________________
मलग्षपर्याप्तक और निगोद
१४६
पृ०६६ (तिर्यच गति के दुख)
से बाकी निकालने पर अपने अपने माप शेष ६६१३२ बहरि तिर्यचगति विष बहत लब्ध्यपर्याप्त जीव है तिनि एकेन्द्रिय के क्षुद्रभव हो जाते हैं। कुन्दकुन्द के पाहड ग्रंथ की तो उश्वास के १८ वे भाग मात्र प्रायु है।
सूत्र रूप है अतः यहाँ परिशेष न्याय का प्राश्रय लेकर ____Y०६७ (मनुष्य गति के दुख) बहुरि मनुष्य गति १ गाथा की बचत की गई है। विषे प्रसंख्याते जीव तो लब्धिअपर्याप्त है त सम्मूच्छन हा निगोद का अर्थ साधारण अनन्तकायिक वनस्पति होता है तिनि की तो प्रायु उश्वास के १८ वे भागमात्र है।
है देखो :(४) नयनमुख जी कृत पद (अद्वितीय भजनमाला
(1) अनगारधर्मामृत पृ० २०२ (माणिकचन्द्रप्रथम भाग पृ०६०)
ग्रथमाला) सुन नैन चेत जिन बैन अरे मत जनम वृथा खोवे ।
निगोत लक्षणं यथा-(गोम्मटसार गाथा १६० से तरस-तरस के निगोद से निकास भयो,
१९२, धवला प्रथम भाग पृ० २७०) तहा एक श्वास मे अठारह बार मरे यो।
(साहारणोदयेण णिगोद शरीरा हवं ति सामण्णा। सूक्ष्म से सूक्ष्म थी तहां तेरी पायुकाय,
ते पुण दुविहा जीवा बादर सुहमात्ति विण्णेया) ॥१६॥ परजाय पूरी न करे थो फिर मरे थो॥
साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । भाव पाहुड में कुन्द कुन्द स्वामी ने लिखा है :
साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणियं ॥१६॥ छत्तीस तिण्णि सया छावट्टिसहस्सबारमरणाणि ।
जत्थेक्कु मरइ जीवो तत्थ दु मरण हवे प्रणताणं । अंतो मुहूत्त मज्झे पत्तोसि निगोयवासम्मि ॥२८॥
वक्कमइ जत्थ एक्को वक्कमण तत्थ ताण ॥१९२॥ विलिदिए प्रसीदी सट्ठी चालीसमेव जाणेह ।
(ii) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की सस्कृत टीका शुभपंचिन्दिय चउवीस खद्दभवंतोमहत्तस्स ॥२६।।
चन्द्र कृत पृ० २०४ (गाथा २८४):___इन गाथाओं मे निगोद वास मे ६६३३६ बार जनम- "नि नियतां गामनन्तसख्याविच्छिन्नानां जीवानां गां क्षेत्र मरण एक अन्तर्मुहत्तं में बताया है । तथा विकलत्रय और ददातीति निगोदं । निगोदं शरीर येषां ते निगोदाः पंचेन्द्रिय के क्षुद्रभवों की संख्या बताई है किन्तु एकेन्द्रिय निकोता वा साधारण जीवाः (अनन्तकायिकाः) ॥" के क्षुद्र भवों की संख्या नही दी है बिना उसके ६६३३६ ऐसी हालत मे उपरोक्त भाव पाहुड गाथा २८ में जो भवों का जोड नही बैठता है गोम्मटसार जीवकांड गाथा निगोद शब्द दिया है उसका अर्थ "अनन्तकायिक एकेन्द्रिय १२२ से १२४ में यही कथन है वहाँ एकेन्द्रियों के क्षुद्र- वनस्पति नहीं बैठता है क्योंकि ६६३३६ भव जो निगोद भवों को अलग संख्या बताई है इस पर सहज प्रश्न उठता के बताए है उनमें त्रस स्थावर सभी हैं। इसका समाधान है कि क्या भाव पाहड में यहाँ एक गाथा छूट गई है। बहुत से भाई यह करते हैं कि-निगोद का प्रथं लब्ध्यइसका समाधान यह है कि-अजित ब्रह्मकृत-"कल्लाणा- पर्याप्तक करना चाहिए किन्तु यह अव्याप्ति दूषण से लोयणा" (माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के "सिद्धान्तसारादि दूषित है क्योंकि सभी निगोद लब्ध्यपर्याप्तक नहीं होते संग्रह में प्रकाशित) ग्रन्थ मे भी ये ही दो गाथाए ठीक इसी बहत से पर्याप्तक भी होते हैं। इसके सिवाय यह अर्थ तरह पाई जाती हैं । श्रुतसागर ने भी सहस्र नाम (म०९ निगोद के प्रसिद्ध अर्थ (अनंतकायिक बनस्पति) से भी श्लोक ११६) की टीका में पृ० २२७ पर ये ही २ गाथाएं विरुद्ध जाता है। जयचन्दजी की वनिका भी अस्पष्ट और उद्धृत की हैं । इससे १ गाथा छूटने का तो सवाल नहीं कुछ भ्रांत है । रहता है। प्रब रहा एकेन्द्रिय जीवों के क्षद्रभवों की संख्या अतः हमारी राय में भावपाहर गाथा २८ के 'निगोद' का का सवाल सो वह परिशेष न्याय से बैठ जाता है। वह अर्थ "क्षुद्र" करना चाहिए गाथा २९ में निगोद का पर्यायइस तरह कि-विकलत्रय और पंचेन्द्रिय के क्षुद्रभवों की वाची क्षुद्र शब्द दिया भी है। इसके सिवा गोम्मटसार कुल संख्या गाथा २९ में २०४ बताई है इसे ६६३३६ में जीवकांड में भी जो इसा के समान गाथा है उसमें भी