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________________ आधुनिकता-आधुनिक और पुरानी डा० प्रद्युम्नकुमार जैन यह सच है कि प्राधुनिकता स्वयं में कोई मूल्य नही बोध है । दृष्टि-बाध एक प्रकार से प्रात्म-बोध का परि. है, अपितु मूल्यों का अधिकरण है। वह मूल्यों की वन- चायिक है । अस्तु पात्म-बोध ही धर्म का केन्द्रविंदु है । स्थली है जो कालक्रम के साथ कभी मुरझाती, कभी प्रात्म-बोध का तात्पर्य है अपने ही अस्तित्व का बोध खिलती हई अस्तित्ववान है। या यं कहिए प्राधुनिकता अथवा सहानुभूति । स्वातिरिक्त किसी अन्य तत्व का, मूल्यों के चुनाव का एक इतिहास और चने हए मल्यों को चाहे वह कितना ही ऊंचा क्यों न हो, अस्तित्व-बोध उपाविभिन्न आयामों में देखने का एक दृष्टि-क्रम है । कुबेर देय नहीं है । उपादेयता का प्रतिफलन स्वानुभूति से ही नाथ राय के शब्दों में, "वास्तविकता फैशन से कहीं सम्भव है । स्वानुभूति अस्ति का स्वीकार है, अस्ति का गहरी और सूक्ष्म चीज है। यह एक दष्टि-क्रम है, एक स्वीकार ही उपादेय है और जो उपादेय है वही वस्तुतः बोध-प्रक्रिया एक संस्कार-प्रवाह है......एक खास तरह। मानन्दकारी है । इस प्रकार स्वानुभूति अस्तित्व स्वीकृति का स्वभाव है......" यह संस्कार-प्रवाह काल-तत्व पर के रूप मे सत्य, उपादेय रूप मे शिव तथा प्रानन्द रूप मे तिरता हुमा भी काल-गत सीमानों से मुक्त अविछिन्न सुन्दर है। स्वानुभूतिपरक धर्म इस प्रकार सत्यं, शिव है। हां, इस प्रवाह के स्फति केन्द्र अवश्य यत्र-तत्र बिखरे सुन्दरम् का प्रतीक है। हैं जो इतिहास क्रम के मील-पढ़ से दष्टिगत होते है। मोक्ष जीवन का चरम मूल्य उद्घाटित हुप्रा । मुल्य ईसा से छ: सौ वर्ष पूर्व का काल उसी प्राधनिक भाव- के सामान्य अर्थ-बोध में जीवन की वह स्थिति प्राती है बोध का काल कहा जा सकता है जो प्राज अपनी पूरी- जो सत्य, शिव पोर सुन्दर की दृष्ट्या काम्य है । मोक्ष स्फूर्ति के साथ उभर कर ऊपर पाया है। भगवान महा- की सम्बोधना है, परन्तु उस चरम काम्यता का तात्पर्य यहां केवल परोपजीवी तुष्टि-स्पृहा से ही नही है, अपितु निबन्ध मे उसी महावीर-कालीन एवं वर्तमान-कालीन वह कामना अथवा काम्यता से भी अत्यन्त निवृत्ति और माधुनिकता का एक तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करने का निर्वाध, अहेतुक अस्तित्व-बोध की चरम उपलब्धि । उप. प्रस्ताव है। लब्धि और निवृत्ति के योगस्वरूप ही मोक्ष की स्थापना ईसा पूर्व की छटवी शताब्दी नवीन दृष्टि खोज की हुई । उपलब्धि स्वतत्व की अस्ति-सूचक भाव-भूमि का एक महत्वपूर्ण कड़ी है। धर्म तत्कालीन मनीषियों के लिए स्वीकार है, तथा निवृत्ति स्व में स्त्र के नास्तित्व प्रथवा एक दृष्टि-बोध है । वह कुछ पिटेपिटाये क्रिया-कलापों की पर के अस्तित्व का इन्कार है। अतः मान्य हुआ, कि नुमायश भर नही है। इसी धर्म-रूपी नवीन दृष्टि की स्वोपलब्धि के रूप में जीव या प्रात्मा का अस्तित्व है खोज मे पुराण कश्यप, अजित केशकम्बलि, पकुछ कच्छा- तथा निवृत्ति के रूप मे जीव या प्रात्मा का अस्तित्व है यन, संजय बेल ट्रिपुत्त, मक्खलि गोशाल प्रादि अनेक यथा- तथा निवृत्ति के रूप मे अजीव या अनात्मा का नास्तित्व कथित तीर्थंकरों ने प्राधुनिकता की पयस्विनी के स्रोत पर है। अब व्यावहारिक रूप में उपलब्धि की उत्क्रान्ति परिश्रम किया। सभी के प्रयासों में एक बात जो सामान्य निवृत्ति की प्राचारिक भूमिका पर निर्भर करती है, रूप से मुखर थी, वह थी-पुरातन के प्रति विद्रोह अथवा क्योंकि निवृत्ति नास्तित्व के निषेध की एक प्रक्रिया है। पुराने मूल्यों के प्रति सम्पूर्णतः मोह-भंग । नात्तपुत्त महा- चूंकि स्वोपलब्धि के लिए स्वेतर सब कुछ अनुपादेय है, वीर ने उक्त तीर्थकरों के अपूर्ण अभियान अथवा छट. और अनुपादेय का त्याग ही निवृत्ति है। अस्तु निवृत्तिपटाती पात्माभिव्यक्ति को एक निश्चितता प्रदान की। रूपा स्वोपलब्धि अत्यन्त त्याग की एक स्थिति है। त्याग महावीर ने एक महत्वपूर्ण घोषणा की, कि धर्म एक दृष्टि- इसीलिए महावीर से दृष्टि-बोधीय दर्शन में चरम मूल्य के
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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