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जैन काव्य में विरहानुभूति
डा० गंगाराम गर्ग
कवियों की साधना में विरह का महत्त्वपूर्ण स्थान तड़पती ही रही। राजमती की नेमिनाथ से मिलन की है। विरह की अनुभूति प्रेम मे तीव्रता, नवीनता लाने के इसी तड़पन और पीड़ा में जैन भक्तों की प्राराध्य के प्रति लिए बड़ी उपादेय होती है तथा काव्य-मर्मज्ञों के लिए विकलता व प्रातुरता अन्तनिहित है। जैन साधकों ने मर्मस्पर्शी तथा मधुर, इसीलिए श्रेष्ठ कवि अपने काव्य मे चेतन के कुमति से प्रेम करने पर सुमति की तड़पन विरह का वर्णन करते आये है। आदि कवि बाल्मीकि के दिखलाकर प्राध्यात्मिक विरह के भी थोड़े चित्र प्रस्तुत राम के प्रलाप, कालिदास के अज और रति के विलाप किये है। तथा पत्थरों को भी रुला देने वाले भवभूति की करुणा हिन्दी साहित्य में विरह की १० प्रवस्थायें मानी गई विगलित वाणी से काव्य-प्रेमियो का मन आज भी सिक्त है-अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, प्रलाप, है। हिन्दी मे जायसी की नागमती के ग्रासू युग-युगो तक।
उन्माद, व्याधि, जड़ता और मरण । इनमें से 'उन्माद' के न भुलाये जा सकेंगे। समाज के कल्मष-कर्दम को फेकने
के अतिरिक्त विरह की सभी अवस्थाये जैन काव्य में उपमे प्रयत्नशील कबीर प्रादि सत कवियों ने भी अन्तःकरण
लब्ध होती हैमे ज्ञान उत्पन्न करने के लिए मामिक विरह रागिनियाँ
अभिलाषा :अलापी है । कृष्ण काव्य-भूमि का वह भाग अधिक मधुर और पाकर्षक जो गोपिकामों की अविरल अश्रुधाग से
अभिलाषा विरहानुभूति की पहली अवस्था है। इनमें अभिसिञ्चत है। इसी प्रकार द्यानतराय, जगजीवन,
विरहिणी को प्रिय-दर्शन की सामान्य इच्छा रहा करती नवल, पावदास प्रादि जैन साधको का विशाल काव्य
है । राजमती नेमिनाथ के दर्शन पर ही अपनी प्रसन्नता सागर की विरह-उर्मियो द्वारा तरगायित होने से वचित नही आधारित मानती है
देख्यो, री! कहीं नेमिकुमार। हिन्दी काव्य मे विरह के दो रूप होते है-१. नननि प्यारो नाथ हमारो प्रान जीवन प्रानन प्राधार । लौकिक विरह २. अलौकिक विरह । लौकिक विरह मे
-भूघरदास पालम्बन और प्राश्रय लौकिक होते है अथवा लौकिक चिन्ता :प्रतीत होते है यथा-नागमती-रत्नसेन, गोपी कृष्ण । सामान्यतः अभिलापा से ही जब प्रियतम के दर्शन अलौकिक विरह में पालम्बन अलौकिक होता है । कबीर, नही होते, तो विरहिणी को उसका विरह पीड़ित करने दादू प्रादि सभी सन्तों का विरह इसी प्रकार का है। जैन लगता है । प्रब बह चिन्तित रहने लगती है। राजमती कवियों का विरह वीतरागी तीर्थकरो के प्रति है, अतः वह वियोग के प्रारम्भिक क्षणों मे स्वप्न में प्रिय-दर्शन का अलौकिक है। जैन कवियों ने अपनी विरहजन्य वेदनायें किञ्चित् लाभ उठा लिया करती थी, किन्तु कोरे स्वप्न राजमती के माध्यम से परोक्षरूप में नेमिनाथ (तीर्थकर) उसके वेदनाग्रस्त हृदय को कब तक सहलाते ? रंगीन तक पहुँचाई हैं । जूनागढ़ के राजा उग्रसेन की पुत्री राजमती स्वप्नों का महल भी जब ढह गया तो वह तड़पती पुकार का विवाह नेमिनाथ से होना था। नेमिनाथ वारात की उठीभोज्य-सामग्री के लिए एकत्रित पशुमों को देखकर इस अज क्यों देर हो, जपति नेमिकुमार प्रभू सुनि । हिंसक संसार से विरक्त हो गये और राजमती विरह मे किंचित सुल सपने का वीत्यौ, अब दुःख भयो सुमेर हो।