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________________ १५० अनेकान्त निगोद की जगह क्षुद्र शब्द का प्रयोग है देखो वृन्दावन कृत चौवीस पूजा (विमलनाथ पूजा जयमाल) तिण्णिसया छत्तीसा छावट्टि सहस्सगाणि मरणाणि । मे यह कथन ठोक दिया हुआ है वहाँ देखो। अंगो मुहतकाने तावदिया चेव खुद्दभवा १२२ श्वेताबर प्रथों मे इस विषय में कथन इस प्रकार है :'निगोद' का 'क्षुद्र, कुत्सित, अप्रशस्त, हीन' अर्थ भी "जैनसिद्धात बोलसग्रह" दूसरा भाग (सेठिया जैन होता है देखो : ग्रथमाला बीकानेर) पृ० १६-२१ मे लिखा है :(१) मूत्र प्राभृत गाथा १८ "तत्तो पुण जाई निग्गोद" अनन्त जीवो के पिण्ड भूत एक शरीर को निगोद मे निगोद का अर्थ श्रुतसागर ने अप्रशसनीय दिया है कर कहते है । लोकाकाश के जिनने प्रदेश है उतने सूक्ष्म निगोद (निगोदं प्रशंसनीयति न गच्छतीत्यर्थः) के गोले है एक एक गोने में असख्यात निगोद है एक एक (२) हरिवंश पुराण (जिनसेनकृत) सर्ग ४ निगोद मे अनन्त जीव है। ये एक श्वास मे-कुछ अधिक मृदंग नाडिकाकारा निगोदा पृथ्वीत्रये ।।३४७॥ १७ जन्म मरण करते हैं, (एक मुहूर्त में मनुष्य के ३७७३ ते चतुर्थ्यांच पचम्या नारकोत्पत्तिभूमयः ॥३४८।। श्वासोच्छ्वास होते है) एक मुहर्त मे ६५५३६ भव सर्वेन्द्रिक निगोदास्ते त्रिद्वाराश्च त्रिकोणकाः ॥३५२।। करते है, निगोद का एक भव २५६ प्रावलियो का होता घर्मा निगोदजाः जीवा खमुत्पत्य पतन्त्यधः ३५५ है । सूक्ष्म निगोद मे नरक से भी अनतगुणा दुःख (प्रज्ञान नरक मे नारकियों के जो उत्पत्ति स्थान इन्द्रक से) है। आदि बिल है उन कुत्सित स्थानो को यहाँ 'निगोद' कहा सत्तरस समहिया किर इगाणु पाणम्मि हुति खुड्डुभवा । है। संस्कृत टिप्पणकारने भी यही अर्थ किया है :-"निगोदः सगतीस सय तिहत्तर पाणु पुण इग मूहुत्तम्मि ।। नारकोत्पत्ति स्थानानि"। पणसटि सहस्स पणसय छत्तीसा इग मुहुत्त खुड्डभवा । धर्म विलास (द्यानतराय कृत) पृ० १७-(उपदेश प्रावलियाण दो सय छप्पन्ना एग खुडुभवे ।। शतक) दि० पाम्नाय मे जहाँ १८ बार जन्म-मरण बताया है वसत अनतकाल बीतन निगोद माहि । प्रखर अनंतभागज्ञान वहाँ श्वेताबर आम्नाय में कुछ अधिक १७ बार बताया अनुसरे है। है। दि० पाम्नाय में क्षुद्रभवो की संख्या ६५३३६ बताई छासठि सहस तीन से छत्तीस बार जीव । अतर महरत है तब इव० आम्नाय मे ६५५३६ बताई है दि० आम्नाय मे जन्मे और मरे है ।।४८।। मे यह सख्या स्थावर और त्रस सभी लब्ध्यपर्याप्तको की बताई है किन्तु श्वे० प्राम्नाय में इसके लिए सिर्फ एक दौलत विलास पृ० ८०--जब मोहरिपु दीनी घुमरिया तसवश निगोद में पड़िया । निगोद शब्द का सामान्य प्रयोग किया है। दोनों माम्नायो तह श्वास एक के माहि अष्टादश मरण लहाहि ॥ में इस प्रकार यह मान्यता भेद है (यह भेद सापेक्षिक है दोनो की सगति सभव है) लाह मरण अन्तर्मुहुर्त मे छ्यासठ सहस शत तीन ही। महान् सिद्धात ग्रन्थ धवला में निगोद का कथनषट्तीस काल अनंत यों दुख सह उपमा ही नहीं । भाग ३ पृ० ३२७, भाग ४ पृ० ४०६, ४०८, भाग ७ पृ० ३७-फिर सादि प्रौ अनादि दो निगोद मे परा, पृ० ५०६, भाग ८, पृ० १६२, भाग १४ पृ० ८६ आदि जह मंक के मसख्य भाग ज्ञान ऊबरा । में है। ब्रह्मचारी मूलशकर जी वेशाई ने अपनी बृहत तह भवअन्तर्मूहुर्त के कहे गणेश्वरा । पुस्तक "श्री जिनागम" पृ० १७५ से १८१ मे धवला के छयासठ सहस त्रिशत छत्तीस जन्मधर मरा। कथनों की पालोचना की है और यहाँ तक लिखा है कियों बसि प्रनतकाल फिर तहां ते नीसरा ॥ धवलाकार ने 'निगोद" के अर्थ को समझा ही नहीं है ___इन उल्लेखों में ६६३३६ क्षुद्रभव सिर्फ निगोद-एके- किन्तु हमें देशाई जी के कथन, में कुछ भी बजन नही न्दिय के ही बनाए है. सह. ठीक नहीं है। ... मालूम पड़ता है। पवखाकार का कपल कोई मापत्तिजनक
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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