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________________ अनेकान्त मैं मनाथ मोहि साथ निबाहो, अब क्यों करत अबेर हो। सखी री सावन घटा ई सतावे । 'मानिक' प्ररज सुनो रजमति प्रभु राखो चरननि लेर हो। रिमझिम बंद वदरिया बरसत नेमि नेरे नहिं प्रावे । स्मृति : कुजत कीर कोकिला बोलत, पपीहा वचन न भावे । प्रिय-दर्शन की चिन्ता के बढ़ते रहने के साथ प्रियतम दादुर मोर घोर गन गरजत, इन्द्र धनुष डरावे । की स्मृतियां विरहिणी के विरहदग्ध हृदय को कुरेदने लग रजनी, शभचन्द्र, रजत रश्मि या नक्षत्र भी राजमती जाती हैं । तो उसकी प्राकुलता अधिक बढ़ जाती है। को बड़ी पीडा देते हैंस्मृतियों में प्रियतम के अनुपम रूप और सयोगकालीन नेम निशाकर बिन यह चंदा, तन मन दहत सकल री। मधुर घटनाओं की ही अभिव्यंजना नही होती, अपितु किरन किषों नाविक शर, तति के ज्यों पावक की मलरी। उसके निर्मोहीपन को उलाहना भी निहित रहता है। तारे हैं कि अंगारे सजनी, रजनी राकस दलरी ।-भूधरदास राजमती ने नेमिनाथ के सौम्यरूप और दया मन को प्रलाप :कई बार याद किया है किन्तु उसके निर्मोहीपन की कसक बहुत दिनों तक तडपते रहने पर भी प्रियतम के वह मन से नहीं निकाल पाई है दर्शन न पाकर विहरिणी लोक-लज्जा को भी कतई भूल हे जी, मोकं सुरतितिहारी सय्यां हो नैना लागि । जाती है तथा अपनी प्रेमातुरता को गुरुजनो के समक्ष जब से चढ़े गिरि सुषिहू ना लीनी, तुमने पिया हो। स्पष्ट करने में भी नहीं हिचकती। प्रलाप की अवस्था गुणकथन : राजमती के विरह-वर्णन मे भी देखी जा सकती हैइस अवस्था में प्रियतम की गुण पयस्विनी का प्रवाह मां विलंब न लावरी, पठाव तहारी, जहं जगपति प्रिय प्यारो विरहिणी के हृदय सागर में होकर कण्ठ के माध्यम से और न मोहि सुहाव कछु अब, दीस जगत अंधारो री। उन्मुक्त निस्सरित होने लगता है। लोक-लाज की अभेद्य मीरा की तरह राजमती भी ढोल बजा-बजाकर प्राचीरें भी उसे वाधित नही कर पाती । नेमिनाथ की दया और विरक्ति भाव से प्रभावित राजमती अपने मन कहती फिरती है कि वह न तो नेत्रों में काजल डालेगी, को समझाने में असमर्थ होकर कहती है न शृंगार करेगी। स्नान करने तथा अलको को मोतीकैसे समझाऊँ मेरी सजनी, मांग से संवारने में भी अब उसकी रुचि नही । वह तो वैरागिनी होगी। नेमिनाथ की सच्ची दासी बनेगीश्री जदुपति प्रभु सौ प्रीति लगी। कहां थे मंडन करूं कजरा नैन भलं, पशुयन बंष निहारि दयानिधि, जग प्रसारि लखि भये हैं विरागी। -माणिकचंद हो रे वैरागन नेम की चेरी।। वन को प्रस्थान करने वाले नेमिनाथ लौकिक माया शीश न मंजन देउ, मांग मोती न लड़े, मोह से उदासीन राजमती को पहचान न सके - राजमती अब पूरह तेरे गुनन की बेरी। -रत्नकीर्ति का यह उलाहना कितना मार्मिक है व्याधि: ' इस अवस्था में विरहिणी को प्रिय-मिलन की प्राशा कहारी, कित जाऊँ सखी मैं नेमि गये वन मोरे री। अत्यन्त क्षीण हो जाती है। उसको शामिल करने के कहा चूक प्रभु सौं मैं कोनी, जो पीड मोह न लारै री।। -द्यानतराय । प्रसाधन भी प्रतिकूल साबित होते हैं। राजमती भी उग: प्रिय-वियोग में इतनी संतप्त है कि कर्पूर, कमलदल चन्द्रइस अवस्था में पहुँच कर विरहिणी को सुखद वस्तुएं किरण मादि प्रसाधन उसके संताप को बढ़ाते ही हैंदुःखद प्रतीत होती हैं। राजमती को भी पावस कालीन नेमि बिना न रहै मेरा जियरा। घटाएं, नन्हीं नन्हीं फहारें कीर, कोयल पपीहादि के स्वर हेररी हेली तपतउरकेसो, लावत क्यों न निज हाथ न नियरा, अब अच्छे नहीं लगते । सप्तरंगी इन्द्रधनुष, धन गर्जन तो करि करिधर कपूर कमलदल, लगत कर कलापरसियरा। उसका हृदय बेघते हैं 'भूषर' के प्रभु नेमि पिया बिन, शीतल होय न हियरा।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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