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________________ माधुनिकता-माधुनिक और पुरानी २८१ अर्जन की एक मात्र भूमिका है। प्रक्रिया का प्राधान्य है। इस परम्परा-मुक्ति मान्दोलन त्याग, यदि वास्तविक रूप में देखा जाए, प्रात्मान्वे- के पीछे स्व की मौलिकता की छटपटाहट है। निश्चय षण की तीव्र यन्त्रणा का अहसास भर है। कोई वस्तु ह। काइ वस्तु जीवन की यह छटपटाहट व्यवहार के अनेक प्रतिमानों, हो हमसे भौतिकतः कितनी दूर है-त्याग के लिए इसका . प्रतीकों और रेखाचित्रों में व्यक्त है। और इस प्रकार कोई अधिक मूल्य नहीं, बल्कि हमारे अन्दर किसी वस्तु के यह जीवन के सम्पूर्णत्वादि को जी लेने का एक जीवंत कितने दूर होने का अहसास है और उस अहसास मे उपक्रम है। महावीर ने भी इसीलिए किसी भी धर्म-ग्रन्थ कितनी दृढता है-यह है त्याग का वास्तविक मापदण्ड । अथवा ईश्वरादिव्य अस्तित्व को अपने धर्म-प्रवर्तन का त्याग हमारे अस्तित्व के प्रसंसारीकरण की प्रक्रिया है । प्राश्रय-दाता नहीं माना। स्वतन्त्र और मौलिक मात्मऔर मोक्ष त्याग की प्रात्यन्तिक अवस्था है। मोक्ष की प्रक्रिया को अनात्म के सम्पूर्ण त्याग के द्वारा ही सम्भव स्थिति इस प्रकार परिपूर्ण अससार की स्थिति है । व्यावहारिक रूप से मोक्ष स्व के निषेध (अनात्मा) के निषेध स्वीकारा। यही से आधुनिक भाव-बोध का इतिहास प्रारम्भ हो जाता है। की प्रात्यन्तिक स्थिति है। व्यवहार-धर्म इसी निवृत्ति प्राधुनिक भाव-बोध का परम वैशिष्ट्य उसका प्रधान त्याग और तपस्या का धर्म होता है। मोक्ष रूपी यथार्थवादी दृष्टि-बोध है। यथार्थवादी दृष्टि-बोध का चरम मूल्य के अर्जन हेतु व्यवहार-धर्म के लिए इसके अलावा कोई दूसरा विकल्प सम्भव ही नहीं। सीधा-सा तात्पर्य है ज्ञान के विभिन्न मायामों का उचित परमार्थ अथवा, जैनो के पदानुसार, निश्चय धर्म समादर । ज्ञान के यदि मोटे से दो मायाम यथा, ऐन्द्रिक स्वोपलब्धि की सम्यक् व्यवस्था है। परन्तु वह स्वोपलब्थि एव अतीन्द्रिक मान ले तो स्पष्ट होता है, दोनों ही व्यवहार धर्म की निवृत्ति से कोई स्वतन्त्र अवस्था नहीं। प्रायामों की सापेक्षा मूल्यवानता है। कोई भी पायाम निवत्ति अथवा त्याग, जैसा कि कहा प्रात्मान्यषण की ऐकान्तिक रूप से न तो सत्य है और न ही प्रसत्य । नीव्र यत्रणा का अहसास है, तो निश्चय स्वोपलब्धि उक्त प्रत्येक की वैधता जो एक ताकिक प्रक्रिया मात्र है प्रपनीअहसाम का एक अहेतुक अहसास भर है। यहाँ तक कि अपनी भूमिका पर निर्भर करती है। भूमिका से तात्पर्य मोक्षावस्था मे जब एक ओर परिपूर्ण असंसार का प्रह- उसकी ताकिक आधार-भूमि से है जिससे कोई वैध कहा सास है तो उसी में दूसरी ओर उक्त अहसास का एक जाने वाला वचन नि.सत होता है और प्रामाणिक मान्य अहेतुक अहसास भी मंलग्न है। ऐसी अवस्था में प्रसंसार होता है। इस प्रकार यथार्थ-बोध किसी भी सत्य का रूपी ज्ञान को क्षायिक ज्ञान और अहसास के अहेतुक सापेक्ष मूल्याकन मात्र है। इस मूल्याकन में सत्य की अहमास रूपी ज्ञान को केवल-ज्ञान की संज्ञा दी गई। तात्विकता का हानि-लाभ नहीं, अपितु उसका निरंतर व्यवहार और निश्चय धर्म इस प्रकार एक-दूसरे के परि- आयामी-करण होता है। वस्तु-सत्य एक पायाम से एक पूरक है, क्योंकि व्यवहार धर्म में ही असमार का अहसास और गहरे अथवा व्यापक पायाम मे अतर्भूत होता जाता है और निश्चय धर्म उसी अहसास का एक अहेतुक ग्रह है। महावीर ने प्रात्म-ज्ञान के पांच मायामो का निर्देशन सास है । बिना अहसास के अहेतुक अहसास सम्भव नहीं किया-मति, श्रुत, अवधि, मन.पर्यय एव केवल । पांचों और बिना अहेतुक अहसास के प्रससार का अहसास कोई प्रायाम उत्तरोत्तर गहरे और व्यापक हैं, जिनमे प्रत्येक मानी नहीं रखता। इसीलिए परिपूर्ण जीवनप्रणाली पूर्ववर्ती पायास का अपने उत्तरवर्ती मायाम मे समाहार निश्चय और व्यवहार-धर्म का समन्वय ही कही जाएगी। है। मति में प्रात्मानुभूति की जो उपलब्धि होती है प्रआधुनिकता की प्र-अनुभूति वस्तुतः निश्चय जीवन- श्रुतादि में वह निराकृति नही हो जाती है, अपितु उनके प्रणाली की एप्रोच है। इसमें स्वेतर सम्पूर्ण मान्यताओं, व्यापक प्रायामों का एक अभिन्न अंग बन जाती है। मर्यादाओं मौर परम्पराओं का निषेध अथवा निवृत्ति भाव छोटा सा उदाहरण है, कि हमने अपने मति-ज्ञान से सामने निहित है। मोह-भग के रूप मे वहां प्रसंसारीकरण- पड़े हुए वस्तु-सत्य को समाचार-पत्र मान्य किया। यह
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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