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अनेकान्त
हमा । उसका नाम सुगात्र रखा गया । विवाह भी हुमा। अव्यय अचित ज्ञान मई महातेज धाम, इस सर्ग का नाम सिद्धायतन निर्माण जिन बिम्ब-प्रतिष्ठा
असे शुद्ध पातमा को चिंतन चहत है ।। प्रतिपादक रखा है।
ताही के प्रभाव सेती केवल सु ज्ञान पाय, त्रयोदश सर्ग-वरांग ने एक दिन प्रात.काल स्नेहा
वसविधि कर्म नाश शिव जे लहत हैं। भाव से दीपक को बुझते हुए देखा। इसका असर उसके ।
असे जे महान गुणथान सूर सदा हमें, मन पर अधिक पड़ा। फलतः संसार से उद्विग्न हो गया।
ज्ञान लाल भी नमो नमो करत है ॥४॥ धर्मसेन से जिनमुद्रा धारण करने की अनुमति मांगी पर
श्री जिन पागम सागर विचार समेत,
है पिता के भाग्रह से वे कुछ समय और गृहस्थावस्था में
पढे नित जे चित लाई। रहे। बाद में सुगात्र को अभिषिक्त कर वरदत्त मुनि से
शिष्यन को पुनि आप पढावत, मुनि दीक्षा ग्रहण की। उदधिवृद्ध आदि लोग भी साथ हो
प्रीत समेत क्रिया सिखलाई ।। लिए। वरांग मुनि सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए। वहाँ
पंच प्रकार मिथ्यात महातम, से च्युत होकर नर जन्म ग्रहण कर मुनिव्रत धारण कर
नासन कू उमगे मुनिराई। मोक्ष जावेंगे।'
ते उवझाय सदा सुखदाय, अन्य का प्रारम्भ भाग
हरौ अघपुज नमो सिर नाई ।।५।। कवि ने प्रथ के प्रारम्भ में जिनेन्द्र भगवान को प्रणाम समदमधारी क्षमा सेज के अधिकारी, किया है। उसका मादि भाग इस प्रकार है
निज रस लीन अपहारी कर्म रोग के। कनक वरन तन आदि जिन हरन अखिल दुख वन्द। दोय विध तप धार तत्त्व को करे विचार, नाभराय मरुदेवि श्रुत बंदो रिषभ जिनेंद ॥१॥
तजिकै सकल पास ज्ञाता उपजोन के ।। श्री जिन को सुभज्ञान मूकर प्रति निर्मल राजत ।
भो जल तरौ या राग दोस के हरैया, जामै जगत समस्त हस्त रेखावत भासत ॥
सिव तिय के चहैया भोगी जिन रस भोग के। मोह सहित संसार विष मन जिन चिन्तन का। पैसे मनि निरग्रंथ देह मोहि मोक्ष, पावन करह सदीव चित्त सो जिन वर तन को ।।
पन्थ अविचल अगधारी तीन काल जोग के ॥६॥ अति विशुद्ध वर सुकुल ध्यान चलकर सुखदायक । निर्मल केवल ज्ञान पाय तिष्टे जग नायक ।। मूलसंघ सरसुती गछ बलात्कार गण, वसुविधि कर्म प्रचण्ड नास करि एक क्षिनक मे।
धारक विसालमति विदित भुवन मे। अजरामर सिव सुख लह्यो जिन एक समय मे ॥ भट्टारक वधमान गण गुण को निधान, असे जे सिद्ध अनंत गुण सहित वसत शिव लोक मे।
वादीभइव पचानन गाढौ निजपन मे ।। तो परम सुद्ध ता हेत मुझ होऊ देत नित धोक मैं ।३। कर्ता पुरानन को वक्ता जिन ग्रंथन को,
इसके बाद सवैया इकतीसा लिखा गया है। उसका अक्षण को जेता जाकै माया नहि मन में। भाव व भाषा सौन्दर्य बहुत अच्छा है
भूपति वरांग को चरित्र यह कोनौ सार, हय गज रथ राज भारी सुत धन साज,
रहौ जयवन्त ससि रवि लौ गगन मे ॥७॥ विनाशीक चित चाह न धरत है।
देश भदावर शहर अटेर प्रमानिये। १. सर्ग की यहाँ समाप्ति होनी चाहिए पर मालोच्य तहां विश्वभूषण भट्टारक मानिये ।। प्रति में प्रशस्ति लिखने के बाद यह समाप्ति दिखाई तिनके सिष्य प्रसिद्ध ब्रह्म सागर सही।
अग्रवाल वर वंस विष उतपति लही।