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________________ पाण्डे लालचन्द का बरांग चरित १०७ युवराज बना दिया। इस सर्ग का नाम अपूय रखा । इच्छा व्यक्त की। संयोगवश यह लेख वराग को मिल अष्टम सर्ग-मथुरापुरी में राजा इन्द्रमेन व उसका गया । देवसेन पोर बरांग का गाढ़ परिचय हुमा । मनोपुत्र उपेन्द्रसेन राज्य करते थे । इन्द्रसेन ने देवसेन के पास रमा के साथ वरांग का विवाह हमा। सभी लोग परांग उसका हाथी लेने के लिए दूत को ललितपुर भेजा। के साथ धर्मसेन के पास पहुंचे। धर्मसेन और वरांग का देवसेन ने इसे अपना अपमान समझा। फलतः दोनों में पिता-पुत्र के रूप में भेंट हुमा। इस सर्ग का नाम बरांग युद्ध हुमा। इन्द्रसेन की ओर से अंग, वंग, कलिंग, कस- प्रत्यागम नृपसंगम नाम दिया है। मीर, केरल प्रादि के राजा रण में उतरे । देवसेन के नगर एकादश सर्ग-वरांग ने विविध भोग भोगे । देवसेन को भरपूर लूटा गया। देवसेन भागना चाहता था परन्तु ने अपनी पुत्रियों को बरांग की माता और अपनी बहन नहीं भाग सका । अभेद्य कोट के भीतर बैठकर इन्द्रसेन गुणदेवी के लिए सौपा। सुषेण व माता मृगसेना को को पराजित करने के लिए मन्त्रियों से विचार-विमर्श सम्पदादिदान देकर सम्मानपूर्वक विदा किया। विजय किया। किसी एक मन्त्री ने सागरवद्ध के धर्मपुत्र भट प्राप्ति के लिए वरांग का ससन्य गमन । इन्द्रसेन ने भय(रांग) की वीरता की प्रशंसा की और उसे युद्ध में भीत होकर अपनी मनोहरा नामक पुत्री का वरांग के साथ अपनी भोर से लड़ने के लिए प्रामन्त्रित करने की सलाह विवाह किया। यहाँ वरांग की विजयों का उल्लेख तो दी। वराग देवसेन का भानजा निकला। इन्द्रसेन को नहीं किया गया पर इतना तो अवश्य लिखा गयाविजित करने पर राजा ने उसे पाषा राज्य व सुन्दरी सुता "उदधि अन्त लौ अवनी सबै जीती नप वरांग ने तवं." देने को कहा । इस प्रसंग में प्रस्तुत वरांगचरित मे सस्कृत राज्य भेट करते समय यह बात कुछ अधिक स्पष्ट हो ग्रंथों की तरह सेना प्रयाण तथा युद्ध का सुन्दर वर्णन जाती है। विदर्भ का राज्य उदषिद्ध को, कलिंग का मिलता है । कृषक समाज ने भी इस युद्ध में भाग लिया। राज्य उदधिदृद्ध के कनिष्ठ-पुत्र को, पल्लव का राज्य उपेन्द्र व विजयकुमार तथा उपेन्द्र और वरांग के युद्ध का अनन्त सचिव को, बनारस का राज्य चित्रसेन मन्त्री को, जीवन्त वर्णन यहाँ उपस्थित किया गया है। इसी प्रसंग विसालापूरी का राज्य प्रजित मन्त्री को, मालव देश मे जैनधर्म के अनुसार जातिवाद पर भी विचार किया का राज्य देवसेन मन्त्री को भेंट किया। बाद में सरस्वती गया है । उपेन्द्र द्वारा वरांग पर चक्रचालन हुआ । वरांग नदी के किनारे अनन्तपूर की स्थापना व उस पर स्वयं ने उसका खण्डन किया। उपेन्द्र का युद्ध में मरण हुमा। वरांग राज्य करने लगे। इन्द्रसेन को भी वरांग ने पराजित किया। यहाँ वरांग को द्वादश सर्ग'-वरांग एक दिन अनूपमा के घर गये। 'कश्चिद् भट' कहा गया है । इस सर्ग को इन्द्रसेन पराजय 'अनूपमा ने वरांग से धर्मस्वरूप पूछा । इस प्रसंग में कवि नाम दिया गया है। ने त्रिरत्न, बारह बत, जिन मन्दिर निर्माण, जिनबिम्ब नवम् सर्ग-वरांग के साथ देवसेन ने अपनी पुत्री प्रतिष्ठा, पंचामताभिषेक मादि का वर्णन किया है । धर्मसुनन्दा को विवाहा । प्राधा राज्य भेंट दिया । सागरवृद्ध स्वरूप सनकर अनूपमा ने नगर के बीच एक चन्द्रप्रभ के घर दम्पति सुख पूर्वक रहें। नप सुता मनोरमा वरांग जिन मन्दिर का निर्माण कराया। बड़े उत्साह से बिम्बपर प्रसक्त हो गई। परम्परानुसार चित्र निर्माण, रुदन प्रतिष्ठा हुई। व वियोगावस्था का चित्रण किया गया। वरांग के पास कालान्तर में बरांग का एकान्तवादियों के साथ दूती पहुंची । वरांग ने अपने एकपत्नी व्रत का स्मरण शास्त्रार्थ हमा। स्यावाद के माधार पर उन्होंने सभी को करा दिया। इस सर्ग को 'सुनन्दा लाल मनोरमा दुःख- पराजित किया। कुछ समय बाद अनूपमा को पुत्र लाभ विरहावस्था' नाम दिया है। बशम् सर्ग-धर्मसेन के पुत्र सुषेण को शत्रुनों ने १. प्रस्तुत प्रति में एकादशव द्वादश शर्ग के बीच कोई पराजित किया। धर्मसेन ने देवसेन के पास पहुँचने की सीमा रेखा नहीं।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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