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________________ साहित्य-समीक्षा १. गद्यचिन्तामणिमूल वादीभसिंह सूरि, सम्पादक अनुवादक पं. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ काशी। बड़ा साइज पृष्ठ संख्या ५०० मूल्य सजिल्द प्रतिका १२.०० रुपया । प्रस्तुत ग्रन्थ कादम्बरी के समकक्ष का एक महत्वपूर्ण गद्य संस्कृत काव्य है, जिसके कर्ता प्राचार्य वादीभसिंह सूरि हैं जो अपने समय के एक विशिष्ट विद्वान थे । आचार्य वादीभसिंह ने प्रौढ़ संस्कृत में जीवंधर का यह चरित्र निबद्ध किया है। जैन साहित्य में इस पर विविध भाषाओं में अनेक प्रथ लिखे गए है, जिससे उनकी महत्ता का सहज ही प्रामात हो जाता है। जीवधर कुमार भगवान महावीर के समय होने वाले राजा सत्यधर के क्षत्रिय पुत्र थे। प्रापने अपने पिता के राज्य को पुनः प्राप्त किया, और अन्त मे उसका परित्याग कर आत्मसाधना सम्पन्न की। कवि ने अपनी पूर्ववर्ती साहित्यिक उपलब्धियों को प्रात्मसात नही किया किन्तु उनकी विशाल प्रतिभा ने उस युग के सास्कृतिक जीवन के जो चित्र ग्रहण किये, उन्हें कवि ने कुशल मणिहार निर्माता की भांति सावधानी से काव्य में उतार दिया है। कर्ता ने मणिहार की तरह काव्यप्रथ के एक-एक शब्द को इस तरह पिरोया है कि लम्बे दीर्घ समासो मे भी काव्य का लालित्य एवं सौन्दर्य कही खोया नही, किन्तु जागृत रहा है। इस सस्करण में सम्पादक ने संस्कृत व्याख्या श्रौर मूलानुगामी सरल हिन्दी अनुवाद देकर ग्रंथ को अत्यन्त उपयोगी बना दिया है । और प्रस्तावना मे ग्रन्थ और ग्रन्थकार के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी दे दी है । और परिशिष्ट में व्यक्ति वाचक, भौगोलिक, परिभाषिक तथा विशिष्ट शब्दों का एक शब्दकोष भी दे दिया है जिससे ग्रंथ की उपयोगिता बढ़ गई है । गद्यचिन्तामणि का यह विशिष्ट संस्करण अध्येतानों के लिए विशेष रुचिकार होगा ग्रंथ का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ के अनुरूप हुआ है। प्राचीन भारतीय संस्कृत के मध्येताओं को इस ग्रंथ को मंगाकर अवश्य पढ़ना चाहिए। इस उत्तम प्रकाशन के लिए भारतीय ज्ञानपीठ धन्यवाद की पात्र है। २. योगासार प्राभृत- मूल अमितगतिप्रथम सम्पादक अनुवादक पं० जुगलकिशोर मुख्तार प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी, बड़ा साइज, सजिल्द प्रति मूल्य ८.०० रुपया । प्रस्तुत ग्रंथ देवसेनाचार्य के शिष्य निस्संग धमितगति प्रथम की रचना है, जो अध्यात्म विषय का एक सुन्दर ग्रंथ है। इस ग्रंथ में अधिकार है और ५४० पथ हैं जिनमें आत्मतत्व की प्राप्ति का सरस वर्णन है। साथ अधिकारो में जीवादि सप्त तत्त्वों का दिग्दर्शन कराते हुए उनकी महत्ता का कथन किया गया है । श्रौर भाठवां अधिकार चारित्राधिकार है, जिसके १०० पद्यों मे चारित्र का बड़ा ही सुन्दर भोर संक्षिप्त कथन दिया है। उसे पढ़ कर प्रवचनसार के चारित्राधिकार की स्मृति हो जाती है । और अन्तिम चूलिकाधिकार में योगी के योग का स्वरूप बतलाते हुए भोग से उत्पन्न सुख की विशिष्टता, सुख का लक्षण, तथा योग के स्वरूप का कथन करते हुए भोग को महान रोग बतलाते हुए उससे छुटकारा मिलने पर उसे फिर संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता । भोग से सच्चा वैराग्य कब होता है उसका भी निर्देश किया है। और भी संबद्ध विषयका सुन्दर विवेचन किया है। मुख्तार सा. ने ग्रंथ पद्योंका मूलानुगामी अनुवाद देकर उसके विषय को अच्छी तरह विशद किया है। टिप्पणियों में भी उसका स्पष्ट संकेत किया और प्रस्तावना मे अमितगति प्रथमके संबंध में जो विचार किया है वह सुन्दर है । ग्रंथ की छपाई सफाई ज्ञानपीठ के अनुरूप है और वह मुस्तार साहब के जीवन काल में ही छप कर तैयार हो गया था, उसे देख कर उन्हें श्रात्म संतोष हुआ होगा । इस ग्रंथ को सभी मंदिरों, स्वाध्यायशालाओं, अध्यात्म के विचारकों को मंगाकर अवश्य पढ़ना चाहिए ।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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