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________________ शुभचन्द्र का प्राकृत व्याकरण म० मा. ने. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट अनेकान्त (अक्तूबर १९६८, वर्ष २१, किरण ४) (४) इस प्राकृत व्याकरण की प्रतियाँ विपुल मात्रा में डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने एक लेख लिखा है । इस विषय में नहीं मिलती हैं। डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने किस प्रति में संशोधक विद्वानो के लिए कई सन्दों का निर्देश करना का उपयोग किया है, इसका उल्लेख नही है। जिन रत्नमैं अपना कर्तव्य मानता हूँ। कोश में इसका निर्देश 'चिन्तामणि व्याकरण' ऐसा किया (१) 'शुभचन्द्र और उनका प्राकृत व्याकरण' तथा है, किन्तु वहाँ भी हस्तलिखितों का निर्देश नहीं है। मैं उसका 'श्रुतसागर के प्राकृत व्याकरण के सम्बन्ध' इस सुनता हूँ कि इसकी एक हस्तलिखित प्रति व्यावर में है, विषय पर पूर्व में बहुत कुछ लेखन हो चुका है। उसका और उसकी प्रतिलिपि शायद शोलापुर में उपलब्ध है । सदर्भ इस प्रकार है: i) शभचन्द्र एण्ड हिज प्राकृत ग्रामर, अनल्स प्रॉफ दि भांडारकर ओरिएण्टल इन्स्टिट्यूट, पूना, (५) मैंने १९३० में शुभचन्द्र व्याकरण के सूत्रपाठ की प्रतिलिपि की थी, वह अभी मेरे पास उपलब्ध है। भाग-१३, अक १, पृष्ठ ३७-५८, ii) कार्तिकेयानुप्रेक्षा, अगस्त १९६०, प्रस्तावना, पृष्ट ७९-८८, iii) नितिडोलची शुभचन्द्र के प्राकृत व्याकरण का अध्ययन तथा उसकी का प्राकृत व्याकरणों पर लिखा हुमा फ्रेन्च ग्रन्थ । मौलिकता का निर्णय करते समय दो मुख्य बातें ध्यान मे (२) इस व्याकरण के प्रकाशन के बारे में बहुत कुछ रखनी चाहिए। 'शुभचन्द्र ने अपने व्याकरण में ऐसे कितने प्रयत्न पहले हुए थे, परन्तु विपुल हस्तलिखित ग्रन्थ उपलब्ध नियम और उदाहरण दिये है, जो पूर्ववर्ती व्याकरणकारों नहीं हुए पोर जो हुए वे भी असमाधानकारक थे। व्याक- ने-खासकर त्रिविक्रम और हेमचन्द्र ने नहीं दिये करणसरीखे ग्रन्थों का जल्दबाजी से सम्पादन करना है। (२) और ऐसे कौन-से साहित्य का-खासकर प्राकृत दुःसाहस है यह दिवंगत पडित प्रेमी जी की सूचना ध्यान ग्रन्थों का-शुभचन्द्र ने अपने व्याकरण मे निर्देश और में रखकर इस ग्रन्थ की प्रसिद्धि अब तक नहीं हुई। उपयोग किया है जिनका उपयोग हेमचन्द्र और त्रिविक्रम (३) पंडित अप्पाशास्त्री उदगांवकर ने जो हस्त- ने नही किया है । लिखित प्रति मुझे दी थी, वह अब दुर्मिल है। ईडर में पाशा करता हूँ कि इस विषय पर जहाँ-जहाँ प्रति से ५० प्रेमी जी ने जो प्रतिलिपि कराई थी, वह सशोधनात्मक कार्य हुआ है, उसे ध्यान मे लेकर आगे कार्य सम्भवतः पं० प्रेमी जी के संग्रह मे होगी ही। करने से ही सशोधन का क्षेत्र बढ जायेगा। . संग्रह और दान कवि-जलघर ! तुझे रहने के लिए बहुत ऊंचा स्थान मिला है। तू सारे ससार पर गर्जता है । सारा मानवसमाज चातक बनकर तेरी ओर निहार रहा है। तेरे समागम से मयूर की भाँति जन-जन का मानस शान्ति उद्यान में नृत्य करने लग जाता है। तू सबको प्रिय लगता है। तु जहाँ जाता है, वही तेरा बड़ा सम्मान होता है। पर थोड़ा गौर से तो देख, तेरे पिता समुद्र की प्राज क्या स्थिति हो रही है। पिता होने के नाते उसे भी बहुत ऊँचा सम्मानीय स्थान मिलना चाहिये था। किन्तु उसे तो रसातल-सबसे निम्न स्थान मिला है। उसकी सम्पत्ति का तनिक भी उपयोग नहीं होता । मेघ ! इतना बड़ा अन्तर क्यों ? जलघर-कविवर ! इस रहस्य की गिरि-कन्दरा में एक गहन तत्त्व छिपा हुआ है। वह है-सग्रहशील न होना । संग्रह करना बहुत बड़ा पाप है। यही मानव को नीचे की ओर ढकेलने वाला है। संग्रह वृत्ति के कारण ही समुद्र को रहने के लिए निम्न स्थान मिला है और उसका पानी भी पड़ा-पड़ा कड़वा हो गया । समुद्र ने अपने जीवन में लेना ही अधिक सीखा है और देना अत्यन्त प्रल्प । मैं देने का ही व्यसनी हूँ। सम्मान और असम्मान का, उन्नति और अवनति का, निम्नता और उच्चता का यही मुख्य निमित्त है ।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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