________________
ऊन (पावागिरी) के निर्माता राजा बल्लाल
काल वहीं है । यथा--(१) मूर्ति संभवनाथ स. १२१८ पास अनेक गायें चरती हैं तथा विश्राम के लिये यहाँ ......यह दो लाईन में होते हुए भी अस्पष्ट है (२) प्रदाजा बैठती है, अत: इस मन्दिर को 'ग्बालेश्वर मन्दिर कहते १२॥ फूट ऊवी मूर्ति ३ के प्रत्येकी लेख संवत १२६३ जेष्ठ है।' लेकिन मेरा अनुमान विशेषण से वहाँ पर कुछ वदी १३ गुरी......प्राचार्य श्री यशकीर्ति प्रणमति । ऐतिहासिकत्व बताना ऐसा है। जैसे-शिरपुर के एक (यह लेख बहुत बड़ा है) (३) सं० १२६३ जेष्ठ वदी प्राचीन मन्दिर में एक शिलालेख में-रामसेन के शिष्य१३ गुणे (गुरी) सिधी प० तरगसिह सुत जातासह ग्वालगोत्री होने का उल्लेख है। तथा कोशरिया जी के प्रणमति । (४) प्राचार्य श्री प्रभाचन्द्र प्रणमति नित्य । मन्दिर में ग्वाल (गवाल) गोत्री दिगबर जैनों द्वारा प्रतिष्ठा स० १२५२ माघ सुदी ५ श्री चित्रकूटान्वये साधु (हु) करने के उल्लेख है, उसी प्रकार उस मन्दिर के प्रतिष्ठाबाल्ह भार्या शाल्ह तथा मन्दोदरी सुत गोल्ह रतन भालू कार कोई ग्वालगोत्रीय होंगे। ग्वालीय गढ़ किले का प्रणमति नित्यम् । तथा कुछ मूर्तियों पर इस प्रकार प्रतिभा
निर्माता कोई ग्वाल राजा था ऐसा बताया जाता है। सित होता है-(५) स० १२४२ माघ सुदि ५......
अतः इस बाबत कुछ सशोधन होना चाहिए । क्योकि ...आदि ।
रामसेन के शिष्य के नाते शिरपुर के इतिहास मे श्रीपाल इन मूर्तिलेखों के काल का अध्ययन करने से पता
राजा को ही ग्वाल गोत्रीय बताया जा सकता है उसी चलता है कि इस क्षेत्र पर मन्दिरों की रचना ई० स०
प्रकार उसके वंशज बल्लान का यह प्रमुख मन्दिर अगर ११६२ के पूर्व ही हो गयी होगी । अत: खेरला शिलालेख
हो और उससे इस मन्दिर को ग्बालेश्वर मन्दिर कहते हों मे उध्दत सिंह के पुत्र बल्लाल ही ऊनके निर्माता हैं । न
तो भी खेरला शिलालेख उद्धत मालव नरेश बल्लाल को ही कि होयसल नरेश बल्लाल । क्योंकि इस होयसल वीर
___ इसके (उनके) निर्माता कह सकते हैं। बल्लाल का काल ई. स. ११७३ से १२२० है। राजा
तथा इस बल्लाल को ई० स० ११३५ में अचानक बल्लाल के जीते जी ही वहाँ प्रतिष्ठा नही हो सकती
राज्य प्राप्ति में सफलता मिल गयी होगी। ऐसा इतिहासकारण जब राजा बल्लाल वहाँ एक प्रतिम मन्दिर नही
कारों का कथन है इससे भी उनके निर्माता राजा बनवा पाया (सिर्फ ६६ ही बनवा पाया) तब १०० मन्दिर
बल्लाल के प्राख्यान से पुष्टी ही मिलती है तथा उसने की पूर्ति के पहले मन्दिरों में प्रतिष्ठा कार्यों में वह तैयार
दोनों नागों का नाश कर धन प्राप्त करने का उल्लेख तो नहीं हो सकता। तथा इस होयसल नरेश की मृत्यु कोई
किया ही है कि, जिसके प्रतर्गत शत्रु तथा बाह्य शत्रु का यकायक होने का उल्लेख नही मिलता जिससे उसकी १०.
नाश कर और विपुल धन सचय कर ई. स. ११३५ मे मन्दिर बनवाने की प्रतिज्ञा अधूरी रह जाय । अतः होयसल महत्व प्राप्त किया हो। नरेश के बदले उज्जयिनी नरेश बल्लाल की संभावना
इसकी अधिक पुष्टि के लिये उज्जयिनी नरेश की जरूर है। लेकिन जब तक उसके जैनत्व पर प्रकाशन
स्वतत्र खोज, और उन क्षेत्रों का बारीकी से अध्ययन तथा पड़े तब तक उसको उनके निर्माता या जैन मन्दिरों के
उत्खनन होना चाहिए। क्योंकि वहाँ १२वीं सदी के अनेक निर्माता नहीं कहा जा सकता । मन्दिरों के निर्माता के
अवशेष प्राप्त हुये हैं तथा और होने की सभावना व्यक्त सम्बन्ध में वहाँ के एकाघ मन्दिर पर शिलालेख अवश्य ही
वश्य हा की जाती है । इन्दौर गजेटीयर मे उल्लेख है कि वहाँ प्राप्त होगा।
इसी समय के धारा नगरीके परमार राजामों के शिलालेख दूसरी महत्व की बात यह है कि, उनके प्रमुख मन्दिर पाये जाते हैं। (ई. स. ११६५ धारा में सुमलवर्म देव को 'ग्वालेश्वर मन्दिर' कहते हैं। यद्यपि इसका अर्थ वहाँ का राज्य था।) प्रतः इसी क्षेत्र के साथ इसका परिकर वाले या इतिहासकार यह बताते हैं कि, 'इस मन्दिर के को अगर इस दृष्टि से देखा जाय तो ही इस क्षेत्र के १ यह सब मर्तिलेख ऊन तीर्थ के प्रसिद्ध किताब पर निमीता व इतिहास पर पूरा प्रकाश पड़ सकता है। से लिये है।
२ ग्वाल गोत्री श्री-रामसेनु...।