न साधुनों का एक ही संभोग था, फिर वृति प्रत्यय और व्यावृत्ति प्रत्यय-दोनों का विषय है। इस कालक्रम से संभोग और असंभोग की व्यवस्था हुई मौर तरह इन्होंने भी एक ही परार्थ को सामान्य विशेषात्मक उसके माधार पर साधुनों की भी दो कक्षाएं, साभोगिक स्वीकार किया है। और प्रसांगभोगिक बन गई। बौद्ध-एक मेचक ज्ञान को अनेक प्राकारों (नीला चूणिकार ने फिर एक प्रश्न उपस्थित किया है कि कार, पीताकार, रक्ताकार आदि प्राकारों) वाला स्वी कितने प्राचार्यों तक एक संभोग रहा और किस प्राचार्य कार करते है। इस प्रकार इन्होंने भी एक ही ज्ञान को के काल मे असंभोग की व्यवस्था का प्रवर्तन हुमा ? एक-अनेक रूप माना है। चार्वाक-पृथ्वी, जल, तेज और वायु-इन चार इसके उत्तर में भाष्यकार का अभिमत प्रस्तुत करते भूतों से एक चैतन्य की उत्पत्ति होना मानते है। इस १. निशीथ भाष्य गाथा २०६६ (निशीथ सूत्र, द्वितीय प्रकार चैतन्य, पृथ्वी प्रादि चार भूतों से भिन्न है। यह विभाग) पृ० ४३१ । भी एक ही वस्तु को अनेक रूप मानना है। सभोगपरूवणता सिरिघर-सिवपाहडे य संभुते । मीमांसक-मत के अनुसार एक ही ज्ञान के तीन दसणणाणचरित्ते, तवहे उत्तर गुणेसु ॥ पाकार होते है-प्रमातृ-प्राकार, प्रमिति-प्राकार, और २. निशीथ चूणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), प्रमेय-प्राकार, । इस प्रकार इनकी मान्यता के अनुसार एक पृ० ३६३ । ज्ञान अनेक प्राकारों वाला है। ज्ञान के ये अनेक प्राकार विसभोगो कि उत्तरगुणे मूलगुणे ? शाम से भिन्न है। अतः यह एक को अनेक रूप मानना मायरिमो भणति-'उत्तरगुणे।' कहलाया। ३. निशीथ चूणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय भाग),पृ. ३५६ : इस प्रकार अनेकान्त वाद की प्रक्रिया सभी दर्शनों को एस य पुव्वं सव्वसं विग्गाणं अड्ढभरहे एक्क स्वीकार करनी ही पड़ती है। उसे स्वीकार किए बिना सभोगो प्रासी, पच्छा जाया इमे सभोइया इमे काम नहीं चल सकता। प्रसंभोइया।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy