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मगध सम्राट् राजा बिम्बसार का जैनधर्म परिग्रहण
सवारी का प्रबन्ध करता है।"
परमाणुओं का पिण्ड है। रानी बोली
वह विनाशीक है और प्रात्मा मविनाशी है। जीव “नाथ ! अब आपके मुख से फल झड़े हैं। यदि आप अकेला ही जन्म मरण के दुःख सहता है। इसका कोई स्वयं न भी जाते तो मैं स्वयं अवश्य जाती। आपने यह सगा साथी नहीं है। शरीर अपवित्र है । व्रत, तप, संयम बात मेरे मन की कही, अब आप चलने की शीघ्र तय्यारी आत्मा के कल्याणकर्ता है। इस तरह मुनिराज यशोधर करें।"
अनित्यादि बारह भावनामों का चिन्तवन करते हुए गले यह कह कर रानी चलने की तैयारी करने लगी। मे पड़े सर्प के कारण परीषह सहन कर रहे थे। कि इतने राजा ने उसी समय एक तेज घोड़ो वाली गाड़ी तय्यार मे राजा और रानी उनके दर्शन करने शीघ्रता पूर्वक चले करा कर थोड़े से सैनिक साथ लेकर वन की ओर प्रयाण पा रहे थे। उन्होंने जब मुनिराज के समीप पाकर उन्हें करना प्रारम्भ किया और थोड़ी देर मे ही वे मुनि यशो- ज्यों का त्यों ध्यानस्थ खड़ा देखा तो मानन्द और श्रद्धा घर के समीप जा पहुँचे।
के मारे उनके शरीर में रोमांच हो पाया। राजा ने ___इधर तो बिम्बसार मुनिराज के गले में सर्प डालकर सबसे पहले मुनिराज के गले से सर्प निकाला, रानी ने वापिस गया, उधर मुनि महाराज ने अपना ध्यान और खांड आदि मीठा डाला, जिसकी गंध से चीटियां मुनिभी दृढ़ कर इस तरह चिन्तन करना प्रारम्भ किया। राज के शरीर से उतर कर नीचे प्रा गई। उन्होंने मुनि
इस व्यक्ति ने मेरे गले मे सर्प डाल कर बड़ा उप- राज के शरीर को काट काट कर खोखला कर दिया था। कार किया है, क्योंकि इससे मेरे प्रशभ कर्म शीघ्र ही अतएव रानी ने उनके शरीर को उष्ण जल में भिगोये नष्ट हो जावेगे। और पूर्व सचित कर्मों की उदीरणा हुए कोमल वस्त्र से धोया। फिर रानी ने उनके शरीर करने के लिए मुझे परीषह सहने का अवसर बड़े भारी की जलन दूर करने के लिए चन्दनादि शीतल पदार्थों का भाग्य से मिला है। यह सर्प डालने वाला व्यक्ति मेरा लेप किया। इस तरह दोनो मुनिराज के उपसर्ग को अपने बड़ा उपकारी है जो इसने परीषह की सामग्री मेरे लिए हाथो से दूर कर और उनको नमस्कार कर मानन्दपूर्वक एकत्रित कर दी। यह शरीर जड़ और नाशवान है, और उनके सामने भूमि पर बैठ गए। राजा मुनिराज की मेरे चैतन्य स्वरूप से सर्वथा भिन्न है। यह कर्मोदय से ध्यान मुद्रा पर माश्चर्य कर रहा था, वह उनके दर्शन से उत्पन्न हुआ है, किन्तु मेरा प्रात्मा कर्म बन्धन से रहित सतुष्ट हुमा ।। चिदानन्द है। यह शरीर अनित्य, अपावन, अस्थिर, मनिराज रात्रि भर उसी प्रकार ध्यान में लीन हो मल-मूत्र का घर एवं घृणित है। लोग न जाने क्यो इसे खडे रहे और राजा रानी जागरण करते हुए उनके सामने अच्छा समझते है और इत्र-फुलेल आदि सुगधित पदार्थों उसी प्रकार बैठे रहे । रात्रि समाप्त होने पर जब सूर्य से इसे संस्कारित करते है। शरीर से चैतन्यात्मा के चले का प्रकाश चारो ओर फैल गया तो रानी ने मुनिराज की जाने पर शरीर एक पग भी आगे नहीं चल सकता। तीन प्रदक्षिणा दी और उनकी स्तुति इस प्रकार करने इस शरीर को अपना समझना निरी अज्ञानता है। जो लगीमनुष्य यह कहते है कि शरीर मे सुख दुःख प्रादि होने "हे प्रभो! आप समस्त ससार में पूज्य और अनुपम पर प्रात्मा सुखी-दुखी होता है, उनका यह भ्रम है। गुणों के भण्डार है। मापके गले में सर्प डालने वाले मोर क्योंकि जिस तरह छप्पर में भाग लग जाने पर छप्पर फलों का हार पहिनाने वाले दोनों ही प्रापकी दृष्टि मे ही जलता है तद्गत माकाश नहीं जलता, उसी प्रकार समान हैं। भगवन् ! पाप इस संसार रूपी समुद्र को शारीरिक सुख-दुःख मेरी आत्मा को सुखी-दुखी नहीं बना पार कर चुके है तथा औरों को भी पार उतारने वाले हैं। सकते । मैं द्रव्य दृष्टि से अपने प्रात्मा को चतन्य ज्ञाता- आप सभी जीवों के कल्याणकर्ता हैं । हे करुणा सागर ! दृष्टा शुद्ध, निष्कलंक समझता है। शरीर तो पुदगल प्रज्ञानवश प्रापकी अवज्ञा करके हमसे जो अपराध हो