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________________ गुणस्थान, एक परिचय १२१ क्रिया होती है। वह निर्जरा प्रधान हुआ करती है । पाप फिर बचन योग का निरोध होता है। बादमे काययोग का का बन्ध तो पिछले गुणस्थानों में ही रुक गया, यहाँ तो निरोध किया जाता है। काययोग का निरोध होते ही पुण्य भी स्वल्प मात्रा में लगता है। केवल दो समय तेरहवां गुणस्थान छूट कर चौदहवां अयोगी केवल गुणस्थिति वाले पुण्य ही सर्वज्ञ के चिपकते है । इस क्रिया का स्थान की अवस्था पा जाती है। इसे शैलेषी अवस्था भी नाम इपिथिक क्रिया है। इससे लगे पुण्य मोक्ष प्राप्ति कहते है। शैलेश अर्थात -पर्वतों में सर्वोच्च पर्वत मेरू में बाधक नहीं बनते, दो समय मात्र की स्थिति के होने उस जैसी निष्प्रकप अवस्था यहाँ हो जाती है। इस गुणके कारण बंध ने के साथ ही उदय और निर्जरण की स्थान मे अवशिष्ट चार कर्म भी क्षय हो जाते हैं । इन प्रक्रिया चालू हो जाती है। इसलिए प्रात्मा पर इसका चारों कर्मों के क्षय के साथ कार्मण शरीर तंजस शरीर कोई अलग प्रभाव नहीं होता। (जो प्रात्मा के साथ अनादि काल से लगे हुए है) छूट केवली समद घात जाते है । औदारिक शरीर की क्रिया तेरहवे के अंत में तेरहवें गुणस्थान में समुद्घात भी होता है, इसे केवली छूटती है। शरीर चौदहवे मे छटता है। बस उसी क्षण समुद् घात कहते है। जब आयुष्य कर्म कम हो पीर नाम प्रात्मा लोकाग्र भाग में जा टिकती है। फिर न जन्म है न गोत्र आदि कर्म ज्यादा हो तब केवली समुद्घात होता है। मृत्यु है। यह अवस्था गुणस्थान से ऊपर को है। केवली समुद् घात करने से नहीं होता, यह स्वभावतः उपहंसारहोता है । प्रयत्न से की जाने वाली क्रिया मे असख्य समय प्रात्म विकास की दृष्टि से चौदह गुणस्थानों का क्रम लगते है। केवली समुद्घात में केवल आठ समय ही बहुत ही युक्ति सगत है। प्रात्मा जैसे-जैसे ऊपर उठती है लगते है । अत: यह कृत प्रक्रिया नही है, कर्मों की प्रस- वैसे-वैसे गणस्थान बदलता रहता है, और बिजाती तत्त्व मान अवधि को समान बनाने की स्वतः भूत प्रकृतिया है। छूटते रहते हैं । प्रात्मगुणों का प्राविर्भाव होता रहता है। केवली समुद् घात मे पहले समय में दड के रूप मे प्रात्म चौदह गुणस्थानो मे सम्यक दर्शन युवत बारह गुणस्थान प्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं। दूसरे समय मे कपाट है, मिथ्या दर्शन सम दर्शन वाले एक-एक है। संयमी नो के रूप में प्रात्म प्रदेश फैलते है। तीसरे समय मे मथान गुणस्थान है । प्रसयमी चार गुणस्थान है, संयमा-संयमी एक (मथानी) के रूप मे आत्म प्रदेश फैल जाते है। चौथे गुणस्थान है। प्रमादी छ: गुणस्थान है, अप्रमादी पाठ समय मे बीच का अन्तर पात्म प्रदेशो से भर जाता है। गुणस्थान है । सवेदी पाठ गुणस्थान है, अवेदी पाच गुणपांचवें समय में फैले हुए पात्म प्रदेश पुनः संकुचित होने स्थान है, सवेदी अवेदी एक गुणस्थान है। सकषायी दस लग जाते है, और मथानी के आकार मे आ जाते है। छठे गुणस्थान है, अकपायी चार गुणस्थान है । छद्मस्थ बारह समय में कपाट के रूप में, सातवें समय में दंड के रूप में गुणस्थान है, और सर्वज्ञ दो गुणस्थान है। सयोगी तेरह तथा पाठवे समय में शरीरस्थ हो जाते है। इन पाठ गुणस्थान है, और अयोगी एक गुणस्थान है। आयुष्य समय की स्थिति वाली समुद घातिक क्रिया से कर्मों की कर्म के प्रबंधक पाठ गुणस्थान है । सबधक छ: गुणस्थान अवधि समान हो जाती है। यह समुद्घात तीर्थकरों के है । अमर जिसमे प्रायुप्य पूरा नहीं होता, तीन गुणस्थान नही होता। मुनियों में भी केवल ज्ञान पाए, छः महीने है । शेष ग्यारह मे प्रायुष्य पूरा होता है । अन्तर मुहूर्त बीतने पर ही यह समुद् घात हो सकता है। की स्थिति वाले नो गुणस्थान है, इससे अधिक स्थिति वाले पाच गुणस्थान है। चौदहवां प्रयोग केवली गुणस्थान व्याख्यानों में कहीं-कही ग्रथकारों में मतभेद भी वह शरीरधारी प्रात्मा की अंतिम विकास अवस्था है। मिलता है। किन्तु गुणस्थान की मौलिकता में किसी को इस गुणस्थान का मायुष्य जब पांच हस्वाक्षर उच्चारण मोह मतभेद नहीं है। जिन बातों में मतभेद है तटस्थतया मात्र शेष रहता है, तब प्राप्त होता है । प्राप्त होने से पहले अध्ययन पूर्वक उसे भी मिटाया जा सकता है। जैन दर्शन योग निरोध की प्रक्रिया चालू होती है। योग निरोध की समन्वय दर्शन है. इससे मतभेद मिटते हैं, मतभेद होने की प्रक्रिया में साधक पहले मनोयोग का निरोध करता है, बात पाश्चर्यजनक लगती है।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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