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________________ १२ अनेकान्त "रानी! तूने जो मेरे गुरु का अपमान किया था गये होंगे। मरे हए सर्प का गले से निकालना कोई उसका बदला लेने का मुझे प्राज अवसर मिला।" कठिन काम नही है।" राजा के यह वाक्य सुनते ही रानी सन्नाटे में प्रा गई, महाराजा के वचन सुनकर रानी बोलीउसने एकदम घबरा कर पूछा "नाथ ! आपका यह कथन भ्रम पर आधारित है । आपने क्या किया महाराज! मुझे शीघ्र बतलाइये। यदि वे मुनिराज वास्तव में मेरे गुरु है तो उन्होंने अपने मेरे हृदय की बेचैनी बढ़ती जाती है।' गले से मृत सर्प कभी नही निकाला होगा। वे योगीश्वर "बिम्बसार बोला कुछ भी नही रानी! तेरे गुरु वहीं पर उसी रूप मे ध्यान में स्थित होगे। भले ही मुनिराज जंगल में खड़े ध्यान कर रहे थे कि मैने धनुष सुमेरु चलायमान हो जावे, समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ दे, से उठाकर एक मरा हुमा सर्प उनके गले में डाल दिया। किन्तु जैन मुनि उपसर्ग और परीषह से अपना मुख कभी राजा का वचन सुनते ही रानी का हृदय अत्यन्त नही मोडते । वे ध्यान अवस्था मे उपसर्ग पाने पर उसी रूप व्याकुल हो उठा, मुनि पर घोर उपसर्ग जानकर उसके में सहन करते रहते है । उसका स्वयं निवारण नहीं करते । नेत्रों से प्रविरल अश्रुधारा वहने लगी, उसकी हिचकिया जैन मुनि पृथ्वी के समान सहनशील एवं क्षमाभाव से बंध गई और वह फूट-फूट कर रोने लगी। वह रोते-रोते अलंकृत होते है। वे समुद्र के समान गम्भीर, वायु के कहने लगी समान निष्परिग्रह, प्राकाश के समान निर्मल और अग्नि के "राजन् ! तुमने यह महापाप कर डाला। अब आप समान कर्म को भस्म करने वाले और जल के समन स्वच्छ का अगला जन्म कभी उत्तम नही बन सकता, अब मेरा और मेघ के समान परोपकारी होते है। हे प्राणेश्वर ! जन्म निष्फल गया । यह इतना भयकर पाप है जिसका आप विश्वास रखिए मेरे गुरु निश्चय से परमज्ञानी, परिणाम भी अत्यन्त भयंकर है। राजमन्दिर मे मेरा ध्यानी और सुदृढ वैरागी होते है। बे कभी किसी का भोग भोगना भी महापाप है, हाय ! मेरा यह सबध बग चिन्तन नहीं करते। सबके साथ सम दृष्टि रखते है। ऐसे कुमार्गी के साथ क्यो हुमा ? युवावस्था प्राप्त होत वे करुणानिधि होते है। अपकार करने वालों के प्रति भी ही मैं मर क्यों न गई ? हाय ! अब मैं क्या करूं? उनका रोष नहीं होता और न पूजा करने वाले के प्रति कहाँ जाऊँ ? कहाँ रहूँ ? हाय हाय ! मेरे प्राण पखेरू राग ही होता है। इसके विपरीत, उपसर्ग परीषह से भय .इस शरीर से क्यों नही विदा हो जाते ! प्रभो ! मै बड़ी करने वाले व्रत एवं तपादि से शून्य मद्य मास और मधु अभागिन है अब मेरा किस प्रकार हित होगा। छोटे से के लोभी मेरे गुरु कदापि नहीं हो सकते। यही कारण है छोटे गांव, वन और पर्वतोंमें रहना अच्छा है, किन्तु जिनधर्म कि आपके अनेक प्रयत्न करने पर भी जैन साधुओं रहित एक क्षण राजप्रासाद मे भी जीवन बिताना दूभर पर मेरी श्रद्धा कम नहीं हुई। मैं किसी के धर्म पर कोई है। जिनधर्म ही जीवन की सफलता का मापदण्ड है। प्राक्षेप भी नहीं करती, इतना अवश्य कहती हैं कि जैन उसके बिना वह निष्फल है। मुनि जैसा पवित्र माचरण अन्य किसी धर्म के साधुपो में हाय दुर्दैव! तुझे क्या मुझ प्रभागिन पर ही वज नहीं होता।" प्रहार करना था। इस तरह रानी बड़ी देर तक विलख रानी के इन शब्दों को सुन कर बिम्बसार का हृदय विलख कर रोती रही। रानी के इस रुदन से राजा का भय के मारे कांप गया। वह और कुछ न कह कर केवल पाषाण जैसा कठोर हृदय भी द्रवित हो गया । मब बिम्ब- इतना ही कह सकेसार के मुख से वह प्रसन्नता विलीन हो गई, वह एक "प्रिये ! तूने इस समय जो कुछ कहा है वह बहुत दम किंकर्तव्य विमूढ होकर रानी को समझाने लगा। कुछ सत्य दिखलाई देता है। यदि तेरे गुरु इतने क्षमाशील 'प्रिये ! तू इस बात के लिए तनिक भी शोक न कर, हैं, तो हम दोनों उनको इसी समय रात्रि में जाकर देखेंगे वे मुनि अपने गले से मरा हुमा सर्प फैक कर वहां से चले और उनका उपसर्ग दूर करेंगे । मैं अभी तेज चलने वाली
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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