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________________ ४ अनेकान्त गया है उसे आप क्षमा करें। यद्यपि मैं जानती हूँ कि राजा बिम्बसार का सिर इस तरह विचार करते हुए माप राग-द्वेष से रहित किसी का भी अहित करने वाले लज्जा से झुक गया, और दुःख के मारे उनके नेत्रों से नहीं हैं, तथापि आपकी अवज्ञा-जनित अशुभ कर्म हमें अविरल अश्रुधारा बहने लगी। सन्ताप दे रहा है। प्रभो श्राप मेघ के समान सभी मनिराज बड़े भारी ज्ञानी थे। उन्होने राजा के मन जीवों का उपकार करने वाले, धीर-वीर परमोपकारी है। की संकल्प-विकल्प की बात जान ली अतएव राजा को प्रापके प्रसाद से ही हमारा अशुभ कर्म दूर हो सकता है। सान्त्वना देते हुए बोलेहे मुनिपुंगव ! हमें आपकी ही शरण है, आप ही हमारे "राजन् तुमने अपने मन में जो प्रात्महत्या का विचार "राजन तमने अपने म प्रकारण बन्धु हैं। आपसे बढकर ससार में हमारा कोई किया है, उससे पाप का प्रायश्चित्त न होकर और भीषण हितैषी नहीं हैं। दयानिधि ! आप हमें क्षमा करें, और पाप होगा। प्रात्महत्या से बढ़ कर कोई दूसरा पाप नही कर्म बन्धन से छूटने का विमल उपाय बताएं।" है । पाप से अथवा कष्ट के कारण जो लोग परभव में रानी द्वारा मुनिराज की स्तुति कर चुकने पर उनको सूख मिलने की प्राशा से आत्महत्या करते है, उनकी यह राजा तथा रानी दोनों ने पुनः भक्तिभाव से प्रणाम भारी भूल है। आत्मघात से कभी सुख नहीं मिल सकता। किया। मुनिराज इस समय अपना ध्यान छोड़ कर बैठ अात्मघात तो हिंसा है उससे पाप कैसे धुल सकते हैं ? गए थे। उन्होंने उन दोनों से कहा-"पाप दोनों की हिंसा से तो पाप की अभिवृद्धि ही होगी। इससे प्रात्मधर्मवृद्धि हो।" मुनिराज के मुख से इन शब्दों को सुनकर परिणामों मे संक्लेश होता है, और संक्लेश से अशुभ कर्मो राजा पर बड़ा प्रभाव पड़ा। का बन्ध होता है, उससे नर्कादि दुर्गतियो मे जन्म लेकर वह मन ही मन इस प्रकार विचारने लगा अनन्त दु:खों का पात्र होना पड़ता है। राजन् यदि तुम अहो ! यह मुनिराज तो वास्तव में बड़े भारी महा- अपना भला चाहते हो और दुर्गतिके दुःखोसे बचना चाहते त्मा है। इनके लिए शत्रु और मित्र सब समान है। एक तो हो तो प्रात्महत्या का विचार छोड़ दो, अशुभ सकल्प गले में सर्प डालने वाला मैं, तथा दूसरे उनकी परमभक्ता दुखों के जनक है यदि तुम्हे प्रायश्चित्त करना है, तो रानी, दोनों पर उनकी एक सी कृपा है। यह मुनिवर आत्म-निन्दा करो, शुभाचरण में प्रवृत्ति करो। प्रात्मबड़े धन्य हैं, जो सर्प गले में पड़ने पर अनेक कष्ट सहन हत्या से पापों की शान्ति नहीं हो सकती।" करते हुए भी उनका रचमात्र भी मेरे पर कोप नही है किन्तु क्षमाभाव को धारण किए हुए है। हाय ! हाय ! मुनिराज के वचनों को सुनकर राजा को बड़ा पाश्चर्य मैं बड़ा अधम, पापी और नीच व्यक्ति हूँ, जो मैने ऐसे हुआ आर म को हरा और महारानी से कहने लगे, सुन्दरी ! यह क्या बात परम योगी की अवज्ञा की। ससार मे मेरे समान और हुई । मुनिर हुई ? मुनिराज ने मेरे मन की बात कैसे जान ली। तब वापापी कौन होगा? प्रज्ञानवश मैने कितना महान् । रानी ने कहा-नाथ ! मुनिराज मनःपर्ययज्ञानी है वे मनर्थ कर डाला । अब इस पाप से छुटकारा कैसे होगा? आपके मन की बात के अतिरिक्त आपके अगले-पिछले अवश्य ही मुझे इस पाप से नरकादि दुर्गतियों में जाना ' जन्मों का भी हाल बतला सकते है। होगा। अब मैं क्या करूं और कहां जाऊं। इस कमाये रानी के वचन सुनकर राजा ने मुनिराज के मुख से हुए पापपुंज का प्रायश्चित्त कैसे करूं । इस पाप को धोने धर्म का वास्तविक स्वरूप सुना, और जैनधर्म को धारण का केवल यही उपाय अब समझ में आता है कि अपना किया। और रानी सहित मुनिराज के चरणों की वन्दना सिर शस्त्र से काट कर मुनि के चरणों में अर्पण कर कर उनके गुणों का स्मरण करते हुए नगर में वापिस पा मुक्त होऊ। गया।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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