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________________ पाण्डे लालचन्द का वरांग चरित १०६ ब्रह्म उदधि को शिष्य पुनि पांडे लाल अयान । तिनको सबद प्रचंड दसौ दिसमें विसतारत । छन्द शब्द व्याकर्ण को जाम नाहीं ग्यान ॥ अंजन अंचल समान श्याम उन्नत तन भाषत । संवत स अष्टादस शत जान । फेरत संड दण्ड देत दीरघ सुप्रकाशत ।। ऊपर सत्ताईस परवान ॥ अतिक्षुधित निरख गज उछरिक, माहु सुकल पावै शशिवार। तिहि सन्मुख घायो जब। ग्रन्थ समापत कीनौ सार ।। निज दतनि सौ मातंग ने हरि, छन्द विधान को उर भेद्यो तबै ।।५-३७॥ युद्ध का जीवन्त चित्रणआलोच्य वरांगचरित में दोहा, काव्य, छन्द, छप्पय, खैच कान परजंत वीर को दंड कौ। सवैया, इकतीसा, अडिल्ल, चौपाई, नाराच, हरिगीत, रोला, भुजंगप्रयात सबैया, तेईसा, तोटक, कुण्डलिया, छोरत तीछन सायक धरत उमंग कौ।। पद्धड़ी, सोरठा, कुसुमलता, वरवीर आदि छन्दों का उप भेदत है छाती अरीन की जाय के। पीवत भये रुधिर ते वान अघाय के। योग किया गया है। कुल छन्द १,२३४ है। सर्ग-क्रम से कवच धरै तन माहि शूर या जेह जू । ५५, ७८, ५४, ६५, १३२, ७३, १०१, १६५, ८४, ९४, १७२ और १०१ पद्य है। कवि को अनुष्ठप, सर्वया इक छाती तिन की भेद तिस्य सर तेह जू ॥ तीसा, चौपाई और अडिल्ल अधिक प्रिय लगते हैं। प्रायः सभट नरन को प्रथम डार निरधार ज। सभी छन्द निर्दोष है। छन्दों का उपयोग भावानुसार पार्छ परत भये ते भूम मझार जू ॥८-१०५॥ किया गया है। इसी प्रकार अन्य वर्णनों में भी कवि ने विषय के भाषा शैली अनुरूप भाव और भाषा का प्राधान किया-पत्नी विलय कवि की भाषा में लय व प्रवाह है। सरलता के ७, ३६-४३, नृपविलाप ७. ६५-६८, नृप सुता का वियोग कालीन विलाप 8-४६, ससार अवस्था का चित्रण, ७, कारण पाठक का मन ऊबता नहीं। पद्यों में जहाँ एकता, ८१-६१, १३, १-११, तप वर्णन, १३, ७४-७८, पुण्यमुदा, कश्चित् जैसे संस्कृत शब्द मिलते है वही धोस पाप का चित्रण ४, ६४, ५, ३२ प्रादि। इन वर्णनों को (३-३४), मौसों जोलो (-८५), फैट (८-६३), कित पढकर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत कृति मे प्रायः जायगो (८-६५), लर (-२७८) आदि जैसे शुद्ध बुन्देल सभी रसो का उपयोग किया गया है। खण्डी शब्द भी देखने को मिलते हैं। सच तो यह है कि पाण्डे लालचन्द की यह कृति 'वरागचरित' भाव बुन्देलखण्डी का प्रभाव ग्रंय पर अधिक है। होनाभी चाहिए। और भाषा दोनों दृष्टियो से निःसन्देह उच्च कोटि की है । कवि व उसकी कृति, दोनों राजस्थान मे प्रमूत है। उसे आद्योपान्त पढ़ने पर कर्ता को महाकवि और कृति कवि के प्रायः प्रत्येक चित्रण में स्वाभाविकता झल को महाकाव्य कहे बिना जी नही मानता । महाकाव्य के कती है। प्रकृति चित्रण की मनोहारिता देखिये आवश्यक लक्षण इसमें मौजूद हैं। अत' कृति प्रकाशमद जल करत कपोल लोल अलिकुल झंकारत। नीय है। . धन सम्पदा से ममता हटाने का उपदेश जासों तू कहत यह सम्पदा हमारी, सो तो, साधनि अडारी जैसे नाक सिनकी। जासों तूं कहत हम पुण्य जोग पाई सो तो, नरक की साई बड़ाई डेढ़ दिनकी । घेरा मांहि परयो तू विचार सुख आखिन को, माखन के चूटत मिठाई जैसें भिनकी । एते पर उदासी होय न जगवासी जीव, जग में असाता है न साता एक छिनकी।
SR No.538022
Book TitleAnekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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